Sunday 30 August 2020

कविता 1) स्वाति जल 2) दोस्ती

 स्वाति जल


अफसर के आने का

इंतज़ार है लोगों को,

उमस भरे दिन में 

ठंडी बयार का,


अफसर की तरह

इतराई हुई है शाम,

दिवस की तरह

कुम्हलाए हुए हैं लोग,


अफसर की तरह

खिले हुए हैं फूल,

पत्तियों की तरह

बिछे हुए हैं लोग, 


अफसर की तरह 

अफसर के लिए 

सजी हुई हैं टेबलें,

जूठन की तरह

जूठन के लिए 

गिरे पड़े हैं लोग, 


चल चुके हैं अफसर

आते ही होंगे, 

पानी के टैंकर पर

टूटेगी भीड़,

हर चातक को मिलेगा 

दो बूंद स्वाति जल, 


क्षुद्र जीवन में भला

और क्या चाहिए?


13-06-2000


दोस्ती


उन्होने बताया कि

फलाँ-फलाँ अफ़सर से

उनकी गाढ़ी दोस्ती है,


वे फलाँ-फलाँ वक्त मेंं

यहाँ हुआ करते थे,

और अब भी जहाँ हैं

मेल-मुलाकात

पहिले जैसी ही है,


अफसरों की दोस्ती में

बहुत से आराम हैं,

बहुत सा आनंद,

अफसरों को भी

दोस्तों को भी,


दोस्ती के बहुत से

किस्से उनके पास थे,

कुछ बतकही में

खास लोगों के लिए,

कुछ लिखे हुए संस्मरण

बचे लोगों के लिए,


जिन्होने पढ़े-सुने वे किस्से

उनमें से कुछ को

अपनी नाकाबिलियत पर

शर्म आई,

कुछ को

दोस्तों की किस्मत से

रश्क हुआ,

कछ ने कहा

नसीब वालों को 

होती है नसीब

अफसरों की दोस्ती,

ज्य़ादातर के लिए थीं

ये सारी बातें

चंबल के बीहड़ों की तरह

अगम्य और अबोध्य,


इन्हीं में से किसी ने

अपने क्षुद्र जीवन पर

तरस खा सोचा-

काश! उसे

चंबल के डाकू ही

साथ ले जाते।


15.06.2000

Thursday 27 August 2020

देशबन्धु: चौथा खंभा बनने से इंकार- 12

 


सन् 1971 में पांचवी लोकसभा के लिए चुनाव संपन्न हुए। सामान्य तौर पर पांच साल बाद अर्थात 1976 में नए चुनाव होते। इस बीच आपातकाल लग चुका था और इंदिरा गांधी ने एकतरफा निर्णय लेते हुए लोकसभा की अवधि एक साल के लिए बढ़ा दी थी। इस अलोकतांत्रिक कदम का विरोध पक्ष-विपक्ष के किसी भी सदस्य ने नहीं किया, सिवाय दो अपवादों के। पहला अपवाद अनुभवी सांसद मधु लिमये थे, जिनका अनुकरण मात्र एक साल पहले उपचुनाव में जीतकर आए शरद यादव ने किया। उनका सीधा तर्क था कि जिस अवधि के लिए चुना गया है, उसके आगे पद पर बने रहने का उन्हें कोई अधिकार नहीं है। शरद यादव ने अपने संसदीय जीवन की शुरुआत में ही जिस नैतिक साहस का परिचय दिया, उसका पालन, जितना मैंने समझा है, वे अब तक कर रहे हैं। मैं अगर तुलना करना चाहूं तो ऐसे नैतिक साहस का परिचय सोनिया गांधी ने दिया था, जब लाभ का पद वाले मामले में उन्होंने लोकसभा से त्यागपत्र देने में एक दिन का भी विलंब नहीं किया और उपचुनाव में जीतकर दोबारा लोकसभा लौटीं। जबकि लोकसभा के तत्कालीन अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी जैसे व्यक्ति भी इस अवसर पर डगमगा गए थे।

शरद यादव में एक अनोखे किस्म का अक्खड़पन है, जिसे मैं उनकी छात्र राजनीति के दिनों से देखते आया हूं। पीवी नरसिंह राव के शासनकाल में हवाला प्रकरण जोर-शोर से उठा। उसमें बड़े-बड़े लोगों के नाम उछले, जो येन-केन प्रकारेण अपना बचाव करते नजर आए; तब शरद यादव राष्ट्रीय स्तर के एकमात्र ऐसे नेता थे, जिन्होंने खुलकर कहा कि हां, मैंने चंदा लिया था, राजनीति में हम लोगों को चंदा लेना ही होता है। एक तरफ लालकृष्ण आडवानी आदि थे, जो अपने बचाव के रास्ते ढूंढ रहे थे और दूसरी तरफ शरद की यह स्वीकारोक्ति जो उनकी चारित्रिक बुनावट को समझने में मदद करती है। यह भी उनका अक्खड़पन या अनोखापन है कि शरद यादव ने आज तक विदेश यात्रा नहीं की है। एक बार प्रधानमंत्री के निर्देश पर उन्हें चीन जाना पड़ा तो यात्रा बीच में ही स्थगित कर उन्हें लौटना पड़ गया।

शरद यादव के पिता कभी मध्यप्रदेश के होशंगाबाद में जिला कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष हुआ करते थे। लेकिन शरद को राजनीति विरासत में नहीं मिली। वे जिस मुकाम पर हैं, वहां तक पहुंचने की राह उन्होंने स्वयं बनाई है। एक समय जबलपुर को मध्यप्रदेश की सांस्कृतिक-शैक्षणिक राजधानी का दर्जा प्राप्त था। मध्यप्रदेश, महाकौशल और भोपाल अंचल के अधिकतर छात्र वहां पढ़ने आते थे। शरद ने वहीं से एक छात्रनेता के रूप में अपने राजनैतिक सफर की शुरुआत की। 1964 में समाजवादी पार्टी ने अपने युवा संगठन समाजवादी युवजन सभा की बुनियाद रखी थी। जिसके पहले अध्यक्ष प्रखर चिंतक किशन पटनायक थे।

शरद और उनके अनेक साथी युवजन सभा से तभी जुड़ गए थे तथा छात्र हितों के लिए आंदोलन करते हुए उन्होंने अपनी अलग पहचान बना ली थी। मैं तब तक रायपुर आ चुका था। लेकिन जब शरद युवजन सभा का गठन करने रायपुर आए तो वैचारिक मतभेदों के बावजूद युवजन सभा की रायपुर इकाई के गठन में मुझे मैत्रीधर्म का निर्वाह करना पड़ा। रमेश वर्ल्यानी ने 1977 में जब विधानसभा का पहला चुनाव लड़ा, तब अपने परिचय में उन्होंने लिखा था- ललित सुरजन की प्रेरणा से राजनीति में आया। खैर, यह विषयांतर हो गया। शरद यादव को छात्र राजनीति से राष्ट्रीय राजनीति में आने के लिए ऊंची छलांग लगाने का मौका तब मिला, जब सेठ गोविंददास के निधन से जबलपुर लोकसभा सीट रिक्त हुई और उपचुनाव में कांग्रेस उम्मीदवार रविमोहन के खिलाफ शरद यादव को संयुक्त विपक्ष का उम्मीदवार बनाया गया। शरद ने अपेक्षा के अनुरूप शानदार जीत दर्ज की। तब से अब तक उन्हें राष्ट्रीय रंगमंच पर आए 45 साल से अधिक हो चुके हैं।

