Tuesday, 26 March 2013

केन्द्र-राज्य संबंध और क्षेत्रीय दल




 यह कॉलम लिखने बैठा ही था कि यूपीए से उसके प्रमुख सहयोगी दल द्रमुक के स्वयं को अलग कर लेने की खबर मिली। वैसे इस आशय के संकेत पिछले कुछ दिनों से लगातार मिल रहे थे। उसने यह निर्णय श्रीलंका में तमिलों पर हो रहे अत्याचार के विरोध में केन्द्र सरकार द्वारा जाहिरा तौर पर कोई कठोर कदम न उठाने से नाराज होकर लिया है। राष्ट्र महासभा में अमेरिका ने श्रीलंका के खिलाफ मानवाधिकारों के हनन का प्रस्ताव पेश किया है और द्रमुक चाहती थी कि भारत सरकार इस प्रस्ताव को संशोधित कर इसे नरसंहार की संज्ञा देकर अपना विरोध दर्ज करती। उल्लेखनीय है कि पिछले साल भी इस तरह का प्रस्ताव महासभा में लाया गया था और तब भारत ने श्रीलंका के खिलाफ मतदान किया था। फिर आज द्रमुक एवं उसके सुप्रीमो करुणानिधि को गत एक दशक से चले आ रहे गठबंधन को तोड़ने की जरूरत क्यों आन पड़ी- यह एक विचारणीय प्रश्न है। 

श्रीलंका में तमिलों की क्या स्थिति है, वहां की सरकारें इस बारे में क्या रुख अपनाते आई हैं, लिट्टे की क्या भूमिका रही है, राजीव गांधी की हत्या क्यों की गई, महेन्द्रा राजपक्ष की सरकार द्वारा सैनिक कार्रवाई किस सीमा तक न्यायसंगत थी- ऐसे बहुत से सवाल  हैं जिनका अध्ययन किए बिना श्रीलंका पर भारत के रुख को नहीं समझा जा सकता और यह पृथक विश्लेषण का विषय है। फिलहाल हम यह समझना चाहेंगे कि करुणानिधि ने श्रीलंका में तमिलों की स्थिति से क्षुब्ध होकर यह ताजा निर्णय लिया है अथवा इसके कोई अन्य कारण भी हैं। यह प्रश्न आज के दौर में इसलिए मौजूं हैं क्योंकि करुणानिधि ही नहीं, अनेक क्षेत्रीय नेता इन दिनों सामंतयुगीन क्षत्रपों की तरह बर्ताव कर रहे हैं।

अभी पिछले सप्ताह की ही बात है जब प्रधानमंत्री पश्चिम बंगाल के मालदा किसी काम से गए तो मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने उनसे अपेक्षित शिष्टाचार का पालन नहीं किया।  वे न तो प्रधानमंत्री की अगवानी के लिए हवाई अड्डे गईं और न ही मालदा के कार्यक्रम में उन्होंने शिरकत की। इसके पहले उन्होंने प्रधानमंत्री के साथ बंगलादेश की यात्रा पर जाने का निमंत्रण ठुकरा दिया था तथा उनकी जिद के चलते तीस्ता जलसंधि अभी तक नहीं हो पाई है। यह उन्होंने ऐसे नाजुक वातावरण में किया जब बंगलादेश की प्रधानमंत्री शेख हसीना भारत के साथ रिश्तों को बेहतर करने और देश में धर्मनिरपेक्ष मूल्यों की पुर्नस्थापना के लिए जी-जान से जुटी हुई हैं।

एक उदाहरण गुजरात का है जहां कारपोरेट घरानों के भुलावे में आकर मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी अभी से अपने को देश का प्रधानमंत्री मानने लगे हैं और प्रधानमंत्री अथवा कांग्रेस अध्यक्ष की कारण-अकारण आलोचना करने का कोई मौका नहीं छोड़ते और न इसके लिए अपने शब्दों और भाषा पर संयम रखने की जरूरत समझते। इनके बरक्स बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार हैं जिनका रुख हाल-हाल में केन्द्र सरकार के प्रति नरम हुआ है। उन्होंने भी बीते रविवार दिल्ली आकर शक्ति प्रदर्शन और अपनी महत्वाकांक्षा प्रकट करना आवश्यक समझा। यद्यपि यह दिख रहा है कि वे कट्टरपंथी मोदी तथा मितभाषी मनमोहन सिंह के बीच स्वयं को तीसरे विकल्प के रूप में पेश कर रहे हैं। हमें याद आता है कि लगभग बीस वर्ष पूर्व हरियाणा के तत्कालीन मुख्यमंत्री चौधरी देवीलाल ने दिल्ली के बोट क्लब पर इसी तरह शक्ति प्रदर्शन किया था।

