Friday 15 June 2012

चाट भण्डार का जूठा दोना

छत्तीसगढ़ राज्य में शासन की ओर से जितने भी सम्मान और पुरस्कार दिए जाते हैं वे राज्य बनने की पहली वर्षगांठ से ही विवादों के घेरे में हैं। इस साल जो पुरस्कार घोषित किए गए हैं उनसे किसका सम्मान बढ़ रहा है, समझ पाना मुश्किल है। अब इनका मोल चाट भंडार में घूरे पर फेंक दिए गए दोने के बराबर हो गया है। डॉ. रमन सिंह प्रदेश शासन के मुखिया हैं। हम उनसे ही अपेक्षा और अपील कर सकते हैं कि जो हुआ सो हुआ। अब ऐसे तमाम पुरस्कार व सम्मान उस समय तक के लिए स्थगित कर दिए जाएं जब तक शासन इनके बारे में स्वच्छ, पारदर्शी व गुणमूलक नीति बनाने में समर्थ न हो।

ऐसे किसी भी अलंकरण में तीन पक्ष होते हैं- सम्मानदाता, निर्णयकर्ता और प्राप्तिकर्ता। इन तीनों पक्षों का अर्थपूर्ण समन्वय इस पर निर्भर करता है कि सम्मान देने की प्रक्रिया कैसी है। भारत में भांति-भांति के खिताब दिए जा रहे हैं। ये सरकार की ओर से भी दिए जाते हैं और कार्पोरेट घरानों अथवा विभिन्न क्षेत्रों में काम कर रही सार्वजनिक संस्थाओं द्वारा भी। जब व्यावसायिक प्रतिष्ठानों द्वारा सम्मान दिए जाते हैं तो उसका उद्देश्य सिर्फ अपनी प्रतिष्ठा बढ़ाना होता है। वे सामान्य तौर पर अतिख्याति प्राप्त व्यक्तियों को ही चुनते हैं जिसमें कोई खतरा नहीं होता। लेकिन कुल मिलाकर मकसद सीमित होता है कि चिंतनशील समाज के बीच उनकी चर्चा भी थोडे सम्मान के साथ होती रहे। सामाजिक क्षेत्र की संस्थाएं अपने निर्दिष्ट कार्य क्षेत्र में जो सम्मान देती हैं, उसमें भी वस्तुनिष्ठा का निर्वाह पूरी तरह से नहीं हो पाता। अधिकतर मामलों में इन संस्थाओं के कर्ताधर्ताओं के लिए यह निजी यश पाने का एक माध्यम होता है।

जब शासन ऐसे पुरस्कार दे तो बात अलग हो जाती है। यहां अपेक्षाएं बढ़ जाती हैं। राज्य द्वारा दिए गए पुरस्कार का मकसद सिर्फ व्यक्तियों का सम्मान करना नहीं होता बल्कि उसमें यह अनिवार्य संदेश होता है कि राज्य नागरिकों को अपने-अपने कर्मक्षेत्र में बेहतर से बेहतर भूमिका निभाने के लिए प्रेरित कर रहा है। उसका वृहत्तर उद्देश्य एक रचनाशील, गतिशील, प्रतिभा सम्पन्न वातावरण का निर्माण करना होता है। इस दृष्टि से यह शर्म की बात है कि छत्तीसगढ़ नया राज्य होने के बावजूद कोई स्वस्थ परंपरा स्थापित नहीं कर पाया है, जबकि एक नया राज्य होने के नाते यहां नवाचार की अपेक्षा की जाती थी। राज्य कोई पुरस्कार दे तो उसका स्वागत ही होता है, लेकिन अगर एक जनतांत्रिक सरकार राग-द्वेष से मुक्त होकर निर्णय न ले सके तो यह जनता के लिए दुर्भाग्य की ही बात है। इतिहास दृष्टि से हीन और सिर्फ वर्तमान में जीने वाली यह सोच दु:खदायी है।

जब नया राज्य बना तो हमारे मन में उत्साह था कि प्रदेश में कुछ नई परंपराएं डलेंगी जो भावी पीढ़ियों के पथ-प्रदर्शन में काम आएंगी। लेकिन यह नायाब मौका देखते न देखते गंवा दिया गया। प्रदेश के विश्वविद्यालयों में जो मानद उपाधियां दी गईं उसमें यह बात स्पष्ट हुई कि प्रतिभाओं को सम्मानित करने के मामले में हमारी सोच कितनी नीचे चली गई है। पहले राज्योत्सव के समय से ही जो पुरस्कार दिए गए उसमें भी सम्मान के बजाय अवमानना का भाव ही प्रकट हुआ। एक तो पुरस्कार किनके नाम पर दिए जाएं, इस बारे में ही कोई सुविचारित नीति नहीं बनी। फिर जो चयन समितियां बनाई गईं उनमें भी बेहद चलताऊ तरीके से काम लिया गया। पुरस्कार के लिए आवेदन करने का नियम बना दिया गया वह पहले जितना बेहूदा था आज भी उतना है। अगर चयन समिति में विषय विशेषज्ञ हों तो उनके ज्ञान व विवेक पर निर्णय छोड़ा जाना चाहिए था। जब सार्वजनिक आवेदन मांगे जाने लगे तो हर कोई अपने आपको सुपात्र मानने लगा। ये ''सुपात्र'' फिर इस-उस दरवाजे कैनवासिंग करते घूमने लगे। मतलब एक अरुचिकर स्थिति निर्मित कर दी गई। इतना जैसे पर्याप्त नहीं था तो जूरी के निर्णय को भी सरकारी इशारों पर बदलने के प्रसंग भी सामने आए। 2001 से 2009 तक यह सिलसिला चल रहा है और साल दर साल इसमें गिरावट आती जा रही है।

