Thursday 28 July 2016

कश्मीर : पाक की भेड़िया नीति


 "आपने हमें भेडिय़ों के सामने फेंक दिया है।’’

यह प्रसंग भारत विभाजन के समय का है। अविभाजित देश के उत्तर-पश्चिमी सीमांत प्रांत में सीमांत गांधी या बादशाह खान के नाम से समूचे देश में लोकप्रिय खान अब्दुल गफ्फार खान का सिक्का चलता था। उनका प्रदेश पाकिस्तान के साथ शामिल नहीं होना चाहता था। अंतरिम चुनावों में मुस्लिम लीग को इस लगभग शत-प्रतिशत मुस्लिम प्रांत में पराजय का सामना करना पड़ा था। फिर भी यह भूगोल की वास्तविकता थी कि प्रदेश भारत के साथ न रहकर पाकिस्तान के साथ जाता। सीमांत गांधी इससे मर्माहत थे और तब उन्होंने अपने नेता याने महात्मा गांधी से दुखी होकर कहा था कि आपने हमें भेडिय़ों के सामने फेंक दिया है। किन्तु यह एक ऐसी कठोर सच्चाई थी जिसे न गांधी बदल सकते थे और न कांग्रेस का कोई अन्य नेता। भारत की मुख्य भूमि से अलग-थलग प्रदेश कैसे भारत का हिस्सा बनता! आगे चलकर हमने देखा कि बंगलादेश के निर्माण में इस तरह की ही भौगोलिक स्थिति ने किसी हद तक योगदान किया।

आज कश्मीर के संदर्भ में इस प्रसंग को ध्यान रखना उचित होगा। कश्मीर घाटी में स्थानीय निवासियों का एक तबका है, जो कश्मीर को एक स्वतंत्र देश के रूप में देखना चाहता है। जेकेएलएफ याने जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट की साठ साल से मांग यही है। वे न पाकिस्तान के साथ जाना चाहते और न भारत में रहने की उनकी इच्छा है। यह तबका मानकर चलता है कि कश्मीर का भविष्य एक स्वतंत्र सार्वभौम राष्ट्र बन जाने में ही है। भारत में भी कुछ जाने-माने हैं जो सोचते हैं कि कश्मीर को आज़ादी मिल जाना चाहिए। इनमें मशहूर लेखिका अरुंधति राय का नाम प्रमुखता के साथ लिया जा सकता है। ऐसा सोचने वाले कश्मीर की अपनी विशिष्ट सामाजिक बुनावट, सांस्कृतिक परंपराओं और इतिहास का हवाला देते हैं। वे कश्मीरियत को बचाने की बात करते हैं। लेकिन वस्तुस्थिति क्या है इस पर गौर कर लें।

सबसे पहले तो यह समझना होगा कि आज़ादी किस भौगोलिक क्षेत्र के लिए मांगी जा रही है? क्या उसमें घाटी के अलावा जम्मू एवं लद्दाख क्षेत्र का समावेश है? जम्मू में साठ प्रतिशत आबादी हिन्दुओं की है और लद्दाख के दो हिस्सों याने लेह और कारगिल में क्रमश: बौद्ध और शिया पंथियों का बहुमत है। जिस कश्मीरियत की बात होती है क्या वह इस संपूर्ण प्रदेश में समान रूप से मौजूद है जो कि भारत का प्रांत है? यदि नहीं तो क्या सिर्फ कश्मीर घाटी की आज़ादी की बात की जा रही है? अगर सिर्फ घाटी को एक स्वतंत्र देश मान लिया जाए तो अपनी राजनैतिक आजादी और अपनी कश्मीरियत की रक्षा करने की सामर्थ्य घाटी के छोटे से भूभाग में किस सीमा तक है?

फिर यह सवाल भी उठता है कि फिलहाल पाकिस्तान का नियंत्रण जिस उत्तरी इलाके पर है याने शिया बहुल गिलगिट और बाल्टीस्तान आदि क्या वहां भी कश्मीरियत उसी रूप में मौजूद है जैसी कि श्रीनगर की घाटी में? इसी तरह पाकिस्तान ने आजाद कश्मीर के नाम पर जो पाखंड सत्तर साल से जीवित रखा है क्या सचमुच वहां कश्मीरियत जैसी कोई भावना है? क्या वह रावलपिंडी के ईदगिर्द की जो पंजाबियत है कुछ-कुछ उसके समान नहीं है? आज़ा दी मांगने वालों से मेरा यह भी सवाल है कि महाराजा हरिसिंह तो स्वयं स्वतंत्र कश्मीर चाहते थे। वे अविभाजित कश्मीर के राजा थे। जब पाकिस्तान के हुक्मरानों ने उनके रहते हुए कश्मीर को हड़पने के लिए कबाईली दस्ते मुहिम पर भेज दिए तब आज यदि कश्मीर स्वतंत्र हो भी जाए तो उसे बचाने की गारंटी कौन लेगा? पाकिस्तान का पुराना दोस्त अमेरिका या नया दोस्त चीन? इन दोनों देशों की हड़प नीति से हम वाकिफ हैं। पाकिस्तान भी उनके रास्ते पर चले तो इसमें आश्चर्य किसे होगा?

मैं नहीं जानता कि अरुंधति राय जैसे पंडितों ने भारत विभाजन का इतिहास कितना पढ़ा है इसीलिए बादशाह खान का प्रसंग सामने रखना मुझे आवश्यक लगा कि इतिहास से सबक न लेना नादानी ही कहलाएगी। मुझे लगता है कि स्वतंत्र कश्मीर की बात करना एक पवित्र और शायद किसी हद तक आध्यात्मिक भावना हो सकती है; और शायद इसकी पृष्ठभूमि में यूरोप के दृष्टांत काम कर रहे होंगे। यूरोप का इतिहास भारत से बिल्कुल अलग किस्म का है। अभी हाल में ब्रेक्जिट  का उदाहरण इसकी पुष्टि करता है। आज इंग्लैण्ड यूरोपियन यूनियन से अलग हो रहा है, लेकिन स्वयं इंग्लैंड में स्काटलैंड के अलग होने की कशमकश लगातार चल रही है। आयरलैण्ड और उत्तरी आयरलैण्ड धार्मिक कट्टरता के कारण एक-दूसरे से अलग बने हुए हैं। इसके बावजूद याद रखें कि यूरोप के देश अपने इतिहास को भूलकर अपनी एकजुटता बढ़ाने के लिए लगातार प्रयत्न कर रहे हैं।

बहरहाल, कश्मीर को लेकर एक अन्य सोच भी हमारे यहां चल रही है। बहुत से अध्येता इस बात पर जोर देते हैं कि सरकार को कश्मीर में लोगों के साथ बात करना चाहिए। यह सलाह सुनने में तो बहुत अच्छी लगती है। मैं भी मानता हूं कि परस्पर संवाद से ही बहुत से मुश्किलों के हल निकलते हैं। लेकिन मैं यह नहीं समझ पाता कि भारत सरकार ने कश्मीर के लोगों के साथ बात करने में कमी कहां की है! हमारी सरकार (चाहे जो पार्टी हो) तो यहां तक मानती है कि कश्मीर मुद्दे के समाधान हेतु पाकिस्तान के साथ बातचीत होना चाहिए और वह भी किसी न किसी रूप में लगातार चल रही है। कश्मीर घाटी में जो बहुत सारे राजनीतिक समूह हैं उनके साथ भी कभी ठंडा कभी गरम इस शैली में वार्तालाप होता रहा है। हुर्रियत कांफ्रेंस के विभिन्न धड़ों के साथ, जेकेएलएफ के नेताओं के साथ बातचीत कभी थमी हो, ऐसा ध्यान नहीं आता। वाजपेयी जी के समय में हुर्रियत के साथ वार्तालाप के अनेक दौर सम्पन्न हुए। डॉ. मनमोहन सिंह ने तीन प्रमुख लोगों की कमेटी बनाई जिसने पूरे एक साल लगातार घाटी के दौरे किए। नरेन्द्र मोदी ने अपने शपथ ग्रहण में नवाज शरीफ को आमंत्रित किया। फिर काबुल से लौटते हुए लाहौर उनके घर भी चले गए। इसी शनिवार-रविवार को गृहमंत्री राजनाथ सिंह श्रीनगर गए। ऐसा भी नहीं है कि केन्द्र के प्रतिनिधि किसी एक धड़े से मिलकर आ जाते हों और किसी दूसरे की उपेक्षा करते हों। बीजेपी के पीडीपी के साथ गठजोड़ को राजनीतिक कलाबाजी माना जा सकता है, लेकिन इसमें यह तथ्य भी तो निहित है कि एक अनुदार पार्टी भी वक्त पडऩे पर लचीला रुख अपना सकती है।

