Wednesday 30 July 2014

हनीमून के 66 दिन

                                                                                 


आज
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार ने 66 दिन पूरे कर लिए हैं। इस तरह हनीमून का दो तिहाई समय बीत चुका है। श्री मोदी ने एक माह बीतने के बाद शिकायत की थी कि उन्हें हनीमून के लिए तीन माह तो क्या तीन दिन भी नहीं मिले। उनकी यह बात सही मालूम होती है और यह आशंका भी होती है कि अब उनकी शिकायत कुछ और ज्यादा बढ़ गई होगी। सरकार इसका दोष आसानी से विपक्ष और मीडिया दोनों पर डालकर अपने पल्ले झाड़ सकती है। ऐसा करने की कोशिश चल भी रही है, लेकिन ऐसा करना या कहना हमारी दृष्टि में अपने आपको छलना ही है। यूं तो विपक्ष का काम ही सत्तापक्ष के क्रियाकलापों का सतर्क परीक्षण एवं उस आधार पर विरोध करना ही है, तथापि यहां श्री मोदी को यह विश्लेषण करने की आवश्यकता है कि विपक्ष के साथ न्यूनतम सौहाद्र्र व सामंजस्य स्थापित करने में उनकी अपनी तरफ से कहां चूक हुई है या हो रही है। जहां तक मीडिया की बात है उसका प्रभावशाली और बड़ा हिस्सा तो सरकार-समर्थक कार्पोरेट घरानों के पास है। फिर भी अगर वेतनभोगी पत्रकार कहीं आलोचना कर रहे हैं तो वह अकारण तो नहीं है, यह भी समझना होगा।

इस बीच में राजनैतिक टीकाकारों द्वारा इस तथ्य को बार-बार रेखांकित किया गया है कि तीस साल बाद किसी दल को लोकसभा में स्पष्ट बहुमत मिला है। याने सत्ताधारी दल गठबंधन सहयोगियों की कृपा पर लेशमात्र भी निर्भर नहीं है। संविधान के दायरे में उसे अपनी नीतियों के अनुरूप निर्णय लेने की बड़ी भारी गुंजाइश है। इस वास्तविकता का व्यवहारिक उपयोग मोदी सरकार में कैसे हो रहा है इसे देखना चाहिए। एक पुरानी कहावत है कि राजा कभी गलती नहीं कर सकता। पिछले 66 दिनों में हमने जो देखा है उससे तो ऐसा ही लगता है कि श्री मोदी मान बैठे हैं कि वे जो कह रहे हैं वही सही है और बाकी सब गलत! यह सत्ता का मद है या शुरूआती दौर का उत्साह? क्या इस व्यामोह से वे स्वयं को मुक्त कर सकते हैं? दूसरे जब उनके पास पूर्ण बहुमत है तो फिर उसका उपयोग सही जगह पर और सही काम में क्यों नहीं होना चाहिए? अगर पार्टी के भीतर या गठबंधन के स्तर पर गड़बड़ी करने की कोई कोशिश हो रही है तो उस पर रोक क्यों न लगे? ऐसा न कर श्री मोदी अपने को मिले ऐतिहासिक जनादेश को ही झुठला रहे हैं।

मोदी सरकार के गठन के बाद से जो नई तस्वीर बनी है उसमें से कुछेक अवांछित स्थितियों का जिक्र मैं 26 जून के लेख में कर चुका हूं। किन्तु लगातार कुछ ऐसी ही स्थितियां बन रही हैं जो, विपक्ष या मीडिया की बात छोडि़ए, आम जनता के गले भी नहीं उतर रही हैं। इस सिलसिले में हमें सबसे पहले तो मंत्रिमंडल गठन की ही बात करना चाहिए। यह सबको पता है कि संजीव बालियान एक विवादास्पद व्यक्ति हैं। श्री मोदी के सामने उन्हें अपने मंत्रिमंडल में शामिल करने की कोई मजबूरी नहीं थी।  उत्तर प्रदेश से स्वयं प्रधानमंत्री, फिर राजनाथ सिंह और उमा भारती जैसे कद्दावर नेता मंत्रिमंडल में शामिल कर ही लिए गए थे, इसके बावजूद अगर वे नए चेहरों को आगे लाना चाहते थे तो किसी बेहतर छवि वाले व्यक्ति को लिया जा सकता था। तो क्या श्री मोदी ने राजा कभी गलती नहीं करता के भाव से यह निर्णय लिया था?

चलिए, श्री बालियान तो पार्टी के वरीयता क्रम में काफी नीचे हैं और मंत्रिमंडल में उनका रहना, नहीं रहना जनता के लिए बहुत महत्वपूर्ण नहीं है, लेकिन पार्टी के अध्यक्ष पद पर अमित शाह का मनोनयन निश्चित ही एक विचलित करने वाली घटना है। एक तरफ श्री मोदी राजनीति से अपराधीकरण खत्म करने एवं शुचिता स्थापित करने की बात करते हैं और दूसरी तरफ श्री शाह सत्तारूढ़ दल के नए अध्यक्ष बन जाते हैं। यह सबको पता है कि अमित शाह श्री मोदी के बेहद करीबी हैं, लेकिन राजनीति में कई बार निर्मम होकर निर्णय लेना पड़ते हैं। श्री शाह पर जो आपराधिक प्रकरण चल रहे हैं उनका पूरा निराकरण होने के बाद उन्हें ससम्मान पदस्थ किया जा सकता था। एक मामले में वे तो बरी हो ही चुके हैं। जब स्वयं प्रधानमंत्री सर्वोच्च न्यायालय से एक साल के भीतर राजनेताओं के आपराधिक प्रकरण को निपटाने की अपील करते हैं तो कम से कम इतनी अवधि तक वे अध्यक्ष पद अपने किसी अन्य विश्वस्त को सम्हलवा सकते थे।

यह तो उनकी अपनी पार्टी की बात है। अपने सहयोगी दल शिवसेना के प्रति भी श्री मोदी जो मौन धारण किए हैं या कोई कार्रवाई नहीं कर रहे हैं वह भी समझ से परे है। पिछले दिनों दिल्ली के महाराष्ट्र सदन में शिवसेना के सांसदों ने जो अभद्र आचरण किया है, उसकी निंदा पूरे देश ने की है। भारतीय जनता पार्टी के ज्येष्ठतम नेता लालकृष्ण आडवानी ने भी इस आचरण को साफ शब्दों में गलत ठहराया है। फिर भी आश्चर्य की बात है कि भाजपा के तमाम प्रवक्ता किसी न किसी तरह शिवसेना का बचाव करने में लगे हुए हैं। यह संभव है कि महाराष्ट्र के आसन्न विधानसभा चुनावों  को देखते हुए भाजपा इस मुद्दे से कन्नी काटना चाहती हो, लेकिन फिर क्या आप कुछ वैसा ही आचरण नहीं कर रहे हैं जैसा कि कांग्रेस ने डीएम के नेताओं के साथ किया था?  कांग्रेस के सामने तो गठबंधन सरकार को चलाने की मजबूरी थी, लेकिन शिवसेना की लानत मलामत करने में आपको संकोच क्यों हो रहा हैं?

नरेन्द्र मोदी ने एबीपी चैनल को एक साक्षात्कार में कहा था कि, देश तो संविधान से चलता है, चुनाव के समय चाहे जितना उल्टा-सीधा क्यों न कहा जाए। हम यह बात संघ परिवार से जुड़े एक विचित्र व्यक्तित्व दीनानाथ बत्रा की गतिविधियों के सिलसिले में स्मरण कराना चाहते हैं। अभी 'इंडियन एक्सप्रेसÓ अखबार ने काफी विस्तार में खुलासा किया है कि गुजरात सरकार ने श्री बत्रा की लिखी आठ किताबें हजारों की संख्या में छापकर विद्यार्थियों के बीच वितरित की हैं। इन पुस्तकों में भारतीय संस्कृति की श्रेष्ठता स्थापित करने के लिए जो विचार व्यक्त किए गए हैं वे हास्यास्पद, मूर्खतापूर्ण और अपमानजनक हैं। इसमें अमेरिका के अश्वेत अमेरिकियों को नीग्रो कहा गया है जबकि अमेरिका में यह संज्ञा वर्जित हो चुकी है। इसी तरह स्वामी विवेकानंद के हवाले से कहा गया है कि भारत विदेशियों को अपने पैरों तले रखता है। एक अन्य पाठ में बच्चों को जन्मदिन पर केक काटने और मोमबत्ती जलाने से बरजा गया है। जाहिर है कि किसी भी सभ्य और आधुनिक समाज में इस तरह के विचार स्वीकार नहीं हो सकते। फिर भी अगर मोदीराज में श्री बत्रा जैसे लोगों को प्रश्रय मिल रहा है तो इससे चिंता उपजना स्वाभाविक है।

विगत दो माह में मोदी ने जिन मोर्चों पर बेहतर प्रदर्शन किया है, उनमें सबसे पहले तो विदेश नीति की ही बात करना होगी। ब्रिक्स सम्मेलन में श्री मोदी की भागीदारी सकारात्मक थी। भूटान, बंगलादेश, नेपाल के साथ रिश्तों को बेहतर बनाने की कोशिश अधिक रही। फिलिस्तीन के मामले में सं रा. मानव अधिकार आयोग ने भारत में इजरायल के खिलाफ मतदान कर फिलिस्तीनी जनता के साथ अपनी एकजुटता व्यक्त की, किन्तु देश की संसद में भाजपा ने इसके ठीक विपरीत रवैया अपनाया, जिससे भ्रम की स्थिति बनी। इस बारे में अभी तक सरकार की ओर से कोई संतोषजनक स्पष्टीकरण नहीं मिला है। फिर भी मोटे तौर पर हमें लग रहा है कि विदेश नीति के मोर्चे पर सरकार तत्काल कोई फेरबदल नहीं करेगी और ऐसा न करना ही ठीक होगा।

आर्थिक मामलों में खासकर महंगाई के बारे में सरकार अभी तक कोई निश्चित नीति नहीं बना पाई है। यह तात्कालिक चिंता का विषय है। दूसरी  तरफ कृषि एवं खाद्यमंत्री रामविलास पासवान ने खाद्यान्न सुरक्षा कानून को लागू करने व राज्यों से उसका अनुपालन करवाने पर अपनी प्रतिबद्धता का परिचय दिया है। याने यहां भी सरकार कोई बड़ा फेरबदल करने नहीं जा रही है। खाद्यान्न आदि पर सब्सिडी व वाणिज्य में जीएसटी पर भी पिछली सरकार व इस सरकार के रुख में कोई बड़ा अंतर दिखाई नहीं देता। इससे यह अनुमान होता है कि 1991 से चली आ रही आर्थिक नीतियां आगे भी चलती रहेंगी। विदेश नीति भी उसी के आधार पर तय होते रहेगी तथा घरेलू मोर्चे पर ऐसा कोई भी कदम एकाएक नहीं उठाया जाएगा, जिससे न्यून और निम्न आयवर्ग की तकलीफों में इजाफा हो। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि यथास्थिति हर क्षेत्र में कायम रहेगी।

