Wednesday 17 September 2014

कांग्रेस के शुभचिंतक (!)




कांग्रेस की वरिष्ठ नेता व दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित के एक ताजा बयान ने बैठे -ठाले की एक बहस के लिए खासा मसाला जुटा दिया। दिल्ली में सरकार बनाने के लिए भाजपा द्वारा की जा रही कलाबाजी पर उन्होंने कहा कि यदि भाजपा के पास बहुमत है तो उसे सरकार बना लेना चाहिए। पहली निगाह में यह एक सीधा-सादा वक्तव्य जान पड़ता है। लेकिन इसे लेकर तरह-तरह के अर्थ निकाले जाने लगे। उनके कथन का यह विश्लेषण तक किया गया कि वे कांग्रेस नेतृत्व के विरुद्ध जा रही हैं। कांग्रेस के एक-दो प्रवक्ताओं ने अपनी प्रतिक्रिया इस रूप में दी कि यह शीलाजी की निजी राय है। याने उनके बयान से दूरी बनाने की कोशिश की गई। शीला दीक्षित के वक्तव्य में जो 'यदि' प्रत्यय है उसका संज्ञान टीका करनेवालों ने नहीं लिया। या तो वे 'यदि' का महत्व समझे ही नहीं या फिर जानबूझ कर उसे छोड़ दिया। हमारी समझ कहती है कि यह 'यदि' शब्द अर्थ-गंभीर है। यदि भाजपा के पास बहुमत नहीं है तो वह सरकार नहीं बना सकती यह ध्वनि भी इस वाक्य से निकलती है। ऐसा कहकर शीलाजी ने भाजपा पर व्यंग्य कसा है या उसे चुनौती दी है यह भी माना जा सकता है। दूसरे शब्दों में इसे हम एक वरिष्ठ नेता के चतुराई भरे कथन के रूप में भी ले सकते हैं।

हमने तो टीवी पर जो बाइट आई सिर्फ उससे ही बात समझने की कोशिश की है। अगर शीला दीक्षित ने टीवी पत्रकार को विश्वास में लेकर कोई अतिरिक्त जानकारी दी हो, जिससे कांग्रेस हाईकमान से उनकी दूरी का संकेत मिलता हो तो बात अलग है। दरअसल मुझे यह बात कुछ अजीब लगती है कि कांग्रेस पार्टी की चिंता जितनी उसके नेताओं को स्वयं नहीं है उससे ज्यादा विरोधियों और मीडिया को हो रही है। जिस पार्टी को तीन-साढ़े तीन माह पूर्व आम चुनावों में मतदाताओं ने स्पष्ट रूप से नकार दिया हो, उसके भविष्य को लेकर लोगों को अपना माथा क्यों खराब करना चाहिए? 1984 के आम चुनावों में भारतीय जनता पार्टी को मात्र दो सीटें मिली थीं, किन्तु उस वक्त तो किसी ने भी न भाजपा का अंत होने की भविष्यवाणी की थी और न ही सुबह-शाम उस पर बहसें हुई थीं। भाजपा को अपने आंतरिक ढांचे में जो भी परिवर्तन करने की आवश्यकता महसूस हुई होगी, वे उसने भीतर ही भीतर किए होंगे। अपनी रीति-नीति पर भी खामोशी से पुनर्विचार किया होगा और तब जाकर उसने नए सिरे से ऊर्जा हासिल की जिसकी परिणति आज हमारे सामने है।

