Wednesday 28 September 2016

युद्ध की तारीफ में



मैं आज का यह कॉलम भारत के उन बहादुरों को समर्पित करता हूं जो अखबारों में, टीवी चैनलों पर, फेसबुक पर और सोशल मीडिया के अन्य मंचों से बार-बार लगातार पाकिस्तान को सबक सिखाने के लिए लड़ाई की वकालत कर रहे हैं। यह कॉलम महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के सुप्रीमो राज ठाकरे को भी समर्पित है जिन्होंने पाकिस्तानी कलाकारों को भारत छोडऩे का फरमान जारी कर दिया है। मुंबई निवासी कॉमेडियन राजू श्रीवास्तव को भी जो अपना कराची जाने का प्रोग्राम स्थगित कर रहे हैं, उनसे सीमा पर मारे गए सैनिकों के परिजनों का दुख नहीं देखा जा रहा है। और ज़ी एम्पायर के सर्वेसर्वा तथा हाल में साहित्य अकादमी द्वारा चिंतक घोषित किए गए सुभाष चन्द्रा को जिन्होंने आश्वासन दिया है कि वे अपने  ज़िदगी चैनल पर पाकिस्तानी सीरियल दिखाना बंद कर देंगे। सचमुच ये तमाम लोग सच्चे देशभक्त हैं और हमें विश्वास करना चाहिए कि ये पाकिस्तान को छठी का दूध याद कराकर ही रहेंगे।

दूसरी तरफ ऐसे कुछ सिरफिरे लोग हैं जो देश की सरकार और जनता से संयम बरतने की अपील कर रहे हैं। इनमें भारत के नौसेना प्रमुख रह चुके एडमिरल रामदास जैसे लोग हैं जिन्होंने प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर इस स्थिति से कैसे निपटा जाए इस बारे में सलाह देने की हिमाकत की है। एक और सेना नायक लेफ्टिनेंट जनरल एच.एस. पनाग हैं। उन्होंने भी अपने अनुभवों के आधार पर बिन मांगी सलाह दे दी है। अरे भाई, आपने देश की बहुत सेवा कर ली, रिटायर हो चुके हैं, घर में बैठिए, नाती-नातिनों से खेलिए, गोल्फ़कोर्स चले जाइए या फिर अपने क्लब में। सरकार को आपकी सलाह की आवश्यकता नहीं है। एक फेसबुक वीर ने एडमिरल रामदास पर सीधे-सीधे आरोप जड़ दिया है कि वे कम्युनिस्ट हैं। गोया कि कम्युनिस्ट होना कोई जुर्म हो। एक दूसरेबहादुर ने सलाह दी है कि एडमिरल को सेना में भर्ती ही नहीं होना चाहिए था। दुर्भाग्य से उन्होंने यह सलाह देने में कोई साठ साल की देरी कर दी।

अब मुझे समझ नहीं आता कि हमारे ये बहादुर जिन्हें मोदी भक्त की भी उपमा दी जाने लगी है, कोझिकोड में अपने आराध्य व इस देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के दिए गए भाषण पर क्या प्रतिक्रिया व्यक्त करेंगे। आखिरकार ये पीएम पद के दावेदार नरेन्द्र मोदी ही तो थे जिन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की लानत-मलामत करने में कोई कसर बाकी नहीं रखी थी; इस बात पर कि वे पाकिस्तान के साथ नरमी बरत रहे हैं। मोदी जी और उनके साथियों ने ही तो एक के बदले चार या आठ सिर काटकर लाने का दावा किया था। इन्हीं मोदीजी ने अनगिनत बार कहा था कि यूपीए सरकार को पाकिस्तान से निपटना नहीं आता। लेकिन फिर न जाने क्या हुआ कि मोदीजी ने अपने शपथ ग्रहण में नवाज शरीफ को बुला लिया।  फिर घूमते-घामते उनसे मिलने लाहौर चले गए। अब वही मोदीजी पाकिस्तान की अवाम को गरीबी, अशिक्षा और बेरोजगारी से लड़ाई लडऩे का आह्वान कर रहे हैं।

नरेन्द्र मोदी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के निष्ठावान कार्यकर्ता हैं, यह उनका एक व्यक्तित्व है। वे एक बड़े देश के प्रधानमंत्री हैं, यह उनका दूसरा व्यक्तित्व है। वे संघ के कार्यकर्ता होने के नाते पाकिस्तान से लडऩे की बात करते हैं, उसे नेस्तनाबूद करने की धमकी देते हैं, तो दूसरी ओर प्रधानमंत्री होने  के नाते संयम बरतते हैं। उन्हें अब शायद पता है कि दो देशों के बीच युद्ध बच्चों का खेल नहीं है। अटलबिहारी वाजपेयी ने भी जान लिया था कि एटम बम बना लेने से देश सुरक्षित नहीं हो जाता। किन्तु इन भक्तों का क्या करें? उन्हें तो जो पाठ पढ़ाया गया है वे उसी को दोहराते रहते हैं। दोहराते क्या, बल्कि  जब मौका मिले जुगाली करते रहते हैं। कितना अच्छा हो कि सुभाष चन्द्रा और अर्णब गोस्वामी के नेतृत्व में इन तमाम वीर बालकों को सीमा पर भेज दिया जाए ताकि वे अपनी शाब्दिक देशभक्ति को व्यवहार में बदल सकें।

बहरहाल मैं सोचता हूं कि युद्ध वास्तव में एक बढिय़ा अवसर है। ऐसा अवसर जो कई तरह से फायदेमंद हो सकता है। अब यही देखिए कि चैनलों में अगर युद्ध को लेकर वाक्युद्ध न होते तो मेजर जनरल जीडी बख्शी जैसे लोग कहां होते? उन्हें कौन पूछता? क्या आज से दो साल पहले देश में उन्हें कोई जानता था? ऐसे ही न जाने कितने कर्नल और बिग्रेडियर और जनरल टीवी के परदे पर गला फाड़ते रहते हैं। इनके साथ-साथ गैर-फौजी रक्षा विशेषज्ञों की भी एक टीम तैयार हो गई है। उधर इलाहाबाद वाले राजू श्रीवास्तव को देखिए। हम तो उन्हें चुटकुलेबाज समझते थे, लेकिन अब पता चला कि वे भी भारी देशभक्त हैं। वीररस के कवियों की तो लंबी कतार लग गयी है। इस तरह न जाने कितने लोगों का भला हो रहा है। अभी तो सिर्फ युद्ध के बारे में बातें ही बातें हैं। इसी में न जाने कितने ही तरह के लोग फायदा उठा रहे हैंं।

जब प्रधानमंत्री केरल में भाजपा के मंच से पाकिस्तान के लोगों को गरीबी से लडऩे की नसीहत दे रहे थे तब हमारे ध्यान में आ रहा था कि दो दिन पहले ही तो भारत सरकार ने फ्रांस से युद्धक विमान खरीदने के लिए कितने अरब डालर का सौदा पक्का कर लिया है। हम विदेशों से हथियार तो खरीद ही रहे हैं, देश के भीतर भी कारपोरेट घराने सामरिक सामग्री निर्माण करने के लिए आगे आ रहे हैं। इन देशी-विदेशी उद्योगों से सैन्य सामग्री की खरीदारी में किसको कितना लाभ होगा, क्या इस बारे में कुछ कहने की आवश्यकता है? ऐसा नहीं कि लड़ाई की बात करने से, लड़ाई का माहौल बनाने से, जनता में उत्तेजना फैलाने से और सचमुच  युद्ध होने से कारपोरेट घरानों के राजनेताओं, अफसरों, ठेकेदारों, बिचौलियों और प्रवक्ताओं को ही लाभ मिलता है।

युद्ध कोई मजाक की बात नहीं है। युद्ध एक लंबा सौदा है, बहुतों के लिए मुनाफे का सौदा।इराक की आत्मनिर्वासित कवयित्री दुन्या मिखाइल ने लगभग पन्द्रह बरस पहले युद्ध करता है अनथक मेहनत शीर्षक से इस बारे में जो कविता लिखी थी उसे पढि़ए और तारीफ कीजिए कि सचमुच युद्ध कितनी बढिय़ा बात है। (अंग्रेजी से हिन्दी अनुवाद मेरा है)

