Thursday 30 May 2013

''नक्सली हिंसा : लोकतंत्र पर हमला''



प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह नक्सलवाद को देश के सबसे बड़ी समस्या निरूपित कर चुके हैं। जब भी नक्सली हिंसा की किसी बड़ी वारदात को अंजाम देते हैं उस पर सामान्यत: पहली प्रतिक्रिया ''यह लोकतंत्र पर हमला है''- कहकर दी जाती है। इस बिन्दु पर कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी में सहमति नजर आती है। अन्यान्य राजनीतिक दलों की राय भी यही दिखती है। बहुत से समाज-सजग बुध्दिजीवी एवं कार्यकर्ता भी इसी स्वर में बात करते हैं। 25 मई को दरभा (बस्तर) के नक्सली हमले के बाद यही पहली प्रतिक्रिया चारों तरफ से सुनने मिली। बीएसएफ के पूर्व महानिदेशक  ई.एन. राममोहन व जाने माने सामाजिक अध्येता व लेखक रामचंद्र गुहा ने भी लगभग इन्हीं शब्दों में अपनी प्रतिक्रिया दी। इन दोनों के नाम मैं जानबूझ कर इसलिए उल्लेख कर रहा हूं कि 2006 में सलवा जुड़ूम का अध्ययन करने के लिए सिविल सोसायटी का जो दल आया था, ये दोनों उसके सदस्य थे, याने अतिवादी टीकाकारों की दृष्टि में वे नक्सलियों से सहानुभूति रखने वाले ही माने गए थे!

लोकतंत्र पर हमला एक प्रचलित जुमला जरूर बन गया है, लेकिन कहीं जुमलेबाजी में मूल प्रश्न न खो जाए इसलिए जरूरी है कि इसका बारीकी से अध्ययन किया जाए। एक सार्वभौम देश की लोकतांत्रिक अस्मिता पर हमले के कई स्वरूप हो सकते हैं। उस पर कोई दूसरा देश सीधे-सीधे आक्रमण कर सकता है, कोई दूसरा देश या बाहरी शक्तियां प्रत्यक्ष युध्द की बजाय कूटनीति अथवा अर्थनीति का इस्तेमाल करके भी लोकतंत्र को कमजोर कर सकती हैं, देश के भीतर ऐसे समूह और शक्तियां हो सकती हैं जो राज्य के भीतर सशस्त्र संघर्ष करें जैसा कि नक्सली कर रहे है; इन श्रेणियों के अलावा देश के भीतर ऐसे तत्व भी हो सकते हैं जो निजी आकांक्षाओं व स्वार्थों की पूर्ति के लिए कभी जाने में, कभी अनजाने में लोकतंत्र की बुनियाद पर हमला कर सकते हैं। संभव है कि इन व्यापक श्रेणियों में कुछ उप श्रेणियां भी बनाई जा सकें।

मैं श्री राममोहन और श्री गुहा जैसे विद्वानों की राय से इत्तफाक रखता हूं। आज भारत में अंग्रेजों का राज नहीं है। अपने संविधान की व्यवस्था के अंतर्गत देश में सोलह आम चुनाव हो चुके हैं। इन चुनावों ने नागरिकों को बार-बार यह मौका दिया है कि वे जिस राजनीतिक दल के नीतियों, सिध्दांतों, कार्यक्रमों अथवा क्रियाकलापों से संतुष्ट नहीं हैं उन्हें सत्ता से बाहर फेंक दें। जो कहते हैं कि चुनाव हथकंडों से जीते जाते हैं वे पूरे सच का एक बहुत छोटा सा अंश बयान करते हैं। बड़ी सच्चाई यह है कि जब जनता अपने पर उतर आती है तो फिर सत्तालोलुपों के हथकंडे धरे रह जाते हैं। अगर ऐसा न होता तो एक बार जो पार्टी चुनाव जीती वही अपने हथकंडों के बल पर अनंतकाल तक सत्ता पर काबिज रही आती। दरअसल यह सोच उन कुंठित और हारे हुए लोगों की है जो जनता के बीच काम करने जाने से कतराते हैं।

इस दृष्टिकोण से विचार करने पर हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि नक्सली भले ही शोषण से मुक्ति की आड में अपनी हिंसक कार्रवाई को जायज ठहराने का कितना भी प्रयत्न क्यों न करें, ऐसी हिंसा के लिए लोकतंत्र में न तो कोई जगह है और न वह किसी तरह से जायज है। वे जो लड़ाई लड़ रहे हैं उसमें उनकी जीत कभी नहीं होगी, लेकिन इसके चलते देश में जो अशांति और अस्थिरता का वातावरण बन रहा है वह लोकतंत्र के हित में नहीं है। नक्सलियों से एक सीधा सवाल यह पूछा जाना चाहिए कि जनता का शोषण क्या सिर्फ आदिवासी अंचलों में ही हो रहा है? आदिवासियों के अलावा देश में किसानों पर, मजदूरों पर, हाशिए पर धकेल दिए लोगों पर जो अत्याचार हो रहे हैं, उनका जिस तरह से शोषण हो रहा है क्या वह उन्हें दिखाई नहीं देता? फिर उनकी लड़ाई कैसे लड़ी जाएगी और कौन लड़ेगा?

यह हमें दिख रहा है कि नक्सली लोकतंत्र के शत्रु हैं, लेकिन आज यह विचार करना भी जरूरी है कि जिन परिस्थितियों के चलते नक्सलियों को बस्तर व अन्य आदिवासी क्षेत्रों में अपने पैर जमाने की जगह मिली, क्या वैसी परिस्थितियां देश के गैर आदिवासी इलाकों में बिल्कुल भी नहीं है?  दरअसल इस प्रश्न के दो हिस्से हैं।  हमने जिन्हें सरकार चलाने के लिए चुना है एक तो उन्हें इस बात का जवाब देना चाहिए कि आदिवासी इलाकों में व्याप्त विषम परिस्थितियों के निराकरण के लिए उन्होंने क्या प्रयत्न किए व इसमें कहां तक सफल हुए? दूसरे देश के अन्य भागों में ऐसी स्थितियां न बनें और अगर कहीं बन रही हैं तो उन्हें तत्काल सुधारने के लिए क्या कदम उठाए गए? मुझे यहां एक विशेषण का ध्यान आता है जिसका इस्तेमाल कई बरसों से भारत की कार्यपालिका कर रही है।

जैसा कि हम जानते हैं पिछले तीस साल में बार-बार और जगह-जगह प्रशासन के ''संवेदनशील'' होने की बात उछाली गई है। कुछ साल पहले इसमें एक और विशेषण जुड़ गया है- ''पारदर्शी''। हर सरकार दावा करती है कि वह एक संवेदनशील सरकार है और उसके प्रशासन में पारदर्शिता है, लेकिन क्या सचमुच ऐसा है? हम मानते हैं कि राजकाज में सरकार को कई बार अप्रिय निर्णय लेना पड़ते हैं। हम यह भी मानते हैं कि चौबीस घंटे चीखने वाले मीडिया के कारण बहुत से मुद्दों पर ठंडे दिमाग से बहस नहीं हो पाती, इस सीमा को स्वीकार करने के बावजूद आम धारणा यही है कि सरकार में संवेदनशीलता व पारदर्शिता दोनों का अभाव है।

जब लोकतंत्र पर हमले की बात की जाती है तो इस बारे में भी विचार करना होगा कि आतंकवादियों अथवा नक्सलवादियों द्वारा खुलेआम अंजाम दिए गए हिंसक कृत्यों के परे क्या कहीं वे शक्तियां भी काम कर रहीं हैं जो भीतर ही भीतर पोशीदा तरीके से भारतीय लोकतंत्र को नष्ट करने में लगी हुई हैं? हिन्दी फिल्म के एक संदर्भ से तुलना करने से बात बेहतर समझ आ सकेगी। एक समय प्राण, जीवन, कन्हैयालाल जैसे खलनायक होते थे जिन्हें देखकर समझ आ जाता था कि वे क्या करने वाले हैं। फिर गोविंद निहलानी की फिल्म 'अर्धसत्य' आई जिसमें सदाशिव अमरावपुरकर ने खलनायक के बाह्य व्यक्तित्व को एकदम से बदल दिया। यह बात वृहत्तर फलक पर हम अपने वर्तमान समय में लागू कर सकते हैं जहां मीठी-मीठी बातें और ऊंचे-ऊंचे वायदे तो बहुत हैं, लेकिन हकीकत में कहानी कुछ और ही है। 

आज देश में ऐेसे तमाम आंदोलन चल रहे हैं जिनसे पता चलता है कि जनता तथाकथित संवेदनशील सरकार के इस या उस निर्णय से क्षुब्ध और दु:खी है। सरकार कांग्रेस की हो, भाजपा की, चाहे किसी क्षेत्रीय दल की- स्थितियां सब जगह एक समान हैं। इन सरकारों से भी सीधे सवाल पूछा जाना चाहिए कि आपके जिस कदम से जनता प्रसन्न नहीं है वह निर्णय आप वापिस क्यों नहीं ले सकते और यदि आपका निर्णय सचमुच जनहित में है तो आप जनता को वैसा समझा क्यों नहीं पा रहे हैं? जो लोग लोकतांत्रिक प्रक्रिया से चुनाव जीतकर सत्ता में आए हैं उन्हें लोकतंत्र का शत्रु मानना तो बहुत बड़ी गलती होगी, लेकिन कहीं ऐसा तो नहीं है कि वे लोकतंत्र को नष्ट करने वाली उन शक्तियों के इशारे पर  ऐसे निर्णय ले रहे हैं, जिनके पास अपनी स्वार्थपूर्ति के आगे कोई एजेंडा नहीं है?