यह संभव है कि कांग्रेस में भी इसी तरह से पुनर्विचार और आत्ममंथन चल रहा हो। स्वाभाविक रूप से यह एक दीर्घकालीन प्रक्रिया होगी। कांग्रेस को अपनी रीति-नीति और सांगठनिक ढांचे में जहां भी परिवर्तन करना होंगे वह आगे-पीछे करेगी इसकी उम्मीद की जा सकती है। अभी इसके लिए बहुत समय बाकी है। भारतीय जनता पार्टी व संघ परिवार कांग्रेस को नीचा दिखाने, उसकी हंसी उड़ाने और उस पर वार करने का कोई मौका न छोड़े, यह उससे अनपेक्षित नहीं था। किन्तु राजनीतिक विश्लेषकों एवं पत्रकारों को ऐसी क्या जल्दी है? फिर भी अगर वे कांग्रेस का चुनावोत्तर आकलन करना चाहते हैं, तो उन्हें उत्तराखंड के उपचुनावों में पार्टी को मिली सफलता का नोटिस अपने विश्लेषण के लिए लेना चाहिए। उन्हें इस तथ्य पर भी ध्यान देना चाहिए कि बिहार में जदयू के साथ गठजोड़ करने में कांग्रेस ने काफी तत्परता दिखाई, जिसका लाभ उपचुनाव में एक सीट हासिल करने के रूप में मिला। फिर लोकसभा में विपक्ष का नेता पद भले ही कांग्रेस को न मिला हो, लेकिन मल्लिकार्जुन खडग़े को दलनेता बनाकर क्या पार्टी ने सही संकेत नहीं दिया? (इस कॉलम के प्रेस में जाते तक राजस्थान-गुजरात उपचुनावों में कांग्रेस की सफलता की खबर भी आ चुकी है)।

पिछले तीन माह के दौरान कांग्रेस के अनेक नेताओं ने परस्पर विरोधी बयान दिए। उनसे अनुमान होता है कि पार्टी के वर्तमान हालात में कई नेता स्वयं को असुरक्षित और असहज महसूस कर रहे हैं। इनमें से अधिकतर वे हैं जो पहले से ही अपनी वाचालता एवं अतिशयोक्तिपूर्ण बयानों के लिए विख्यात या कुख्यात रहे हैं। कई लोगों का मानना है कि कांग्रेस की दुर्गति के लिए ये लोग कहीं न कहीं जिम्मेदार हैं। आज यदि कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व इन नेताओं से अप्रसन्न है और उन्हें पहले की तरह भाव नहीं दे रहा है तो इसे देर आयद दुरुस्त आयद ही मानना होगा। हां! यदि ये स्वनामधन्य नेता किसी तरह बाहर जाने का रास्ता खोज रहे हैं तो इसमें कोई बुराई नहीं है। आखिरकार यह उनके राजनीतिक भविष्य का प्रश्न है।

यह तो उन नेताओं की बात हुई जो फिलहाल पार्टी में रुके हुए हैं, लेकिन ऐसे पार्टी सदस्यों की भी कमी नहीं है, जो या तो दलबदल कर रहे हैं या उसकी धमकी दे रहे हैं।  इसमें भी न तो कोई आश्चर्य की बात है और न सुख-दुख मनाने की। भारत में एक राजनीतिक कला के रूप में दलबदल का प्रारंभ 1967 के आम चुनावों के बाद हुआ था एवं इसमें बरस-दर-बरस निखार आते गया है। राजीव गांधी के समय में दल-बदल विरोधी कानून बना, जिसमें एक तिहाई विधायकों की न्यूनतम सीमा निर्धारित कर दी गई। उससे बात नहीं बनी तो सीमा बढ़ाकर पचास प्रतिशत कर दी गई लेकिन दल-बदल करने वाले भी नए-नए उपाय खोजते गए। कहीं-कहीं तो विधानसभा के अध्यक्ष तक इस खेल में शामिल हो गए। अभी दिल्ली में सरकार बनने की जो कोशिश सरकार कर रही है वह इस कला में नवाचार का संकेत देती है। कुल मिलाकर जो भी नेता दल-बदल कर रहे हैं वे अपनी राजनीतिक होशियारी पर अपनी पीठ खुद ठोंक सकते हैं, लेकिन जहां तक जनता की बात है वह तो इन्हें घृणा की निगाह से ही देखती है। मैं नहीं जानता कि मीडिया को ऐसे अवसरवादी सत्तालोलुप राजनेताओं के गुणों का बखान क्यों करना चाहिए।