यह राजनीति की विडंबना मानी जाएगी कि जिस शरद यादव को जबलपुर ने सिर माथे बिठाया था, उसी जबलपुर ने 1980 के लोकसभा चुनाव में उन्हें नकार दिया। 1977 में देश के मतदाता ने बड़ी उम्मीदों के साथ जनता पार्टी को अपना समर्थन दिया था, लेकिन साल बीतते न बीतते स्वप्न भंग की स्थिति उत्पन्न हो चुकी थी। इंदिरा गांधी ने अपनी खोई प्रतिष्ठा और लोकप्रियता फिर से हासिल कर ली थी। इसका खामियाजा शरद यादव जैसे कई नेताओं को भुगतना पड़ा। मेरा मानना है कि शरद भाई को इस पराजय से दुखी होकर अपनी जमीन छोड़ना नहीं चाहिए थी। उनका मन जबलपुर से उचट गया और वे अपना घर छोड़ दिल्ली चौधरी चरणसिंह की शरण में चले गए। चौधरी साहब ने शरद यादव को नए सिरे से राजनीतिक आधार बनाने में मदद की। ऐसा लगने लगा कि चौधरी साहब के बाद देश में किसानों का अगर कोई नेता होगा तो वे शरद यादव ही होंगे। मेरा अपना अनुमान है कि शरद यदि जबलपुर अथवा होशंगाबाद में बने रहते तो वे ये सम्मान हासिल कर सकते थे।

सच कहें तो शरद यादव की चित्तवृत्ति एक खांटी किसान की है। वे जब कहते हैं कि एक जनम में तो पूरा भारत नहीं घूम सकते तो विदेश जाकर क्या करेंगे, तब उनकी इसी सोच का परिचय मिलता है। यही नहीं इस 2020 के साल में भी शरद यादव पारंपरिक भारतीय वेशभूषा यानी धोती कुर्ता को ही अपनाए हुए हैं। उनके अलावा आज भला और कौन सा ऐसा नेता है जो कोई भी अवसर क्यों न हो, धोती-कुर्ते में नजर आता है। यहां मेरा मन अनायास उनकी तुलना चंदूलाल चंद्राकर से करने का होता है। चंदूलालजी ने पत्रकार के रूप में सौ से अधिक देशों की यात्राएं कीं, लेकिन अंतर्मन से वे किसान ही थे। धोती-कुर्ता और सफर में टीन की एक पेटी के साथ आप उन्हें देख सकते थे। वे जब नागरिक उड्डयन मंत्री थे, तब भी चेक-इन के समय सामान्य यात्रियों की तरह कतार में खड़े होते थे। शरद यादव का यह किसान मन ही है जो उन्हें देश के वंचित समाज के साथ जोड़ता है।

पिछली सदी के अंतिम वर्षों में एक दौर वह भी था जब वे देश में ओबीसी के सबसे बड़े नेता माने जाते थे। सत्ता के गलियारों में चर्चा होती थी कि ऐसे कम से कम 43 लोकसभा सदस्य हैं जो शरद यादव के कहने पर अपना वोट देते हैं। मुझे पता नहीं कि इसमें कितना सच है, लेकिन लालूप्रसाद, नीतीश कुमार और ऐसे कुछ अन्य नेताओं से मेरी भेंट शरद यादव के घर में ही हुई है।

शरद यादव को मध्यप्रदेश ने लगभग भुला दिया है लेकिन जैसा कि मैंने ऊपर संकेत किया है कि इसमें कुछ दोष तो स्वयं उनका है। 1980 की हार से विचलित होना स्वाभाविक था, लेकिन इसे उन्हें खिलाड़ी भावना से लेना चाहिए था। यह उनकी क्षमता थी कि उत्तरप्रदेश और बिहार के लगभग अपरिचित इलाकों में जाकर भी वे चुनावी जीत दर्ज कर सके, लेकिन कोई पूर्वाधार न होने के कारण इन जगहों पर वे स्थायी ठौर नहीं बना पाए। दूसरी ओर शरद के जाने के बाद महाकौशल की राजनैतिक पहचान लगभग समाप्त हो चुकी है। कमलनाथ भले ही छिंदवाड़ा से 10 बार चुनाव जीत गए हों, लेकिन न वे महाकौशल को अपना बना सके और न ही महाकौशल ने उन्हें स्वीकार किया। जो अन्य सांसद-विधायक आदि हैं, वे सत्ता की राजनीति में मगन हैं और आम जनता के साथ कोई लेना-देना नहीं है।

शरद यादव ने राष्ट्रीय राजनीति में एक लंबी पारी खेली है। इस दरम्यान उन्होंने एकाधिक बार नैतिक साहस का परिचय दिया है और कहना होगा कि उनके बारे में आज तक किसी तरह का राजनैतिक प्रवाद खड़ा नहीं हुआ। उन्होंने समय-समय पर विभिन्न मंत्रालय संभाले। उनके काम को लेकर भी कभी कोई प्रतिकूल बात सुनने नहीं मिली। शरद यादव आज भी राष्ट्रीय मुद्दों पर अपनी राय बेबाकी से प्रकट करते हैं। वे सैद्धांतिक रूप से अपनी मूल पार्टी यानी कांग्रेस के काफी निकट आते प्रतीत होते हैं। उन्हें करीब से जानने वाले प्रतीक्षा कर रहे हैं कि सोनिया या राहुल गांधी इस मित्र एवं सहयोगी की राजनैतिक सूझबूझ का लाभ किस तरह उठाते हैं।

 (अगले सप्ताह जारी)

#देशबंधु में 27 अगस्त 2020 को प्रकाशित

Tuesday 25 August 2020

कविता: पक्षियों के अभयवन में

 


हिमप्रदेश में कहीं

किसी झील के किनारे

टूरिस्ट आफिस में

एक धुंधलाता पोस्टर है

चिलका,

जिसे देखते हुए

बूढ़े हंस अफ़सोस से

सिर हिलाते हैं;


सारसों के घर में

है एक अलबम जिसमें

हैं ढेर सारी तस्वीरें,

आखिरी बार कब गए थे

भरतपुर याद नहीं,

दुबारा नहीं जा पाए सारस

अपने बच्चों को

भरतपुर के

चित्र दिखाते हैं;


हंस और सारस और

उनके तमाम दोस्त

जानना चाहते हैं अब

किसी नई जगह का पता,

और रात-दिन के

शोर से बेहाल थकी

कुछ और सूख जाती है

नवाबगंज की झील;


हर अभयवन में अब

सिर्फ शिकारियों को है अभय,

शिकारियों की चालाकी को

समझते हैं चतुर बगुले,

और धान के खेतों के पास

किसी बूथ से खटखटाते हैं फोन

दोस्तों और रिश्तेदारों को

कि यहाँ माहौल अच्छा नहीं है;


बगुले अपने पेड़ों पर

लौट जाते हैं लेकिन

रेलवे लाइन के किनारे

बिजली के तार पर बैठे

नीलकंठ प्रतीक्षा करते हैं

सुदूर देश से

दोस्तों को लाने वाली

रेलगाड़ी का और

निराशा में डूब जाते हैं;


गांव के तालाब के पास

पेड़ पर अकेला रह जाता है

तोते का एक बच्चा

शाम के सूरज की परछाई

तालाब में निहारते हुए

नाराज़ माँ उसे

पकड़कर घर ले जाती है;


इसी समय

सूने कमरों, जर्जर दीवारों

सौ-सौ तालों वाले

बाड़े की खपरैली छत पर

आपस में बतियाता  है

एक कपोत युगल,

अरहर के पौधे

चोंच में दबा लाए थे

अरहर की कुछ फलियां

बीज बिखेरे

बाड़े की कच्ची ज़मीन पर

गिनती के बीजों से

उग आए गिनती के पौधे

उठ आए छत तक पहुंचे

हलद-सिंदूरी फूलों से

फूले, फलियों के भार से झुके


बहुत खुश नज़र आते हैं

दोनों कबूतर और

देखते हैं चारों तरफ

क्या है कहीं आसपास

संदेसा ले जाने  वाला कबूतर

खबर कर दे सब तरफ

सारे दोस्तों और सब अपनों को

खतरों के बीच अब भी

कहीं-कहीं फूल खिलते हैं


14.02.1998

Saturday 22 August 2020

कविता 1) क्राॅसिंग पर रुकी रेलगाड़ी 2) अंधेरनगरी

 क्राॅसिंग पर रुकी रेलगााड़ी


बीसवीं सदी का
प्लेटफाॅर्म है,
बीसवीं सदी की हैं
रेल की पटरियाँ,
रेलवे क्राॅसिंग भी है
इसी सदी का

क्राॅसिंग पर रेलमपेल है,
एक दिशा से
दूसरी दिशा में उड़ते हुए,
सबके सब
उतरना चाहते हैं,
इक्कीसवीं सदी में 
जमीन पर
प्रकाश की गति से,