देशबंधु में 31 मई 2013 को प्रकाशित 

Wednesday 29 May 2013

नक्सली हिंसा : अपना-अपना नजरिया




भारत, जैसा कि नाम से ही अभिव्यंजित होता है, बुध्दिमानों का देश है। इसीलिए इस विशाल भूमंडल पर ऐसी कोई भी समस्या नहीं है, जिसका समाधान चुटकी बजाते इस देश के वासी न कर सकें। हर व्यक्ति जैसे अपने साथ रामबाण औषधियों की पेटी लेकर चलता है। मुश्किल तब होती है जब एक बीमारी के लिए हजार तरह के इलाज तजवीज़  किए जाने लगते हैं और ऐसा कोई भी हकीम नहीं होता जो अपने फार्मूले को दूसरे से बेहतर न मानता हो। नोबेल विजेता अमर्त्य सेन की पुस्तक 'द आर्ग्युमेंटिव इंडियन' की ऐसे में इसलिए याद आती है कि उन्होंने अंतहीन बहस करने की जिस प्रवृत्ति को भारतीयों का सद्गुण बताया है वही नाजुक मौकों पर देश के लिए सिरदर्द बन जाता है जब बहस कांव-कांव का रूप ले लेती है। पहले सार्वजनिक बहसें अखबारों तक सीमित थीं अब टीवी और सोशल मीडिया के चलते शोर इतना बढ़ जाता है कि बहस कहीं भी पार नहीं लगती।

देश में खासकर छत्तीसगढ़ में माओवाद अथवा नक्सलवाद के रूप में जो समस्या पिछले कई सालों से चली आ रही है उसका भी यही हाल है। 25 मई को दरभा (बस्तर) के पास कांग्रेस के काफिले पर हमला कर जो अभूतपूर्व हिंसा नक्सलियों ने की उसके बाद एक तरफ जिम्मेदार लोग यदि समझदारी के साथ नपे-तुले शब्दों में अपनी प्रतिक्रिया दे रहे हैं तो दूसरी तरफ ऐसा मंजर बन गया है, जिसमें कोई तर्कसम्मत बात शायद संभव ही नहीं है। समझदारी और नासमझी के बीच जो फर्क है उसे स्पष्ट देखा जा सकता है। केन्द्रीय रक्षा मंत्री व वरिष्ठ कांग्रेसी ए.के. एंटोनी ने दिल्ली में साफ-साफ कहा कि बस्तर में सेना नहीं भेजी जाएगी। ठीक इसी तरह छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री व प्रमुख भाजपा नेता डॉ. रमनसिंह ने भी यही कहा कि नक्सल समस्या से निपटने के लिए सेना की जरूरत नहीं है। उन्होंने इसके आगे कहा कि यह कोई सीमा पार की लड़ाई नहीं है। मैं याद दिलाना चाहता हूं कि ऐसे विचार मुख्यमंत्री पहले भी व्यक्त कर चुके हैं।

जब अलग-अलग पार्टियों से संबंध रखने वाले व अपने-अपने दायरे में निर्णयकारी भूमिका निभाने वाले दो जिम्मेदार नेता एक बिंदु पर सहमत हैं तब उसके बारे में क्या कम से कम इस समय प्रतिक्रिया देने का कोई औचित्य है? यह सब जानते हैं कि भाजपा में एक बड़ा वर्ग है जो नक्सलियों से लड़ने के लिए सेना का इस्तेमाल करना चाहता है। ऐसे जन अपने निजी विचार रखने के लिए स्वतंत्र हैं, लेकिन क्या उन्हें अपनी ही पार्टी के चुने हुए मुख्यमंत्री को मौका नहीं देना चाहिए कि वह अपनी सोच के अनुसार फैसले ले सके? यही बात उन कांग्रेस समर्थकों पर भी लागू होती है, जो कांग्रेस अध्यक्ष व प्रधानमंत्री दोनों की संयमित प्रतिक्रिया के बावजूद राष्ट्रपति शासन और मुख्यमंत्री के इस्तीफे की मांग कर रहे हैं। कहने का आशय यह कि यह जरूरी नहीं कि आप अपने निजी विचारों को बिना मौके व्यक्त करते रहें।

पिछले दो-तीन दिन से राष्ट्रीय स्तर पर इस मुद्दे पर जो बहस चल रही है उसमें एक सुझाव की ओर मेरा ध्यान खासकर गया। सुश्री किरण बेदी का मैं न तो कभी प्रशंसक रहा हूं और न कभी उनसे सहमत, लेकिन उन्होंने नक्सलवाद से निपटने के लिए जो सुझाव दिया वह गौरतलब है। उन्होंने कहा कि केन्द्र सरकार को विशेष सचिव (गृह) जैसे वरिष्ठ अधिकारी का पद बस्तर में निर्मित करना चाहिए ताकि वह वहीं बैठ समस्या के समाधान के लिए समन्वित कार्यनीति बनाकर उसे प्रभावी ढंग से लागू किया जा सके। उन्होंने इसके साथ यह भी कहा कि जो सिविल सोसायटी संगठन इस क्षेत्र में प्रयत्नशील हैं उन्हें भी बस्तर में रहकर समस्या को सुलझाने में अपना समय देना चाहिए। मुझे यह सुझाव इसलिए ठीक लगा क्योंकि स्वयं मैंने आज से कुछ साल पहले राय सरकार को सुझाव दिया था कि राय के मुख्य सचिव स्तर का एक अधिकारी बस्तर में तैनात किया जाए जिसकी कर्तव्यनिष्ठा, संवेदनशीलता और कार्यक्षमता असंदिग्ध हो और जो सिर्फ मुख्यमंत्री के प्रति जवाबदेह हो। मैंने ऐसे दो-तीन अफसरों के नाम भी सुझाए थे। यह अलग बात है कि राय सरकार ने इस प्रस्ताव पर गौर करना जरूरी नहीं समझा।

किरण बेदी और मेरे सुझाव में कुछ अंतर हो सकता है, लेकिन लक्ष्य संभवत: एक ही है। रायपुर, भोपाल अथवा दिल्ली में बैठकर चर्चाएं बहुत हो सकती हैं, निर्णय लिए जा सकते हैं, कार्ययोजना अथवा रणनीति भी बनाई जा सकती है, लेकिन यक्ष प्रश्न है कि उसे लागू कौन करे? आप बस्तर में चाहे सशस्त्र बलों की कार्रवाई कर रहे हैं, चाहे विकास कार्यों को बढ़ाना चाहते हैं, यदि जमीनी स्तर के अधिकारियों एवं कर्मचारियों में अपने को सौंपे गए दायित्वों के प्रति उत्साह नहीं है, वे भयाक्रांत हैं, भ्रष्टाचार में लिप्त हैं, खरीद लिए गए हैं,  या कि बस्तर को ''पनिशमेंट पोस्टिंग'' मान रहे हैं तो सरकारी इरादों की गाड़ी आगे बढ़ ही नहीं सकती। पच्चीस मई की घटना से स्पष्ट है कि बस्तर का सरकारी अमला इसी तरह की मानसिकता में जी रहा है। यह सोचने की बात है कि देश के सीमांत क्षेत्रों में हमारा सूचनातंत्र सौ में से शायद पंचयानवे बार सफलतापूर्वक कार्य करता है, लेकिन बस्तर से बार-बार सूचनातंत्र के विफल होने की खबर ही क्यों मिलती है? अगर इसी मुद्दे पर और गौर किया जाए तो यह विचार उभरता है कि बस्तर में सेना तैनात करने की नहीं, बल्कि पुलिस व प्रशासनतंत्र को मजबूत करने की है, जिसे एक सक्षम  नेतृत्व की तलाश है। 

सिविल सोसायटी संगठनों के बारे में भी मैं समझता हूं कि सुश्री बेदी ने कोई गलत बात नहीं कही है, लेकिन इसे संदर्भ सहित समझने की जरूरत है। यदि राजसत्ता सिविल सोसायटी को अपना दुश्मन मानकर चलेगी, उनकी सकारात्मक भूमिका को मानने से इंकार कर देगी, उन्हें हद से बाहर जाकर प्रताड़ित करेगी तो फिर ऐसे संगठन वहां काम कैसे कर पाएंगे? किरण बेदी को संभवत: यह स्मरण नहीं है कि छत्तीसगढ़ में सिविल सोसायटी के छोटे-मोटे कार्यकर्ताओं की बात तो दूर, देश के जाने-माने बुध्दिजीवियों के साथ पिछले बरसों में क्या सलूक किया गया है। मैं नोट करना चाहूंगा कि जयप्रकाश नारायण के सहयोगी रह चुके वरिष्ठ पत्रकार (स्व.) अजीत भट्टाचार्य सलवा जुड़ूम के अध्ययन के लिए यहां आए तो मैं कोशिश करके भी उनकी भेंट प्रदेश के मुखिया से नहीं करवा सका। इसी तरह प्रोफेसर यशपाल ने देश के साथ-साथ इस प्रदेश की विशेषकर जो सेवा की, उसे भूल कर उनके साथ भी यथोचित व्यवहार नहीं किया गया। आज की परिस्थिति में यदि मुख्यमंत्री सिविल सोसायटी की भूमिका के बारे में पुर्नविचार करने को राजी हों, तो किरण बेदी की सलाह मानने योग्य हो सकती है।

मैं इस बात को थोड़ा और आगे बढ़ाना चाहूंगा। जिसे हम सिविल सोसायटी कहते हैं वह नागरिक समाज का वह अंग है जो राजसत्ता से हटकर लोक महत्व के विभिन्न मुद्दों पर एक वैकल्पिक सोच प्रस्तुत करता है। राजसत्ता उसके विचारों को माने या न माने, उन्हें सुनने का धीरज और संयम तो उसमें होना ही चाहिए। यह संभव है कि ऐसे कार्यकर्ताओं में कुछ लोगों का रवैया व्यवहारिक न हो, रूमानियत का हो, कुछ हो सकता है कि सरकार को ही एक तरफा दोषी मानते हों, यहां तक कि यह भी संभव है कि कुछ लोग नक्सलियों से बौध्दिक सहानुभूति रखते हों, लेकिन यदि ऐसे लोग जनतांत्रिक मर्यादा के भीतर रहकर बात कर रहे हों, तो तमाम असहमति और असहजता के बावजूद इनकी उपस्थिति को स्वीकार करना चाहिए।

