Wednesday 24 February 2016

त्यागमूर्ति ठाकुर प्यारेलाल सिंह




नागरिक स्वतंत्रता और स्वच्छंदता (मनमानी) में क्या अंतर है इसका निर्णय भी क्या स्वतंत्र भारत में पुलिस वाले करेंगे? नागरिक स्वतंत्रता का हनन हुआ है या नहीं हुआ है, नागरिक स्वतंत्रता की सीमा लांघ कर स्वच्छंदता का व्यवहार हुआ या नहीं हुआ है यह निर्णय भी यदि स्वयं पुलिस वाले ही करने लग जाएं तो अंग्रेजों का शासन ही क्या बुरा था? क्यों हम जलियांवाला बाग के नर हत्याकांड के खलनायक जनरल डायर को गाली देते हैं। (राष्ट्रबंधु 18 सितंबर, 1950)

ठाकुर प्यारेलाल सिंह ने यह लेख लिखने के कुछ दिन पूर्व 4 सितंबर 1950 को ही अपना अर्द्ध-साप्ताहिक पत्र राष्ट्रबंधु प्रारंभ किया था। 12 सितंबर को रायपुर के किसी सिनेमाघर में छात्रों का कुछ लोगों से झगड़ा हो गया था। सिनेमाघर एक प्रभावशाली राजनेता का था, और झगड़े में लिप्त नागरिक भी शायद रसूखवाले रहे होंगे इसलिए आधी रात को पुलिस हॉस्टल में गई और सोते छात्रों को बिस्तरों से उठा-उठा गिरफ्तार कर ले आई। ठाकुर साहब इससे क्षुब्ध हुए। कुछ अन्य उदाहरण देते हुए उन्होंने अग्रलेख के अंत में लिखा-

विद्यार्थियों का अपमान कर हम देश की उन्नति नहीं कर सकते। उनके आत्मसम्मान पर आघात करना भयंकर बात है।
छियासठ वर्ष पूर्व रायपुर में घटित एक छोटे से प्रसंग की अनुगूंज आज देश के स्तर पर जो हो रहा है उसमें सुनी जा सकती है। 
ठाकुर प्यारेलाल सिंह छत्तीसगढ़ के एक प्रखर और संघषशील राजनेता थे। उन्हें त्यागमूर्ति की उपाधि जनता ने दी थी। यह उनकी 125वीं जयंती का वर्ष है। उनसे जुड़े दो प्रसंगों की छाप मेरे मन पर गहरी पड़ी है। एक तो जब वे बीएनसी मिल राजनांदगांव के श्रमिकों के हक में लड़ रहे थे तब राजा ने उन्हें राज्य से निष्कासित कर दिया था। इस परिस्थिति में उन्होंने राजनांदगांव के रेलवे स्टेशन पर आकर सभा की थी और राजा कुछ नहीं कर सके क्योंकि रेलवे स्टेशन ब्रिटिश इंडिया में था न कि रियासत में। दूसरे- उनके बारे में हबीब तनवीर का संस्मरण है जिसमें उन्होंने लिखा कि रायपुर नगरपालिका के अध्यक्ष रहते हुए ठाकुर साहब ने स्कूलों की नाट्य स्पर्धा करवाई थी, जिसमें ठाकुर साहब के हाथ से मिले स्वर्ण पदक से उनकी हौसलाअफजाई हुई और वेे रंगमंच के क्षेत्र में आगे बढ़ सके।