देखो सचमुच कितना /भव्य है युद्ध! कितना तत्पर और/ कितना कुशल! अलस्सुबह वह/ साइरनों को जगाता है और/एंबुलेंस भेज देता है/ दूर-दराज तक / हवा में उछाल देता है/ शवों को और/ घायलों के लिए/ बिछा देता है स्ट्रेचर/

वह माताओं की आंखों से /बुलाता है बरसात को/ और धरती में गहरे तक धंस जाता है/ कितना कुछ तितर-बितर कर/ खंडहरों में/ कुछ एकदम मुर्दा और चमकदार/
कुछ मुरझाए हुए लेकिन/अब भी धडक़ते हुए/ वह बच्चों के मस्तिष्क में / उपजाता है हजारों सवाल/ और आकाश में/ राकेट व मिसाइलों की आतिशबाजी कर/ देवताओं को दिल बहलाता है/ खेतों में वह बोता है/ लैंडमाइन और फिर उनसे/ लेता है जख्मों व नासूरों की फसल/ वह परिवारों को बेघर-विस्थापित/ हो जाने के लिए करता है तैयार/ पंडों-पुरोहितों के साथ होता है खड़ा/जब वे शैतान पर लानत/ फेंक रहे होते हों/ (बेचारा शैतान, उसे हर घड़ी देना होती है अग्नि परीक्षा)/

युद्ध काम करता है निरन्तर/क्या दिन और क्या रात/ वह तानाशाहों को लंबे भाषण देने के लिए/प्रेरित करता है/ सेनापतियों को देता है मैडल/ और कवियों को विषय/ वह कृत्रिम अंग बनाने के कारखानों को/ करता है कितनी मदद/ मक्खियों तथा कीड़ों के लिए/ जुटाता है भोजन/ इतिहास की पुस्तकों में/ जोड़ता है पन्ने व अध्याय/ मरने और मारने वालों के बीच दिखाता है बराबरी/

प्रेमियों को सिखाता है पत्र लिखना/ व जवां औरतों को इंतजार/अखबारों को भर देता है/ लेखों व फोटो से/ अनाथों के लिए बनाता है नए घर/

कफ़न बनाने वालों की कर देता है चांदी/ कब्र खोदने वालों को देता है शाबासी/ और नेता के चेहरे पर/ चिपकाता है मुस्कान/ युद्ध अनथक मेहनत करता है बेजोड़/ फिर भी क्या बात है कि कोई उसकी तारीफ में/ एक शब्द भी नहीं कहता।

देशबंधु में 29 सितंबर 2016 को प्रकाशित 
 

Thursday 22 September 2016

संकीर्ण स्वार्थ की राजनीति


भारत में अब तक सोलह आम चुनाव हो चुके हैं। इस लंबी अवधि में यह स्वाभाविक होता कि जनतांत्रिक राजनीति धीरे-धीरे कर पुष्ट और परिपक्व होती, लेकिन अभी जो दृश्य सामने है उसमें लगता है कि हम सामंतवादी युग की ओर वापिस लौट रहे हैं। सामंतवाद याने स्वेच्छाचारिता और निरंकुशता। यह भावना बलवती होती जा रही है कि जिसे एक बार सत्ता मिल गई वह उसका मनमाना उपभोग करे। आज नागरिक महज मतदाता बनकर रह गया है। उसका दायित्व सिर्फ इतना है कि मन करे तो पांच साल में एक बार जाकर अपना वोट डाल आए और इच्छा न हो तो घर बैठा रहे। इस बीच जिन्हें चुना गया है उनका आचरण कैसा है इस बारे में सोचने-समझने की फुर्सत अब शायद किसी के पास नहीं है। यह अधिकार तो जनता ने अपने पास रखा है कि वह चाहे तो पांच साल में एक बार सरकार पलट  दें, लेकिन क्या इतना काफी है?

हाल के दिनों में जनतांत्रिक राजनीति का विरूपण करते जो कुछ उदाहरण सामने आए हैं वे बहुत चिंतित करते हैं। एक ज्वलंत उदाहरण अरुणाचल प्रदेश का है। वहां कांग्रेस की सरकार थी। मुख्यमंत्री नबाम तुकी से विद्रोह कर कलिखो पुल ने नई सरकार बनाई। न्यायालय के आदेश के बाद सदन में शक्ति परीक्षण हुआ। नबाम तुकी जो एक दिन के लिए दुबारा मुख्यमंत्री बन गए थे उन्होंने इस्तीफा दिया। पेमा खांडू तीसरे मुख्यमंत्री बने। अवसाद में डूबे पराजित मुख्यमंत्री कलिखो पुल ने आत्महत्या कर ली और अब वर्तमान मुख्यमंत्री पेमा खांडू ने सिर्फ एक सदस्य छोड़ बाकी को लेकर नई पार्टी बना ली। यह दलबदल के इतिहास का एक विचित्र मोड़ है कि एक मुख्यमंत्री ही अपनी पार्टी छोड़ दे। इसके पीछे क्या कारण थे इसका सिर्फ अनुमान ही लगाया जा सकता है। केन्द्रीय गृह राज्य मंत्री किरेन रिजिजू ने, जो स्वयं अरुणाचल के हैं, इस खेल में क्या भूमिका निभाई? भारतीय जनता पार्टी को इसमें क्या लाभ दिखा? ये तथ्य अभी सामने नहीं आए।

उत्तर प्रदेश में जो नाटक चल रहा है वह भी सोचने के लिए मजबूर करता है। मुलायम सिंह यादव को डॉ. लोहिया की परंपरा में दीक्षित समाजवादी नेता माना जाता है। उनके दल का नाम भी समाजवादी पार्टी है। भारत को कांग्रेस मुक्त करने का बीड़ा सबसे पहले डॉ. लोहिया ने ही उठाया था। आज उनके शिष्य माने जाने वाले नेतागण जैसी व्यक्तिवादी राजनीति कर रहे हैं क्या इसकी कोई कल्पना स्वयं उन्होंने की थी? मुलायम सिंह ने अपने पूरे कुनबे को जिस ठसक के साथ राजनीति में स्थापित किया है उसे दुर्लभ ही मानना चाहिए। मुश्किल यह है कि यादव कुनबे में सत्ता भोग को लेकर दरारें पड़ गई हैं तथा नेताजी के लिए तय कर पाना कठिन हो गया है कि भाई और बेटे के बीच संतुलन कैसे स्थापित किया जाए? उनकी यह विडंबना अन्य प्रादेशिक क्षत्रपों से बहुत अलग नहीं है।

मुलायम सिंह ने कभी प्रधानमंत्री बनने का सपना देखा था। वे अगले वर्ष राष्ट्रपति पद के दावेदार भी हो सकते हैं। अमर सिंह को पार्टी में वापस लाना और राज्यसभा में भेजना उनकी महत्वाकांक्षी रणनीति का शायद एक हिस्सा हो। लेकिन क्या वे अपने पुत्र युवा मुख्यमंत्री अखिलेश यादव और भाई शिवपाल यादव के बीच पड़ गई दरार को काटने में समर्थ होंगे? यह अखिलेश की विवशता हो सकती है कि वे अपने पिता के खिलाफ न जा सकें, लेकिन चाचा को उनकी जगह दिखाने में वे कोई कमी नहीं रख रहे हैं। किन्तु यह सवाल सिर्फ एक प्रदेश के राजनीतिक परिवार का नहीं है; देश के सबसे बड़े प्रदेश में राजनीति के कौन से आदर्श स्थापित हो रहे हैं यह गहरी चिंता का विषय है। आखिरकार इसका खामियाजा तो प्रदेश की आम जनता को ही भुगतना है।

इधर देश की राजधानी दिल्ली में एक अलग विद्रूप रचा जा रहा है। यह दोहराने की आवश्यकता नहीं है कि आम आदमी पार्टी ने जनता की आकांक्षाएं कैसे जगाई थीं और उसका लाभ पार्टी को कैसे मिला। लेकिन दो साल बीतते न बीतते वहां जो स्थितियां निर्मित हुई हैं उनसे क्या संदेश मिलता है? अरविंद केजरीवाल की महत्वाकांक्षा दिल्ली तक सीमित नहीं है। वे पंजाब से लेकर गोवा और छत्तीसगढ़ तक अपने पैर फैलाने में लगे हैं। हालात ये हंै कि छह में से चार मंत्री पिछले दिनों दिल्ली से बाहर थे। दूसरी ओर उपराज्यपाल की अपनी ठसक। उन्हें अपनी अधिकार सजगता में उच्च न्यायालय का अनुमोदन मिल गया है। प्रश्न यह है कि उपराज्यपाल हो या मुख्यमंत्री या आप पार्टी की सरकार, क्या सत्ता का अर्थ सिर्फ अधिकार हासिल कर लेना है अथवा जनतांत्रिक राजनीति में जनता के प्रति आपकी कोई जवाबदेही है?

