Wednesday 28 November 2012

कसाब को फांसी के बाद




यह भारत के किसी गांव की कहानी है। एक ही परिवार की दो शाखाओं में खेती की जमीन पर मिल्कियत को लेकर झगड़ा होता है और बढ़ते-बढ़ते खून-खराबे तक पहुंच जाता है। कुछ लोग मारे जाते हैं और कुछ को कड़ी सजा भुगतना पड़ती है। इनमें से एक पुरुष कई साल जेल में बिताने के बाद घर लौटता है, तो उसकी पत्नी उससे मांग करती है कि तू मुझे फिर एक बेटा दे दे ताकि वह बड़े होकर अपने परिवार में हुई हत्याओं का बदला ले सके। अगर मेरी याददाश्त सही है तो जगदीशचन्द्र के उपन्यास ''कभी न छोड़े खेत'' का अंत इसी वार्तालाप के साथ होता है। अगर लेखक और उपन्यास का नाम मुझे सही-सही याद न भी हो तब भी इस कहानी के पीछे जो सच्चाई छिपी है, क्या उससे इंकार किया जा सकता है!

भारत उपमहाद्वीप में यह कथा न जाने कितने हजार सालों से बार-बार दोहराई जाती रही है। ऐसा कोई प्रसंग छिड़ने पर मुझे हमेशा राजमोहन गांधी की मूल अंग्रेजी में लिखी पुस्तक ''रिवेन एण्ड रिकन्सीलिएशन'' का ध्यान हो आता है। भारत के सामाजिक इतिहास की बहुत सटीक व्याख्या उन्होंने इस पुस्तक में की है। फिलहाल वह हमारी विवेचना का विषय नहीं है। मुझे लगता है कि इस कहानी को अगर  थोड़ा विस्तार दें तो इसे शायद भारत के विभिन्न प्रांतों के बीच संबंधों पर लागू किया जा सकता है। मसलन, बेलगांव को लेकर महाराष्ट्र व कर्नाटक के बीच विवाद या ऐसे और तमाम प्रकरण। अगर थोड़ा और विस्तार करें तो हमें गांव और प्रदेश की जगह हम शायद दो पड़ोसी देश को देख सकेंगे: भारत-पाकिस्तान, भारत-बंगलादेश या फिर भारत-श्रीलंका। बुनियादी सवाल यही है कि अंतत: प्रतिशोध का पलड़ा भारी बैठता है या सद्भाव व साहचर्य्य का। 

26-11-2008 को मुंबई पर हुए आतंकवादी हमले में जीवित पकड़े गए एकमात्र आतंकवादी युवक आमिर अजमल कसाब को फांसी तामील हो जाने के बाद दोनों देश की जनता इस बुनियादी सवाल पर नए सिरे से विचार कर सकती है। कसाब जब जिंदा पकड़ लिया गया था, यह तो उस वक्त ही तय हो गया था कि उसे आगे-पीछे मृत्युदंड मिलेगा ही। यह भारत के जनतंत्र की खूबी है कि आम जनता में उमड़े तीव्र आक्रोश, मृतकों के परिजनों की पीड़ा तथा तत्काल चौराहे पर फांसी पर लटका देने की मांग- इन सबके बीच भी देश का न्यायतंत्र निर्धारित प्रणाली के अनुसार अपना काम कर सका। यह शिकायत किसी को नहीं हो सकती कि कसाब को सुनवाई का उचित मौका दिए बिना फांसी दे दी गई।

21 नवंबर को फांसी देने के बाद से अनेक तरह की प्रतिक्रियाएं सामने आई हैं। इसमें पाकिस्तान के किसी सरकारी प्रवक्ता का यह बयान गौरतलब है कि  कसाब को फांसी देने का कोई प्रभाव सरबजीत के मामले पर नहीं पड़ेगा, वह अपनी तरह से चलता रहेगा। इसके अलावा यह भी कहा गया कि जिस तरह भारत में कानून अपना काम करता है उसी तरह पाकिस्तान में भी अदालती प्रक्रिया अपने ढंग से चलती है और इसलिए हाफिज सईद के मामले में भारत को पाकिस्तान पर भरोसा करना चाहिए। इस प्रतिक्रिया का पहला हिस्सा किसी हद तक आश्वस्त करता है कि सरबजीत की रिहाई शायद अभी भी मुमकिन है। दूसरे हिस्से का जहां तक सवाल है यह जगजाहिर है कि पाकिस्तान की चुनी सरकार का कोई नियंत्रण आतंकवाद पर नहीं है, कि उन्हें सेना के एक प्रभावशाली वर्ग का संरक्षण मिला हुआ है और उसके इस आश्वासन पर विश्वास करना कठिन है।

जहां तक अपने देश की बात है, सामान्य तौर पर फांसी दिए जाने का स्वागत ही किया गया है, लेकिन गौर करना चाहिए कि इसमें प्रसन्नता व्यक्त होने के बजाय चार साल के लम्बे अध्याय के पटाक्षेप हो जाने का संतोष ही था। चूंकि फांसी बहुत गुपचुप तरीके से दी गई इसलिए उसे लेकर किसी भी तरह का वातावरण बनाने का अवसर किसी को भी नहीं मिल सका। भारतीय जनता पार्टी ने बाद में वही प्रतिक्रिया दी जो कि अपेक्षित थी कि अफजल गुरु को फांसी कब दी जाएगी। सत्तारूढ़ कांग्रेस को परेशान करने के लिए यह प्रश्न उपयोगी हो सकता है, लेकिन अफजल गुरु प्रकरण में ऐसे कुछ पेचीदे बिन्दु हैं जिनसे भाजपा अनभिज्ञ नहीं है। इस नाते उचित होगा कि वह इस मामले को राजनीतिक रूप से भुनाने की कोशिश न करे। दो दशक पूर्व जेकेएलएफ नेता मकबूल बट को फांसी देने पर जो प्रतिक्रिया हुई थी वह राजनीति के जानकारों को याद होना चाहिए। दूसरे, जिस तरह सरबजीत के बेगुनाह होने का लोगों को भरोसा है उसी तरह अफजल गुरु के अपराध को लेकर भी कानूनी बिरादरी एकमत नहीं है। 