बहुत देर से
क्राॅसिंग पर रुके हुए लोग
बहुत देर तक
किसी इतिहास में
सो रहे थे,
बहुत देर तक
वर्तमान में रुके हुए
ऊब चुुके थे,

वर्तमान को छोड़ 
उडऩा चाहते हैं
सब के सब
एक दूसरे से
होड़ लेते हुए, तब
क्राॅसिंग पार करने की
कोशिश में 
रुकी हुई है
रेल की पांतों पर
बीसवीं सदी की रेलगाड़ी,

रेल में सवार लोग
इक्कीसवीं सदी में
पहुंचने के पहिले
पहुंचना चाहते हैें
अपने घर या 
अपने काम पर,
होड़ से हारी हुई
रेलगाड़ी
बीसवीं सदी के
प्लेटफार्म पर
उलटे पैर लौट आती है।

08.03.1999

अंधेरनगरी

अजायबघर में
बैठे हुए वे सब,
बीसवीं सदी के अंत में
अंधेरनगरी पर
चिंता कर रहे थे

तभी धीरे से बजी
किसी जेब में
सैलफोन की घंटी,
और एक चिंतक
बाहर निकल कर 
सीधे इक्कीसवीं सदी में
दाख़़ि़ल हो गया

उन्नीसवीं सदी के अंत में
जितनी सच थी
अंधेरनगरी,
उतनी ही सच है
इस सदी के अंत में

और इसमें
अजीब कुछ भी नहीं है
कि चिंता करने वाले
इकट्ठे थे अजायबघर में

वे कोई और हैं
जिनके बेतार के तार
पीढ़ी-दर-पीढ़ी
ले आते हैं जिनके लिए
उजाले की खबर।

1.04.1999

कविता: एक नया बसंत

 


यह झरती पत्तियों पर
आहिस्ता कदम रखते हुए
बसंत शायद फिर आ गया है
और लाया है साथ में वही दर्शन
हाँ, वही सज्जा अलबेली
वही मनचीता अंकन।

खिल उठी है धूप फिर से
फिर किरणें बिलम गयीं झुरमुटों में
फागुनी वातास का रंगचक्र
फिर भरमाने लगा हर पंक्ति को

यह पलाश मन फिर सुलगता-सा
या बहता तन रेशमी हवाओं में
फिर वही वनश्री के अलस गान
और बीते गीत-सा यह पतझर

सह कुछ वही है: उभरते से
वही सारे भाव : वही सारी मुद्राएँ

लेकिन जो नया है: वह शायद यही
कि अब की बार मैंने बसंत को
जी भर पिया है : सिर्फ देखा नहीं ।

1969


देशबन्धु: चौथा खंभा बनने से इंकार- 11

 

 विद्याचरण शुक्ल या वी.सी. के बारे में लिखते हुए बहुत से प्रसंग एक के बाद स्मृति पटल पर उभरते आ रहे हैं जैसे किसी फिल्म की रील चल रही हो। 1980 में अर्जुन सिंह के मुख्यमंत्री बनने के बाद की एक घटना है। मित्र प्रकाशन की अंग्रेजी पत्रिका 'द प्रोब' की एक रिपोर्टर रायपुर दौरे पर आईं। उन्होंने अन्य बातों के अलावा बाबूजी से शुक्ल बंधुओं के बारे में भी चर्चा की। इसमें कहीं बाबूजी ने कहा- 'श्यामाचरण इज मोर ह्यूमेन' अर्थात श्यामाचरण अधिक उदार या संवेदनशील हैं। कुछ दिन बाद प्रतिष्ठित नागरिक व कांग्रेस के निष्ठावान कार्यकर्ता रतिलाल भाई शाह के निवास पर वी.सी. के सम्मान में दोपहर का भोज था। मैं भी आमंत्रित था। शुक्ल जी ने मुझे देखते साथ तंज कसा- तो मायाराम जी हमें मनुष्य नहीं मानते! मैंने तत्काल प्रतिवाद किया- उन्होंने जो कुछ कहा, आपके बारे में कुछ नहीं, बल्कि  श्यामाचरण जी के बारे में कहा है। और उसका वह अर्थ नहीं है जो आप निकाल रहे हैं। कहने का मतलब यह कि श्री शुक्ल छोटी-छोटी बातों का भी जल्दी बुरा मान जाते थे। उनकी मन की न हुई तो वे प्रतिशोध की भावना से भी कदम उठा लेते थे। अर्जुन सिंह के मुख्यमंत्री बनने के बाद प्रथम धमतरी आगमन पर शुक्ल समर्थकों ने सड़क पर जो हंगामा किया, वह इसी मनोभाव का उदाहरण है। भोपाल के कांग्रेस नेता अजीज कुरैशी को रायपुर स्टेशन पर उनके समर्थकों द्वारा जूतों की माला पहनाना ऐसी एक और घटना थी।

दूसरी ओर, अपने भक्तों, समर्थकों, चमचों या कृपापात्रों के लिए वे किसी भी सीमा तक जा सकते थे। रायपुर का एक कुख्यात गुंडा फरार चल रहा था। शायद हो कि उनके ही संरक्षण में छुपा हो! सरबजीत सिंह जिला पुलिस अधीक्षक यानी कि एसपी थे। वी.सी. दिल्ली से रायपुर आए। कलेक्टर, एसपी, उनकी अगवानी के लिए विमानतल पर मौजूद थे। वह गुंडा भी कहीं से प्रकट हुआ। 'भैया' को माला पहनाने आगे बढ़ा। तभी शुक्ल जी ने सबको सुनाते हुए कहा- एसपी साहब, यह रहा आपका अपराधी। सारे उपस्थित लोग सुनकर अवाक रह गए। गुंडे को ऐसा संरक्षण! कानून की ऐसी अवज्ञा! इस मौके पर एसपी करते भी तो क्या करते? उन्होंने व्यथित हृदय से जल्दी ही रायपुर से अपना तबादला भोपाल करवा लिया। इसी रायपुर विमानतल पर एक और दृश्य हमने देखा जब उनके कृपापात्र नवनियुक्त कुलपति रामकुमार पांडे ने सबके सामने उनके चरणस्पर्श किए। पुराने लोगों को याद आया कि द्वारिका प्रसाद मिश्र के समय रायपुर के प्रथम कुलपति डॉ बाबूराम सक्सेना ने सीएम की अगवानी हेतु विमानतल जाने से इंकार कर दिया था। उन्हें कोई चर्चा करना होगी तो सर्किट हाउस बुला लेंगे।

विद्याचरण शुक्ल के दो-तीन हल्के-फुल्के प्रसंग भी याद आते हैं। एक बार दिल्ली में उन्होंने मुझसे पूछा- ललित! तुम नहीं सोचते कि मायाराम जी को पद्मश्री मिलना चाहिए। मैंने कहा- सोचना तो आपको है। लेकिन सोच रहे हों तो पद्मभूषण के बारे में सोचिए। पद्मश्री तो हास्य कवियों तक को मिल जाती है। राष्ट्रपति एस्टेट वाले बंगले में हुए इसी वार्तालाप में उन्होंने एक और झांसा दिया- तुम्हारा नाम मध्यप्रदेश की टेलीफोन उपभोक्ता सलाहकार समिति में भेजा है। किसी और का भी करना है? मैंने सहज रूप से अपने अनन्य मित्र प्रभाकर चौबे का नाम दे दिया। कुछ दिन बाद सूची आई तो दोनों नाम गायब थे। शुक्ल जी के फार्म हाउस से दूध डेयरी चलती थी। उनका मन हुआ कि बोतलबंद पानी की फैक्टरी डालना चाहिए। दूध भी दस रुपए लिटर, पानी की बोतल भी दस रुपए की। उनका तर्क सुन लिया। गनीमत कि इस विचार को उन्होंने आगे नहीं बढ़ाया। बंगलौर में उद्योगपति मित्र डॉ. रमेश बाहेती की बेटी के विवाह में एक बार हम मिले। वे अगली सुबह पुट्टपर्थी सत्यसाईं के दर्शन हेतु जा रहे थे। ऐसे लोगों से भी मिलना चाहिए। तुम भी चलो। उनका सोचना सही था। लेकिन मेरी कोई रुचि भगवान के कलियुगी अवतारों में नहीं रही है। उनके साथ न जाकर एक नए अनुभव से वंचित रह गया।