यह जानकर हैरत हुई कि जब अरविंद केजरीवाल बेंगलुरू में स्वास्थ्य लाभ कर रहे थे उसी समय उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया फिनलैंड की अध्ययन यात्रा पर थे। उपराज्यपाल नजीब जंग अमेरिका में अवकाश मना रहे थे। एक मंत्री सत्येन्द्र जैन गोवा में थे और चौथे मंत्री गोपाल राय छत्तीसगढ़ प्रवास पर। इस दौरान दिल्ली किसके हवाले थी? इसका उत्तर केन्द्र सरकार से मिल सकता है या दिल्ली उच्च न्यायालय से या फिर आप पार्टी से? कम से कम मेरी समझ में तो नहीं आ रहा है। इसमें करेला और नीम चढ़ा की कहावत तब याद आई जब उपराज्यपाल ने अमेरिका से लौटते साथ उपमुख्यमंत्री को आदेश दिया कि वे विदेश दौरा रद्द कर तुरंत लौट आएं जिसे मानने से श्री सिसोदिया ने इंकार कर दिया।

ये कुछ ताजा उदाहरण हैं जो अपनी राजनीतिक समझदारी के बारे में पुनर्विचार करने के लिए हमें प्रेरित करते हैं। इस बीच एक बौद्धिक बहस वामपंथी दलों में शुरू हो गई है।  माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के पूर्व महासचिव प्रकाश करात ने कहा है कि मोदी सरकार अधिनायकवादी तो हैं, लेकिन फासीवादी नहीं। उनके इस कथन का खंडन वर्तमान महासचिव सीताराम येचुरी ने यह कहकर किया कि  वर्तमान सरकार फासीवादी है। इस बहस में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव सुधाकर रेड्डी भी खुद को कूदने से नहीं रोक पाए। उन्होंने कहा कि सरकार फासीवादी नहीं है, लेकिन फासीवादी प्रवृत्ति लिए हुए है। ये तीनों विचारशील राजनेता हैं और उनके कथनों का विश्लेषण राजनीति के अध्येता अवश्य करेंगे, किन्तु हमारी शंका यह है कि ये बहसें आम जनता को कितनी समझ में आने वाली हैं।

मोदी सरकार का लगभग ढाई साल का कामकाज जनता के सामने है। आज आवश्यकता उसके विभिन्न बिन्दुओं पर तर्कसम्मत ढंग से विचार करने की है। इसी तरह राज्यों में जो प्रवृत्तियां पनप रही हैं उनका भी अध्ययन और विश्लेषण होना चाहिए। देश के सामने बहुत से सवाल मुंह बाए खड़े हैं। अभी सातवां वेतनमान लागू हो रहा है। इसका क्या असर महंगाई और मुद्रास्फीति पर पड़ेगा? रुपए का और अवमूल्यन करने की वकालत एक वर्ग लगातार कर रहा है उसमें किसका स्वार्थ सिद्ध होगा? स्त्रियों पर अत्याचार लगातार बढ़ रहे हैं, दलितों का आक्रोश दिनोंदिन बढ़ रहा है, आदिवासी, भूमिहीन कृषक, खेतिहर मजदूर उनके सामने अस्तित्व को बचाने का संकट है, अल्पसंख्यकों पर निरंतर हमले हो रहे हैं, कश्मीर का कोई समाधान सामने दिखाई नहीं देता।

यह पहली बार हुआ कि गुटनिरपेक्ष सम्मेलन में भारत के प्रधानमंत्री ने भागीदारी नहीं की। उज्बेकिस्तान के राष्ट्रपति का निधन हुआ तो भारत सरकार ने कोई भी नुमाइंदा अन्त्येष्टि में नहीं भेजा जबकि साल भर पहले ही प्रधानमंत्री उज्बेकिस्तान होकर आए थे। अमेरिका के प्रति झुकाव स्पष्ट दिख रहा है, लेकिन अमेरिका और चीन के साथ संबंधों में संतुलन कैसे साधा जाए तथा रूस के साथ दोस्ती को कैसे प्रगाढ़ किया जाए यह अभी शायद समझ नहीं आ रहा है।

देश के भीतर और बाहर दोनों मोर्चों पर इतने सारे पेचीदा मसले सामने हैं, लेकिन धिक्कार है उन पर जो इस सबके बीच संकीर्ण स्वार्थ की राजनीति में डूबे हुए हैं।

देशबंधु में 22 सितंबर 2016 को प्रकाशित 

Thursday 15 September 2016

पानी पर झगड़े क्यों?



 मेरा ऐसा मानना है कि पानी को लेकर हमें अपनी समझ साफ कर लेना चाहिए, फिर बात चाहे अंतरदेशीय जल वितरण की हो, राज्यों के बीच नदी जल बंटवारे को लेकर हो रहे विवाद की हो, बाढ़ का मामला हो या शहरी बसाहटों में पानी भर जाने  की परेशानी हो, नगरपालिका से पेयजल वितरण का मुद्दा हो या फिर अल्पवर्षा वाले क्षेत्रों में सूखे का संकट हो। ऐसी तमाम मुसीबतें इसलिए पेश आती हैं क्योंकि पानी पर समाज की सोच में गंभीरता न होकर भावुकता है, दूरदृष्टि न होकर तात्कालिकता है, वस्तुपरकता न होकर संकुचित स्वार्थ है। यह याद रखना चाहिए कि पानी को लेकर जो उक्तियां, मुहावरे, कहावतें और कविताएं समय-समय पर लेखों और भाषणों में उद्धृत की जाती हैं वे किसी प्रसंग विशेष में मौजूं हो सकती हैं, किन्तु पानी का जो विराट संदर्भ है उसमें उन्हें उद्धृत करना छिछली भावुकता से अधिक कुछ नहीं है।

हमें सर्वप्रथम यह स्वीकार करना होगा कि जल प्रकृति का सबसे बड़ा उपहार है। इधर दो-तीन दशकों से सरकार और वित्तीय संस्थानों से एक नई संज्ञा प्रचलित कर दी है-जल संसाधन। जल चूंकि मनुष्य और अन्य तमाम प्राणियों के उपयोग में आता है इसलिए वह संसाधन तो है, लेकिन जब उसे व्यवसायिकता की परिधि में इस्तेमाल किया जाता है तो जिन्होंने इसका प्रयोग प्रारंभ किया, उनके इरादों पर स्वाभाविक ही संदेह उपजने लगता है। जल संसाधन सुनने से ही लगता है मानो यह खरीद-फरोख्त की कोई वस्तु है। तब हम भूल जाते हैं कि प्रकृति के इस अनमोल वरदान के बिना कोई भी प्राणी जीवित नहीं रह सकता। आज की तारीख में पानी का एक अच्छा खासा बाजार खड़ा हो गया है और बड़े-छोटे उद्योगपति इसके भरोसे चांदी काट रहे हैं। जेम्स बाण्ड की एक फिल्म ‘क्वांटम ऑफ सोलेस’ में भयावह चित्रण है कि कैसे कुछ स्वार्थी तत्व एक देश के जलस्रोतों पर एकाधिकार स्थापित कर लेना चाहते हैं। 

पानी को लेकर दूसरी बात यह समझने की है कि पृथ्वी पर जल की मात्रा असीमित नहीं, बल्कि सीमित है। यद्यपि पृथ्वी का दो तिहाई धरातल जलयुक्त है, लेकिन बहुउपयोगी मीठे पानी का अंश बहुत कम है। अनेक कारणों से इसकी उपलब्धता में भी धीरे-धीरे कमी आ रही है जैसे बढ़ती हुई आबादी, जलवायु परिवर्तन इत्यादि। यह हम जान ही रहे हैं कि उत्तरी भूभाग में हिमखंड याने ग्लेशियर निरंतर पिघल रहे हैं और उनसे बनने वाली नदियों में पानी का भंडारण एवं प्रवाह धीरे-धीरे कम होते जा रहा है। दुनिया के जो वर्षा जल से सिंचित वन थे वे भी धीरे-धीरे खत्म होते जा रहे हैं। दूसरी तरफ बढ़ती आबादी एवं बढ़ते औद्योगीकरण के कारण प्रति व्यक्ति जल की उपलब्धता में कमी आ रही है।

