Thursday 30 August 2012

यात्रा वृत्तांत : डरबन की झलकियां





दक्षिण अफ्रीका में जून-जुलाई-अगस्त में ठंड का मौसम रहता है। जोहान्सबर्ग विमानतल पर उतरते साथ ही ठंड का अहसास हुआ। स्वेटर के ऊपर कोट और फिर कानों में मफलर लपेटा तो राहत मिली। ठंड डरबन में भी बहुत थी। दिन के समय मौसम खुशगवार रहता था, लेकिन रातें काफी सर्द होती थीं। उसमें भी यदि तेज हवाएं चलने लगे तो फिर कहना ही क्या।

डरबन नगर पहली ही नजर में लुभा लेता है। एक तरफ हिन्द महासागर का पश्चिमी तट और दूसरी ओर ऊंची-नीची पहाड़ियों पर बसी दूर-दूर तक फैली बस्तियां। डरबन का विमानतल बहुत बडा नहीं है, लेकिन टर्मिनल भवन सुंदर और सुरुचिपूर्ण तरीके से सजाया गया है। विमानतल से बाहर आकर शहर के लिए रवाना हुए तो घेरदार-घुमावदार राजमार्ग के दोनों ओर हरियाली देखकर मन प्रसन्न हो उठा। दोनों तरफ गन्ने के खेत फैले हुए हैं और विभिन्न फूलों वाले ऊंचे-ऊंचे पेड़ रास्ते की शोभा बढ़ाते हैं। ऐसे अनेक फूल जो भारत में अलग-अलग ऋतुओं में खिलते हैं वे यहां एक साथ देखने मिल रहे थे। मालूम नहीं यह डरबन की मिट्टी का कमाल था या वहां के मौसम का! एक फूल जो बहुत  ज्यादा देखने में आया वह था- इरिथ्राइना इंडिका। नारंगी रंग के इस फूल को हम मंदार के नाम से भी जानते हैं। भारत में अक्सर यह पुष्प फरवरी-मार्च के महीने में फूलता है। किसी ने बताया कि क्वाजुलू-नटाल प्रांत का यह  राज्य पुष्प है। महात्मा गांधी के फीनिक्स आश्रम में सफेद और गुलाबी फूलों से लदे कचनार के वृक्षों ने हमारा स्वागत किया।

एक तरफ प्रकृति की यह छटा है तो दूसरी ओर डरबन शहर अपने आप में साफ-सुथरा और व्यवस्थित है। भारत की ही तरह यातायात बांई ओर से चलता है। वीरान सड़क पर भी कोई वाहन चालक न तो अपनी लेन छोड़कर ओवरटेकिंग करता है और न चौराहे पर लाल सिग्नल तोड़कर आगे बढ़ता है। हमें सड़क पर एक भी दिन यातायात पुलिस का कोई सिपाही नजर नहीं आया। जहां ऐसी व्यवस्था हो वहां सड़क पर अनावश्यक खड़े होने की जरूरत ही क्या? लेकिन इस तस्वीर का तीसरा पहलू है कि डरबन में कोई भी घर शायद सुरक्षित नहीं है। हर घर में अलार्म सिस्टम लगा हुआ है और हर गेट पर किसी सिक्युरिटी एजेंसी का चेतावनी पटल कि अनाधिकार प्रवेश की कोशिश का जवाब बंदूक (आर्म्ड रिस्पांस)से दिया जाएगा।

हमें डरबन से जोहान्सबर्ग वाले राजमार्ग को पकड़कर पीटर मॉरित्सबर्ग (पीएमबी) जाना था। बताया गया था कि लगभग साठ किलोमीटर की बस यात्रा पैंतालीस-पचास मिनट में पूरी हो जाएगी। फोरलेन हाईवे पर फर्राटे से गाड़ियां दौड़ रही थीं कि एकाएक ट्रैफिक जाम का सामना करना पड़ा। कुछ किलोमीटर आगे एक वाहन दुर्घटनाग्रस्त हुआ, उसने अपनी चपेट में कुछ अन्य वाहनों को ले लिया, कुछ लोग घायल हो गए और एयर एंबुलेंस घायलों को ले जाने के लिए वहां पहुंच गई। उसके लिए यातायात रोक दिया गया था। हमारे बस ड्रायवर ने आगे कहीं मौका देखकर बस वापिस लौटाई, फिर हम एक देहाती सड़क पकड़कर पीएमबी की तरफ चले। यह सड़क 'वैली ऑफ थाउजैंड हिल्स' याने हजार पहाड़ियों की घाटी से होकर गुजरती है। इस पर यात्रा करना एक आनंददायक अनुभव था मानो पिपरिया से पचमढ़ी या पेण्ड्रा रोड से अमरकंटक के रास्ते पर जा रहे हों। इस रास्ते पर जगह-जगह शुतुरमुर्ग के फार्म थे और हिरण आदि को बचाने की चेतावनी के बोर्ड भी लगे थे, लेकिन हमें इनके दर्शन नहीं हो सके। हमारी तरह सैकड़ों गाड़ियां इस रास्ते से पीएमबी की तरफ जा रही थीं, जबकि सामने से आने वाली लेन लगभग खाली थी, लेकिन क्या मजाल कि एक ड्रायवर ने भी अपनी लेन तोड़ी हो। 

ऐसे मौके पर अनायास ही मन में सवाल उठता है कि ऐसे अनुशासन का पालन हम भारतीय क्यों नहीं कर पाते। इंग्लैण्ड, अमेरिका, जापान की बात छोड़िए, क्या हम दक्षिण अफ्रीका से इस बारे में कुछ नहीं सीख सकते! प्रकृति का कुछ ऐसा ही वैभव हमने लुथुली ग्राम आते-जाते देखा। उस रास्ते पर एक जगह यह पता चला कि वहां देश-विदेश से हाट बैलून याने गरम गुब्बारे में सैर करने के लिए पर्यटक आते हैं। वही एक स्थान था जहां हमें कुछ दूर तक समतल भूमि दिखाई दी। वरना तो चारों तरफ पहाड़ियां ही पहाड़ियां नजर आ रही थीं।

एक तरफ डरबन की सुंदरता और नागरिक अनुशासन है तो दूसरी ओर उस इलाके की गरीबी  जो पर्यटकों की नजर से अक्सर ओझल रही आती है।  शहर के बाहरी छोर पर मलिन बस्तियां हैं। सरकार द्वारा उनके स्थान पर व्यवस्थित आवासीय कालोनियां बनाने का क्रम चल रहा है, लेकिन वह शायद कभी पर्याप्त नहीं होगा। इन बस्तियों में, जैसा कि आप समझ सकते हैं, शहर की मेहनत-मजदूरी करने वाली जनता निवास करती है। दक्षिण अफ्रीका में प्रति व्यक्ति औसत आय तीन हजार रेंड के आसपास है और यह बाजार में विभिन्न सामग्रियों की कीमत देखते हुए पर्याप्त नहीं है। मुझे यह देखकर हैरत हुई कि निजी अस्पताल बहुत बडी संख्या में हैं और नए-नए अस्पताल खुल रहे हैं। इनमें गरीब तो अपना इलाज करवा भी नहीं सकता। यही स्थिति  शिक्षा की भी है।

डरबन में अपने प्रवास के आखिरी दिन हम समुद्र तट पर गए। हिन्द महासागर को अपने सामने देखकर मन रोमांचित हुआ। समुद्र तट के आसपास ही डरबन का वृहद खेल परिसर है, जिसमें 2010 में फीफा वर्ल्डकप का आयोजन हुआ था। यहां कैसिनो भी है, पांच सितारा होटल भी और समुद्र तट पर सस्ती उपहार सामग्रियों की दर्जनों दूकानें। दूकानदारों के चेहरे-मोहरे, बातचीत से अनुमान लगा कि वे उन्हीं मलिन बस्तियों से यहां आते हैं। सैलानियों ने खरीदारी कर ली तो दिन अच्छा कट गया, अन्यथा फिर अगले दिन का इंतजार। हमारे मार्गदर्शक ने कहा कि हम इस इलाके में अकेले बिल्कुल न घूमें, लूटपाट हो सकती है। पूरे शहर में सात बजते न बजते बाजार बंद होने लगता है। उस रात हमने समुद्रतट पर ही एक ऐसे रेस्तरां में भोजन किया, जिसका मालिक पाक-अधिकृत काश्मीर का था। एक बैरा नेपाली, दूसरा बंगलादेशी, और ग्राहकों में हम तीन भारतीय, एक केन्याई भारतीय और एक आस्ट्रेलियाई भारतीय। हिन्द महासागर में तैरकर स्वदेश लौटने की गुंजाइश तो थी ही नहीं, सो हम भोजन करके होटल वापिस आए और अगली सुबह लगभग बारह घंटे की यात्रा कर डरबन से जोहान्सबर्ग होते हुए मुम्बई लौट आए।                                       

देशबंधु में 29 अगस्त 2012 को प्रकाशित 




 