मैं स्वयं सिविल सोसायटी के उन कार्यकर्ताओं से सहमत नहीं हूं जो नक्सलियों की अविचारित हिंसा का खुलकर नहीं बल्कि सशर्त विरोध करते हैं। हमारी व्यवस्था में जो कुछ भी खामियां हों, उनका प्रतिकार जनतांत्रिक व अहिंसक तरीके से ही करना चाहिए। यदि आपको कांग्रेस अथवा भाजपा पसंद नहीं है तो आप कम्युनिस्ट पार्टी को चुनने के लिए स्वतंत्र हैं। यदि आप उनसे भी निराश हैं तो कोई और राजनीतिक संगठन बना लीजिए। जो बंदूक की नली से परिवर्तन लाना चाहते हैं, उन्हें जनतांत्रिक राजनीति में भाग लेने के लिए आह्वान कीजिए। अगर नेपाल में प्रचंड और बाबूराम भट्टराई सशस्त्र अभियान छोड़कर जनतांत्रिक राजनीति में आ सकते हैं तो भारत के माओवादियों को इसके लिए राजी क्यों नहीं किया जा सकता? इस बिन्दु पर केन्द्र, राय, राजनीतिक दल व सिविल सोसायटी- इन सबके बीच गंभीर चर्चा होना चाहिए। जो मीडिया में अपनी अक्लमंदी दिखाना चाहते हैं, दिखाते रहें।


देशबंधु में 30 मई 2013 को प्रकाशित 

Tuesday 28 May 2013

EVEREST: AGAIN AND AGAIN

                                      

Today is a memorable day. Fifty years ago, on 29th May 1953, Sir Edmund Hillary and Sherpa Tenzing Norgey had reached on Mount Everest, the highest peak in the world. It was an extra-ordinarily thrilling moment in the mankind’s victorious march. The world is celebrating golden jubilee of that historic occasion for last several days. Special material is being published in the journals on Mt. Everest. To re-enact the past, a large number of expeditions have been taken up in this season with renewed enthusiasm. A 16-year Sherpa girl reached the top and created a new record. She became the youngest person to attain these heights. A Japanese mountaineer made another record. At the ripe age of 70, he became the oldest person ever to reach on Mt. Everest. A successful expedition was conducted by a group of 5 Indian Army personnel. In the meantime, an interesting story has come to light through a new book published by Major M.S.Kohli, an Everest veteran. We now know that Major Kohli was serving the Indian Army as a spy in the Himalayas. What could have been a better cover for conducting the task? Among all these heart-warming stories, one comes across unseemly debates about whom really reached first on Mt. Everest, and who should be given credit for this feat. In this huge pile of news stories two items were quite worrisome. One that the pristine beauty of Mt. Everest and of its approaches was being marred due to garbage and rubbish littered around by the climbers. Another was that nouveau riche people, who have hardly any love lost for the mountains, were joining the expeditions in large numbers with an eye on the fame that their money could buy.

One of the two heroes of 1953 is not alive today. Sherpa Tenzing Norgey passed away many years ago. But it’s heartening to note that in this festive atmosphere all has duly and richly remembered him. His achievement is a matter of pride for the sub-continent. Though, Tenzing was a Nepalese, India always treated him as her own. For a long time, he served as the Director of National Mountaineering Institute, Darjeeling, and taught the youngsters to live fearlessly and accept challenges in life. This may be recalled that ever since his return from the expedition, he got immense affection and support from Pt. Jawahar Lal Nehru. Sir Edmund Hillary is still active defying his age. The Govt. of New Zealand did a very sensible thing some years ago, by appointing him as High Commissioner to India. A relationship of deep love and affection between Sir Edmund and India & Nepal has developed over the years. He refused to consider the Everest victory as his final mission. Readers may remember that after that he once lead the Ganga expedition, too. But the beauty is that he has molded his achievements into a life filled with profound human concern. Hillary is running many a programmes for the welfare of the Sherpas living in the shadow of the Himalayas. Not many people know that there are 27 hospitals and a number of schools being run under his guidance. He is also conducting several job-training programmes for their well-being. One feels grateful to Sir Edmund Hillary for his concerns and philosophy of life.

The mankind has always yearned to break new grounds and attain new heights. It is in his nature. In the modern times, Hillary and Norgey are among the brightest examples of this inherent quest. I tend to remember so many other names, stories of whose deeds fill our hearts with joy and thrill, and inspire to do something new and good in life, like Yuri Gagarin, Valentina Tereshkova, Neil Armstrong, Rakesh Sharma and now Kalpana Chawla. The persons of my age may also remember “Lyka”- the very first creature to orbit the space, a trusted friend of man. None of the above-mentioned was either a spiritual Guru giving discourse on meaning of life, or a philosopher deliberating on the question of relationship between life and cosmos, nor a statesman steering the course of nation and society, and nor a billionaire with the inflated notion of holding the universe in his palms. They all were ordinary people, living an ordinary life; but aren't the meaning of life, secrets of the cosmos, direction of the society and the power to hold the world self-evident in what these people have achieved?

Think of it, what does a person need in this life? What is there to life after fulfilling basic requirements of day-to-day existence? There are a big, very big number of those who are content to live an eventless, mundane life. They are happy people, who don’t look beyond their own existence. Then are a big number of those for whom the ultimate meaning of life lies in amassing wealth and power. They are pre-occupied all the time with selfish desires of name, fame, sensuous pleasures, and even salvation. To fulfill their dreams, they show false dreams to others. But when asked if the mankind has made all the progress on the strength of these tow categories, reply will be an emphatic NO. Those who have remained confined to their respective circles, big or small, are no doubt part of the larger picture, but their existence has never been a fount of inspiration to human civilisation.  If we have made any progress over last several thousand years, it has been achieved only due to those who dared to come out of narrow confines, who refused to be blind-folded forever like the ox in the oil-mill, and those who chose to go on uncharted paths. I would like to quote a few lines from my favorite poem by Robert Frost- “Two roads diverged in the woods/ I took the one, less travelled by/ and it made all the difference”.

Hillary and Norgey did reach atop Mt. Everest, but what did they achieve by it? There was no hidden treasure on the peak; no rare jewels were to be found there. But their expedition did serve to unfold a number of hidden meanings. Who could have better understood the meaning of being alone on the top than this duo? Isn’t it in-built in the pains suffered in a difficult journey on a rough terrain that a life isn’t exactly bed of roses? Doesn’t an arduous journey undertaken by two persons- one a white-skinned sahib from New Zealand, another a poor labourer from a small village in Nepal- prove that after a point, nation, religion, language, colour of skin, and gender, all lose their relevance? It would rather be more correct to say that they are always irrelevant and meaningless, but such journeys help us to see them still clearly. What else this successful expedition did was that thousands of young persons were encouraged to shed their fears and hitch and go out to explore new horizons- From Norbu, Kohli, Ahluwalia, Bachendri Pal and Santosh Yadav to this sixteen-year-old girl. Let it be remembered that this story dates back to the era when there was no Guinness Book of Records. Those early explorers were quite different from those who undertake such missions for material gains. Mt. Everest expedition was not a game sponsored by a TV channel or a liquor company. There may be momentary thrill and self-satisfaction in the gimmicks being performed these days and new records being set everyday, but the seed of inspiration is not there. The way these games are shown on TV screen leads in no time to boredom and indifference. The acrobatics showed in a circus look more real and lively, perhaps because the anguish of life is evident in them.

Today we salute Sir Edmund Hillary and send him our best wishes. We also remember Sherpa Tenzing Norgey from the depths of our hearts, and would like to hope that young people not only in India, but also all over the world will take inspiration from this saga. If there is any meaning of this golden jubilee day, it is that young ones should say good-bye to despair and dejection; and putting aside all differences of race, colour, language, gender and nationhood should strive to conquer hitherto unreached summits of human civilisation.

Mt. Everest may inspire us, again and again.
Originally written in Hindi. First Published in Deshbandhu, Raipur on 29th may 2003.

Reproduced on the 60th anniversary of that historic day. 


Sunday 26 May 2013

नक्सली तांडव : नई रणनीति की जरूरत



छत्तीसगढ़ में नक्सलियों द्वारा शुरु हिंसा का तांडव थमने के कोई आसार नजर नहीं आते। 25 मई को बस्तर में कांग्रेस के काफिले पर हमला कर कई वरिष्ठ नेताओं सहित कोई तीस व्यक्तियों को मार देने का जो जघन्य अपराध उन्होंने किया है उसकी मिसाल मिलना मुश्किल है। यह तय है कि नक्सलवाद अपने प्रारंभिक दौर के सिध्दांतों को पूरी तरह छोड़ एक नई राह पर चला गया है। नक्सली दस्ते जिस दु:साहस के साथ अविचारित हत्याएं कर रहे हैं उससे जाहिर होता है कि वे न सिर्फ छत्तीसगढ़ प्रदेश बल्कि अपने सारे प्रभाव वाले क्षेत्र में आतंक की सत्ता कायम रखना चाहते हैं। महेंद्र कर्मा, नंदकुमार पटेल और उनके बेटे को जिस नृशंसता से मारा गया, इसका प्रमाण हैं। आज के ये नक्सली किसी भी तरह से चारू मजूमदार और कनु सान्याल के वारिस नहीं हैं। देश का न्यायतंत्र इन्हें कब, क्या सजा दे पाता पाता है, पता नहीं। लेकिन समय आ गया है जब इनके अमानुषिक कृत्यों पर शाब्दिक निंदा या भर्त्सना करने की औपचारिकता निर्वाह करने से आगे बढ़कर समस्या को जड़मूल से समाप्त करने के बारे में विचार किया जाए।

छत्तीसगढ़ और उसके पड़ोसी प्रदेशों में व्याप्त नक्सली हिंसा का मुकाबला करने के लिए जरूरी है कि अतीत के अध्यायों को फिर से पढ़ा जाए, वर्तमान घटनाचक्र की विवेचना हो और इसके आधार पर भविष्य के लिए तर्कसंगत रणनीति अपनाई जाए। इस रणनीति के अल्पकालीन और दीर्घकालीन दो आयाम होंगे। दूसरी ओर राय विशेष की स्थितियों के आकलन के साथ-साथ राष्ट्रीय परिदृश्य पर भी इस बारे में विचार करना होगा। कहने का आशय यह कि आग लगने पर कुंआ खोदना अथवा एक त्रासदी हो जाने पर दो-चार दिन चिंता व्यक्त कर भूल जाना और फिर सब कुछ पहले की तरह चलने देना, इसमें बात नहीं बनेगी। देश व प्रदेश की सरकार को इस हेतु व्यापक स्तर पर विचार-विमर्श करने की आवश्यकता है, ऐसा हम समझते हैं। 

