Friday 27 November 2015

तेजस्वी बिहार


 बिहार के नवनिर्वाचित मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का कामकाज उनके मंत्रिमंडल के शपथ ग्रहण के साथ प्रारंभ हो गया है। वे अपने पांच साल के दौरान कैसा शासन दे पाएंगे इस पर चर्चाएं होने लगी हैं। इसमें भी पहले के दो साल न सिर्फ बिहार बल्कि पूरे देश की राजनीति के लिए बहुत मायने रखते हैं। अगर नीतीश के नेतृत्व में महागठबंधन की सरकार उनकी अर्जित ख्याति के अनुरूप सुचारु चलती है तो इसका सबसे बड़ा लाभ असम के आसन्न चुनावों में मिलेगा जहां से भाजपा ने बहुत उम्मीद बांध रखी है। अगले वर्ष जिन पांच राज्यों में चुनाव होना है उनमें से शेष चार में भाजपा का कोई खास दखल नहीं है, लेकिन असम के लिए उसने अपनी तैयारियां काफी पहले से प्रारंभ कर दी थीं। दूसरी ओर महागठबंधन के दलों में कांग्रेस ही एकमात्र पार्टी है जिसकी प्रतिष्ठा असम में दांव पर लगी है। अगर बिहार सरकार अच्छे से चलती है, तो इससे असम में कांग्रेस को फायदा होगा। और इस ''अगर" को चुटकी मारकर नहीं उड़ाया जा सकता।

 19 नवंबर को नीतीश मंत्रिमंडल को शपथ ग्रहण में अनेक दलों व विभिन्न प्रदेशों के प्रतिनिधि गुलदस्ते लेकर पहुंचे। इस अवसर पर डॉ. फारूख अब्दुल्ला ने जो टिप्पणी की उसे अलग से रेखांकित करना होगा। एक समय था जब स्वयं डॉ. अब्दुल्ला तीसरे मोर्चे के बड़े नेता के रूप में उभर रहे थे। उन्हें शायद विश्वास हो गया था कि वे एक दिन प्रधानमंत्री अवश्य बनेंगे। यह सपना टूटा तो वे राष्ट्रपति बनने की दौड़ में शामिल हो गए। इसका जिक्र देश के आला खुफिया अधिकारी ए.एस. दुल्लत ने अपनी हाल में प्रकाशित आत्मकथा ''कश्मीर: द वाजपेयी ईयर्स" में किया है। इन्हीं डॉ. अब्दुल्ला ने पटना में नीतीश कुमार की हौसला अफजाई की कि वे आने वाले समय में प्रधानमंत्री बन सकते हैं। उन्होंने कोई नई बात नहीं की लेकिन जिस मौके पर की उसमें एक बार फिर नीतीशजी की महत्वाकांक्षा को नए पंख मिल सकते हैं। नीतीश कुमार राजनीति के उतार-चढ़ावों को भली-भांति जानते हैं और फिलहाल उम्मीद यही रखना चाहिए कि वे भावावेश में कोई निर्णय नहीं लेंगे।

आज यह बात इसलिए करना पड़ रही है क्योंकि पांचवी बार बने मुख्यमंत्री ने अपने मंत्रिमंडल का जैसा गठन किया है उसे लेकर आलोचना भी की जा सकती है और शंका भी उभरती है। इस नए मंत्रिमंडल में नीतीश कुमार ने अपने बहुत से पुराने साथियों को फिलहाल अलग रखा है। अधिकतर मंत्री युवा और नए हैं। बताया गया है कि उन्होंने मंत्रिमंडलीय सहयोगियों का चयन करने में सामाजिक समीकरणों का विशेष ध्यान रखा है। इसके विपरीत यह भी कहा गया कि उन्होंने भौगोलिक समीकरणों को भुला दिया है। लेकिन इन सबसे बढ़कर आलोचना इसलिए हो रही है कि दुर्धर्ष नेता लालू प्रसाद यादव के दोनों बेटों को न सिर्फ मंत्रिमंडल में स्थान मिला है बल्कि एक को उपमुख्यमंत्री याने नंबर दो और एक को तीसरे क्रम की वरीयता दी गई है। दोनों भाई पहली बार विधायक बने हैं तथा उन्हें इतना महत्व देना बहुतों को असामान्य प्रतीत हो रहा है।