मेरी समझ में कश्मीर घाटी की एक स्वतंत्र देश के रूप में स्थापना आकाशकुसुम अर्थात् असंभव कल्पना है। उस कल्पना में चूंकि लद्दाख, जम्मू, गिलगिट का कोई स्थान नहीं है इसलिए वह एकतरफा और पूर्वाग्रहपूर्ण भी है। घाटी में राजनीतिक चर्चा के द्वार हमेशा खुले रहना चाहिए इससे मैं सहमत हूं। इसमें भारत सरकार को और वर्तमान में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी को सहजबुद्धि व विवेक से काम लेने की आवश्यकता है। इसका आशय यह है कि हमें पाकिस्तान की सेना और पाकिस्तान की जनता दोनों के बीच जो बहुत बड़ा फर्क है उसे हर समय ध्यान में रखना होगा। भाजपा के नेताओं को पाकिस्तान पर और अल्पसंख्यकों के बारे में अनर्गल बयान देने से बचना इसकी एक बड़ी शर्त है। यह भी ध्यान रखें कि पाक के सैनिक भारत को हर तरह से नीचा दिखाने और चुटकी लेने से बाज नहीं आएंगे। इसलिए हमारी ओर से कोई भी प्रतिक्रिया गुस्से और जल्दबाजी में नहीं होना चाहिए। तीसरे, पाकिस्तान की शह पर घाटी में जो हिंसक वारदातें होती हैं उनके बारे में सतर्क रहना होगा। कश्मीर में भारतीय सेना का रोल कहां और कितना हो इसकी समीक्षा करना भी आवश्यक है। सीमा पर फौज की तैनाती समझ में आती है, लेकिन नागरिक जनजीवन पर फौज की उपस्थिति का कोई प्रतिकूल असर न पड़े यह भी सुनिश्चित करना परम आवश्यक है।

देशबंधु में 28 जुलाई 2016 को प्रकाशित 

Wednesday 20 July 2016

कश्मीर : समाधान के लिए प्रतीक्षा


"कश्मीर के अलगाववादी तरुण अपने सशस्त्र संघर्ष को खिलवाड़ समझते हैं। अन्य देशों की तरुणाई की भांति वे भी अपने आपको परिवर्तन के अग्रगामी दस्ते के रूप में देखते हैं। लेकिन अन्य देशों और कश्मीर के तरुणों, किशोरों के बीच फर्क यही है कि वे इस खिलवाड़ की भावना से संघर्ष करते हैं और वह भी बिना किसी अनुशासन के। बेरोजगार, कुंठित, राजनीतिक चेतनासम्पन्न, न्याय न मिलने का रोष, इन सबके साथ वे लड़ाई में कूद पड़ते हैं, बिना यह समझे कि वे क्या कर रहे हैं। वे किशोर से वयस्क हो जाने के बदलाव और क्रांति युद्ध लड़ने के बीच का फर्क नहीं जान पाते। जो कट्टरतावादी विद्रोही प्रौढ़ हो चुके हैं वे या तो विदेश जाकर निर्वासित सरकार बनाते हैं या फिर मानवाधिकार समितियां बनाकर ऊपरी बहसें करते हैं और इन 'लड़कों' के ऊपर लड़ने का काम छोड़ देते हैं।"

यह लंबा उद्धरण मैंने वाशिंगटन पोस्ट के दक्षिण एशियाई ब्यूरो प्रमुख एवं बाद में उसके प्रबंध संपादक रहे पत्रकार स्टीव कोल की किताब 'ऑन द ग्रैंड ट्रंक रोड; अ जर्नी इन टू साऊथ एशिया' से लिया है।  उन्हें विश्व के संघर्ष क्षेत्रों की रिपोर्टिंग करने का सुदीर्घ अनुभव रहा है। यह पुस्तक प्रथमत: 1994 में छपी थी। लगभग पच्चीस वर्ष बाद समय बीत जाने के बावजूद कश्मीर के बारे में उनका यह अध्ययन ऐसा लगता है मानो अभी हाल की ही बात है। पिछले आठ-दस दिन में कश्मीर घाटी के जो हालात सामने आए हैं उसमें इस पत्रकार की टिप्पणी सटीक बैठती है ऐसा कहूं तो गलत नहीं होगा। अनुवाद में थोड़ा फेरबदल हो सकता है, लेकिन मुख्य बात अपनी जगह पर है। हिजबुल मुजाहिदीन के एक कमांडर के रूप में जिसकी पहचान बनी और जिसकी मृत्यु कश्मीर पुलिस की गोलियों से हुई उस बुरहान वानी की उम्र मात्र बाइस वर्ष ही तो थी। इसके पहले मुझे इस तरह की टिप्पणियां भी पढ़ने मिलीं कि कश्मीर घाटी के किशोर किन्हीं खास मौकों पर पत्थरबाजी कर अपने गुस्से का इजहार करते हैं और यह जैसे एक रिवाज बन गया है जिससे किसी को नुकसान नहीं पहुंचता।

बारह-चौदह साल के बच्चों को हाथ में पत्थर क्यों उठाना चाहिए? उनके हाथ में किताबें या गेंद क्यों नहीं हैं? एक नौजवान उन्नीस-बीस साल की उम्र में बंदूक चलाकर अपने कथित दुश्मनों की हत्या करता है और फिर बाइस की उम्र पूरी करते न करते उन्हीं के हाथों मारा जाता है, ऐसी स्थिति कश्मीर घाटी में क्यों कर पैदा होती है? लेकिन फिर इसी कश्मीर घाटी में वे नौजवान भी हैं जो सामान्य घरों से या शायद अपेक्षाकृत बेहतर आर्थिक स्थिति वाले घरों से आते हैं जो अपनी पढ़ाई पूरी करते हैं और फिर डॉक्टर, इंजीनियर, सैन्य अधिकारी, टेस्ट क्रिकेट खिलाड़ी, यहां तक कि आईएएस अफसर भी बनते हैं। एक ही सांस्कृतिक, भौगोलिक परिवेश में ये दो अलग-अलग धाराएं कैसे बनती हैं और क्या इसमें कहीं जानने, समझने, सीखने के कोई बीज निहित हैं जिनकी ओर राजनीति के पंडितों का ध्यान अब तक नहीं गया है। अब तो यह समझना भी कठिन हो रहा है कि राजनीति मीडिया को किस हद तक प्रभावित कर रही है और मीडिया राजनीतिक विमर्श को कैसे आगे बढ़ा रहा है। ऐसा लगता है कि दोनों ही फैसला सुनाने के लिए धीरज नहीं रखना चाहते। सबको एक रंग से पोतो और छुट्टी पाओ।

कुछ दिन पूर्व फेसबुक पर एक मित्र ने मुझसे प्रश्न किया- कश्मीर की समस्या का समाधान कैसे होगा? मेरा उत्तर कुछ इस तरह था-जिस दिन भारत व पाकिस्तान दोनों वास्तविक नियंत्रण रेखा को वास्तविक सीमा रेखा के रूप में स्वीकार कर लेंगे शायद उस दिन समस्या सुलझ जाएगी। मेरे इस उत्तर से मित्र महोदय को संतोष हुआ। उन्होंने अपनी सहमति दर्ज की कि शायद यही एकमात्र विकल्प है। मैंने कोई नई बात नहीं कही थी। नवंबर 2015 में कश्मीर के वरिष्ठतम नेता फारूख अब्दुल्ला ने बेबाकी के साथ यही मंतव्य प्रकट किया था। मेरा 3 दिसम्बर 2015 का लेख डॉ. अब्दुल्ला के उसी बयान को केन्द्र में रखकर लिखा गया था। मुश्किल यह है कि यदि कोई तर्कपूर्ण हल सामने दिख रहा है तो उसे न तो कोई स्वीकार कर रहा है और न ही कोई इस अवधारणा को खारिज करने के लिए कोई नए तर्क  पेश कर रहा है। मतलब यह कि जैसा चल रहा है वैसा चलने दो।

प्रश्न उठता है कि स्थायी समाधान ढूंढने की दिशा में प्रभावी कदम उठाने से यह हिचकिचाहट क्यों? इसके कई कारण हो सकते हैं। भारत सरकार ने जम्मू-कश्मीर के विलय के बाद से अब तक इस सीमांत प्रदेश के विकास के लिए विभिन्न मदों में अरबों-खरबों की राशि वहां भेजी है। एक समय जनसंघ के लोग कांग्रेस पर आरोप लगाते थे कि वह घाटी के मुसलमानों को दामाद समझकर पैसा बहा रही है, लेकिन इस बीच जितनी भी गैरकांग्रेसी सरकारें आईं उन्होंने इस इमदाद में कोई कमी नहीं की। वर्तमान मोदी सरकार भी वही कर रही है, जो कल तक कांग्रेस करती थी। यह समझना कठिन नहीं है कि इस राशि का कितना हिस्सा वास्तव में विकास की मद में खर्च हुआ और कितना नेताओं की तिजोरियों में पहुंचा। कश्मीर अगर भारत का अभिन्न अंग है तो भ्रष्टाचार के मामले में वह शेष भारत से अलग कैसे रह सकता है?

