Wednesday 20 April 2016

भविष्य की पत्रकारिता



 पत्रकारिता के लिए इन दिनों एक नई संज्ञा प्रचलित हो गई है-मीडिया। यह एक अधूरी संज्ञा है जिसे बोलने में आसानी के कारण अपना लिया गया है। अन्यथा पत्रकारिता के लिए जनसंचार माध्यम एक बेहतर संज्ञा है जिसे हम मास मीडिया के नाम से भी जानते हैं। आज पत्रकारिता के स्वरूप पर चर्चा करते हुए हमें सबसे पहले अखबार का ध्यान आता है जिसका प्रारंभ कोई पांच सौ साल पहले हुआ था। इस अर्थ में पत्रकारिता एक आधुनिक संज्ञा है, लेकिन यदि हम जनसंचार माध्यमों की बात करें तो भारत के संदर्भ में इसके लिए लगभग एक हजार साल पहले जाना होगा। जैसा कि पाठक जानते हैं नाटक या रंगमच एक प्राचीन विधा है। प्राचीनकाल में नाटक सामान्यत: देव स्तुति में लिखे जाते थे या फिर राजाओं के मनोरंजन के लिए। इनका दायरा बहुत सीमित था इसलिए इन्हें जनसंचार का माध्यम मानना सही नहीं होगा। मेरी समझ में भारत में जनसंचार माध्यम की नींव शूद्रक के नाटक मृच्छकटिकम् के साथ रखी गई जिसमें जनसामान्य के जीवन का चित्रण हुआ। यह कोई हजार-ग्यारह सौ वर्ष पुरानी बात है। इंग्लैंड में भी रंगमंच की लंबी परंपरा रही है जिसे शेक्सपियर के नाटक आम जनता के बीच ले जाते हैं।

मैं इस पृष्ठभूमि में भविष्य की पत्रकारिता का अक्स देखता हूं। पत्रकारिता की प्रगति में मेरी राय में निम्नलिखित तथ्य आवश्यक है- 1. टेक्नालॉजी का विकास 2. राजनीतिक परिस्थितियां 3. सामाजिक स्थितियां और 4. पूंजी निवेश। पहले बिन्दु के बारे में लगभग सर्वविदित है कि जर्मनी के हाईडैलबर्ग शहर में छापाखाने के आविष्कार के साथ पुस्तक मुद्रण और समाचार पत्र प्रकाशन का काम बड़े पैमाने पर शुरु होता है। अपने समय में यह एक क्रांतिकारी घटना थी।  छपाई मशीन ने वाचिक परंपरा को अवरूद्ध किया ही, ताड़पत्र और पैपिरस आदि पर हो रहे श्रमसाध्य लिप्यांकन को भी समाप्त किया। जनसंचार में टेक्नालॉजी के विकास के भावी उदाहरण रेडियो, सिनेमा, टेलीविजन, इंटरनेट अथवा डिजिटल मीडिया के रूप में सामने आते हैं। रेडियो के बाद जब ट्रांजिस्टर का आविष्कार हुआ तो वह जनसंचार के लिए एक बहुत उपयोगी उपकरण सिद्ध हुआ। टेक्नालॉजी का विकास और उसका उपयोग करना अथवा करने की इच्छा रखना एक बात है, किन्तु उसमें सफल होना दूसरी बात।

यदि किसी देशकाल में राजनैतिक परिस्थितियां अनुकूल न हों तो जनसंचार  माध्यम कठपुतली से बेहतर और कुछ नहीं हो सकता। यहां अनुकूल परिस्थिति से मेरा आशय जनतंत्र से है। जनसंचार अपने आप में एक जनतांत्रिक युक्ति है, जिसका बेहतरीन उपयोग जनतांत्रिक राजनैतिक व्यवस्था में ही हो सकता है। जहां कहीं भी अधिनायकवाद, राजशाही, कुलीनतंत्र अथवा सैन्य शासन होगा वहां पत्रकारिता के स्वस्थ विकास की कल्पना नहीं की जा सकती। इसे हम अपने कुछेक पड़ोसी देशों के उदाहरण से समझ सकते हैं। औरों की बात क्या, संसदीय जनतंत्र की जननी इंग्लैण्ड में भी बीबीसी को नियंत्रित करने की कोशिशें काफी समय से चल रही हैं। अमेरिका का प्रथम संविधान संशोधन विधेयक हो, चाहे भारत में अभिव्यक्ति की आज़ादी का मौलिक अधिकार, इनकी रक्षा तभी हो सकती है जब राजसत्ता में अपार सहनशीलता हो और जनतांत्रिक मूल्यों के प्रति अविचल प्रतिबद्धता।

