यह कॉलम लिखने बैठा ही था कि यूपीए से उसके प्रमुख सहयोगी दल द्रमुक के स्वयं को अलग कर लेने की खबर मिली। वैसे इस आशय के संकेत पिछले कुछ दिनों से लगातार मिल रहे थे। उसने यह निर्णय श्रीलंका में तमिलों पर हो रहे अत्याचार के विरोध में केन्द्र सरकार द्वारा जाहिरा तौर पर कोई कठोर कदम न उठाने से नाराज होकर लिया है। राष्ट्र महासभा में अमेरिका ने श्रीलंका के खिलाफ मानवाधिकारों के हनन का प्रस्ताव पेश किया है और द्रमुक चाहती थी कि भारत सरकार इस प्रस्ताव को संशोधित कर इसे नरसंहार की संज्ञा देकर अपना विरोध दर्ज करती। उल्लेखनीय है कि पिछले साल भी इस तरह का प्रस्ताव महासभा में लाया गया था और तब भारत ने श्रीलंका के खिलाफ मतदान किया था। फिर आज द्रमुक एवं उसके सुप्रीमो करुणानिधि को गत एक दशक से चले आ रहे गठबंधन को तोड़ने की जरूरत क्यों आन पड़ी- यह एक विचारणीय प्रश्न है।
अभी पिछले सप्ताह की ही बात है जब प्रधानमंत्री पश्चिम बंगाल के मालदा किसी काम से गए तो मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने उनसे अपेक्षित शिष्टाचार का पालन नहीं किया। वे न तो प्रधानमंत्री की अगवानी के लिए हवाई अड्डे गईं और न ही मालदा के कार्यक्रम में उन्होंने शिरकत की। इसके पहले उन्होंने प्रधानमंत्री के साथ बंगलादेश की यात्रा पर जाने का निमंत्रण ठुकरा दिया था तथा उनकी जिद के चलते तीस्ता जलसंधि अभी तक नहीं हो पाई है। यह उन्होंने ऐसे नाजुक वातावरण में किया जब बंगलादेश की प्रधानमंत्री शेख हसीना भारत के साथ रिश्तों को बेहतर करने और देश में धर्मनिरपेक्ष मूल्यों की पुर्नस्थापना के लिए जी-जान से जुटी हुई हैं।
एक उदाहरण गुजरात का है जहां कारपोरेट घरानों के भुलावे में आकर मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी अभी से अपने को देश का प्रधानमंत्री मानने लगे हैं और प्रधानमंत्री अथवा कांग्रेस अध्यक्ष की कारण-अकारण आलोचना करने का कोई मौका नहीं छोड़ते और न इसके लिए अपने शब्दों और भाषा पर संयम रखने की जरूरत समझते। इनके बरक्स बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार हैं जिनका रुख हाल-हाल में केन्द्र सरकार के प्रति नरम हुआ है। उन्होंने भी बीते रविवार दिल्ली आकर शक्ति प्रदर्शन और अपनी महत्वाकांक्षा प्रकट करना आवश्यक समझा। यद्यपि यह दिख रहा है कि वे कट्टरपंथी मोदी तथा मितभाषी मनमोहन सिंह के बीच स्वयं को तीसरे विकल्प के रूप में पेश कर रहे हैं। हमें याद आता है कि लगभग बीस वर्ष पूर्व हरियाणा के तत्कालीन मुख्यमंत्री चौधरी देवीलाल ने दिल्ली के बोट क्लब पर इसी तरह शक्ति प्रदर्शन किया था।
फिलहाल अलग-अलग प्रदेशों में इस तरह जो दृश्य बन रहा है उसका अर्थ निकालना शायद बहुत कठिन नहीं है। यह तो हमारे संविधान में ही लिखा है कि भारत एक संघीय गणराज्य होगा, लेकिन इन दिनों संघ के अलग-अलग घटक याने प्रांतीय सरकारें एक तरह से केन्द्र सरकार पर हावी होने की और उससे अपनी उचित-अनुचित हर तरह की मांग पूरी करवाने के लिए दबाव डालने में लगी हैं। इसी में इन दलों के नेता अपनी राजनीतिक हैसियत का प्रमाण पाते हैं। ऐसा करते हुए वे इस बात की अनदेखी कर रहे हैं कि भारत अमेरिका नहीं है और यहां केन्द्र के कमजोर होने से देश की संप्रभुता व एकता पर भी आंच आ सकती है। ऐसा हम सोवियत संघ में देख चुके हैं जहां सोवियत सत्ता का विघटन होने के साथ ही देश पन्द्रह हिस्सों में बंट गया।