हमने पिछले 66 दिन में यह देखा है कि संघ परिवार के विभिन्न घटक इस समय खासे उत्साह में हैं। वे अखण्ड भारत जैसी असंभव कल्पनाओं को साकार होते देखना चाहते हैं। उनका विश्वास बहुलतावाद में नहीं, बल्कि बहुमतवाद में है। सरकार इनके सामने बेबस नजर आती है। दूसरे, सरकार के प्रवक्ता अभी भी सुबह-शाम कांग्रेस को पानी पी-पीकर कोस रहे हैं। वे अपने द्वारा आज की गई गलतियों को भी कांग्रेस पर मढ़ देना चाहते हैं। वे भूल रहे हैं कि चुनावों में जीत-हार चलती रहती है। अपने विरोधियों का अपमान करने से आपका सम्मान नहीं बढ़ेगा। श्री मोदी की पहली परीक्षा इसी बारे में है कि वे प्रतिशोध की राजनीति को बढ़ावा देते हैं या समन्वय को।


देशबन्धु में 31 जुलाई 2014 को प्रकाशित

आप इसके साथ 26 जून को प्रकाशित मेरे लेख 'मोदी सरकार के तीस दिन का अवलोकन भी शायद करना चाहें। (ललित सुरजन)


Sunday 27 July 2014

महावीर प्रसाद द्विवेदी

"इस  संबंध में श्रीयुत गांधी का परिश्रम और अध्यवसाय सर्वथा प्रशंसनीय है। आपने ही अफरीका के हिन्दुस्तानियों में जीवन का संचार किया है। आप जूनागढ़ के निवासी हैं। बैरिस्टर हैं। तो भी आप जेल जाने, नाना प्रकार की यातनाएं भोगने और तिरस्कार पाने पर भी अपने कर्तव्य से च्युत नहीं हुए। आपकी धर्म-पत्नी, आपके सुयोग्य पुत्र-सभी आपके व्रत के व्रती हुए। आपके सहायकों ने भी आपका पूरा साथ दिया। उनमें से मिस्टर पोलक और मिस्टर कालनबाक आदि विदेशी सज्जनों तथा 2500 से ऊपर हिन्दुस्तानियों ने कड़ी जेल की सजा भी भुगती।
हमें दक्षिणी अफ्रीका के हिन्दुस्तानियों के मुख-पत्र इंडियन ओपिनियन का एक विशेष अंक (गोल्डन नंबर) मिला है। यह पत्र श्रीयुत गांधी ही का निकाला हुआ है। फीनिक्स नामक स्थान से अंगरेजी और गुजराती में निकलता है। उसके इस अंक में पूर्वोक्त निष्क्रिय-प्रतिरोध की बड़ी ही हृदय-द्रावक कहानी है। मिस्टर गांधी और अन्यान्य नामी आदमियों की सम्मतियां भी हैं। जेल में जाने तथा अन्य प्रकार की सहायता देने वाले नर-नारियों के छोटे-मोटे 138 चित्रों से यह अंक विभूषित है। यह मिस्टर गांधी के निष्क्रिय प्रतिरोध की यादगार में निकाला गया है। दिव्य है। पढऩे और संग्रह में रखने की चीज है।
पाठकों को यह मालूम ही होगा कि श्रीयुत गांधी अब भारतवर्ष लौट आए हैं।"

महावीर प्रसाद द्विवेदी ने अप्रैल 1915 में 'निष्क्रिय प्रतिरोध का परिणाम शीर्षक से एक लेख प्रकाशित किया था, जिसके अंतिम अंश ऊपर उद्धृत किए गए हैं। इस लेख से एक तो यह पता चलता है कि महात्मा गांधी को इस समय तक "महात्मा" की उपाधि नहीं मिली थी और दूसरे यह कि ''सविनय अवज्ञा" संज्ञा भी उस समय तक प्रचलन में नहीं आई थी। द्विवेदी जी ने इसके स्थान पर "निष्क्रिय प्रतिरोध" संज्ञा का इस्तेमाल किया है। इस पूरे लेख को पढऩे से एक अधिक महत्वपूर्ण तथ्य स्थापित होता है कि महावीर प्रसाद द्विवेदी निरे साहित्य संपादक नहीं थे। आमतौर पर उन्हें सरस्वती के संपादक के रूप में जाना जाता है और सामान्य समझ यही है कि सरस्वती अपने समय की श्रेष्ठतम साहित्यिक पत्रिका थी और उसने भविष्य के लिए उज्ज्वल प्रतिमान स्थापित किए हैं। यह लेख दर्शाता है कि महावीर प्रसाद द्विवेदी की दृष्टि साहित्य तक सीमित नहीं थी बल्कि उनका विचार फलक लगभग निस्सीम था। 

इस वर्ष महावीर प्रसाद द्विवेदी की साद्र्धशती है। 15 मई 1864 को उनका जन्म हुआ था। यह एक उचित अवसर पर है कि हिन्दी के इस पुरोधा के व्यक्तित्व और कृतित्व से एक बार फिर नए सिरे से परिचय कर लिया जाए। मेरे लिए सौभाग्य की बात थी कि देशबन्धु लाइब्रेरी में द्विवेदी जी द्वारा लगभग सौ वर्ष पूर्व लिखी गई कुछ किताबों के प्रथम संस्करण आज भी सुरक्षित हैं जिनके पीले जर्जर हो चुके पन्नों को बहुत धीरज और सावधानी के साथ पलटते हुए मैं उपरोक्त लेख जैसी उनकी कुछ ऐसी रचनाएं पढ़ सका जो मैंने पहले नहीं पढ़ी थी। परवर्तीकाल में अन्य विद्वानों ने उनका जो मूल्यांकन किया उसमें से भी कुछ सामग्री इस लाइब्रेरी में उपलब्ध है। मैं पिछले एक सप्ताह से इन पुस्तकों के पन्ने उलट-पलट रहा हूं और यह देखकर सचमुच विस्मृत हूं कि एक शताब्दी पूर्व जब सूचनाओं का आदान-प्रदान आज जैसा सरल व त्वरित नहीं था तब परिश्रम व मनोयोग से उन्होंने देश-दुनिया के तमाम विषयों के बारे में गहन अध्ययन किया था। 

महावीर प्रसाद द्विवेदी "सरस्वती" के पहले संपादक नहीं थे। पत्रिका प्रारंभ होने के तीन वर्ष बाद उन्हें यह दायित्व मिला था। रेल विभाग की नौकरी करते हुए उन्होंने सरस्वती का संपादन हाथ में लिया था। साल दो साल बाद सरकारी नौकरी छोड़कर उन्होंने पूर्णकालिक संपादन भार ले लिया था। वे लगभग दो दशक तक सरस्वती के संपादक रहे तथा इसे हिन्दी जगत में उन्होंने वैचारिक उद्वेलन के एक मजबूत मंच के रूप में स्थापित कर दिया। आगे बढऩे के पहले मैं दो संयोगों का जिक्र करना चाहता हूं। एक तो उन्होंने पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी को अपना उत्तराधिकारी बनाया जो छत्तीसगढ़ के थे तथा इसी छत्तीसगढ़ के मुकुटधर पाण्डेय को सरस्वती में प्रकाशित अपनी कविता ''कुररि के प्रति" के प्रकाशन से छायावाद के प्रथम कवि होने का सम्मान नसीब हुआ। मैं मूल विषय पर वापिस लौटता हूं। 

नंदकिशोर नवल ने साहित्य अकादमी द्वारा प्रकाशित ''भारतीय साहित्य के निर्माता" पुस्तकमाला के अंतर्गत लिखी अपनी पुस्तक ''महावीर प्रसाद द्विवेदी" में एक सुदीर्घ अध्याय ''नवचेतना के संवाहक" शीर्षक से लिखा है। इसमें उन्होंने सप्रमाण स्थापना की है कि द्विवेदी जी प्रगतिशील दृष्टिकोण रखते थे। उन्होंने अपने अनेक लेखों में किसानों के हक में आवाज उठाई। खेती की बुरी दशा, किसानों का संगठन इत्यादि लेखों व संपत्ति शास्त्र पुस्तक का जिक्र श्री नवल इस सिलसिले में करते हैं। ''खेती की बुरी दशा" शीर्षक लेख का एक अंश यहां दृष्टव्य हैं- ''इन जमींदारों का जमीन पर क्या हक है, कुछ समझ में नहीं आता? बीच में इन्हें डालकर क्यों गवर्नमेंट इनका घर भरती और काश्तकारों का मुना$फा कम करती है? जो काश्तकार जेठ की प्रचंड धूप और सावन-भादो की निरंतर झड़ी में खेतों में परिश्रम करते हैं वे उन खेतों से होने वाले नफे के मुस्तहक हैं या आराम-कुरसी पर लेटने और मोटरकार पर दौड़ लगाने वाले जमींदार?" इसके अलावा वे द्विवेदी जी द्वारा सरस्वती में प्रकाशित कुछ अन्य लेखकों यथा ईश्वर दास मारवाड़ी व गंगाधर पंत के लेखों का भी हवाला देते हैं। 

नंदकिशोर नवल एक अन्य संदर्भ में भी द्विवेदी जी की प्रगतिशील सोच को रेखांकित करते हुए उनके निरीश्वरवाद, श्री हर्ष का कलयुग, वेद, इत्यादि लेखों के उद्धरण देते हैं। ''श्री हर्ष का कलयुग" लेख का एक अंश यहां प्रस्तुत है- ''आपके वेदों में लिखा है कि यज्ञ करने से स्वर्ग की प्राप्ति होती है। लिखा है न? जरा बताइए तो सही, किस-किस ने यज्ञ करके स्वर्ग पाया है। वेदों में अगर लिखा हो कि पत्थर फेंकने से वे पानी पर तैरने लगते हैं, तो क्या आप वेदों की इस उक्ति को भी सच मान लेंगे?"