यह गौरतलब है कि कसाब को फांसी देने के बाद भारत में न्यायविदों तथा राजनैतिक टीकाकारों के बीच से कुछेक नए बिन्दु उभरकर आए हैं। एक न्यायवेत्ता ने तो लिखा है कि कसाब को कानून के तहत अपनी सजा पर सुप्रीम कोर्ट में अंतिम पुनर्विचार याचिका दायर करने का अवसर नहीं दिया गया और इस तरह संविधान और दंड संहिता का उल्लंघन किया गया। एक सेवानिवृत्त उच्च सैन्य अधिकारी जनरल वी.एस. पाटणकर ने एक नए दृष्टिकोण से इस पर अपनी राय दी है। श्री पाटणकर जम्मू-काश्मीर क्षेत्र में भारतीय सेना के प्रमुख थे और वहां की स्थितियों को निश्चित ही बेहतर जानते होंगे। उन्होंने लिखा कि पाकिस्तान में जो आतंकवाद पनपा है उसके पीछे कोई धार्मिक कारण नहीं है। पाकिस्तान में बड़े पैमाने पर गरीबी है, बड़ी संख्या में नौजवान बेरोजगार हैं, इसलिए उन्हें पैसों का लालच देकर खरीद लेना आसान होता है। परिवार के लोग भी सोचते हैं कि गुरबत की जिंदगी से मौत भली। जनरल के अनुसार कसाब के घरवालों को पैसा देकर उसे आतंकी अभियान में शामिल कर लिया गया था। कुछ इसी तरह की बात चर्चित लेखिका शोभा डे ने भी की है। 

ये टिप्पणियां भारत-पाक संबंध, धार्मिक कट्टरता, जेहाद इन सारे मसलों पर पुनर्विचार का रास्ता खोलती है। इधर एक टीवी चर्चा में 2611 से सबक लेने के मुद्दे पर किसी विद्वान वार्ताकार ने कहा कि  911 के बाद अमेरिका पर दुबारा कोई आक्रमण नहीं हुआ जबकि भारत ने 2611 से कुछ नहीं सीखा। ये वार्ताकार भूल गए कि अमेरिका की भौगोलिक स्थिति भारत के मुकाबले बहुत अलग और कहीं ज्यादा महफूा है। इसके अलावा और भी बहुत से कारणों से भारत और अमेरिका के बीच तुलना करने की कोई तुक नहीं है। बहरहाल भारत और पाकिस्तान सहित सारे पड़ोसी मुल्कों को मिलकर अपना ध्यान इस बात पर केन्द्रित करना चाहिए कि हरेक देश में जनतंत्र कैसे पुष्ट हो, गरीबी और गैर-बराबरी कैसे दूर हो तथा नागरिकों को सम्मानपूर्वक जीने का हक कैसे मिले। सुखद, निरापद व शांतिमय भविष्य की शर्ते यही हैं।

देशबंधु में 29 नवम्बर 2012 को प्रकाशित 





 

Saturday 24 November 2012

बाल ठाकरे का निधन





बाल ठाकरे के निधन से शिवसैनिक अनाथ हो गए हैं और फिलहाल यह कहना मुश्किल है कि उध्दव और राज ठाकरे अलग-अलग या मिलकर भी इस रिक्त स्थान को भर पाएंगे या नहीं। आखिरकाल बाल ठाकरे शिवसेना के जन्मदाता थे और उनके बेटे व भतीजे उनके द्वारा खड़ी की गई राजनीतिक हैसियत के सही वारिस तो तभी कहलाएंगे जब वे शिवसेना को आज वह जहां हैं उससे आगे ले जा सकें। इस बारे में सोचते हुए ध्यान आना स्वाभाविक है कि बाल ठाकरे ने अपने बेटे उध्दव को ही युवराज बनाया था जबकि भतीजे राज ने इससे नाराज हो अपनी स्वतंत्र हैसियत बनाने के लिए न सिर्फ विद्रोह किया, बल्कि महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (मनसे) की स्थापना की और थोड़े ही समय में शिवसेना के वर्चस्व को चुनौती दे सकने लायक ताकत बटोर ली। इसे देखते हुए बड़ा सवाल तो यह है कि क्या दोनों भाईयों के बीच शिवसेना और मनसे का विलय या कम से कम साझा मोर्चा आने वाले दिनों में बन सकेगा।

बाल ठाकरे के निधन पर स्वाभाविक है कि उनके समर्थकों, प्रशंसकों और भक्तों ने अश्रुपूरित श्रध्दांजलि अर्पित की है। लता मंगेशकर ने 'हिन्दू हृदय सम्राट' कहकर उनका स्मरण किया है और इस तरह से एक सच्चाई बयान कर दी है। लताजी की अपनी राजनीति का अनुमान भी लगे हाथ हो जाता है। सुषमा स्वराज ने उन्हें 'शेर' कहकर याद किया है। मुम्बई का सिनेजगत तो लंबे समय से बाल ठाकरे का कायल ही रहा है; अगर कहा जाए कि श्री ठाकरे अनेक अर्थों में बालीवुड के संरक्षक और अभयदाता थे तो गलत नहीं होगा। प्रीतिश नंदी जैसे बुध्दिजीवी जिनको उन्होंने रायसभा में भेजा या अन्य तरह से उपकृत किया उनका शोकग्रस्त होना भी सहज है। एक बड़ी संख्या उन लोगों की भी है, जो बाल ठाकरे और उनकी सेना को मुसलमानों के खिलाफ उग्र और कटु विचारों के लिए सराहते थे। उनकी चिंता है कि अब मुम्बई का क्या होगा!