दूसरे, भारत में बड़ी हद तक जनतांत्रिक व्यवस्था के तहत ही जम्मू-कश्मीर का प्रशासन चलने की गुंजाइश शुरू से बना रखी है। इसके अपवाद गिनाए जा सकते हैं। लेकिन फिर अपवाद निर्मित होने की स्थितियां क्यों बनीं, उन कारणों में भी जाने की आवश्यकता होगी और हम मौजूदा चर्चा से भटक जाएंगे। मुख्य बात यह लिखने की है कि प्रदेश में अब तक चार-पांच पार्टियों और गठबंधनों का अलग-अलग समय में शासन रह चुका है। याने जनतंत्र के रास्ते चलने में सभी राजनीतिक दल सहमत हैं। इसके बावजूद अगर घाटी में अविश्वास का वातावरण बना हुआ है तो उसका एक प्रमुख कारण शायद यह भी है कि हिन्दू-बहुल शेष भारत मुस्लिम-बहुल कश्मीर पर विश्वास नहीं करता तथा हिन्दूत्ववादी ताकतें उसकी देशभक्ति पर निरंतर संदेह की उंगली उठाती रहीं हैं। वे बहुत आसानी से 1947 के पहले नागरिक शहीद मकबूल शेरवानी और पहले सैनिक शहीद बिग्रेडियर उस्मान के सर्वोच्च बलिदान को भुला देते  हैं। मेरी तो यह जानने की भी इच्छा है कि हाशिम कुरैशी ने 1971 में विमान अपहरण क्यों किया, पाकिस्तान ने उसका सत्कार करने के बजाय उसे जेल में क्यों डाला, उसे नार्वे में किसके कहने से शरण मिली तथा प्रधानमंत्री वाजपेयी जी ने उसे भारत वापस क्यों बुलाया?

तीसरे, भारत में भले ही जनतंत्र हो और कहने को तो पाकिस्तान में भी जम्हूरियत है, लेकिन क्या पाकिस्तान के राजनेताओं के हाथ-पैर बंधे हुए नहीं हैं? वहां जो भी सरकार में बैठता है कश्मीर का हल निकले बिना दोनों देशों के संबंध सामान्य होने की बात ही नहीं करता। भुट्टो, बेनज़ीर, जरदारी, और शरीफ की बात छोड़िए सैनिक तानाशाह परवेज़ मुशर्रफ भी तमाम कोशिशों के बावजूद किसी सर्वमान्य हल तक पहुंचने में नाकाम रहे। यह दिलचस्प तथ्य है कि पाकिस्तान के राजनैतिक हुक्मरान वरिष्ठता आदि के बजाय वफादारी को तरजीह देते रहे हैं। लेकिन वे जिसे सेना प्रमुख बनाते हैं वही भस्मासुर बन जाता है। अभी पाकिस्तान के शहरों में सेनाध्यक्ष राहिल शरीफ से सत्तासूत्र हाथ में लेने की अपील करने वाले पोस्टर जगह-जगह चिपके हुए देखे गए और इसे लेकर भांति-भांति के कयास लगाए जा रहे हैं।

दरअसल, पाकिस्तान की मिलिट्री ने खून का स्वाद चख लिया है। इसके लिए जब तक कोई बड़ी जनतांत्रिक क्रांति नहीं होती तब तक यही स्थिति बनी रहेगी। भारतीय सेना में भी ऐसे रिटायर्ड और सेवारत अफसरों की कमी नहीं है जो दिल से मानते हैं कि देश की सारी समस्याओं का हल उनके ही पास है। इधर प्रचार माध्यमों का विस्तार होने से उनको भी आए दिन प्रसिद्धि के पांच क्षण मिलने लगे हैं। भारत हो या पाक, सैन्यतंत्र का संबंध हथियारों की खरीद से भी है और अंतरराष्ट्रीय दबावों से भी वे मुक्त नहीं रह सकते।

अंत में यही कहना होगा कि कश्मीर में आज भले ही कोई सीधा रास्ता न दिखाई दे रहा हो, जिस दिन पाकिस्तान में सचमुच जनतंत्र कायम होगा, उसी दिन इस मुद्दे का समाधान भी निकलेगा।
देशबंधु में 21 जुलाई 2016 को प्रकाशित 

Saturday 16 July 2016

भागमभाग के बीच कुछ बातें



इन दिनों यात्राएं कुछ ज्यादा ही हो रही हैं। इस बीच दस दिन के अंतर से ही दो रेल यात्राएं हो गईं। पहली छत्तीसगढ़ में अंबिकापुर तक और दूसरी ओडिशा में भुवनेश्वर तक। अंबिकापुर जाने वाली गाड़ी में बैठो तो बरबस याद आता है कि अभी कुछ साल पहले तक उत्तरी छत्तीसगढ़ के इस प्रमुख नगर तक पहुंचने के लिए सड़क मार्ग ही एकमात्र विकल्प था। अंग्रेजों ने अंबिकापुर से मात्र बीस किलोमीटर दूर विश्रामपुर तक रेल लाइन बिछाई लेकिन न जाने क्यों उसके आगे अंबिकापुर को जोडऩे की बात नहीं सोची। ऐसा शायद इसलिए हुआ हो कि तब विश्रामपुर के आगे कोयला खदानें नहीं मिली थीं और यात्री परिवहन से रेलवे को कोई लाभ नहीं होना था। संभव है कुछ इसके अन्य कारण भी रहे हों। ध्यान आता है कि अंबिकापुर में कम्युनिस्ट पार्टी ने रेल लाइन लाने के लिए बरसों आंदोलन चलाया। यद्यपि पार्टी को इसका कोई राजनीतिक लाभ नहीं मिल सका।

प्रदेश के एक महत्वपूर्ण नगर की इस उपेक्षा का यह परिणाम हुआ कि प्रदेश के मैदानी इलाके की जनता की कल्पना में सरगुजा बरसों तक एक सुदूर प्रदेश बना रहा। अब सीधी रेलगाड़ी हो गई है तो यात्रियों को सुविधा हो ही रही है, रायपुर और सरगुजा के रिश्तों में भी शायद कुछ गतिशीलता आई है। किसी समय अंबिकापुर में ठहरने के लिए कोई ठीक-ठाक जगह नहीं थी, लेकिन अब वहां लगभग आधा दर्जन सुविधायुक्त होटल खुल गए हैं। इसका कुछ-कुछ श्रेय नए-नए सरकारी, दफ्तरों और संस्थानों के खुलने को भी है और शायद अंबिकापुर के आगे खुली कोयला खदानों को भी। अब यहां खनिज उत्खनन का काम जोरों से चल रहा है। इसका नागरिक जीवन और पर्यावरण पर जो प्रभाव पड़ रहा है वह पृथक अध्ययन का विषय है। लेकिन आमतौर पर लोग अदानी कंपनी के व्यापार से खुश नज़र नहीं आए।

मैं अंबिकापुर कुछ साहित्यिक-सांस्कृतिक कार्यक्रमों में भागीदारी करने गया था। आते-जाते खैरागढ़ के साहित्यिक मित्र डॉ. गोरेलाल चंदेल और भिलाई के साथी रवि श्रीवास्तव भी साथ थे। रात को जब रायपुर से ट्रेन चली तो सोने का समय होने आया था। लौटते वक्त एक रोचक वाकया हुआ। सुबह बिलासपुर के आसपास नींद खुल गई तो हम लोग आपस में दुनिया भर की बातें करने में मशगूल हो गए। समय ऐसा था कि किसी सहयात्री को हमारी बातचीत से तकलीफ नहीं होना चाहिए थी, लेकिन तभी ऊपर की बर्थ से एक उनींदे युवा सहयात्री ने हस्तक्षेप किया- अंकल, सोने दीजिए। रायपुर पहुंच कर दिन भर बहुत काम करना है। रायपुर आने के कुछ पहले वह युवक अपनी बर्थ से नीचे उतरा। मैंने कहा कि हमारे कारण तुमको तकलीफ हुई। कहां रहते हो, क्या करते हो? मालूम पड़ा कि वह और उसके साथी चार्टर्ड एकाउंटेंट हैं। अंबिकापुर से ऑडिट करके लौट रहे हैं। इस बीच रायपुर में टेबल पर फाइलों का अंबार लग गया होगा।
रायपुर के युवा सीए अमित अग्रवाल के इस उत्तर से समझ आया कि आज की नई पीढ़ी को कितना संघर्ष और परिश्रम करना पड़ रहा है। पहले की अपेक्षा कहीं अधिक प्रतिस्पर्धा है और अगर सफलता हासिल करना है तो उसके लिए लगातार दौड़ते रहना एक विवशता बन गई है। फिर काम चाहे सीए का  हो या सॉफ्टवेयर इंजीनियर का या कुछ और। लेकिन इसके ठीक विपरीत अनुभव मुझे भुवनेश्वर यात्रा के दौरान हुआ। दुर्ग-पुरी एक्सप्रेस में रात को बालांगीर से एक युवक चढ़ा। सुबह उससे बात होने लगी तो मालूम पड़ा कि उसने बी. टेक कर लिया है, एम. टेक में प्रवेश की प्रतीक्षा कर रहा है, लेकिन अंकित सतपथी, वही उस युवक  का नाम था, तथा उसके मित्र एक संस्था चला रहे हैं, जिसमें साधनहीन बच्चों को वे अनेक तरह से मदद करते हैं।