यह गहरी विडंबना है कि कल जब विश्व को अहिंसा और मध्यमार्ग का संदेश देने वाले भगवान बुध्द की जयंती थी, उसी दिन नक्सलियों ने यह खूनी खेल खेला। इस त्रासदी के बाद यह प्रश्न जनमानस को अवश्य उद्वेलित कर रहा होगा कि अब आगे क्या होगा। इसके विश्लेषण के अनेक बिन्दु हमारे सामने उभरते हैं। एक दृष्टि से  गौर करें तो छत्तीसगढ़ में कांग्रेस पार्टी के सामने गहरी चुनौती खड़ी हो गई है। उसके तीन प्रमुख नेता- महेन्द्र कर्मा और नंदकुमार पटेल व उदय मुदलियार अन्यों के साथ मारे गए हैं, जबकि भारतीय राजनीति के एक वरिष्ठतम नेता विद्याचरण शुक्ल अपनी दृढ़ इच्छाशक्ति के साथ मौत से लड़ रहे हैं। आने वाले दिनों में प्रदेश में कांग्रेस का क्या होगा? श्री कर्मा और श्री पटेल दूसरी पीढ़ी के चार प्रमुख नेताओं में थे जिनमें से अब दो ही बचे हैं- चरणदास महंत और रवीन्द्र चौबे। श्री चौबे के सत्तापक्ष के साथ मधुर संबंधों की चर्चा अक्सर सुनी जाती है। श्री महंत एक बार प्रदेश अध्यक्ष रह चुके हैं व फिलहाल केन्द्रीय मंत्री हैं। क्या कांग्रेस हाईकमान उन पर विश्वास करेगी कि वे प्रदेश में पार्टी का जनाधार मजबूत कर पाएंगे या फिर एक बार फिर पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी के नेतृत्व पर विश्वास किया जाएगा?

दूसरी ओर भारतीय जनता पार्टी और उसकी सरकार के सामने भी चुनौतियां कम नहीं हैं। कल की दुर्घटना के बाद मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह शायद इस बात पर पुनर्विचार कर रहे होंगे कि उनकी निजी लोकप्रियता व आम जनता के साथ समरसता, सुदृढ़  प्रशासन का पर्याय नहीं है। यह स्पष्ट दिख रहा है कि छत्तीसगढ़ पुलिस में नक्सल समस्या तो क्या, दैनंदिन स्थितियों को संभालने की क्षमता भी अपेक्षानुकूल नहीं है। एक तरफ यह पुलिस निहत्थे आदिवासियों को नक्सल मानकर उन पर गोलियां बरसाती है, तो दूसरी तरफ जहां सचमुच नक्सली मौजूद होते हैं वहां उसका  पूरा तंत्र विफल हो जाता है। केन्द्र सरकार प्रदेश में तैनात सीआरएफपी के संख्या बल में भले ही बढ़ोतरी कर दे, लेकिन राज्य की पुलिस अपनी प्राथमिक जिम्मेदारी से कैसे बच सकती है?

यह स्थिति विकट है और इसके निराकरण के लिए कहीं से प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लागू करने की बात हो रही है तो एक तबके से फिर आवाज आ रही है कि बस्तर को सेना के हवाले कर दिया जाए। हमारी राय में ये दोनों विकल्प स्वीकार करने योग्य नहीं हैं। प्रदेश चलाने की जिम्मेदारी चुनी हुई सरकार की है और बस्तर को छोड़कर प्रदेश में अन्यत्र कहीं भी ऐसी स्थिति नहीं है जिससे राष्ट्रपति शासन का औचित्य बनता हो। दीर्घकालीन नीति के तहत बस्तर में छठवीं अनुसूची लागू करने अथवा स्वायत्तशासी क्षेत्र निर्मित करने जैसे विचार भी सामने आते हैं। हम ध्यान दिलाना चाहेंगे कि पश्चिम बंगाल में गोरखालैण्ड क्षेत्रीय प्रशासन अभिकरण (जीटीए) का अनुभव बहुत संतोषजनक नहीं रहा है। छठवीं अनुसूची की मांग में दम है, लेकिन क्या इसके पहले पांचवीं अनुसूची याने पेसा कानून को प्रभावशाली ढंग से लागू करने पर ध्यान नहीं दिया जाना चाहिए?

यह ऐसा विषय है जो स्वयं मुख्यमंत्री के ध्यानाकर्षण की मांग करता है। वे पिछले कई सालों की तरह इस साल भी भीषण गर्मी के बीच अपनी विकास यात्रा पर निकले हुए हैं। यह चुनाव का वर्ष है और स्वाभाविक है कि इस बार की यात्रा में राय की मुखिया का ध्यान मतदाताओं को रिझाने में कुछ ज्यादा ही हो। लेकिन हमारे विचार में मुख्यमंत्री को विकास यात्रा अब यहीं समाप्त कर देना चाहिए। शायद अधिक बड़ी जरूरत इस बात की है कि वे नियमित रूप से अपने कार्यालय में बैठें तथा प्रदेश की काबू से बाहर हो चली नौकरशाही को जवाबदेही के साथ काम करने के लिए प्रेरित करें। डॉ. रमन सिंह का जो जादू आम जनता पर चलता है उसका कुछ दर्शन मंत्रालय और पुलिस मुख्यालय में भी होना चाहिए। उन्होंने पिछले साढ़े नौ साल के दौरान जनहित में बहुत से कदम उठाए जिनकी सराहना उनके विपक्षियों ने भी की, लेकिन अब शायद वक्त है कि सलवा जुड़ूम सहित उनके जिन निर्णयों का अपेक्षित प्रभाव नहीं पड़ा उसका विश्लेषण कर जहां भी स्थितियां बिगड़ी हैं, उन्हें ठीक करने के लिए ठोस कदम उठाए जाएं।

25 मई की नक्सली हिंसा की खबर पाते साथ मुख्यमंत्री ने अपने सारे कार्यक्रम स्थगित किए, राजकीय शोक घोषित किया, राजकीय सम्मान के साथ मृतकों की अन्त्येष्टि की घोषणा की- ये सब सही कदम थे। रायपाल शेखर दत्त ने देर रात पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी के नेतृत्व में आए कांग्रेसी प्रदर्शनकारियों से भेंट की, शांतिपूर्वक उनकी बातें सुनीं, आज मुख्यमंत्री के साथ जगदलपुर के अस्पताल में घायलों से मुलाकात की, यह भी ठीक हुआ। केन्द्र सरकार व कांग्रेस के केन्द्रीय नेतृत्व में जो तत्परता और संवेदनशीलता दिखाई उसे भी नोट किया जाना चाहिए। राहुल गांधी तो तत्काल ही रायपुर पहुंचे, स्वयं प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह और कांग्रेस अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी भी तुरंत छत्तीसगढ़ आए, यह भी उचित हुआ, खासकर तब जबकि प्रधानमंत्री को 27 की सुबह विदेश यात्रा पर निकलना है।

महेन्द्र कर्मा, नंदकुमार पटेल, उदय मुद्लियार ये सब प्रदेश की राजनीति के महत्वपूर्ण स्तंभ थे। इनके साथ मेरा कई बरसों का व्यक्तिगत संबंध था। इस त्रासदी में कांग्रेस के नेताओं के साथ-साथ अपनी डयूटी निभाते हुए जो सुरक्षाकर्मी, ड्रायवर आदि व कांग्रेस कार्यकर्ता मारे गए, उन सबको हमारी हार्दिक श्रृध्दांजलि तथा सभी घायल व्यक्तियों के स्वास्थ्य लाभ के लिए शुभकामनाएं। ऐसी दुर्घटना दुबारा न हो इस संकल्प के साथ एक नई कार्यनीति क्या, कैसे बने, सभी विचारशील जन इस बारे में सोचें।

देशबंधु में 27 मई 2013 को प्रकाशित विशेष सम्पादकीय 

Wednesday 22 May 2013

चलो, लंगर में चलते हैं




दो
पहर का वक्त है, यही कोई एक-दो बजे का, बहुत लोगों के लिए यह ''लंच अवर है''; या शायद समय शाम का है, चार-पांच बजे के आसपास ''टी टाइम'' या फिर घर लौटने का वक्त। इसी समय सड़कों पर आवाजाही लगी हुई है। जितनी संभव हो उतनी तेज रफ्तार से गाड़ियां दौड़ रही हैं, लेकिन इससे निर्लिप्त सड़क किनारे शामियाना सजा हुआ है। नाली के ऊपर मच्छर-मक्खियां उड़ रहे हैं। आवारा कुत्ते भी पंडाल के आसपास सुस्ता रहे हैं। एक तरफ भट्ठी सुलगी हुई है और पूड़ी, सब्जी, बूंदी, जलेबी उतारी जा रही है। एल्युमीनियम के बड़े-बड़े गंजों में सामग्री रखी है, पंडाल में किराया भंडार से आई दो -तीन बेढब डाइनिंग टेबलें बिछी हैं, वहीं से पत्तल-दोनों में खाद्य सामग्री का वितरण हो रहा है। एक तरफ लोहे के पुराने ड्रम में सड़क के नल से ही भरा हुआ पानी है, ये ड्रम और घड़े कभी धुलते भी  हैं या नहीं, इसकी किसी को चिंता नहीं है और न आसपास के माहौल की। यह कोई शादी की दावत नहीं बल्कि आज फिर अपना परलोक सुधारने के लिए ईश्वर के किसी भक्त ने लंगर खोला है। 

पंडाल के सामने अच्छी खासी भीड़ है: चारों तरफ से लोग उमड़े चले आ रहे हैं- आदमी, औरत, बूढ़े, बच्चे। पैरों में या तो पुरानी हवाई चप्पल है या फिर नंगे पैर। बहुतों के हाथ में घर से लाया एकाध कटोरदान भी है। बन पड़ेगा तो थोड़ा प्रसाद, थोड़ी मिठाई घर भी ले जाएंगे, लेकिन पकवान की आस में जुटे ये सारे लोग अशक्त, लाचार, घर से निकाले गए, भीख मांगने के लिए बेबस जन ही हों, ऐसा नहीं है। इनमें से बहुतेरे ऐसे हैं जिनके घर पास में ही हैं। बरसात में टपकने वाली झोपड़ी नहीं, बल्कि पक्के मकान। घर में बिजली भी है, शायद टीवी का कनेक्शन भी। अब वे दिन नहीं जब लोग रविवार की शाम मुहल्ले के किसी धनी धोरी के घर जाकर दूरदर्शन पर फिल्म देखने के लिए ललचते थे। ये वे लोग हैं जो किसी न किसी तरह की मेहनत-मजदूरी करते हैं। कोई सरकार तीन रुपए किलो तो कोई एक रुपया, दो रुपया किलो में गेहूं-चावल भी देती है, फिर भी ये लंगर में अपने हाथ पसारे खड़े हुए हैं।