Saturday 25 August 2012

यात्रा वृत्तांत : दक्षिण अफ्रीका में भारतवंशी





भारत और दक्षिण अफ्रीका के आपसी संबंध एक विशेष दर्जा रखते हैं। मेरी समझ में इसके तीन मुख्य कारण हैं- महात्मा गांधी, दक्षिण अफ्रीका के स्वाधीनता संग्राम में भारत का समर्थन और नेल्सन मंडेला। महात्मा गांधी ने उस देश में अपने जीवन के लगभग पच्चीस साल गुजारे; रंगभेदी सरकार के खिलाफ लड़ाई में भारत ने वहां की जनता को तन-मन-धन से सहयोग किया और नेल्सन मंडेला के राष्ट्रपति बनने के बाद भारत के साथ आत्मीयता बढ़ाने का हरसंभव प्रयत्न किया गया। आज जो ब्रिक्स (ब्राजील, भारत, रशिया, चाईना और साऊथ अफ्रीका) के नाम से अंतरराष्ट्रीय सहयोग संगठन बना है, उसे इस परिप्रेक्ष्य में देखा जा सकता है। हमारे दो देशों के बीच संबंधों का यह जो विशेष दर्जा है उसमें इस तथ्य पर कभी गौर नहीं किया जाता कि दक्षिण अफ्रीका में भारतवंशियों की आबादी बहुत कम है, संभवत: जनसंख्या के दो प्रतिशत के आसपास। इनमें से भी अधिकतर क्वाजुलू - नटाल प्रांत में ही निवास करते हैं।

यह सर्वविदित है कि अंग्रेजी राज के दौरान बड़ी संख्या में भारतीयों को गुलाम बनाकर दुनिया के अलग-अलग देशों में ले जाया गया था, जहां उन्हें अमानवीय परिस्थिति में जीना पड़ता था। वे मुख्यत: गन्ने के खेतों में काम करते थे। प्रशांत महासागर में फिजी द्वीप, कैरेबियन सागर में जमैका, ब्रिटिश गियाना, सूरीनाम आदि देश, अफ्रीका में मॉरिशस और दक्षिण अफ्रीका आदि। 1860 के आसपास भारत के विभिन्न प्रदेशों से गरीब किसानों को झांसे देकर इन दूर देशों में ले जाने का क्रम शुरु हुआ था। इनके कुछ-कुछ वर्णन मॉरिशस के लेखक अभिमन्यु अनंत के उपन्यास 'लाल पसीना', सुपरिचित लेखक गिरिराज किशोर के उपन्यास 'पहला गिरमटिया', अंग्रेजी लेखक अमिताभ घोष के उपन्यास 'सी ऑफ पॉपी' आदि रचनाओं में पढ़ने मिलते हैं।

यूं अफ्रीका महाद्वीप के साथ भारत के व्यापारिक संबंध बहुत पहले से रहे हैं। केन्या, यूगांडा आदि कुछ देशों में भारतीय व्यापारियों ने अपनी पेढ़ियां भी डाल ली थीं। गुजराती मूल के अनेक भारतीय इन देशों मेें लगभग दो सौ साल से निवास करते आए हैं और उन्हीं में से बहुत से आगे चलकर इंग्लैण्ड व अमेरिका में जाकर बस गए। मॉरिशस अफ्रीका का एक ऐसा द्वीप देश है, जहां भारतीय बंधुआ मजदूर बनकर गए और 1965 में स्वतंत्रता हासिल होने के बाद से वे लगातार देश की जनतांत्रिक राजनीति में अपना वर्चस्व बनाए हुए हैं।
दक्षिण अफ्रीका का उदाहरण इनसे थोड़ा अलग है। वहां एक तरफ भारतीय मजदूर बेगारी करने के लिए जबरिया ले जाए गए तो दूसरी ओर सम्पन्न भारतीय व्यापारियों के व्यवसायिक संबंध भी दक्षिण अफ्रीका की रंगभेदी सरकार के साथ बन गए थे। महात्मा गांधी स्वयं ऐसी ही एक भारतीय फर्म के वकील  के नाते दक्षिण अफ्रीका गए थे। वे अगर न गए होते तो दक्षिण अफ्रीका की राजनीति शायद कुछ और ही होती और शायद भारत की भी! दक्षिण अफ्रीका धन-धान्य की धरती है। हिन्द महासागर और भूमध्य सागर दोनों यहां आकर मिलते हैं। हीरा, सोना और अनेक बेशकीमती पत्थर यहां की रत्नगर्भा धरती में छिपे हैं। इनकी खदानों में लगभग सबके सब अफ्रीकी मजदूर ही दारुण परिस्थितियों में काम करते हैं। जब अंग्रेजों ने यहां गन्ने की खेती शुरू की तो उसके लिए वे मुख्यत: भारत से मजदूर लेकर आए। 

दक्षिण अफ्रीका में इस तरह भारतवंशियों की सात-आठ पीढ़ियां बीत चुकी हैं। इनमें बिहार और पूर्वी उत्तरप्रदेश के अलावा तमिलनाडु से लाए गए व्यक्तियों की ही संख्या अधिक थी। हमारी यात्रा के दौरान अनूप सिंह पथ प्रदर्शक के रूप में हमारे साथ थे। अनूप सिंह के लकड़दादा रीगु शिवचंद 1892 में यहां लाए गए थे। शिवचंद का पैतृक निवास भोजपुर इलाके के किसी गांव में है। गन्ने के खेत में काम करते हुए दो तीन साल  बाद उन्होंने जिस युवती से विवाह किया वह भी उसी इलाके से बिना परिवार अकेली लाई गई थी। आज शिवचंद की आठवीं-नवीं पीढ़ी तक आकर उनके खानदान के लगभग नौ सौ सदस्य दक्षिण अफ्रीका में आबाद हैं। अनूप सिंह थोड़ा गर्व से बताते हैं कि महात्मा गांधी और शिवचंद लगभग एक ही समय में दक्षिण अफ्रीका आए थे। उनके ही परिवार के एक अत्यंत सम्मानित व्यक्ति मेवा रामगोबिन से इला गांधी का विवाह हुआ था। डरबन से पीटर मॉरित्जबर्ग जाते समय बस में अनूपसिंह ने हमें एक पुस्तक दिखलाई जिसमें उनके परिवार का वंशवृक्ष और आद्योपांत इतिहास अंकित था। शिवचंद का यह बडा कुनबा अब दो साल में एक बार पारिवारिक मिलन का आयोजन करता है, ताकि सब लोग एक दूसरे से जान पहचान और संपर्क बनाए रख सकें।
इस पुस्तक के अवलोकन से ज्ञात हुआ कि दक्षिण अफ्रीका के इन भारतवंशियों के बीच जात-पांत का कोई बंधन नहीं है। दो-तीन पीढ़ी पहले तक भारत से लाए जो रीति-रिवाज चल रहे थे, वे भी लगभग अब टूट गए हैं। एक तरह से ये भारतवंशी अपने लिए एक नई पहचान गढ़ रहे हैं। मुझे ध्यान आया कि ऐसा ही कुछ तो मैंने अंडमान निकोबार में भी देखा था। अपने घर से काले कोसों से दूर मुसीबत के मारे लोग किस तरह भाईचारा या बहनापा या संबंधों की एक नई बुनियाद डाल लेते हैं तथा इस तरह एक अनुकरणीय मिसाल भी पेश करते हैं, इस पर गौर किया जाना चाहिए।

लुथुली गांव और फीनिक्स की यात्रा में हमारे साथ जय याने प्रोफेसर जयनाथन गोविन्दर थे। जय नेल्सन मंडेला विवि में समाजशास्त्र के प्राध्यापक हैं। उनसे मैंने 'गोविन्दर' सरनेम के बारे में जिज्ञासा प्रकट की। उन्होंने बताया कि उनकी परदादी भी अकेले ही कोई सवा सौ साल पहले यहां आईं थीं। उनका परिवार मूलत: बंगलुरू के पास किसी गांव से है। इससे अनुमान होता है कि मूलरूप में नाम गोविन्द राजू या गोविन्दन रहा होगा, जो लिखने में किसी भ्रांति के कारण गोविन्दर बन गया। अनूप और जय के इन दोनों आत्मवृत्तांतों से मालूम पड़ता है कि गुलामी के उस दौर में भारत की गरीब औरतों को भी न जाने कितनी यंत्रणाओं का सामना करना पड़ा होगा। डरबन में डॉ. निर्वाधा सिंह के घर आने का भी न्यौता मुझे मिला। उनका परिवार का मूल स्थान जयपुर, राजस्थान के पास किसी गांव में हैं, जबकि निर्वाधा के पति गुजराती मूल के हैं, जिनके कोई पुरखे दर्जी का काम करने के लिए यहां आए थे। इस तरह इस भारतवंशी समाज में अनायास ही एक लघु भारत का दर्शन होता है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, दर्जी, कोयरी, चर्मकार, यादव, तेली सबके सब मुसीबतों के मारे यहां आए और न सिर्फ एकसूत्र हुए, बल्कि कठोर मेहनत व भांति-भांति की यातना झेलने के बाद उन्होंने अपने वजूद को इस तरह बचाकर रखा कि आज उनकी संतानें दक्षिण अफ्रीकी समाज में अपने लिए एक सम्मानजनक स्थान हासिल कर सकी।

यह दिलचस्प तथ्य है कि इन भारतवंशियों की अपनी कोई भाषा है तो वह प्रथमत: अंग्रेजी और फिर जुलू है। वे आपस में भी अंग्रेजी में ही बात करते हैं। यहां भोजपुरी, तमिल या गुजराती लगभग व्यवहार में नहीं आती। यद्यपि ये भारतवंशी नागरिक पूरी तरह से दक्षिण अफ्रीकी ही हैं और उन्हें नागरिकता के सारे अधिकार प्राप्त हैं, लेकिन यह जानकर चिंता होती है कि मूल अफ्रीकियों और भारतवंशियों के बीच संबंध बहुत सौहार्द्रपूर्ण नहीं है। इसके कई कारण हैं - युवाओं के लिए रोजगार के अवसर नहीं है, उनका इतिहास ज्ञान भी सीमित है; मंडेला की महात्मा गांधी की तरह धीरे-धीरे जीवित आदर्श के बजाय दीवार पर टंगी तस्वीर में बदलते जा रहे हैं; अधिकतर पढ़े-लिखे नौजवान अब विदेशों का रूख कर रहे हैं; हम भारतीय भी दक्षिण अफ्रीका सैर सपाटे के लिए ही जाते हैं। ऐसे में जब तक दक्षिण अफ्रीका की सरकार अपने इन समुदायों के बीच तादात्म्य बढाने के लिए ठोस उपाय नहीं करती, भारतवंशी वहां उस तरह निर्भय होकर नहीं रह पाएंगे जिसका कि उन्हें हक हैं। 