वी.सी. कभी-कभार हास्य बोध याने सेंस ऑफ ह्यूमर का खासा परिचय देते थे। किसी दिन रात्रिभोज में उन्होंने एक मज़ेदार बात की। हमारे वर्तमान प्रधानमंत्री कंधे पर 'गमोछा' लेकर चलते हैं। अपनी तरफ अंगोछा या गमछा न जाने कब से प्रचलित है। तो इसी गमछे को लेकर बात चल पड़ी। गमछा बहुत काम की चीज है। दौरे पर निकले हैं, गर्मी के दिन हैं, पसीना पोंछ लो। बरसात के दिन हैं, सिर भीगने से बचा लो और पानी भी पोंछ लो। ठंड के दिनों में सिर-कान ढांक लो। गांव जाते हैं तो अनेक बार ग्रामीण कार्यकर्ता चूल्हे पर चढ़ी चाय गमछे से पकड़ कर ही उतारते हैं, और उसी से छान भी लेते हैं। यहां तक तो ठीक था। क्लाइमेक्स अभी बाकी था। जुकाम से नाक बह रही हो तो उसी गमछे से नाक सुड़क लो। और उसी से छनी चाय हो तो पीने से मना नहीं कर सकते। कार्यकर्ता का दिल कैसे दुखाएं! यह वर्णन सुन हंसते- हंसते दम फूल गया।

सन् 2000 के प्रारंभ में ही तय हो गया कि मध्यप्रदेश का विघटन होकर छत्तीसगढ़ एक नया प्रदेश बनने जा रहा है। देशबन्धु की सहज रुझान उस समय अजीत जोगी के साथ थी। वे हमउम्र थे। मित्रवत संबंध काफी पुराने थे। हमने मध्यप्रदेश के दिग्विजयी राज में बहुत कष्ट उठाए थे और वही आशंका विद्याचरण जी के मुख्यमंत्री बन जाने पर मेरे मन में थी। ये दोनों ही प्रमुख दावेदार थे। शुक्ल जी के बुलावे पर जुलाई में किसी दिन राधेश्याम भवन अर्थात फार्म हाउस गया। बहुत लंबी चर्चा चली। दो घंटे से ऊपर। आप बूढ़ापारा छोड़ यहां रहते हैं। कार्यकर्ताओं को मिलने आने में तकलीफ होती है। पैसा भी लगता है। जवाब मिला- हमें भी आराम की जरूरत है। समय बदल गया है, आदि। खैर, मुद्दे की बात तो दूसरी ही थी। वे चाहते थे कि मुख्यमंत्री पद की दावेदारी में देशबन्धु उनका खुलकर समर्थन करे। मैंने चर्चा को मोड़ देने की कोशिश की। 'हम पेपर वाले क्या कर सकते हैं? फैसला तो कांग्रेस विधायक दल और हाईकमान को करना है। उसके पहले आप दोनों बैठकर समझौता क्यों नहीं कर लेते?' वे मेरा मंतव्य सुनकर प्रसन्न हुए। 'ठीक है, तुम जोगी से बात करो। उसे हम पीसीसी चीफ बना देंगे।' जाहिर था कि शुक्ल जी अभी भी वास्तविकता से अनजान हवा के घोड़े पर सवार थे। कुछ देर इधर-उधर की बातें कर मैं वापस आ गया। इस मुलाकात का जिक्र भी किसी से नहीं किया।

इसके पश्चात 31 अक्तूबर 2000 की शाम फार्म हाउस पर मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह के साथ जो अभद्र बर्ताव, यहां तक कि मार-पीट तक की गई, वह छत्तीसगढ़ के राजनीतिक इतिहास में एक शर्मनाक घटना के रूप में दर्ज है। इसके ब्यौरे अन्यत्र देखे जा सकते हैं। इन सारी स्मृतियों को समेटते हुए कहना होगा कि विद्याचरण शुक्ल अदम्य जिजीविषा के धनी थे। 25 मई 2013 को नृशंस नक्सली हमले में बुरी तरह घायल होने के बाद भी आखिरी सांस तक जीवन जीने की लड़ाई लड़ते रहे। उस दुर्गम घाटी में तत्काल चिकित्सीय सहायता मिलना संभव नहीं था। अगर आपात सहायता मिल जाती तो शायद उस दिन भी वे मौत को हराकर वापस आ सकते थे। (अगले सप्ताह जारी)


#देशबंधु में 20अगस्त 2020 को प्रकाशित

Tuesday 18 August 2020

समय का स्वप्न

 


इतना लंबा समय कि

माँ के कमरे में रखी,

दादी के साथ आई 

गोदरेज की आलमारी

विज्ञापन में दिखने लगे;


इतना लंबा समय कि

रसोईघर में

मसाले से लेकर वनस्पति तक

हर सामान का ब्राँड

चार बार बदल जाए;


इतना लंबा समय कि

बेटे की उदासी देखी न जाए,

और नए मॉडल की कार

दरवाज़े पर आ खड़ी हो जाए;


इतना लंबा समय

और ऐसा समय कि

लेखक और कलाकार के पास

सिर्फ स्त्रियों के संस्मरण रह जाएं,

कविता में प्रकृति

पोस्टर के अंदाज़ में प्रवेश करे,

विवशता अख़बारी फोटो की मानिंद,

और देहराग अंतिम सच हो जाए;


इतना लंबा समय और

ऐसा समय कि

रात की ख़बरों का अंत

तूफ़ान की चेतावनी के साथ हो,

और बिना चेतावनी

तूफ़ान के साथ शुरू

हो हर नई सुबह;


ऐसा समय कि

बस्ती में दिखें तो

सिर्फ उजड़े हुए घर और

सड़कों पर मिलें

सिर्फ उखड़े हुए वृक्ष,

रास्ते तो नज़र आएं

वही पुराने परिचित लेकिन

रास्तों के अवरोध हों सारे

नए और अपरिचित;


ऐसा समय कि

गंतव्य अब भी हो

उतनी ही दूर, लेकिन

पहुंचने में लगे

पहिले से ज्य़ादा समय;


इतना लंबा समय कि

घर शायद वही हो लेकिन

बदल गया हो घर का पता,

या पता तो वही हो

लेकिन बदल गए हों

घर में रहने वाले भी,

टेलीफोन नंबर के साथ;


इतना  लंबा समय और

ऐसा समय कि

घर ढूंढना हो मुुश्किल, 

पता पूछना कहीं ज्य़ादा कठिन,

घर जिनके छूट गए हों

उनकी कोई ख़बर

मिलना हो जाए असंभव;


इतना लंबा समय कि

संबंधों के प्रयोजन खो जाएं,

संबोधन अपना सार खो बैठें

और वचन अपनी सार्थकता,

फिर भी सब कुछ

वैसा ही चलता रहे,

न कोई फ़िक्र हो

न रंज, न मलाल;


इतना लंबा समय कि

जल्दी किसी बात की न हो 

हर प्रश्न का, आराम से

दिया जा सकता हो उत्तर,

अशेष हों विकल्प और

संभावनाएं अपार हों,

जीवन में बस

फल की ही कामना हो 

और हर चैनल  पर

प्रस्फुटित होता हो।


24.10.2000

Sunday 16 August 2020

कविता: 1) एक अकेला बसंत 2) एक विदा गीत

 एक अकेला बसंत 


मेरी आँखों में
एक सच था
जिसे मैंने
तुम्हारे चारों ओर
बिखरा दिया
उसके बाद भी
तुम मुझमें नहीं हो

वह सच आज
एक कोहरे का जाल है
अब हमारे बीच
एक दीर्घ अन्तराल है
हमारे नेत्रों में कोई
जलता सपना भी नहीं है
जिसकी प्रतीक्षा में
मैने बहुत दिन गुजार दिये
(और शायद तुमने भी )

सड़कों, बाग़ों और
घाटियों में जब
उदास पत्तों का
झड़ना प्रारंभ हुआ
सड़कों पर टहलता
मैं अकेला था
(और शायद तुम भी)

मौसम बदल चुका है
पर मैं अभी भी
प्रतीक्षा कर रहा हूँ
सड़कों,
बाग़ों और
घाटियों के ऋतु
उत्सव देखते हुए
मैं अकेला हूँ 
(और शायद तुम भी)

मौसम का बदलना
अनिवार्यता है
पर मेरा प्रतीक्षाक्रम
अनवरत रहेगा
अगली बार फिर, जब
परिप्रेक्ष्य बदल चुके होगे
तब भी
सड़कों पर टहलता
घाटियों में भटकता
सपने को तलाशता
मैं अकेला ही रहूंगा
(और शायद तुम भी)
1967
............