बाल ठाकरे भारत के राजनीतिक मंच पर एक प्रमुख अभिनेता थे, इसलिए उनके निधन पर श्रध्दांजलि तो राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, कांग्रेस अध्यक्ष, कांग्रेसी मंत्रियों व अन्य राजनीतिक दलों ने भी दी है, लेकिन इसमें भावोच्छ्वास नहीं है और इसमें कुछ गलत भी नहीं है। वे लोग जो बाल ठाकरे की राजनीति से न सिर्फ असहमत थे, बल्कि उसके खिलाफ लंबे समय तक लड़ते रहे, उनसे औपचारिकता निर्वाह की ही अपेक्षा की जा सकती है।  इसकी बड़ी वजह यह भी थी कि बाल ठाकरे राजनीतिक मर्यादा की परवाह करने वाले खिलाड़ी नहीं थे। कांग्रेस, भाजपा, समाजवादी, साम्यवादी सभी मोटे तौर पर स्थापित परम्पराओं के अनुरूप अपनी राजनीति संचालित करते हैं और वहां परस्पर संवाद चलते रहने के कारण निजी तौर पर जो सौहार्द्र स्थापित होता है वह ऐसे अवसर को भी निजता का रंग दे देता है। श्री ठाकरे के राजनैतिक स्तर पर संबंध बहुत सीमित थे।

दरअसल बाल ठाकरे ने ताउम्र सड़क की राजनीति ही की। यद्यपि उन्होंने शिवसेना के रूप में राजनीतिक दल का गठन किया, लेकिन संसदीय राजनीति में  उनका विश्वास नहीं था। भारतीय जनता पार्टी ने शिवसेना के साथ भले ही जोड़ी बनाई हो, लेकिन शिवसेना की राजनीति सदैव सड़कों पर ही देखने मिली तथा तमाम कोशिशों के बावजूद महाराष्ट्र के बाहर पार्टी का विस्तार नहीं हो सका। मनोहर जोशी के लोकसभा अध्यक्ष बनने व सुरेश प्रभु के केन्द्रीय मंत्री बनने से भी शिवसेना की बुनियादी सोच में कोई परिवर्तन नहीं आया। बाल ठाकरे जैसा कि सब जानते हैं एक अच्छे व्यंग्य चित्रकार थे। उन्होंने व आर.के. लक्ष्मण ने कभी साथ-साथ काम भी किया था; फिर बाल ठाकरे ने पहले 'मार्मिक' बाद में 'सामना' निकालकर अपनी संपादन क्षमता का परिचय भी दिया, लेकिन अपनी पत्रकार कलम का उपयोग भी उन्होंने कभी व्यापक सामाजिक, राजनैतिक प्रश्नों की मीमांसा में नहीं किया। जिस तरह राजनीति में उन्होंने कोई लक्ष्मणरेखा स्वीकार नहीं की, वैसा ही उनकी कलम के साथ भी हुआ।

यह तो तय है कि आधुनिक भारत के राजनैतिक इतिहास में बाल ठाकरे का स्थान सुरक्षित है किंतु उनकी भूमिका को किस रूप में याद रखा जाएगा इसकी विवेचना करना अभी संभव नहीं है।  एक यह तथ्य ध्यान आता है कि वे संभवत: पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने व्यक्ति-केन्द्रित राजनीति की। याने उनके जो विचार थे वही उनकी रणनीति में प्रथम और अंतिम थे। इसके आगे-पीछे उन्हें और कोई सरोकार नहीं था। इसकी शुरुआत जून 1966 में शिवसेना के गठन के साथ हुई। बाद के वर्षों में राजनीतिक क्षितिज पर ऐसी राजनीति करने वाले अन्य लोग भी उभरे, लेकिन उनमें से भी न तो कोई श्री ठाकरे की हद तक जाकर उग्र हो सका और न किसी की राजनीति इतने लंबे समय तक चल सकी।  इसकी एक वजह शायद यह रही होगी कि ऐसे तमाम लोग पारंपरिक राजनीति से स्वकेन्द्रित राजनीति तक आए जिसमें समझौते की गुंजाइश कहीं न कहीं बनी रही। बाल ठाकरे की अपूर्व सफलता की दूसरी वजह शायद यह भी हो सकती है कि उन्होंने खुद के लिए सत्ता-सुख कभी नहीं चाहा, जिसके चलते उन्हें कभी समझौता करने की आवश्यकता महसूस ही नहीं हुई। राजसत्ता में पद संभालने के बाद बहुत सी व्यवहारिक स्थितियों से जूझना पड़ता है जिससे बाल ठाकरे हमेशा मुक्त रहे। उन्होंने स्वयं मुख्यमंत्री बनने के बजाय अपने अनुयायी को मुख्यमंत्री बनाया ताकि वे अपने तरीके से निर्बाध राजनीति कर सकें।