यहां वे लोग भी हैं जो थोड़ी देर पहले पास के किसी दूसरे मोहल्ले में जाकर प्रसाद पा चुके हैं और इस लंगर की खबर पाकर दौड़ते-भागते यहां आए हैं। लेकिन यह क्या? पंडाल के सामने से स्कूटी और बाइक वाले क्यों खडे हैं? ये करीने से पेंट-शर्ट पहने हैं। इनकी कलाई पर घड़ी बंधी हुई है। फिर इन्हें यहां रुकने की क्या जरूरत थी? क्या ये लंगर सेवा करने वाले, सेठ का परलोक सुधारने वाले देवदूत हैं, जो प्रसाद का एक कण पाकर तृप्त हो जाएंगे और दुआएं मांगेंगे या फिर इनके मन में भी वही लालच है कि आज बढ़िया तर माल खाने मिल रहा है! यह तस्वीर शायद हिन्दुस्तान के हर शहर में, हर कस्बे में देखी जा सकती है और  हे पाठक!  इसे आपने भी कई बार देखा होगा। कहते हैं कि मनुष्य जीवन बड़ी तपस्या से मिलता है- चौरासी लाख योनियों में सिर्फ एक बार। इस जीवन पर, अपने होने पर, अपने दो हाथों पर जिन्हें भरोसा और अभिमान होना चाहिए वे क्यों इस तरह से अपने आपको नीचे गिरा रहे हैं?

बहुत बात होती है कि आजादी के पैंसठ साल बाद भी यह नहीं हो सका या वह नहीं हो सका। बड़े-बड़े दावे होते हैं कि हम अगर सत्ता में आ गए तो सब कुछ बदल डालेंगे। जैसे किसी बल्ब के विज्ञापन में हास्य अभिनेता असरानी कहता था-''सबके सब बदल डालूंगा'', लेकिन सचमुच में क्या हो रहा है। केन्द्र हो या राज्य, सैकड़ों बल्कि हजारों योजनाएं वक्त-वक्त पर चलाई गई होंगी- बच्चों के लिए, औरतों के लिए, विकलांगों के लिए, मजदूरों के लिए, बाबूओं के लिए, अध्यापकों के लिए किन्तु कुल मिलाकर इनका क्या हश्र है। इस बीच एक दौर यह भी आया, जब कहा गया कि नागरिकों के अधिकार सुनिश्चित किए जाएंगे- सूचना का अधिकार, शिक्षा का अधिकार, स्वास्थ्य का अधिकार, भोजन का अधिकार वगैरह-वगैरह। अधिकार अपनी जगह पर दुरुस्त हैं, योजनाएं भी लागू हैं, फिर भी कितने सारे लोग क्यों उस लंगर की ओर दौड़े चले जा रहे हैं, जो शायद अपने पापों को छिपाने के लिए किसी हत्यारे, तस्कर, मिलावटखोर या कालाबाजारी ने खुलवाया होगा!

यह गोरखधंधा कुछ समझ नहीं आता। कभी एपीएल या बीपीएल की परिभाषा को लेकर बहस चलती है, तो कभी इस बात पर बखेड़ा खड़ा होता है कि एक आदमी को जीवन निर्वाह के लिए प्रतिदिन कम से कम कितने रुपए चाहिए, कभी किसी प्रदेश के किसी खास इलाके से रोजी-रोटी की तलाश में लोगों के पलायन की खबर आती है, तो कभी सरकारी दावा कि पलायन करने वाले किसी समूह को वापस गांव भेज दिया गया है, तो कभी यह भी कि आंध्र के या उत्तरप्रदेश के ईंट भट्ठे में अथवा कश्मीर व उत्तराखंड के किसी सड़क के मरम्मत में लगे आप्रवासी मजदूरों के हालात कितने बदतर हैं कि उन पर कैसे अत्याचार होते हैं। फिर कभी पता चलता है कि इलाज के लिए दिए गए स्मार्ट कार्ड का पैसा डॉक्टर और अफसर मिलकर हड़प कर जाते हैं, तो कभी यह कि स्मार्ट कार्ड के बदले मिलने वाली क्षतिपूर्ति की रकम पूरी नहीं पड़ती इसीलिए कि डॉक्टर साहब इलाज ही नहीं करेंगे। कभी गरीबों के सिर पर छत मुहैय्या करने की बात चलती है, तो कभी यह पता चलता है कि ठेकेदार ने इतने खराब मकान बनाए कि ढह गए और दर्जनों गरीबों के लिए उनका आश्रय ही कब्रगाह में बदल गया। 

भिनभिनाते मच्छरों और मक्खियों के बीच सड़क किनारे चल रहे शानदार लंगर और नई-पुरानी राजधानियों के नए पुराने सरकारी दफ्तरों में दस-दस दरवाजों के पीछे, सौ-सौ पहरेदारों के घेरे में सुरक्षित बैठकर ''लंच अवर'' और ''टी टाइम'' का आनंद उठाने वाले नीति निर्माताओं के बीच क्या किसी तरह का संबंध है और क्या उसे जानने की कोशिश उन विद्वानों ने कभी की है जो रोज शाम को टीवी पर अपना चेहरा देखकर और अपनी बातें सुनकर मुग्ध होते रहते हैं। वे ही क्यों, अखबार के दफ्तर में बैठकर अपनी कलम का जौहर दिखाने वाले पत्रकार भी अपने बारे में कितना सोचते हैं? अखबार की ऐसी हैडलाइन्स पर जरा गौर कीजिए- फलाने कार्य के लिए दस करोड़ की राशि स्वीकृत, अमुक स्थान के लिए बीस करोड़ की योजनाओं की मंजूरी, पचास करोड़ के विकास कार्यों की सौगात, शिक्षा अभियान के लिए दस अरब का प्रावधान, जिला अस्पताल को मिलेंगे पांच करोड़ आदि-आदि। ऐसी तमाम घोषणाएं संसद व विधानसभा के भीतर होती हैं और बाहर भी। इनके लिए सालाना बजट में भी प्रावधान होता है, लेकिन फिर क्या होता है? आज खबर छापी, कल भूल गए! कितना पैसा सचमुच आया, कितनी राशि सचमुच खर्च हुई, कितनी कमीशन में बंट गई, कितनी कालातीत हो गई इन सबकी कड़ियां कैसे जोड़ी जाएं- इन सब पर ध्यान नहीं जाता।
ऐसे में क्या होता है? यह नहीं कि सिर्फ लंगर खोलने वाला ही जनता को हाथ पसारने के लिए कह रहा है। यहां तो देश-प्रदेश की सरकारें भी मनुष्य के नागरिक होने का गर्व चूर-चूर कर उसे भिखारी बनने पर मजबूर कर रही हैं। मनरेगा में साल में सौ दिन रोजगार मिले, डेढ़ सौ दिन भी मिले, ठीक है किन्तु क्या सचमुच ऐसा हो रहा है? राशन दूकान से एक रुपया या दो रुपए में गेहूं-चावल मिले, वह भी ठीक है, लेकिन वही अनाज उसी दूकान में वापिस, सात या आठ रुपए में बेच दिया जाए, तो क्या इसे भी ठीक माना जाए? कॉलेज के विद्यार्थियों को लैपटाप दें, बात समझ में आती है, लेकिन वही लैपटाप दो घंटे बाद दुबारा बाजार में बिकने आ जाए तो फिर क्या? मेरे सामने तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिताजी के हाल में अखबारों में छपाए गए चार-चार पेजों के विज्ञापन हैं। वे विद्यार्थियों को लैपटाप दे रही हैं, लड़कियों को शादी के लिए सोने के आभूषण, गरीबों को सस्ता अनाज, गड़रियों, ग्वालों को गाय, बकरी और भेड़ और गृहणियों को बिजली का पंखा, मिक्सर और ग्राइंडर। हर जगह कुछ न कुछ ऐसा ही चल रहा है। जिन्हें हमने चुनकर भेजा उनका कद इतना ऊंचा कि आम आदमी उनके सामने घास का तिनका। वे सौगात दे रहे हैं आप हाथ पसारकर लेते रहिए और इसके बाद कुछ मत बोलिए। अपनी मेहनत से जो कुछ कमा रहे हैं, उसकी दारू पी लीजिए। घर में भात तो मिल ही जाएगा, मुंह मीठा करने के लिए किसी पापात्मा के लंगर में जाकर खड़े हो जाइए। जिन्हें अपने सम्मान की रक्षा करना नहीं आता वे भीख मांगें यहीं उनकी नियति है।


देशबंधु में 23 मई 2013 को प्रकाशित 

Wednesday 15 May 2013

तीसरा मोर्चा बनाम वामदल




पिछले हफ्ते (9 मई) प्रकाशित मेरे कॉलम पर कुछ वामपंथी मित्रों ने घोर असहमति दर्ज की है। उनका कहना है कि मैं तीसरे मोर्चे को खारिज कर रहा हूं जबकि देश को उसकी बड़ी जरूरत है। उनका यह भी कहना है कि दो पार्टी याने द्विदलीय सिध्दांत इंग्लैण्ड, अमेरिका में तो चल सकता है, लेकिन भारत में ऐसा न होगा और न होना चाहिए। मैं अपने मित्रों की राय का सम्मान करता हूं और भारत की राजनीतिक दिशा के बारे में उनके विचारों से अपने आपको बड़ी दूर तक सहमत भी पाता हूं, लेकिन मेरा मानना है कि पिछले पचास-साठ साल के जो अनुभव हैं, उनसे हमें सबक लेना चाहिए। जब कांग्रेस और भाजपा इन दो बडे दलों को ही पहले और दूसरे मोर्चे के रूप में मान्यता मिल जाती है, तो इसका एक मतलब यह भी होता है कि तीसरे मोर्चे के नाम पर जो कल्पना की जा रही है उसका आधार अपेक्षाकृत कमजोर है और तब मैं पूछना चाहता हूं कि जो राजनीतिक समूह तीसरे मोर्चे की बात करते हैं क्या वे उस स्थिति से संतुष्ट हैं। उन्हें आगे बढ़कर अपने आपको दूसरा मोर्चा या पहला मोर्चा बनने की ताकत क्यों नहीं जुटाना चाहिए?