बहरहाल कांग्रेस के भविष्य को लेकर जो भी चर्चाएं हो रही हैं, वे घूम-फिर कर एक बिन्दु पर केन्द्रित हो जाती हैं कि सोनिया गांधी और राहुल गांधी को पार्टी का नेतृत्व छोड़कर नए लोगों के हाथ में कमान दे देना चाहिए। इन टीकाकारों का निशाना सोनिया से कहीं ज्यादा राहुल पर है। सोनिया-राहुल को इन शुभचिन्तकों की सलाह की पता नहीं कितनी आवश्यकता है। इतना तो अवश्य प्रतीत होता है कि राहुल गांधी की दिलचस्पी सत्ता की राजनीति में नहीं है। यह युवक यदि चाहता तो 2004 में मंत्री बन सकता था या उसके बात कभी भी। 2010 के आसपास राहुल गांधी को प्रधानमंत्री बनाने की मांग भी अनेक हलकों से उठी थी, किन्तु ऐसे हर मौके को राहुल गांधी ने ठुकरा दिया। हमारा ख्याल है कि यह तो राहुल गांधी को ही तय करना है कि वे राजनीति में किस हद तक, कितनी दूर तक और कितना डूब कर  हिस्सा लेना चाहते हैं। यदि सोनिया गांधी उन्हें आगे लाना चाहती हैं और वे स्वयं नहीं चाहते तब भी इस संबंध में दो टूक निर्णय तो उनको ही लेना होगा।

सोनिया गांधी निर्विवाद रूप से कांग्रेस की एकछत्र नेता हैं। 1998 से लेकर अभी तक उन्होंने अपनी नेतृत्व क्षमता का परिचय दिया है। कांग्रेस ने दो आमचुनाव उनकी अगुवाई में जीते हैं और दस साल सरकार चलाई है। 2014 के चुनावों में हार का नैतिक दायित्व वे अपने ऊपर ले ही चुकी हैं। अत: यह मानना भूल होगी कि राजनीति में उनका समय समाप्त हो चुका है। इस साल और अगले साल जो विधानसभा चुनाव होंगे उनसे पता चलेगा कि राजनीति में उनकी पकड़ कितनी मजबूत या कमजोर है। यह अपेक्षा तो हर पार्टी से की जाती है कि वह समय के अनुरूप अपनी रणनीति में फेरबदल करे। सोनिया गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस से भी इसकी उम्मीद करना गलत नहीं होगा। वे अगर कांग्रेसजनों से, मीडिया से और आम जनता से अपना संपर्क बढ़ाएं, विभिन्न प्रदेशों और वर्गों के लोगों से संवाद स्थापित करें तो उससे उन्हें लाभ ही होगा।

हमारी आखिरी बात उनके लिए जो पार्टी नेतृत्व को बदल देना चाहते हैं। ऐसा होना मुमकिन नहीं है।  इंदिरा गांधी ने जो परंपरा स्थापित कर ली, सोनिया उस पर ही चल रही हैं। उन्होंने पंडित नेहरू का समय नहीं देखा है। इस स्थिति में जो लोग पार्टी नेतृत्व को ही पराजय का दोषी ठहरा रहे हैं उनके लिए क्या यह बेहतर नहीं होगा कि वे थोड़ी हिम्मत दिखाएं और अपनी कोई नई कांग्रेस पार्टी बना लें? यह रास्ता तो इंदिराजी ने ही दिखाया था, फिर मूपनार, चिदंबरम्, नारायणदत्त तिवारी, अर्जुन सिंह, माधवराव सिंधिया, शरद पवार, ममता बनर्जी- इन सबने भी समानांतर कांग्रेस बनाने के प्रयत्न किए ही थे। एक बार फिर यह प्रयोग कर लिया जाए!
देशबन्धु में 17 सितम्बर 2014 को प्रकाशित

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