देशबंधु में 23 अगस्त 2012 को प्रकाशित 




Tuesday 21 August 2012

शीशे का मसीहा



भारत की जनता, खासकर मध्यवर्ग, को हर वक्त एक न एक मसीहा की तलाश रहती है। आगे चलकर फिर वह शीशे की मूरत क्यों न हो। ख्याल आता है किसी शायर ने 'शीशे का मसीहा' इस शीर्षक से एक रचना भी की  थी। पिछले तीस-चालीस साल में हमने ऐसे बहुत से मसीहाओं को देखा है। वे रंगमंच पर आते हैं, कुछ समय तक अपने अभिनय से दर्शकों को प्रभावित और मुग्ध करते हैं और फिर या तो नेपथ्य में खो जाते हैं अथवा अपना रोल ही बदल डालते हैं।

टी.एन. शेषन एक ऐसे ही मसीहा थे। जनता ने उन्हें खूब सिर-आंखों पर बैठाया। ऐसा लगा कि वे अकेले ही चुनाव सुधारों के माध्यम से देश की राजनीति में आ रही गंदगी को एक सिरे से साफ कर देंगे, लेकिन फिर क्या हुआ? जिस कांग्रेस के वे इतने कृपापात्र थे उसे छोड़कर वे शिवसेना की शरण में चले गए और फिर उसी गंदी (?) राजनीति  में अपने लिए बसेरा ढूंढ़ने लगे। उस दौर में उनके कुछ लघु अवतार भी जनता के देखने में आए। वे शेषन की तरह अपनी विराट उपस्थिति दर्ज नहीं करा पाए।

पिछले साल देश ने दो मसीहाओं को एक साथ देखा। एक ने अपने इर्द-गिर्द श्रीराम पंचायतन जैसा तामझाम खड़ा कर लिया और दूसरे लगभग अकेले ही गरजते रहे। हमने इन दोनों की होड़ भी देखी और एक दूसरे का साथ देने की कसमें भी सुनी। इनमें से एक मुम्बई जाकर जो फिसले तो फिर फिसलते ही चले गए, अब वे राजनीतिक पार्टी बनाने की बात कर रहे हैं। पाठक जान गए होंगे हमारा आशय अन्ना हजारे से है। उनकी पंचायत के सदस्यों में कौन कहां है , कुछ ठीक पता नहीं चल रहा है, लेकिन सवाल अपनी जगह पर है कि राजनीतिक दल बनाना था तो पहले ही क्यों नहीं बना लिया!

दूसरे याने बाबा रामदेव रामलीला मैदान से स्त्रीवेश धारणकर जो भागे तो काफी समय बाद लौटकर मंच पर आए। वे अब भी पहले की ही तरह गरज रहे हैं और जांच एजेंसियों द्वारा जारी नोटिस को राजनीति प्रेरित बता रहे हैं। उनसे पूछने को जी करता है कि सरकार के विरूध्द आंदोलन खड़ा करना क्या अपने आप में राजनीतिक कदम नहीं है और फिर सरकार आपको  नोटिस पर नोटिस भेजे, यह नौबत ही आपने क्यों आने दी। बाबा से यह भी पूछा जाना चाहिए कि अपने साथी बालकृष्ण को उन्होंने कैसे गांधी, भगत और सुभाष की पंक्ति में खड़ा कर दिया। इस आखिरी प्रश्न का जवाब चाहें तो उनके नए-नए सहयोगी वेदप्रताप वैदिक या देविन्दर शर्मा ही दे दें।

पिछले साल जनरल वी.के. सिंह ने भी मसीहा बनने की कोशिश की। वे सरकार में एक अहम और संवेदनशील ओहदे पर रहते हुए उसी सरकार के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट चले गए। वहां से हार जाने के बाद भी उनकी हिम्मत कम नहीं हुई है। वे कभी राजपूत सभा में जाकर अपना अभिनंदन करवाते हैं, तो कभी अन्ना हजारे, तो कभी बाबा रामदेव के मंच पर पहुंच जाते हैं। हमें आश्चर्य नहीं होगा अगर भ्रष्टाचार से लड़ने के नाम पर वे अपनी सेवाएं किसी दिन भाजपा को सौंपने की पहल कर दें। उन्हें हम इतना ही याद दिलाना चाहेंगे कि मेजर जनरल भुवनचंद्र खंडूरी जैसे सैनिक से राजनेता बने ईमानदार व्यक्ति को भाजपा नहीं झेल पाई और अब वे फिलहाल हाशिए पर छोड़ दिए गए हैं। 

लगभग साल-डेढ़ साल पहले मीडिया में सीबीआई के निदेशक ए.के. सिंह का नाम बड़ी प्रमुखता से लिया जा रहा था। किसी पत्रिका ने उन्हें भ्रष्टाचार के विरूध्द आशा की चमकती किरण के रूप में देखा था। यह शायद राष्ट्रमण्डल खेलों के आसपास की बात है। श्री सिंह ने शायद हो कि इस तरह फेंके गए चारे निगलने से इंकार कर दिया, इसलिए अब उनकी बात कोई नहीं करता! सीबीआई पर राजनीतिक मकसद से वैसे ही आरोप लगातार लग रहे हैं, जैसे पहले लगाए जाते थे।

शीशे के मसीहाओं की इस लंबी कतार में सबसे ताजा नाम देश के महालेखानियंत्रक वी.के. राय का है. जनता को ऐसा बताया जा रहा है मानो भ्रष्टाचार से खात्मे के लिए वे ही देश की आखिरी उम्मीद हैं। श्री राय भी महाप्रतापी पांडव भीम की भांति आगे-पीछे देखे बिना अपनी गदा घुमाए जा रहे हैं। हम ऐसे अफसरों को जानते हैं जो शासकीय सेवा में रहते हुए भी अपनी सामाजिक प्रतिबध्दता के लिए जाने जाते थे और जिन्हें नौकरी के दौरान अपने मूल्यबोध के कारण असुविधाओं का सामना भी करना पड़ा था। श्री विनोद राय निश्चित रूप से इस परम्परा के वारिस नहीं हैं। इसलिए आज एक तबका जहां उनकी वाहवाही कर रहा है, तो एक बड़ा वर्ग उनका मुखर आलोचक भी बन गया है। यूपीए सरकार की घोर विरोधी पत्रकार तवलींन सिंह ने तो अपने कॉलम में तो साफ-साफ लिखा है कि श्री राय सीएजी से रिटायर होने के बाद राजनीति के मैदान में उतर सकते हैं। अगर ऐसा होता है तो हमें आश्चर्य नहीं होगा। 

अनुमान होता है कि देश  को 2014 के आमचुनावों के पहले ऐसे दो चार और अवतारी पुरुषों को देखने और झेलने का दुर्भाग्य मिलेगा।

देशबंधु में 21 अगस्त 2012 को प्रकाशित 

 

Sunday 19 August 2012

समृध्दि (?) की कीमत





1991
 में सक्रिय राजनीति को अलविदा कह चुके पी वी नरसिम्हाराव संयोगवश प्रधानमंत्री बने और उनके पद सम्हालने के साथ ही देश में आर्थिक उदारीकरण का दौर शुरू हुआ। कहना न होगा कि वर्तमान प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने उस अवधि में वित्तमंत्री के रूप में अपने नेता का साथ खूब निभाया। यह एक विचित्र सच्चाई है कि जो डॉ. सिंह श्री राव के इतने विश्वस्त थे, उन्हीं को सोनिया गाँधी ने 2004 में प्रधानमंत्री बनाया। इसी से डॉ. सिंह के दबदबे का अनुमान लगाया जा सकता है।  उनकी अपनी तो कोई राजनीतिक धरोहर न तब थी, न अब है तो फिर क्या कारण था कि उन्हें इतना महत्व देकर सत्ता के शीर्ष पर बैठाया गया! क्या इसलिए कि देश की आर्थिक और राजनैतिक जरूरतों के बीच उनसे उम्दा समन्वय कोई और नहीं कर सकता था? क्या इसलिए कि देशहित में आवश्यक कठोर आर्थिक नीतियां लागू करने में वही एकमात्र व्यक्ति थे, जिसे अपनी राजनीतिक जमीन खिसकने की कोई चिंता नहीं थी? क्या इसलिए कि बदलती हुई दुनिया के नए आर्थिक समीकरणों को उनसे बेहतर कोई और नहीं जानता था?