मैंने पिछले लेख में इस तथ्य का जिक्र किया था कि 1952 में पहले आम चुनाव के बाद भारत की कम्युनिस्ट पार्टी प्रमुख विपक्षी दल के रूप में उभरी थी। सवाल उठता है कि जो पार्टी या जो विचारधारा 1952 में कांग्रेस के विकल्प के रूप में मौजूद थी वह उस जगह से अपदस्थ कैसे हुई और उग्रराष्ट्रवादी हिन्दुत्ववादी शक्तियों ने वामपंथी ताकतों को धीरे-धीरे कर भारतीय राजनीति के हाशिए पर क्यों कर धकेल दिया। यह एक प्रकट वास्तविकता है और इसका सामना करने का साहस वामदलों में होना चाहिए। मेरा मानना है कि आम चुनाव के समय क्षेत्रीय दलों से अल्पकालीन गठजोड़ करने से वामपंथी ताकतें मजबूत नहीं बल्कि और कमजोर ही होंगी। मेरा यह भी मानना है कि आज के वैश्विक परिदृश्य को समझने की क्षमता भारत में या तो कांग्रेस में है या फिर वामपंथियों में; और अपनी तार्किक क्षमताओं का मैदानी कार्रवाई में रूपांतरण करने से ही वाममोर्चा 1952 में या उससे बेहतर स्थिति में पहुंच सकता है।

मैंने अपने लेख में कुछ बिन्दुओं का संक्षिप्त उल्लेख किया था। शायद उन पर विस्तार से लिखने से अपनी बात बेहतर कह सकूंगा, लेकिन अखबार के कॉलम की भी अपनी सीमाएं हैं। बहरहाल, मैं अपने वाम मित्रों से आग्रह करूंगा कि वे सबसे पहले तो 1967 की स्थिति का फिर से जायजा लें। डॉ. लोहिया ने गैर कांग्रेसवाद का नारा दिया था, जिसके चलते भारतीय जनसंघ, प्रजा समाजवादी पार्टी, संयुक्त समाजवादी पार्टी, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी, मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी इत्यादि कांग्रेस विरोधी दलों ने परस्पर हाथ मिला लिए थे। उत्तरप्रदेश का तो मुझे भलीभांति स्मरण है, लेकिन अन्य प्रांतों में भी जो संविद सरकारें बनीं उनमें लोहियावादियों और जनसंघियों के साथ साम्यवादी भी शामिल हो गए थे। उत्तरप्रदेश में जुझारू कम्युनिस्ट नेता झारखंडे राय व रूस्तम सैटिन के नाम मुझे अभी तक याद है, लेकिन इसके बाद क्या हुआ? कुछ समय के लिए सरकार में शामिल हो जाने से वामदलों की ताकत में कोई इजाफा नहीं, बल्कि आगे चलकर नुकसान ही हुआ।

सच पूछिए तो वामपंथ की राजनीतिक ताकत इस लंबे अरसे में सिर्फ तीन प्रांतों में ही देखने मिली है। केरल जहां 1957 में पहली बार कम्युनिस्ट पार्टी ने चुनाव जीतकर सरकार बनाई यद्यपि उसे दो साल बीतते न बीतते कांग्रेस सरकार ने भंग कर दिया, फिर बंगाल जहां 1967 में योति बसु एक मिलीजुली सरकार में उपमुख्यमंत्री बने तथा आगे चलकर वाममोर्चे के मुख्यमंत्री, और फिर त्रिपुरा जहां अभी भी वाममोर्चे का राज है। इनके अलावा कम्युनिस्ट पार्टियों ने समय-समय पर देश के अनेक प्रांतों में अपनी उपस्थिति का परिचय दिया ज् ारूर है, लेकिन उन्हें अपना जनाधार मजबूत करने में कोई खास सफलता नहीं मिली। इस वास्तविक स्थिति की अतीत राग से मुक्त होकर सम्यक विवेचना की जाए तभी आगे की राह निकल सकती है।

यह फिर से याद करना उचित होगा कि 1996 में प्रधानमंत्री पद वाममोर्चे के हाथ से आकर निकल गया। अटल बिहारी वाजपेयी व ज्योति बसु के बीच चयन होना था, लेकिन देश की जनता के एक बड़े हिस्से के प्रबल आग्रह की अनदेखी माकपा ने कर दी और ज्योति बसु प्रधानमंत्री बनने से रोक दिए गए। इस तरह वाममोर्चे को अपने सीमित प्रभावक्षेत्र से बाहर निकलकर राष्ट्रीय स्तर पर पहचान स्थापित करने का जो ऐतिहासिक अवसर मिला था वह उसने गंवा दिया। इसके बरक्स जब राष्ट्रीय मोर्चा सरकार में भाकपा के इन्द्रजीत गुप्त गृहमंत्री बने तो उन्होंने थोड़े ही समय में अपनी सादगी और कार्यक्षमता से जनता को प्रभावित कर लिया था। केरल में सी.के. अच्युत मेनन और ई.के. नयनार को लोग आज भी याद करते हैं। इसी तरह जब वामदलों के नेता टीवी पर आते हैं तो उनकी स्पष्ट और तार्किक बातों से श्रोता प्रभावित हुए बिना नहीं रहते। मेरे कहने का आशय यह है कि विचारों की इस पूंजी का निवेश एक बेहतर राजनीतिक विकल्प तैयार करने के लिए जिस तरह से किया जाना चाहिए था वह नहीं किया गया। अपनी ही शक्ति से अपरिचित वामदल बिना जरूरत दूसरों का कंधा पकड़कर ऊपर चढ़ने की कोशिश में लगे हुए हैं। 

2004 में वामदलों के पास एक अवसर था कि वे कांग्रेस के साथ सरकार में शामिल होते और उसे नेहरूवादी नीतियों पर चलने को मजबूर करते। इस तरह एक सुनहरा अवसर और खो दिया गया। बाहर से समर्थन देते हुए जिस दिन पता चला कि कांग्रेस नवउदारवादी आर्थिक नीति अपना रही है उस दिन वाममोर्चा समर्थन वापस ले सकता था। यहां उसने एक बार फिर चूक की। इन प्रसंगों को सुविधापूर्वक भूलते हुए यदि वामपंथी दल नित नए राजनीतिक समीकरण बनाने में लगे रहेंगे तो इससे उन्हें आने वाले समय में और भी नुकसान उठाना पड़ सकता है। एक समय वाममोर्चे के लिए चन्द्रबाबू नायडू वैश्विक पूंजी के एजेंट थे। क्या श्री नायडू के विचारों में सचमुच कोई परिवर्तन आया है? यदि नहीं तो फिर उनके साथ मिलकर मोर्चा बनाने से किसे लाभ होगा?

उत्तरप्रदेश में मुलायम सिंह यादव राज कर रहे हैं। वे कभी माकपा के बहुत प्रिय थे, लेकिन उनके साथ दोस्ती करने से वाम मोर्चे को क्या हासिल होगा? कल अगर वे तीसरे मोर्चे में शामिल हो जाते हैं तो इससे वामपंथ कैसे मजबूत होगा? इससे तो बेहतर होगा कि बसपा के साथ गठजोड़ किया जाए। जिस सामाजिक न्याय की लड़ाई वाममोर्चा लड़ रहा है वह मुख्यत: उन लोगों के लिए ही तो है जो आज बसपा के वोटर हैं। अगर कोई तालमेल होना है, तो इन दोनों के बीच क्यों नहीं? फिर बिहार की बात है तो आज नीतीश कुमार तीसरे मोर्चे के मान्य नेता हो सकते हैं, लेकिन कल अगर वे सत्ता में आ गए, तब भी क्या यह स्थिति बनी रहेगी? अभी तो हम यह भी नहीं जानते कि जदयू के भीतर शरद यादव और नीतीश कुमार के बीच कैसे समीकरण हैं!

यह उन कुछ प्रांतों की बात है जहां क्षेत्रीय, जातिवादी, परिवारवादी राजनीतिक दल, तीसरे मोर्चे के गठन की संभावना जताते हैं, लेकिन उन प्रांतों का क्या जहां कांग्रेस और भाजपा प्लस के बीच सीधी-सीधी टक्कर है? ध्यान से सोचें तो इन रायों में कुल मिलाकर जो पार्टी बढ़त लेगी, तीसरा मोर्चा अपने आप साथ हो जाएगा। कांग्रेस को अगर बढ़त मिली तब तो ठीक, लेकिन अगर भाजपा को बढ़त मिली और तीसरे मोर्चे ने उसका साथ देना तय किया तब वामदल कहां जाएंगे? इन सब बातों पर सोचते हुए मुझे लगता है कि अगर वामदल सचमुच एक प्रगतिशील विकल्प तैयार करना चाहते हैं तो इसके लिए अव्वल तो उन्हें एक युवा नेतृत्व तैयार करना होगा और दूसरे टीवी स्टूडियो से बाहर निकलकर आम जनता के बीच दुबारा पहुंचना होगा। याद करके देखिए कि ए.बी. वर्धन के बस्तर प्रवास को छोड़कर वाम मोर्चे के किस नेता की किसी हिन्दी भाषी प्रदेश में हाल के वर्षों में कोई बड़ी आमसभा हुई हो!!