आज यह स्मरण कर लेना उचित होगा कि बाल ठाकरे ने अपनी राजनीति संयुक्त महाराष्ट्र आन्दोलन से प्रारंभ की थी, लेकिन वे चर्चा में तब आए जब उन्होंने 1965 में तत्कालीन बंबई से दक्षिण भारतीयों को बेदखल करने का आन्दोलन चलाया।  वे उग्र मराठी अस्मिता के प्रतिनिधि बनकर उभरे।  उनकी मांग थी कि बम्बई मराठीजनों के लिए ही रहना चाहिए तथा बाकी का उसमें कोई स्थान नहीं था। कालांतर में उन्होंने अपनी इस सोच को विस्तार दिया। पहले सिर्फ दक्षिण भारतीय उनके निशाने पर थे तो आगे चलकर उन्होंने उत्तर भारतीयों पर भी आक्रमण किए। बाल ठाकरे की परिभाषा में मुम्बई और महाराष्ट्र मराठीभाषियों के लिए तो थे लेकिन उसमें जन्मना मराठी मुसलमानों के लिए भी कोई जगह नहीं थी। ऐसे तमाम समुदाय समय-समय पर उनकी आक्रामक सोच का शिकार होते रहे। इस संकीर्ण नीति के कारण उन्हें महाराष्ट्र में एक तबके का भारी समर्थन मिला, लेकिन अपने तमाम दावों और नारों के बावजूद वे अल्पमत में ही रहे आए। एक छोटी अवधि में जरूर शिवसेना को महाराष्ट्र में सत्तारूढ़ होने का अवसर मिला, लेकिन यह भाजपा के साथ गठबंधन के कारण ही संभव हो पाया।

बाल ठाकरे ने सदैव भावना की राजनीति की। उन्होंने बेरोजगार मराठीभाषी नौजवानों को प्रभावित किया। उन्हें यह विश्वास दिलाया कि जब महाराष्ट्र मराठियों का हो जाएगा, तो उनके दुख-दर्द दूर हो जाएंगे। चार दशक से लंबी राजनीतिक यात्रा में उनकी पालकी मुख्यत: ये बेरोजगार नौजवान ही उठाते रहे। उनके पास खोने के लिए कुछ नहीं था, लेकिन शिवसैनिक बनकर वे अपने गली, मुहल्ले में किसी न किसी रूप में अपना रुतबा कायम कर सके थे। विश्व राजनीति में बेचैन युवाशक्ति का इस तरह से उपयोग पहले भी किया गया और उसकी भारी कीमत विश्व समुदाय को चुकानी पड़ी है। हिटलर की जर्मनी का उदाहरण हमारे सामने है।  बाल ठाकरे की बौध्दिक क्षमता के बारे में भी काफी कुछ कहा गया है, लेकिन नहीं भूलना चाहिए कि पुर्तगाल का तानाशाह सालाजार तो अर्थशास्त्र का विद्वान था। जो भी हो, बाल ठाकरे के निधन से महाराष्ट्र की राजनीति में क्या परिवर्तन आएगा अब उसी पर राजनीतिक पर्यवेक्षकों की नजर रहेगी।


देशबंधु में 22 नवम्बर 2012 को प्रकाशित 

 

Thursday 15 November 2012

जेम्स बॉन्ड की राजनीति





एजेंट 007 याने जेम्स बॉन्ड को रजतपट पर अवतरित हुए एक अर्धशती पूरी हो चुकी है। 1962 में जेम्स बॉन्ड की पहली फिल्म आई थी। यह विश्व सिनेमा की एक अतुलनीय घटना है। जब से सिनेमा का आविष्कार हुआ तब से अब तक फिल्में तो हजारों बनी हैं, सैकड़ों फिल्मों ने भांति-भांति के रिकार्ड तोड़े हैं और ऐसी फिल्मों की एक लंबी सूची है जिन्होंने दर्शकों व समीक्षकों दोनों को बेइंतहा प्रशंसा बटोरी है; किंतु जेम्स बॉन्ड की फिल्मों ने जो विशेष रिकार्ड बनाया है वह बरकरार है और उसके टूटने  की दूर-दूर तक कोई संभावना नजर नहीं आती। सोचकर देखिए कि एक फिल्म चरित्र को लेकर दो दर्जन फिल्में बनें, चलें, खूब चलें और पचास साल तक दर्शकों की तीन पीढिय़ों को लुभाने में लगातार कामयाब होती रहें- क्या यह एक अनूठा रिकार्ड नहीं है!

इन तमाम फिल्मों का प्रमुख किरदार याने हीरो तो एक ही है- जेम्स बॉन्ड। लेकिन उसे परदे पर पेश करने वाले अभिनेता समय-समय पर बदलते रहे हैं- शॉन कोनेरी से लेकर डेनियल क्रैग तक। वह जिस गुप्तचर संस्था के लिए काम करता है अर्थात् ब्रिटिश विदेशी खुफिया एजेंसी एमआई-6 वह भी फिल्मों में बदस्तूर कायम है। भले ही रहस्यमय खुफिया प्रमुख 'एम' का रोल करने वाले अभिनेता या अभिनेत्री बदलते रहे हों तथा इसी तरह गुप्तचरी के औजारों का निर्माण अथवा विकास करने वाले वैज्ञानिक 'क्यू' का अभिनेता भी। गौरतलब है कि 1962 से 2012 के दरम्यान इस पांच दशकों में एक देश के रूप में ब्रिटेन और उसकी संस्था एमआई-6 के वैश्विक राजनीति में प्रभाव में कमी आने की वास्तविकता का भी कोई असर इन फिल्मों पर नहीं पड़ सका है। 