द्विवेदी जी द्वारा मैथिलीशरण गुप्त को लिखे एक पत्र की पंक्तियां भी इसके समर्थन में उद्धृत हैं- ''बुद्ध को आप ही ने अवतार माना है। वेदों को भी आप ही ने ईश्वरकृत मान रक्खा है। ईश्वर के यहां से इन विषयों में कोई दस्तावेज हम लोगों के पास नहीं।"

नंदकिशोर नवल के लेख में की गई स्थापनाएं हमें प्रसन्न कर सकती हैं, लेकिन मैंने जितना कुछ पढ़ा है उस आधार पर कहना होगा कि यह स्थापना एक अधूरी सच्चाई बयान करती हैं। सन् 1927 में इंडियन प्रेस, प्रयाग से द्विवेदी जी की एक पुस्तक प्रकाशित हुई थी, जिसका शीर्षक ही ''आध्यात्मिकी" है। इस पुस्तक में बारह लेख हैं जिनमें से कुछ के शीर्षक जान लीजिए- आत्मा के अमरत्व का वैज्ञानिक प्रमाण, पुनर्जन्म, पुनर्जन्म के प्रत्यक्ष प्रमाण, कुंडलिनी इत्यादि। नवलजी ने निरीश्वरवाद शीर्षक जिस लेख का जिक्र किया है वह भी इस पुस्तक में संकलित है। इस लेख में द्विवेदी जी चार्वाक, बौद्ध एवं जैन मतों का खंडन ही करते हैं। द्विवेदी जी का पुनर्जन्म पर अटूट विश्वास था तथा इस बारे में उन्होंने भारत और अन्यत्र वर्णित पुनर्जन्म की अनेक घटनाओं का विस्तारपूर्वक जिक्र किया है। उन्होंने ईश्वर शीर्षक लेख में ''आस्तिक" और ''नास्तिक" के बीच एक लम्बी बहस चलाई है, जिसके अंत में आस्तिक, नास्तिक से कहता है-
''इसलिए आप अब अपने घर पधारिए : कुछ दिन सत्संग कीजिए, सद्विद्या पढि़ए, तब आप इस विषय में वाद्-प्रतिवाद् करने के लिए कमर कसिए। अभी आप इस लायक ही नहीं।" यह लेख उन्होंने 1904 में लिखा था।

महावीर प्रसाद द्विवेदी के ईश्वर और आध्यात्म के संबंध में क्या विचार थे, इससे उनका मूल्यांकन करने में हमें कोई फर्क नहीं पडऩा चाहिए। हमें पता है कि विश्व के बड़े-बड़े वैज्ञानिक भी गहरी धार्मिक आस्था रखते रहे हैं। दरअसल यह एक जटिल प्रश्न है। एक व्यक्ति की वैज्ञानिक-सामाजिक सोच और उसकी निजी आस्था के बीच क्या अंतर्विरोध तथा सामंजस्य होता है या हो सकता है इसे कम से कम मैं तो नहीं समझ पाता। खैर! इस प्रसंग को यही छोड़ देते हैं। इतना हम जान चुके हैं कि महावीर प्रसाद द्विवेदी किसानों की दुर्दशा से चिंतित थे तथा उनके प्रति वे गहरी सहानुभूति रखते थे। गांधीजी ने दक्षिण अफ्रीका की रंगभेदी सरकार के विरुद्ध जिस आंदोलन की अगुवाई की उसका भी उल्लेख हमने शुरू में किया है। इसी तरह से इतिहास, राजनीति, अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र, विज्ञान, पर्यटन शिक्षा जैसे भांति-भांति के विषयों में उनकी रुचि थी। वे बहुपठित व्यक्ति थे तथा निश्चित ही उस समय उपलब्ध अंग्रेजी पुस्तकों व पत्र-पत्रिकाओं का वे नियमित अध्ययन करते होंगे तभी ऐसे तमाम विषयों पर वे अपने पाठकों को नवीनतम जानकारियां दे सके। इस तरह लेखन और संपादन दोनों में वे अपनी समाज सजगता का परिचय देते हैं। 

मैथिलीशरण गुप्त के निजी प्रकाशन गृह साहित्य सदन, चिरगांव, झांसी से 1929 में उनकी ''प्रबंध पुष्पांजलि" नामक पुस्तक प्रकाशित हुई थी। इसमें एक लंबा लेख ''शिक्षा" शीर्षक से है। जिसमें वे कहते हैं कि सिर्फ किताबों का ज्ञान शिक्षा नहीं है तथा बच्चों को शिक्षित करने के लिए माता-पिता का क्या धर्म है इस पर नसीहत देते हैं। वे चाहते हैं कि शिक्षा ऐसी हो जो आदमी को सार्वजनिक कर्तव्य करने के योग्य बनाए। मजेदार बात यह है कि इस पुस्तक का अगला लेख भारत में 1921 में हुई चौथी जनगणना पर है जिसे वे मनुष्य गणना लिखते हैं तथा प्राचीनकाल से जनगणना का इतिहास बताते हुए उसकी उपयोगिता की हिमायत करते हैं। इसके बाद का लेख उत्तरप्रदेश के बलरामपुर जिले में हाथियों के खेदा पर है जिसमें जंगली हाथियों को पकड़कर पालतू बनाने का विवरण है। याने तीन लेख और तीनों के विषय एक दूसरे से बिलकुल अलग। चौथा लेख युद्ध संबंधी अन्र्तजातीय नियम पर है। आज जिसे हम जिनेवा कन्वेन्शन के नाम से जानते हैं, यह लेख उसकी पृष्ठभूमि को विस्तार में समझाता है। इस पुस्तक के अन्य लेख उत्तरध्रुव व दक्षिणध्रुव के खोज अभियानों व इटली के विसूवियस में ज्वालामुखी विस्फोट पर हैं।

द्विवेदीजी की एक और पुस्तक है जिसका सरल सा शीर्षक है- "संकलन"। नब्बे वर्ष पूर्व प्रकाशित इस पुस्तक में भी विविध विषयों पर लिखे गए लेख संकलित किए गए हैं। ''अमेरिका के गांव" शीर्षक लेख की पहली पंक्ति है- ''जिस तरह भारत वर्ष अत्यंत दरिद्र है उसी तरह अमेरिका अत्यंत धनवान है।" इसके बाद वे कहते हैं- ''हमारे देश के गांव दरिद्रता और मूर्खता के केन्द्र स्थान हैं... यदि गांवों के झोपड़ों के अधिकारियों को दरिद्रता और अविद्या का मूर्तिमान अवतार कहा जाए तो कुछ अत्युक्ति नहीं।" इस लेख को पढ़कर पाठक चौंक सकते हैं। वे लोग जिन्हें गांवों का जीवन रोमांटिक लगता है वे नाराज भी हो सकते हैं, किन्तु आगे चलकर बाबा साहेब आम्बेडकर ने भारत के गांवों के बारे में जो विचार प्रगट किए वे उनसे भिन्न नहीं हैं। इस पुस्तक के एक लेख में वे पनडुब्बी की बनावट और उसके उपयोग का विस्तारपूर्वक वर्णन करते हैं, तो एक अन्य लेख में वे हवाई जहाज द्वारा यात्रा का रोचक वर्णन प्रस्तुत करते हैं। 1912 में प्रकाशित यह लेख उस समय लिखा गया था जब यात्रा एकदम शुरूआती दौर में थी और बड़ी हद तक अजूबा थी। इस लेख का शीर्षक ''व्योमयान से मुसाफिरी" है। इस पुस्तक में भारत, चीन और जापान में प्रचलित शिक्षा व्यवस्था पर स्वतंत्र लेख तो हैं ही, एक अच्छा लेख ''गूंगों और बहरों के लिए स्कूल" शीर्षक से भी है। 

इस तरह हम देख सकते हैं कि महावीर प्रसाद द्विवेदी ने सरस्वती के संपादन तथा निज लेखन दोनों माध्यमों से हिन्दी समाज में एक तरफ इतिहासबोध जागृत करने का प्रयत्न किया तथा दूसरी तरफ समसामयिक घटनाचक्र के प्रति उसकी रुचि जगाने में भी कोई कसर बाकी नहीं रखी। वे इस मायने में सचमुच प्रगतिशील थे कि भाषा तथा साहित्य को वे सिर्फ मनोविनोद का साधन नहीं मानते थे। उनकी दृष्टि में साहित्य का एक महत्तर उद्देश्य है। वह आत्मनेपद नहीं है और चूंकि वह समाज के लिए है और इसलिए उसकी भाषा में भी सरलता होनी चाहिए। उनके समकालीन माधवराव सप्रे प्रभृत्ति लेखक- संपादक भी यही भावना रखते थे जिसका प्रमाण ''छत्तीसगढ़ मित्र" में देख सकते हैं। अभी कुछ समय पहले तक भारत की हिन्दी पत्रकारिता कमोबेश इसी सोच पर विकसित होते आई है तथा द्विवेदी युग से आज तक का हिन्दी साहित्य का बहुलांश इसका ही प्रमाण है। भाषा व साहित्य पर महावीर प्रसाद द्विवेदी ने जो विचार प्रगट किए हैं उसके कुछ अंश हम नीचे देते हुए अपनी बाात खत्म करते हैं।
''यदि कोई यह कहे कि हिन्दी के साहित्य का मैदान बिलकुल ही सूना पड़ा है तो उसके कहने को अत्युक्ति न समझना चाहिए। दस पांच  की किस्से, कहानियां, उपन्यास या काव्य आदि पढऩे लायक पुस्तकों का होना साहित्य नहीं कहलाता और न कूड़े-कचरे से भरी हुई पुस्तकों ही का नाम साहित्य है। इस अभाव का कारण हिन्दी पढऩे-लिखने में लोगों की अरुचि है। हमने देखा है कि जो लोग अच्छी अंग्रेजी जानते हैं, अच्छी तनख्वाह पाते हैं और अच्छी जगहों पर काम करते हैं, वे हिन्दी के मुख्य ग्रंथों और अखबारों का नाम तक नहीं जानते। आश्चर्य यह है कि अपनी इस अनभिज्ञता पर वे लज्जित भी नहीं होते।"

''इस दशा में हमारी राय यह है कि इस समय हिन्दी में जितनी पुस्तकें लिखी जायं, खूब सरल भाषा में लिखी जायं। यथासंभव उनमें संस्कृत के कठिन शब्द न आने पावें। क्योंकि जब लोग सीधी सादी भाषा की पुस्तकों को ही क्यों नहीं पढ़ते, तब वे स्क्रिप्ट भाषा की पुस्तकों को क्यों छूने लगे। अतएव जो शब्द बोलचाल में आते हैं- फिर चाहे वे फारसी के हों, चाहे अरबी के हों, चाहे अंग्रेजी के हों- उनका प्रयोग बुरा नहीं कहा जा सकता। पुस्तक लिखने का मतलब सिर्फ यह है कि उसमें जो कुछ लिखा गया है उसे लोग समझ सकें। यदि वह समझ में न आया अथवा निष्कृष्ठता के कारण उसे किसी ने न पढ़ा, तो लेखक की मेहनत ही बरबाद हो जाती है। पहले लोगों में साहित्य-प्रेम पैदा करना चाहिए। भाषा-पद्धति पीछे से ठीक होती रहेगी।" 

 अक्षर पर्व जुलाई 2014 में प्रकाशित 

Wednesday 23 July 2014

क्रूर इजराइल : पीडि़त फिलिस्तीन





 1. ''यहूदियों के प्रति मेरी सहानुभूति न्याय की अनदेखी कर नहीं हो सकती। यहूदियों का एक अपना राष्ट्र बनाने के शोर से मैं बहुत प्रभावित नहीं हूं। वे जोर देकर कहते हैं कि बाइबिल में उनके फिलिस्तीन लौटने का आदेश दिया गया है। मैं पूछता हूं कि दुनिया के तमाम लोगों की तरह वे उसी देश को अपना घर क्यों नहीं मानते जहां उनका जन्म हुआ है और जहां उनको आजीविका मिली है।

2. ''मेरी राय में यहूदियों ने अमेरिका व ब्रिटेन की सहायता से और फिर नग्न आतंकवाद के सहारे फिलिस्तीन पर अपने आपको थोपने में बहुत बड़ी गलती की है। क्या जरूरत है कि वे अमेरिकी पैसे या ब्रिटिश हथियारों से जबरदस्ती वहां जाएं जहां उनका स्वागत नहीं हैं। वे क्यों आतंकवाद का सहारा लेकर फिलिस्तीन में जबरदस्ती घुसना चाहते हैं।


ये कथन किसके हैं, यह जानने लेख के अंत तक जाइए।

भारत की विदेश नीति इस समय कसौटी पर है। पिछले दस दिन से इजराइल द्वारा गाजा-पट्टी पर लगातार जो हमले किए जा रहे हैं उसमें भारत किसका साथ दे? निरपराध और निर्दोष फिलिस्तीन नागरिकों की हत्या करने वाले इजराइल का या पिछले साठ साल से हर तरह की तबाही का सामना कर रहे फिलिस्तीनियों का? क्या भारत को पिछले साठ दशक से चली आ रही उस नीति का पूरी तरह से परित्याग कर देना चाहिए जिससे वह धीरे-धीरे व गुपचुप तरीके से किनारा करते आई है? क्या उसे इजराइल का समर्थन सिर्फ इसलिए करना चाहिए कि उसके किए हमलों में मरने वाले तमाम लोग मुसलमान हैं? क्या हमें वृहत्तर हिन्दू समाज के एक छोटे वर्ग द्वारा फैलाई जा रही मुस्लिम घृणा के आधार पर अपनी विदेश नीति तय करना चाहिए? क्या हम अरब जगत के साथ अपने सदियों पुराने रिश्तों को तोड़ देना चाहते हैं? अगर ऐसा है तो फिर यह भी पूछना होगा कि इजराइल के साथ ऐसी एकजुटता दिखलाने से हमें क्या फायदा होने वाला है?