ऐसा नहीं है कि वैज्ञानिक और नीति निर्माता इस तथ्यों से अनभिज्ञ हैं। कृषि वैज्ञानिक अनुसंधान में जुटे हुए हैं कि कम पानी में फसलें कैसे ली जाएं; उद्योगों में, भवन निर्माण में, निस्तार में पानी के उपयोग में कटौती कैसे हो, इस पर भी प्रयोग चल रहे हैं। लेकिन जो कुछ हो रहा है वह नाकाफी है। हमारे देश में पानी को लेकर तीसरा बिन्दु एक अन्य समस्या के रूप में इस तरह है कि हम अपने मीठे जल के स्रोतों जिसमें नदी, तालाब, कुएं, बावड़ी सभी सम्मिलित हैं को स्वच्छ और सुरक्षित रखने में नाकामयाब सिद्ध हो रहे हैं। कितने सालों से गंगा सफाई अभियान चल रहा है अब यमुना का नाम भी जुड़ गया है, लेकिन अब तक कोई भी आशाजनक परिणाम सामने नहीं आया है। अन्य नदियों की तो बात ही क्या करें? चौथी बात यह भी है कि जल स्रोतों का संधारण एवं संरक्षण करने का जो पारंपरिक ज्ञान था उससे हमने मुंह मोड़ लिया है।

एक सोच यह कहती है कि आबादी बढऩे से पानी की स्थिति पर कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि गरीब आदमी पानी का बहुत सीमित उपयोग करता है। यह नासमझ सोच है। एक व्यक्ति या परिवार प्रत्यक्ष रूप में भले ही कम पानी इस्तेमाल करता हो, अप्रत्यक्ष उपभोग में उसकी भागीदारी होती है। क्योंकि दिनचर्या का कौन सा ऐसा हिस्सा है जहां पानी का इस्तेमाल न होता हो। खैर! यह अलग चर्चा का विषय हो सकता है। मुख्य रूप से चार बातें समझने की हैं- जल की उपलब्धता, उसके उपयोग की प्राथमिकता, संरक्षण की विधियां और पर्यावरण का प्रभाव। इन सभी पहलुओं पर विचार करने, नीतियां और कार्यक्रम बनाने और उन्हें लागू करने का दायित्व सरकार ने ले रखा है, वह इसलिए कि जीवन  के इस बुनियादी प्रश्न पर समाज ने अपनी जिम्मेदारी से पूरी तरह किनारा कर लिया है।

आज आवश्यकता इसी बात की है कि समाज अपने प्राथमिक दायित्व को नए सिरे से पहचाने। ये हिमखंड, नदियां, पहाड़, झरने, तालाब, कुएं, पोखर सब हमारे हैं। इनमें से कुछ प्रकृति ने हमें दिए हैं, कुछ को हमने अपने ज्ञान व अनुभव से बनाया है। ये सब हमारी साझा धरोहर हैं। इन पर अपना हक हमें क्यों कर छोडऩा चाहिए? अनुपम मिश्र ने अपनी पुस्तकों में इस बारे में बहुत सुंदरता से विस्तारपूर्वक लिखा है। क्या कभी हमने उन पुस्तकों को पढ़ा है? राजेन्द्र सिंह और अन्ना हजारे ने अपने-अपने ढंग से जल संरक्षण किया, लेकिन अब वह मानो सुदूर अतीत की बात हो गई। मेधा पाटकर सरदार सरोवर को लेकर तीस साल से लड़ रही हैं किन्तु उनको समाज का जैसा समर्थन मिलना चाहिए था नहीं मिला।

आज एक तरफ तमिलनाडु और कर्नाटक के बीच कावेरी जल बंटवारे को लेकर फिर से बवाल शुरू हो गया है तो दूसरी तरफ छत्तीसगढ़ और ओडिशा  के बीच महानदी जल बंटवारे पर पहली बार एक आंदोलन खड़ा करने की कोशिश की जा रही है। देश में विभिन्न राज्यों के बीच ऐसे सात-आठ विवाद और चल रहे हैं।  हम यह न भूलें कि भारत-पाकिस्तान के बीच, नेपाल-भारत के बीच, चीन-भारत के बीच और भारत-बंगलादेश के बीच भी विभिन्न नदियों के जल बंटवारे पर विवाद बने हुए हैं। भारत और पाक के बीच सिंधु नदी जल बंटवारे पर लगभग साठ साल पहले अंतरराष्ट्रीय संधि हुई थी जिसे एक अभूतपूर्व सफल प्रयोग माना गया। वह संधि आज भी बरकरार है, किन्तु यह एकमात्र उदाहरण बनकर क्यों रह गया? अन्य देशों के साथ सफल समझौते अब तक क्यों नहीं हो पाए?

देश के भीतर राज्यों के बीच जो विवाद खड़े हुए हैं, उनमें हम न्यायालय की शरण में जाते हैं, लेकिन जब न्यायालय का फैसला आता है तो उसे मानने से इंकार कर देते हैं। राजनेताओं को लगता है कि पानी पर राजनीति करने से उन्हें लाभ मिल सकता है। यह एक संकीर्ण और अस्वीकार योग्य सोच है। मैं समझता हूं कि समाज को आगे आकर कुछ बातें तय कर लेना चाहिए। जैसे कि पानी पर सबसे पहला हक पेयजल और निस्तारी का हो, फिर खेती का और फिर उद्योग का। नदियों और सहायक नदियों के किनारे बसे गांवों के लोग नदी पंचायतों का गठन करें, उसमें पानी के युक्तियुक्त वितरण के फैसले लिए जाएं, तालाबों और कुंओं का प्रयोग फिर से प्रारंभ हो, इसमें शहरी भूमाफियाओं और उनके समर्थकों का मुंह काला किया जाए और इन सबके अलावा पानी का दक्षता के साथ उपयोग हो, पानी बर्बाद न हो इसके उपाय खोजे जाएं। अगर समाज इस तरह खड़ा होता है तो बहुत कुछ विवाद तो अपने आप शांत हो जाएंगे।

देशबंधु में 15 सितंबर 2016 को प्रकाशित 

Wednesday 7 September 2016

कश्मीर का जवाब बलोचिस्तान?


 

"भारत को अब आगे बढक़र बलोचिस्तान पर कब्जा कर लेना चाहिए। रूस ने वायदा किया है कि यदि भारत बलोचिस्तान पर आक्रमण करता है तो वह उसका साथ देगा। दोस्तों, इस बात पर पुतीन भाई के लिए एक लाइक और शेयर तो बनता ही है।’’

स्वाधीनता दिवस के कुछ ही दिनों बाद फेसबुक पर लगभग इसी इबारत में यह दिलचस्प पोस्ट मेरी नजर में आई। जाहिर है कि 15 अगस्त को लालकिले की प्राचीर से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के संबोधन से प्रेरित होकर यह टिप्पणी की गई थी। इसे देखते ही देखते बड़ी संख्या में फेसबुक सदस्यों ने लाइक या शेयर कर लिया। पहिले तो मुझे समझ नहीं आया कि पोस्ट पर हंसू  या रोऊं! हंसी की बात इसलिए कि यह टिप्पणी नादानीभरी बल्कि मूर्खतापूर्ण थी। लिखने वाला जान ही नहीं रहा था कि वह क्या कह रहा था। रोने की बात इसलिए कि उद्दाम भावना में बहकर हमारा देश किस दिशा में चला जा रहा है। क्या नरेन्द्र मोदी ने सोचा था कि 15 अगस्त के भाषण में वे जो कह रहे हैं उसका क्या असर देश-विदेश के जनमानस पर पड़ेगा? क्या वे सोच-समझकर भारतवासियों के ‘‘राष्ट्रप्रेम’’ को जगाने का उपक्रम कर रहे थे? क्या उन्हें अनुमान था कि राष्ट्रप्रेम फेसबुक पर इस तरह से व्यक्त होगा?