जैसा कि अधिकतर पाठक वाकिफ हैं, ब्रिटिश लेखक इयान फ्लेमिंग ने जेम्स बॉन्ड को नायक बनाकर कुछ रहस्य रोमांचपूर्ण उपन्यास लिखे थे जो अपने समय में खासे लोकप्रिय हुए। फ्लेमिंग स्वयं ब्रिटिश नौसेना के खुफिया विभाग में लंबे समय तक काम कर चुके थे। इस नाते वे गुप्तचरी की दुनिया में होने वाले घात-प्रतिघातों से अच्छी तरह वाकिफ थे और उनके उपन्यासों में यदि पाठक प्रामाणिकता का कोई अनुभव करते हैं तो उसका श्रेय लेखक के वास्तविक अनुभवों को दिया जा सकता है। मैंने इनमें से कोई भी उपन्यास नहीं पढ़ा बावजूद इसके कि जासूसी उपन्यास पढऩे में मेरी रुचि है, लेकिन जेम्स बॉन्ड की अधिकतर फिल्में मैंने देखी है सिनेमाघरों में कम, टीवी पर ज्यादा। उन फिल्मों में जो गतिशीलता और चपलता है वह दर्शक को बांधे रखती है और डेढ़-दो घंटे अच्छे से मन बहलाव हो जाता है। मैं जब जेम्स बॉन्ड की दो दर्जन फिल्मों को निर्माण के क्रम में रखकर देखता हूं तो उनमें विश्व के बदलते हुए राजनैतिक परिदृश्य के संदर्भ जैसे अपने-आप उभरकर सामने आने लगते हैं। 1962 में बनी पहली फिल्म का निर्माण उस समय हुआ था जब शीतयुद्ध अपनी चरमसीमा पर था। इसी साल अमेरिका ने क्यूबा पर 'बे ऑफ पिग्ज़' के आक्रमण की योजना बनाई थी और ऐसे किसी आक्रमण की आशंका को ध्यान में रख सोवियत संघ की नौसेना क्यूबा से लगभग बारह सौ किलोमीटर की दूरी पर तैयार खड़ी थी। ऐसा डर लग रहा था कि कहीं तीसरा विश्व युद्ध न छिड़ जाए, लेकिन कैनेडी और ख्रुश्चेव दोनों ने संयम व समझदारी का परिचय दिया और आसन्न संकट समाप्त हो गया।

मुझे फिल्मों के शीर्षक उनके निर्माण क्रम में याद नहीं है, लेकिन मोटे तौर पर कह सकता हूं कि शॉन कोनेरी अभिनीत सारी फिल्में शीतयुद्ध की भावभूमि पर ही बनी थी, जिनमें अमेरिका, ब्रिटेन और पश्चिमी खेमा एक तरफ है तथा दुश्मन के रूप में सोवियत संघ सामने है। कहने की जरूरत नहीं कि फिल्म परम्परा के अनुसार अंतत: नायक की ही विजय होती है। जेम्स बॉन्ड अकेला ही अप्रतिम साहस, त्वरित बुद्धि और देशभक्ति का परिचय देते हुए 'स्वतंत्र विश्व' पर आए खतरे को दूर करने में कामयाब होता है तथा ''लौह आवरण'' वाले साम्यवादी सोवियत संघ के मंसूबे नाकाम हो जाते हैं। समय बदला, शीत युद्ध समाप्त हुआ, बर्लिन की दीवार टूटी, सोवियत संघ का विघटन हुआ। ऐसे और भी परिवर्तन अंतरराष्ट्रीय क्षितिज पर हुए। आने वाले दिनों में हम देखते हैं कि चीन को शत्रु के रूप में पेश किया जाता है तो कभी उत्तर कोरिया को और कभी पश्चिम एशिया के किसी इस्लामी देश को। इन सारी फिल्मों में अमेरिका और इंग्लैण्ड को जनतंत्र और नागरिक स्वतंत्रता का संरक्षण बनाकर पेश किया गया तथा रूस, चीन, क्यूबा, उत्तर कोरिया, आदि को ऐसे देशों के रूप में जहां किसी तरह की कोई स्वतंत्रता नहीं है और जिनकी सरकार में बैठे लोग युद्ध पिपासु हैं। फिर एक दौर ऐसा आया जब किसी एक देश को सीधे-सीधे निशाना बनाना छोड़ दिया गया।

जेम्स बॉन्ड की परवर्ती फिल्मों में हम पाते हैं कि अब दुश्मन कोई एक देश नहीं, बल्कि वहां के ध्वस्त सत्तातंत्र के कुछ ऐसे नुमाइंदे हैं, जो बदलती हुई दुनिया की वास्तविकताओं को स्वीकार करने से इंकार करते हैं। वे तथाकथित स्वतंत्र विश्व के प्रति अपनी नफरत को दबा नहीं पाते। वे एटमबम और मिसाइलें चोरी करते हैं तथा दुस्साहसपूर्ण तरीके से अपने हिसाब से दुनिया को बदल डालने के षडय़ंत्र रचते हैं। इसके बाद फिर कथा को एक नया मोड़ दिया जाता है। ऐसे खलनायक भी हमारे सामने आते हैं जो साम्यवादी नहीं, बल्कि पश्चिमी देशों से आते हैं और हिटलर की तरह विश्व विजय का सपना देखते हैं। अंतिम फिल्म 'स्काई फॉल' का खलनायक जो जेम्स बॉन्ड का ही पुराना साथी है, जो खुफिया प्रमुख 'एम' से कभी प्रताडि़त होने के कारण बदला लेने पर उतारू हो जाता है।