अंकित ने मुझसे कहा कि हमने पढ़ाई कर ली है, कोई अच्छा काम भी मिल जाएगा, लेकिन जो बच्चे अनाथालय में हैं या अन्य तरह की विपरीत परिस्थिति में जी रहे हैं उनके लिए कुछ करने में हमें मानसिक संतोष मिलता है। मैंने इस बात की सराहना की, बधाई दी और फिर पूछा कि वे और उनके मित्र क्या पढ़ते हैं और बच्चों के बौद्धिक विकास के लिए क्या करते हैं? मेरे युवा सहयात्री के लिए यह प्रश्न कुछ नया और अटपटा था। मैंने अपनी बात का खुलासा करते हुए उसे सलाह दी कि जिन बच्चों की मदद वे फीस, ड्रेस आदि से करते हैं उन्हें वे उडिय़ा साहित्य की अच्छी पुस्तकें पढऩे के लिए न सिर्फ प्रेरित करें बल्कि उसकी भी व्यवस्था करें। आज बच्चे अगर अच्छी रचनाएं पढऩा शुरु करेंगे तो आगे चलकर वे सामाजिक स्थितियों को बेहतर तरीके से समझ पाएंगे तथा एक विचारशील नागरिक के रूप में देश निर्माण में भूमिका निभाने में सक्षम होंगे। मेरी बात खत्म होते न होते भुवनेश्वर का रेलवे स्टेशन आ गया। मालूम नहीं अंकित ने मेरी बिनमांगी सलाह को कितना समझा और वे उस पर कितना अमल करेंगे।

पाठकों से मैं कहना चाहता हूं कि मेरा बिना मांगे सलाह देना गलत नहीं था। हर व्यक्ति अपने व्यापार को बढ़ाना चाहता है और उसके लिए भरपूर कोशिश करता है। मेरा व्यापार पढऩे-लिखने का है तो मुझे हर वक्त यह लगता है कि समाज में पढऩे की प्रवृत्ति सर्वव्यापी होना चाहिए ताकि एक तो हमें कोई आसानी से बहला-फुसला न सके और दूसरे  समाज के निर्माण में हम सतर्क बुद्धि के साथ सकारात्मक भूमिका निभा सकें और तीसरे इसलिए कि पुस्तकें सचमुच हमारी दोस्त हैं और उनसे हमें जीवन-विवेक मिलता है।

हम अंबिकापुर वापिस लौटते हैं। वहां प्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन के दो दिवसीय कार्यक्रम में हमने कॉलेज के विद्यार्थियों से इसी तर्ज पर बात की। अमृतलाल नागर का यह जन्मशती वर्ष है। एक तो उनकी एक प्यारी सी कहानी है 'हाजी कुल्फीवाला' उसका पाठ एक विद्यार्थी ने किया। प्रेमचंद तो डायमंड्स आर फॉरएवर की तरह सदा के लिए हैं। उनकी कहानी 'नशा' का पाठ भी एक विद्यार्थी ने किया। कुछ अन्य कहानियों और कविताओं की भी प्रस्तुति दो दिनों में हुई। इन पर वरिष्ठ लेखकों और विद्यार्थियों के बीच खुलकर बातचीत हुई। विद्यार्थी पाठ्यक्रम के बाहर निकलकर साहित्य को उसकी व्यापकता पर पहचानें और समझें, उसकी पहल हुई। अंबिकापुर के अलावा आसपास के अनेक स्थानों से आए शिविरार्थियों के साथ ऐसी खुली चर्चा करना एक सुखद अनुभव था जिसकी सार्थकता समय सिद्ध करेगा।

मेरी भुवनेश्वर यात्रा भी एक साहित्यिक आयोजन के सिलसिले में हुई थी। ओडिया की युवा कथाकार इति सामंत 'कादम्बिनी' नाम से एक पारिवारिक पत्रिका और 'कुनिकथा' नामक बच्चों की पत्रिका निकालती हैं। पत्रिका का स्थापना दिवस था। दो जुलाई की शाम बारिश के बावजूद रवीन्द्र भवन का हाल खचाखच भरा हुआ था। उडिय़ा के प्रसिद्ध रचनाकार यथा सीताकांत महापात्र, रमाकांत रथ, हरप्रसाद दास, प्रभासिनी महाकुल इत्यादि श्रोताओं में थे। मंच पर सुप्रसिद्ध ओडिशी नृत्यांगना कुमकुम महांती, बंगला फिल्मों की सुप्रसिद्ध नायिका माधवी मुखर्जी, लेखक अनुवादक श्यामा प्रसाद चौधरी, चंडीगढ़ की युवा पत्रकार वाणी कौशल व ओडिशा के जाने माने सामाजिक उद्यमी अच्युत सामंत थे। अध्यक्षता उपन्यासकार वरिष्ठ लेखक विभूति पटनायक कर रहे थे। दो घंटे का कार्यक्रम घड़ी की सुई की तरह निपुणता से सम्पन्न हुआ। मैं सोच रहा था कि हम हिन्दी भाषियों में अपनी भाषा के प्रति ऐसा अनुराग क्यों नहीं है!
देशबन्धु में 14 जुलाई 2016 को प्रकाशित 

Wednesday 6 July 2016

मंत्रिमंडल का नया स्वरूप



प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपने मंत्रिमंडल का जो विस्तार और पुनर्गठन किया है उससे प्रथम दृष्टि में तीन बिन्दु उभरते हैं। एक- नया मंत्रिमंडल पुराने की अपेक्षा किन्हीं मायनों में बेहतर है। दो- नरेन्द्र मोदी मोर गवर्नेंस लेस गवर्मेंट अर्थात कम से कम सरकारी हस्तक्षेप के द्वारा बेहतर प्रशासन का नारा भूल गए हैं। तीन- जिस व्यक्ति ने बिना किन्हीं शर्तों के जनादेश प्राप्त किया अब वह समझौते करते दिखाई दे रहा है। जहां तक पहले बिन्दु की बात है यह दिखाई दे रहा है कि प्रधानमंत्री ने जिन नए लोगों को शामिल किया है उनमें से अनेक ज्ञान और अनुभव के धनी हैं। जिनको उन्होंने बाहर निकाला है या अन्य विभागों में भेजा है उनकी अपनी योग्यता पहले दिन से संदिग्ध थी तथा उसका कोई लाभ सरकार को नहीं मिला। जिस तरह से सुरेश प्रभु और मनोहर पार्रिकर ने मंत्रिमंडल में शामिल किए जाने पर उम्मीदें लगाई थीं वैसी ही उम्मीदें इस फेरबदल के बाद की जा रही हैं।

जब नरेन्द्र मोदी प्रधानमंत्री बने थे तो उन्होंने अपने मंत्रिमंडल का आकार छोटा रखा था। उन्होंने यह संदेश देने की कोशिश की थी कि यूपीए मंत्रिमंडल आवश्यकता से अधिक बड़ा था और कि डॉ. मनमोहन सिंह ने गठबंधन सहयोगियों को खुश करने के लिए भारी-भरकम मंत्रिमंडल बना डाला था। अब स्थिति यह है कि यूपीए में अगर अधिकतम 78 मंत्री थे तो एनडीए में एक अधिक याने 79। मोदीजी के अपेक्षाकृत छोटे मंत्रिमंडल की काफी सराहना की गई थी। प्रधानमंत्री ने तब दंभोक्ति की थी कि सुशासन देने के लिए यह आवश्यक नहीं है कि सरकार का स्वरूप बड़ा हो। दो साल बीतते न बीतते उनके अपने ही वायदे से मुकरने की नौबत आ गई है। यही स्थिति तीसरे बिन्दु के बारे में है। कल से यही गुणा-भाग लग रहा है कि उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों के मद्देनजर किन-किन जातियों व समुदायों को खुश करने की कोशिश मोदीजी ने की है।

प्रधानमंत्री ने मंत्रियों के विभागों में जो फेरबदल किए हैं, उसे लेकर काफी चर्चा हो रही है। अनेक प्रेक्षक मान रहे हैं कि अरुण जेटली से सूचना प्रसारण मंत्रालय वापिस लेकर उनका कद छोटा किया गया है। इसमें सच्चाई का अंश हो सकता है क्योंकि दिल्ली में उनके पत्रकार मित्रों का एक अलग समूह था जो गाहे-बगाहे मोदी विरोधी टिप्पणियां और खबरें छापने में लगा हुआ था। अगर यह कयास सच न भी हो तब भी क्या वित्तमंत्री को अपनी महती जिम्मेदारी के अलावा कोई अतिरिक्त विभाग संभालना व्यवहारिक था? स्मृति ईरानी को मानव संसाधन विकास मंत्रालय से हटाए जाने से आम तौर पर राहत और प्रसन्नता का भाव दिखाई दे रहा है। उनकी तुनकमिजाजी और कथित तौर पर दुर्व्यवहार ही इसका प्रमुख कारण है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है क्योंकि स्मृति ईरानी युवा और ऊर्जावान तो हैं ही, उनकी संघर्ष क्षमता भी काबिले-तारीफ है। अगर वे संयमित व्यवहार करना सीख लें तो उनके लिए आगे बढऩे की अपार संभावनाएं हैं।