जो भी हो, इतना तो स्पष्ट है कि 1991 में जो आर्थिक नीतियां लागू की गईं, वे ही कमोबेश आज तक चली आ रही हैं। अल्पकालिक प्रधानमंत्री चंद्रशेखर के समय देश का सोना गिरवी रखने की नौबत आई थी, उस स्थिति से उबारने का श्रेय मनमोहन सिंह को ही दिया जाता है। हमें उनकी नीतियाँ न तो राव सरकार के दौरान पसंद आयीं थी, और न आज ही जंचती है, लेकिन इसे क्या कहियेगा कि अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में एनडीए सरकार भी उन्हीं नीतियों पर चलती रही। इसका सीधा मतलब है कि देश की आर्थिक-वाणियिक-वित्तीय नीतियों से प्रत्यक्ष सरोकार रखने वाले समुदाय का बहुमत इन बीस सालों के दौरान उनका लगातार समर्थन करते रहा है। हमें भले ही जीडीपी में बढ़त से कोई फर्क न पड़ता हो, लेकिन एक वर्ग तो है, जिसके लिए ऐसे आंकड़े मायने रखते हैं। शेयर मार्केट से उद्योगपति और निवेशक तो प्रभावित होते ही हैं, दफ्तरों के बाबू भी अपने आधे समय का उपयोग कंप्यूटर पर शेयर मार्केट का उतार-चढ़ाव देखने में ही बिताते हैं। इसी तरह अन्य  वर्ग भी हैं जिन्हें नई आर्थिक नीतियां मुफीद आ रही हैं।

आज जब सीएजी द्वारा एक के बाद एक रिपोर्ट में सरकारी कामकाज में कथित भ्रष्टाचार का खुलासा किया जा रहा है, तब यह याद कर लेना उचित होगा कि इन नीतियों से किसे लाभ पहुंचा है। अगर ये नीतियां न होतीं तो न तो जीडीपी बढ़ती, न शेयर मार्केट और उद्योगों में पूंजी निवेश होता, न छठे वेतन आयोग की सिफारिशें लागू हो पातीं, न फोरलेन-सिक्सलेन राजमार्ग बनते, न दिल्ली का टी-3 विमानतल बनता, न माल खुलते, न बच्चे-बच्चे के हाथ में मोबाइल फोन होता, न वे अन्य सारी सुख-सुविधाएँ जुड़तीं जिनके लिए भारत का मध्यवर्ग तरसता था। जब अर्थनीति और उसके साथ-साथ सामाजिक परिदृश्य में इतना क्रांतिकारी परिवर्तन आना था तो उसके साथ बहुत सी विसंगतियाँ भी आनी ही थीं। अभी यादा वक्त नहीं गुजरा है, 2010 तक तो देश का मध्यवर्ग मनमोहन सिंह पर मुग्ध था। 

यूपीए सरकार पर भ्रष्टाचार के ऐसे संगीन आरोप तो पिछले डेढ़-दो साल के दौरान ही लगे हैं। ऐसा कैसे हुआ कि जो डॉ. सिंह इतने लम्बे समय तक सदाचार की प्रतिमूर्ति माने जाते थे, अब उन पर ही व्यक्तिगत आरोप लग रहे हैं और उनके इस्तीफे की मांग हो रही है? हमें एक कारण तो यह प्रतीत होता है कि भाजपा सत्ता में लौटने के लिए बेसब्र है। गुजरात जीतना उसके अजेंडे में सर्वोपरि है, उसे आधार बनाकर वह अगले लोकसभा चुनाव की तैयारी करना चाहती है। दूसरे, विदेशी निवेश के चलते मीडिया न सिर्फ आत्मसंयम खो चुका है, वह विदेशी निवेशकों के इशारों पर भी चल रहा है। वह एक साथ फरियादी, वकील, पुलिस और जज- ये सारी भूमिकाएं निभाने लगा है। तीसरे, उद्योग जगत को जनतांत्रिक राजनीति पसंद नहीं आती। यदि खुदा-न-खास्ता कांग्रेस में नयी पीढ़ी आगे आ गयी तो वैश्विक पूंजीवाद को तकलीफ होगी। ठीक वैसे ही जैसे कि उसे अपरिपक्व राजीव गाँधी स्वीकार्य थे, लेकिन सही सबक सीख कर वापस लौट रहे राजीव नहीं। 

दुनिया का ऐसा कोई भी समाज नहीं है जो भ्रष्टाचार को मान्यता देता हो, लेकिन ऐसा कोई शासन भी नहीं है, न था जो पूरी तरह भ्रष्टाचार से मुक्त रहा हो। यह हमारे सामाजिक-राजनीतिक जीवन की अनिवार्य किन्तु अवांछित विवशता है। केंद्र सरकार पर जब आरोप लग रहे हैं तो यह भी देख लेना उचित होगा कि कोई भी प्रदेश सरकार आज आरोपमुक्त नहीं है, यद्यपि कुछेक मुख्यमंत्री सत्यवादी हो सकते हैं! हमने लगभग बीस वर्ष पूर्व जिस उपभोक्ता-केन्द्रित, बाजार-नियंत्रित पूंजीवादी अर्थव्यवस्था को अंगीकार किया था, उसके परिणामस्वरुप आज की विषम स्थिति बननी ही थी। यूपीए में कौन कितना पाक-साफ है, हम नहीं जानते, लेकिन विपक्ष की चादर भी उजली नहीं है। जब तक हम समाजवादी अर्थव्यवस्था की ओर नहीं लौटते, यह मांर ऐसा ही बना रहेगा। फिर भले दिल्ली की कुर्सी पर चाहे यूपीए का कब्जा हो या एनडीए का। इसलिए पाठकों से हमारा अनुरोध है कि इस बारे में नेताओं के जो भी बयान आ रहे हों, उन्हें ब्रह्मवाक्य मानने की गलती न करें। 

देशबंधु में 20 अगस्त 2012 को प्रकाशित 




 

Friday 17 August 2012

परीक्षा की एक और घड़ी




भारत की उदारवादी परम्परा के लिए यह परीक्षा की घड़ी है। हमारे संसद भवन की भीत पर कहीं अंकित है- ''उदार चरितानाम् वसुधैव कुटुम्बकम्''। स्कूल के दिनों में ही हर विद्यार्थी को इस विषय पर निबंध लिखना ही होता है। आज फिर यह देखना है कि इस सूक्ति को हम अपने जीवन में कहां तक उतार पाते हैं।

एक तरफ पाकिस्तान के सिंध प्रांत से पलायन कर भारत आ रहे भयभीत हिन्दू हैं, दूसरी तरफ उत्तरपूर्व में एक बार फिर उत्तेजना और हिंसा का माहौल है, तीसरी ओर पुणे, हैदराबाद और बंगलुरू में उत्तरपूर्व प्रदेशों के निवासियों के बीच पनप रहा भय और पलायन है और चौथी ओर मुम्बई में हुआ हिंसक प्रदर्शन है। इस सबके बीच शासकों, राजनेताओं और प्रशासनिक अधिकारियों के तोता-रटंती बयान हैं जिन पर किसी को भरोसा नहीं होता और आग में घी डालने के लिए 24#7 का मीडिया है जिसमें नाममात्र को भी आत्मनियंत्रण नहीं है।

हम घटनाचक्र की बारीकियों पर नहीं जाना चाहते। पाठकों के पास सूचनाओं की कमी नहीं है। मीडिया और सोशल मीडिया जो कुछ परोस रहा है उसमें तथ्यों को निकालना व घटनाओं का विश्लेषण करना आसान नहीं है, लेकिन विवेकशील नागरिकों को यह कष्ट उठाना ही चाहिए। उन्हें हम कहना चाहते हैं कि ऐसे कठिन समय भावनाओं में बहने से अपना याने देश का ही नुकसान होता है। यह समझना जरूरी है कि विभिन्न समुदायों के बीच अविश्वास, घृणा और हिंसा का माहौल बनाने के पीछे कौन सी ताकतें हैं और उनके मंसूबे क्या हैं। काश्मीर, पंजाब और असम से लेकर केरल और तमिलनाडु तक पूरे देश में समय-समय पर हमने हिंसा की वाला को न सिर्फ महसूस किया है बल्कि उसमें बार-बार जले भी हैं। यह सामान्य बुध्दि कहती है कि जब पड़ोसी का घर जलता है तो उसकी लपटों से हमारा घर भी नहीं बच सकता। इसलिए अपने पाठकों से निवेदन है कि वे किसी भी तरह से भावनाओं के उन्माद में न आएं और फेसबुक, टि्वटर, एसएमएस आदि का उपयोग भड़काने वाले बयानों के लिए न होने दें।

जैसा कि जाहिर है, कानून व्यवस्था को संभालने की फौरी जिम्मेदारी प्रशासन और पुलिस की है। यह दुर्भाग्य की बात है कि स्थानीय प्रशासन और पुलिस को अपना काम सही ढंग से अंजाम देने के लिए जिस स्वायत्तता की जरूरत होती है वह धीरे-धीरे खत्म होती गई है। बड़े-छोटे अधिकारी अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए राजनेताओं के साथ अवांछित गठजोड़ कर लेते हैं। अभी जैसी स्थितियां हैं उनमें यही एक मुख्य कारण है जिसके चलते प्रशासन तंत्र अपने कर्तव्य को ठीक से नहीं निभा पाया, बात चाहे मुम्बई की हो चाहे बेंगलुरू की। मुम्बई में आजाद मैदान पर संदिग्ध किस्म के लोगों को रैली निकालने की अनुमति क्यों दी जानी चाहिए थी? बंगलुरू और हैदराबाद में गुवाहाटी के लिए रेलगाड़ियों में आरक्षण की मांग एकाएक क्यों बढ़ गई? अतिरिक्त ट्रेनों की व्यवस्था करने वाले रेल अधिकारियों को इसमें कुछ भी असामान्य क्यों नहीं लगा? इन प्रदेशों का खुफिया तंत्र क्या कर रहा था? भड़काऊ पर्चे बांटने की अफवाह फैलाई गई लेकिन एक भी पर्चा क्यों नहीं मिला और राजदीप सरदेसाई कल रात प्रवीण तोगड़िया का जो पर्चा टीवी पर दिखा रहे थे वह कैसे प्रसारित होने दिया गया? इन सारे सवालों के जवाब आज नहीं तो कल मिलेंगे, लेकिन यह तो सांप निकल जाने के बाद लाठी पीटने वाली बात हो गई।

