Wednesday 24 September 2014

धर्म : पुल या खाई?


 इन दिनों भारतीय जनता पार्टी एवं उसके भ्रातृसंगठनों के कार्यकर्ता स्वाभाविक रूप से अत्यन्त उत्साहित हैं। वे अपने मनोभावों को खुलकर अभिव्यक्त कर रहे हैं और उन्हें इस बात से कोई सरोकार नहीं है कि देश के सामाजिक ढांचे पर इसका क्या प्रभाव पड़ सकता है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी व उनके राजनाथ सिंह जैसे वरिष्ठ सहयोगी राजनीतिक संतुलन बनाने की दृष्टि से यदा-कदा जो वक्तव्य देते हैं उनका कोई खास असर होते दिखाई नहीं देता। अभी जैसे प्रधानमंत्री ने भारतीय मुसलमानों की देशभक्ति को रेखांकित करते हुए एक बयान दिया, लेकिन वह मीडिया में चर्चा तक ही सीमित रहा। कारण शायद यही है कि अभी कल तक तो स्वयं श्री मोदी और अन्य तमाम नेता उसी तरह के उद्गार व्यक्त कर रहे थे, जो आज दूसरी और तीसरी पंक्ति के नेताओं के मुंह से सुनने मिल रहे हैं। इस तरह एक विरोधाभासी अथवा समानांतर स्थिति उत्पन्न होने का आभास होता है, लेकिन हमारा मानना है कि यह आभास एकदम ऊपरी सतह पर है और वास्तविकता में संघ परिवार की पुरानी सोच बरकरार है। पूर्व प्रधानमंत्री वी.पी. सिंह कहते थे कि अन्तर्विरोधों को साधना ही राजनीति है तो श्री मोदी अभी यही साधना कर रहे हैं।

पाठकगण योगी (अब महंत) आदित्यनाथ व साक्षी महाराज इत्यादि के ताजा बयानों से परिचित हैं। उन्हें दोहराने की आवश्यकता नहीं है। इस बीच इंदौर की एक भाजपा विधायक सुश्री उषा ठाकुर ने दो ऐसे वक्तव्य दिए हैं जिनको लेकर बहस छिड़ गई है। हमारी राय में उनके बयानों का व्यापक संदर्भों में  परीक्षण करने की आवश्यकता है। पहले तो उन्होंने यह कहा कि मुसलमान युवकों को नवरात्रि पर होने वाले रास गरबा में शामिल न होने दिया जाए। फिर इसमें संशोधन करते हुए उन्होंने कहा कि अगर वे आना चाहते हैं तो अपने माताओं, बहनों को साथ लेकर आएं। उन्होंने यह भी कहा कि गरबा स्थल के प्रवेश द्वार पर उनकी आईडी देखी जाए। सुना है कि इंदौर के प्रशासन ने इसकी व्यवस्था कर ली है!

भाजपा विधायक के इस वक्तव्य का समर्थन एक तरफ कुछेक मुस्लिम धर्मगुरुओं ने किया है तो गैरभाजपाई या गैरसंघी हिन्दुओं का भी एक वर्ग इस प्रतिबंध में कोई बुराई नहीं देखता। मुस्लिम धर्मगुरुओं का तर्क  है कि रास गरबा एक धार्मिक उत्सव है और किसी को भी दूसरे धर्म के उत्सव में क्यों जाना चाहिए। इस तर्क का अनुमोदन उदारवादी हिन्दू भी करते हैं कि सब अपने-अपने धर्म के अनुसार आचरण करें। एकबारगी यह तर्क अपील कर सकता है, लेकिन इससे बहुत सारे नए प्रश्न खड़े होते हैं। हमने भारत की उदार व बहुलतावादी सामाजिक परंपरा के बारे में जो कुछ जाना है, उसके अनुसार यहां एक लंबे समय से विभिन्न धार्मिक समुदायों द्वारा एक-दूसरे के अनुष्ठानों में भाग लेने की न सिर्फ परंपरा रही है, बल्कि उसे सदैव सराहा भी गया है। आज भी ईद, दीवाली और क्रिसमस जैसे पर्वों पर नागरिक एक-दूसरे से मिलते ही हैं। हमने हिन्दुओं के द्वारा मोहर्रम के समय ताजिये उठाने के किस्से भी अपने बड़े-बूढ़ों से सुने हैं।

मैं कैसे भूल जाऊं कि 1968 में प्रेस के कठिन समय में दीपावली पर मेरे दोस्त जमालुद्दीन ने अपनी दुकान के गल्ले से पांच रुपए निकाले थे, हम लोगों ने उससे मोम के दीये खरीदकर नहरपारा में प्रेस में दीये जलाए थे और जब जमाल की बेटी का विवाह हुआ तो उसने विवाह की पत्रिका में निमंत्रणकर्ता के रूप में बाबूजी का नाम उनसे बिना पूछे छपवाया था। ऐसी सत्यकथाएं बहुतों के पास होंगी। खैर! हाल के समय में शंकराचार्य स्वरूपानंद सरस्वती ने शिरडी के साईं बाबा की पूजा का जो निषेध किया है वह भी तो स्मरण कराता है कि एक मुसलमान फकीर को किस तरह देश के बहुसंख्यक समाज ने अपने देवता के रूप में स्वीकार कर लिया। इसका विलोम रामदेवड़ा (राज.) के रामदेव बाबा के रूप में उपस्थित है जिनकी इबादत रामसा पीर के नाम से भी उसी श्रद्धा से की जाती है।