यह ध्यान में आता है कि सुश्री ईरानी को जो कपड़ा मंत्रालय दिया गया है वह कम महत्वपूर्ण नहीं है। इसमें रोजगार के नए अवसर सृजित करने का  बड़ा अवसर एवं बड़ी चुनौती उनके सामने होगी। भारतीय वस्त्रों की विदेशों मेें बहुत मांग है। इसलिए निर्यात से विदेशी मुद्रा कमाने की खासी गुंजाइश यहां सदा से रही है। वस्त्रोद्योग में नवाचार के भी अनेक अवसर हैं। एक अन्य तथ्य ध्यान देने योग्य है कि स्मृति ईरानी अभी भी केबिनेट की वरीयता क्रम में अपने से कहीं अधिक वरिष्ठ डॉ. हर्षवर्धन से ऊपर हैं। उधर वित्त मंत्रालय में अरुण जेटली के सहायक रहे राज्यमंत्री जयंत सिन्हा को विमानन मंत्रालय में भेज दिया गया है। इसके पीछे अनुमान लगाया जा रहा है कि पिता यशवंत सिन्हा द्वारा मोदी सरकार की लगातार आलोचना किए जाने की सजा पुत्र को दी गई है। देखना होगा कि क्या वे यहां अपने वित्तीय विशेषज्ञता का उपयोग कर विमानन क्षेत्र को मुनाफे में ला सकेंगे।

प्रकाश जावड़ेकर अब नए मानव संसाधन विकास मंत्री हैं। उन्होंने बहुत कम समय में उन्नति की है। राज्यमंत्री से केबिनेट में आने वाले वे एकमात्र मंत्री हैं। स्मृति ईरानी की आलोचना होती थी कि वे नागपुर से आदेश लेती हैं। जावड़ेकरजी को आदेश लेने की जरूरत नहीं पड़ेगी क्योंकि वे तो सीधे संघ से ही आए हुए हैं और उन्हें मालूम है कि क्या करना है। नए राज्यमंत्री महेन्द्रनाथ पाण्डेय की भी पृष्ठभूमि संघ की है। दरअसल मोदी सरकार द्वैत प्रणाली में काम कर रही है। एक तरफ जिन मंत्रालयों का ताल्लुक शिक्षा, संस्कृति व सामाजिक संरचना से है वहां सरसंघचालक की ओर से जो फरमान आ जाए उसका पालन, और दूसरी तरफ वे मंत्रालय जिनमें आर्थिक और तकनीकी मुद्दे प्रमुख हैं वहां नवपूंजीवाद के साथ चलने वाले मंत्री।

इस फेरबदल में राजस्थान से जो तीन नए मंत्री शामिल किए गए हैं वे तीनों ही उच्च शिक्षित और प्रतिष्ठित नाम हैं। वहीं निहालचंद को हटाया गया है जो बलात्कार जैसे घृणित अपराध के आरोपी हैं । लेकिन मोदीजी ने उत्तर प्रदेश व बिहार के उन मंत्रियों को यथावत रखा है जिन पर दंगे करवाने और साम्प्रदायिक भावनाएं उकसाने के आरोप लगे हुए हैं। ये शायद जातीय समीकरण के कारण ही बच गए हैं। नरेन्द्र मोदी और उनके अनन्य सहयोगी अमित शाह उत्तर प्रदेश चुनावों को लेकर अभी से चिन्तित हैं। वे शायद विधानसभा में वैसी ही सफलता हासिल करना चाहते हैं जो उन्हें लोकसभा चुनाव में मिली थी। ऐसा लगता है कि कभी गुजरात में एकछत्र शासन करने वाले मोदीजी अब केन्द्र की राजनीति करते हुए समझौतों की व्यवहारिकता को स्वीकार करने लगे हैं। लेकिन आज नहीं तो कल ये उपद्रव प्रिय मंत्री निश्चित रूप से उनके लिए बोझ साबित होंगे। इस सच्चाई को वे जितनी जल्दी जान लें उतना अच्छा।

प्रधानमंत्री की निगाह सिर्फ उत्तर प्रदेश पर नहीं है। ऐसा अनुमान होता है कि वे गुजरात के बारे में भी सोच रहे हैं और महाराष्ट्र के बारे में भी। गुजरात में अगले साल चुनाव होना ही है। आनंदीबेन पटेल लोकप्रियता खो चुकी हैं। अपनी बेटी के व्यवसाय के कारण वे विवादों में भी हैं। ऐसे में शायद किसी दिन वे पुरुषोत्तम रूपाला को मुख्यमंत्री बनाने के बारे में सोच रहे होंगे। इसी तरह लगता है कि भाजपा महाराष्ट्र में शिवसेना से नाता तोडऩा चाहती है। इस फेरबदल में शिवसेना से कोई नया मंत्री नहीं लिया गया। शायद अनिल देसाई को पद देने की सीधी पेशकश की गई थी जो उद्धव ठाकरे की आपत्ति के कारण वापिस ले ली गई। कुछ समय पहले महाराष्ट्र से राज्यसभा में धनगर समुदाय के डॉ. विकास महात्मे भाजपा द्वारा लाए गए हैं जबकि सुप्रसिद्ध अर्थशास्त्री एवं दलित समुदाय के नरेन्द्र जाधव को राष्ट्रपति द्वारा उच्च सदन में मनोनीत किया गया है। अभी डॉ. सुभाष भामरे जो कि खानदेश के हैं को राज्यमंत्री बनाया गया है। इस तरह भाजपा एक रणनीति बनाकर प्रदेश में अपनी स्वतंत्र पहचान बनाने के लिए काम करती नज़र आ रही है।

बहरहाल मोदीजी किसी को बनाएं, किसी को हटाएं इससे कोई बहुत अधिक अपेक्षा नहीं रखना चाहिए। क्योंकि सरकार तो प्रधानमंत्री कार्यालय और मोदीजी के विश्वस्त अधिकारियों के इंगित पर ही चलती है।
 
देशबन्धु में 7 जुलाई 2016 को प्रकाशित 

Monday 4 July 2016

खुद पर निगरानी रखते चंद्रकांत देवताले



 खुद पर निगरानी का वक्त चंद्रकांत देवताले का नया कविता संग्रह है जो अब एक साल पुराना हो चुका है। पुस्तक न जाने कब से मेरी टेबल पर रखी हुई है। मुझे जब फुर्सत मिलती है, उसे उठाता हूं, कुछ पन्ने पलटता हूं, कोई कविता अधूरी, कोई पूरी, इस तरह पढ़ता हूं और पुस्तक वापिस रख देता हूं। फिर कलम उठाता हूं कि बस बहुत हो गया, अब तो इस पर लिखना ही है, लेकिन कलम चलती ही नहीं है, क्योंकि यह समझ ही नहीं पड़ता कि कहां से शुरुआत करूं। ऐसा असमंजस सामान्य तौर पर नहीं होता। कोई भी पुस्तक कविता की हो या गद्य की, जब हाथ में आती है और रचना पसंद आ जाती है तो उस पर कलम मानो अपने आप चल पड़ती है। तब चंद्रकांत देवताले की इन कविताओं में ऐसा कौन सा तत्व है जो साहित्य की मेरी समझ को जैसे चुनौती देते हुए विचार प्रवाह को रोक देता है? यह तो तय है कि मैं पेशेवर समीक्षक नहीं हूं, इसलिए काव्यशास्त्र की आधुनिक कसौटियों पर इन कविताओं को परखना मेरे लिए संभव नहीं है; मैं आजकल के अधिकतर आलोचकों की चिर-परिचित भाषा में किसी कृति के प्रति अपने विचार अथवा प्रतिक्रिया व्यक्त करने में असमर्थ हूं। फिर भी एक साल का समय कम नहीं होता कि 150 पृष्ठों में सिमटी मात्र साठ कविताओं के बारे में कोई मुकम्मल राय काम न कर सकूं। 