अंग्रेजी में पुरानी कहावत है कि आपको वही सरकार मिलती है, जिसके योग्य आप हैं। यही बात पत्रकारिता के बारे में कही जा सकती है। पत्रकारिता के विकास की दृष्टि से यह जानना महत्वपूर्ण है कि उसकी सामाजिक परिस्थितियां क्या हैं। यह बहुत कुछ समाज की राजनैतिक रुझान पर भी निर्भर करता है। मोटे तौर पर समाज में पत्रकारिता के प्रति एक आदर का भाव विद्यमान होता है, किंतु अब वहां पत्रकारिता पर सवाल उठने लगे हैं, उसे संशय की दृष्टि से देखा जा रहा है और दूसरी तरफ जिस पत्रकारिता को लोकशिक्षण का अनिवार्य माध्यम सदियों से माना गया है, उससे लोकशिक्षण के बजाय लोकमनोरंजन की भूमिका निभाने की अपेक्षा की जा रही है। बात साफ है। यदि नागरिकों की दिलचस्पी लोकहित के गंभीर प्रश्नों में नहीं है तो ऐसे में पत्रकारिता का विकास होने के बजाय उसके बीमार पडऩे की आशंका अधिक है। यह तो समाज को ही तय करना होगा कि उसे चमक-दमक, शोशेबाजी, नकली बहसों, चुटकुलेबाजी, अविश्वसनीय समाचारों आदि की आवश्यकता है या अपने समय के प्रश्नों से रूबरू होने की!

यहां पूंजी निवेश की बात भी उठती है। टेक्नालॉजी का विकास अपने आप में स्वागत योग्य है, किन्तु यदि वह आम जनता को उपलब्ध नहीं है तो ऐसा विकास किस काम का? भारत ही नहीं, विदेशों में जनसंचार माध्यमों में एकाधिकारवाद की प्रवृत्ति बढ़ते जा रही है। टेक्नालॉजी इतनी मंहगी है कि वह कामकाजी पत्रकारों की पहुंच से बाहर है। इस स्थिति का फायदा उठाकर कारपोरेट घराने मास मीडिया पर मिल्कियत जमाते जा रहे हंै। यह बेहद चिंताजनक स्थिति है। जिनके पास सत्ता है उनमें सहिष्णुता की कमी है। ऐसे में अब जो पत्रकारिता हम देख रहे हैं वह बहुत बड़ी हद तक सत्ता और पूंजी के गठजोड़ का परिणाम व प्रमाण है।

इस तरह एक ओर महंगी टेक्नालॉजी,  दूसरी ओर असहिष्णु सत्ता तंत्र, तीसरी ओर आत्ममुग्ध, स्वकेंद्रित समाज - इन सबने मिल कर भविष्य की पत्रकारिता के सामने गंभीर चुनौती पेश कर दी है। इस बीच डिजिटल मीडिया का प्रभाव लगातार बढ़ रहा है। डिजिटल मीडिया को हम बोलचाल में सोशल मीडिया कहते हैं, लेकिन वस्तुस्थिति इसके विपरीत है। यह तथाकथित सोशल मीडिया समाजपरक न होकर बड़ी सीमा तक व्यक्तिपरक है और अभी जैसी स्थिति है उसमें इससे कोई उम्मीद पालना बेमानी होगा। डिजिटल मीडिया में लोकमंगल के लिए संभावनाएं निहित हैं, लेकिन उसमें अनेक  बाधाएं हैं।  हम पारंपरिक मीडिया के दो उदाहरण लेकर बात को समझें। भारत में जब दूरदर्शन आया था तो उम्मीद की गई थी कि वह लोकशिक्षण का बहुत बड़ा माध्यम बनेगा, लेकिन पूंजी की ताकतों ने उसका क्या हाल किया है यह बताने की आवश्यकता नहीं है। इसी तरह की उम्मीद एफएम रेडियो से की गई थी कि समुदाय आधारित एफएम रेडियो स्टेशन अपने प्रसार क्षेत्र में जनहित के कार्यों का प्रचार और लोकशिक्षण का काम करेंगे। इसके  उल्टे एफएम रेडियो निम्नस्तरीय मनोरंजन का माध्यम बनकर रह गया है।