फिलहाल अलग-अलग प्रदेशों में इस तरह जो दृश्य बन रहा है उसका अर्थ निकालना शायद बहुत कठिन नहीं है। यह तो हमारे संविधान में ही लिखा है कि भारत एक संघीय गणराज्य होगा, लेकिन इन दिनों संघ के अलग-अलग घटक याने प्रांतीय सरकारें एक तरह से केन्द्र सरकार पर हावी होने की और उससे अपनी उचित-अनुचित हर तरह की मांग पूरी करवाने के लिए दबाव डालने में लगी हैं। इसी में इन दलों के नेता अपनी राजनीतिक हैसियत का प्रमाण पाते हैं। ऐसा करते हुए वे इस बात की अनदेखी कर रहे हैं कि भारत अमेरिका नहीं है और यहां केन्द्र के कमजोर होने से देश की संप्रभुता व एकता पर भी आंच आ सकती है। ऐसा हम सोवियत संघ में देख चुके हैं जहां सोवियत सत्ता का विघटन होने के साथ ही देश  पन्द्रह हिस्सों में बंट गया।

भारत में केन्द्र-राज्य संबंधों को लेकर एक लंबे समय से बहस चलते आई है। केन्द्र-राज्य संबंधों में तनाव भी कोई नई बात नहीं है। इसे हमने सबसे पहले 1957 में देखा, जब केरल में कम्युनिस्ट पार्टी की सरकार बनी और दो साल बीतते न बीतते 1959 में उस सरकार को अपदस्थ कर दिया गया। यह अगर एक अपवादस्वरूप प्रसंग ही था तो एक बड़ी लहर 1967 में उठी जब गैर-कांग्रेसवाद के नाम पर  बहुत से प्रदेशों में संविद सरकारों का गठन हुआ। इस प्रयोग से तत्कालीन जनसंघ को ही सबसे ज्यादा फायदा हुआ और कितने ही धुरंधर कांग्रेसियों की सत्ता लोलुपता का परिचय भी इसमें मिला। खैर! इसके बाद इंदिरा गांधी के लगभग एकछत्र शासनकाल में अनेक प्रदेशों में एक ओर यदि विपक्षी सरकारों के बर्खास्त करने के प्रकरण घटित हुए तो दूसरी ओर तमिलनाडु में एक या दूसरी क्षेत्रीय पार्टी के सामने कांग्रेस के झुक जाने के उदाहरण भी सामने आए। विपक्षी सरकारों को बर्खास्त करने का मुद्दा सर्वोच्च न्यायालय तक गया और बहुचर्चित बोम्मई फैसला आया जिसमें बिना पर्याप्त कारण के राष्ट्रपति शासन लागू करना अवैधानिक करार दिया गया। इस बीच में न्यायमूर्ति आर.एस. सरकारिया की अध्यक्षता में केन्द्र राज्य संबंधों की समीक्षा करने के लिए सरकारिया आयोग बना जिसकी सिफारिशों को कोई तवज्जो नहीं दी गई।

बहरहाल पिछले बीस-बाइस साल से देश में गठबंधन सरकारों का युग चल रहा है। यहां तक कहा जाने लगा है कि अब केन्द्र में किसी भी पार्टी को स्पष्ट बहुमत नहीं मिलेगा। 1989 से लेकर 1999 के बीच जो अस्थिरता आई उसके चलते बहुत से नेता लोकसभा का चुनाव लड़ने से कतराने लगे हैं कि न जाने कब लोकसभा भंग हो जाए।  यह गठबंधन का युग क्षेत्रीय नेताओं को भले ही रास आता हो, लेकिन कुल मिलाकर इससे देश का नुकसान हो रहा है। जो क्षेत्रीय दल हैं वे अपने सुप्रीमो याने महज एक व्यक्ति के इंगित से संचालित होते हैं और इनमें एक व्यापक दृष्टि का अभाव स्पष्ट ही परिलक्षित होता है। उन्हें न तो आर्थिक मामलों की कोई समझ है, न कूटनीति की और न अंतरराष्ट्रीय मसलों की।