यह मेरे लिए खासी शर्म का विषय है और इससे उबरने के लिए मैंने ठान लिया कि अब जो भी हो, इस पुस्तक की शल्यक्रिया करना ही है। मेरी पहिली कठिनाई शायद यह रही कि देवतालेजी की कविताओं की कहन या शैली मुझे समकालीन कवियों से एकदम अलग प्रतीत हुई। मैंने महसूस किया कि वे अपने समय तथा परिस्थितियों पर दूर खड़े होकर निर्णय नहीं देते। वे जिस समाज को संबोधित कर रहे हैं, उसे पराया नहीं मानते, उसे अपने से कमतर नहीं समझते, उसे उपदेश देने के बारे में नहीं सोचते बल्कि उसके साथ गहराई तक संपृक्त हो जाते हैं। शायद कुछ-कुछ मुक्तिबोध की कविता मेरे दोस्त, मेरे सहचर की भावना का अनुसरण करते हुए। चंद्रकांत जिसके बारे में लिखते हैं, उसे अपना बनाकर नहीं, बुनियाद से ही अपना मानकर लिखते हैं। मैं उनकी कविताएं विगत चालीस वर्षों से या उससे भी पहिले से पढ़ता रहा हूं और उस बिना पर शायद बिना किसी अतिरंजना के कह सकता हूं कि चंद्रकांत देवताले के कवि का सर्वोत्तम रूप इन कविताओं में उभरकर आया है। यह तो हुई कहन अथवा शैली की बात, किन्तु उससे अधिक महत्वपूर्ण है कवि की समझ और दृष्टि। यह जानना विस्मयकारी और संतोषदायक है कि उनके समकालीनों में से अनेक प्रतिभाशाली कवि जब दृश्य से विदा हो चुके हैं या निस्तेज होकर किसी शीतल छाया में विश्राम के लिए जा चुके हैं, तब चंद्रकांत देवताले अपनी पूरी शक्ति और भीतर की सारी बेचैनी को साथ लिए वर्तमान की वे झलकियां, वे तस्वीरें बनाने में जुटे हुए हैं जो किसी दिन ऐतिहासिक साक्ष्य के रूप में पेश की जाएंगी। 

चंद्रकांत देवताले की कविताएं निरुद्वेग नहीं हैं, यद्यपि कहन का ठंडापन ऐसा भ्रम पैदा कर सकता है। इन कविताओं में पंक्ति-दर-पंक्ति उनकी आंतरिक बेचैनी उभरती है और पाठक को झिंझोड़ जाती है। वे जब खुद पर निगरानी का वक्त लिखते हैं तो अपने साथ-साथ समूचे बौद्धिक समाज को चुनौती देते हैं कि वृहत्तर समाज के साथ अपनी प्रतिबद्धता सिद्ध करो। कभी मुक्तिबोध ने महत्वाकांक्षी लेखकों के पद और प्रतिष्ठा के लोभ के बारे में लिखा था कि वे उच्चतर वर्ग के दरवाजे जा उनकी कृपा से सभ्य जीवन की सुन्दर साज-सज्जा प्राप्त कर अपने वर्ग से ही घृणा और तिरस्कार करने लगते हैं। एक साहित्यिक की डायरी में संकलित एक लंबी कविता का अंत लेख में उन्होंने विस्तारपूर्वक इस मनोवृत्ति की चर्चा की थी। 1950 के दशक की इस सच्चाई का अक्स चंद्रकांत की इस कविता में उभरा है। जहां वे पूंजी मंडी में फोटो खिंचवाते, मुस्काते विवेक को नष्ट होते देखते हैं, कौड़ी के भाव ईमान को बिकते देखते हैं और तब वे छाती कूटती, हांफती कविता के माध्यम से कहते हैं- 

कह रही बार-बार निगरानी रखो
जैसी दुश्मन पर, वैसी ही खुद पर
चुटकी भर अमरता-खातिर
विश्वासघात न हो जाए।
अपनी भाषा, धरती और लोगों के साथ (पृष्ठ 124) 

संकलन में एक लम्बी सी कविता है- गुजर गया दो हजार दस। इसके पहले पद में ही वे सत्तातंत्र पर तीव्र कटाक्ष करते हैं- 

सिर मुंड़ाकर गुजर गया दो हजार दस
नवम्बर-दिसंबर को व्यवस्था की तरह
लाशें-ताबूत ढोते हांफते रहे
मरे भूख से, बे-मौत भी, 
फिर हत्याएं हुईं इतनी गिन पाना असंभव
वह भी दिपदिपाते चारों खंबों की छत्रछाया में (पृष्ठ 37)

इसी कविता में वे घोटाले की अमर धुन के साथ सत्य, स्वतंत्रता और विचार तीनों की शव यात्राएं निकलने का चित्र खींचते हैं, उनकी पोस्टमार्टम रिपोर्ट गायब हो जाने की बात कहते हैं, लेकिन फिर यह कहते हुए कि आज तो डर रहा मैं सच कहने से। इस कविता का अंत इस तरह करते हैं कि भीतर बैठा दूसरा, जो जोखिम उठाने के लिए उकसा रहा है मैं उसकी अनसुनी कर रहा हूं। यह दूसरा और कोई नहीं, कवि स्वयं है। यह आज के समय में सामान्य जन और वेदना का, उसकी तड़प और कसक का मर्मस्पर्शी और पारदर्शी चित्रण है। 
कवि इस मार्मिक सत्य का आगे और खुलासा कोई पूछे तो कविता में इन शब्दों में करता है-

‘मैदान ही में नहीं होता युद्ध
जगहें बदलती रहतीं
कभी-कभी उफ तक नहीं होती वहां
जहां घमासान जारी रहता’ (पृष्ठ 95)

युद्ध भूमि कहां नहीं है? एक तरफ कवि युद्ध की जगह पूछे जाने पर हमारे बहरे-गूंगे होने का ढोंग करने की विवशता का बयान करता है तो दूसरी ओर इसी कविता में वह विस्थापित और गुमनाम लोगों के तहस-नहस चेहरों से मिलवाता है। सृजन-अनुष्ठान टेंट हाउस शीर्षक कविता में युद्ध क्षेत्र के ही एक दृश्य का वर्णन है जिसमें भाषा के घर में हुई तोडफ़ोड़ का ब्यौरा कवि देता है। इस कविता में उसने ठेके पर सम्मान करवाने वाले लेखकों, कवि-निर्माताओं तथा छवि-कामियों की खूब खबर ली है और प्रशंसकों की लफ्फाजी रेखांकित करने के साथ उसने ऐसे उत्सवों की फूहड़ता और हास्यास्पदकता को भी रेखांकित किया है। इस कविता में समर भूमि में या कि घमासान के बीच चल रहे पाखंड की झलक है, लेकिन चंद्रकांत देवताले एक अन्य कविता इन्तजार करो, तुम कतार में हो में पुन: गंभीर एवं जीवन-मरण के प्रश्नों के सामने पाठक को खड़ा कर देते हैं। ये पंक्तियां दृष्टव्य हैं- 

तुम्हारे तो कई कई हैं दस्ते मैया
एक वो जमीन-जल-जंगल को
लूटने वाला हरकारा कॉरपोरेट पूंजी का 
जिसके झटकों से अन्नदाता हमारे
कर रहे हैं आत्महत्या (पृष्ठ 43)

इस कविता में सबसे मार्मिक, वेधक एवं भीतर तक कंपा देने वाली पंक्तियां अंत में है, जहां कवि अपने अकेलेपन में पस्त मौत से संवाद करना चाहता है और उधर से जवाब आता है- यू आर इन द क्यू। (पृष्ठ-45) ऐसी गहरी हताशा जीवन में छाए, तिस पर मृत्यु को भी दया न आए, क्या करोड़ों विश्व नागरिक इस नियति को भुगतने के लिए अभिशप्त नहीं है? प्रश्नों के चाकू कविता में भी वह विषाक्त विचारों की खाद से/कर रहे बंजर सपनों वाली अपनी उपजाऊ धरती/खड़ा करने सत्ता, पूंजी, ताकत का महाहाट (पृष्ठ 49) जैसी पंक्तियों से उस युद्ध का वर्णन करता है जो आज भारत के खेतिहरों और खेती के खिलाफ जारी है। 

चंद्रकांत देवताले के इस संकलन की उन कविताओं को एक अलग श्रेणी में रखा जा सकता है, जो उन्होंने कुछ विशेष जनों की स्मृति में रची हैं। इनमें सुदीप बनर्जी हैं, मकबूल फिदा हुसैन हैं, तुकाराम हैं, निराला हैं और हैं मुक्तिबोध व रघुवीर सहाय। स्मिता पाटिल भी इस सूची में हैं, जिन्हें स्मरण करते हुए वे महाश्वेता देवी, मदर टेरेसा व मेधा पाटकर के अभियानों का उल्लेख कर मानों फिर हमें उस अघोषित युद्धभूमि की ओर ले जाते हैं। सुदीप उनके छात्र, मित्र और अनुजवत थे। स्मरण: सुदीप में चंद्रकांत भाई उन्हें बेहद भावुक होकर याद करते हुए उनकी आम आदमी के प्रति अनन्य पक्षधरता को एक आदर्श की तरह सामने रखते हैं। हुसैन के साथ अपने संक्षिप्त परिचय का उल्लेख करते हुए वे उनके देश छोडऩे की विवशता को इन शब्दों में पिरोते हैं- 

जिस अपनी धरती का स्वाद 
ताजिदगी रहा तुम्हारी जुबां पर
वहां से लावतन होना पड़ा तुम्हें
उन मुट्ठी भर लोगों के कारण 
जिनके विवेक को खा चुका था पाखंड (पृष्ठ 25) 