अभी तक हमने ठाकुर प्यारेलाल सिंह के व्यक्तित्व के तीन पहलू देखे- जुझारू श्रमिक नेता, कल्पनाशील और सुसंस्कृत नगरपालिका अध्यक्ष और छात्रों व नौजवानों का हितैषी। वे मध्यप्रदेश की पहली विधानसभा में विपक्ष के नेता थे। कांग्रेस को छोड़कर उन्होंने समाजवादी साथियों द्वारा स्थापित कृषक मजदूर प्रजापार्टी की सदस्यता ले ली थी। इस पद पर विपक्षोचित तेवरों के साथ अपना काम करते हुए  ठाकुर साहब को लगा कि उन्हें गांधी जी द्वारा निर्देशित रचनात्मक कार्यों को आगे बढ़ाना चाहिए, क्योंकि राजनीतिक दल विशुद्ध तौर पर राजनीतिक हो गए हैं, खासकर कांग्रेस, और वहां रचनात्मक कार्यों की गुंजाइश खत्म हो गई है। इस भावना से वे विनोबा भावे के भूदान यज्ञ से जुड़ गए। इस बीच उन्होंने तत्कालीन सीपी एंड बरार प्रांत में सहकारिता आंदोलन के लिए भी पुरजोर काम किया। छत्तीसगढ़ बुनकर सहकारी संघ उनकी सोच का जीवंत स्मारक है।
ठाकुर साहब अपनी पीढ़ी के अनेक नेताओं की मानिंद एक विचारशील राजनेता थे, जिन्हें सिर्फ अपने विधानसभा क्षेत्र की ही नहीं बल्कि व्यापक समाज की चिंता व्यापती थी और जो देश-विदेश के घटनाचक्र पर पैनी नजर रखते थे।
महात्मा गांधी, पंडित नेहरू और सरदार पटेल की परंपरा में ठाकुर प्यारे लाल सिंह वकील थे यद्यपि स्वाधीनता संग्राम में पूरी तरह समर्पित रहने के कारण उन्होंने कभी ठीक से वकालत नहीं की। इन राष्ट्रीय नेताओं का अनुकरण करते हुए ही उन्होंने अखबार निकालने की भी सोची। देश को तब तक स्वतंत्रता मिल चुकी थी, किन्तु ठाकुर साहब का उद्देश्य अखबार के माध्यम से सार्वजनिक प्रश्नों पर विभिन्न दृष्टिकोणों से समझने का अवसर मिला। इस बारे में उन्होंने लिखा-

अनेक पत्र-पत्रिकाएं होते हुए भी इस पत्र को निकालने की आवश्यकता इसलिए पड़ी कि साधारणत: आजकल पत्र-पत्रिकाएं पार्टी विशेष की होने से हर प्रश्न पर स्वतंत्र रूप से विचार नहीं करतीं।

मुझे अनुमान होता है कि यह बात लिखते हुए उनके मन में पंडित रविशंकर शुक्ल के नागपुर टाइम्स व महाकौशल, सेठ गोविंददास के जयहिंद व ऐसे अन्य पत्रों का ध्यान रहा होगा। बहरहाल इस अखबार में उन्होंने अपने विचार खुलकर व्यक्त करने में कभी संकोच नहीं किया यद्यपि उन्होंने भाषा का संतुलन भी कभी नहीं खोया। इसके एक-दो नमूने नीचे देखिए-

1. जब लोगों को मालूम हो जाए कि पंडितों के स्थानीय नन्दियों से अपने कर्मों का मोचन हो सकता है तो मनमाने अपराध करने में हिचकिचाहट क्यों?

2. रियायतों के विलीनीकरण से बिरादरीवाद को सचमुच बड़ी सहायता मिली है। ऐसी जनता की धारणा है। यह इस बात से ही मालूम होता है कि इस प्रांत में एक नये शब्द 'राजवंशी' का आविष्कार हुआ है जिसका उपयोग हमेशा अखबारों में देखने में आता है और लोगों से सुनने में।

राष्ट्रबंधु में वे विविध विषयों पर लिखते थे। आज उन लेखों को पढ़ते हुए बार-बार लगता है कि यही सब तो वर्तमान में भी हो रहा है। दो अक्टूबर को खादी जयंती मनाने पर वे कहते हैं-''हिन्दुस्तान में महापुरुषों की जयंतियां जितनी मनाई जाती हैं शायद दुनिया के किसी देश में उतनी जयंतियां नहीं मनाई जातीं।"  वे साथ में यह भी कहते हैं-