मैं यह अनुमान लगाने की भी कोशिश कर रहा हूं कि क्या संघ की शाखाओं में प्रधानमंत्री के भाषण पर चर्चा हुई होगी? क्या वहां स्वयंसेवकों को निर्देश दिया होगा कि वे अपने-अपने दायरे में इस भाषण का अनुमोदन करें? क्या संघ के अनुषंगी संगठनों में, खासकर सोशल मीडिया पर हस्तक्षेप करने वाले समूह में निर्णय हुआ होगा कि इस मुद्दे को हवा दी जाए? या फिर जो अपनी छाती पर राष्ट्रप्रेम व हिंदुत्व का बिल्ला लगाए  सोशल मीडिया पर जब देखो तब अपने विरोधियों को भद्दी-भद्दी गालियां देते रहते हैं, उन्हीं ने खुद होकर यह बीड़ा उठा लिया होगा कि पाकिस्तान को शिकस्त देने के लिए बलोचिस्तान पर कब्जा कर लिया जाए? उन्हें  मोदी जी की ईंट का जवाब पत्थर से देने वाली स्टाइल शायद काफी पसंद आई होगी! यह भूलकर कि पाकिस्तान के मामले में हम दो साल पहिलेे जहां थे, वहां से एक इंच भी आगे नहीं बढ़ पाए हैं।

आभासी दुनिया में विचरण करने वाले हमारे फेसबुक बहादुरों को शायद जमीनी हकीकत की कोई फिक्र या परवाह नहीं होती। बहरहाल, जब उपरोक्त टिप्पणी मैंने पढ़ी तो एक लाइन में उस पर अपनी प्रतिक्रिया देना मुझे आवश्यक लगा। मैंने लिखा कि भई ! पहले नक्शे में देख तो लेते कि बलोचिस्तान कहां है। इस पर फिर कोई उत्तर मुझे नहीं मिला। लेकिन बात सिर्फ फेसबुक पर पोस्ट करने तक सीमित नहीं। देश में ऐसे लोगों की संख्या कम नहीं है जो मानते हैं कि श्री मोदी ने बलोचिस्तान का मुद्दा उठाकर पाकिस्तान को करारा जवाब दिया है। वे यह मान बैठे हैं कि जिस तरह पाकिस्तान हमारे कश्मीर में लगातार उपद्रव करते रहता है, उसका जवाब यही है कि भारत प्रच्छन्न रूप से बलोचिस्तान, पाक अधिकृत कश्मीर और गिलगिट-बाल्टिस्तान में  वहां के असंतुष्टों अथवा विद्रोहियों को अपना समर्थन देता रहे। वे सोचते हैं कि इससे शक्ति संतुलन स्थापित होगा तथा पाकिस्तान की अक्ल ठिकाने लग जाएगी।  ऐसा सोचनेे वाले न इतिहास जानते हैं, न भूगोल, और न राजनीति।

अव्वल तो यह समझ लेना चाहिए कि बलूचिस्तान भारत की सीमा से बहुत दूर है। इसी तरह गिलगिट-बाल्टिस्तान में भी भारत के सीधे प्रवेश का कोई रास्ता नहीं है। आज यदि भारत पाकिस्तान के इन प्रदेशों में किसी भी तरह की कार्रवाई की बात सोचे तो यह व्यवहारिक रूप से अत्यंत कठिन है। एक समय था जब हमने बंगलादेश के मुक्ति संग्राम को अपना समर्थन दिया था, लेकिन तब भौगोलिक स्थिति पाकिस्तान नहीं, वरन बंगलादेश के पक्ष में थी। जिस दिन भारत ने पश्चिमी पाकिस्तान से पूर्वी पाकिस्तान के लिए हवाई गलियारा  बंद कर दिया उस दिन पाकिस्तान के सामने एक बड़ी अड़चन पैदा हो गई कि इस्लामाबाद से ढाका कैसे पहुंचा जाए। यह तो हुआ भौगोलिक पक्ष। इतिहास क्या कहता है वह भी देख लेना चाहिए। बलोचिस्तान अंग्रेजों द्वारा नियंत्रित इलाका था जिसमें चार रियासतें थीं। 1948 में अंग्रेजों की मध्यस्थता से वहां के नवाबों ने पाकिस्तान में विलय स्वीकार किया था। इसके साथ कुछ शर्तें रखी गई थीं।

दूसरे शब्दों में बलोचिस्तान उसी तरह से पाकिस्तान का एक प्रांत है जैसे सिंध, पंजाब या खैबर-पख्तूनवां। आज अगर हम बलोचिस्तान में किसी भी तरह का हस्तक्षेप करते हैं तो यह पाकिस्तान की सार्वभौम सत्ता को चुनौती देने की बात होती है। वह भी ऐसी चुनौती जिसमें आप जीत नहीं सकते। यह तर्क अपनी जगह पर सही है कि पाकिस्तान कश्मीर में दखलंदाजी करता है, लेकिन यह स्मरण कर लेना होगा कि पाकिस्तान की चुनी हुई सरकारें वहां की सेना के हाथ में खेल रही कठपुतली से अधिक कुछ नहीं हैं। मोदी जी ने पाक अधिकृत कश्मीर का भी उल्लेख अपने भाषण में किया, लेकिन वहां भी इतिहास भारत के पक्ष में नहीं है, और न ही गिलगिट-बाल्टिस्तान में। ये दोनों प्रदेश कश्मीर का हिस्सा अवश्य थे, लेकिन कश्मीर के साथ उनकी भावनात्मक एकता नहीं थी। इन इलाकों में न तो महाराजा का प्रभाव था और न शेख अब्दुल्ला का। मैंने अपने 28 जुलाई 2016 के लेख में इस बारे में कुछ विस्तार से वर्णन किया है।

इतिहास के कुछ और सबक ध्यान में रखना उचित होगा। पूर्वी पाकिस्तान याने बंगलादेश मुख्यत: भाषा के प्रश्न पर अलग होना चाहता था और वह हो गया। पाकिस्तान के हुक्मरानों ने बंगलादेश की जनभावनाओं को न सिर्फ समझने से इंकार किया बल्कि इसका तिरस्कार किया। दूसरी ओर सिक्किम की जनता भारत के साथ मिलना चाहती थी और उसकी यह इच्छा पूरी हुई। किन्तु श्रीलंका में तमिलों का अलग देश बनाने की मांग को भारत ने अपना समर्थन नहीं दिया। हमने वहां विकेन्द्रीकरण और बराबरी का व्यवहार करने तक अपना समर्थन सीमित रखा। नेपाल में भी तराई की नागरिकों के साथ दोयम दर्जे का व्यवहार न हो इसमें हमारी रुचि है; लेकिन तराई का इलाका नेपाल का अभिन्न अंग है, यह भी हम मानते हैं। हमारे सीमावर्ती प्रांतों में भी जन असंतोष को उग्र रूप लेते हमने देखा है, किन्तु इस कारण वे पृथक देश बन जाएं ऐसा हम स्वप्न में भी नहीं सोचते।

इस दृष्टि से पाकिस्तान के प्रदेशों में अगर कहीं असंतोष है तो इसमें हमारे खुश होने का कोई बड़ा कारण नहीं है। यह पाकिस्तान का आंतरिक मामला है तथा विश्व बिरादरी का एक जिम्मेदार देश होने के साथ-साथ तीसरी दुनिया का नेता होने के कारण यह अपेक्षा हमसे होती है कि हम एक पड़ोसी मुल्क के अंदरूनी मामलों में दखल न दें। प्र्रधानमंत्री ने अपने संबोधन में बलोचिस्तान, पाक अधिकृत कश्मीर व गिलगिट-बाल्टिस्तान के कथित नेताओं से प्राप्त संदेशों का जिक्र किया है। बाद में हमने ये खबरें भी पढ़ीं कि विदेशों में जहां-तहां पाकिस्तान के विरुद्ध सार्वजनिक प्रदर्शन हो रहे हैं। इनका संज्ञान लेकर हम अपने को मूर्ख सिद्ध कर रहे हैं। क्योंकि ऐसे छुटपुट आंदोलन कश्मीरी व खालिस्तानी अलगाववादियों द्वारा भारत के खिलाफ भी लंदन, वाशिंगटन आदि में किए जाते हैं। मैंने स्वयं मुठ्ठीभर लोगों द्वारा किए गए इन प्रदर्शनों को देखा है।