हमें याद आता है कि पांच तारीख को जैसे ही यह चुनाव परिणाम आए वैसे ही चर्चाएं आरंभ हो गई थीं कि लालूजी अपनी बेटी मीसा भारती को या फिर छोटे बेटे तेजस्वी को उपमुख्यमंत्री बनाएंगे। दो-एक दिन बाद यह चर्चा भी उठी कि लोकसभा चुनाव हार चुकी सुश्री मीसा को वे राज्यसभा में ले जाएंगे तथा तेजस्वी ही उपमुख्यमंत्री होंगे। एक और चर्चा इस बीच हुई कि मीसा भारती नहीं, बल्कि राबड़ी देवी राज्यसभा में जाएंगी। जहां पूर्व मुख्यमंत्री होने के नाते उन्हें यथेष्ट सुविधाएं प्राप्त होंगी तथा राष्ट्रीय राजनीति में अपनी भूमिका निभाने के लिए लालू प्रसादजी को एक उपयुक्त ठिकाना मिल जाएगा। जो भी हो, इन चर्चाओं से यह तो सिद्ध हुआ कि बिहार की राजनीति में सबसे बड़े दल का नेता होने के नाते लालूजी की बात का कदम-कदम पर वजन होगा। अपने दोनों बेटों को आलोचना होने की स्पष्ट संभावना के बावजूद मंत्रिमंडल में स्थान दिलवाकर उन्होंने अपना महत्व तो सिद्ध किया ही है; इसके अलावा उन्होंने ऐसा शायद कुछ व्यवहारिक कारणों से भी किया होगा।

इस तथ्य पर गौर करें कि लालू प्रसाद ने अपने बड़े बेटे तेजप्रताप को उपमुख्यमंत्री नहीं बनाया बल्कि इस पद के लिए अपने छोटे बेटे का चयन किया। इसके पीछे शायद कारण यह था कि तेजस्वी के तेवर अपने अग्रज की तुलना में कहीं ज्यादा तीखे, लड़ाकू और प्रखर हैं। यह भी हो सकता है कि उसने पिछले डेढ़-दो साल के दौरान अपनी राजनीतिक सूझ-बूझ का बेहतर परिचय दिया हो। कारण जो भी रहा हो, इससे लालू प्रसाद को एक लाभ अवश्य हुआ है कि उनकी व्यक्ति आधारित पार्टी में लालू के बाद कौन का झगड़ा अब शायद नहीं उठेगा। उनकी विरासत को तेजस्वी संभाल लेंगे। एक तरह से तमिलनाडु में करुणानिधि को जो पारिवारिक कलह देखना पड़ी वह स्थिति बिहार में नहीं होगी। हमें यहां ख्याल आता है कि ओडिशा में बीजू पटनायक की विरासत बड़े बेटे प्रेम की बजाय छोटे बेटे नवीन ही संभाल रहे हैं।

लालू प्रसाद के दोनों बेटों के मंत्री बनने को लेकर जो आलोचना हो रही है, उसके दो पक्ष हैं- एक- वंशवाद और दो- तेजस्वी और तेजप्रताप की शैक्षणिक योग्यता। भारत में वंशवाद की बात तो करना ही नहीं चाहिए। यह अकेले भारत की नहीं, बल्कि पूरे एशिया की फितरत है। कम्युनिस्ट चीन भी इससे बचा नहीं है। और अब तो अमेरिका में भी हम वंशवाद का नए सिरे से उभार देख रहे हैं। एडम्स, रूज़वेल्ट और कैनेडी को भूल जाइए। अब बुश और क्लिंटन का जमाना है। पहले सीनियर बुश राष्ट्रपति बने, फिर छोटे बेटे जार्ज बुश। बड़े बेटे जेब बुश फ्लोरिडा के गर्वनर थे। वे भी राष्ट्रपति पद के लिए अवसर तलाश रहे हैं। बिल क्लिंटन के बाद हिलेरी क्लिंटन तो सामने दिख ही रही हैं। कनाडा में पियरे ट्रूडो के पुत्र जस्टिन ट्रूडो हाल-हाल में नए प्रधानमंत्री चुने गए हैं। भारत की महिमा इस मामले में अपरंपार है।