''इसका कारण यह है कि हम लोग आदतन व्यक्ति उपासक हैं। सिद्धांत की उपासना की ओर हमारा ध्यान नहीं जाता।"

''राजा की नीयत और किसान" इस शीर्षक के लेख में उन्होंने जो कहा है वह कितना मौजूं है, देखिए-

जब इस तरह की अकर्मण्यता के लिए इन पर टीका होती है तो कहते हैं कि अभी तो हम तीन साल के हैं। इतने बड़े देश में हम तीन साल में कर ही क्या सकते हैं? जरा पांच सालों के लिए हमें और शासन करने दो फिर देखना हम क्या-क्या कमाल करेंगे। फिर पांच साल गुजर जायेंगे तब कहेंगे पांच ही साल में हम क्या कर सकते थे? पांच साल और रहने दो फिर देखना हम क्या कमाल करते हैं? बस इसी धुन में कि अभी तो हम तीन साल के हैं, हमें और मौका दो तब देखना, अधिकारी मस्त हैं।

1 जनवरी 1951 के अंक में ठाकुर साहब ने ''अमेरिकन गुट के दलाल" शीर्षक से जो लेख लिखा उसके कुछ अंश भी देख लेना चाहिए-

दुनिया के गरीब, साधारण जन, विचारशील लोग शांति चाहते हैं। युद्ध के परिणामों को इन्हीं को भोगना पड़ता है। पूंजीपतियों और उनके दलालों को इन युद्धों से लाभ होता है। इस बात का अनुभव जनसाधारण को दोनों विश्वयुद्ध से हो ही गया है। आज दिन में अपने देश में फैली हुई महंगाई, कालाबाजारी, घूसखोरी, आचरणहीनता आदि बातों की तरफ जब सरकारी नेताओं का ध्यान आकर्षित किया जाता है तब वे कहते हैं कि ये लड़ाई के दुष्परिणाम हैं। अब यह प्रश्न होता है कि ऐसा जानते हुए लड़ाई के पक्षपातियों की ओर झुकाव कैसे और क्यों है?

युद्ध में मरते और मारे जाते हैं गरीब किसान, मजदूर और साधारण जन के नवजवान बच्चे। ये ही तो सिपाही बनते हैं और ये ही कारखानों में एक-दूसरे को मारने के लिए हथियार तैयार करते हैं। इन गरीबों के मरने-मारने की योजना में पूंजीपतियों का धन बढ़ता है। कोई जोखिम नहीं, आराम ही आराम हैं। इन्हें नहीं मरना पड़ता।

हमारी नेहरू सरकार तटस्थ है। वह न अमेरिका के गुट में शामिल होना चाहती, न रशिया के। हिन्दुस्तान के लिए यही हितकर है। इस नीति को अमेरिका पसंद नहीं करता इसलिए उसने बहुत से दलाल हिन्दुस्तान भर में पाल रखे हैं। हमारे देश को निर्णय करना है कि हमें शांति चाहिए कि युद्ध।

ठाकुर साहब अपने लेखों में सोवियत संघ की भी बात करते हैं और चीन में च्यांग काई शेक की राष्ट्रवादी सरकार की भी। वे यह भी बतलाते हैं कि फ्रांस की राज्य क्रांति की परिणति नेपोलियन के उदय में कैसे हुई। नेता जब जनता को भुलाकर पूंजीवादियों से सांठगांठ कर लेते हैं तब तीन का गुट बन जाता है एक- अवसरवादी, दो-पूंजीवादी, तीन-सत्ताधारी। इनके इस मिलन से कालाबाजारी, रिश्वतखोरी और बिरादरीवाद के फल मिलते हैं। 
आज इन सारे विचारों पर मनन करने की आवश्यकता है। ठाकुर प्यारेलाल सिंह को उनकी 125वीं जयंती पर मैं श्रद्धासुमन अर्पित करता हूं।
टीप:- 21 फरवरी को रायपुर प्रेस क्लब में आयोजित संगोष्ठी में दिए व्याख्यान का संवर्द्धित रूप।

देशबन्धु में 25 फ़रवरी 2016 को प्रकाशित 

Wednesday 17 February 2016

जेएनयू : सत्ताधीशों के इरादे?