भारत के लिए यह बेहतर होगा कि हम अपने कश्मीर के बारे में कुछ अधिक गंभीरता के साथ विचार करें। अगर घाटी में पचास-पचास दिन तक कफ्र्यू लगा रहे तो इसे अपनी विफलता माननी चाहिए। अभी हमारा सर्वदलीय शिष्ट मंडल श्रीनगर गया था। शरद यादव आदि ने अलगाववादी नेताओं से संवाद करना चाहा तो उन्होंने इसके लिए मना कर दिया। मेरा सोचना है कि इन अलगाववादी नेताओं का सिक्का घिस चुका है। हमें अगर बात करना है तो युवाओं से करना होगी। उनका विश्वास फिर से जीतना होगा। शेष भारत में उनके साथ बेहतर सलूक हो और संदेह की दृष्टि से न देखा जाए इसके लिए वातावरण बनाना होगा। मेरे विचार में कश्मीर का युवा भी जानता है कि उसका भविष्य भारत में सुरक्षित है। उसका यह विश्वास झूठा सिद्ध न हो इसके लिए प्रयास करना होगा।

अंत में, आकाशवाणी या ऑल इंडिया रेडियो का यह प्रहसन कि एआईआर से बलोची भाषा में प्रसारण किया जाएगा। तथ्य यह है कि 1973-74 से बलोची भाषा में प्रसारण हो रहा है। 2003 के बाद से बलोचिस्तान से भारत आए तीन भाई-बहन ही यह कार्यक्रम दे रहे हैं। इसके बाद प्रसारण प्रारंभ होगा की बात न जाने कैसे उठ गई। अरे भाई! हर चीज का श्रेय लेने की कोशिश मत कीजिए। जो पहले अच्छा हुआ है उसको मन मारकर ही सही स्वीकार तो कर लीजिए।

देशबंधु में 08 सितंबर 2016 को प्रकाशित 

Monday 5 September 2016

नामवर बनाम प्रलेस


 

नामवर सिंह नब्बे के हो गए। वे स्वस्थ, सक्रिय बने रहें व शतायु हों। अक्षर पर्व उन्हें शुभकामनाएं देता है।

उनके नब्बे वर्ष पूर्ण होने पर उन्हें चारों ओर से बधाइयां और शुभकामनाएं मिलीं। विशेषकर सोशल मीडिया पर प्रशंसकों एवं शुभचिंतकों ने अपने-अपने तरीके से उनके प्रति अपने मनोभाव व्यक्त किए। इसके समानांतर अनेक जनों ने न सिर्फ उनकी आलोचना बल्कि निंदा, भर्त्सना करने में कोई कसर बाकी नहीं रखी। उनके विरुद्ध व्यंग्य बाण छोड़े गए। नामवर जब आयु के दशवें दशक की दहलीज पर पैर रख रहे थे, तब यह भी उनका प्राप्य होना था!
बहुत लोग कहेंगे कि इस स्थिति के लिए स्वयं नामवर जिम्मेदार हैं। यह सोच शायद गलत नहीं है! लोग-बाग उन्हें क्या समझते थे और वे क्या निकले? उन्होंने एक तरह से अपने चाहने वालों को मर्माहत किया है, अपने प्रति उनके विश्वास को खंडित किया है। विगत 40-42 वर्षों से याने प्रगतिशील लेखक संघ के 74-75 में पुनरोदय के समय से जो साहित्यिक और बुद्धिजीवी प्रलेस के साथ जुड़े रहे और जुड़ते गए, उन्हें नामवर ने विशेषकर निराश और दु:खी किया है। 

हुआ यह कि मोदी सरकार द्वारा नियंत्रित एवं संघ के स्वयंसेवकों के द्वारा संचालित इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र ने किसी श्रृंखलाबद्ध आयोजन की परिकल्पना की और उसका पहिला कार्यक्रम नामवर सिंह की 90वीं वर्षगांठ के दिन ही रख दिया गया। खबर फैलनी थी सो फैली। लोगों ने नामवर जी से ही जानना चाहा कि क्या वे इस संघ-प्रायोजित कार्यक्रम में जाएंगे। उन्होंने उत्तर दिया कि हां, जाएंगे। लोकतंत्र में विचार वैभिन्नय हो सकता है, किन्तु इस कारण संवाद स्थगित नहीं होना चाहिए, बहिष्कार नहीं होना चाहिए। जब नामवर सिंह ने तय कर लिया कि वे जाएंगे तो फिर क्या बचना था? जिन्हें कष्ट हुआ, वे अपना विरोध दर्ज कराने लगे, कोई सोशल मीडिया में, कोई पत्र-पत्रिका में लेख लिखकर। 

नियत तिथि, समय पर नामवर कार्यक्रम में शरीक हुए। उनका अभिनंदन हुआ। श्रोताओं में ऐसे अनेक व्यक्ति भी थे, जो बरसों से उनकी वैचारिक यात्रा में, अकादमिक यात्रा में, राजनैतिक यात्रा में साथ रहे हैं; जिन्होंने प्रगतिशील लेखक संघ में भी उनके साथ काम किया है। लेकिन वे सब मंच के इस ओर थे। मंच पर नामवर जी का साथ एक बाजू से केन्द्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह दे रहे थे, दूसरी ओर से केन्द्रीय संस्कृति राज्यमंत्री डॉ. महेश शर्मा। क्या इनके बीच नामवर किसी तरह की असुविधा महसूस कर रहे थे या स्थितप्रज्ञ हो गए थे? कौन जाने? राजनाथ सिंह ने अपने संबोधन में कटाक्ष किया कि अब उनको कोई असहिष्णु नहीं कहेगा। प्रकारांतर से यह गुणधर्म नामवर सिंह पर भी लागू हो गया। एक सिंह ने दूसरे सिंह की अभ्यर्थना समुचित भाव से कर दी। बात खत्म। 

साहित्य जगत में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अथवा उसके किसी अनुषंगी संगठन का यह पहला उपक्रम नहीं था, जब उसने राजनीति के नितांत दूसरे ध्रुव पर खड़े लेखक या लेखकों का मनोनयन करने का प्रयत्न न किया हो। यह उनकी सहिष्णुता का अंग है या रणनीति का, इसे समझने की आवश्यकता है। लेकिन हमारे साहित्यकार अमूमन इस बारे में ज्यादा माथापच्ची नहीं करते। हिन्दी में इसके अनेक ताजा उदाहरण देखे जा सकते हैं। लेखक शायद उस फिल्मी गाने को अपना आदर्श मानने लगा है- हम हैं राही प्यार के / हमसे कुछ न पूछिए / जो भी प्यार से मिला / हम उसी के हो लिए। गोरखपुर से लेकर रायपुर तक इस बारे में  जाने कितनी चर्चाएं हो चुकी हैं। 

इस संदर्भ में नामवर सिंह की बात करते हुए कुछ बिन्दु मन में उभरते हैं। एक तो मैं अपने मित्रों को स्मरण कराना चाहूंगा कि अपने उत्तम स्वास्थ्य के बावजूद नामवर सचमुच वृद्ध हो चुके हैं। नब्बे वर्षीय व्यक्ति के बारे में आलोचना करने से, परिहास करने से किसी को क्या हासिल होना है? क्या हम अपना समय इस तरह व्यर्थ नहीं कर रहे हैं? दूसरे, नामवर से हमारा मोहभंग क्या आज हुआ है? 2012 में प्रगतिशील लेखक संघ के राष्ट्रीय अधिवेशन में क्या इसी कारण उन्हें उपेक्षित नहीं कर दिया गया था? इस हद तक कि उनके प्रति सामान्य शिष्टाचार का भी निर्वाह नहीं किया गया। तीसरे, इस जाहिरा सामूहिक और संस्थागत उपेक्षा के बावजूद अधिवेशन में आए दर्जनों प्रतिनिधि क्या उनके घर पर उनसे अलग-अलग मिलने नहीं गए थे? ऐसा क्यों हुआ, क्या इस पर बाद में किसी ने मंथन किया? 