डिजिटल मीडिया की हालत बदतर है। एक तरफ वह आत्ममुग्धता को बढ़ाने का माध्यम  सिद्ध हो रहा है तो दूसरी तरफ उसमें बेहद गैरजिम्मेदाराना और उच्छृंखल अभिव्यक्तियां हो रही हैं। मुझेे प्रतीत होता है कि हम पत्रकारिता याने जनसंचार माध्यमों के युग से वापिस एक हजार साल पूर्व के उस परिवेश की ओर लौट रहे हैं जिसमें मास मीडिया की कोई भूमिका ही नहीं थी! दूसरे शब्दों में व्यक्ति जैसे-जैसे समाज केन्द्रित होने से हटकर आत्मकेन्द्रित होने की ओर बढ़ रहा है उसी का प्रतिबिंब आने वाले समय में पत्रकारिता में भी दिखाई देगा। दुनिया के कुछेक बेहतरीन अखबार बंद हो चुके हैं। उनका स्थान न तो रेडियो ले पाया है और न  टीवी। डिजिटल मीडिया के माध्यम से अपनी पैठ बढ़ाने की कोशिश में समाजोन्मुखी पत्रकार लगे हुए हैं। उनकी यह कोशिश कितनी सफल हो पाएगी इसका आज कोई अनुमान लगाने में मैं असमर्थ हूं। यहां मुझे एक और महत्वपूर्ण बिन्दु ध्यान आता है कि डिजिटल मीडिया के नियंत्रण सूत्र अमेरिका के सैन्य पूंजी गठबंधन में है। वे या उनके अनुगत सत्ताधीश जिस दिन चाहेंगे डिजिटल मीडिया से समाजपरक पत्रकारिता को बाहर निकाल फेकेंगे।

दरअसल विश्व समाज इस समय गहरे संकट से जूझ रहा है और वह है विचारहीनता का संकट। जिन्हें हम जनतांत्रिक समाज कहते हैं वहां पूंजी का शिकंजा कसा हुआ है। इस वातावरण में जनसंचार के जितने भी अवयव हैं उनका उपयोग ऊपरी तौर पर तो ऐसे कामों में होगा जो सामाजिक सुरक्षा के लिए आवश्यक हैं, मसलन तूफान की चेतावनी अथवा जन्म-मृत्यु प्रमाणपत्र बनाना आदि। मास मीडिया में मनोरंजन को मिलने वाला स्थान लगातार बढ़ते जा रहा है। इसका मतलब है कि खाओ पियो खुश रहो और किसी बात की चिंता मत करो। तो क्या भविष्य की पत्रकारिता मनुष्य की चेतना को थपकी देकर सुलाने की पत्रकारिता होगी?  फिलहाल ऐसा ही लगता है। इस स्थिति को बदलने के लिए पत्रकारों को और उन विचारसम्पन्न युवाओं को आगे आना पड़ेगा जो यथास्थिति को बदलने में यकीन रखते हैं।

(डॉ. हरिसिंह गौर केंद्रीय वि.वि. सागर में 17 अप्रैल 2016 को दिए व्याख्यान का परिवर्द्धित रूप)

देशबन्धु में 21 अप्रैल 2016 को प्रकशित 

Thursday 14 April 2016

चिकित्सा सेवा की दुर्गति




ब्रिटिश मेडिकल जर्नल  स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र में एक अत्यन्त प्रतिष्ठित एवं विश्वसनीय पत्रिका है। जर्नल ने अपने ताजा अंक में भारतीय चिकित्सा परिषद में आमूलचूल परिवर्तन करने का आह्वान किया है ताकि भारत में चिकित्सा क्षेत्र में भ्रष्टाचार व नैतिक मूल्यों की अवहेलना को खत्म किया जा सके। यह पत्रिका भले ही ब्रिटेन की हो उसमें यह संपादकीय लेख तीन भारतीय डॉक्टरों ने संयुक्त रूप से लिखा है; लेख में जो तथ्य दिए गए हैं वे स्वास्थ्य सेवा पर संसद की स्थायी समिति की उस रिपोर्ट से उठाए गए हैं जो कुछ दिन पहले ही राज्य सभा के पटल पर रखी गई है। इसलिए पत्रिका पर किसी तरह के पूर्वाग्रह या दुराग्रह का आरोप नहीं लगाया जा सकता। यह उल्लेखनीय है कि ब्रिटिश मेडिकल जर्नल ने सन् 2014 से ही स्वास्थ्य क्षेत्र में भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम छेड़ रखी है। यहां संदर्भित लेख में कहा गया है कि भारतीय चिकित्सा परिषद देश के मेडिकल कॉलेजों को मान्यता देने के लिए पारदर्शी एवं सुदृढ़तंत्र विकसित करने में नाकाम रही है जिसके चलते निजी चिकित्सा महाविद्यालयों में घपले सामने आए हैं। इसके पूर्व जर्नल ने भारत के प्राइवेट मेडिकल कॉलेजों में भारी-भरकम कैपिटेशन फीस याने प्रवेश शुल्क तथा कारपोरेट अस्पतालों में आमदनी बढ़ाने के लिए डॉक्टरों के लक्ष्य निर्धारित करना आदि बुराइयों पर भी सामग्री प्रकाशित की है।