हिन्दुस्तान को अपनी सहिष्णुता की परम्परा पर बहुत गर्व रहा है। हम बताते हैं कि यही एकमात्र देश है जहां यहूदियों पर अत्याचार नहीं हुए, यही देश है जहां पारसियों को आश्रय मिला, यहां जो विदेशी आए वे भी यहां के रंग में रंग गए। हमने अंग्रेजी राज के खिलाफ लड़ाई लड़ी, लेकिन अंग्रेजों से घृणा नहीं की। मुहम्मद अली जिन्ना ने अपनी महत्वाकांक्षा के चलते पाकिस्तान तो बनवा लिया, लेकिन हिन्दुस्तान के अधिकतर मुसलमानों ने पाकिस्तान जाना कुबूल नहीं किया। आज जो कुछ हो रहा है उसे इस पृष्ठभूमि में देखने और समझने की जरूरत है।

असम और पूर्वोत्तर प्रांतों की समस्या आज की नहीं है। वहां सिर्फ हिन्दू और मुसलमान का प्रश्न नहीं है, बात सिर्फ बंगलादेशियों के अवैध अप्रवासन की नहीं है। पूर्वोत्तर में असमिया और गैर-असमियों के बीच खाई रही है; बिहार, झारखण्ड और छत्तीसगढ़ से गए चाय बागानों के किसानों को भी वहां ढेरों मुसीबतों का सामना करना पड़ा है। स्थानीय जनजातियों के बीच भी हिंसक संघर्ष होते रहे हैं। इस सबके बावजूद पूर्वोत्तर धीरे-धीरे एक वृहद भारतीय परिवेश में अपने आपको ढालने में यत्न से जुटा हुआ है। इसमें समय लगेगा। हमने द्रविड़ आन्दोलन देखा है और खालिस्तान की मांग को। काश्मीर तो आए दिन खबरों में रहता ही है। गुलामी से मुक्त हुए हमें अभी पैंसठ साल ही हुए हैं। एक व्यक्ति के लिए यह लंबी उम्र हो सकती है, लेकिन एक देश के लिए यह समय का छोटा सा हिस्सा है। इसे समझकर सब्र से काम लेने की जरूरत है। एक तरफ कानून और व्यवस्था की मशीनरी को अपना काम करना चाहिए तो दूसरी ओर बहुसंख्यक समाज को अपने बीच के अल्पसंख्यकों के साथ सद्भाव और सौमनस्य कायम करने का यत्न करना चाहिए। सबसे बडी ज़िम्मेदारी भारत सरकार और संसद की है। आज के हालात में कुछ ठोस नीतिगत निर्णय लिए जाना चाहिए। इस बारे में हमारे कुछ सुझाव हैं-

1. दुनिया में जहां भी भारतवंशी हैं, उन्हें दोहरी नागरिकता दी जाए। फिर वह चाहे पाकिस्तान का हिन्दू हो या श्रीलंका का तमिल। पीआईओ की अवधारणा सम्पन्न एनआरआई तक सीमित नहीं रहना चाहिए।

2. बंगलादेश या अन्य पड़ोसी देश से भारत आने वाला हर व्यक्ति आतंकवादी या अपराधी नहीं होता। अधिकतर लोग बेहतर जीवन की तलाश में भारत आते हैं। वे चाहे नेपाल के गोरखा हों या बंगलादेश के किसान। इन्हें आप नागरिकता का हक भले न दें, लेकिन भारत में काम करने के लिए इन्हें बाकायदा परमिट दिए जाएं।

3. स्मरणीय है कि आव्रजन की समस्या अमेरिका, इंग्लैण्ड, फ्रांस, इटली, जर्मनी आदि तमाम देशों में है। भारत से ही हर वर्ष कितने लोग अवैध रूप से यूरोप अथवा अमेरिका जाकर बस जाते हैं। याद कीजिए देवानंद-टीना मुनीम की फिल्म ''देस-परदेस''।

4. वर्क परमिट देने के लिए सीमा पर इसके लिए आवश्यकतानुसार दफ्तर खोले जा सकते हैं। इससे आने वाला व्यक्ति निर्भय होकर अपना जीवनयापन भी कर सकेगा और यथासमय वापिस अपने देश लौट जाएगा।

5. देश में आंतरिक आव्रजन भी भारी संख्या में होता है। राज्यों को इसके लिए सूचना और निगरानी तंत्र विकसित करना चाहिए। छत्तीसगढ़ के मजदूर यदि अनंतनाग में काम कर रहे हैं तो वहां छत्तीसगढ़ सरकार का कोई अधीक्षक क्यों नहीं रह सकता? जिन प्रदेशों में पूर्वोत्तर के नागरिक बड़ी संख्या में कार्यरत हैं वहां भी उन प्रदेशों के अफसर तैनात होना चाहिए। सिर्फ दिल्ली में रेसीडेंट कमीश्नर रखना पर्याप्त नहीं है।

6. इस सबसे बढ़कर हमारा सुझाव है कि देश के युवाओं के बीच सौहार्द्र, समरसता व समन्वय स्थापित करने के लिए बहुत बड़े स्तर पर स्कूल, कॉलेज के विद्यार्थियों के लिए विनिमय कार्यक्रम चलाया जाए। हजारों युवाओं को प्रतिवर्ष अपने प्रदेश के बाहर जाकर देश को जानने-समझने के अवसर मिलना आवश्यक है। राज्य सरकारों को और खासकर राज्य के विवि को भी अपनी ओर से पहल करना लाजिमी है। जब देश के विभिन्न हिस्सों के नवयुवक एक-दूसरे से मिलेंगे तो अपने आप उनके बीच मित्रता बढ़ेगी और भ्रांतियां दूर होंगी।

पाठक इन उपायों में कुछ और नए उपाय जोड़ सकेंगे तो अच्छा ही होगा।

देशबंधु में 18 अगस्त 2012 को प्रकाशित  विशेष सम्पादकीय 

 

Thursday 16 August 2012

यात्रा वृत्तांत : गांधी की विरासत पर सम्मेलन



विश्व इतिहास में महात्मा गांधी ही संभवत: एकमात्र ऐसे जननेता हैं, जिन्होंने अपने जीवनकाल में एक नहीं बल्कि दो देशों के स्वाधीनता संग्राम में सक्रिय और निर्णायक भागीदारी की। जीवन के पूर्वार्ध्द में यदि उन्होंने दक्षिण अफ्रीका को अपनी कर्मभूमि के रूप में चुना तो उत्तरार्ध्द में मातृभूमि भारत को। इस संदर्भ में परवर्ती समय में शायद एक व्यक्ति की ही तुलना किसी सीमा तक उनसे की जा सकती है- चे ग्वेवारा की, जिन्होंने सिर्फ अपने देश बोलीविया ही नहीं, संपूर्ण लैटिन अमेरिका को अपना कार्यक्षेत्र बनाया। इस दृष्टि से देखने पर गांधीजी के विराट व्यक्तित्व को शायद और बेहतर तरीके से परिभाषित किया जा सकता है।

जैसा कि विदित है गांधी जी दक्षिण अफ्रीका में लगभग एक चौथाई सदी बिताने के बाद 1915 में भारत लौट आए थे। दक्षिण अफ्रीका में रहते हुए उन्होंने नटाल इंडियन कांग्रेस की स्थापना की थी, जिसने आगे चलकर अफ्रीकन नेशनल कांग्रेस याने एएनसी के नए नाम से एक वृहत्तर रूप ग्रहण कर लिया था। दक्षिण अफ्रीका में गोरे शासकों और रंगभेद के खिलाफ लड़ाई मुख्यत: इसी पार्टी के बैनर तले लड़ी गई और आज देश में इस पार्टी का ही शासन कायम है। एएनसी के सबसे कद्दावर नेता के रूप में हम नेल्सन मंडेला के नाम और काम से भलीभांति परिचित हैं, लेकिन इस मंच को खडा करने में डरबन क्षेत्र के ही कुछ और जीवनदानी स्वाधीनता सेनानियों की महती भूमिका रही है। एएनसी के पहले अध्यक्ष जॉन दुबे थे। डरबन विमानतल से बाहर राजमार्ग पर आते साथ ही सामने दुबे विलेज का नाम पटल दिखाई देता है। यह एक रोचक संयोग है कि भारत का एक प्रचलित कुलनाम या सरनेम दक्षिण अफ्रीका के एक महान नेता के साथ जुड़ा हुआ है, यद्यपि दोनों के बीच कोई संबंध नहीं है।