आज भारत इजराइली युद्ध सामग्री का सबसे बड़ा खरीदार है। अब इस मामले में रूस दूसरे नंबर पर आ गया हैं। इजराइल से सैन्य सामग्री खरीदने का मलतब यही होता है कि उसने फिलिस्तीन के खिलाफ जो लड़ाई छेड़ रखी है उसमें हम अप्रत्यक्ष रूप से सहयोग कर रहे हैं। इजराइल हमसे जो कमाई कर रहा है वह भी तो इस लड़ाई में लग रही है। हम जानते हैं मोरारजी देसाई के समय इजराइल के साथ हमने संबंध बनाना प्रारंभ किया जो आज इस सीमा तक बढ़ गए कि अब फिलिस्तीन  के प्रति जबानी सहानुभूति व्यक्त करने में भी हमारी सरकार को संकोच होने लगा है! ऐसा करते हुए हम शायद जानबूझकर ही इजराइल की स्थापना के इतिहास को भूलने की कोशिश कर रहे हैं। क्यों हमें पता नहीं है कि पश्चिम की पूंजीवादी ताकतों ने इजराइल का निर्माण कर एक तीर से दो निशाने साधने की कोशिश की थी कि यूरोप यहूदियों से मुक्त हो जाए और साथ ही साथ अरब के तेल भंडारों पर कब्जा करने के लिए उनकी सूबेदारी वहां स्थापित हो जाए?

यहां याद कर लेना मुनासिब होगा कि दो हजार साल पहले रोमन साम्राज्य के दौरान जब यहूदियों पर अत्याचार हुए और बड़ी संख्या में उन्हें वतन छोडऩे पर मजबूर होना पड़ा तब एक भारत ही था जहां उन्हें शांति, सुरक्षा और सम्मान मिला। जो यहूदी यूरोप के देशों में जाकर बसे वहां उनके साथ हमेशा दोयम दर्जे का बर्ताव किया गया और वे हमेशा संदिग्ध बने रहे। शेक्सपियर के ''मर्चेन्ट ऑफ वेनिस" का खलनायक एक यहूदी साहूकार ही तो है। यहूदी कौम में चाहे कितने भी वैज्ञानिक, लेखक, कलाकार, उद्यमी पैदा हुए हों, पश्चिमी जगत ने उन्हें कभी सम्मान नहीं दिया।  हिटलर की जर्मनी में यहूदियों का नरसंहार हुआ, लेकिन उन्हें यूरोप से बाहर करने की योजना तो 1917 के बालफोर घोषणापत्र के साथ ही बनने लगी थी। इससे बड़ा राजनीतिक पाखंड और क्या हो सकता था? एक तरफ आप उन्हें अपना ''होमलैण्ड" देने का वायदा कर सहानुभूति दर्शा रहे हैं और दूसरी तरफ उन्हें अपने बीच से उसी तरह उखाड़ कर फेंक रहे हैं जैसे खेत से खरपतवार।

भारत में आज जो लोग इजराइल के प्रति प्रशंसा भाव से भरे हुए हैं और उसके आपराधिक कृत्यों का समर्थन कर रहे हैं उन्हें अपने आपसे पूछना चाहिए कि भारत ने तो यहूदियों के साथ कभी कोई भेदभाव नहीं बरता, उनके धार्मिक अनुष्ठानों में कभी कोई बाधा नहीं डाली, इनके व्यापार करने में कभी कोई रुकावट पैदा नहीं की फिर ऐसा क्या था कि इस देश में सौ पीढिय़ां बीत जाने के बाद भी उन्होंने भारत को अपना घर नहीं समझा और एक-एक करके सब इजराइल चले गए। जिस मिट्टी में उन्होंने जन्म लिया, जहां का पानी उन्होंने पिया वे उस जगह के नहीं हो पाए, यह कौन सी मानसिकता है? इसके साथ याद तो यह भी रखना चाहिए कि जिन यहूदियों ने अपना घर नहीं छोड़ा था उन्हें अपने हमवतन अरबों से कभी कोई नुकसान नहीं पहुंचा, फिर वे दो हजार साल के अपने पड़ोसियों के दुश्मन क्यों बनते हैं?

हमें इस तथ्य को भी रेखांकित करना चाहिए कि ऐसा नहीं कि समूची यहूदी कौम या पूरा इजराइल देश ही फिलिस्तीनियों के खिलाफ है। इजराइल के तेल अवीव और अन्य शहरों में सरकार के खिलाफ प्रदर्शन हो रहे हैं कि वह अपनी युद्धपरस्त नीति छोड़े। इजराइली फौज के कितने ही सैनिक जेलों में बंद हैं कि उन्होंने मासूम फिलिस्तीनियों पर हथियार चलाने से इंकार कर दिया। न्यूयार्क और लंदन में भी नेतान्यहू सरकार के खिलाफ प्रदर्शन हो रहे हैं। इजराइल समर्थकों को यह तथ्य भी जान लेना चाहिए कि दुनिया के सबसे महान वैज्ञानिक आइंस्टीन को जब इजराइल का प्रथम राष्ट्रपति बनने का न्यौता दिया गया तो उसे उन्होंने ठुकरा दिया था। भारत की दृष्टि से एक व्यवहारिक बिन्दु गौरतलब है कि अरब देशों में बड़ी संख्या में भारतीय नागरिक काम कर रहे हैं। अगर इजराइल से ज्यादा दोस्ती निभाए तो भारतीयों के रोजगार के अवसर भी छिन सकते हैं और बहुमूल्य विदेशी मुद्रा कमाने का अवसर भी गंवा जा सकता है।

भारत में इस्लाम को लेकर एक दहशत का वातावरण बनाने की कोशिश लंबे समय से की जाती रही है। अभी इसके कारणों में हम विस्तार से नहीं जाना चाहते।  फिलहाल यह तथ्य स्मरण करना उचित होगा कि विश्व में आतंकवाद की जो घटनाएं हाल के वर्षों में घटी हैं उसमें कभी किसी भारतीय का नाम नहीं आया। देश के भीतर जो आतंकी घटनाएं हुईं उनमें से अनेक अदालतों ने पाया कि जिन मुसलमानों को अपराधी घोषित किया गया था वे निर्दोष थे। इसका ताजा उदाहरण सूरत बमकांड के अभियुक्तों की रिहाई है। इस पृष्ठभूमि में इजराइल के साथ संबंध गाढ़े करने के प्रति जो उत्साह भारतीय समाज का एक वर्ग प्रदर्शित कर रहा है,  वह प्रकारांतर से अपने पन्द्रह करोड़ अल्पसंख्यक भाई-बहनों का दिल दुखाने का ही काम है। मैं कहूंगा कि जो तथ्यात्मक स्थिति है उसे स्वीकार कर हमें अपनी मानसिकता बदलने के बारे में सोचना चाहिए।

यह हमें पता है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ऐसा कोई भी काम करना नहीं चाहते जिस पर जवाहरलाल नेहरू की छाया पड़ती हो, लेकिन हम उम्मीद करते हैं कि वे और उनकी विदेशमंत्री सुषमा स्वराज महात्मा गांधी के विचारों पर कम से कम एक बार गंभीरतापूर्वक विचार करेंगे। बापू के उपरोक्त दो उद्धरण हम सबके लिए प्रासंगिक हो सकते हैं।

बहुत गौर से देखिए कि गांधीजी ने आतंकवाद का इस्तेमाल किसके संदर्भ में किया है!
देशबन्धु में 24 जुलाई 2014 को प्रकाशित

Tuesday 22 July 2014

शहीदे आजम! हम शर्मिंदा हैं



रायपुर
में शहीदे आजम भगत सिंह की प्रतिमा का सिर काटने का जो आपराधिक कृत्य 21 जुलाई को हुआ है उससे हम सबका सिर शर्म से झुक जाना चाहिए। यह घटना किसी मनचले, सिरफिरे या विक्षिप्त व्यक्ति द्वारा की गई करतूत नहीं है बल्कि इसके पीछे एक सोची समझी साजिश है और अत्यंत दुर्भाग्य की बात है कि ऐसा अपराध करने वालों को राजनीतिक प्रश्रय मिला हुआ है।


स्मरणीय है कि आज से एक वर्ष पूर्व भी अमर शहीद भगतसिंह की हैटधारी प्रतिमा का सिर अलग कर उसकी जगह रातोंरात पगड़ीधारी सिर लगा दिया गया था। इसे लेकर जब हो-हल्ला मचा तो वापिस पुराने हिस्से को लाकर जोड़ दिया गया। उस समय अव्वल तो सिर काटने का काम किसने किया और दुबारा सिर जोडऩे का कार्य कैसे संपन्न हुआ? इसके बारे में राज्य सरकार, नगर निगम, जिला प्रशासन और पुलिस सब खामोश हैं।

आज जब हैटधारी सिर दुबारा काट दिया गया तो प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि प्रतिमा की निगरानी की जिम्मेदारी किसकी थी? इससे बड़ा प्रश्न यह उठता है कि जिला प्रशासन ने आनन-फानन में बैठक बुलाकर सिर पर हैट के बजाय पगड़ी वाली प्रतिमा स्थापित करने का निर्णय क्यों और किसके कहने से ले लिया? हमारे ध्यान में यह बात आती है कि एक वर्ष पूर्व जब पहली बार यह अपराध किया गया था तब विधानसभा चुनावों के लिए अपने-अपने तरीके से माहौल बनाया जा रहा था। आज केंद्र और राज्य दोनों में एक ही पार्टी की सरकार है एवं नगर निगम चुनाव सामने है तब दुबारा वही अपराध होना संदेह को जन्म तो देता ही है।

रायपुर प्रदेश की राजधानी है। यहां राज्यपाल, मुख्यमंत्री और पूरा मंत्रिमंडल रहता है ऐसे आपराधिक कृत्य पर उनका खामोश रहना हमारी राय में उचित नहीं है। रायपुर नगर निगम में पक्ष-विपक्ष के झगड़ों को लेकर शहर की जो दुर्गति हो रही है उससे सभी परिचित हैं। मुख्यमंत्री सहित अनेक प्रभावशाली नेता नगर की दुरावस्था पर विभिन्न अवसरों पर चिंता व्यक्त कर चुके हैं। फिर आज वे भारत के युवाओं के आदर्श भगत सिंह का ऐसा अनादर देखकर भी खामोश क्यों हैं?