देशबंधु में 16 मई 2013 को प्रकाशित 

Thursday 9 May 2013

तीसरा मोर्चा : सच या सपना





आगामी 
लोकसभा चुनावों के लिए अब ज्यादा समय बाकी नहीं है। समय पर हुए तो अगले वर्ष मार्च-अप्रैल में; यद्यपि एक वर्ग इस कोशिश में जी-तोड लगा हुआ है कि चुनाव समय पूर्व हो जाएं। जो भी हो, जैसे-जैसे चुनाव का समय निकट आ रहा है तीसरे मोर्चे के गठन की कवायद में भी उसी हिसाब से तेजी आ रही है। कुछ राजनीतिक पंडितों का मानना है कि न कांग्रेस, न भाजपा, आने वाला वक्त तीसरे मोर्चे का ही होगा। इस तरह का ख्याल रखने वाले लोगों को शायद अतीत की स्मृतियां रह-रहकर डंक मार रही हैं या फिर ये लोग उनींदी आंखों में भविष्य का सपना संजोए बैठे चिर आशावादी हैं। इन्हें पक्का विश्वास है कि वो सुबह कभी तो आएगी।

तीसरे मोर्चे का स्वप्न फलित होगा या नहीं, इस पर माथापच्ची करने से पहले जो आज की हकीकत है थोड़ा उसका जायजा ले लिया जाए। भारत में आजादी के प्रारंभ से लेकर अब तक एक छोटा अरसा छोड़कर लगातार कांग्रेस पार्टी का राज रहा है। 1996 से 2004 के प्रारंभ तक भाजपा नेता अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में एनडीए की सरकार ही एकमात्र अपवाद है। यूं तो 1977 से 80 के दरम्यान देश में जनता पार्टी का शासन था, लेकिन वह कांग्रेस से सिर्फ इस हद तक अलग था कि उसके दो बड़े मंत्री वाजपेयीजी और अडवानीजी तत्कालीन जनसंघ के प्रतिनिधि थे। प्रधानमंत्री मोरारजी भाई तथा उनके दो प्रमुख मंत्रिमण्डलीय सहयोगी चौधरी चरणसिंह व बाबू जगजीवन राम दोनों पुराने कांग्रेसी थे। कुल मिलाकर उस सरकार की बनावट पूर्ववर्ती कांग्रेसी सरकारों से बहुत भिन्न नहीं थी। इसके बाद चरणसिंह, चन्द्रशेखर, एचडी देवगौड़ा व इंद्रकुमार गुजराल- ये सभी प्रधानमंत्री भी कांग्रेस की परम्परा में दीक्षित राजनेता ही थे।

देश के राजनीतिक इतिहास पर एक नजर डालें तो यह बात साफ हो जाती है कि कांग्रेस का विकल्प तैयार करने की कोशिशें जब भी हुर्इं उसमें सफलता कम ही मिली और जब मिली तो वह दीर्घजीवी नहीं हुई। कांग्रेस का अपना चरित्र समावेशी रहा जिसमें रूढ़िवादियों को जगह मिली तो प्रगतिशीलों को भी, वामपंथियों को तो दक्षिणपंथियों को भी, समाजवादियों को तो पूंजीवादियों को भी, यहां तक धर्मनिरपेक्ष के साथ-साथ साम्प्रदायिक सोच वालों को भी। यह बात तो तभी स्पष्ट हो गई थी जब 1947 में स्वतंत्र देश की पहली सरकार बनने जा रही थी। इसके बावजूद कांग्रेस से अलग होकर अपने राजनीतिक विचारों के अनुरूप पार्टियां बनाने का सिलसिला भी उसी समय से प्रारंभ हो गया था।

आजादी के प्रारंभिक दौर में तीन धड़े स्पष्ट दिखाई देते थे।  बीच में कांग्रेस, उसके एक तरफ कम्युनिस्ट पार्टी और दूसरी तरफ हिन्दू महासभा।  यद्यपि कांग्रेस समाजवादियों का भी एक दल कृषक मजदूर प्रजा पार्टी के नाम से उसी समय बन गया था, लेकिन कांग्रेस और इस नए दल के बीच बहुत ज्यादा फर्क नहीं था। इसी तरह हिन्दू महासभा से अलग होकर रामराज्य परिषद और भारतीय जनसंघ का गठन हुआ, लेकिन इन तीनों दक्षिणपंथी पार्टियों का वैचारिक धरातल एक ही था। यहां उल्लेखनीय है कि 1952 के पहले आम चुनाव में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी प्रमुख विपक्षी दल के रूप में उभरी थी, समाजवादी पार्टी को सीमित सफलता मिली थी व जनसंघ की सफलता तो लगभग शून्य थी। इसके बाद के समय में समाजवादी पार्टी कितनी बार टूटी कितनी बार बनी, इसका हिसाब लगाना मुश्किल है। कम्युनिस्ट पार्टी भी आधा दर्जन से अधिक खेमों में बंट गई। जनसंघ का विकास भाजपा के रूप में हुआ तथा रामराज्य परिषद व हिन्दू महासभा समाप्त ही हो गए।

आज राजनीतिक क्षितिज पर फिर तीन प्रमुख गठजोड़ दिखाई देते हैं। कांग्रेस हाल में आए दक्षिणपंथी झुकाव के बावजूद अभी भी मध्य में है। उसके एक तरफ भाजपा के नेतृत्व में शिवसेना और अकाली दल हैं और दूसरी तरफ सीपीआईएम के नेतृत्व में वाममोर्चे के चार दल। प्रश्न उठता है कि जिस तीसरे मोर्चे की बात उठ रही है वह कैसे बनेगा? जो न कांग्रेस को चाहते और न भाजपा को,  क्या वे वाममोर्चे का साथ लेने-देने के लिए तैयार हैं, और क्या आज की सीपीआईएम में क्षमता है कि वह नए सिरे से कोई ऐतिहासिक भूमिका निभा सके? सच तो यह है कि जो लोग तीसरे विकल्प की बात कर रहे हैं वे इन तीनों को छोड़कर एक असंभव से दिखने वाले चौथे विकल्प की खोज में लगे हुए हैं। उनकी आशाएं तीनों राष्ट्रीय गठबंधनों से हटकर प्रादेशिक दलों पर टिकी हुई है।

डॉ. राममनोहर लोहिया ने एक समय गैर-कांग्रेसवाद का नारा दिया था, जिसकी परिणति 1967 के आम चुनावों के बाद अनेक प्रदेशों में अभूतपूर्व ढंग से दल बदलकर संविद (संयुक्त विधायक दल) सरकारों के गठन में हुई थी। इसकी पहल डॉ. लोहिया के अनुयायियों ने ही की थी, जो नाम तो गांधी का लेते थे, लेकिन सत्ता का साध्य हासिल करने के लिए साधन की पवित्रता के विचार को जिन्होंने तिलांजलि दे दी थी। अनेक प्रांतों में गठित इन संविद सरकारों से आगे चलकर किसी को फायदा हुआ तो वह तत्कालीन जनसंघ और वर्तमान भाजपा ही थी; जबकि समाजवादी और साम्यवादी दोनों को इससे ऐसा नुकसान हुआ जिसकी भरपाई आज तक नहीं हुई। आज की तारीख में लालू प्रसाद, रामविलास पासवान, नीतीश कुमार, मुलायम सिंह इस समाजवादी विचारधारा के ही वंशज हैं।

पिछले तीन-चार दशकों के दौरान कांग्रेस को भी अपने अहंकार के चलते बहुत नुकसान उठाना पड़ा है। इस दौरान जो क्षेत्रीय दल उभरकर आए हैं वे किसी हद तक कांग्रेसी विचारधारा से ही प्रेरित थे, लेकिन केन्द्रीय नेतृत्व की अहम्मन्यता उन्हें सदैव भयभीत करती रही और केन्द्र के करद रहने के बजाय उन्होंने अपनी स्वतंत्र सत्ता स्थापित करने में ही बुध्दिमानी समझी। यह उचित होगा कि इस पृष्ठभूमि में ही तीसरे मोर्चे के प्रस्ताव का अध्ययन किया जाए। जो दल कांग्रेस व भाजपा दोनों से दूरी बनाकर चलना चाहते हैं वे क्या सचमुच कभी एक साथ चल पाएंगे? एक पल के लिए अगर मान लें कि शरद पवार कांग्रेस का पल्ला छोड़कर इनके साथ आ जाएंगे तो भी क्या उनमें इतनी क्षमता है, और क्या उनका स्वास्थ्य इजाजत देता है कि वे क्षेत्रीय दलों का व्यापक गठबंधन तैयार कर उसके सर्वमान्य नेता बन सकें?

एक समय समझा जाता था कि फारूख अब्दुल्ला तीसरे मोर्चे का नेतृत्व करेंगे। फिर कभी एन.टी.रामाराव का नाम आया तो कभी रामकृष्ण हेगड़े का तो कभी करुणानिधि का। आज भी मुलायम सिंह, नीतीश कुमार, नवीन पटनायक, जयललिता और ममता बनर्जी ऐसे कम से कम पांच नेता तो  हैं जो तीसरे मोर्चे का नेतृत्व करने के लिए बेताब नजर आ रहे हैं। क्या वाममोर्चा भानुमति के इस कुनबे को अपना समर्थन देने के लिए तैयार होगा? हम याद दिलाएं कि सीपीआईएम ने अपने सबसे सम्मानीय नेता ज्योति बसु को 1996 में प्रधानमंत्री बनने से रोक दिया था। कहते हैं पार्टी में उस समय गहन विचार मंथन हुआ था। क्या आज की स्थितियां तब से बेहतर हैं?

मान लीजिए कि ऐसा गठबंधन बन भी जाता है, लेकिन वह कब तक चल पाएगा? क्या देश का मतदाता 1996 और 97 की स्थिति में लौटने के लिए तैयार है या वह एक अन्य सरकार चाहता है? थोड़ा ध्यान गणित पर भी देना चाहिए। ये सारे क्षेत्रीय दल कुल मिलाकर कितनी सीटें जीत पाएंगे। जब त्रिशंकु लोकसभा की स्थिति आएगी तब ये कांग्रेस के बाहरी समर्थन से सरकार चलाएंगे या भाजपा के और ये दोनों दल अपने समर्थन की क्या कीमत मांगेंगे? मान लीजिए भाजपा तीसरे मोर्चे के सामने नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री बनाने की शर्त रखती है, तो क्या उसे यह शर्त मंजूर होगी?

मैं इस पृष्ठभूमि में अपनी दृष्टि से जितना विश्लेषण कर पाता हूं उसमें मुझे लगता है कि हमें तीसरे मोर्चे की जरूरत नहीं है। मतदाता को कांग्रेस और भाजपा के बीच में ही चुनाव करना चाहिए। यदि स्पष्ट बहुमत न मिले तो सर्वाधिक संख्या वाला दल छोटे दलों के सहयोग से सरकार बनाएं लेकिन उनके अनुचित दबाव में न आए। वही उचित होगा लेकिन क्या ऐसा संभव है?