एक दूसरी रिपोर्ट राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन द्वारा जारी की गई है। इसमें 2009-10 से लेकर 2014-15 तक के तुलनात्मक आंकड़े पेश कर बताया गया है कि देश के अस्पतालों में शल्य क्रिया याने सर्जरी करने के मामलों में कैसे बेतहाशा वृद्धि हुई है। महाराष्ट्र के अस्पतालों में शल्य चिकित्सा लगभग एक हजार प्रतिशत बढ़ गई। जबकि दूसरे नंबर पर छत्तीसगढ़ में यह बढ़ोतरी 509 प्रतिशत रही है। रिपोर्ट में बताया गया है कि स्वास्थ्य बीमा योजना, जननी शिशु सुरक्षा कार्यक्रम इत्यादि जिनमें या तो प्रोत्साहन निधि मिलना है या बीमा कंपनी को लाभ होना है, के कारण बिना आवश्यकता के मरीजों की सर्जरी कर दी गई।  इनमें सिजेरियन, हार्निया, गालब्लेडर, अपेंडिक्स आदि से संबंधित प्रक्रियाएं सम्मिलित हैं। रिपोर्ट बताती है कि केन्द्र शासित प्रदेशों में तो यह दर लगभग अविश्वसनीय है। मसलन सिक्किम में बाईस सौ चौदह प्रतिशत बढ़ोतरी और अंडमान निकोबार में ग्यारह सौ अठहत्तर प्रतिशत। इसे लेकर सरकार की ओर से स्पष्टीकरण आए हैं, लेकिन अधिकतर विशेषज्ञों का मानना है कि बीमा कंपनियों को लाभ पहुंचाने का उद्देश्य इसमें सर्वोपरि रहा है। संस्थागत प्रसव में प्रेरक को प्रोत्साहन राशि मिलती है जो सामान्य प्रसूति में तीन दिन तक के लिए होती है, लेकिन सिजेरियन में सात दिन भर्ती रहने के लिए, याने दुगुना फायदा।

इन दोनों रिपोर्टों से अनुमान लगाया जा सकता है कि हमारे देश में स्वास्थ्य सेवाओं की क्या स्थिति है। एक आम आदमी के जीवन में शिक्षा के बाद स्वास्थ्य ही सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा होता है। किसी भी कल्याणकारी राज्य में स्वास्थ्य सेवा को सरकार की प्राथमिकता सूची में रखा जाता है। लेकिन हमारे यहां उल्टी गंगा बह रही है। अभी अधिक समय नहीं हुआ, पच्चीस-तीस साल पहले तक जनता का सरकारी अस्पताल में बहुत विश्वास रहता था तथा डॉक्टर को देवतुल्य नहीं तो घर के बड़े-बुर्जुगों को मिलने वाले सम्मान का अधिकारी माना जाता था। मुझे ठीक से तो याद नहीं, लेकिन शायद ऋषिकेश मुखर्जी की खूबसूरत आखिरी फिल्म थी जिसमें डॉक्टर को परिवार के शुभचिंतक मित्र और विश्वस्त के रूप में चित्रित किया गया था। यह भूमिका डेविड ने अदा की थी। उन दिनों निजी अस्पताल बहुत कम थे, लेकिन जैसे-जैसे नवपूंजीवाद के कदम आगे बढ़ रहे थे, वैसे-वैसे चिकित्सा क्षेत्र में भी निजी अस्पतालों ने अपने पांव पसारना प्रारंभ कर दिया था। 1970-80 के दशक में बंबई का जसलोक अस्पताल बहुत चर्चित हुआ था जहां पेट्रो डॉलर वाले अरब शेख इलाज करवाने आते थे। अब तो ऐसे नए अस्पताल बन गए हैं जिनके सामने जसलोक दीन-हीन लगता है।