हम कहना चाहते हैं कि राज्य द्वारा स्थापित सम्मान, पुरस्कार, फेलोशिप व राज्य के विश्वविद्यालयों द्वारा प्रदत्त मानद उपाधि आदि अलंकरणों को इतने हल्के ढंग से नहीं लेना चाहिए। जब किसी अपात्र का चयन होता है तो जिस व्यक्ति के नाम पर पुरस्कार स्थापित किया गया है उसकी स्मृति धूमिल होती है। जिसे पुरस्कार मिलता है वह स्वयं पुरस्कार की गरिमा की रक्षा करने में असमर्थ रहता है। जिस कार्य के लिए पुरस्कार दिया गया है उस क्षेत्र में काम कर रहे सुयोग्य व्यक्तियों का आत्मसम्मान आहत होता है। आम जनता के बीच में प्रतिकूल प्रतिक्रिया होती है तथा अंतत: राजसत्ता की विश्वसनीयता पर इसके कारण एक बड़ा प्रश्नचिन्ह लग जाता है। कायदे से तो सरकार को जनता से शाबाशी मिलनी चाहिए कि आप कितना अच्छा काम कर रहे हैं लेकिन होता इसके विपरीत है। मतलब पुरस्कार स्थापित करने की मूल भावना ही समाप्त हो जाती है।

ऐसा नहीं कि सिर्फ छत्तीसगढ़ सरकार की प्रतिष्ठा पर ही आघात पहुंच रहा है। अन्य प्रदेशों के हालात भी बहुत अच्छे नहीं हैं। केन्द्र शासन द्वारा प्रदत्त पद्म अलंकरण तो संदिग्ध हो ही चुके हैं। इसका अर्थ यह नहीं कि छत्तीसगढ़ सरकार भी अपना रवैया न बदले। हम और किसी से तो नहीं लेकिन डॉ. रमन सिंह से जरूर यह उम्मीद कर सकते हैं कि वे इस भर्राशाही को आगे न चलने दें। वे चाहे तो इस बारे में कठोर निर्णय ले सकते हैं। एक बार सारे पुरस्कारों की बेबाक समीक्षा होनी चाहिए। 

एकाध साल के लिए सारे पुरस्कार स्थगित कर दिए जाएं तो भी कोई हर्ज नहीं। कुछ पुरस्कार तो ऐसे हैं जिनकी जरूरत ही नहीं है। कुछ पुरस्कारों में नाम व काम का कोई तालमेल नहीं है। जिस पर नए सिरे से विचार करने की आवश्यकता है। छत्तीसगढ़ में साहित्य और पत्रकारिता के नाम पर राष्ट्रीय पुरस्कार देना है तो मुकुटधर पाण्डेय व माधवराव सप्रे से बढ़कर कोई दूसरा व्यक्ति नहीं हो सकता। अहिंसा का पुरस्कार गौशालाओं को देने में कोई तुक नहीं है। बख्शी जी और मुक्तिबोध जी के नाम पर शिक्षक पुरस्कार दिए जाएं, यह बेतुकी बात है। सम्पन्न समाज के दबाव में अथवा मंत्रियों-अफसरों के दबाव में कोई भी पुरस्कार स्थापित करना हमारी दृष्टि में अनुचित है। इसी तरह राज्य सरकार में सेवारत व्यक्तियों को सम्मानित करना एक अस्वस्थ परंपरा को जन्म देना है। हमें विश्वास है कि यदि कठोर कदम उठाए जाते हैं तो जनता के बीच उसकी अच्छी प्रतिक्रिया होगी। अगर पुरस्कार ढंग से दिए जाएंगे तो इससे राज्य और राज्य के मुखिया का भी सम्मान बढ़ेगा।