गरज यह कि अघोषित युद्ध भूमि यहां भी मौजूद है। देवताले ने संत तुकाराम के अभंगों का हिंदी अनुवाद किया है (यद्यपि उसकी कोई खास चर्चा नहीं हुई है)। संत कवियों की समृद्ध परंपरा में तुकाराम का स्मरण करते हुए वे इस तरह प्रतिश्रुत होते हैं- 

पर तुका! भरोसा रखना
बचपन से रहता हूं तुम्हारे जैसों की ही
आवाजो के घर में
भगोड़ा हो नहीं सकता। (पृष्ठ-28)

आधुनिक कवियों में मुक्तिबोध उनके प्रिय कवि हैं, जिन पर उन्होंने बहुत परिश्रम एवं मनोयोग से शोधपरक ग्रंथ भी लिखा है। मुझे अचरज यह है कि वे मुक्तिबोध तथा रघुवीर सहाय को एक कोटि में रखते हैं। मेरी समझ में मुक्तिबोध में जहां वैश्विक दृष्टि और विराट फलक है, वहीं रघुवीर सहाय शोषित जन के साथ अपनी एकजुटता दर्शाने के बावजूद विद्यमान परिस्थितियों का वस्तुपरक विश्लेषण उस व्यापक पृष्ठभूमि और उसमें मौजूद जटिलताओं के बरक्स नहीं कर पाते। बहरहाल, देवतालेजी की उपरोक्त दूसरी कोटि की कविताओं के एक-दो उद्धरण और देख लीजिए- 

1. थोड़े लिखे को अधिक पढऩा
    और किसानों की आत्महत्या-धरती के ताजा ख्मों की
    रोमर्रा वाली वारदातें याद रखना (पृष्ठ 55)

2. और कविता जिसे
    पता नहीं किस भरोसे बना लिया
    पड़ताल के लिए कसौटी मैंने
    क्या उसका भी करवाना होगा नार्को टेस्ट (पृष्ठ 47)

अब तक दिए गए छुटपुट उद्धरणों से कवि की बिंब-विधान की क्षमता का परिचय हमें बखूबी मिल जाता है लेकिन अब मैं चंद्रकांत की कविता के एक और पक्ष की चर्चा करना चाहता हूं, जिसे शायद सौंदर्य पक्ष कहा जा सकता है, और जिसके अन्तर्गत बिंब विधान की बात भी दुबारा उठेगी। दरअसल, यहां मेरी एक कठिन कोशिश है कि कवि के विचार पक्ष को कुछ देर के लिए भूलकर सिर्फ शैली की सुंदरता को ही देखा जाए, गोया बरसात की पहिली झड़ी को देख रहे हों (बस्ती के निचले इलाकों में पानी भर जाने की मुसीबत भूलकर!) देवतालेजी को अन्य बहुत से कवियों के ही सदृश्य सूरज बहुत लुभाता है। उसका आकर्षण सचमुच है ही कुछ ऐसा। चंद्रकांत इसलिए ‘सूरज का प्रताप का महोत्सव’ यह कहकर मनाते हैं- 

‘‘समूची धरती को कितना कुछ सिरजने वाला
ब्रह्माण्ड का सबसे अमूल्य हीरा’’ (पृष्ठ 12)

और
 
कुछ पहिले एक बार
समुद्र के पिंजरे में तुम्हें शेर की तरह
खड़ा कर दिया था मैंने
कन्याकुमारी, पुरी, कोणार्क
और पालेर्मो के समुद्र तट तक (पृष्ठ-10)

चंद्रकांत भाई कोई दस साल पहिले छत्तीसगढ़ आए थे, उस यात्रा की स्मृति को उन्होंने इन शब्दों में संजोया है- 

एक पूरे चांद की रात छत्तीसगढ़ के बारनवापारा
अभ्यारण्य में गिटार की तरह बजाया था
            चंद्रमा को मैंने (पृष्ठ-14)

सूरज और चांद हैं तो रात भी है, लेकिन एक नए रूप में- 

छाती पर रात पहाड़ जैसी
और आटे में नमक जितनी
चुटकी भर नींद
गुंडी में पानी नहीं कटोरी भर भी (पृष्ठ-30)

इस संकलन में उनकी वह कविता भी है जो उन्होंने दिल्ली के अस्पताल में मृत्युशय्या पर पड़े मुक्तिबोध जी को देखने के बाद लिखी थी और सितंबर 64 में कल्पना में प्रकाशित हुई थी। इस कविता का प्रारंभ इस तरह होता है- 

मन: धूप का समुंदर
और किनारों पर
उलझी हुई वनालियों की तरह संवेदनाएं,
तुम्हारी कविताएं : 
जैसे सूरज के तपते हुए पठार पर
गिरता हुआ झरना
भाप बनता है। (पृष्ठ 142)

खुद पर निगरानी का वक्त पर लिखते हुए मैंने यथासंभव उदाहरण देकर अपनी राय देने का यत्न किया है, लेकिन कुल मिलाकर यह एक अधूरी कोशिश ही है। चंद्रकांत देवताले की भाव-भूमि, रचना-प्रक्रिया, शैलीगत विशिष्टता, इन सबको समझने के लिए एक-एक कविता को धीरज और मनोयोग के साथ पढऩे की आवश्यकता है। वे एक जटिल कवि हैं, यह भी कहूं तो गलत नहीं होगा। कविता पढ़ते-पढ़ते ही उसके अर्थ की गठानें खुलती हैं या अर्थ का समूचेपन में विस्तार होता है। सांगानेर की बंधेज की साड़ी को जब तक पूरी तरह सलवटें मिटाकर न देखा जाए, वह एक साधारण वस्त्र ही प्रतीत होता है, उसके रंग और रूप का सही पता नहीं लग पाता। तो मैंने सिर्फ इतना किया है कि आपको देवतालेजी के कविता संसार की दहलीज पर खडा़ कर दिया है। शायद हो यह लेख आपको भीतर जाने के लिए प्रेरित करे! अंत में मैं इतना अवश्य कहूंगा कि कवि ने बीते पचास सालों में एक लंबी यात्रा तय की है। एक समय उन्हें अकविता की त्रयी में गिना जाता था (गो कि वे इससे साफ इंकार करते हैं), आज उनकी कविता हमारी सोयी चेतना को जगाने का काम कर रही है। आमीन।

अक्षर पर्व जुलाई 2016 अंक की प्रस्तावना 

पुस्तक : खुद पर निगरानी का वक्त
कवि : चन्द्रकांत देवताले
प्रकाशक: वाणी प्रकाशन
4695,21- दरियागंज नईदिल्ली-110002
मूल्य: 150 रुपए  

Sunday 3 July 2016

सातवां वेतनमान: खेतों में सूखा : बाजार में बहार


 केन्द्र सरकार ने सातवें वेतन आयोग की सिफारिशें लागू कर दी हैं। इससे केन्द्र पर एक लाख करोड़ रुपया प्रतिवर्ष का व्यय भार बढ़ेगा जबकि सैंतालीस लाख केन्द्रीय कर्मचारी और तिरपन लाख पेंशनभोगी इस तरह एक करोड़ व्यक्ति लाभान्वित होंगे। ये आंकड़े देखे तो अनायास ही ध्यान यूपीए-1 के उस निर्णय पर चला गया, जिसमें किसानों को कर्जमुक्त करने के लिए सत्तर हजार करोड़ का प्रावधान किया गया था। तब अर्थनीति के बड़े-बड़े पंडितों ने इस कदम की आलोचना की थी। उन्हें इसके दुष्परिणाम ही दिखाई दे रहे थे। सच तो यह है कि इस देश के नीति-नियंताओं ने खेती-किसानी को व्यर्थ का काम समझ लिया है। वे बार-बार जीडीपी में कृषि क्षेत्र के न्यून योगदान का मुद्दा उठाते हैं। उन्हें जानबूझ कर यह समझ नहीं आता कि यदि खेती ठीक से न हो और किसान की खुशहाली पर ध्यान न दिया जाए तो बिना अनाज के जिएंगे कैसे?

भारतीय समाज का यही वर्ग सातवें वेतन आयोग की सिफारिशें लागू होने से बहुत खुश हैं। उसे लगता है कि खजाने से सालाना एक लाख करोड़ की रकम निकलेगी तो बाजार में बहार आ जाएगी।  टीकाकारों ने इसके दुष्प्रभावों की चिंता यदि की भी है तो दबी जुबान से। विडंबना यह है कि सरकारी कर्मचारी स्वयं इन सिफारिशों से खुश नहीं हैं। वे जिस बढ़ोतरी की मांग और उम्मीद कर रहे थे वह उन्हें नहीं मिली। सैन्य व अद्र्ध सैन्य बल तो काफी नाराज़ हैं। इससे कांग्रेस पार्टी को बैठे बिठाए मोदी सरकार पर आक्रमण करने का अवसर मिल गया है। कांग्रेस दावा कर रही है कि छठवें वेतन आयोग की जो सिफारिशें आई थीं उसमें अपनी तरफ से अच्छी खासी बढ़ोतरी कर यूपीए ने कर्मचारियों को तोहफा दिया था जबकि वर्तमान सरकार कंजूसी का परिचय दे रही है। देश की जो वित्तीय  स्थिति है उससे कांग्रेस भी परिचित है और एनडीए सरकार उसी के अनुसार सावधानी बरत रही है, लेकिन विरोधी दल अगर विरोध न करेंगे तो क्या करेंगे?