यह विश्लेषण मैंने सूत्र रूप में ही किया है। मुझे लगता है कि जेम्स बॉन्ड की फिल्मों की निरंतर लोकप्रियता का रहस्य इन सूत्रों में खोजा जा सकता है। एक तो चूंकि नायक लगातार बदलते रहे हैं इसलिए दर्शकों को यह उत्कंठा बनी रहती है कि देखें, यह नया हीरो पुराने हीरो के मुकाबले कहां ठहरता है! फिर इसी को लेकर बहस होती है कि कोनेरी ज्यादा अच्छा हीरो था या रोज़र मूर या पियर्स ब्रेसनान। जब 'एम' के रोल में पुरुष के बजाय एक स्त्री याने जूडी डेंच आ गई तो उससे भी फिल्म की संरचना पर काफी असर पड़ा। 'एम' की सचिव मनी पैनी का चरित्र भी अभिनेत्री के साथ-साथ बदलता गया है। एक तरफ फिल्म की पटकथा राजनीतिक घटनाचक्र को ध्यान में रखकर बदलती रही है तो दूसरी तरफ जासूसी के उपकरण भी समय के साथ बदल गए हैं। शुरू का जेम्स बॉन्ड अपनी पिस्तौल और कम जटिल उपकरणों के साथ मिशन पर चल पड़ता है। वहीं बाद की फिल्मों में एक से एक अजूबे देखने मिलते हैं। एक फिल्म में तो ऐसी कार है जो किसी को दिखाई नहीं देती। स्वयं जेम्स बॉन्ड ऐसे हैरतअंगेज कारनामे करता है, जो सामान्यबुद्धि, तर्क और वैज्ञानिक दृष्टि किसी पर भी ठीक नहीं उतरते, लेकिन इनसे फिल्म का रोमांच निश्चित रूप से बना रहता है।

1 नवम्बर को भारत सहित विश्व के तमाम देशों में 'स्काय फॉल' का उद्घाटन हआ। मीडिया में इस पर खूब चर्चाएं हुईं। लंबे-लंबे लेख लिखे गए। किंतु मुझे यह देखकर आश्चर्य हुआ कि इयान फ्लेमिंग के उपन्यासों का जो राजनैतिक संदर्भ था, जिसे इन फिल्मों से व्यक्त किया गया, उस पर कोई चर्चा नहीं हुई। फ्लेमिंग के मूल उपन्यासों में संशोधन कर नई पटकथाएं भी लिखी गईं। उनके राजनीतिक निहितार्थों पर भी शायद गौर नहीं किया गया। ''स्काय फॉल'' में 'एम' अपने ही एक भूतपूर्व एजेंट के हाथों मारी जाती है तथा जेम्स बॉन्ड स्कॉटलैण्ड में अपनी पुश्तैनी घर ''स्काय फॉल'' में ही आखरी लड़ाई लड़ता है। इसे लेकर ही अनेक टिप्पणियां की गईं जिनका प्रमुख स्वर एक ही था कि जेम्स बॉन्ड अपने घर लौट रहा है या नहीं और कि इंग्लैण्ड अपने आपको नए सिरे से खोज रहा है। जाहिर है कि ये टिप्पणियां अधिकतर ब्रिटिश समीक्षकों ने ही की है।

भारत में फिल्मों के समाजशास्त्र को लेकर पर्याप्त चर्चा हुई है। जैसा कि हम जानते हैं आमिर खान की फिल्म 'लगान' को तो भारतीय प्रबंधन संस्थान अहमदाबाद (आईआईएएम) ने अपने किसी पाठ्यक्रम में भी शामिल किया। देश में ऐसे अनेक सुधी समालोचक हैं जिन्होंने भारतीय फिल्मों के आयामों पर अकादमिक अध्ययन किया है। मेरी राय में इसी कड़ी में जेम्स बॉन्ड की फिल्मों का भी एक नए दृष्टिकोण से विश्लेषण किया जाना अभीष्ट है। प्रसिद्ध समाजचिंतक नोम चॉम्स्की की एक प्रसिद्ध पुस्तक है- 'मैन्युफैक्चरिंग कंसेन्ट'। इसका हिन्दी अनुवाद 'आम राय का निर्माण' किया जा सकता है। चॉम्स्की अपनी पुस्तक में उन तमाम तौर-तरीकों की समीक्षा करते हैं जो पूंजीवादी दुनिया के बाकी हिस्सों में अपना दबदबा कायम करने के लिए प्रयुक्त किए हैं। उनकी पुस्तक में अखबारों, पुस्तकों व टीवी के कार्यक्रमों का प्रचुर उल्लेख है। इसी संदर्भ में जेम्स बॉन्ड जैसी फिल्मों को भी देखा जाना चाहिए।

अंग्रेजी में ऐसे अनेक उपन्यास लिखे गए हैं तथा मुख्यत: हॉलीवुड में ऐसी अनेक फिल्मों का निर्माण हुआ है जो येन-केन-प्रकारेण पूंजीवादी विचारधारा की न सिर्फ श्रेष्ठता स्थापित करती है बल्कि उसे विश्व के उद्धारक के रूप में भी प्रस्तुत करती हैं। ऐसी पुस्तकों व फिल्मों में गैर-पूंजीवादी देशों की खिल्ली उड़ाई जाती है, उन्हें कमजोर व कमअक्ल सिद्ध किया जाता है तथा हर तरह से उन्हें नीचा दिखाया जाता है। केन फॉलेट के उपन्यास हों या महाबली रैम्बो की फिल्में या फिर डॉमिनिक लॉपियर व लैरी कॉलिन्स का जासूसी उपन्यास द ''फिफ्थ हॉर्समेन'' ही क्यों न हो। ये दोनों वही लेखक हैं जिन्हें हम 'फ्रीडम एट मिडनाइट' व 'कैलकटा: द सिटी ऑफ जॉय' जैसी पुस्तकों के लेखक के नाते जानते हैं। ऐसे में मैं उम्मीद करना चाहूंगा कि फिल्मों का कोई गंभीर अध्येता या फिर अंग्रेजी साहित्य अथवा मास मीडिया का कोई शोधार्थी जेम्स बॉन्ड की फिल्मों का विधिवत अध्ययन कर हमें बताएगा कि इन फिल्मों ने हमारा सिर्फ मनोरंजन किया या ब्रेन वाशिंग भी की!!