  देशबंधु में 19 नवम्बर 2009 को प्रकाशित 

पुस्तक, सरकार और समाज

राजीव गांधी ने अपने मंत्रिमंडल का गठन करते समय एक नई सोच का परिचय दिया था। उन्होंने कुछ नोडल मंत्रालय बनाए थे जिनका आकार विशाल था व जिनके अन्तर्गत आपस में जुड़े बहुत से विभाग लाए गए थे। इनमें से एक यातायात मंत्रालय था जिसकी मंत्री मोहसिना किदवई थीं व उनके नीचे तीन राज्यमंत्री क्रमश: सड़क परिवहन, जहाजरानी व नागरिक उड्डयन देख रहे थे। इसी तरह मानव संसाधन विकास मंत्रालय के अन्तर्गत शिक्षा, स्वास्थ्य व संस्कृति सभी रखे गए थे। पी.वी. नरसिंहराव इसके पहले मंत्री थे। राजीव गांधी की इस नई सोच को बाद के प्रधानमंत्रियों ने जारी नहीं रखा। पी.वी. नरसिंहराव का समय आते तक मानव संसाधन विकास मंत्रालय से स्वास्थ्य हटा दिया गया था। डॉ. मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बने तो यह विभाग और भी सिकुड़ गया जब संस्कृति के लिए अलग मंत्रालय गठित कर दिया गया।

इस फेरबदल से कुछ विसंगतियां उपजीं। संस्कृति मंत्रालय को साहित्य, कला, संगीत, पुरातत्व आदि के साथ पुस्तकालय भी सौंप दिए गए जबकि परंपरा के अनुसार पुस्तकालयों का जिम्मा शिक्षा मंत्रालय के पास होता था। संस्कृति मंत्रालय अपने आप में काफी चमक-दमक का महकमा है; उसमें पर्यटन भी साथ हो तो फिर कहना ही क्या?  नतीजा यह हुआ कि पुस्तकालयों की ओर जितना ध्यान दिया जाना चाहिए था वह नहीं दिया जा सका। इधर अपने दूसरे कार्यकाल में प्रधानमंत्री ने संस्कृति मंत्रालय को अपने अधीन ही रखा है। इसलिए उसे पहले जो सीमित महत्व मिल रहा था वह लगभग समाप्त है। ऐसे में पुस्तकालयों की क्या स्थिति बन रही होगी यह समझा जा सकता है। लेकिन बात यहीं समाप्त नहीं होती। 

यद्यपि पुस्तकालय मानव संसाधन विकास मंत्रालय के अन्तर्गत नहीं हैं फिर भी पुस्तकों से जुड़ी हुई कुछ महत्वपूर्ण संस्थाएं इसी मंत्रालय के अधीन हैं- जैसे- राष्ट्रीय पुस्तक न्यास (एनबीटी) एवं राष्ट्रीय पुस्तक संवर्धन मिशन। इनके साथ यूनेस्को, विदेशों में आयोजित अन्तरराष्ट्रीय पुस्तक मेले व बौध्दिक सम्पदा कानून जैसी जिम्मेदारियां भी इसी मंत्रालय के पास हैं। यही नहीं, पुस्तकों से जुड़ी एक और महत्वपूर्ण संस्था प्रकाशन विभाग केन्द्रीय सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के अन्तर्गत है। इस तरह पुस्तकों का कारोबार कम से कम तीन मंत्रालयों के बीच बंटा हुआ है और कहना गलत नहीं होगा कि यह किसी की भी प्राथमिकता में नहीं है। ऐसे समय में जब भारत को ज्ञानवान समाज (नॉलेज सोसायटी) बनाने के लिए भांति-भांति के उपक्रम और बढ़-चढ़कर दावे किए जा रहे हैं तब पुस्तकों की ओर यह दुर्लक्ष्य तकलीफदेह है।

केन्द्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल इन दिनों लगातार सुर्खियों में हैं। उनसे बातचीत करने जो पत्रकार जाते हैं वे आईआईटी, आईआईएम, विदेशी विवि का प्रवेश, दसवीं बोर्ड, कुलपतियों की नियुक्तियां आदि के बारे में ही बात करते हैं; या फिर उनकी दिलचस्पी यह जानने में रहती है कि श्री सिब्बल अपने पूर्ववर्ती के किन-किन निर्णयों को बदलने जा रहे हैं। लेकिन पिछले सौ सवा-सौ दिन में एक भी पत्रकार ने केन्द्रीय मंत्री से ज्ञानार्जन के प्राथमिक स्रोत याने पुस्तकों के बारे में कोई बात नहीं की। यह भी अफसोस की बात है कि वे साहित्यकार, जो हर समय पुस्तक न बिकने का रोना रोते हैं उन्होंने भी कभी इस बारे में सरकार से उसकी जवाबदेही सुनिश्चित करने की मांग नहीं उठाई।