करुणानिधि हो या जयललिता उन्हें इस बात की चिंता नहीं है कि भारत-श्रीलंका के बीच अगर एक नाजुक संतुलन कायम नहीं रहेगा तो चीन वहां हावी हो सकता है। नेपाल में ऐसा हुआ ही है। इसी तरह ममता बनर्जी इस बात को नहीं समझना चाहतीं कि उनकी अहंमन्यता से बंगलादेश की कट्टरपंथी ताकतों को ही बल मिलेगा। जम्मू-काश्मीर की स्थिति इससे अलग है। केन्द्र में जो भी रहे वहां के क्षेत्रीय दल के साथ बने रहना इसलिए जरूरी है ताकि उस प्रदेश में अलगाववादी ताकतों से प्रांतीय सरकार ही निपटें, लेकिन भारतीय जनता पार्टी इस बारे में जानबूझ कर  भी अनजान बनी हुई है।

मैं मानता हूं कि एक अरब बीस करोड़ की आबादी वाले देश में क्षेत्रीय दलों का उभरना स्वाभाविक है, लेकिन ये दल यदि सिर्फ चुनावी गणित को ध्यान में रखकर चलेंगे तो उससे बात नहीं बननी। हमने यह देखा है कि अटल बिहारी वाजपेयी  और मनमोहन सिंह इन दोनों ने क्षेत्रीय दलों के साथ संबंध बनाए रखने में बेहद धीरज और संयम का परिचय दिया है, लेकिन साथ-साथ इन क्षेत्रीय नेताओं की भी जिम्मेदारी बनती है कि वे कोरी भावनाओं की राजनीति करने की बजाय एक व्यापक राष्ट्रीय सोच विकसित करें। 

देशबंधु में 21 मार्च 2013 को प्रकाशित 

 

Wednesday, 13 March 2013

पत्रकारिता: भावना बनाम तर्कबुध्दि





मेरा हमेशा से मानना रहा है कि वंचित समाज के प्रति संवेदना रखे बिना कोई भी व्यक्ति अच्छा तो क्या, बुरा पत्रकार भी नहीं बन सकता। यहां अच्छे पत्रकार से मेरा आशय मोटे तौर पर उस व्यक्ति से है जो अपने पत्रकार जीवन के प्रारंभ काल में सीखे हुए पाठ को कभी नहीं भूलता और जिसकी कलम की प्रतिबध्दता अंत तक शोषित, वंचित, पीड़ितजन के साथ बनी रहती है। बुरे पत्रकार की परिभाषा भी मैं कुछ स्पष्ट कर दूं- वह एक अच्छा मिलनसार, व्यवहारकुशल व्यक्ति हो सकता है, जिसके पास शायद खबरों का खजाना भी हो, लेकिन जिसकी कलम ने शायद निजी लाभ की दिशा पकड़ ली हो! यह मानना गलत नहीं होगा कि पत्रकारिता के पेशे में अमूमन वही व्यक्ति प्रवेश करता है, जो अपनी कलम से समाज और व्यवस्था में व्याप्त बुराइयों और विसंगतियों को दूर करना चाहता है।

अपने बावन साल के पत्रकार के जीवन में मुझे हर तरह के पत्रकारों से मिलने और उनमें से बहुतों के साथ काम करने का मौका मिला है। मैंने यह पाया कि शुरुआती दौर में जो जज्बा और जोश  होता है वह धीरे-धीरे ठंडा पड़ने लगता है। ज्यादातर के सामने घर-परिवार को संभालने की बात होती है, लेकिन ऐसे भी कम नहीं है, जो नेता, अफसर, ठेकेदार के त्रिगुट में फंस जाते हैं और कई बार तो उस तिकड़ी के एजेंट ही बन जाते हैं। जो ज्यादा समझदार हैं वे अपनी उपलब्धि और ख्याति को बेहतर तरीके से भुनाने की कोशिश करते हैं। एक बड़ी संख्या उनकी भी है, जिनके लिए पत्रकारिता पूर्णकालिक व्यवसाय नहीं है। ये किसी छोटे से गांव में अखबार के विक्रेता और पत्रकार दोनों एक साथ हो सकते हैं। संभव है कि इनमें ऐसे लोग भी हों जो अपने छोटे-मोटे व्यापार या राजनीति को चलाने के लिए पत्रकार का रुतबा हासिल कर लेते हैं। इस सबके बावजूद कुछेक अपवादों को छोड़कर पत्रकार के कान हमेशा जमीन से लगे होते हैं और उसके आसपास क्या घटित हो रहा है, उसकी सही जानकारी उसे होती है।