एएनसी के दूसरे प्रमुख नेता थे चीफ अल्बर्ट लुथुली। डरबन से कोई पचपन-साठ किलोमीटर दूर लुथुली का गांव है। वे एक आदिवासी कबीले के मुखिया थे, इसीलिए चींफ की उपाधि से उन्हें जाना जाता है। दक्षिण अफ्रीका में अहिंसक सत्याग्रह के द्वारा आाादी की लड़ाई का नेतृत्व करते हुए उन्हें 1960 में नोबल शांति पुरस्कार से नवाजा गया। उस एकांत गांव में उनके निवास स्थान को ही अब एक म्यूजियम का रूप दे दिया गया है। आप घर का दरवाजा खोलते ही, और टेबल पर बैठ पुस्तक पढ़ते लुथुली आपका स्वागत करते हैं। चौकिए मत! यह तो इस महानायक की मोम से बनी जीत-जागती प्रतिमा है, जिसे गांव की ही किसी महिला कलाकार ने बनाया है। 1967 में लुथुली की मृत्यु संदिग्ध परिस्थिति में हो गई थी। इस म्यूजियम में हमने लुथुली को नोबल पुरस्कार प्राप्ति के समय का व्याख्यान सुना।  यह समझकर सुखद आश्चर्य हुआ कि लुथुली ने अपनी पत्नी क ा व्याख्यान के दौरान दो-तीन बार भाव विह्वल होकर उल्लेख किया। ओस्लो में लुथुली और उनकी पत्नी से कहा गया कि आप शेष जीवन सुख शांतिपूर्वक नार्वे में बिता सकते हो, लेकिन यह प्रस्ताव उन्होंने शालीनता से ठुकरा दिया। कहना न होगा कि महात्मा गांधी एएनसी के इन सभी दिग्गजों के प्रेरणास्रोत रहे हैं।

हमने लुथुली ग्राम की यह यात्रा महात्मा गांधी की पौत्री-उनके दूसरे बेटे मणिलाल की छोटी बेटी इला गांधी के साथ की थी। गांधी जी जब भारत आ रहे थे तो मणिलाल भाई को उन्हाेंने दक्षिण अफ्रीका में अपने संघर्ष और आदर्शों की विरासत सौंप दी थी। उनका जीवन फिर डरबन के निकट फीनिक्स आश्रम में ही बीता। इस जगह पर उनके बेटे अरुण (तुषार गांधी के पिता), बेटी सीता और इला का जन्म हुआ। मणिलाल भाई स्वयं रंगभेदी सरकार के खिलाफ आन्दोलनरत रहे। उन्हें जेल यात्राएं भी करनी पड़ीं। उनकी संतानों ने भी अपने पितामह और पिता के पदचिन्हों पर ही चलना तय किया। आगे जाकर अरुण भारत आ गए थे। यहां उन्होंने कुछ साल पत्रकारिता की और फिर अमेरिका चले गए, लेकिन सीता और इला दोनों बहनों के लिए तो डरबन ही उनका घर बन गया। सीता जी का निधन  बारह वर्ष पूर्व हो गया, लेकिन इला गांधी आज बहत्तर साल की उम्र में भी बेहद स्फूर्ति और परिश्रम के साथ बापू के मिशन को आगे बढ़ाने में लगी हैं। वे राजनैतिक रूप से भी सक्रिय रहीं, गोरी सरकार में उन्हें नारबंदी झेलना पड़ी, फिर आम चुनाव हुए तो वे संसद सदस्य भी चुनी गईं, जिसे उन्होंने जल्दी ही छोड़ दिया।

मेरी दक्षिण अफ्रीका की यह यात्रा इला गांधी के निमंत्रण पर ही हुई थी। वे पिछले अनेक वर्षों से अपने सीमित साधनों में 'सत्याग्रह' नामक अंग्रेजी पत्रिका निकाल रही हैं, जिसमें गांधी दर्शन पर यदा-कदा मेरे लेख भी छपे हैं।  इला जी ने 'गांधी डेवलपमेंट ट्रस्ट' नाम से एक न्यास गठित किया है, जिसके अंतर्गत सत्याग्रह के प्रकाशन के अलावा गांधी दर्शन पर अन्य आयोजन भी होते रहते हैं। फीनिक्स आश्रम की देखभाल का जिम्मा भी इसी ट्रस्ट पर है।  डरबन टेक्निकल यूनिवर्सिटी में ट्रस्ट को दफ्तर के लिए जगह दी गई है तथा इस विश्वविद्यालय में ही ''अहिंसा के लिए विश्व केन्द्र'' नाम से एक विभाग भी संचालित होता है। इला जी ने इसी ट्रस्ट के माध्यम से अहिंसा पर एक अन्तरराष्ट्रीय सम्मेलन का आयोजन 31 जुलाई से 2 अगस्त के बीच किया था। इस सम्मेलन में भाग लेना मेरे लिए अनुपम अवसर था। इसमें लगभग बीस देशों के सौ से यादा प्रतिनिधि शामिल हुए थे। अमेरिका से मार्टिन लूथर किंग के सहयोगी रहे डॉ. बर्नार्ड लफाएट आए थे तो एशिया, अफ्रीका, यूरोप के विभिन्न देशों से आए गांधी दर्शन के अध्येता व शांति कार्यकर्ता शामिल थे। इनमें अध्यापक, इंजीनियर, डॉक्टर, पत्रकार, वकील, विद्यार्थी, राजनेता, सामाजिक कार्यकर्ता- सभी तरह के व्यवसायों के प्रतिनिधि थे। मुझे उद्धाटन सत्र में यह देखकर आश्चर्य हुआ कि डरबन नगर के 'यूथ मेयर' ने भी कार्यक्रम में शिरकत की। दरअसल दक्षिण अफ्रीका में प्रतिवर्ष हर नगर में बारहवीं कक्षा के किसी प्रतिभाशाली विद्यार्थी को यूथ मेयर चुना जाता है।

इस सम्मेलन का विषय था 'रूट्स टू फ्रूटस :नॉन -वायोलेंस इन एक्शन' अर्थात् 'बीज से फल: अहिंसा प्रयोग में'।  मकसद था कि अगर कम उम्र से ही अहिंसा की आवश्यकता के बारे में शिक्षित किया जाए तो विश्व शांति का रास्ता यादा आसान हो सकेगा। आश्चर्य नहीं कि सम्मेलन में देश-विदेश के शिक्षाशास्त्रियों की खासी उपस्थिति थी। भारतीय दल में सेवा मंदिर उदयपुर के अध्यक्ष अजय मेहता और उनकी सहयोगी प्रियंका सिंह थे जिन्होंने राजस्थान के आदिवासी बच्चों के बीच सेवा मंदिर द्वारा किए जा रहे रचनात्मक प्रयोगों पर अपन परचा प्रस्तुत किया। इसी तरह मेरठ विवि के पूर्व कुलपति डॉ. रविन्द्र कुमार और लखनऊ विवि की पूर्व प्रोफेसर किरण डंगवाल ने भारतीय दर्शन में अहिंसा पर अपना आलेख पढ़ा। एक पर्चा जिससे मैं विशेष तौर से प्रभावित हुआ वह डरबन की डॉ. निर्वाधा सिंह का था जिसमें उन्होंने लोक स्वास्थ्य और अहिंसा के बीच के संबंध को परिभाषित किया था। भारतीय मूल की यह युवा डॉक्टर दक्षिण अफ्रीकी सरकार में लोक स्वास्थ्य सलाहकार के रूप में कार्यरत हैं। अन्य आलेखों में भी इसी तरह अहिंसा से जुड़े विभिन्न पहलुओं को रेखांकित किया गया था, लेकिन सम्मेलन का केन्द्रीय स्वर यही था कि जब तक प्राकृतिक संसाधनों का कुविचारित दोहन होता रहेगा, जब तक कार्पोरेट घरानों के बेइंतहा लालच पर नकेल नहीं कसी जाएगी, जब तक सार्वभौम सरकारें पूंजीतंत्र के सामने घुटने टेकते रहेंगी तब तक विश्व समाज में हिंसा और अशांति को दूर करना एक असाध्य लक्ष्य होगा। मेरे अपने आलेख का स्वर भी यही था कि अहिंसा के विचार को फैलाने में पूंजी-पोषित मीडिया की भूमिका संदिग्ध है।  

देशबंधु में 15 अगस्त 2012 को प्रकाशित 



-- 
Lalit Surjan
Chief Editor
DESHBANDHU
RAIPUR 492001
C.G. India

Wednesday 8 August 2012

यात्रा वृत्तांत : दक्षिण अफ्रीका: बा और बापू की स्मृतियाँ



विशालकाय
 प्रवेश द्वार के भीतर काफी आगे जाकर बाँए हाथ पर संकरी सी गली में एक लौह कपाट खुलता है। भीतर एक छोटे गलियारे के दोनों तरफ दो-दो कोठरियां हैं। शायद 7#7 की। हर कोठरी पर भी एक लौह कपाट है और एक रोशनदान। एक कोने पर छत से लालटेन लटक रही है। नीचे सोने के लिए पलंग, खाट या बिस्तर नहीं, सिर्फ एक पुराना बारदाना है। दो बाल्टियां हैं- एक पानी के लिए, दूसरी शौच के लिए। इन कोठरियों का उपयोग अधिकतम अभिरक्षा वाले बंदियों के लिए किया जाता है। इन्हीं में तीसरे नंबर की कोठरी कस्तूरबा गांधी ने पहली-पहली बार कैदी जीवन गुजारा। लेकिन इतना ही नहीं, बाहर एक खुला प्रांगण है, जिसमें कतारबध्द होने के लिए लंबी रेखाएं खींच दी गई हैं। हाथ में तश्तरी लेकर घुटने के बल बैठो। जेल कर्मचारी खाने के नाम जो कुछ दें, उसे लेकर भूख शांत करो। सर्दी, गर्मी, बरसात यही नियम है। मौसम की मार से बचने के लिए सिर पर कोई छाया नहीं है। 