मेरा मानना है कि यह वक्त का तकाजा  है   कि देश में पुस्तकों को लेकर एक समग्र सोच विकसित की जाए तथा केन्द्रीय मानव संसाधन विकास मंत्रालय ही इस काम को सही तरीके से संपादित कर सकता है। यह उचित होगा कि राजा राममोहन राय पुस्तकालय न्यास तथा पुस्तकों से संबंधित अन्य तमाम संस्थाओं को इस मंत्रालय में लाया जाए व देश में पुस्तकों के प्रति अभिरुचि जागृत करने के लिए एक जोरदार अभियान शुरू किया जाए। मंत्रालय के अन्तर्गत जो राष्ट्रीय पुस्तक संवर्धन मिशन काम कर रहा है उसे सक्रिय व अधिकार संपन्न बनाया जाए तथा ज्ञानार्जन से जुड़े अन्य मिशनों के सहयोगी संगठन के रूप में उसे प्रतिष्ठित किया जाए।

जैसा कि हम जानते हैं राष्ट्रीय साक्षरता मिशन पिछले बीस साल से लगातार साक्षरता वृध्दि के कार्य में जुड़ा हुआ है। अब महिला साक्षरता पर सरकार का विशेष ध्यान गया है व महिला साक्षरता मिशन गठित करने की तैयारियाँ चल रही हैं। ये जो करोड़ों नवसाक्षर हैं इन्हें अगर उम्दा किताबें नहीं मिलीं तो लिखित शब्द के प्रति इनकी रुचि लुप्त होने में कितना समय लगेगा यह विचारणीय है कि केरल में साक्षरता अभियान इसीलिए कामयाब हुआ क्योंकि वहां मलयाली में बड़ी संख्या में खूबसूरत किताबें सस्ते दामों पर उपलब्ध हैं। केरल शास्त्र साहित्य परिषद जैसी गैर-सरकारी संस्थाओं ने इसमें अहम् भूमिका निभाई है। इस मामले में हिन्दी की स्थिति चिंताजनक है, और उस पर ही सबसे ज्यादा ध्यान देने की आवश्यकता है।


 दूसरी तरफ यह भी ध्यातव्य है कि देश में कम्प्यूटर साक्षरता के पक्ष में माहौल बन रहा है लेकिन ज्ञानार्जन हेतु उसका अधिकतम लाभ कैसे लिया जाए, इस पर गौर नहीं किया गया है। मसलन, आज कम्प्यूटर पर विकीपीडिया के माध्यम से लाखों पुस्तकें उपलब्ध हैं, लेकिन इनमें हिन्दी व अन्य भारतीय भाषाओं की पुस्तकें नगण्य हैं। यदि अच्छी किताबें इंटरनैट पर सुलभ हो जाएं तो दूर-दराज के गाँवों तक में पुस्तक प्रेमी उन्हें पढ़ सकेंगे।

कुल मिलाकर ज़रुरत  इस बात की है कि किताबें खूब लिखी जाएं; खूब बड़ी संख्या में छपें; बेहतर से बेहतर छपाई हो, ज्यादा छपेंगी तो दाम भी कम होंगे; गांव-गांव तक पुस्तकें पहुंचे; वाचनालयों को पुनर्जीवित किए जाएं; पुस्तकालय चलाने के लिए प्रोत्साहन मिले तथा कम्प्यूटर पर भी नवसाक्षरों से लेकर प्रकाण्ड पंडितों तक के लिए पुस्तकें माउस के क्लिक पर उपलब्ध हों। भारत को ज्ञानवान समाज बनाने की बुनियादी शर्त यही है।


देशबंधु में 20 अगस्त 2009 को प्रकाशित 
  

राजा और विदूषक

भारतीय रंगमंच में विदूषक एक खास महत्व रखता है। चाहे संस्कृत के क्लासिक नाटक हों या हिन्दी फिल्में या फिर लोकनाटय ही क्यों न हो, विदूषक के बिना कहीं भी काम नहीं चलता। ये विदूषक कभी नाटक में विषय की गंभीरता से उपजी बेचैनी का शमन करते हैं तो कभी खुद ही हल्के-फुल्के ढंग से गहरे तक वार करने वाली बात कह जाते हैं। 

जो रंगमंच पर है वही जीवन में भी है। भारतीय राजनीति का लगभग तीन हजार साल का इतिहास बतलाता है कि कोई भी राजदरबार विदूषक के बिना पूरा नहीं होता। सारा राजकाज निपटाने के बाद जब सभा उठ जाती है और बाकी दरबारी घर लौट जाते हैं तब भी विदूषक राजा के साथ ही रहता है। उसकी पहुंच अक्सर अंत:पुर तक भी होती है। शासन के जटिल प्रश्नों को सुलझाते-सुलझाते राजा के थके मन को बहलाने में विदूषक की बुध्दि ही काम आती है। जब बादशाह अकबर का नाम लिया जाता है तो उनके साथ बीरबल का नाम अपने आप ध्यान आ जाता है। राजा कृष्णदेव राय के दरबार की कल्पना बिना तेनालीराम के नहीं की जा सकती। यह शोध का विषय हो सकता है कि राज्य में बड़े-बड़े विद्वानों के होते हुए विदूषक को ही क्यों इतना महत्व मिलता है। वह राजा का मित्र, सखा और विश्वस्त होता है तथा वक्त आने पर ऐसी बुध्दिमता का परिचय देता है कि त्रिकालदर्शी पंडित भी दांतों के नीचे उंगली दबाने पर मजबूर हो जाएं। 