यह बात बिल्कुल समझ नहीं आती कि केन्द्रीय कर्मचारियों के लिए हर दस साल में वेतन आयोग गठित करने की आवश्यकता ही क्यों पड़ती है। एक कर्मचारी नियत वेतनमान पर नियुक्ति पाता है।  उसे हर साल वेतनवृद्धि मिलती है।  महंगाई बढ़ती है तो उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (सीपीआई) के अनुसार महंगाई भत्ता भी बढ़ता है। ऐसे में वेतन आयोग की यह परिपाटी अर्थव्यवस्था को पटरी से उतारने का ही काम करती है। जब इंद्रकुमार गुजराल प्रधानमंत्री थे तब पांचवें वेतन आयोग की सिफारिशें लागू की गई थीं। उस समय आर्थिक स्थिति वैसे ही कमजोर थी और कर्मचारियों के वेतन एकाएक बढऩे से और अधिक परेशानियां खड़ी हो गई थीं। प्रशासनिक आवश्यकताओं के मद्देनजर कर्मचारियों की श्रेणी में परिवर्तन या नई श्रेणियों का सृजन करने की आवश्यकता दस-बीस साल में हो सकती है, लेकिन फिर प्रशासनिक सुधार आयोग भी तो है, जिसकी रिपोर्टें धूल खाती पड़ी रहती हैं।

सरकारी कर्मचारियों को उनके काम के मुताबिक संतोषजनक वेतन मिले इसमें किसी को आपत्ति नहीं होगी, किन्तु यहां पहला बुनियादी सवाल यह खड़ा होता है कि क्या सरकारी कर्मचारी देश के अन्य नागरिकों से भिन्न किसी प्रजाति के हैं। दूसरे- वे जो काम कर रहे हैं वह किसके लिए? मात्र अपने लिए वेतन अर्जित करने  अथवा समाज की बेहतरी के लिए? तीसरे- यदि प्रशासनतंत्र में कसावट नहीं है तो उसके लिए जिम्मेदार कौन? क्यों आए दिन भ्रष्टाचार की खबरें सुनने मिलती हैं? क्यों प्रधानमंत्री को सफाई देना पड़ती है कि उनके कार्यकाल में भ्रष्टाचार खत्म हो गया है? एक सवाल तो यह भी पूछा जा सकता है कि पांचवें वेतन आयोग ने अपनी रिपोर्ट में बहुत से अभिकरणों को और बहुत से पदों को समाप्त करने की सिफारिश की थी उस पर अमल क्यों नहीं हुआ? इसके विपरीत नए-नए अभिकरण और नए-नए पद सृजित हो रहे हैं। हमारे यहां ई-गर्वर्नेंस की बातें तो खूब होती हैं, लेकिन कुछेक क्षेत्रों को छोडक़र बाकी सबमें कागजों का अंबार लगा रहता है, सो क्यों?

केन्द्रीय कर्मचारियों के लिए नया वेतनमान जैसे ही लागू होगा राज्यों में भी उसे लागू करने की मांग उठने लगेगी। जब राज्य सरकार के कर्मचारी मांग करेंगे, तो विश्वविद्यालय, नगर निगम, जिला पंचायत तथा अन्य अनुदान प्राप्त संस्थाओं के कर्मचारी भी मांग उठाने में पीछे नहीं रहेंगे। यह एक विचित्र स्थिति है। समान काम के लिए समान वेतन जायज है, लेकिन समान परिस्थिति की शर्त भी तो उसके साथ होना चाहिए। केन्द्रीय कर्मचारी का तबादला देश में कहीं भी हो सकता है। राज्य के कर्मचारी का सिर्फ प्रदेश के भीतर तथा स्थानीय निकायों के कर्मचारी तो जहां नियुक्त होते हैं वहीं से रिटायर होते हैं। याने उनके काम करने की स्थिति अपेक्षाकृत सुविधापूर्ण है। यह भी विडंबना है कि कोई भी राज्य सरकार या मुख्यमंत्री किसी तरह का विरोध मोल लेना नहीं चाहता और वह कर्मचारियों की संगठित शक्ति के आगे झुक जाता है। इसके चलते राज्य पर जो व्यय भार पड़ता है उसकी भरपाई कहां से होगी, इसकी चिंता कोई नहीं करता।

देश के अधिकतर राज्य कर्ज से दबे हुए हैं।  वे अपने खर्चों के लिए रिजर्व बैंक से ओवर ड्राफ्ट लेते हैं। कुछ राज्यों में तो पूरी सालाना आय कर्मचारियों के वेतन-भत्तों में चली जाती है। नतीज़ यह होता है कि विकास के मदों में खर्चों में लगातार कटौती होते जाती है। एक तरह से देखें तो कर्मचारियों के लिए यह स्थिति आत्मघाती है। जब सरकार के पास पैसे नहीं होते तो वह पूर्णकालिक कर्मचारी नियुक्त करने के बजाय अंशकालिक, तदर्थ अथवा अनुबंध पर कर्मचारी नियुक्त करती है। इसका सीधा दुष्परिणाम शासकीय कार्य की गुणवत्ता पर पड़ता है। सबसे खराब स्थिति शिक्षा और स्वास्थ्य में देखने मिलती है। सारे प्रदेशों में पूर्णकालिक शिक्षकों की नियुक्ति पिछले पच्चीस साल से बंद हो रखी है। आईआईटी, आईआईएम और विश्वविद्यालयों में शिक्षकों के पद खाली पड़े हुए हैं। शोधार्थियों एवं विद्यार्थियों की छात्रवृत्ति में 
कटौती हो रही है और ऐसी अनेक बातें हैं।

ऐसा प्रतीत होता है कि सरकारें न्यूनतम प्रतिरोध की अवधारणा से संचालित हो रही है। दूसरे शब्दों में सत्ताधीश अपने पद पर बने रहने के लिए हर तरह के समझौते कर रहे हैं। वे कोई खतरा मोल नहीं लेना चाहते। इस मनोवृत्ति के चलते प्रशासनतंत्र निरंतर पंगु होते जा रहा है। जिन जनप्रतिनिधियों को जनता के बीच में धंस कर उनकी आशा-आकांक्षा जानना चाहिए वे अब बिना गनमैन के नहीं चलते ताकि जनता उससे थोड़ी दूरी बनाकर ही रहे। अफसरशाह जो फैसले लेते हैं उसी से सरकार चलती है। फलत: जनता की समस्याओं की निराकरण के चाहे जितने वायदे किए जाएं उनमें से अधिकतर पूरे नहीं होते। इसके बाद जब सरकारी कर्मचारियों पर छापे डालकर करोड़ों की संपत्ति मिलने की खबरें सुनने में आती हैं तो पूछने का मन होता है  कि इन्हें वेतन की आवश्यकता ही कहां है?

बहरहाल, आज हमारी सबसे बड़ी चिंता इस बात को लेकर है कि नए वेतनमान के बाद देश में संगठित और असंगठित क्षेत्र के कर्मचारियों के बीच अभी जो खाई है वह और अधिक चौड़ी हो जाएगी। निजी क्षेत्र के लघु एवं मध्यम उद्यमियों के पास इतने साधन ही नहीं हैं कि वे अपने कर्मचारियों को सरकारी कर्मचारियों के बराबर वेतन दे सकें। इससे देश के व्यापार जगत में एकाधिकारवाद की मनोवृत्ति पनपेगी। छोटे कल-कारखानों का चलना मुश्किल हो जाएगा क्योंकि उन्हें कम वेतन पर अच्छे कर्मचारी नहीं मिलेंगे। तब माल और मल्टीप्लेक्स की आर्थिक संस्कृति को ही पनपने का मौका मिलेगा। इसके अलावा बाजार में महंगाई बढ़ेगी तथा मुद्रा स्फीति की दर भी बढ़ेगी। सरकारी कर्मचारी के हाथ में आई रकम गैर-आवश्यक वस्तुओं की खरीद में जाएगी। हर तरह की जिंस के भाव बढऩा ही बढऩा है। ऐसे में एक बार सत्तर हजार करोड़ की रियायत पा चुका किसान क्या करेगा? उसे तो मनरेगा में भी ठीक से काम नहीं मिल पाता और उसका साथी मजदूर-कारीगर क्या करेगा? उसके रोजगार के साधन तो पहले ही मशीनीकरण ने छीन लिए हैं। अंत में यक्ष प्रश्न कि सरकार वेतन हेतु अतिरिक्त धनराशि की व्यवस्था इस मंदी के दौर में कैसे करेगी?
देशबन्धु में 2 जुलाई 2016 को प्रकाशित