यह पीटर मॉरित्जबर्ग की पुरानी जेल है जिसे अब विरासत संग्रहालय और शिल्प शाला में तब्दील कर दिया गया है। एक सौ तीस साल पुरानी इस जेल में दक्षिण अफ्रीका के उपनिवेशवादी, रंगभेदवादी शासकों ने जाने कितने स्वाधीनता सेनानियों को अकथ यातनाएं दी होंगी। हां, जेल में काल कोठरी भी है जिसमें फांसी दी जाती थी। अपनी इस पहली जेल यात्रा से लेकर यरवदा के कारावास तक कस्तूरबा ने कितनी ही जेल यात्राएं कीं। अगर मोहनदास करमचंद गांधी बापू, महात्मा और राष्ट्रपिता कहलाए तो उसके पीछे बा का साहस, संघर्ष और त्याग कितना प्रबल रहा होगा, कल्पना करने से ही रोम-रोम सिहर उठता है।

पीटर मॉरित्जबर्ग दक्षिण अफ्रीका का एक छोटा किंतु प्रमुख नगर है, जोहान्सबर्ग और डरबन के बीच। क्वाजुलू -नटाल प्रांत की राजधानी, संक्षेप में पीएमबी। इसी नगर के रेलवे स्टेशन पर 7 जून 1893 की रात एक गोरे सहयात्री ने मोहनदास गांधी को धक्के देकर ट्रेन से बाहर फेंक दिया था। गेहुंआ चमड़ी वाले की ये मजाल कि गोरे साहब के साथ फर्स्ट क्लास के डिब्बे में यात्रा करे! यह सिर्फ न सिर्फ गांधी जी के जीवन को, बल्कि विश्व के राजनीतिक इतिहास को नई दिशा देने वाली युगांतरकारी घटना थी। रॉबिन आईलैण्ड में निर्वासन के अठाइस साल बिताने वाले नेल्सन मंडेला जब स्वतंत्र हुए तो उसके तत्काल बाद उन्होंने सबसे पहले भारत यात्रा की। और जैसा कि इस अवसर पर उन्होंने कहा- 'आपने हमें एक बैरिस्टर भेजा था, हमने उन्हें महात्मा बनाकर वापिस भेजा।' दक्षिण अफ्रीका में जून की कड़कडाती ठंड में रेल यात्रा के इस अनुभव ने ही सचमुच गांधी जी को विश्ववंद्य महात्मा बनने की ओर अग्रसर किया।
पीएमबी के रेलवे स्टेशन पर एक प्रस्तर फलक स्थापित है, जिसमें लिखा है कि इस फलक के आसपास ही उपरोक्त वाकया हुआ था। स्थान निर्धारित करने में रेलवे तंत्र को काफी माथापच्ची करना पड़ी। पुराने रिकार्ड खंगाले गए। 7 जून 1893 की उस ट्रेन में फर्स्ट क्लास का डिब्बा कहां लगा था, इंजिन से कितनी दूर था और इंजिन कहां पर रुका होगा, यह सब नापजोख की गई और तब स्थान निर्धारित हुआ। इस पर मजा यह कि कुछ अध्येताओं के अनुसार उस जमाने में सिर्फ एक ही प्लेटफार्म था और वह पटरी के दूसरी ओर था, और जहां फलक लगा है वह नया प्लेटफार्म है।

 जो भी हो, यह रेलवे स्टेशन एक युगांतरकारी घटना का साक्षी तो है ही। इस प्रस्तर फलक के अलावा स्टेशन के प्रतीक्षालय में गाँधी जी की एक तस्वीर लगाई गई है, साथ ही स्टेशन के प्रवेश कक्ष में बहुत सारे फलक हैं। 25 अप्रैल 1997 को पीएमबी की नगर परिषद ने महात्मा गांधी को मरणोपरांत ''नगर की स्वतंत्रता'' के सम्मान से विभूषित किया। नेल्सन मंडेला इस अवसर पर उपस्थित थे और महात्मा के पौत्र, तब भारत के उच्चायुक्त गोपाल गांधी भी। 16 फरवरी 1998 को मॉरीशस के प्रधानमंत्री नवीन रामगुलाम ने यहां आकर बापू को अपनी श्रध्दांजलि अर्पित की। दक्षिण अफ्रीका की प्रखर बुध्दिजीवी गांधीवादी कार्यकर्ता फातिमा मीर ने गांधी जी को समर्पित एक अभिनंदन पत्र लिखा। 30 जनवरी 2001 को दक्षिण अफ्रीका के एक संसद सदस्य बापू की पुण्यतिथि पर श्रध्दांजलि अर्पित करने पहुंचे। भारत के राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम भी यहां 16 सितम्बर 2004 को आए। इन सबके फलक वहां प्रदर्शित हैं। एक ही कसर रह गई। अगर भारत होता तो स्थानों के नाम बदलने की हमारी अदम्य प्रवृत्ति के चलते स्टेशन का नाम भी शायद बदलकर गांधीबर्ग कर दिया गया होता!

इस नगर के दो और स्थानों का उल्लेख मुझे करना चाहिए। शहर के भीड़-भाड़ वाले इलाके में टाउन हॉल या प्रांतीय सचिवालय के सामने बीच सड़क पर गांधी जी की एक आदमकद प्रतिमा नगरपालिका ने स्थापित की है। संगमरमर में ढली यह प्रतिमा- बाएं हाथ में छड़ी, दायां हाथ अभय में ऊपर उठा- सहज ही प्रेरित करती है। इस प्रतिमा के चबूतरे पर एक ओर अल्बर्ट आइंस्टीन की वह सुप्रसिध्द उक्ति उत्कीर्ण है कि - ''आने वाली पीढ़ियों को यह विश्वास करना कठिन होगा कि हमारे बीच कभी हाड़ मांस से बना एक ऐसा व्यक्ति भी था।'' दूसरी ओर गांधी जी का एक कथन उत्कीर्ण है कि अहिंसा के लिए अप्रतिम साहस की आवश्यकता होती है। दूसरी उल्लेखनीय जगह है- एलेन पेटन एवेन्यू। इस मार्ग का नामकरण मेरे प्रिय साहित्यकारों की सूची में बहुत ऊपर दर्ज उस व्यक्ति की स्मृति में किया गया है जो स्वयं गौरांग था लेकिन जिसने जीवन भर उपनिवेशवाद और रंगभेद का साहस के साथ मुकाबला किया, अफ्रीका की अश्वेत जनता की पीडा को अपनी लेखनी से मुखरित किया और 'धरती के आंसू' (क्राय द बिलव्ड कंट्री) शीर्षक से कालजयी उपन्यास लिखा, जिसके लिए उन्हें नोबेल पुरस्कार से भी नवाजा गया।

डरबन से एक दिशा में पीएमबी है और दूसरी दिशा में फीनिक्स। फीनिक्स कभी एक अलग गांव रहा होगा, लेकिन अब वह डरबन की वृहत्तर नगरपालिका की सीमा में आ गया है। 1904 में गांधी जी ने इसी जगह पर लगभग सौ एकड़ के क्षेत्र में फीनिक्स आश्रम की स्थापना की थी। वे डरबन में 1903 में स्थापित अपना इंटरनेशनल प्रिंटिंग प्रेस उठाकर यहां ले आए थे। इस प्रेस से ही उन्होंने पहले पहल 'इंडियन ओपिनियन' निकालकर अपनी मूल्यपरक पत्रकारी प्रतिभा का भी परिचय दिया था। यहां एक फुटबाल मैदान भी था और सब्जियों का खेत भी। यद्यपि अब एक बड़े हिस्से पर अतिक्रमण हो चुका है। गांधी जी ने श्रम की महत्ता, बुनियादी तालीम, सविनय अवज्ञा, अहिंसा के अपने प्रयोग इस स्थान से ही प्रारंभ किए थे। 1985 के जातीय दंगों में यह आश्रम पूरी तरह जलाकर खाक कर दिया गया था, लेकिन इसका पुनर्निर्माण हुआ, गांधी जी का निवास 'सर्वोदय' दुबारा बना और 27 फरवरी सन् 2000 को राष्ट्रपति एमबेकी ने इसे पुन: लोकार्पित किया।