देशबंधु में 15 नवम्बर 2012 को प्रकाशित 


 

Wednesday 7 November 2012

संसाधनों का राष्ट्रीयकरण!




एक सप्ताह पूर्व एक एसएमएस मिला जिसका हिन्दी अनुवाद कुछ इस तरह होगा- ''प्राकृतिक एवं खनिज संसाधनों में एक के बाद एक घोटाले उजागर होने के बावजूद भारतीय जनता पार्टी, अन्य राजनैतिक दल, संवेदी समाज (सिविल सोसायटी) और मीडिया अब तक के सारे आबंटनों को रद्द करने और इन तमाम संसाधनों का राष्ट्रीयकरण करने की मांग क्यों नहीं कर रहे हैं?'' मुझे यह संदेश पाकर थोड़ी हैरानी हुई, वह इसलिए कि संदेश दिल्ली निवासी अनुज अग्रवाल ने भेजा था, जो अपने अन्य कामों के अलावा गत दो-तीन वर्षों से 'डॉयलाग इंडिया' नामक मासिक पत्रिका प्रकाशित कर रहे हैं। अपनी पत्रिका में अनुज मेरा एक न एक लेख हर माह छापते हैं, लेकिन मैं जानता हूं कि राजनीतिक रूप से वे संघ परिवार के निकट हैं। उनके संदेश का पहला हिस्सा तो ठीक है, लेकिन वे प्राकृतिक संसाधनों के राष्ट्रीयकरण की मांग कर सकते हैं, यह मेरे लिए आश्चर्य की बात थी।

हम अगले सप्ताह देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू का जन्मदिन मनाएंगे।  इस अवसर पर यह ध्यान अपने आप आता है कि राष्ट्रीयकरण का यह विचार मुख्यत: पंडित नेहरू ने ही दिया था जिसे बाद में इंदिराजी ने बढ़ाया।  आज़ादी के बाद भारत आर्थिक एवं अन्य कई दृष्टियों से बदहाल था। देश के नवनिर्माण की भारी चुनौती उस समय के राजनीतिक नेतृत्व पर थी। पंडितजी और उनके साथियों ने एक ओर जहां संसदीय जनतंत्र की राजनीतिक प्रणाली को मूर्तरूप दिया, वहीं दूसरी ओर आर्थिक मोर्चे पर भी एक नई पहल की गई। उन्होंने देश को आत्मनिर्भर बनाने के लिए पंचवर्षीय योजना की अवधारणा को लागू किया। उनका मानना था कि एक दीर्घकालीन दृष्टि विकसित  कर कदम-दर कदम बढ़ाते हुए ही देश को आर्थिक बदहाली से उबारा जा सकता है।

 सर्वविदित है कि भारत में उस समय औद्योगिक गतिविधियां नाममात्र को थीं। देश का एकमात्र स्टील प्लांट कोई चालीस साल पहले टाटानगर में निजी क्षेत्र में स्थापित हुआ था। उसके बाद भारी उद्योग लगाने की कोई पहल अंग्रेजी राज के दौरान नहीं हुई थी। मुंबई, अहमदाबाद व कानपुर में कपड़ा मिलें थीं, कलकत्ता में जूट मिलें और इसी तरह अलग-अलग जगहों पर कुछ और औद्योगिक इकाईयां। आर्थिक प्रगति के लिए जो बुनियादी ढांचा चाहिए था, वह जैसे था ही नहीं। अपनी अनेकानेक जरूरतों के लिए देश को आयात पर निर्भर रहना पड़ता था। यूं अनेक कारखाने अंग्रेजी स्वामित्व में थे, लेकिन वे प्राथमिक क्षेत्र में नहीं थे।

इस पृष्ठभूमि में नेहरू सरकार के सामने बड़ी चुनौती थी कि प्राथमिक क्षेत्र या कि बुनियादी उद्योग कैसे स्थापित किए जाएं। देश को पेट्रोलियम, इस्पात, बिजली इन सबकी जरूरत थी, क्योंकि औद्योगिक विकास व आर्थिक प्रगति की नींव इन्हीं से रखी जा सकती थी। सरकार ने इंग्लैंड व अन्य पश्चिमी देशों से इसमें सहायता मांगी, लेकिन उन्होंने कोई खास उत्साह नहीं दिखाया। देश में तेल भंडारों के अन्वेषण के लिए आई पश्चिमी कंपनियों ने तो साफ-साफ कह दिया कि भारत में तेल है ही नहीं। यही वह समय था जब भारत और तत्कालीन सोवियत संघ के बीच सुदृढ़ मैत्री संबंधों की शुरुआत हुई। सोवियत संघ व कम्युनिस्ट ब्लॉक के अन्य देशों इस्पात, तेल, बिजली, इंस्ट्रुमेंटेशन जैसे उपक्रम स्थापित करने के लिए दोस्ती का हाथ आगे बढ़ाया। 