भारत में स्वाधीनता प्राप्ति के समय औसत आयु लगभग सत्ताइस वर्ष थी। आज वह बढ़ कर सत्तर वर्ष के आसपास पहुंच गई है। पहले पचास साल की उम्र में व्यक्ति बूढ़ा लगने लगता था, आज उस उम्र का व्यक्ति युवा कहलाता है। भारत से चेचक का समूल नाश हो चुका है। पोलियो भी समाप्त हो गया है। हृदयरोगी आज सर्जरी के भरोसे लंबी आयु पा लेते हैं। गरज यह कि तमाम भ्रष्टाचार के बावजूद स्वास्थ्य सेवाओं के क्षेत्र में भारत ने सराहनीय सफलताएं अर्जित की हैं। लेकिन हम यह न भूलें कि ये सारे काम सरकारी क्षेत्र में ही हुए। सरकारी अस्पतालों में पहले भी थोड़े-बहुत लालची डॉक्टर रहे होंगे और पैरामेडिकल स्टाफ बख्शीश मांगता होगा, फिर भी रोगी का उपचार तो होता ही था।

आज क्या स्थिति है? क्या मेडिकल कॉलेज से पढ़कर निकलने वाले युवा चिकित्सकों के मन में वैसा सेवाभाव है जो आज से पचास साल पहले था? उत्तर मिलेगा नहीं। शहर की सुविधा में रहने का लोभ हर पढ़े-लिखे व्यक्ति को हो सकता है, लेकिन पहले के डॉक्टर गांव जाने में इस तरह नहीं कतराते थे। इसका एक कारण शायद यह हो कि तब डॉक्टरों को प्राइवेट क्लीनिक या नर्सिंग होम खोलने के लिए बैंकों से इतनी आसानी से ऋण नहीं मिलता था। दूसरी वजह  थी जैसा कि हमने उत्तरप्रदेश में देखा- डॉक्टरों को पहले गांव, फिर कस्बा, फिर जिला मुख्यालय इस तरह क्रमिक रूप से पोस्टिंग मिला करती थी। उसमें राजनैतिक हस्तक्षेप नहीं होता था। आज ऐसी कोई व्यवस्था शायद किसी भी प्रदेश में नहीं है।
इस तथ्य पर भी ध्यान दें कि इस बीते युग में सरकारी अस्पतालों के अलावा निजी अस्पताल यदि खुले भी तो किसी सीमा तक वे सरकारी अस्पताल के प्रतिपूरक रहे न कि प्रतिस्पर्द्धी। सम्पन्न तबके द्वारा स्थापित किए गए निजी अस्पतालों के पीछे सेवाभाव प्रमुख था। ये अस्पताल आम जनता के लिए खुले होते थे और इनके डॉक्टरों की जीवनशैली सरकारी डॉक्टरों से बहुत भिन्न नहीं थी। बल्कि अनेक सरकारी डॉक्टर सेवानिवृत्ति के बाद किसी परमार्थ अस्पताल में जाकर सेवा देना पसंद करते थे किन्तु आज चाहे मुंबई में अंबानी अस्पताल हो, चाहे पुणे में बिड़ला अस्पताल या फिर दिल्ली, बंगलुरु, चेन्नई के नामी-गिरामी अस्पताल इनमें किसी साधनहीन व्यक्ति का इलाज तो दूर, मेनगेट से भीतर प्रवेश करना भी असंभव है। विडंबना यह कि ऐसे अधिकतर अस्पतालों को रियायती दर पर भूखंड मिले हैं कि गरीबों की चिकित्सा करेंगे।