आज के जनतांत्रिक भारत में इस परंपरा का निर्वाह बदस्तूर हो रहा है। वे लोग नादान ही कहे जाएंगे जो राजसभा में विदूषक की उपस्थिति पर ऐतराज जतलाते हैं। आज के समय में ''विदूषक'' शब्द उतना प्रचलित नहीं है। उसका स्थान हास्य कवि ने ले लिया है। पुराने दरबारों में चारण भी होता था जो कविता करना जानता था। चारण के चरित्र से कविता निकल जाने के बाद अब उसे निखालिस देशज शैली में चमचा आदि कहा जाने लगा है। आज के समय में यह भी संभव है कि एक ही व्यक्ति दोनों रोल निभा रहा हो। 

इस पृष्ठभूमि को याद रखने में मानसिक संताप से मुक्ति एवं आत्म-सुख है। जब छत्तीसगढ़ राज्य बना तो पहले मुख्यमंत्री ने एक हास्यकवि को अपना सांस्कृतिक सलाहकार बनाया। जब सरकार बदल गई तो दूसरी पार्टी के राज्य में भी वे हास्यकवि दरबार में उसी ठसन के साथ बने रहे। हम जैसे लोगों ने इसे सरकार की सांस्कृतिक नासमझी के रूप में देखा तथा बार-बार यह अपेक्षा की कि सरकार साहित्य और संस्कृति के मामले में ऐसे हल्के-फुल्के ढंग से न ले। इसका कोई असर नहीं पड़ा क्योंकि हमने भारत की ऐतिहासिक परंपरा को ध्यान में ही नहीं रखा। अब ऐसा ही कुछ दिल्ली प्रदेश में देखने मिल रहा है। अशोक चक्रधर प्रदेश की हिन्दी अकादमी के उपाध्यक्ष बना दिए गए और अब उनके खिलाफ मुहिम चल रही है।विरोधियों को इस तथ्य से संतोष करना चाहिए कि श्री चक्रधर ने मुक्तिबोध पर पीएचडी की है और वे हिंदी साहित्य के प्रोफेसर हैं। इसके बाद वे हास्य कविता में क्यों गए, ये वही बेहतर जानते होंगे। 


रायपुर हो या दिल्ली- बात यह है कि बादशाह यदि सारे समय चिंतकों और विचारकों से घिरा रहेगा तो अपना मनबहलाव कब करेगा। याद रखना चाहिए कि हास्य कवि सम्मेलनों में कवि राजनीति और राजनेताओं को जी भरके गालियां देते हैं और कवि सम्मेलन में हाजिर नेता- मंत्री उनकी फुलझड़ियों पर तालियाँ बजाते हुए लोटपोट होते रहते हैं। कहते हैं कि विदूषक को सात खून माफ होते हैं।


अपने मित्रों से हमारा यही कहना है कि राजसत्ता का साहित्य के साथ यही सलूक चलता रहेगा और अपने विरोध से इसमें कुछ होना-जाना नहीं है। वह इसलिए भी कि साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में जिस सैध्दांतिक आधार पर विरोध किया जाना चाहिए उससे हम अक्सर कतराते हैं। हिन्दी जगत में चलने वाली ज्यादातर उठापटक व्यक्ति केन्द्रित होती है तथा निजी लाभालाभ का आकलन ही उसका आधार बनता है। कितना सारा समय तो नए-नए पुरस्कारों और पदों की स्थापना और फिर उन्हें हासिल करने की जोड़-तोड़ में ही बीत जाता है। हिन्दी में इस समय ढेरों पत्रिकाएं निकल रही हैं। उनमें अपवादस्वरूप दो-चार पत्रिकाएं होंगी जो लेखकों के आपसी विवादों से खुद को दूर रखती हैं, वरना अधिकांश अपने पन्नों का उपयोग निजी हिसाब-किताब चुकाने में करती हैं।

इस माहौल में साहित्य के उद्देश्य पर बातचीत होती है तो सिर्फ ऊपर-ऊपर। लेखक और रचना के बारे में बात होती है तो अपनों को चीन्ह-चीन्ह कर। पद और पुरस्कार देने में अपने पराए का फर्क बेहद सतर्कता के साथ किया जाता है। राजसत्ता के साथ अब छायायुध्द ही लड़े जाते हैं। रिकार्ड दुरुस्त रखने के लिए इतना कहना आवश्यक है कि यह माहौल एक दिन में नहीं बना है। पिछले पचास-साठ साल से यह प्रवृत्ति धीरे-धीरे कर विकसित हुई है। पहले संस्थाएं और अवसर कम थे तो प्रदूषण भी कम था। जैसे-जैसे अवसर बढ़े हैं उसी अनुपात में अभिलाषा और कुंठा भी बढ़ी है।