एक विदा गीत

यह चौराहा
शायद इसलिये था
कि हम बिछुड़ जाएं
थोड़ा रुक कर
अपने रास्तों को
हम पहिचान लें
विदा के क्षण में
आखरी सिगरेट पियें
अैर अपने आप को
यह अ्नुभव करने का
अवसर दें कि
हम कितने आत्मीय हैं
और हम
महज कोई 
फर्ज़ अदा करने
इतनी देर साथ नहीं
 रहे

हम लोगों की
एक जैसी आवश्यकताएं हैं
और एक ही जैसे अभाव
और अपने-अपने
लोक संबंधों में
शायद एक ही जैसे
तनाव को हमने सहा है इसलिए
रात के इस उतरते पहर में
जब हम अलग हो रहे हैं
लग रहा है कि
हम खुद ही टूट गये हैं

अब तक बिताया
निरर्थक समय और
निरर्थक उपक्रम
हमें सुखकर लगे हैं
इसलिये नहीं कि
वे सचमुच ऐसे थे
बल्कि इसलिए कि
उन्हें मैने या तुमने
अलग-अलग नहीं भोगा

उन क्षणों में लगा है कि
तुम भी मेरे साथ
इस व्यापार  में सचेष्ट हो
और हमारे इस सोचने से
हमारे संबंधों में
हर बार एक
नई कड़ी जुड़ी है

लेकिन इस क्षण के उपरान्त
हम साथ नहीं होंंगे 
समय को बांधने वाली
हमारी हथेलियां भी
परस्पर जुड़ी न होंगी

और जब हम आगे बढेंगे
अगला हर चौराहा अजनबी होगा
और तब कोई भी क्षण इतना
भावुक न होगा
जो हमारी खुली हथेलियों पर
निमन्त्रण  के फूल रख दे
1967
........

Thursday 13 August 2020

देशबन्धु: चौथा खंभा बनने से इंकार- 10

 


मेरा छत्तीसगढ़ में जिस राजनेता से सबसे पहला परिचय हुआ वे विद्याचरण शुक्ल ही थे। उनके साथ मेरी औपचारिक- अनौपचारिक मुलाकातें शायद सबसे अधिक हुईं। लेकिन मेरे आकलन में वे ऐसे राजपुरुष थे, जिनमें स्वयं को लेकर श्रेष्ठता का भाव था। वे इंदिरा गांधी जैसे कुछेक लोगों को छोड़कर बाकी सभी से अनुगत या अनुचर होने की अपेक्षा करते थे। छत्तीसगढ़ के अधिकतर पत्रकार उनके चरण छूते थे। विद्या भैया, विद्या भैया कहकर उनकी जी हुजूरी करते थे। चूंकि हमने ये नहीं किया, इसलिए उन्होंने देशबन्धु के संपादकों को कभी पसंद नहीं किया। वे जब भी रायपुर आते थे, प्रेस क्लब में उनकी प्रेस कांफ्रेंस होना अनिवार्य ही था, भले ही कोई विषय हो अथवा न हो। अमूमन यह प्रेस कांफ्रेंस लंच के साथ होती थी। कभी धोखे से चाय-समोसे पर बात खत्म हो गई, तो उन्हें याद दिलाया जाता था कि भैया इस बार लंच नहीं हुआ। देशबन्धु के संपादकीय आलेख में एक बार पंडितजी ( रामाश्रय उपाध्याय) ने उनकी कुछ तीखी आलोचना कर दी थी। इससे वे काफी क्षुब्ध हुए। उन्होंने बाबूजी को आपत्ति दर्ज करते हुए पत्र लिखा। जिसमें संस्कारों को लेकर कुछ टीका की गई। बाबूजी ने इस पत्र का जवाब देते हुए लिखा- संस्कार और संपत्ति तो आपको विरासत में मिली है, हम साधारण लोग, उसे कहां से लाएं। संदेश स्पष्ट था, बात वहीं खत्म हो गई। 


एक बार शुक्लजी ने बूढ़ा तालाब के किनारे शिवाजी महाराज की प्रतिमा लगाने का ऐलान किया। हमने इसका विरोध किया तो अगले दिन उन्होंने एक सार्वजनिक कार्यक्रम में भाषण देते हुए देशबन्धु की खुलकर निंदा की। ऐसे और भी प्रसंग हैं। आज जो रायपुर में इंडोर स्टेडियम और रवि भवन जैसे निर्माण हुए हैं, हमने इनका भी विरोध किया था। श्री शुक्ल का तर्क था कि रवि भवन से इतनी आमदनी होगी कि उससे रायपुर नगर निगम को विकास कार्यों के लिए इधर-उधर नहीं देखना पड़ेगा। हमारी दृष्टि में ये योजनाएं खर्चीली व अव्यवहारिक थीं। इंडोर स्टेडियम जिस जगह बना था, वह पर्यावरण के मानकों के अनुसार वेटलैंड (दलदली भूमि) था, तथा उसे उसी रूप में संरक्षित रखा जाना था। लेकिन शुक्लजी के आगे किसकी चलनी थी।उन्होंने जो चाहा, वही हुआ।


वीसी शुक्ल जब नरसिंहराव सरकार में मंत्री बने, तो संसद में उनके द्वारा दिए गए एक वक्तव्य का शीर्षक देशबन्धु में कुछ इस तरह छपा- 'जब वीसी ने कावेरी को लड़की समझा।' पत्र के दिल्ली स्थित एक अंशकालिक संवाददाता द्वारा भेजा गया यह समाचार पत्रकार रजत शर्मा द्वारा संपादित एक अन्य पत्रिका में भी इसी रूप में छपा। श्री शुक्ल का इस पर क्षोभ होना स्वाभाविक था। लेकिन उन्होंने कोई खंडन भेजने या स्पष्टीकरण प्रकाशित करने की बजाय सुदूर दंतेवाड़ा में अपने किसी कार्यकर्ता द्वारा मुझ पर मानहानि का मुकदमा दायर करवा दिया। अदालत का समन आया तो मैंने दंतेवाड़ा जाकर जमानत लेने के साथ-साथ आगे की पेशियों में हाजिर न होने की छूट प्राप्त कर ली। जिस कार्यकर्ता ने मुकदमा दायर किया, उसकी कानूनन कोई भूमिका नहीं थी। केस खारिज होना ही था। इसके बाद भी शुक्ल बार-बार दबाव डालते रहे कि इस प्रकरण में माफी मांगें। हम स्पष्टीकरण छापने और खेद व्यक्त करने तैयार थे। लेकिन जब वे इतने पर राजी नहीं हुए तो हमने भी फिर समझौते की कोई कोशिश नहीं की। 