इन सबसे बढक़र प्रश्न यह है कि वे तमाम लेखक जो स्वयं को प्रगतिशील घोषित करते हैं, उस रूप में अपनी पहिचान बनाने की अभिलाषा रखते हैं, उन्होंने इस बारे में कितना गौर किया कि हाल के बरसों में प्रलेस कहां से कहां पहुंचा है, और यह भी कि एक सदस्य और साहित्यिक के रूप में उनका अपना क्या योगदान प्रगतिशील जीवन मूल्यों को आगे बढ़ाने के लिए रहा! यूं तो 2012 के राष्ट्रीय अधिवेशन के काफी पहिले से, उस समय भी जबकि नामवर सिंह अध्यक्ष थे, प्रलेस की सार्वजनिक चेतना के द्वार पर दस्तकें धीमी पड़ती जा रही थीं, किन्तु विगत चार वर्षों में तो प्रलेस की स्थिति पानी में डोल रही उस नौका की भांति हो गई, जिसमें नाविक ही न हो। 

आज वयोवृद्ध नामवर सिंह के प्रति अपने मोहभंग की अभिव्यक्ति कर क्या प्रगतिशील लेखक अपनी ही दुर्बलता को प्रकट नहीं कर रहे हैं? उन्हें शायद एक मसीहा की जरूरत थी, जिसके आभा मंडल में दाखिल होकर वे स्वयं को प्रकाशवान मान रहे थे। जिस दिन वह मसीहा शीशे का सिद्ध हुआ, उस दिन मानो उनसे भी प्रकाश छिन गया। अब यह तय करना मुश्किल हो रहा है कि नया प्रकाशपुंज कहां से लाएं! इस बीच जो अधिक उद्यमशील थे, उन्होंने या तो अपना नया संगठन खड़ा कर लिया है या लगभग समान विचार वाले किसी अन्य संगठन से जाकर जुड़ गए हैं। यह दृश्य एक तरह से स्थापित करता है कि साहित्यकार मूलत: आत्मपरक होता है, संगठन उसके लिए वक्ती तौर पर एक पड़ाव हो सकता है। क्या इस स्थापना को हम गलत सिद्ध कर सकते हैं? और क्या वाकई इस स्थापना को गलत सिद्ध करने की गंभीर आवश्यकता आज नहीं है?

साहित्य की स्वायत्तता को लेकर काफी कुछ पिछले सौ बरसों में लिखा है, लेकिन यह एक बड़ा सच है कि साहित्य के आद्योपांत इतिहास में उन्हीं लेखकों का स्थान कायम रह सका जिन्होंने अपनी कलम से एक बेहतर विश्व के सपने की इबारत लिखी। जिन्होंने असमानता, अन्याय, अशांति और असुरक्षा से पीडि़त-दमित सामान्य मनुष्य के मौन क्रंदन को अपनी संवेदना का स्वर और संबल दिया। कितने मजे की बात है कि हिन्दी साहित्य में ही हमारे बीच ऐसे लेखक मौजूद हैं जो बात तो स्वायत्तता की करते हैं, लेकिन इतिहास में अपना स्थान सुरक्षित करने की दृष्टि से ऐसी रचनाएं लिखने की ओर प्रवृत्त होते हैं, जिन्हें साधारणत: प्रगतिशील सौंदर्यबोध में स्थान दिया जा सकता है। इतना ही नहीं, हम ऐसे लेखकों को भी जानते हैं जो कथित रूपवादी रुझान के बावजूद प्रतिगामी शक्तियों के विरुद्ध अपना विरोध प्रकट करने में किसी से पीछे नहीं रहते। मतलब यह कि लेखक की आत्मपरकता का पर्याय आत्ममुग्धता नहीं होता और वह उसके सार्वजनिक सरोकारों में आड़े नहीं आती, बल्कि शायद अधिक प्रगल्भ सोच के साथ उसमें सहायक हो सकती है!

यह संभव है कि स्वायत्तता का उद्घोष करते हुए लेखक किसी समूह या संगठन से न जुडऩा चाहे, लेकिन यह भी उतना ही मुमकिन है कि समूह-संगठन से जुड़ा लेखक सार्वजनिक भूमिका निभाने नहीं, वरन् व्यक्तिगत स्वार्थवश उसमें सम्मिलित हुआ हो! बहरहाल, हमारे सामने साक्ष्य हैं कि बीसवीं-इक्कीसवीं सदी की दुनिया में मौजूदा परिस्थितियों से विचलित-व्यथित, कितने ही प्रतिभाशाली व प्रतिष्ठित लेखक हाथ पर हाथ धरकर नहीं बैठे रहे। उन्होंने जहां अपनी रचनाओं से पीडि़तजनों में उत्साह का संचार किया, उनकी संघर्षशीलता को धार दी, वहीं वे एक चेतनासंपन्न नागरिक के रूप में भी निजी भूमिका निभाने के लिए तत्पर हुए। स्पेन का गृहयुद्ध, द्वितीय विश्वयुद्ध, तानाशाहियाँ, सैनिक शासन, साम्राज्यवाद इनके विरुद्ध लेखकों की सजग भूमिका के अनेक उदाहरण गिनाए जा सकते हैं। ऐसे अवसरों पर हमने उन्हें किसी राजनैतिक दल के सदस्य के रूप में देखा तो कभी जनयुद्ध में एक सैनिक के रूप में, कभी भूमिगत आंदोलन के कार्यकर्ता के रूप में। गरज यह कि उन्होंने संगठन के स्तर पर काम करने से स्वयं को दूर नहीं रखा। 

आज प्रगतिशील मूल्यों के लिए प्रतिष्ठित लेखक भले ही तीन-चार अलग-अलग संगठनों में बंट गए हों, लेकिन इस दौर की मांग है कि ये संगठन अकादमिक मतभेदों को कुछ समय के लिए भूल जाएं और प्रतिगामी शक्तियों का मुकाबला करने के लिए एक साझा मोर्चा बनाएं। इसमें एक उदार दृष्टि रखने की भी आवश्यकता है, ताकि जो मुख्य चुनौतियां सामने हैं उनका दृढ़ता के साथ मुकाबला किया जा सके जबकि छिद्रान्वेषण से उसमें कमजोरी आएगी। इसमें प्रगतिशील लेखक संघ को सबसे पहिले आत्मावलोकन की आवश्यकता होगी। प्रेमचंद से लेकर मखदूम मोइनुद्दीन, गुलाम रब्बानी ताबां, कैफी आजमी, भीष्म साहनी व हरिशंकर परसाई जैसे लेखकों की संस्था आज संभ्रम की स्थिति में क्यों है, इस पर विचार करना ही होगा। यह तभी संभव है जब गैर जरूरी मुद्दों व बहसों से हटकर मुख्य लक्ष्य की ओर ध्यान दिया जाए। नामवर सिंह पर चली बहस गैर जरूरी ही थी। 

अक्षर पर्व सितंबर 2016 अंक की प्रस्तावना 

Thursday 1 September 2016

सीकरी में संत


 हरियाणा विधानसभा का वर्तमान मानसून सत्र 26 अगस्त को दिगंबर जैन सम्प्रदाय के बहुचर्चित मुनि तरुण सागर के प्रवचन के साथ प्रारंभ हुआ। अपनी तरह के अनूठे इस आयोजन को लेकर बहुत से प्रश्न उठते हैं-
1.     हरियाणा विधानसभा ने एक धर्मनेता को प्रवचन देने के लिए आमंत्रित क्यों किया?
2.     विधानसभा का एजेंडा सामान्यत: विधानसभा अध्यक्ष सदन के नेता याने मुख्यमंत्री के परामर्श से तय करते हैं;  मुनिजी को आमंत्रित करने के पीछे उनकी क्या सोच थी?
3.     क्या यह आयोजन करना संवैधानिक दृष्टि से उचित था और इसके दूरगामी परिणाम क्या होंगे?
4.     क्या जैन मुनि को यह आमंत्रण स्वीकार करना चाहिए था?
5.     उन्होंने विधानसभा में जो विचार व्यक्त किए उनसे क्या निष्कर्ष निकलते हैं?
6.     अगर मुनिजी को बुलाने का निर्णय सत्तारूढ़ दल का था, तो विपक्ष ने उनका विरोध क्यों नहीं किया?

भारत में इस समय जो राजनीतिक वातावरण है उसे देखते हुए हरियाणा की विधानसभा में मुनि तरुण सागर का प्रवचन आयोजित होने से मुझे कोई आश्चर्य नहीं हुआ। मुझे जो जानकारी है उसके अनुसार किसी विधानसभा में किसी धर्मनेता को बुलाने का यह पहला अवसर नहीं था। ऐसा एकाध आयोजन अतीत में हुआ है जिसके ब्यौरे मेरे पास फिलहाल उपलब्ध नहीं हैं। लेकिन यह पुरानी बात है जबकि जनसंचार माध्यमों का इतना विस्तार नहीं हुआ था। अगर हरियाणा का यह आयोजन पहला भी है तो इसमें हैरानी की कोई बात नहीं है। इसे हमको इस दौर की सामाजिक परिस्थितियों और सत्ताधारी वर्ग की सामान्य मनोवृति से जोड़ कर देखना होगा। यह कहना बहुत आसान होगा कि भाजपा चूंकि धर्म की राजनीति करती है इसलिए उसने यह आयोजन करवाया, किन्तु क्या यही बात अन्य राजनीतिक दलों के नेताओं पर उतनी ही सच्चाई से लागू नहीं होती?