मैं याद करना चाहूंगा कि यह वह रायपुर शहर है जहां नागरिक सहयोग से महात्मा गांधी की प्रतिमा आज़ाद चौक पर स्थापित की गई थी। इसी तरह स्टेशन चौक पर नेताजी सुभाषचंद्र बोस की प्रतिमा भी नागरिकों ने अपनी पहल पर लगाई थी। इन दोनों अनुष्ठानों में उस समय के प्रशासन या नगरपालिका की कोई भूमिका नहीं थी। यह त्यागमूर्ति ठाकुर प्यारेलाल सिंह का नगर है, जिन्होंने रायपुर नगरपालिका के अध्यक्ष रहते हुए कितनी ही स्वस्थ परंपराएं स्थापित की थीं। आज भगत सिंह की प्रतिमा के साथ ऐसा उच्छृंखल व्यवहार देखकर रोने को मन हो आता है कि हमने पुरखों से शायद कुछ सीखा ही नहीं।

हम जानते हैं कि इस देश में महापुरुषों को जाति, धर्म, भाषा इत्यादि के आधार पर बांटने का खेल पिछले तीस-चालीस साल से चल रहा है। हाल के वर्षों में यह प्रवृत्ति और बढ़ी है। क्या महात्मा गांधी और सरदार पटेल सिर्फ गुजराती थे और रवीन्द्रनाथ ठाकुर और नेताजी बंगाली? क्या शिवाजी सिर्फ मराठों के वरेण्य थे या फिर कुर्मी क्षत्रिय समाज के गौरव? क्या दुर्गावती सिर्फ गोंडों की रानी थीं और अवंतीबाई लोधियों की? क्या चंद्रशेखर आजाद सिर्फ कान्यकुब्ज थे और भगत सिंह सरदार?

हम तो अपने बचपन से भगतसिंह की हैट लगी प्रतिमा देखते आए हैं। लेकिन हमारे लिए यह उतना महत्वपूर्ण नहीं था कि वे किस प्रदेश, किस समाज, किस जाति के थे और वे क्या पहनते थे। आज जिन्होंने भगत सिंह का सिर काटा है, काश वे भगत सिंह का लिखा हुआ पढ़ पाते, उनके विचारों को समझ पाते, उनसे कुछ प्रेरणा लेते तो उन्हें इस अपराध का भागी न बनना पड़ता।

यदि समाज का एक वर्ग अमर शहीद को पगड़ी में ही देखना चाहता है तो वे एक मूर्ति बनवाकर शहर में किसी अन्य प्रमुख स्थान पर उसे स्थापित कर सकते हैं, लेकिन सिर काटने का काम जिन्होंने किया है वे किसी तरह के माफी के हकदार नहीं है। हमारी मुख्यमंत्री डॉ. रमनसिंह से अपेक्षा है कि वे निजी दिलचस्पी लेकर इसका सम्मानजनक निराकरण करें।

 देशबन्धु में 23 जुलाई 2014 को प्रकाशित 

Wednesday 16 July 2014

वैदिक-सईद मुलाकात के निहितार्थ





यह
1991-92 की बात है। 'टाइम्स ऑफ इंडिया' के प्रधान संपादक दिलीप पडग़ांवकर ने एक लाइफस्टाइल पत्रिका को साक्षात्कार देते हुए कहा कि वे देश में दूसरा सबसे महत्वपूर्ण जिम्मेदारी का पद संभाल रहे हैं। उसका अभिप्राय यह निकाला गया कि वे अपनी हैसियत प्रधानमंत्री के तुरंत बाद समझते हैं। श्री पडग़ांवकर एक गंभीर अध्ययनशील पत्रकार हैं और यह बात उन्होंने असावधानी के किसी क्षण में कही होगी जिसके फलस्वरूप उन्हें अपना पद छोडऩे पर बाध्य होना पड़ा। इसके बाद से अखबारों में पत्रकार को प्रधान संपादक बनाए जाना ही समाप्त हो गया। यह पुराना प्रसंग सहसा स्मरण हो आया जब सोमवार की रात अर्णब गोस्वामी के एक कार्यक्रम में मैंने पत्रकार बंधु वेदप्रताप वैदिक को यह कहते हुए सुना कि पी.वी. नरसिम्हाराव के शासनकाल में उन्हें इतना महत्व प्राप्त था कि लोग-बाग उन्हें उपप्रधानमंत्री के विशेषण से अभिहित करने लगे थे। श्री वैदिक ने इसके अलावा आत्मश्लाघा में और भी बहुत सी बातें कहीं। मेरी समझ में नहीं आता कि पत्रकारों को राजनेताओं के साथ इतनी निकटता प्रदर्शित करने में क्या सुख मिलता है!

यह तो पाठक जान ही रहे हैं कि श्री वैदिक ने इसी 2 जुलाई को अपनी पाकिस्तान यात्रा के अंतिम दिन दुर्दान्त आतंकवादी हाफिज मोहम्मद सईद से मुलाकात की और उसकी खबर जारी होते ही मानों कहर टूट पड़ा। सब लोग अपने-अपने ढंग से इस अप्रत्याशित घटना की चीर-फाड़ करने में लगे हुए हैं, लेकिन वास्तविकता क्या है इसे लेकर एक राय नहीं बन पाई है। वेदप्रताप वैदिक को लंबे समय से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी समर्थक माना जाता है। यह एक सामान्य सी बात है जिसका कोई नोटिस लेने की जरूरत नहीं समझी गई। श्री वैदिक 'पीटीआई भाषा' व 'नवभारत टाइम्स' में संपादक रह चुके हैं, लेकिन इधर कुछ वर्षों से वे सक्रिय पत्रकारिता में नहीं हैं। उनका एक कॉलम अवश्य समय-समय पर कुछ पत्रों में प्रकाशित होता है। संघ और भाजपा के करीबी होने के कारण इतना अवश्य है कि छत्तीसगढ़ जैसे भाजपा शासित राज्य में वे साल में एक-दो बार यहां शासकीय-अशासकीय कार्यक्रमों में आ जाते हैं। इसके अलावा पत्रकार हलकों में उनकी कोई खास चर्चा नहीं होती।

हां! जब से बाबा रामदेव का 'कांग्रेस हटाओ'  आंदोलन प्रारंभ हुआ तब से वे टीवी के परदे पर बाबा के साथ अक्सर दिखाई देने लगे थे। उन्होंने बाबा की सभाओं में जोशीले भाषण भी दिए तथा उनकी ओर से वे टी.वी. की बहसों में भी आए। इससे प्रेक्षकों की यह धारणा बनी कि वे बाबा रामदेव के विश्वस्त अथवा समर्थक हैं। लेकिन वैदिकजी ऐसा कहने का बुरा मानते हैं। मुझसे उन्होंने कहा कि वे बाबा रामदेव के लिए पितृतुल्य हैं। यह कथन, हो सकता है कि वास्तविक हो और संभव है कि इसमें आत्मप्रशंसा का पुट हो! जो भी हो, इस नाजुक घड़ी में बाबा रामदेव ने उनका साथ ठीक से निभाया है, यह कहकर कि वे शायद हाफिज सईद का हृदय परिवर्तन करने के लिए उससे मिलने गए होंगे। बाबा की इस मासूमियत पर भला कौन न फिदा हो जाए! कितना अच्छा होता कि वे वैदिकजी को कालेधन पर बैठे तक्षकों का हृदय परिवर्तन करने की प्रेरणा या सलाह देते तो उनका एक और मिशन पूरा हो जाता।

बहरहाल इस वैदिक-सईद मुलाकात ने सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी को बैठे बिठाए अड़धप में डाल दिया है। सुषमा स्वराज व अरुण जेटली को बयान देने पड़े कि श्री वैदिक के इस कार्य से सरकार का दूर-दूर तक प्रत्यक्ष या परोक्ष कोई संबंध नहीं है। वरिष्ठ नेता वेंकैय्या नायडू आदि ने भी इसी कथन को दोहराया है। लेकिन संघ से भाजपा में प्रतिनियुक्ति पर भेजे जा रहे राम माधव इस मुद्दे की पेचीदगियां नहीं समझ पाए। उन्होंने पूछा कि श्री वैदिक सलमान खुर्शीद और मणिशंकर अय्यर जैसे कांग्रेसियों के साथ पाकिस्तान यात्रा पर गए थे तो क्या ये कांग्रेस नेता भी आर.एस.एस. के हैं। यह बेमतलब का कथन है और श्री वैदिक से उधार लिया हुआ है। वैदिकजी ने अपने पक्ष में यह अधूरा सत्य सामने रखा कि वे इन लोगों के साथ यात्रा पर गए थे। इसका दूसरा हिस्सा उन्होंने जानबूझकर छोड़ दिया कि बाकी लोग एक दिन के सम्मेलन में भाग लेकर वापिस आ गए थे जबकि वैदिकजी वहीं अगले दो हफ्ते के लिए रुक गए थे।

प्रश्न उठता है कि श्री वैदिक को पाकिस्तान में इतने लंबे समय तक रुकने की क्या आवश्यकता थी? वे चूंकि विद्यार्थी जीवन से अफगान मामलों के अध्येता रहे हैं इसलिए इस प्रश्न का समाधान इस तर्क से किया जा सकता है कि वे अपने प्रिय विषय पर ताजा अध्ययन करने के लिए वहां ठहरे थे। लेकिन फिर हाफिज सईद से मिलने का विचार कैसे आया? इसकी आवश्यकता उन्होंने क्यों समझी,  इसके प्रबंध कैसे हुए व किसने किए? यह जगजाहिर है कि सईद को पाकिस्तान की कुख्यात आईएसआई का संरक्षण प्राप्त है। वहां की चुनी सरकार उस पर हाथ नहीं डाल सकती। अदालतें भी उसके खिलाफ कार्रवाई करने में लाचारी महसूस करती है। ऐसे व्यक्ति से मिलना निश्चित ही एक कठिन काम है। संघ परिवार से सीधा ताल्लुक रखने वाले एक भारतीय पत्रकार को आईएसआई ने अपने संरक्षण प्राप्त एक विश्व अपराधी से मिलने की अनुमति किस आधार पर दी? किस के कहने पर दी और उससे क्या हासिल होने की उम्मीद थी?