श्री शुक्ल जब 1989 में कांग्रेस छोड़कर वीपी सिंह के राष्ट्रीय मोर्चा में शामिल हुए तो राजनैतिक पर्यवेक्षकों को बहुत हैरानी हुई। उसके कारणों में जाने की आवश्यकता नहीं है। श्री शुक्ल महासमुंद क्षेत्र से प्रत्याशी थे। उनकी जीत को लेकर बढ़-चढ़ के दावे किए जा रहे थे। पर देशबन्धु की रिपोर्ट थी कि इन दावों में कोई दम नहीं है। दो दिन बाद लोकसभा क्षेत्र में मतदान हुआ। मैं अपने साथियों प्रभाकर चौबे और बसंत कुमार तिवारी के साथ माहौल देखने के लिए निकला तो बूढ़ापारा में वीसी शुक्ल अपना वोट डालने मतदान केंद्र की ओर आते हुए दिखाई दिए। हमने गाड़ी रोकी। शुक्लजी को नमस्कार किया। उन्होंने मेरे साथियों से तो बात की और ऐसा दर्शाया मानो उन्होंने मुझे देखा ही नहीं है। मैं समझ गया कि ये महासमुंद की रिपोर्ट छपने से दुखी हैं। रिजल्ट जब आया तो हमारी रिपोर्ट ही सही निकली। श्री शुक्ल चुनाव जीत तो गए, लेकिन जीत का अंतर बहुत कम था। इसके बाद अब उन्हें मंत्री बनने की उम्मीद थी, जो पूरी नहीं हुई। जब चंद्रशेखर प्रधानमंत्री बने, तब उन्हें मंत्री पद का ऑफर मिला। शुक्ल समर्थक चाहते थे कि उन्हें रेल मंत्रालय या इस्पात मंत्रालय मिले। लेकिन चंद्रशेखर उन्हें विदेश मंत्रालय ही देना चाहते थे। ऐसे समय न जाने क्या सोचकर उन्होंने मेरी राय लेना आवश्यक समझा। मेरी सलाह साफ थी कि आपको विदेश मंत्रालय ले लेना चाहिए। आप सबसे अनुभवी सांसद हैं। विदेश मंत्री के रूप में आप अनावश्यक विवादों से मुक्त रहेंगे। टीवी पर आने के आपको अधिकतम अवसर मिलेंगे। उससे आपकी छवि निखरेगी। मेरी सलाह का कितना महत्व था, यह मुझे नहीं पता, किंतु उन्होंने यह पद स्वीकार कर लिया। इसके तीन-चार दिन बाद उनका रायपुर आने का कार्यक्रम बना। स्वागत की तैयारियां चलीं। अखबारों को भरपूर विज्ञापन जारी हुए, लेकिन देशबन्धु का नाम उन अखबारों की सूची में नहीं था। अगले दिन उनके सम्मान में कहीं रात्रिभोज आयोजित था। मैं भी आमंत्रित था, लेकिन मैंने निमंत्रण ठुकरा दिया। अगर मेरे अखबार को विज्ञापन नहीं मिल रहे हैं तो मैं भोज पर आकर क्या करूंगा? फिर जो भी हुआ हो, देशबन्धु को देर रात विज्ञापन जारी हुए। मैं रात्रिभोज में भी शामिल हुआ।


श्री शुक्ल के लगभग छह दशक के राजनैतिक जीवन का आकलन करने से एक बात समझ आती है कि उनके इर्द-गिर्द राजनैतिक सलाहकारों की जगह गैर-राजनैतिक सलाहकारों की संख्या दिनों-दिन बढ़ने लगी थी। ऐसा क्यों हुआ, ये तो वही जानते थे। एक बार महासमुंद के पूर्व विधायक और वीसी के निकट सहयोगी दाऊ संतोष कुमार अग्रवाल ने मुझसे साफ कहा कि वे तो बड़े आदमी हैं, जब चाहें जिस पार्टी में चले जाएं, लेकिन उनके साथ-साथ जाने से हमारा क्या होगा, हमें तो अपने मतदाता को जवाब देना होता है। जो पत्रकार शुक्ल जी के दाएं-बाएं रहा करते थे, आपातकाल के बाद जब चुनाव हुए तो रायपुर में कत्ल की रात यानी मतदान के ऐन पहले जनता पार्टी के समर्थक बन गए और सीमित समय में भी मतदान को जितना प्रभावित किया जा सकता था, उन्होंने किया। चुनाव हारने के बाद वीसी शुक्ल अपने भिलाई निवासी भतीजे उमेश और उनकी पत्नी माया के साथ मुझसे मिलने आए। मुझसे कहा कि हमसे दोस्त और दुश्मन को पहचानने में गलती हो गई। लेकिन 1980 में चुनाव जीतने के बाद उन्हें फिर वही लोग अपने दोस्त लगने लगे, जो कल तक उनके विरोधी थे। (अगले सप्ताह जारी)


#देशबंधु में 13 अगस्त 2020 को प्रकाशित

Monday 10 August 2020

कविता 1) सूखा पेड़ 2) जलगली

 

सूखा पेड़

दीमकों ने
बना लिया है अपना घर
और एक हरा पेड़
सूख गया है

पक्षियों के डेरे
आसपास के पेड़ों पर हैं

हरे-भरे घर से
उड़कर निकलते हैं
हरे तोते और
सूखे पेड़ की
सूखी टहनियों पर
हरी पत्ती बन, झूम जाते हैं
जाड़े की धूप में,
लाल चोंच
बन जाती है
लाल खिला हुआ फूल

दिन चढ़ रहा है,
हरे तोते काम पर
निकल जाते हैं
सूखे पेड़ को
अकेला छोड़ते हुए

माली सूखे पेड़ को
नहीं काटता,
कल सुबह वापिस आएँगे
हरी पत्तियों और
लाल फूलों वाले पक्षी

28.12.1998




जलगली

सात समुद्रों के बीच
लुक-छुप कहीं बसा है
पृथ्वी का सातवाँ महाद्वीप,
पचमढ़ की पहाड़ियों में
लुक- छुप बसी है जलगली,

सातवें  महाद्वीप को
ढूंढ नहीं पाते
गोताखोर और पनडुब्बियाँ,
जलगली का पता नहीं जानते
डाकिए, सिपाही और लाइनमैन,
सातवाँ महाद्वीप
लेखक की कल्पना में है
और जलगली
सूरज की छाया में.

धूपगढ़ की तराई में
बसी है जलगली
और शिखर को पता नहीं,
आदिम बसाहट को समेट
किसी अबूझ कोने में
बसी है जलगली
और शहर को पता नहीं,

समुद्र की तरफ
बढ़ती है जलगली
देनवा, तवा, नर्मदा में रिसते हुए,
शिखर और शहर से डरी-डरी,
अपने निविड़ एकांत में
मनाती है बस यही
बहती रहे वह सदा
जहाँ तक है उसका घर
पचमढ़ी की पहाडियों में,
धूपगढ़ की तराई में
बचे रहें उसके फर्न और फूल
और पानी के कुंड, 

मिले भी तो सिर्फ
उन्हीं को मिले उसका पता
समझते हों जो
मेहमान की मर्यादा


16.02.1998














Friday 7 August 2020

कविता: मील का पत्थर

 




घर के बाहर
एक मील का पत्थर था
जिस पर लिखी थी
नदी के पार गाँव की दूरी,
उस गाँव से आगे
नर्मदा के घाट की दूरी,
और नर्मदा के पार के
गाँव की दूरी,

घर के बाहर सड़क थी,
दो हाथ ऊंची नींव पर
बना था घर और
तीन सीढ़ियां उतरकर
मिलती थी सड़क,

सड़क के किनारे
नीम के पेड़ थे और
धोखे से आ गया था
कहीं से एक गुलमोहर,
झांई लाल फूलों की
या था अहंकार
सड़क को राह दिखाने का,
मील का सफेद पत्थर
लाल ही दिखता था,

सड़क जाती थी
नर्मदा के पार तक,
लेकिन बरसात में
गाँव की नदी पर
जा रुक जाती थी,
बरसात के पानी में
नहाती थी कच्ची सड़क,
और पूर आई नदी में
लापरवाह नहाता था रपटा,

धुआँधार से बेदम
उतरकर आती थी नर्मदा,
और बिना सांस लिए
चली जाती थी आगे
दोनों तरफ ज़मीन को
उर्वरा बनाते हुए,
बरसात के बाद
फिर बनती थी सड़क
काम पर लगती थी,
फिर छाती पर बोझ
उठाता था गांव की
नदी पर रपटा,
फिर नर्मदा के घाट पर
भरता था मेला और
फिर रास्ता दिखाता था
मील का पत्थर,

सड़क बनते-बनते
बहुत बनी, इतनी बनी
सड़क दो हाथ ऊँची हुई,
घर तीन सीढ़ी नीचे उतरा,
रपटा ऊंचा उठा, पुल बना
नर्मदा पर और ऊँचा पुल बना,
मील का पत्थर
धरती में धंसा, फिर भी
नदी पुल सड़क पर हंसा,

अब नहीं आता
नर्मदा को आवेश,
अब नहीं भिगोता
नदी को पहाड़ी का जल,
बिना डूबे रहा आता है
पुराना रपटा और
पुल को नहीं मिलता
टोल टैक्स के अलावा
एक लहर का भी स्पर्श,

धँसा मील का पत्थर
अब नहीं बताता
सड़क को दिशा और दूरी,
और सड़क सोचती है
कहां रह गई कसर
घर से दोस्ती करने में

16.02.1998

.....