इसीलिए पत्रकार से यह अपेक्षा हर वक्त की जाती है कि वह जनता की आवाज को उठाएगा और आम आदमी के जीवन में जो मुश्किलात हैं उन्हें हल करने में सहायक बनेगा। पत्रकार के पास प्रकाशन के जो माध्यम हैं याने अखबार या टीवी- वे सब इस धारणा पर ही चलते हैं। देश में जनतांत्रिक व्यवस्था के चलते जिस राजनीतिक चेतना का विकास हुआ है उसमें पत्रकार और उसके पास उपलब्ध माध्यम, दोनों का काम कई गुना बढ़ गया है। गांव-गांव से निकलने वाले अखबार, बड़े अखबारों के प्रादेशिक या जिला संस्करण, टीवी के प्रादेशिक चैनल, स्थानीय केबल समाचार इत्यादि उसके प्रमाण हैं। क्या इसके बावजूद यह विश्वासपूर्वक कहा जा सकता है कि पत्रकारिता देश की जनांकाक्षाओं पर खरी उतरी है? कम से कम मेरा उत्तर नहीं में है।

मेरे ध्यान में यह बात आती है कि हमारी पत्रकार बिरादरी में सामाजिक मुद्दों की जानकारी तो है, लेकिन उनका उपचार करने में जिस कौशल का परिचय दिया जाना चाहिए, वह अकसर नहीं दिया जाता और जरूरी बात अंजाम तक पहुंचने के पहले ही दम तोड़ देती है। मेरा कहना है कि अधिकतर समय पत्रकार पवित्र भावनाओं से प्रेरित होते हैं, लेकिन उन्हें ठोस रूप में प्रस्तुत करने की कोशिश नहीं होती, जिसके चलते शासन-प्रशासन में बैठे लोग अपनी जिम्मेदारि
यों से बच निकलते हैं। उन्हें उल्टे यह कहने का मौका मिल जाता है कि आप तो हवा में बात करते हैं। मैं रोजमर्रे की ही बातों से एक-दो उदाहरण देकर अपनी बात स्पष्ट करने की कोशिश करूंगा।

यह सब जानते हैं कि देश में नहीं सारे विश्व में जल संकट की अभूतपूर्व स्थिति है। आजकल यह भी अक्सर कहा जाता है कि अगर तीसरा विश्वयुध्द छिड़ा तो वह पानी के लिए छिड़ेगा। शहरों और गांवों में जल सकंट को लेकर आए दिन खबरें छपती ही हैं, लेकिन लगभग सारी की सारी खबरें समस्या का वर्णन करने से ज्यादा कुछ नहीं बतातीं। इस तरह यथास्थिति का वर्णन छपने से प्रभावित लोगों को भले ही थोड़ी तसल्ली मिल जाए या पत्रकार स्वयं अपनी पीठ थपथपा ले, नगरपालिका या जलप्रदाय विभाग के संबंधित लोगों पर इसका कोई असर नहीं पड़ता क्योंकि वस्तुस्थिति को वे पहले से ही जानते हैं।