अब यदि साहित्यकार राजा-रानियों को कोई सलाह देना भी चाहे तो किस बलबूते पर दे। वे भी जानते हैं कि आप उनके पास अपने स्वार्थ-साधन के लिए आए हैं। ऐसे में उन्हें वे हास्य कवि, चारण, चमचे, विदूषक ही बेहतर प्रतीत होते हैं जिन्हें कोई बौध्दिक अहंकार नहीं, जिनकी आकांक्षाएं महान लेखकों की तुलना में बहुत छोटी हैं और जो अवसर पड़ने पर अपने पालक अथवा संरक्षक की विरुदावली बिना किसी ग्लानि या संकोच के लिखने के लिए तत्पर होते हैं। इस प्रपंच से दूर रहकर जो एकांतिक भाव से रचनाधर्म का पालन कर रहे हों, हम उन्हीं को प्रणाम करते हैं।


 देशबंधु में 13 अगस्त 2009 को प्रकाशित 

साहित्य में तमाशा

  



छत्तीसगढ़ के पुलिस महानिदेशक विश्वरंजन के बंदोबस्त में एक महत्वाकांक्षी साहित्यिक कार्यक्रम पिछले दिनों रायपुर में सम्पन्न हुआ। यह एक राष्ट्रीय स्तर का आयोजन था क्योंकि इसमें छत्तीसगढ़ के अलावा कुछ अन्य प्रदेशों के लेखकों ने भी भागीदारी की। कार्यक्रम प्रदेश के सुपरिचित साहित्यकार स्वर्गीय प्रमोद वर्मा की स्मृति में था और प्रकट तौर पर इसका आयोजन प्रमोद वर्मा स्मृति संस्थान नामक एक नवगठित संस्था ने किया था। विश्वरंजन इस संस्थान के संभवत: संस्थापक अध्यक्ष हैं। उनकी अपनी पहचान एक कवि और चित्रकार के रूप में भी विकसित हुई है। प्रमोद वर्मा की स्मृति में कोई संस्था बने और उन्हें स्मरण करते हुए अगर कोई अच्छा कार्यक्रम हो जाए तो सामान्यत: ऐसी पहल का स्वागत होना चाहिए। ऐसे आयोजनों के माध्यम से ही रचनाशील मित्रों को एक-दूसरे से मिलने-जुलने के अवसर मिलते हैं। ऐसे प्रसंगों के दौरान जो साहित्यिक चर्चाएं होती हैं उनका प्रभाव कई-कई बरसों तक बना रहता है। छत्तीसगढ़ में इस तरह के आयोजन पहले भी हो चुके हैं। लेकिन मैंने इस आयोजन में भाग नहीं लिया।

दरअसल, छत्तीसगढ़ राज्य बन जाने के बाद मन में एक आशा थी कि इससे प्रदेश में साहित्य और संस्कृति के एक नए वातावरण की सर्जना होगी। यह हमारा चरम दुर्भाग्य है कि राज्य बनने के एक साल के भीतर यह आशा खंडित हो गई। पिछले नौ सालों में एक के बाद एक ऐसे निर्णय लिए गए हैं जिनके चलते प्रदेश का सांस्कृतिक परिदृश्य एक अशोभन तमाशे में तब्दील हो चुका है। हर मंच और हर अवसर पर छुटभैय्ये, चाटुकारों और कमीशनखोरों का कब्जा है। जो बड़े-बड़े नाम वाले लेखक, कलाकार थे, वे भी अब बड़ी- छोटी डयोढ़ियों पर सलाम करते नजर आ रहे हैं। सांस्कृतिक विमर्श की तमाम संस्थाएं प्रदेश की नदियों की तरह प्रदूषित हो चुकी हैं। जिस तरह से स्पंज आयरन कारखानों का जहरीला धुआं खेतों और घरों पर छा रहा है, वैसे ही फूहड़ गीत, संगीत, घटिया दर्जे की कविताएं, तमाशानुमा नाटक और झूठी जय-जयकार उसी कालिख की मानिंद प्रदेश के बुध्दिजीवियों की आत्मा पर छा गई है।