Thursday 6 August 2020

कविता: अस्वीकार





बहुत बरस बीते
मैने कोई कविता नहीं लिखी,
क्या करता लिखकर,
लिखने से क्या होता,
मेरे आकुल मन में
भाव बहुत थे लेकिन
मैं उनको साध न पाया,
मेरे संचित धन में
शब्द बहुत थे लेकिन
मैं उनको बाँध न पाया,

बस्ती से बाहर
जिसकी शोभा ने मुग्ध किया सबको
बरगद का विशाल वृक्ष
जिसके आश्रय में लुक-छुप पड़ी
सदियों का जल समेटे
प्राणहीन बावड़ी वह,
टूटे सीढ़़ियों के पत्थर
नीचे की 
सीढ़़ियों पर फिसलन,
जल की छाती पर
जमी काई की परतों पर परतें,
रौशनी से भीत
अपने में व्यतीत
जीवन जल को सोखती
निष्प्राण भावों की काई,
कविता ने उनके
छूने से इंकार किया,

मंदिर में बैठे ठाकुर
जागृत प्रतिमाएँ उनकी,
उनके सखा-सहोदरों की,
अभिभूत सब, श्रद्धा से लोटपोट
भक्तजन, पुरवासी और पिकनिक कामी,
रोली, श्रीफल, फूलों के हार
व्रत, उत्सव, पर्व, वार,
पास वहीं, किसी सूने कोने में
खंडित प्रतिमाओं का अंबार
लंगड़ी, लूली,नकटी, कानी प्रतिमाएं,
पुराविदों के मन भाई,
अर्चन से दूर
प्रतिष्ठा से हीन
विकल अंग भावों के प्रस्तर,
कविता ने उनको
दूर से ही नमन किया

झील पर उठा टापू
उतरे प्रवासी पक्षी जहाँ,
डैनों में समेटे
हज़ारों मील की दूरी
खोजते सुरक्षित आश्रय
ज़िंंदगी के नक़्शे में, जैसे
चिलका,नल सरोवर या सिरपुर,
भोजन मिले उनको
अभय मिले उनको,
खिंचे उनकी तस्वीरें
परिचय की मुद्रिका पहिने
घूमें वे देश-विदेश,
लेकिन क्या है सचमुच
कहीं उनका अपना घर,
घर जहाँ गौरैया
निर्भय जा सके,
आँगन जहाँ कबूतर को
नियम से मिलता हो दाना,
छत जहाँ कौए के लिए
पहिले से निकला हो ग्रास,
बिना घर दर-दर भटकते
भावों के पक्षी करते प्रवास,
कविता ने उन्हें
धरती पर उतरने नहीं दिया,

इधर खेत-खलिहान
उधर कल-कारखाने
लहलहाती है फसल और
भट्टियाँ ठंडी नहीं पड़ती,
उम्मीदों की हवा में
लहराती हैं बालियाँ
उमगते मन की तरह,
और अंगारे चमकते हैं
सपने भरी आँखों की मानिंद,
प्रकाश के इस पारावार में
कहीं अकेले बैठ
अपने को गलाता है जीवन
पीली मोमबत्ती के उजाले में,
लॉकर में सपने
सुरक्षित रख सो रही है दुनिया
मोम बनकर पिघल रहे हैं
जीवन के भाव,
कविता ने उनको
धरोहर लेने से मना किया,

पहाड़ों से उतर रही हैं
सर्द हवाएँ और बेमौसम
उतर आए हैं बादल,
मैदान ठिठुर गए हैं और
तड़प रहा है महासागर,
शीतलहर ने चीर दी है छाती
फूटे हैं स्याह लहू के फ़व्वारे
साथ-साथ रत्नों के भंडार,
हे नीलकंठ! गरल तो तुमने पी लिया,
कौन साधेगा अनगढ़ भावों को
किसके कंठ में रख दूूं ये शब्द
जो मुझसे सम्हलते नहीं ।

27.12.1997

                  



देशबन्धु: चौथा खंभा बनने से इंकार- 9



1950 के दशक में नागपुर से 'प्रतिभा' शीर्षक एक बेहतरीन साहित्यिक पत्रिका प्रकाशित होती थी, जिसमें संपादक के रूप में वीरेंद्र कुमार तिवारी का नाम छपता था। तिवारी जी आगे चलकर मध्यप्रदेश में लंबे समय तक कांग्रेस विधायक दल के सचिव का दायित्व संभालते रहे। वीरेंद्र दादा को कांग्रेस के सभी खेमों में सम्मान की दृष्टि से देखा जाता था। प्रतिभा में हर माह मुखपृष्ठ पर रायपुर के कलाकार कल्याण प्रसाद शर्मा की लोक जीवन पर आधारित बहुरंगी पेंटिंग प्रकाशित होती थी। यदि मेरी जानकारी सही है तो तिवारी जी एवं शर्मा जी दोनों विद्याचरण शुक्ल के सहपाठी थे। श्री शुक्ल की बड़ी बेटी का नाम भी प्रतिभा था। पत्रिका में शुक्लजी का नाम छपता था या नहीं यह मुझे ध्यान नहीं है। इतना अवश्य याद है कि वर्धा रोड पर प्रतिभा प्रेस की एक बंगलेनुमा इमारत थी। आज उस जगह पर लोकमत के कॉर्पोरेट मुख्यालय का बहुमंजिला भवन खड़ा है। 

मैं स्कूल का विद्यार्थी था। उस दरमियान श्री शुक्ल से परिचय होने का कोई सवाल नहीं था। मेरी उनके साथ पहली मुलाकात दिलचस्प अंदाज में हुई। वे 1964 में महासमुंद से लोकसभा उपचुनाव लड़ रहे थे। मैं अपने सहयोगी राघवेंद्र गुमाश्ता के साथ चुनावी माहौल देखने के लिए एक दिन महासमुंद गया। हम सीधे कांग्रेस भवन गए। पता चला कि शुक्ल जी चुनाव प्रचार में गए हैं  थोड़ी देर में लौटते होंगे। मैं वहीं कांग्रेस भवन की सीढ़ियों पर बैठकर सिगरेट पी रहा था। इतने में एक जीप आई। उससे श्री शुक्ल उतरे। राघवेंद्र ने परिचय करवाया- ये ललित हैं, भैया जी (बाबूजी) के बड़े बेटे। श्री शुक्ल ने मेरी उंगलियों में फंसी सिगरेट देखी और टिप्पणी की- अभी आपकी उम्र सिगरेट पीने की नहीं है। बात सही थी। अभी-अभी तो मैं बीए की परीक्षा देकर जबलपुर से आया था। मैं लज्जित हुआ और सिगरेट फेंक दी। मेरी इसके अलावा कोई और बात नहीं हुई। राघवेंद्र ही चुनाव की बातें करते रहे।

यह संयोग था कि उसी दिन उनके प्रतिद्वंद्वी पुरुषोत्तम लाल कौशिक से भी पहली बार मेरा परिचय हुआ। याद नहीं आता कि वह किसका घर था लेकिन वहां कौशिक जी के प्रचार हेतु नरसिंहपुर से आए ठाकुर निरंजन सिंह भी ठहरे थे। जुझारू समाजवादी नेता जीवन लाल साव भी वहां थे। सावजी के साथ आने वाले वर्षों में न जाने कितनी बार मुलाकातें हुईं। शुक्ल जी और कौशिक जी के बीच यह पहला मुकाबला था। उनके बीच आने वाले समय में जो राजनीतिक संघर्ष हुआ उसे भी मैंने देखा। जीवन लाल साव को अपने जुझारू तेवरों की जो कीमत चुकानी पड़ी, जिसमें उनकी जान पर तक बन आई, का भी मैं गवाह रहा हूं। विद्याचरण शुक्ल के साथ देशबन्धु के एवं स्वयं मेरे संबंध प्रारंभ में यद्यपि बहुत सहज थे, लेकिन उस सहजता का निर्वाह हमेशा नहीं होता था।