ऐसे में हमें करना क्या चाहिए? मेरी राय में जिस भी पत्रकार की दिलचस्पी पानी के मसले में हो, उसे राष्ट्रीय जलनीति और यदि प्रदेश की जलनीति हो तो उसका भी अध्ययन करना चाहिए। तभी उसे मालूम होगा कि जलसंकट के विभिन्न आयाम क्या हैं और मूल कारण क्या हैं। जल के आवर्धन, संरक्षण, वितरण और स्वच्छता-इन चारों पहलुओं के बारे में अपनी जानकारी बढ़ाने में उसे तत्पर रहना चाहिए। एक पत्रकार जहां भी पदस्थ है वहां जलस्रोत क्या हैं, वर्षाजल की क्या स्थिति है, जल संरक्षण की पारंपरिक विधियां क्या हैं, नई तकनीकी का इस्तेमाल किस रूप में हो रहा है, उसकी लागत नागरिक की जेब पर भारी है या उचित, जलस्रोत प्रदूषित कैसे हो रहे हैं, स्थानीय निकायों की क्या भूमिका है, जलप्रदाय के लिए आर्थिक प्रावधान क्या हैं, श्रमशक्ति का कैसा इंतजाम है- इन सबको जान-समझकर जब रिपोर्ट बनेगी तब ही उस पर समुचित व प्रभावी कार्रवाई होने की संभावना बन सकती है। इसी सिलसिले में एक पुराना उदाहरण याद आता है। सन् 1970-71 में रायपुर का मास्टर प्लान पहली बार बना, उसकी बहुत तारीफ हुई, लेकिन किसी भी पत्रकार ने ध्यान नहीं दिया कि नगर की जल आपूर्ति को लेकर इस भारी-भरकम दस्तावेज में महज पांच पंक्तियों का एक पैराग्राफ था। याने नीतिगत स्तर पर ही खामी थी, लेकिन उस पर हमने ध्यान नहीं दिया।

इसी तरह स्वच्छता अभियान या सेनीटेशन का मामला है। एक अभियान बड़े जोर-शोर से चला कि सबको साबुन से हाथ धोना चाहिए। इसे लेकर किसी ने भी यह नहीं पूछा कि यह साबुन बनाने वाली बहुराष्ट्रीय रासायनिक कंपनियों द्वारा प्रेरित अभियान है या इसमें सचमुच कोई सार है। अब बहुत से डॉक्टर भी कह रहे हैं कि दिन में कई बार साबुन से हाथ धोने से त्वचा संवेदनहीन हो सकती है। लेकिन इस पहलू पर पत्रकारों को ध्यान गया ही नहीं। स्वच्छता से जुड़े ऐसे और भी बिन्दु हैं। इस सिलसिले को आगे बढ़ाते हुए स्कूल व अस्पतालों की दशा, बिजली, सड़क आदि के बारे में प्रश्न उठाए जा सकते हैं और उठाए जाना चाहिए।

आशय यह है कि एक पत्रकार को अपनी भावनाओं से समझौता किए बिना, बल्कि उन्हें जीवित रखते हुए एक तर्कप्रणाली विकसित करना चाहिए। किसी भी सामाजिक समस्या से जुड़ी हुई घटना से तात्कालिक रिपोर्टिंग करना एक बात है, लेकिन उसके निराकरण के लिए कार्य-कारण पध्दति विकसित करना बिल्कुल दूसरी। आजकल कुछ ऐसा चलन हो गया है कि जनता को मूर्ख बनाने के लिए या उसे भ्रम में डालने के लिए लुभावने आंकड़ों को समाचार की शक्ल में परोस दिया जाता है। जिनके निहित स्वार्थ हैं वे तो यह करेंगे ही, लेकिन पत्रकार क्यों उनके झांसे में आएं! यह योजना दस करोड़ की, वही योजना छह सौ करोड़ की, तो कोई योजना एक हजार करोड़ की- इस सबका अंतत: क्या मतलब है? हम और कुछ न करें, इतना तो कर ही सकते हैं कि जब सौ रुपए की कोई योजना सामने आए तो उसे हम अपने शीर्षक में पंद्रह रुपए ही लिखें, क्योंकि सबको पता है कि जनता के पास तो अंतत: पंद्रह पैसे ही पहुंचते हैं!