वेदप्रताप वैदिक जोर देकर कहते हैं कि वे एक पत्रकार की हैसियत से उससे मिले थे। एक बार पत्रकार सो जीवन भर पत्रकार- यह तर्क श्री वैदिक अपने ऊपर लागू कर रहे हैं। सच यह है कि वे सक्रिय पत्रकारिता बरसों पहले छोड़ चुके हैं। वे स्वयं को एक समाजचिंतक के रूप में देखते हैं व उनके लेख एवं भाषण इस दूसरे रोल के मुताबिक ही होते हैं। अगर वे पत्रकार के रूप में मिलने गए थे तो इतने महत्वपूर्ण और सनसनीखेज साक्षात्कार को उन्होंने तुरंत ही किसी अखबार में प्रकाशित क्यों नहीं किए? ऐसा करने में उनकी धाक ही जमना थी। फिर उन्होंने स्वयं ही अपनी चर्चा का जितना भी खुलासा किया है उसमें किसी पत्रकार से अपेक्षित सवालों की झलक दिखाई नहीं देती। यह देखकर हमें दो ही अनुमान होते हैं। एक तो यह कि उनकी भेंट आधिकारिक स्तर पर प्रायोजित की गई थी और अगर ऐसा नहीं है तो फिर यह उन्होंने अतिउत्साह में किया है!

श्री वैदिक ने सोमवार को विभिन्न चैनलों पर चर्चाओं में बार-बार यह बखान किया कि, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, नरसिंहराव, अटल बिहारी वाजपेयी, चन्द्रशेखर, चरणसिंह, वी.पी.सिंह आदि सबके साथ उनके निकट संबंध थे और ये लोग उनसे सलाह लिया करते थे। इस तरह की बातें उन्होंने अपने लेखों में भी की हैं। मैं दुख के साथ कहना चाहता हूं कि ऐसा करके वे बड़बोलेपन का परिचय देते हैं। यह ठीक है कि पचास साल से दिल्ली में रहते हुए देश-विदेश के राजनेताओं से उनके संपर्क बने होंगे। वे कई बार पाकिस्तान जा चुके हैं तथा खुद उनके कथनानुसार नवाज शरीफ भी उनके मित्र हैं। ऐसे में यह संभावना बनती है कि उन्होंने पाकिस्तान की सरकार या आईएसआई में अपने संपर्कों पर भारत में अपनी पहुंच और हैसियत के बारे में रौब गालिब किया हो तथा उनसे प्रभावित हो उनकी इच्छानुसार यह भेंट तय कर दी गई हो। उन्होंने शायद वैदिकजी की  बातों पर भरोसा किया हो कि भारत-पाक संबंधों को सुधारने में सहायक हो सकते हैं! वैसे हमें यह संभावना क्षीण लगती है।

इस बात की संभावना अधिक है कि वेदप्रताप वैदिक की सेवाओं का उपयोग भारत सरकार ने प्रत्यक्ष न सही अपने किसी आनुषांगिक संगठन या थिंक टैंक के माध्यम से करने की सोची हो। जैसी कि खबरें आई हैं श्री वैदिक 'विवेकानंद इंटरनेशनल फाउंडेशन' नामक संस्था से ताल्लुक रखते हैं। राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल व प्रधानमंत्री के प्रमुख सचिव नृपेन्द्र मिश्रा इस थिंक टैंक के पदाधिकारी रहे हैं। श्री वैदिक ने श्री डोभाल के साथ मिलकर कोई पुस्तक लिखी है, यह बात भी खबरों में आई है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की महत्वाकांक्षा हो सकती है कि जो काम अब तक कोई पूर्ववर्ती नहीं कर पाया उसे वे कर दिखाएं। याने भारत-पाकिस्तान के बीच स्थायी तौर पर अच्छे संबंध कायम हो जाएं व कश्मीर समस्या सुलझ जाए।

गौरतलब है कि श्री वैदिक ने भेंट के उपरांत पाकिस्तान के मीडिया समूह डॉन के साथ बातचीत में कहा कि कश्मीर को आजाद कर देना चाहिए। अगर यह बात कोई गैर-संघी या गैर-भाजपाई करता तो उस पर देशद्रोह का आरोप लगाने में देरी न लगती। तो क्या श्री वैदिक ने ऐसा जानबूझ कर कहा और क्या ऐसा करने के लिए उन्हें निर्देशित किया गया था? आज अवश्य सरकार श्री वैदिक की भेंट व कथनों से अपना पल्ला झाड़ रही है, लेकिन यह कल्पना करना लगभग असंभव है कि वेदप्रताप वैदिक ने अपनी निजी पहल पर इतना बड़ करतब किया होगा। उनसे शायद एक ही गलती अनजाने में हुई है या क्या मालूम कि वह भी जानबूझ कर की गई है कि इस भेंट को सार्वजनिक कर दिया गया!
देशबन्धु में 17 जुलाई 2014 को प्रकाशित

Wednesday 9 July 2014

राज्यपाल पद का महत्व?



आज इस कॉलम के प्रकाशित होते तक संभव है कि 7-8 प्रदेशों में राज्यपाल के खाली हुए पदों पर नई नियुक्तियां हो जाएं। प्राय: प्रतिदिन खबरें आ रही हैं कि बस इस बारे में घोषणा होने ही वाली है। खैर, आज नहीं तो कल, यह रुका हुआ काम होना ही है, लेकिन इस समूचे प्रसंग में मोदी सरकार और भाजपा ने अब तक जो रुख अपनाया है, उसमें एक किस्म का उतावलापन और पुराना हिसाब चुकता करने की मानसिकता का परिचय मिलता है, जिसका औचित्य सिद्ध करना कठिन है। भारतीय जनता पार्टी में जिन लोगों ने भी राज्यपाल बदलने की मुहिम छेड़ी, उन्होंने एक जिम्मेदार सरकार से अपेक्षित व्यवहार का निर्वाह नहीं किया। बहरहाल, यह घटनाचक्र हमें दो प्रश्नों पर सोचने का मौका देता है- 1) नियुक्ति, इस्तीफे, तबादले से जुड़े तात्कालिक प्रसंग और 2) राज्यपाल संस्था की आवश्यकता व औचित्य।

पहिले प्रश्न पर विचार करते हुए कुछ बिंदु उभरते हैं। मेरी अपनी राय है कि जिस दिन मोदी सरकार गठित हो गई थी, उसी दिन बिना किसी अपवाद के  हरेक राज्यपाल को अपने पद से इस्तीफा दे देना चाहिए था। इसमें उनकी व्यक्तिगत गरिमा बनी रहती। कारण कि राज्यपाल की नियुक्ति विशुद्धत: राजनैतिक आधार पर की जाती है। जिसकी सरकार, उसका राज्यपाल। इस सच्चाई को जानते हुए पद से चिपके रहने में कोई बड़ाई नहीं है। कांग्रेस द्वारा नियुक्त राज्यपालों को यह भी याद रखना चाहिए था कि भारतीय जनता पार्टी ऐसे मामलों में कुछ ज्यादा ही असहिष्णु है। याद कीजिए कि छत्तीसगढ़ में वाजपेयी सरकार द्वारा नियुक्त राज्यपाल दिनेश नंदन सहाय को स्वयं भाजपाईयों ने ही आंदोलन कर हटवा दिया था, सिर्फ इस आरोप पर कि वे मुख्यमंत्री अजीत जोगी से पक्षपात करते हैं। वे जब यहां से गए तो भाजपा नेताओं ने उन्हें विमानतल पर विदा देने का शिष्टाचार तक नहीं निभाया था।

कांग्रेस का यह तर्क सही है कि 2004 में जब उसने भाजपाई राज्यपालों को हटाने की पहल की थी तो भाजपा सुप्रीम कोर्ट चली गई थी, जिसने फैसला दिया कि बिना पर्याप्त कारण के किसी राज्यपाल को नहीं हटाया जा सकता। इसी आधार पर अनेक कांग्रेस राज्यपालों ने अपना पद अभी तक नहीं छोड़ा है। कांग्रेस के पक्ष में यह बात भी जाती है कि उसने वाजपेयी सरकार द्वारा नियुक्त सारे राज्यपालों को नहीं हटाया था। मसलन जनरल के.एम. सेठ, छत्तीसगढ़ के राज्यपाल को अपना कार्यकाल पूरा करने का अवसर दिया गया, जबकि विश्व हिंदू परिषद के साथ उनका जुड़ाव कोई छुपी बात नहीं थी। उनके अलावा कुछ अन्य को भी नहीं छेड़ा गया। इन दोनों बिंदुओं पर कांग्रेस को अपनी पीठ ठोकने का हक तो मिलता है, लेकिन अपने लोगों को इस्तीफा न देने की सलाह देकर उसने एक नैतिक विजय हासिल करने का मौका अवश्य गंवा दिया है।

भारतीय जनता पार्टी और उसकी केंद्र सरकार ने राज्यपालों को हटाने के लिए जो रणनीति अपनाई, उसमें नौसिखियापन परिलक्षित होता है। सरकार जानती थी कि दो-तीन राज्यपालों का कार्यकाल लगभग समाप्त हो रहा था, उन्हें हटाने में हड़बड़ी दिखाने की जरूरत बिल्कुल नहीं थी। कर्नाटक में हंसराज भारद्वाज को फोन कर इस्तीफा मांगने में क्या तुक थी, जिनका अंतिम कार्यदिन ही 29 जून था। शेखर दत्त को सिर्फ 6 माह बचे थे और उनसे छ.ग. की भाजपा सरकार को कोई शिकायत भी नहीं थी। एम. के. नारायणन व बीवी वांचू के राजनिवास पर सीबीआई को भेजने में पर्यवेक्षकों को प्रतिशोध की भावना दिखाई दी। साथ ही यह आरोप भी लग गया कि सीबीआई पिंजरे का तोता ही है। मज़े की बात यह कि आनन-फानन में जिनको हटाया गया उनके स्थान पर पड़ोसी राज्यों के राज्यपालों को प्रभार दे दिया गया। आखिर वे भी तो कांग्रेस द्वारा नियुक्त हैं। गुजरात की कमला बेनीवाल और नरेन्द्र मोदी के बीच शुरू से ही खींचतान चली आ रही थीं। उनका तबादला भी दो दिन पहले किया गया। अगर उनके सहित बाकी अन्य को भी शुरू में ही दूसरे प्रांतों में स्थानांतरित कर दिया होता तो वांछित संदेश अपने आप चला जाता। इस संदर्भ में आखरी बात जो समझ आती है वह यह कि भाजपा में ही कशमकश चल रही है कि राज्यपाल के खाली पदों पर किनको भेजा जाए। शायद इसीलिए नियुक्तियां टल रही हैं।

इस तात्कालिक घटनाचक्र से अलग हटकर यह विचार किया जाना भी प्रासंगिक होगा कि राज्यपाल पद की कितनी अहमियत है और उसकी कितनी आवश्यकता है। चूंकि देश के संविधान के अंतर्गत इस पद का सृजन किया गया है इसलिए इसके औचित्य को एकबारगी तो नहीं नकारा जा सकता, लेकिन राज्यपाल संस्था के इतिहास तथा वर्तमान परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में इस पर पुनर्विचार करना शायद ठीक होगा। यह एक तकनीकी व औपचारिक सच्चाई है कि राज्यपाल राष्ट्रपति का प्रतिनिधि होता है और वह केन्द्र व राज्य के बीच संपर्क सेतु का काम करता है। उसे प्रोटोकाल में प्रदेश में सबसे ऊंचा ओहदा हासिल है तथा मुख्यमंत्री, मंत्रिमंडल व मुख्य न्यायाधीश की शपथ ग्रहण जैसी गरिमामय औपचारिकताएं उसके ही द्वारा संपन्न होती है। लेकिन व्यवहारिकता में देखें तो राज्यपाल का सीधा सामना केन्द्रीय गृहमंत्रालय से पड़ता है। यह उसके दायित्वों में शामिल है कि प्रदेश की स्थिति पर वह हर माह गृहमंत्रालय को अपनी रिपोर्ट भेजे।

राज्यपाल प्रदेश के विश्वविद्यालयों का कुलाधिपति भी होता है एवं अनुच्छेद-5 और 6 वाले राज्यों में उसे कुछ विशेषाधिकार भी हासिल हैं, लेकिन यहां भी व्यावहारिक परिस्थितियां उसे अपने अधिकारों का पूर्ण उपयोग करने से रोकती हैं। कुलाधिपति होने के नाते वह कुलपतियों की नियुक्ति करता है, लेकिन व्यवहारिकता का तकाजा है कि वह इस बारे में मुख्यमंत्री की इच्छा की अनदेखी न करे अन्यथा अनावश्यक कटुता तथा आरोप-प्रत्यारोप की स्थिति बनते देर नहीं लगती। जहां अनुच्छेद-5 लागू है वहां आदिवासी इलाकों का प्रशासन वह सीधा अपने हाथ में ले सकता है, लेकिन वास्तविकता में यह संभव नहीं है। एक मनोनीत राज्यपाल प्रदेश की निर्वाचित सरकार के निर्णयों में आखिर हस्तक्षेप करे भी तो किस हद तक? वह जो अपना मासिक प्रतिवेदन बराए दस्तूर केन्द्रीय गृहमंत्रालय को भेजता है उसका भी हश्र क्या होता है?