श्री शुक्ल को मैंने सुरुचिपूर्ण साहित्य के अध्येता के रूप में जाना। उन्होंने अपनी एक लाइब्रेरी भी बना रखी थी। लेकिन परवर्ती समय में मैंने पाया कि किताबें तो उनके पास बहुत आती थीं, लेकिन वे रखी रह जाती थीं। पढ़ने में उनकी रुचि समाप्त होने लगी थी। खैर, यह शायद 1969 की बात है, जब रायपुर जेसीज के उद्घाटन समारोह या ऐसे किसी समारोह में मैंने उन्हें मुख्य अतिथि के तौर पर आमंत्रित किया। इंडियन कॉफी हाउस के ऊपर वाले हॉल में कार्यक्रम रखा था। शुक्ल जी निर्धारित समय पर आये,  उन्होंने उद्घाटन भाषण दिया। इस बीच हमने हॉल में कटलेट और कॉफी की सेवा प्रारम्भ कर दी। कार्यक्रम समाप्त हुआ। नीचे उतरते समय शुक्ल जी ने कहा- ऐसे औपचारिक कार्यक्रमों में चाय- नाश्ता देने की कोई आवश्यकता नहीं होती और नाश्ता करवाना ही है तो कार्यक्रम समाप्त होने के बाद करवाया करो। उनकी यह सीख मुझे आज भी याद है। सिगरेट पीना भी मैंने 2-4 साल बाद छोड़ दिया था।

यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि श्री शुक्ल मध्यप्रदेश के सबसे प्रभावशाली नेता थे। उनके भक्त तो यहां तक मानते थे कि वे इंदिरा जी के उत्तराधिकारी बनेंगे। श्री शुक्ल के ठाठ भी कुछ ऐसे ही थे। वे केंद्रीय मंत्री थे और जब कभी उनका रायपुर आना होता था तो भिलाई इस्पात संयंत्र की एक इम्पाला कार उनकी सेवा में लगी रहती थी। श्री शुक्ल के पास गाड़ियों की क्या कमी थी लेकिन फिर अपना रुतबा बनाना भी तो जरूरी था! उनकी इस गाड़ी में एक दिन मुझे भी बैठने का मौका मिला। 1971 के आम चुनाव के समय एक दिन फोन पर फोन आये कि विद्या भैया आपको याद कर रहे हैं। मेरे पास गाड़ी नहीं थी। उनकी गाड़ी आई। मैं भी असमंजस में था कि इतने बड़े नेता को मुझसे क्या काम पड़ गया। मैं बूढ़ापारा स्थित शुक्ल निवास पहुंचा जहां नीचे बड़े से हाल में कार्यकर्ताओं का जमघट लगा हुआ था। मुझे ऊपर नाश्ते की टेबल पर बुलाया गया। शुक्ल जी मेरी ओर मुखातिब  हुए- यह चिटृठी तुमने क्यों लिख दी? तब मामला समझ आया। मैंने उन्हें एक पत्र लिखा था कि 1967 के आम चुनावों के विज्ञापनों का भुगतान अभी तक प्राप्त नहीं हुआ है, इस स्थिति में हम आपके नए विज्ञापन नहीं छाप पाएंगे। शुक्लजी ने कहा तुम फोन कर देते। चिटृठी गलत हाथों में पड़ सकती है। मैं नाश्ता करके उसी इम्पाला कार में वापस लौटा। शाम तक विज्ञापनों का चार साल से रुका पैसा भी आ गया।

प्रसंगवश ऐसा ही एक किस्सा 1967 में हुआ। रायपुर लोकसभा क्षेत्र से लखनलाल गुप्ता प्रत्याशी थे, उनके सामने थे आचार्य जे.बी.कृपलानी। गुप्ताजी बूढ़ापारा वाले प्रेस में विज्ञापन लेकर आए, मैंने कुछ धृष्टतापूर्वक ही उनसे कहा कि आपकी तरफ 1962 के विधानसभा चुनाव की रकम बाकी है। गुप्ताजी संपन्न व्यक्ति थे। उन्होंने पिछले बकाया का भुगतान तुरंत कर दिया। हम अखबारवालों के साथ ऐसे प्रसंग अक्सर घटते हैं। चुनाव आए और चले गए, इसके बाद आप नेताजी के पीछे घूमते रहिए। यह दिक्कत उन अखबारवालों के साथ नहीं है, जो नेताओं के साथ पार्टनरशिप में व्यापार करते हैं। अपने आस-पास देखिए तो आपको पता चल जाएगा कि नेता, अफसर और अखबार मालिक किस तरह तीन-ताल में काम करते हैं।

मैं विद्याचरण शुक्ल की कुछेक बातों का कायल रहा हूं। केंद्र और राज्य सरकार में कार्य संस्कृति एक-दूसरे से बिल्कुल अलग है। राज्य में विशेषकर मुख्यमंत्री को बहुत तरह के दबावों से जूझना पड़ता है। जिसके चलते कई बार सही निर्णय भी उल्टी दिशा में चले जाते हैं। इसके विपरीत केन्द्रीय मंत्री को अपनी मनमर्जी से काम करने की छूट कम होती है। उन्हें फाइलों का अध्ययन करना होता है और सचिव इत्यादि की नोटिंग को बिना पर्याप्त कारण खारिज नहीं किया जा सकता। वीसी शुक्ल इसी कार्यशैली में कार्य करने के अभ्यस्त थे। लेकिन अपने क्षेत्र के नागरिकों और मतदाताओं के साथ वे जीवंत संपर्क बनाए रखते थे। आपने उन्हें पत्र लिखा तो टाइप किए गए उत्तर में भी मोटे अक्षरों में आपका नाम खुद लिखेंगे। नीचे अपने हाथ से शुभकामना भी लिखेंगे और हस्ताक्षर भी करेंगे। आपका काम हो या न हो, यह संतोष मन में रहता था कि विद्या भैया ने आपके पत्र का उत्तर स्वयं लिखा है। दूसरी बात, वीसी शुक्ल की राजनैतिक शैली से कोई कितना भी असहमत क्यों न हो, उनके जुझारुपन की प्रशंसा करनी ही होगी। 

मैं जानता हूं कि दोनों शुक्ल भाइयों ने राजनीति में बने रहने के लिए कभी आसान रास्ते अपनाना स्वीकार नहीं किया। उन्हें बीच-बीच में राज्यपाल पद के न्यौते भेजे गए, राज्यसभा में जाने की पेशकश भी की गई। लेकिन उन प्रस्तावों को उन्होंने हमेशा ठुकरा दिया। वे इस तरह देश के उन तमाम राजनेताओं से अलग हो गए, जो सत्ता सुख उठाने के लिए जब-तब समझौता कर लेते हैं। वी.सी. की चित्तवृत्ति का इसे अतिरेक माना जा सकता है कि जब कांग्रेस में उन्हें अपने लिए दरवाजे बंद नजर आए तो एक बार वे वी.पी. सिंह के साथ चले गए, दूसरी बार शरद पवार के साथ और तीसरी बार भारतीय जनता पार्टी के साथ। यह शायद उनके व्यक्तित्व का विरोधाभास भी था कि अपनी राजनैतिक महत्वाकांक्षा की पूर्ति के लिए वे युद्धं देही के अंदाज में लड़ने-भिड़ने को तैयार हो जाते थे, फिर चाहे उन्हें जिस भी पक्ष से लड़ना पड़े। अपने इस उतावलेपन पर वे थोड़ा नियंत्रण रख पाते तो यह उनके हित में ही होता। (अगले सप्ताह जारी) 

#देशबंधु में 6 अगस्त 2020 को प्रकाशित