प्रमोद वर्मा स्मृति आयोजन इस अस्वस्थ सांस्कृतिक परिदृश्य का ही विस्तार सिध्द हुआ। मैं पिछले नौ साल में सायास अपने आपको ऐसे कार्यक्रमों से लगातार दूर रखते आया हूं। 2001 में राज्य पुरस्कारों की जूरी में जिस तरह का छोटापन मैंने देखा, उसके बाद फिर मैंने जूरी का सदस्य बनने से इंकार कर दिया। संस्कृति के नाम पर आए दिन जो स्वांग होते हैं ऐसे आयोजनों से बराबर अनुपस्थित रहकर मैं अपनी आपत्ति दर्ज करते रहा हूं। इस कार्यक्रम से एक क्षीण आशा बंधी थी कि शायद यहां कुछ बेहतर होगा लेकिन जैसे-जैसे आयोजन का समय नजदीक आते गया, यह स्पष्ट होते गया कि बहुत सारे लोगों का इसके माध्यम से अपनी छोटी-बड़ी महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति के अलावा और कोई ध्येय नहीं है। यह समझ में आया कि ऐसे तमाम लोगों के लिए प्रमोद वर्मा नहीं, बल्कि विश्वरंजन मायने रखते हैं, वह भी इसलिए कि इस समय वे छत्तीसगढ़ के पुलिस महानिदेशक हैं।

कुछेक अखबारों में आयोजन पूर्व जिस तरह की सामग्री प्रकाशित की गई उससे इस बात की पुष्टि हुई। फिर एकाएक एक सुबह विश्वरंजन का एक लेख पढ़ने मिला जिसमें उन्होंने आयोजन के आर्थिक पक्ष आदि पर अपनी सफाई दी। इस पत्र में एक आला अफसर से अपेक्षित आक्रोश साफ झलक रहा था। उनकी वेदना थी कि कुछ लोग आयोजन को असफल करना चाहते हैं। इस पर मुझे कुछ हैरत भी हुई क्योंकि प्रदेश व प्रदेश के बाहर एक भी लेखक ने अब तक ऐसी कोई बात नहीं कही थी। कुल मिलाकर माहौल तो ऐसा था कि प्रमोद वर्मा को छत्तीसगढ़ के तमाम रचनाकारों से भी बड़ा सिध्द किया जाए, क्योंकि शायद ऐसा करने से ही आयोजन समिति के अध्यक्ष की कृपा पाई जा सकती थी।

मुझे अविभाजित मध्यप्रदेश के अलग-अलग स्थानों पर ऐसे साहित्यिक आयोजनों में भाग लेने के अवसर मिले हैं जिन्हें हर दृष्टि से उल्लेखनीय कहा जा सकता है। इनमें से मैं फिलहाल छत्तीसगढ़ के कुछ आयोजनों को रेखांकित करना चाहता हूं यथा- छत्तीसगढ़ विभागीय हिन्दी साहित्य सम्मलेन का तीन दिवसीय आयोजन (भिलाई 1965), मध्यप्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन का अधिवेशन (राजनांदगांव 1972), म.प्र. प्रगतिशील लेखक संघ का महत्व नागार्जुन आयोजन (रायपुर 1982), दुर्गा महाविद्यालय हिन्दी साहित्य समिति का पंचरत्न सम्मान समारोह (रायपुर, 1966), धमतरी जिला हिन्दी साहित्य समिति का नई कलम सम्मेलन (धमतरी, 1967) इत्यादि। इन तमाम आयोजनों की विशेषता यही थी कि इन्हें साहित्यकारों ने अपनी प्रेरणा से आयोजित किया था। कार्यक्रम के लिए जो वित्तीय प्रबंधन होना थे वे भी लेखकों ने निजी तौर पर या अपने संबंधों के जरिए जुटाए। इनमें न तो कभी शासन हावी हुआ न कोई व्यापारी।

दूसरे शब्दों में ये जनतांत्रिक तरीके से किए गए आयोजन थे जिनमें सहयोग समाज के सभी वर्गों का था, लेकिन राज्याश्रय या सेठाश्रय जैसी स्थिति नहीं थी। यह बात अलग है कि अपने परिचय के सहारे थोड़ी-बहुत अनुदान राशि शासकीय अथवा अर्ध्दशासकीय संस्थाओं से जुटाई गई हो। मुझे 1964 की मई में राजनांदगांव में आयोजन बख्शी सम्मान समारोह की भी स्मृति है। इसमें भाग लेने के लिए रायपुर से हम कितने सारे लोग मिनी बस में बैठकर राजनांदगांव गए थे। 1965 में दुर्गा महाविद्यालय ने पांच लेखकों सर्वश्री मुकुटधर पाण्डेय, पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी, बलदेव प्रसाद मिश्र, सुन्दरलाल त्रिपाठी व मालवी प्रसाद श्रीवास्तव का सम्मान किया गया था। इस अवसर पर कॉलेज ने जो ''व्यंजना'' शीर्षक स्मारिका प्रकाशित की थी उसका आज भी संदर्भ सामग्री के रूप में उपयोग किया जाता है। ऐसे तमाम आयोजन रचनाकारों और कलाकारों को आम जनता के साथ जोड़ते थे। इसके कारण ही समाज में साहित्यकारों की पूछ-परख होती थी। अब अपनी सामर्थ्य पर होने वाले कार्यक्रमों की परंपरा बिल्कुल समाप्त हो गई है। इस बीच में पुस्तकों की सरकारी खरीद, सरकारी व गैर सरकारी तौर पर नए-नए पुरस्कारों की स्थापना तथा सरकारी  तंत्र के कार्यक्रम जैसे बहुत से आकर्षण पैदा हो गए हैं जिन्होंने साहित्यकार से उसका आत्मसम्मान और स्वतंत्रता छीन ली है।