हमारी समझ में तो यही आता है कि संविधान की औपचारिक व्यवस्था जो भी हो, जिस तरह से देश का कामकाज संभालने की जिम्मेदारी मुख्यत: प्रधानमंत्री की होती है वैसे ही प्रदेश में मुख्यमंत्री की। केन्द्र में राष्ट्रपति के पास गो कि ऐसे अधिकार हैं जो राजकाज संतुलन स्थापित करने के लिए आवश्यक हैं। इसके अलावा राष्ट्रपति अप्रत्यक्ष प्रणाली से ही सही, जनता के द्वारा चुना जाता है। इसके बरक्स राज्यपाल एक मनोनीत पदधारी होता है तथा इस पद पर नियुक्ति में अक्सर राजनीतिक अनुग्रह का भाव छुपा होता है। इसके चलते पिछले तीस-चालीस साल में हमने देखा है कि राज्यपाल किस तरह से केन्द्र सरकार के संकेतों पर काम करने में कोई संकोच नहीं बरतते, फिर भले ही उनका ऐसा करना संविधान सम्मत न हो।

इन तथ्यों के बावजूद राज्यपाल प्रदेश में प्रथम नागरिक के रूप में महती भूमिका निभा सकता है। वह प्रदेश सरकार के लिए मार्गदर्शक सिद्ध हो सकता है एवं विषम परिस्थितियों में सामंजस्य और संतुलन स्थापित करने में भी खासी भूमिका निभा सकता है, किन्तु यह अपेक्षा ऐसे व्यक्ति से ही की जा सकती है जिसके चयन को लेकर किसी भी पक्ष से कोई आपत्ति न उठे। ऐसा व्यक्ति अपने संवैधानिक ज्ञान, राजनैतिक अनुभव व चारित्रिक गुणों के आधार पर सर्वस्वीकार्य होना चाहिए।  प्रारंभ में ऐसे व्यक्तियों की कोई कमी नहीं थी क्योंकि उनको चुनने वाले भी राजेन्द्र प्रसाद, राधाकृष्णन और जवाहरलाल नेहरू जैसे व्यक्ति थे। कमी तो आज भी नहीं है। देखना यही होगा कि क्या नरेन्द्र मोदी अपनी ही पार्टी से ऐसे लोगों को मनोनीत करेंगे जिनका सम्मान पार्टी के बाहर भी हो! आज अगर सोली सोराबजी या कैलाश जोशी जैसे व्यक्ति राज्यपाल बनाए जाते तो उनका स्वागत ही होगा, यदि दोयम दर्जे के सेवानिवृत्त अफसरों और विवादास्पद राजनेताओं को इस पद पर बैठाया जाता है तो इससे मोदीजी की प्रतिष्ठा नहीं बढ़ेगी।
देशबन्धु में 10 जुलाई 2014 को प्रकाशित

Saturday 5 July 2014

पत्रकार अच्छे लगते हैं

 

विज्ञापन की दुनिया में विचरने वाली
सुघड़ गृहणियों को
दाग अच्छे लगते हैं  जिस तरह,
उसी तरह कुछ-कुछ,
इस दुनिया के कितने ही वासियों को
पत्रकार अच्छे लगते हैं।
मसलन फरियादियों को-
न्याय की आस में बरसों-बरस भटकते
इस-उस ड्यौढ़ी पर मत्था टेकते
जहां-तहां  दरवाजे पर दस्तक देते
प्रहरी की घुड़कियों से बचते
भव्य गेट के आजू-बाजू कहीं
डरते-सहमते, प्रतीक्षा करते
फरियादी, फिर एक दिन
राष्ट्रपति से लेकर कलैक्टर तक
प्रार्थना पत्र, निवेदन,आवेदन,
ज्ञापन पटाते
जिसकी अंतिम प्रति पाने वाला
होता है कोई पत्रकार ही.
फरियादी को पत्रकार अच्छे लगते हैं

मसलन नगर-सेठ को-
(भले ही संज्ञा पुरानी पड़ गई हो)
चंदे की आस में जिसे बुलाया है
किसी कीड़ा प्रतियोगिता में
मैच का शुभारम्भ करने,
गणतंत्र दिवस पर विद्यालय में
झंडा फहराने,
नाटक में दीपक प्रज्जवलित करने
या फिर
सेवाभावी क्लब में कैलिपर, ट्राईसिकल,
चश्मे के फ्रेम बाँटने,
हर जगह उसे मौके के मुताबिक
दो  शब्द व्यक्त करना है,
ऐसी ही किसी पूर्व संध्या में
भाषण तैयार कर सके जो,
नगर के किसी अखबार का
संवाददाता उसे
याद आता है।
नगर- सेठ को पत्रकार अच्छे लगते हैं।

मसलन कारपोरेट प्रभु को-
सिर्फ वही है  अमल-विमल-निर्र्मल,
कीचड़ में कमल, पूंजी के बाजार  में,
सिर्फ उसके ही पास है हिकमत
सिर्फ  वही है बुद्धिमान और उद्यमशील
कुबेर उसकी कोठी का दरबान और
लक्ष्मी की अनंत-असीम कृपा उस पर,
उसकी भौंहों के इंगित पर चलती है
राजनीति और देश की सरकार,
वह जो सोचता और करता है
उसी में देश का, समाज का हित है,
और यह सीधी-सच्ची बात
अनपढ़ अज्ञानी जनता तक
पहुंचना चाहिए
संपादकों को शेयर अलॉट करना हुई पुरानी बात,
आधा-अधूरा उपकार,
अखबार की स्याही अब उसकी ही है और
सूत्रधार-उद्घोषक की जिव्हा पर भी,
अब वही विराजता है।
कारपोरेट प्रभु को पत्रकार अच्छे लगते हैं।

मसलन राजनेताओं को-
सबके अपने-अपने बड़े या छोटे दायरे
सबका अपना-अपना
स्वभाव और इतिहास
किसी के पास पूंजी की ताकत,
किसी के पास भुजाओं की,
पिस्तौल-रिवाल्वर की
कोई टाटपट्टी बेचने वाला,
कोई मछलीमार,                  
किसी की छपाई मशीन,
कोई अनाज कारोबारी,
कोई जिस पर
एक ही शब्द फबता है-गुंडा।
सबके सब दौड़ में शामिल-
डॉक्टर, वकील, अध्यापक,
प्रोफेसर भी- पीछे नहीं,
वक्तव्यों की व्यायामशाला में वर्जिश कर
सब पेपर टाइगर बन आगे की जुगाड़ में,
हर मोड़ पर काम आते हैं पत्रकार-
लिफाफे से खुश,
दीवाली पर मिठाई से खुश,
•जमीन का टुकड़ा मिले तो
और ज्यादा खुश
फिर कुछ आगे चलकर बेकाम,
कुछ साथ-साथ आगे तक चलते
ऐंठ से तनी गर्दन,
नेता से मित्र होने का दावा।
राजनेताओं को पत्रकार अच्छे लगते हैं।

जो भले ही उपरोक्त में
कोई भी न हों, और जो
खुद को शुमार करते हों
आम आदमी की सूची में,
फिर भी गर
पत्रकार से परिचय है जिनका
वे अपने-आप खास हो उठते हैं,
बहुत काम आती है पत्रकारों  से दोस्ती-
कभी अस्पताल में तो कभी स्कूल में,
कभी ट्रैफिक पुलिस से हुज्जत करने में,
तो कभी तबादला करने या रुकवाने में,
और इन सबसे बढ़कर
दावत में, स्वागत-समारोह में
पत्रकार बंधु के शामिल होने से
जो होता है  रसूख में, इज्जत में इजाफा
उसका तो आनंद ही कुछ और ,
मंच पर पत्रकार चमकते हैं
विजेता को हासिल ट्रॉफी की तरह,
इस तरह
आम से जो खास हुए,
उन्हें भी पत्रकार अच्छे लगते हैं।

किस्सा-कोताह कि कौन है
जिसे पत्रकार अच्छे नहीं लगते ?
जिसे भी जरुरत हो
उसको काम आते हैं पत्रकार
कम से कम यही है उनका दावा
कि दुनिया को उनकी ज़रुरत है,
शायद हो कि वे सही कह रहे हों,
वैसे ही जैसे शायद
विज्ञापन की गृहिणी भी
सच कह रही हो
तो किसी को दाग अच्छे लगते हैं
तो किसी को पत्रकार,
तब यह भी मानने में है क्या हर्ज कि
पत्रकार और चंद्रमा में नहीं कोई फर्क
चंद्रमा पर भी दाग और
उसका भी उजाला उधार का।

देशबन्धु में 6  जुलाई 2014 को प्रकाशित

Thursday 3 July 2014

नेता क्यों पढ़ें?