देशबंधु में 14 मार्च 2013 को प्रकाशित 









 

Friday, 8 March 2013

जनतांत्रिक संस्थाओं की साख का सवाल



भारत जैसे विशाल, विविधवर्णी, संघीय गणराज्य  का राजकाज चलाना कोई आसान काम नहीं है। देश में जैसे-जैसे राजनीतिक चेतना का विकास हो रहा है, यह काम और भी कठिन होते जा रहा है। जितनी अपेक्षाएं हैं उतनी ही परेशानियां भी हैं और सरकार में जो भी रहे उसे एक अद्भुत संतुलन विकसित करने की आवश्यकता होती ही है। हमारे संविधान निर्माताओं ने बहुत आगे की सोचकर ऐसे प्रावधान किए थे, जिनके सही ढंग से पालन होने पर काफी कुछ ठीक-ठीक चल सकता है। इसके उपरांत भी समय-समय पर संविधान में नए-नए प्रावधान किए जाते रहे हैं ताकि सुशासन कायम करने में मदद मिल सके। देश में जनतंत्र के अनुरूप तीन बुनियादी संस्थाएं  हैं जिनका काम संविधान की अपेक्षा के अनुसार राजकाज चलाना है। इस व्यवस्था के अंतर्गत ही अनेक अन्य सहायक संस्थाओं या अभिकरणों की स्थापना की गई है जो अलग-अलग विषयों के कार्य संपादन के लिए जिम्मेदार हैं।

विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका-  इन तीनों बुनियादी अंगों की स्वतंत्र एवं स्वायत्त सहायक संस्था या अभिकरण के रूप में चुनाव आयोग, सीएजी, केन्द्रीय सतर्कता आयोग, आईबी, सीबीआई, प्रेस परिषद, अल्पसंख्यक आयोग, मानवाधिकार आयोग जैसी कितनी ही संस्थाएं कार्य कर रही हैं। ऐसा माना जाता है कि शासनतंत्र का अंग होने के बावजूद ये तमाम अभिकरण उससे अलग हैं तथा इनके कामकाज में भय या राग (फीयर ऑर फेवर) का कोई स्थान नहीं होता। ऐसा भी मानकर चला जाता है कि ये राजनीतिक आग्रहों से मुक्त होकर अपना कार्य संपादित करते हैं। यह तो हुई आदर्श स्थिति। परंतु देश की राजनीति में पिछले बीस साल में जो अस्थिरता आई है उसके चलते इन अभिकरणों की विश्वसनीयता अथवा उपयोगिता पर भी प्रश्नचिन्ह लगने लगे हैं।

देश में एक सीमित समय तक या चुनाव अवधि के  बीचएक राजनीतिक दल का वर्चस्व रहे, कम से कम लोकसभा में उसके पास पूर्ण बहुमत हो, तो राजनीति में अनावश्यक बवाल उठने की गुंजाइश कम होती है। बहुमत से एक निर्णय ले लिया सो ले लिया, फिर भले ही कोई निजी तौर पर उससे असहमति क्यों न रखता हो। किंतु 1989 के बाद दृश्य पूरी तरह परिवर्तित हो चुका है। इस नए माहौल में जनतंत्र के तीनों आधार स्तंभों के क्रियाकलाप भी आलोचना से नहीं बच पा रहे हैं और इनके जो सहायक अभिकरण हैं उन पर आरोप मढ़ देना तो जैसे बच्चों का खेल हो गया है। यह कहना गलत नहीं होगा कि देश की लगभग सभी संवैधानिक संस्थाओं की विश्वसनीयता और वैधानिकता पर प्रश्न खड़े करने का जो राजनीतिक तमाशा इन दिनों चला हुआ है वह किसी के लिए भी श्रेयस्कर नहीं है।

कुछ माह पूर्व सर्वोच्च न्यायालय ने गुजरात के रायपाल द्वारा मनोनीत लोकायुक्त की नियुक्ति को जब वैध ठहराते हुए इस प्रदेश के उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की राय को जो वजन दिया तब उसे भाजपा के वरिष्ठ नेता अरुण जेटली ने उचित नहीं माना था। एक अन्य प्रसंग में थोड़े समय बाद सुप्रीम कोर्ट की यह टिप्पणी भी आई कि राज्य का मुख्य सूचना आयुक्त कोई सेवानिवृत्त जज ही होना चाहिए। इसके पहले चुनाव आयुक्त नवीन चावला की नियुक्ति पर सवाल उठाए गए तो प्रेस परिषद के अध्यक्ष मार्कण्डेय काटजू के बारे में लगातार असंतुलित टिप्पणियां की जा रही हैं। सीएजी विनोद राय तो विवादों में हैं ही। पूर्व में सेवानिवृत्त सीएजी टी.एन. चतुर्वेदी को यदि भाजपा ने रायसभा में भेज दिया तो कांग्रेस ने भी पूर्व मुख्य निर्वाचन आयुक्त एम.एस. गिल को मंत्री बनाने से संकोच नहीं किया।