भारत में केन्द्र-राज्य संबंधों को लेकर एक लंबे समय से बहस चलते आई है। केन्द्र-राज्य संबंधों में तनाव भी कोई नई बात नहीं है। इसे हमने सबसे पहले 1957 में देखा, जब केरल में कम्युनिस्ट पार्टी की सरकार बनी और दो साल बीतते न बीतते 1959 में उस सरकार को अपदस्थ कर दिया गया। यह अगर एक अपवादस्वरूप प्रसंग ही था तो एक बड़ी लहर 1967 में उठी जब गैर-कांग्रेसवाद के नाम पर बहुत से प्रदेशों में संविद सरकारों का गठन हुआ। इस प्रयोग से तत्कालीन जनसंघ को ही सबसे ज्यादा फायदा हुआ और कितने ही धुरंधर कांग्रेसियों की सत्ता लोलुपता का परिचय भी इसमें मिला। खैर! इसके बाद इंदिरा गांधी के लगभग एकछत्र शासनकाल में अनेक प्रदेशों में एक ओर यदि विपक्षी सरकारों के बर्खास्त करने के प्रकरण घटित हुए तो दूसरी ओर तमिलनाडु में एक या दूसरी क्षेत्रीय पार्टी के सामने कांग्रेस के झुक जाने के उदाहरण भी सामने आए। विपक्षी सरकारों को बर्खास्त करने का मुद्दा सर्वोच्च न्यायालय तक गया और बहुचर्चित बोम्मई फैसला आया जिसमें बिना पर्याप्त कारण के राष्ट्रपति शासन लागू करना अवैधानिक करार दिया गया। इस बीच में न्यायमूर्ति आर.एस. सरकारिया की अध्यक्षता में केन्द्र राज्य संबंधों की समीक्षा करने के लिए सरकारिया आयोग बना जिसकी सिफारिशों को कोई तवज्जो नहीं दी गई।
बहरहाल पिछले बीस-बाइस साल से देश में गठबंधन सरकारों का युग चल रहा है। यहां तक कहा जाने लगा है कि अब केन्द्र में किसी भी पार्टी को स्पष्ट बहुमत नहीं मिलेगा। 1989 से लेकर 1999 के बीच जो अस्थिरता आई उसके चलते बहुत से नेता लोकसभा का चुनाव लड़ने से कतराने लगे हैं कि न जाने कब लोकसभा भंग हो जाए। यह गठबंधन का युग क्षेत्रीय नेताओं को भले ही रास आता हो, लेकिन कुल मिलाकर इससे देश का नुकसान हो रहा है। जो क्षेत्रीय दल हैं वे अपने सुप्रीमो याने महज एक व्यक्ति के इंगित से संचालित होते हैं और इनमें एक व्यापक दृष्टि का अभाव स्पष्ट ही परिलक्षित होता है। उन्हें न तो आर्थिक मामलों की कोई समझ है, न कूटनीति की और न अंतरराष्ट्रीय मसलों की।
करुणानिधि हो या जयललिता उन्हें इस बात की चिंता नहीं है कि भारत-श्रीलंका के बीच अगर एक नाजुक संतुलन कायम नहीं रहेगा तो चीन वहां हावी हो सकता है। नेपाल में ऐसा हुआ ही है। इसी तरह ममता बनर्जी इस बात को नहीं समझना चाहतीं कि उनकी अहंमन्यता से बंगलादेश की कट्टरपंथी ताकतों को ही बल मिलेगा। जम्मू-काश्मीर की स्थिति इससे अलग है। केन्द्र में जो भी रहे वहां के क्षेत्रीय दल के साथ बने रहना इसलिए जरूरी है ताकि उस प्रदेश में अलगाववादी ताकतों से प्रांतीय सरकार ही निपटें, लेकिन भारतीय जनता पार्टी इस बारे में जानबूझ कर भी अनजान बनी हुई है।
मैं मानता हूं कि एक अरब बीस करोड़ की आबादी वाले देश में क्षेत्रीय दलों का उभरना स्वाभाविक है, लेकिन ये दल यदि सिर्फ चुनावी गणित को ध्यान में रखकर चलेंगे तो उससे बात नहीं बननी। हमने यह देखा है कि अटल बिहारी वाजपेयी और मनमोहन सिंह इन दोनों ने क्षेत्रीय दलों के साथ संबंध बनाए रखने में बेहद धीरज और संयम का परिचय दिया है, लेकिन साथ-साथ इन क्षेत्रीय नेताओं की भी जिम्मेदारी बनती है कि वे कोरी भावनाओं की राजनीति करने की बजाय एक व्यापक राष्ट्रीय सोच विकसित करें।
देशबंधु में 21 मार्च 2013 को प्रकाशित