थोड़े दिन पहले एक ट्विटर वार्तालाप कुछ इस तरह हुआ-

ट्वीट- भाजपा मुख्यालय दिल्ली की पुस्तक दुकान में सरदार पटेल की जीवनी बिक रही है जबकि यह काम कांग्रेस को करना चाहिए था।
प्रतिक्रिया- आप गलत कह रही हैं। कांग्रेस मुख्यालय में तो पुस्तक दुकान है ही नहीं।
उत्तर- क्यों नहीं है, होना चाहिए थी।

इस वार्तालाप से पाठकों को यह तो पता चल ही गया है कि दिल्ली स्थित भाजपा मुख्यालय में पुस्तकों की दुकान है। यहां आने वाले कार्यकर्ता, टिकिटार्थी या अन्य अतिथि किताबें देखते तो होंगे ही, भले ही खरीदते न हों। मुझे यह बात अच्छी लगी। हमारे देश में ऐसे बहुत से स्थान हैं जहां विभिन्न प्रयोजनों से बड़ी संख्या में लोगों का आना-जाना लगा रहता है। यदि आप ऐतिहासिक स्थल या संग्रहालय में जाएं तो वहां आपको पुरानी मूर्तियों व कलाकृतियों की अनुकृतियां मिल जाएंगी। पिक्चर पोस्टकार्ड और की-रिंग वगैरह भी मिल जाएंगे, लेकिन पुस्तकें अमूमन यहां नहीं मिलतीं। अगर कहीं पुस्तक कोना है भी तो वह सामान्यत: उपेक्षित ही मिलेगा।

देश में धार्मिक श्रद्धा के जो केन्द्र हैं वहां भी कुल मिलाकर ऐसी ही स्थिति है। मंदिर के बाहर कतार से दुकानें सजती हैं उनमें पूजा सामग्री, माला, मनके, देवी-देवताओं के चित्र, कलश, कमंडल इत्यादि मिल जाएंगे, लेकिन किताबें शायद ही मिलेंगी। रामचरित मानस का गुटका या हनुमान चालीसा भले ही मिल जाए, लेकिन यदि उस स्थान विशेष के बारे में प्रामाणिक जानकारी देने वाली कोई संदर्भ पुस्तिका आप ढूंढना चाहें तो निराशा ही हाथ लगेगी। ज्ञानार्जन के प्रति अवज्ञा का जो भाव समाज में है शायद यह उसी का प्रतिफल है। इसका अपवाद अगर देखना है तो आधुनिक समय में तथाकथित संत महात्माओं के जो आश्रम स्थापित हुए हैं वहीं देखने मिलेगा। इन स्थानों पर आकर्षक तरीके से सजी दुकानों में उतने ही आकर्षक ढंग से छपी पुस्तकें उपलब्ध हो जाती हैं। कह सकते हैं कि पुराने तीर्थों की बजाय नए आस्था केन्द्रों का प्रचारतंत्र बेहतर है और ये अपनी मार्केटिंग के लिए पुस्तकों का भी बखूबी इस्तेमाल कर लेते हैं।

खैर! हमने अपनी बात भारतीय जनता पार्टी के संदर्भ में उठाई थी। भाजपा के अलावा दोनों प्रमुख वामपंथी दल इस बारे में काफी सजग हैं। दिल्ली में आप यदि भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के मुख्यालय जाएं तो वहां साम्यवाद और उससे जुड़े आंदोलनों  इत्यादि पर पुस्तकें मिल जाएंगी। इस दृष्टि से कांगे्रस की स्थिति चिंतनीय है। यदि देश की राजधानी में स्थित उनके मुख्यालय में पुस्तक बिक्री की व्यवस्था नहीं है तो राज्यों अथवा जिलों में स्थित कार्यालयों में ऐसा कोई इंतजाम होगा इसकी कल्पना करना ही बेकार है। कांग्रेस पार्टी ने इस बारे में आज तक कभी कोई विचार किया या नहीं, कहा नहीं जा सकता। लेकिन इस वक्त जब पार्टी के कर्णधारों के पास सोचने-विचारने के लिए कुछ वक्त है तब शायद इस ओर ध्यान देना अच्छा होगा।

भारतीय जनता पार्टी की दुकान पर सरदार पटेल की जीवनी बिक्री के लिए रखी गई है तो इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है। भाजपा प्रधानमंत्री तो सरदार की ऐसी प्रतिमा स्थापित करना चाहते हैं जो विश्व में सबसे ऊंची हो। इस पुस्तक विक्रय केन्द्र में स्वामी विवेकानंद की पुस्तकें भी अवश्य होंगी, जिन्हें भाजपा ने बड़ी खूबसूरती से अपना आदर्श घोषित कर रखा है। भाजपा के जो अन्य प्रेरणा पुरुष हैं उनके लिखित ग्रंथ भी यहां होंगे। फिर शायद अटल बिहारी वाजपेयी के कविता संग्रह भी। साथ ही लालकृष्ण अडवानी, जसवंत सिंह की आत्मकथाएं भी शायद उपलब्ध होंगी। इनके बरक्स कांग्रेस को देखें तो एक सौ पच्चीस साल के इतिहास में कांग्रेसजनों ने जितना लिखा है उसकी कोई थाह ही नहीं है। अगर वे चाहें तो भाजपा से चौगुनी बड़ी दुकान चला सकते हैं। बशर्ते कांग्रेसजनों में किताबें खरीदने और पढऩे की तमीज हो!

मैं पिछले सप्ताह ही न्यायमूर्ति मार्कण्डेय काटजू द्वारा फेसबुक पर जारी की गई एक सूची देख रहा था। इसमें उन्होंने युवाओं को पढऩे के लिए विश्व साहित्य की लगभग सौ किताबें तजवीज़ की थीं। इसी अंदाज में कोई पढ़ा-लिखा कांग्रेसी उन पुस्तकों की सूची तैयार कर सकता है, जो कांग्रेस की पुस्तक दुकान में उपलब्ध हो। उनमें आर.सी. दत्त, दादाभाई नौरोजी से लेकर हाल-हाल में लिखी शशि थरूर द्वारा तक लिखी गई पुस्तकें शामिल हो सकती हैं। यह तो हम जानते ही हैं कि कांग्रेस के दो सबसे बड़े नेता याने महात्मा गांधी और उनके वारिस जवाहरलाल नेहरू ने जितना प्रचुर लेखन किया है उतना विश्व के किसी अन्य राजनेता ने नहीं। लोकमान्य तिलक, लाला लाजपतराय इत्यादि महान नेताओं ने अपने समय में बहुमूल्य लेखन किया। तिलक महाराज ने एक तरफ 'गीता रहस्यÓ लिखी तो दूसरी ओर 'आर्कटिक होम ऑफ वेदाज़'। लालाजी ने अमेरिकी पत्रकार कैथरीन मेयो की भारत विरोधी पुस्तक 'मदर इंडिया' का बखूबी जवाब दिया था।

कांग्रेस कार्यालय में यदि किसी दिन पुस्तक बिक्री की व्यवस्था हो तो वहां रवीन्द्रनाथ ठाकुर की किताबें रखी जा सकती हैं और विनोबा भावे की। कांग्रेसियों को शायद कभी यह भी याद आ जाए कि महान उपन्यासकार शरतचन्द्र कभी कलकत्ता जिला कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष हुआ करते थे। मध्यप्रदेश-छत्तीसगढ़ की बात करें तो शुक्ल अभिनंदन ग्रंथ, द्वारिका प्रसाद मिश्र व अर्जुन सिंह की आत्मकथाएं, भवानी प्रसाद तिवारी द्वारा किया गया गीतांजलि का अनुवाद और न जाने ऐसी कितनी पुस्तकें ध्यान आ सकती हैं। गांधी, नेहरू, इंदिरा पर जो पुस्तकें लिखी गईं उनकी भी संख्या विशाल है। चक्रवर्ती राजगोपालाचारी, काका कालेलकर, दादा धर्माधिकारी व साने गुरुजी की पुस्तकें भी इस सूची में होना चाहिए। पट्टाभि सीतारम्मैया तथा आगे चलकर बी.एन. पाण्डे ने कांग्रेस का जो इतिहास लिखा, उसे भी पता नहीं कि कितने कांग्रेसियों ने पढ़ा होगा!

मैं स्वयं पुस्तकें बहुत पढ़ता हूं। एक पाठक ने तो मुझे ''पुस्तक कीट' की उपाधि दी है। इसके चलते मैं अक्सर एक बेवकूफी का काम करता हूं कि अपने से मिलने-जुलने वालों को मौके-बेमौके पुस्तक पढऩे की सलाह दे देता हूं। ज्यादातर लोग सुनी-अनसुनी कर देते हैं। चिकनी मिट्टी के घड़े पर से पानी फिसल जाता है। यह बिन मांगी सलाह मैंने उन कांग्रेसियों को भी दी जो यहां-वहां टकरा जाते हैं। आपातकाल के प्रारंभिक दिनों में छत्तीसगढ़ के एक प्रमुख कांग्रेस नेता के परामर्श मांगने पर मैंने उन्हें कहा था कि कांग्रेसजनों को महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू- इन दो का लिखा हुआ तो अवश्य ही पढऩा चाहिए। इसी तरह मेरे एक परिचित युवा जब पहली बार विधायक बने तो मैंने उनसे कहा कि वे अगर इनको पढ़ लेंगे तो विधानसभा में बेहतर ढंग से अपनी बात रखने में उन्हें मदद मिलेगी। जाहिर था कि उन्हें यह सलाह व्यर्थ मालूम पड़ती।

दरअसल यहां कांग्रेस अथवा भाजपा की बात नहीं है। मैं इसे एक बड़े कैनवास पर देखने की कोशिश कर रहा था। मुझे याद है कि सन् 2004 विधानसभा चुनाव के उपरांत समकालीन समाचारपत्र ''नवभारत' ने नवनिर्वाचित विधायकों से साक्षात्कारों की श्रृंखला प्रकाशित की थी। उसमें एक सवाल था कि आप क्या पढ़ते हैं? भाजपा के अधिकतर विधायकों का जवाब था कि वे गीता और रामायण पढ़ते हैं। जबकि कुछ कांग्रेसियों ने याददाश्त पर जोर डालकर शायद प्रेमचन्द का नाम लिया था। मुझे इनके जवाब सुनकर हैरानी से ज्यादा दुख हुआ था। आपको जनता ने विधानसभा में चुनकर इसलिए भेजा है कि आप वहां देश के संविधान व अपनी पार्टी की रीति-नीति के अनुसार लोकमहत्व के मुद्दों पर बात रख सकें जिसके आधार पर भावी विकास के लिए निर्णय लिए जा सकें। इसकी तैयारी आप कैसे करेंगे?

मैं अपनी चिंता को स्मृति ईरानी की शैक्षणिक योग्यता पर उठे अनावश्यक विवाद से जोड़कर भी देखता हूं। मैं जितना समझता हूं सुश्री ईरानी ने अध्यवसाय के द्वारा अपनी शैक्षणिक योग्यता की कमी को सफलतापूर्वक दूर किया है। जो भी व्यक्ति राजनीति में सक्रिय है उसके लिए यह आवश्यक होना चाहिए कि उसने पढ़ाई चाहे कितनी भी की हो, विश्व परिदृश्य, भारत की लोकशाही और देश के संविधान के समझने में जिन पुस्तकों से मदद मिल सकती है उन्हें वे अवश्य पढ़ें। भाजपा मुख्यालय में पुस्तक बिक्री इस कमी को दूर करने का एक प्रयत्न है। कांग्रेसियों को भी इस पर विचार करना ही चाहिए। मेरा तो कहना है कि हर राजनीतिक कार्यकर्ता के घर में अपनी रुचि की पुस्तकें अलमारी में बंद नहीं, बल्कि बैठक वाले कमरे में या ड्राइंगरूम में रखी होना चाहिए ताकि मुलाकाती भी उन किताबों को पढ़ें नहीं, तो उलट पुलट कर देख तो लें।
देशबन्धु में 03 जुलाई 2014  प्रकाशित