मेरी राय में इस विसंगतिपूर्ण स्थिति का सबसे बड़ा कारण है कि देश में जनसंख्या के हिसाब से जितने डॉक्टर होना चाहिए उतने नहीं हैं। अनेक मेधावी डॉक्टर विदेश चले जाते हैं। इस कारण से जो कमी आती है वह अलग है। कोई पच्चीस साल पहले सरकार ने तकनीकी शिक्षा के तंत्र में कुछ बुनियादी फेरबदल किए जिससे तकनीकी महाविद्यालयों की संख्या एकदम से बढ़ गई और देश में इंजीनियरों की कोई कमी नहीं रही। मुझे समझ नहीं आता कि डॉक्टरों व नर्सों की कमी दूर करने के लिए सरकार इसी तरह से कोई कदम क्यों नहीं उठाती! हमें निजी क्षेत्र में नहीं बल्कि सरकारी चिकित्सा महाविद्यालयों की बड़ी संख्या में आवश्यकता है। यदि सरकार ठान ले तो इस हेतु समुचित व्यवस्थाएं करने के लिए अधिक वक्त नहीं लगेगा। लेकिन जब प्रधानमंत्री से लेकर जिलाधीश तक निजी अस्पतालों को बढ़ावा देने में लगे हों तब किससे फरियाद करें और किससे उम्मीद रखें?

देशबन्धु में 14 अप्रैल 2016 को प्रकाशित 
 

Thursday 7 April 2016

भारतीय समाज : रुग्णता के लक्षण




हम सोचते थे कि मोदी सरकार ने आधार  कार्ड की आवश्यकता स्वीकार कर भारतवासियों को एक तरह से निश्चिंत कर दिया है कि तुम्हारे पास जब यह कार्ड है तो फिर और किसी अन्य तरह के पहचानपत्र की जरूरत नहीं है कि तुम भारतवासी हो या नहीं। लेकिन संघ और भाजपा के नेता जिस तरह के वक्तव्य शृंखलाबद्ध तरीके से और रोजाना किश्तों में दे रहे हैं उससे लगता है कि अपने भारतीय होने का पहचानपत्र देने के लिए हर हिन्दुस्तानी को अब सरसंघचालक द्वारा स्थापित फ्रेंचाइजी पर जाना पड़ेगा। संभव है कि कल तक योग सिखाने वाले उद्योगपति रामदेव ये फ्रेंचाइजी ले लें और पतंजलि बिस्किट, नूडल्स, केश तेल, घी इत्यादि के साथ-साथ देश भर में फैली उनकी दुुकानों पर पहचानपत्र बिक्री का भी काउंटर खुल जाए। अगर कोई कमी होगी तो अपने भक्तों के बीच श्री श्री कहलाने वाले रविशंकर या गुरमत राम-रहीम की दुकानों से उनका वितरण किया जा सकेगा।

नरेन्द्र मोदी मई 2014 में अनेक समुदायों, वर्गों और समूहों के सहयोग से चुनाव जीतकर प्रधानमंत्री बने थे। उस समय दावा किया गया था कि अल्पसंख्यकों ने भी नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में विश्वास प्रकट किया है। जफर सरेसवाला इत्यादि इसके प्रमाण के तौर पर पेश किए गए थे।  इसमें संदेह नहीं कि मोदी के चुनाव अभियान में संघ परिवार ने महत्वपूर्ण भूमिका वोटरों को घर से निकालने व बूथ प्रबंधन आदि में निभाई थी। देशी-विदेशी पूंजीपतियों ने उनके लिए अपनी तिजोरियां खोल दी थीं। किन्तु इस सबसे बढ़ कर नरेन्द्र मोदी सरकार के लिए उस साधारण परिस्थिति के नागरिक ने वोट दिया था, जो भ्रष्टाचार से त्रस्त था और जिसे जीवनयापन के लिए एक छोटे से रोजगार के अवसर की आवश्यकता थी। उसे बढ़ती हुई महंगाई से निजात पाने की भी उम्मीद थी। वह साधारण नागरिक आज अपने आपको छला गया महसूस कर रहा है। प्रधानमंत्री भ्रष्टाचार खत्म होने का चाहे जितना दावा करें यह सबको पता है कि बुराई पहले से कहीं ज्यादा फैल गई है। अफसरशाही आज पहले की अपेक्षा अधिक शक्तिशाली और प्रबल है, शिक्षा और स्वास्थ्य में किसी तरह का सुधार नहीं हुआ है, विश्व बाजार में पेट्रोल के दाम घट जाने के बावजूद जनता को उसका कोई लाभ नहीं मिल पा रहा है, महंगाई दिन-ब-दिन बढ़ रही है, आर्थिक मंदी के जो भी कारण हों कल-कारखाने बंद हो रहे हैं या उनमें उत्पादन कम हो गया है, बेरोजगारी दूर होने के बजाय बढ़ रही है तथा प्रति व्यक्ति पन्द्रह लाख रुपया और अच्छे दिन आने को भाजपा नेतृत्व स्वयं ही जुमला घोषित कर चुका है।