ऐसे तमाम प्रसंगों से क्या सिध्द होता है? अव्वल तो यही कि राजनीतिक दल इन संवैधानिक अभिकरणों की विश्वसनीयता को दांव पर लगाकर अपनी राजनीति चमकाना चाहते हैं। उन्हें स्वस्थ परंपराएं स्थापित करने का कोई ख्याल नहीं है। दूसरे यह कि इन पदों पर बैठे हुए लोग भी निजी लाभ-लोभ की भावना को छोड़ नहीं पा रहे हैं या जैसा कि जस्टिस काटजू के बारे में हमें लगता है कि वे हर समय वाद-विवाद प्रतियोगिता में प्रथम आने की धुन में लगे रहते हैं। अभिकरणों के बारे में रोज-रोज सवाल खड़े किए जाएंगे तो इनको स्थापित करने का मकसद कैसे पूरा होगा?

यह ऐसा बिन्दु है जिस पर सत्तापक्ष, विपक्ष और इन संस्थाओं के पीठासीन अधिकारी- सभी को  विचार मंथन करने की तत्काल आवश्यकता है। आज के राजनीतिक परिदृश्य में शायद यह पुनर्विचार करने का वक्त है कि इन संस्थाओं में नियुक्ति अथवा मनोनयन के आधार और प्रक्रिया क्या हाें। यह बात केन्द्रीय संस्थाओं पर भी लागू होती है और राज्य की संस्थाओं पर भी। अभी केंद्र स्तर पर नियुक्ति की जो प्रक्रिया है उसमें प्रधानमंत्री, विपक्ष का नेता, संबंधित विभाग का मंत्री, लोकसभा के अध्यक्ष अथवा सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश ऐसे कुछ शीर्षस्थ व्यक्तियों में से तीन या चार की चयन समिति बनाकर किसी को चुन लिया जाता है। इसी तरह के प्रावधान प्रदेश स्तर पर भी हैं। जाहिर तौर पर इस समिति में बहुमत सत्तापक्ष का ही होता है, उसका प्रस्तावित प्रत्याशी मनोनीत हो जाता है, जिसके चलते विपक्ष को बाद में आक्रमण करने का अवसर भी मिल जाता है। विनोद राय संभवत: एकमात्र ऐसे अपवाद हैं जिनका समर्थन विपक्ष ही कर रहा है।

यह तो तय है कि जब भी कोई नियुक्ति होगी उसकी पहल केन्द्र या राज्य में सत्तारूढ़ दल की ओर से याने प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री की ओर से ही होगी। लेकिन इसके बाद प्रक्रिया को यादा व्यापक और यादा पारदर्शी बनाया जा सकता है। सत्ता पक्ष जिसे भी मनोनीत करना चाहे करे; इसके लिए संसद अथवा विधानसभा के स्तर पर एक चयन समिति गठित की जा सकती है, जिसमें सभी राजनीतिक दलों के निर्वाचित सदस्यों का समावेश हो। सत्तापक्ष जिस भी व्यक्ति को चुनाव आयोग इत्यादि के लिए मनोनीत करे वह इस चयन समिति के सामने पेश हो और खुले परीक्षण-प्रतिपरीक्षण के बाद बहुमत से उसकी नियुक्ति हो। ऐसी व्यवस्था अमेरिका में है। एक अच्छी बात उनसे ले लें तो इसमें क्या हर्ज है। ऐसे व्यक्ति से फिर अपेक्षा की जा सकती है कि वह भय अथवा राग से मुक्त होकर अपना काम कर सकेगा। इसमें अगर बंदिश रहे कि ऐसे व्यक्ति को दुबारा कोई शासकीय पद नहीं मिलेगा तो इसके लिए भी वह व्यक्ति मानसिक रूप से तैयार हो।

हम समझते हैं कि अनावश्यक आरोप-प्रत्यारोपों से बचने और इन संवैधानिक संस्थाओं की विश्वसनीयता बनाए रखने के लिए इस तरह के नए उपायों पर विचार किया जाना चाहिए।

देशबंधु में 7 मार्च 2013 को प्रकाशित