तर्क दिया जाता है कि जनतांत्रिक व्यवस्था में यदि राज्य साहित्य व संस्कृति के समर्थन के लिए मदद करे तो उसे जनतांत्रिक अधिकार मानकर लेना ही चाहिए। इस तर्क में 
वज़न है, लेकिन प्रश्न उठता है कि शासकीय अनुदान एक पारदर्शी नीति के अंतर्गत दिया जा रहा है या खैरात समझकर बाँटा जा रहा है। बात साफ है। अगर पारदर्शी नीति होगी तो गुणवत्ता के आधार पर सहयोग राशि दी जाएगी। अन्यथा इसका लाभ सिर्फ चाटुकारों को ही मिलता रहेगा। इसे समझने की जरूरत है कि छत्तीसगढ़ सरकार ने 2001 में जब राज्य पुरस्कार स्थापित किए तो माधवराव सप्रे के नाम पर कोई पुरस्कार देना जरूरी नहीं समझा। जब पत्रकारिता विश्वविद्यालय खुला तब भी उनका नाम जोड़ना उचित नहीं माना गया। मुकुटधर पाण्डेय का नाम भी अब नहीं लिया जाता। शानी और श्रीकांत वर्मा को भी भुला दिया गया है। गजानन माधव मुक्तिबोध के नाम पर भी कोई समुचित पहल नहीं की गई। दूसरी तरफ ऐसे-ऐसे पुरस्कार स्थािपत कर दिए गए, जिनके बारे में जनता को तो क्या सरकार को भी ठीक से ज्ञान नहीं है। सुंदरलाल शर्मा के नाम पर साहित्य का राष्ट्रीय पुरस्कार स्थापित हुआ जबकि उनका प्रमुख योगदान समाज सुधारक के रूप में था।

हमारे रचनाकार मित्रों ने ऐसी तमाम बातों को अनदेखी की। विडंबना की बात है कि भारतीय जननाटय संघ याने इप्टा जैसी संस्था भी छत्तीसगढ़ में शासकीय इमदाद की तलबगार हो गई है। जिन कलाकारों को जनता के बीच में जाकर आर्थिक-राजनीतिक प्रश्नों पर चेतना जगाना चाहिए, वे रंगशाला के भीतर बजती तालियों से ही प्रसन्न हो रहे हैं। पूरे प्रदेश में उत्सवों और पर्वों की बहार आई हुई है। इनमें कवि सम्मेलन भी रखे जाते हैं। एक घंटे में औसतन तीस कवि निपट जाते हैं। आपाधापी में किसने कविता सुनाई और किसने सुना पता ही नहीं चलता, लेकिन पत्र-पुष्प तो मिल ही जाते हैं। पुष्प की एकाध पंखुड़ी  आमंत्रित करने वाले अधिकारी को भी पदसिध्द अधिकार से मिल जाती है। हमारे कुछेक साहित्यकार तो कविता, कहानी लिखना छोड़कर स्मृति लेख लिखने में ही व्यस्त हो गए हैं। इससे दिवंगतों का परलोक सुधारने के साथ अपना इहलोक सुधारने में मदद मिलती है। जिन्हें साहित्य की कोई समझ नहीं है, वे अकादमी और सृजनपीठ में जाकर बैठ गए हैं। कुल मिलाकर जबसे प्रदेश गठित हुआ है, तबसे राजभक्ति प्रदर्शित करने का माहौल बना हुआ है। इस सबको देखकर घनघोर निराशा होती है।

इसमें आशा की किरण अगर कहीं है तो वह उन रचनाकारों के रूप में है जो इस सबके बीच लगातार लेखन में जुटे हुए हैं। इस बीच हमारे लेखक मित्रों की कितनी ही महत्वपूर्ण कृतियाँ प्रकाशित हुई हैं जिनके बारे में न तो सत्ताधीशों को पता है और न सत्ता के चारणों को। इन्हें न पुरस्कार का लोभ है, न सम्मान का। प्रभाकर चौबे जैसे साथी भी इनमें हैं, जो 75 साल की उम्र में भी नियमित लिख रहे हैं, और इससे संतुष्ट हैं कि आम जनता तक उनके विचार पहुँच रहे हैं। सब ऐसे वीतराग नहीं हैं, लेकिन छत्तीसगढ़ में साहित्य को बचाने काम यही लोग कर रहे हैं। इसका मूल्यांकन आने वाला समय करेगा।

 देशबंधु में 16 जुलाई 2009 को प्रकाशित