एक तरह से जनता मोहभंग की स्थिति में पहुंच गई है, लेकिन इससे न भाजपा को और न ही रिमोट से सरकार चलाने वाले संघ परिवार को कोई फर्क पड़ रहा है। उन्हें अपने गठबंधन के साथियों की आलोचना की भी चिंता नहीं है। अरुणाचल और उत्तराखंड में संविधान की मर्यादा का उल्लंघन करने में भी उन्होंने संकोच नहीं बरता। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को दरअसल लग रहा है कि भारत को हिन्दू राष्ट्र बनाने का यह जो एक मौका आया है उसे हाथ से फिसलने नहीं देना चाहिए। प्रधानमंत्री की मजबूरी देखिए। संघ के स्वयंसेवक होने के नाते वे अपनी पितृसंस्था का विरोध नहीं कर सकते और विरोध करें भी क्यों? लोकसभा में भाजपा के पास स्पष्ट बहुमत है। सरकार गिरने का कोई खतरा नहीं है। जैसे दो साल निकल गए वैसे अगले तीन साल भी निकल जाएंगे। यह तो सब जानते हैं कि श्री मोदी सत्ताप्रिय व्यक्ति हैं। देश-दुनिया में हुई तमाम आलोचनाओं के बावजूद उन्होंने गुजरात का मुख्यमंत्री पद नहीं छोड़ा तो प्रधानमंत्री पद कैसे छोड़ देंगे? उनका शायद यह भी मानना हो कि जिस तरह से वे तीन बार गुजरात में चुनाव जीते, उसी तरह केन्द्र में भी दुबारा जीत जाएंगे। शायद यही उम्मीद सरसंघचालक मोहन भागवत को होगी।

हमारी चिंता मोहन भागवत अथवा नरेन्द्र मोदी के बारे में नहीं है। चिंता इस बात की है कि देश का क्या होगा? आधुनिक समय में धर्म आधारित देशों के जो हालात हमने देखे हैं, उनसे हमारी चिंता बढ़ती है। यह समझना बहुत आवश्यक है कि आज जिसे हम राष्ट्र कहते हैं वह कोई स्वाभाविक संज्ञा नहीं बल्कि एक राजनैतिक निर्मिति है। विश्व में शायद ही कोई राष्ट्र हो जहां सिर्फ एक धर्म, एक मत, एक विश्वास, एक जाति, एक रंग या एक नस्ल के लोग रहते हों। ऐतिहासिक कारणों से विभिन्न तरह के समाज पास-पास आते हैं और साथ मिलकर राजनैतिक रूप से राष्ट्र अथवा नेशन स्टेट की स्थापना करते हैं। इस राजनीतिक इकाई का अस्तित्व इस बात पर निर्भर करता है कि उसमें जो भिन्न-भिन्न समाज हैं वे बराबरी के साथ रह पाते हैं या नहीं। यदि किसी देश के सत्ताधीश अपने भीतर के सभी समुदायों के साथ समान न्याय का भाव नहीं रखेंगे तो वह राष्ट्र किसी भी समय टूट सकता है।

पाकिस्तान में बंगलाभाषियों के प्रति सत्ताधीशों ने समानता का बर्ताव नहीं किया तो देश के दो हिस्से हो गए। श्रीलंका में बहुसंख्यक सिंहलियों ने अल्पसंख्यक तमिलों के साथ भेदभाव रखा, तो वहां कई दशकों तक गृहयुद्ध चलता रहा। आज स्वयं भारत सरकार नेपाल में मधेशियों के प्रति समभाव रखने की सीख वहां की सरकार को दे रही है। युगांडा में ईदी अमीन ने भारतीयों को देश से निकालने की कोशिश की तब भारत ने उसका विरोध किया था या नहीं? आज अमेरिका में आतंकवादी होने के धोखे में जब किसी सिख को मार दिया जाता है तो वह बात हमें नागवार गुजरती है और जब कनाडा के प्रधानमंत्री ट्रूडो तीन कनाडाई सिखों को मंत्रिमंडल में शामिल करते हैं तो हमें प्रसन्नता होती है। आज भारत में संघ परिवार से जुड़े वे तमाम लोग जो बात-बात में अल्पसंख्यकों व उनका साथ देने वालों को चिन्हित कर उन्हें राष्ट्रद्रोही घोषित कर पाकिस्तान जाने की सलाह देते हैं, वे कृपया हमें बताएं कि क्या वे इंग्लैंड, अमेरिका, कनाडा, कैरेबियन देश, अफ्रीकी देश, नेपाल, बंगलादेश, श्रीलंका, म्यांमार आदि में बसे भारतवंशियों को जहाजों में भरकर भारत वापिस लाएंगे?