हमारे छत्तीसगढ़ का भिलाई इस्पात संयंत्र इस तरह से देश को आत्मनिर्भरता की ओर ले जाने की दिशा में एक प्रारंभिक व ज्वलंत उदाहरण है। इसके बाद भोपाल में हैवी इलेक्ट्रिकल्स लिमिटेड, बंगलौर में हिन्दुस्तान मशीन टूल्स व इंडियन टेलीफोन इंडस्ट्रीज आदि स्थापित हुए। इसी दौरान भाखड़ा नांगल व हीराकुंड जैसे बांध भी स्थापित हुए। ये सारे के सारे कारखाने और प्रकल्प सार्वजनिक क्षेत्र में ही थे। नेहरूजी ने इन्हें आधुनिक भारत के तीर्थ की संज्ञा यूं ही नहीं दी थी। वे जानते थे कि ये प्रकल्प देश की जनता की बेहतरी के लिए वरदान सिध्द होंगे। यह पंडित नेहरू की उदारवादी और व्यवहारिक सोच भी थी कि जब पश्चिमी शक्तियों ने भी इन सार्वजनिक उद्योगों में सहयोग की मंशा दर्शाई तो सरकार ने उसे स्वीकार करने में संकोच नहीं किया।

पंडित नेहरू साम्यवादी नहीं थे। वे साम्यवाद के अच्छे पहलुओं को स्वीकार करने के लिए तैयार रहते थे, लेकिन साम्यवाद के तौर-तरीकों से उन्हें कुछ बुनियादी आपत्तियां थीं और देश के भीतर साम्यवादी दल की रीति-नीति को लेकर उन्हें बहुत से संदेह भी थे। वे एक खुले विचारों वाले व्यक्ति थे और देश के नव-निर्माण में सबसे यथायोग्य योगदान की अपेक्षा करते थे। जब देशी उद्योगपतियों ने उन्हें बॉम्बे प्लान दिया तो उसको उन्होंने बिना देखे खारिज नहीं किया। किन्तु उनकी दृढ़ मान्यता थी कि स्वतंत्र भारत में सार्वजनिक क्षेत्र प्रमुख भूमिका निभाएगा। आर्थिक गतिविधि का कोई भी आयाम हो, वे मानते थे कि उसकी कमान केन्द्र सरकार के पास होना चाहिए।

इस तरह हम पाते हैं कि उन्होंने देश में औद्योगिक प्रगति के लिए आधारभूत ढांचा तैयार करना प्रारंभ किया। सार्वजनिक क्षेत्र को यह जिम्मेदारी सौंपी गई। उद्योग के साथ कृषि संवर्धन के लिए भी नई नीतियां बनाई गईं। उन्होंने सहकारी कृषि की भी कल्पना की, जिसकी शुरुआत राजस्थान के सूरतगढ़ से हुई। पशुपालन व दुग्ध व्यवसाय में भी डॉ. कुरियन के नेतृत्व में सहकारी क्षेत्र को बढ़ावा दिया गया। विज्ञान व तकनीकी विकास के लिए आईआईटी जैसे संस्थान खुले।  आणविक ऊर्जा आयोग, अंतरिक्ष आयोग, सीएसआईआर आदि की स्थापना की गई। इन सबकी परिकल्पनाएं योजना आयोग में की गई, जिसके अध्यक्ष वे स्वयं थे।
पंडित नेहरू के इस ऐतिहासिक अवदान की चर्चा अब शायद ही कोई करता है। इंदिराजी के समय में जरूर न सिर्फ सार्वजनिक क्षेत्र को प्रोत्साहित किया गया, बल्कि निजी क्षेत्र के बीमार उद्योगों को पुनर्जीवित करने का बीड़ा भी सरकार ने उठाया। लेकिन उनके बाद से देश के राजनैतिक नेतृत्व में बौध्दिक क्षमता का अभाव निरंतर परिलक्षित हो रहा है। कांग्रेस पार्टी ने भी नेहरू के रास्ते को एक तरह से छोड़ दिया है। आज के शासक जनता की सामर्थ्य विकसित करने के बजाय उसे याचक बनने पर मजबूर कर रहे हैं। देश व प्रदेश, कांग्रेस और भाजपा और बाकी सब इसमें बराबर के भागी हैं। अब एक हाथ से राष्ट्र के बहुमूल्य प्राकृतिक संसाधन मुनाफाखोर औद्योगिक घरानों को दिए जा रहे हैं और दूसरी ओर गरीबों को सस्ता चावल व दोपहर के भोजन के नाम पर खुश करने की कोशिशें हो रही हैं। 

मैं अनुज की भावना से सहमत हूं कि प्राकृतिक संसाधनों का नियंत्रण सरकार के पास होना चाहिए और बेहतर होगा कि सार्वजनिक उद्यमों के माध्यम से ही उन्हें उत्पादन प्रक्रिया में प्रयुक्त किया जाए, लेकिन इसके लिए तैयार कौन होगा? भारतीय जनता पार्टी तो जनसंघ के दिनों से ही व्यापारिक हितों की पार्टी रही है, वह इसे क्यों मानने चली? कांग्रेस से भी कोई उम्मीद कैसे की जाए? रही बात मीडिया की तो वह तो पहले ही कारपोरेट जगत के हाथों बिक चुका है; फिर भी एक विचार उठा है, तो वह जीवित रहेगा, यह उम्मीद करना चाहिए।

 देशबंधु में 08 नवम्बर को प्रकाशित