जम्मू-कश्मीर से लेकर केरल तक और पूर्वोत्तर से लेकर लक्षद्वीप तक कोई भी ऐसी जगह नहीं है जहां राजनीति में वंश परंपरा के दर्शन न होते हों। जब पंजाब में पिता-पुत्र एक साथ मुख्यमंत्री और उपमुख्यमंत्री हो सकते हैं तो बिहार में जो हुआ है उसे अपवाद क्यों समझा जाए। इस बारे में सैकड़ों दृष्टांत दिए जा सकते हैं। उनकी बात करने से समय ही नष्ट होगा। दूसरी बात, यादव बंधुओं की शैक्षणिक योग्यता को लेकर है। उपलब्ध जानकारी के अनुसार दोनों भाईयों ने हायर सेकेण्डरी की पढ़ाई भी पूरी नहीं की। आज के समय में एक सामान्य परिवार के लिए यह घनघोर चिंता का विषय है। जिन लालू प्रसाद ने स्वयं विषम परिस्थितियों का मुकाबला कर अपनी पढ़ाई जारी रखी, वे अपने बेटों को पढ़ाने में क्यों चूक गए, यह कोई अच्छा दृष्टांत  नहीं है। महज अनुमान लगाया जा सकता है कि लालू प्रसाद-राबड़ी देवी दोनों ने अपनी राजनीति के फेर में संतानों की जैसी फिक्र करनी चाहिए थी वैसी नहीं की। खैर! यह उनके अपने घर की बात है।

इधर उपमुख्यमंत्री पद की शपथ लेने के बाद तेजस्वी की शैक्षणिक योग्यता को लेकर जो आलोचना हुई उसके जवाब में तेजस्वी ने ट्विटर पर यह टिप्पणी की कि-''किसी को भी पुस्तक का सिर्फ आवरण देखकर उसके बारे में राय नहीं बनाना चाहिए। मीठी शहद और कड़वी दवाई की तरह किसी क्षमता का फायदा थोड़ा वक्त बीत जाने के बाद ही मिलता है।" तेजस्वी सोच सकते हैं कि उन्होंने अपने विरोधियों को करारा जवाब दे दिया है, लेकिन इतने से बात नहीं बनेगी। उन्हें आने वाले दिनों में अपनी योग्यता सिद्ध करने के लिए जी-तोड़ परिश्रम करना होगा। हमारी राय में औपचारिक पढ़ाई वांछित तो है, लेकिन राजनीति में सहजबुद्धि की आवश्यकता अधिक पड़ती है। क्या इस कसौटी पर तेजस्वी खरा उतर पाएंगे। हमने तमिलनाडु के मुख्यमंत्री के कामराज को देखा है जो न हिन्दी जानते थे, न अंग्रेजी, लेकिन एक बेहतरीन प्रशासक सिद्ध हुए। बंशीलाल भी ज्यादा पढ़े-लिखे नहीं थे, लेकिन एक समय उन्होंने हरियाणा का कायाकल्प किया। गत वर्ष जब स्मृति ईरानी की इसी बिना पर आलोचना हुई थी तो इसी कॉलम में हमने उनका बचाव किया था। यह दुर्भाग्य की बात है कि वे अपने आपको सक्षम मंत्री सिद्ध नहीं कर सकीं। तेजस्वी और तेजप्रताप दोनों के सामने दोनों तरह के उदाहरण हैं। वे किस रास्ते जाते हैं, इसके लिए कोई लंबी प्रतीक्षा नहीं करना होगी। तब तक धैर्य रखा जा सकता है।
 
देशबन्धु में 26 नवंबर 2015 को प्रकाशित

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