देशबंधु में 9 अगस्त 2012 को प्रकाशित 

Tuesday 7 August 2012

Role of Media in Promoting Non-Violence


                       
 Scope Of Media
I often come across people who on knowing that I am a journalist want me to tell them “What’s the hot story of the day”. Similarly, I also hear comments almost regularly from friends and acquaintances such as “Oh! You are so powerful. You can do whatever you want. You don’t even spare leaders and bureaucrats” and so on. Now what do these gratifying utterances really mean? It’s simply that we journalists or media persons are held in high esteem by the general public, that it has immense faith, howsoever misplaced, in our capabilities and that we are supposed to stay alert as the watchdogs for the common good. This public perception is not a recent development but has its roots in the very structure of the human society. As I see it, what distinguishes the mankind from other animals is that we possess a constant urge to relate with the fellow peoples and to that purpose we have in a unique way developed multiple modes of communication- from primitive to new media and from oral transmission to digital technology. By using these media, we not only carry the news and tidings, but also share thoughts and experiences on a whole range of subjects. The long and short of the story is that we are uniquely ever poised to champion a worthy cause for the greater public good.
What Is Non-Violence
Let us now turn our focus on what do we understand from Ahimsa or Non-Violence. In a general manner, we tend to equate ahimsa with passive resistance or for showing compassion to other beings. There is no dearth of people, at least in India, whose definition of ahimsa does not go beyond certain dietary habits or animal protection. In fact, the real meaning of ahimsa goes much farther than this narrow understanding. In my opinion, and I am sure that you would agree with me, non-violence is never passive; it is rather the highest degree of active resistance. A practitioner of non-violence is the one who fights the wrong with deep conviction and does so with all the power of his or her soul, stands ones ground in the face of severest adversity and demonstrates ultimate courage. In that sense, Ahimsa represents a wider political value system, rather than being merely a humanitarian act. It encompasses a whole set of values such as democracy, plurality, equality, human dignity and truth. A democratic society per se should have no place for violence and it can survive and thrive only when there is no discrimination on the basis of caste, gender, geography, race, religion or riches and such other limiting notions. Similarly, peaceful coexistence means that we acknowledge and respect plurality in the society. Above all, truth, too, has great bearing on ahimsa, as a society built on the foundation of untruth can never be stable and peaceful.
Media As Advocate
 This brings us to the question of what role media can possibly play in promotion of ahimsa. I would like you to go back with me to the origins of human civilization and ask what would have happened to this world of ours, had the cavemen killed each other with their stone tools. The point I am trying to make is that our ancestors from very early on had understood the meaning and the need of dialogue, of talking to each other, of communicating in a balanced fashion. In other words, they eschewed violence and made positive choices as they progressed from one stage of civilisation to another. One may argue that the history is replete with the acts of war and violence, but on the whole, as one can see it, it is the voice of reason that has ultimately prevailed. My argument is that the communicators, even in that primitive age, knew what was expected of them and did their job in that spirit. What we need today is to take a cue from these ancestors, reflect upon the mission ahead and prepare to act accordingly. At this juncture, I must invoke the memory of the greatest communicator or the greatest journalist we have known. Yes, I am referring to Mahatma Gandhi. We, in India, at times, while discussing the media scene in our country, talk about which newspaper is the biggest, which is the fastest growing or which has the largest circulation. On such occasions, inevitably the truth emerges that there is a sea of difference between the “Big” and the “Great”. And then we realize that Indian Opinion, Harijan or Young India- the journals edited by Gandhi- were the greatest newspapers of our era, because they espoused the cherished values of Ahimsa with all its nuances.
Past And Present
 In the days of the yore, struggle for freedom from the colonial rule was the cause célèbre across the third world, and the media then broadly demonstrated that it was up to the occasion. Today we are faced with other challenges that go beyond reporting on the run-of-the-mill happenings and mundane matters; and here we have to prove once again that the society can depend upon us to give voice to its concerns and help in building an atmosphere of enduring peace and happiness. In the present times, the job of the media is twofold- one is to produce news and the second is to interpret and educate the readership. Allow me to take the second part first. What I think is that we should take issues relating to our life and existence to the public domain, initiate informed debates, convince the general public that the only path to make this world a safer and peaceful place is to adopt the philosophy of non-violence in the fullest sense. In other words, what I am asking is not to limit us by publishing articles on the virtues of non-violence or pay perfunctory homage to the Mahatma. In stead, we have to engage with the people in a pro-active manner, call it advocacy, if you please. 
Issues And Advocacy
I may give an example. There is much debate going on throughout the world on the use of nuclear power, particularly so after the Fukushima disaster. What should be our position, as a responsible section of the society, on this contentious issue? We have witnessed Hiroshima and Nagasaki. We have also seen Chernobyl and recently Fukushima. Do we still think that nuclear power is a better and safer option to meet our demand for energy? I am not taking any sides here, but simply putting forward an argument. If we are able to generate an informed debate on this matter, soon we will also come to deal with, besides the safety aspect, other related issues such as impact of uranium mining on the natural environment as well as on human habitation, the social cost of relocating tribals from mining areas, the hidden danger of nuclear energy being used for military purpose and so on. Then, there comes the question of how much energy do we really need. Should per capita consumption of power, or for that matter any other commodity, be used to measure the development of a nation or a community?  You will not fail to see that all these questions have a bearing on our collective dream to create a peaceful world order. It implies that by taking an informed position in this matter, media can help reduce the chances of civil strife in certain geographical areas on the earth.  
Take another example. Go to a toyshop where you are bound to see miniature tanks, cannons, rifles, missiles, rockets, and soldiers in uniform on display. All kinds of war games are available both in the physical and virtual market. Our children are the buyers and consumers of such products. Isn’t there a constant need to ask the question whether kids really need these playthings and what is their impact on innocent minds? Why toy makers should manufacture these bizarre objects of amusement? Is it not a clever ploy to desensitize the children towards the havoc that war machinery is capable of creating? Can we tell our mom and dad readers to say No to these toys!
There are many more issues that breed discontent, tear the fabric of harmony, and sink communities in the state of desolation and despondency. At every step, questions come popping up- development, yes, but at what cost, what is the status of women, why child labour is still prevalent, how long will it take Dalits and tribals to claim their rightful place in the society, why are there so many slums in the city, aren’t we reaping more than what could be returned to mother earth? And then there are more direct questions- why can’t India and Pakistan live like good neighbours, can Israel and Palestine develop friendly relationship, why did the US invade Iraq and Afghanistan, what are the causes of terrorism, why do we need military alliance like NATO?  The media must raise these questions in earnest, howsoever uncomfortable that may be for the vested interests.
Events And Reporting
I may now come to the aspect of day-to-day news making. That is an area where media persons must demonstrate utmost sensitivity, carefulness and fine balance in reporting, writing, editing and even laying out of the news stories, which might put public peace and safety in jeopardy. It is an era when extra-ordinary movement of humans is taking place throughout the world for several reasons - migration from villages to urban centres, from developing nations to the developed world, from war zones to safer places, escaping from hunger, poverty and terrorism, travel for business, study or pleasure, internal migration due to mining and construction projects, etc. This often gives rise to suspicion, fear, misunderstanding and hatred in the host community. Then there are age-old prejudices deeply embedded in the social fabric based upon race, religion and the colour of skin.
Each of these factors has the potential of inflaming public sentiments, igniting conflicts and creating discord and unrest. As a matter of fact, we see this happening almost on a daily basis in one or another part of the world. Here comes the real test of our professional ability, integrity and wisdom. Remember that even a single wrongly constructed sentence or wrongly placed headline can induce people to resort to violence. I have seen this happening in the infamous communal riots of 1962 in Jabalpur, India. Similarly, a file photo, a wrongly chosen photo or a morphed one can inflict the same kind of damage. Therefore, when making news on such sensitive matters, a journalist has to behave in a responsible manner. We owe this much to the society. I may cite several examples, but will refrain from doing so as I am sure that you are aware of such challenging situations and are capable of dealing with them.
However, I would like to add that news channels have to be much more cautious on such occasions as the nature of the medium imposes them to make decisions in a jiffy without leaving enough time to weigh the pros and cons of what may sound a good news before broadcasting it.  
TV, Cinema And Theatre
It’s common knowledge that we are passing through a period of media revolution. In the process, newspapers are gradually losing their pride of place. Electronic media, mainly television is the taste of the day. It is still possible to find or steal some space in the print media for coolly debating serious topics, but it would be rather futile to expect much from TV. It seems that screaming from the rooftop suits it more to accomplish its business targets. In India, many of our news channels, it would seem, take sort of pleasure in creating hype on any given issue, be it Indo-Pak relations, river water sharing between two states, Maoist insurgency in Central India or border crossing from Bangladesh. In their rush of breaking news, they often throw caution to the wind and there is hardly any time available for logical discussion. I consider it unfortunate because TV was introduced as a vehicle of public education in my country.
The case of cinema, another strong medium, is not much different. We find that Hollywood is churning out movies that promote violence, weapons, the notion of us versus others and create false heroes in order to fight with imagined enemies. Indian films are no different. Our film industry produces rather poor copies of Hollywood films. Of course, there are exceptions, but they only prove the rule.
In this dismal scenario, at least in India, one can take satisfaction in the fact that theatre has played a commendable role. A typical play without passing a value judgment will leave it to the intelligence of the viewer to draw his/her own conclusions. In a subtle way, it gives the opportunity to understand the social reality and paves way for developing harmony amongst the people. But theatre has a limited audience and it also lacks resources. If only moviemakers had learnt from the theatre!
Media Needs Money!
A word of caution will be in order. Whatever our expectations from the media, one must not forget that media today needs huge infusion of capital to run the show. This dependence makes the media quite vulnerable to market forces and the powers-that-be. All over the world, most of the media houses are now part of one or another business conglomerate. In Australia, the richest person, owner of iron ore mines, has recently acquired significant chunk of shares in the prestigious Sydney Morning Herald and is now demanding three seats on its board. There is widespread concern in Australia that this development is going to hurt the aboriginal peoples who for generations have inhabited the mining areas. Similar conditions prevail in India and elsewhere. This is leading to monopolization of the media industry. The media owners of the day are more concerned with the returns on their investment or they incur losses only in order to use media to promote their other business activities. In this situation, what should a journalist or media person do? I will suggest that we the journalists must find ways and means to speak out what we think is in the best interest of the people. People look upon us for walking an extra mile with them in their travails and yes, at times, they want us to be in the frontline, take risks and tell them about the pitfalls and traps. It is our bounden duty not to fail them.

Alternate Media


It might be that corporatised media won’t buy our arguments. So be it. But it is always in our power to develop new methods to speak out on behalf of the people. The new media or social websites hold some promise in this respect. Some good experiments have been conducted, but it needs to be properly evaluated, and checks and balances must be put in place. Community owned radio station could be another potential medium. But, the idea I favour most is that journalists come together, pool their resources and publish newspapers and wherever possible, run news channels under cooperative ownership. There may be many more ideas, but the basic point is that we always keep in mind that it is our calling to work towards making the world a safer, healthier and peaceful place for the future generations.

.

Lalit Surjan
7th July 2012
RAIPUR-492001
INDIA
lalitsurjan@yahoo.com
  
Paper presented in “Roots To Fruits: Non-Violence In Action” conference in Durban, South Africa in July-August 2012.