इस समय संघ परिवार भारत में जो हिन्दू राष्ट्र निर्मित करने की कोशिश कर रहा है तब यह याद कर लेना मुनासिब होगा कि यही कोशिश हिटलर और मुसोलनी ने की थी, जिसकी परिणति द्वितीय विश्वयुद्ध के रूप में हुई थी। आज जब ग्लोबल विलेज की बात हो रही है तब किसी भी देश में गृहयुद्ध की स्थिति कितना विकराल रूप ले सकती है उसकी कल्पना मात्र से हर समझदार व्यक्ति को डर लगना चाहिए। अयातुल्ला खुमैनी ने इरान को एक शिया धर्म राज्य में रूपांतरित करने की जो पहल की उसका परिणाम यह हुआ कि इरान विकास की दौड़ में कम से कम एक सदी पिछड़ गया।  इस्लामिक स्टेट द्वारा खिलाफत की पुनस्र्थापना के लिए जो अकल्पनीय हिंसा की जा रही है उसके कारण पश्चिमी एशिया और उत्तर अफ्रीका के तमाम देश बेहाल हो रहे हैं। इस क्षेत्र की राजनीति का गहन अध्ययन अथवा ऐसी परिस्थितियों का विश्लेषण जिन्होंने किया है उनके कुछ उद्धरण यहां प्रस्तुत करने से मेरी बात और स्पष्ट हो सकती है।

यूएनडीपी ने अरब मानव विकास रिपोर्ट 2003 में लिखा था-''शोधकर्ताओं का मानना है कि अरब देशों में जो पढ़ाया जा रहा है वह स्वतंत्र तर्कबुद्धि व विचारशीलता बढ़ाने के बजाय व्यक्ति को अधीनता, आत्मसमर्पण, आज्ञाकारिता और परवशता के लिए प्रेरित करता है।" इसे उद्धृत करते हुए पूर्व राजदूत एवं दार्शनिक राबर्ट तोस्कानो कहते हैं कि-''जो सत्ताधीश पूर्ण नियंत्रण रखना चाहते हैं वे मुक्त, बहुलतावादी, नवाचारयुक्त विचारसरणि को पनपने से रोकते हैं। इसका दुष्प्रभाव अर्थव्यवस्था एवं समाज व्यवस्था दोनों में देखने मिलता है। इससे उदारवादी जनतंत्र के बजाय अनुदार जनतंत्र का उदय होता है जिससे शांतिपूर्ण विकास एवं परिवर्तन की संभावना खत्म हो जाती है।"

अर्थशास्त्री थॉमस पिकेटी अपनी प्रसिद्ध पुस्तक 'कैपिटल' में ऐसे वातावरण की चर्चा करते हुए कहते हैं कि ''पूंजीवाद एकतरफा और गैरटिकाऊ असमानताओं को जन्म देता है जिससे जनतांत्रिक समाज के बुनियादी मूल्य खंडित होते हैं।" यह आश्चर्य की बात नहीं है कि पूंजीपति वर्ग हमेशा से धर्म आधारित व्यवस्था का समर्थन करते आया है। उसे सर्वाधिक लाभ वहीं मिलता है। आक्सफैम की एक ताजा रिपोर्ट में बताया गया है कि विगत बीस वर्ष में विश्व के सबसे धनी एक प्रतिशत लोगों की आमदनी साठ गुना बढ़ गई है।

मैं अंत में सुप्रसिद्ध राजनैतिक विचारक अन्तोनियो ग्राम्शी को उद्धृत करना चाहूंगा। उन्होंने कहा था कि ऐसे संकट की जड़ इस तथ्य में है कि अतीत की व्यवस्था मर रही है और नूतन का जन्म होते नहीं दिख रहा है। इस संधि-बेला में विभिन्न कोटियों की रुग्णता के लक्षण समाज में परिलक्षित होते हैं।

यह दायित्व भारत के नौजवानों पर है कि वे एक रुग्ण मानसिकता के साथ जीना पसंद करेंगे या एक नए भारत का निर्माण करना चाहेंगे!!

देशबन्धु में 07 अप्रैल 2016 को प्रकाशित