देशबंधु में 9 मई 2013 को प्रकाशित 

Wednesday 1 May 2013

क्रिकेट के नक्शे पर रायपुर




एक 
पत्रकार से अपेक्षित सामान्य ज्ञान के चलते क्रिकेट के बारे में मैं कुछ मोटी-मोटी बातें अवश्य जानता हूं, लेकिन मैं क्रिकेट प्रेमी तो बिलकुल ही नहीं हूं बल्कि आप मुझे किसी हद तक क्रिकेट विरोधी भी कह सकते हैं।  हमारे ऐसे कुछ पत्रकार और बुध्दिजीवी मित्र हैं जो यह समझते हैं कि गाहे-बगाहे इस खेल पर विद्वतापूर्ण टिप्पणी किए बिना वे पूर्ण पंडित नहीं कहला सकते। वे इस मामले में ब्रिटिश पत्रकारों का अनुसरण करते दिखाई देते हैं, लेकिन मेरे लिए तो, जैसी कि एक अंग्रेजी कहावत है- 'इट इज नॉट माइ कप ऑफ टी।'

अपने अज्ञान की इस स्वीकारोक्ति के बावजूद मैं कहना चाहूंगा कि रायपुर में पिछले दिनों आईपीएल के बैनर तले टी-20 के जो दो मैच हुए उससे मुझे बहुत प्रसन्नता हुई है। इस प्रदेश के लिए यह एक ऐतिहासिक अवसर था क्योंकि इसके पहले तक क्रिकेट जगत के लिए रायपुर एक अनजाना स्थान था। क्रिकेट के इन मैचों के आयोजन के लिए स्टेडियम का निर्माण प्रारंभ होने से लेकर अंतिम समय जिस बड़े पैमाने पर साधन-सुविधाओं की आवश्यकता थी उनका मुख्यमंत्री डॉ. रमनसिंह की व्यक्तिगत रुचि के बिना उपलब्ध होना असंभव था इसलिए इस आयोजन के लिए अगर किसी को बधाई दी जाना चाहिए तो वे डॉ. सिंह ही हैं।

यह जब तय हो गया कि छत्तीसगढ़ में आईपीएल के दो मैच इस सीजन में होंगे उस समय से आयोजन को लेकर दोनों तरह की बातें सुनने मिल रही थीं। एक तरफ बड़ी संख्या में वे लोग थे जो आयोजन को लेकर खासे उत्साहित थे। दूसरी ओर दबे स्वर में कहीं-कहीं आलोचना भी हुई। एक बात यह उठी कि मुख्यमंत्री ने चुनावी वर्ष में लाभ उठाने के लिए ये मैच कराने में इतनी रुचि प्रदर्शित की। मैं नहीं जानता कि आईपीएल के मैचों से आमचुनाव पर क्या असर पड़ता है। फिर तो यह भी कहा जा सकता है कि कांग्रेस ने चुनावी लाभ उठाने के लिए सचिन तेंदुलकर को रायसभा में मनोनीत किया। अगर ऐसा है भी तो इसमें बुराई क्या है? यह कौन नहीं जानता कि क्रिकेट भारत का सबसे लोकप्रिय खेल है! किसी गुजरे जमाने में हॉकी हमारा राष्ट्रीय खेल रहा होगा, लेकिन उसे लेकर कब तक रोते रहेंगे! आज इस देश का युवा अगर क्रिकेट खेलना चाहता है या क्रिकेट मैच देखना चाहता है तो, उसे यह अवसर देने में गलत क्या है? रायपुर में 28 अप्रैल को सम्पन्न पहले मैच में पचपन हजार दर्शक उपस्थित थे। इनमें युवा ही बहुत बड़ी संख्या में थे। जब सरकारें इन युवाओं को आगे बढ़ने के लिए तरह-तरह के कार्यक्रम चलाती हैं तब उन्हें अपने घर के मैदान पर देश-विदेश के कुछेक नामी खिलाड़ियों को खेलते हुए देखने का मौका दिया तो अच्छा ही किया। यह एक सलमान खान अथवा करीना कपूर को राज्योत्सव में बुलाने से तो कहीं ज्यादा अक्लमंदी का काम था।

जब क्रिकेट और खेलों की बात चली है तो इनसे जुड़े कुछेक मुद्दों पर ध्यान अपने आप जाता है। पुराने मध्यप्रदेश में क्रिकेट का अगर कोई केन्द्र था तो वह था इन्दौर जहां से सी.के. नायडू, मुश्ताक अली और जगदाले पिता-पुत्र जैसे खिलाड़ी निकले। माधवराव सिंधिया के केन्द्रीय मंत्री बनने के बाद ग्वालियर में भी एक दिवसीय मैचों का आयोजन शुरू हुआ। इस बीच देश के अनेक प्रांतीय केन्द्रों में भी क्रिकेट मैच होना शुरू हुए। खेल का कुछ जनतंत्रीकरण भी हुआ। इन छोटे नगरों में भी खिलाड़ी तैयार होने लगे। उन सबके नाम पाठकों को मुझसे बेहतर याद होंगे। मध्यप्रदेश में इस नए दौर में दो खिलाड़ी उभरे- एक इंदौर से नरेन्द्र हिरवानी तथा उनके दसेक साल बाद भिलाई से राजेश चौहान। इन दोनों का कॅरियर यद्यपि बहुत चमकदार तो नहीं रहा, लेकिन इन्होंने अपने प्रदेश को क्रिकेट के नक्शे पर परिचित कराने का काम तो किया ही।

छत्तीसगढ़ में क्रिकेट नहीं बल्कि हॉकी और फुटबॉल की लंबी परम्परा रही। इस प्रदेश ने भारत की ओलंपिक टीम को दो हॉकी खिलाड़ी दिए। राजनांदगांव के एरमेन सेबेस्टीयन व बिलासपुर के लेस्ली क्लाडियस जिनका निधन हुए अभी ज्यादा समय नहीं बीता है। महिला हॉकी में भी नीता डुमरे और सबा अंजुम ने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अपना स्थान बनाया। एक और नाम याद आता है- राजनांदगांव की शतरंज खिलाड़ी किरण अग्रवाल का। प्रसंगवश कहना होगा कि राजनांदगांव में बहुत पहले से खेलकूद के लिए माकूल वातावरण था। आज यदि इस प्रदेश में खेलों के प्रति एक नई जागरुकता उत्पन्न हो रही है तो हमें अपने इन खिलाड़ियों को याद कर लेना चाहिए। मुझे इस बात पर थोड़ी हैरत हुई कि आईपीएल के इन मैचों के दौरान राजेश चौहान का नाम कहीं भी सुनने नहीं मिला। इसका क्या कारण था आयोजक ही जानते होंगे।

आज जब प्रदेश की नई राजधानी याने नया रायपुर में अंतर्राष्ट्रीय स्तर का क्रिकेट स्टेडियम बनकर तैयार हो गया है, उसमें खेलों का आयोजन भी होने लगा है, तब प्रदेश के खेल मैदानों की ओर ध्यान जाना भी स्वाभाविक है। मैं जब राजनांदगांव का जिक्र कर रहा था तब मुझे बरबस याद आ रहा था कि 1973 में जब यह नया जिला बना तब जिले के पहले कलेक्टर अरुण क्षेत्रपाल और पहले पुलिस अधीक्षक आर.एस.एल. यादव की जोड़ी ने नागरिकों की इच्छाओं का सम्मान करते हुए उनका सक्रिय सहयोग लेकर कैसे दिग्विजय स्टेडियम का निर्माण करवाया था। मैं अगर गलत नहीं हूं तो वह उस वक्त प्रदेश का सबसे बेहतरीन खेल परिसर था। एक तरफ अगर यह उत्कृष्ट उदाहरण है, तो दूसरी तरफ प्रदेश में खेल मैदानों की बर्बादी के किस्से भी कम नहीं। मुझे याद है कि आज रायपुर में जिसे सुभाष मिनी स्टेडियम के नाम से जाना जाता है वह डेढ़ सौ साल पुराने गर्वनमेंट हाईस्कूल का मैदान था। उसे नगर निगम ने इस शर्त पर लिया था कि स्कूल के लिए मैदान हमेशा उपलब्ध रहेगा, लेकिन इस वायदे को जल्दी ही भुला दिया गया। इस स्कूल का दुर्भाग्य कि स्कूल परिसर में ही जो छोटा सा खेल मैदान था वह भी हाल में किसी मंत्री की जिद में सड़क चौड़ीकरण की बलि चढ़ गया और न तो मुख्यमंत्री का ध्यान उस ओर गया, न नागरिकों ने ही विरोध किया। इसी तरह माधवराव सप्रे स्कूल के प्रशस्त खेल मैदान का भी ऐसी ही दुर्गति हुई। एक बड़ा हिस्सा सड़क चौड़ीकरण में चला गया और भी न जाने वहां क्या-क्या दूसरे काम हो गए।

28 अप्रैल की रात आईपीएल का पहला मैच समाप्त होने के बाद मुख्यमंत्री ने प्रदेश में शीघ्र ही क्रिकेट अकादमी स्थापित करने की घोषणा की है। मैं उनके इस मंतव्य का स्वागत करता हूं, लेकिन वे अगर बुरा न मानें तो सवाल भी पूछना चाहता हूं कि प्रदेश की खेल मैदानों को बचाने के लिए वे क्या कर रहे हैं! साइंस कॉलेज के मैदान पर आए दिन व्यापार मेले भरते रहते हैं। इसी कालेज के परिसर को सड़क निकालने के लिए दो हिस्सों में बांट दिया गया है। संस्कृत कॉलेज के खेल मैदान में जाने किसके लिए भव्य तरण पुष्कर बन रहा है। यह तो राजधानी की बात है, प्रदेश में और जहां-जहां भी स्टेडियम और खेल के मैदान हैं उनके रखरखाव की क्या व्यवस्था है, बच्चे खेल के मैदान तक आएं, इसके लिए क्या नीति है, यह सब भी मुख्यमंत्रीजी को देखना चाहिए। वे देखें इसके लिए यह भी जरूरी है कि जनता भी चुपचाप न बैठे बल्कि अपनी आवाज उठाए। रायपुर के ये क्रिकेट मैच अरुण जेटली के सहयोग के बिना संभव नहीं थे। डेल्ही डेयरडेविल्स ने रायपुर को अपना दूसरा 'होम ग्राउंड' मान लिया है। डॉ. रमनसिंह तैयार रहें कि कल कहीं जेटलीजी भी रायसभा में दोबारा जाने के लिए छत्तीसगढ़ को अपना दूसरा घर न बना लें! 

देशबंधु में 2 मई 2013 को प्रकाशित