यह ठीक है कि कांग्रेस, समाजवादी और साम्यवादी पार्टियां सैद्धांतिक धरातल पर धर्मनिरपेक्ष हैं, लेकिन क्या उनके अधिकतर नेताओं के व्यक्तिगत आचरण में धर्मनिरपेक्षता की कोई झलक दिखलाई देती है? सच तो यह है कि कांग्रेस पार्टी में प्रारंभ से ही धार्मिक कर्मकांडियों का वर्चस्व रहा है। एक जवाहर लाल नेहरू थे, जो वैज्ञानिक सोच और तर्क की बात करते थे जिसके कारण उनका व पार्टी संगठन का भीतर ही भीतर विरोध होता था। यही लोग थे जिनके कारण हिन्दू कोड बिल पारित होने में विलंब हुआ जिससे क्षुब्ध होकर डॉ. आम्बेडकर ने मंत्री पद छोड़ दिया था। राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने बनारस में पंडितों के पैर धोए थे तथा सरदार पटेल की प्रेरणा से के.एम. मुंशी के नेतृत्व में सोमनाथ में नए मंदिर का निर्माण किया गया था। गोविंद वल्लभ पंत मुख्यमंत्री थे जब कलेक्टर नैय्यर ने रातोंरात बाबरी मस्जिद में रामलला की मूर्तियां रखवा दी थीं।

दरअसल, पंडित नेहरू की धर्मनिरपेक्ष सोच भारतीय राजनीति से उनके जाने के बाद ही धीरे-धीरे कमजोर पड़ने लगी थी। श्रीमती इंदिरा गांधी में बेशक बहुत सी खूबियां थीं, लेकिन वे कर्मकांड में विश्वास करती थीं और किसी हद तक अंधविश्वासी थीं। वह दृश्य बहुत लोगों को याद होगा जब देवरहा बाबा के पैर के नीचे इंदिरा गांधी ने अपना मस्तक रख दिया था। इस बीच बहुत से नए संतों का भी पदार्पण हो चुका है और उनके आश्रमों में राजनेता, आईएएस अधिकारी, न्यायाधीश, राजदूत, सेना के जनरल आदि सब हाजिरी देने जाते हैं। एक तरफ हमारे राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी धार्मिक अनुष्ठानों में उत्साह के साथ शिरकत करते हैं, तो दूसरी तरफ गायत्री परिवार के प्रमुख डॉ. प्रणव पंड्या राज्यसभा में मनोनयन स्वीकार कर लेते हैं। यह अलग बात है कि इस पर पुनर्विचार करने के बाद उन्होंने त्यागपत्र दे दिया।

इस वृहत्तर पृष्ठभूमि में यदि हरियाणा विधानसभा ने मुनि तरुण सागर को आमंत्रित किया तो इसमें आश्चर्य अथवा विरोध की बात कहां उत्पन्न होती है? मुनिजी अपने प्रवचनों के लिए काफी लोकप्रियता हासिल कर चुके हैं। दूसरे संत जहां शांत स्वर और कोमल पदावली में श्रोताओं को परलोक सुधारने की प्रेरणा देते हैं वहीं तरुण सागर ‘कड़वे वचन’ के अंतर्गत तीखे स्वर और भाषा में अपनी बात रखते हैं। वे सुनने वालों को तिलमिला देने की कोशिश करते हैं जैसे चिंउटी काटने से कोई सोया हुआ व्यक्ति जाग जाए। मुझे धार्मिक प्रवचनों में कोई रुचि नहीं है, लेकिन तरुण सागर की प्रशंसा मैंने बहुत लोगों से सुनी है और यह भी जानकारी है कि उनके प्रवचनों के कैसेट बाजार में उपलब्ध हैं।

मुनि तरुण सागर संभवत: इन दिनों चौमासा चंडीगढ़ में व्यतीत कर रहे हैं। दिल्ली, पंजाब, हरियाणा में दिगंबर जैन संप्रदाय के अनुयायियों की संख्या बहुत बड़ी है। हरियाणा में भाजपा ने हिसाब लगाया होगा कि मुनिजी का प्रवचन करवाने से उसे राजनीतिक लाभ होगा। दूसरे पार्टी की अपनी जो राजनीतिक दृष्टि है उसमें हिन्दू धर्म (जिसमें शायद जैन धर्म भी शामिल है) का उत्थान करने का एजेंडा तो पहले से शामिल है। नेतागण चुनाव के समय और अन्य अवसरों पर भी देवालयों में और सिद्ध पुरुषों की ड्यौढ़ी पर मत्था टेकने जाते हैं। अभी सिर्फ यही फर्क हुआ कि मुनिजी चलकर राजनीति के प्रांगण में आ गए। कहने का आशय यह कि भाव और विचार वही पुराने है, सिर्फ स्थान परिवर्तन हुआ है इसलिए व्यर्थ का हो-हल्ला मचाने से क्या लाभ?

अब सवाल यह उठता है कि मुनि तरुण सागर ने विधानसभा में जो बातें कहीं उनका किस तरह से विश्लेषण किया जाए? उनकी यह टिप्पणी काफी चर्चित हुई कि धर्म पति है और राजनीति पत्नी, कि पति पत्नी का संरक्षण करे और पत्नी पति के अनुशासन में रहे। अगर राजनीति पर धर्म का अंकुश न हो तो वह मदमस्त हथिनी हो जाती है। प्रवचन का यह अंश किसी धर्मसभा में तो शायद स्वीकार हो सकता है, लेकिन विचारणीय है कि क्या यह भारतीय संविधान की भावना और आधुनिक समय की सोच के अनुकूल है? किन्तु मुनिजी जब धर्म की बात कर रहे हैं तो उनसे उनका आशय क्या है? इसकी विवेचना होनी चाहिए। प्रधानमंत्री नरेन्द मोदी ने अभी कुछ समय पहले कहा था कि संविधान हमारा सबसे पवित्र ग्रंथ है। पाठकों को यह भी स्मरण होगा कि उन्होंने लोकसभा में प्रवेश करने के पूर्व संसद की देहरी पर माथा नवाया था।

यदि मुनिजी का आशय संविधान में वर्णित मूल्यों से है तब तो उनकी बात स्वीकार करने योग्य हो जाती है। क्योंकि मेरा मानना है कि भारतीय राजनीति को अपने सबसे पवित्र ग्रंथ याने संविधान के मुताबिक ही चलना चाहिए। राजनीति के लिए धर्म के पालन का इसके अलावा और कोई अर्थ नहीं है। तथापि इस टिप्पणी में मुनिजी ने पति-पत्नी के रिश्ते को जैसा परिभाषित किया है वह असहजता उत्पन्न करता है। आधुनिक समय में कोई भी समाज प्राचीन परिपाटियों को अटल और शाश्वत मानकर नहीं चल सकता। भारतीय नारी या पत्नी को भी अब अठारहवीं सदी की बेडिय़ों में नहीं रखा जा सकता और न रखा जाना चाहिए। मुनिजी जब राजनीति के मदमस्त हथिनी बन जाने के खतरे की तरफ संकेत करते हैं तो यह भी विचारणीय है कि पारंपरिक अर्थों में जिसे धर्म कहा जाता है उस पर भी कहीं अंकुश की आवश्यकता है या नहीं!

मुनि तरुण सागर ने अपने प्रवचन में एक स्पष्टीकरण भी दिया है कि इस आमंत्रण को स्वीकार कर लेने के बाद उन्हें भाजपा समर्थक या मोदी समर्थक मान लेने की आशंका बन सकती है, लेकिन ऐसा नहीं है। वे राजनीति में किसी का समर्थन करते हैं या नहीं, ये वही जानें। हम उनके ध्यान में अकबर के समय के सुप्रसिद्ध भक्त कवि कुम्भनदास का यह पद लाना चाहते हैं:-संतन को कहा सीकरी सो काम/ आवत जात पन्हैयां टूटीं, बिसरी गयो हरि नाम/ जिनको मुख देखे दुख उपजत, तिनको करिबे परि सलाम/ कुम्भन दास लाल गिरधर बिनु और सबै बेकाम।

देशबंधु में 01 सितम्बर 2016 को प्रकाशित