भारत की सबसे बड़ी खूबसूरती संभवत: इसी तथ्य में है कि यहां विभिन्न धार्मिक विश्वासों के बीच परस्पर विनिमय का सिलसिला शताब्दियों से चला आ रहा है। इसमें बीच-बीच में व्यवधान और अपवाद देखने मिले हैं, लेकिन वे लंबे समय तक नहीं चल सके। देश का बहुसंख्यक समाज, जिसे सुविधा के लिए हम हिन्दू कहते हैं, में भी सगुण और निर्गुण धाराएं एवं उनके भीतर अनेक उपधाराएं प्रचलित रही हैं। देश ने शैव और वैष्णवों के द्वंद्व भी देखे हैं और यह भी देखा है कि तत्कालीन प्रचलित पद्धति से अलग हटकर बौद्ध मत स्थापित करने वाले गौतम बुद्ध को अवतार के रूप में मान्यता देने में बहुसंख्यक समाज ने कोई कोताही नहीं की। जैन, बौद्ध और सिख स्वयं को धार्मिक अल्पसंख्यक मानते हैं, किन्तु वृहत्तर समाज उनके साथ कोई भेदभाव सामान्य तौर नहीं करता।

गोस्वामी तुलसीदास के बारे में एक रोचक प्रसंग की चर्चा कभी-कभी की जाती है। वे कभी मथुरा गए तब कृष्ण प्रतिमा के सामने सिर झुकाते हुए उन्होंने कहा-
''बलिहारी प्रभु आपकी, भले बने हो नाथ।
तुलसी मस्तक नवत है, धनुष बाण लो हाथ।।

कहते हैं कि तुलसीदास की इस चातक-भक्ति से मुग्ध होकर कृष्ण ने बांसुरी छोड़कर धनुष-बाण धारण कर लिए। परम रामभक्त तुलसी को जो कृष्णभक्त नीचा दिखाना चाहते थे, ईश्वरी लीला के आगे उनकी कुछ न चली। इस दृष्टांत का अर्थ पाठकगण अपने अनुसार निकाल सकते हैं। हमारा बस इतना कहना है कि यह प्रथमत: बहुसंख्यक समाज की जिम्मेदारी है कि वह धार्मिक मान्यताओं को लेकर सहिष्णुता व सद्भाव का वातावरण बनाने में मदद करें। उषा ठाकुर इत्यादि को ऋग्वेद का अनुवाद करने वाले बशीर अहमद मयूख से लेकर धमतरी के रामायणी दाऊद खान तक के बारे में यदि पता हो तो कितना अच्छा हो।

इस विषय पर चर्चा करते हुए किसी रूढि़वादी व्यक्ति ने टिप्पणी कि कि जब मक्का-मदीना में दूसरे धर्म के लोग नहीं जा सकते तो हमारे धार्मिक स्थलों पर मुसलमान क्यों आएं। ऐसे सज्जनों को शायद यह भी पता हो कि जगन्नाथपुरी के अलावा देश में ऐसे अनेक हिन्दू मंदिर हैं जहां गैर-हिन्दुओं का प्रवेश वर्जित है। दक्षिण भारत के अनेक मंदिरों में तो हिन्दू भी भीतर नहीं जा सकते जब तक उन्होंने धोती न पहनी हो। वहां पैंट-पाजामा नहीं चलते। ऐसी व्यवस्थाओं से धर्म की रक्षा कैसे होती है मुझे समझ में नहीं आता। बेहतर होगा कि धर्म विशेषज्ञ ही इस पर विचार करें। मैं अपने बारे में जानता हूं कि मैं यदि किसी देवालय में जाऊंगा तो सिर झुकाकर विनम्रता के साथ अपने अहंकार को विलीन करके ही जाऊंगा। मैं ऐसी ही उम्मीद अन्यों से भी करता हूं। मैं समझता हूं कि हमारी कुछ रूढिय़ों के पीछे ऐतिहासिक कारण हैं, लेकिन पांवों में अगर बेड़ी जकड़ी रहेगी तो आगे कैसे बढ़े जाएगा?

सुश्री उषा ठाकुर का दूसरा बयान वंदे मातरम् के बारे में है। उनका आरोप है कि मुसलमान इसे पूरा नहीं गाते। इस वक्तव्य को सुनकर मैं हैरान हूं क्योंकि एक विधानसभा सदस्य से इस अज्ञान की उम्मीद मुझे नहीं है। यह सर्वविदित है कि वंदे मातरम् के प्रथम दो पदों को लेकर ही राष्ट्रगीत की मान्यता दी गई है एवं उतने को ही आधिकारिक तौर पर गाया जाता है। जन गण मन को राष्ट्रगान एवं वंदे मातरम् को राष्ट्रगीत की मान्यता कैसे दी गई, इस पर हरिवंश राय बच्चन का एक सुदीर्घ लेख है, जिसमें तार्किक ढंग से पूरी बात समझाई गई है। उसे पढ़ लेने से उत्साहीजनों का भ्रम निवारण हो सकेगा।
देशबन्धु में 25 सितम्बर 2014 को प्रकाशित

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