  पुणे, हैदराबाद, शांतिनिकेतन और अब दिल्ली। पुणे के राष्ट्रीय फिल्म एवं टेलीविजन प्रशिक्षण संस्थान में एक तीसरे दर्जे के अभिनेता को शासी निकाय का अध्यक्ष बना दिया गया। यह नियुक्ति इसलिए हुई कि गजेन्द्रसिंह चौहान संघ के प्रिय हैं। इस पर छात्रों ने लंबे समय तक ठोस कारणों से विरोध किया, लेकिन उनकी एक नहीं सुनी गई। हैदराबाद के केन्द्रीय विश्वविद्यालय में केन्द्र सरकार के सीधे हस्तक्षेप के कारण वि.वि. ने पांच दलित छात्रों को हॉस्टल से बेदखल कर दिया। उनमें से एक रोहित वेमुला ने व्यथित और हताश होकर आत्महत्या कर ली, लेकिन इस त्रासदी का सरकार पर कोई असर नहीं पड़ा। उल्टे यह सिद्ध करने की कोशिश की गई कि रोहित दलित नहीं था। इस प्रश्न का उत्तर किसी ने नहीं दिया कि उसकी शोधवृत्ति की राशि पिछले सात महीने से क्यों लंबित थी? शांतिनिकेतन में कुलपति पर अनियमितताओं के आरोप थे, उनकी रवानगी तय थी; यह सुझाव राष्ट्रपति भवन से गया था कि कुलपति से इस्तीफा मांग उसे स्वीकार कर लिया जाए। लेकिन वैसा न कर कुलपति को बर्खास्त कर एक नया इतिहास रचा गया। देश के तमाम विश्वविद्यालयों के कुलपतियों को एक तरह से चेतावनी दी गई है।

जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में जो कुछ हो रहा है उससे केन्द्र सरकार के इरादों पर एक बड़ा प्रश्नचिन्ह लग गया है। हम इस नियम और परंपरा के साक्षी हैं कि शैक्षणिक परिसर में संस्था प्रमुख की अनुमति के बिना पुलिस प्रवेश नहीं कर सकती। जेएनयू के नवनियुक्त कुलपति एम. जगदीश कुमार सफाई दे रहे हैं कि उन्होंने पुलिस को नहीं बुलाया था। तो फिर पुलिस कैसे आई और क्या अपने अधिकार क्षेत्र का अतिक्रमण होने पर प्रोफेसर कुमार को नैतिक साहस का परिचय नहीं देना चाहिए? इन कुलपति महोदय की नियुक्ति के समय खबर फैलाई गई थी कि राष्ट्रपति ने मंत्री की सिफारिश दरकिनार कर इनका चयन किया था। अब समझ में आ रहा है कि वह खबर सिर्फ अफवाह थी। मेरा मानना है कि चुनी हुई सरकार को ऐसे पदों पर अपनी इच्छा के लोगों की नियुक्ति करने का अधिकार है, लेकिन ऐसे पद के अभिलाषीजनों को एक तो स्वयं अपनी क्षमता परख लेना चाहिए और दूसरे नियुक्त हो गए हैं तो निजी राग-द्वेष से मुक्त होकर विक्रमादित्य की भांति अपने दायित्व का निर्वाह करना चाहिए।

जेएनयू में 9 फरवरी को जो हुआ उसको जानकर आगे बढऩा उचित होगा। डेमोक्रेटिक स्टूडेंट्स यूनियन (डीएसयू) नामक छात्र संगठन ने एक कार्यक्रम करने के लिए विश्वविद्यालय प्रशासन से अनुमति मांगी। यह संगठन चरम वामपंथी रुझान का है। संगठन ने अनुमति मिलने के बाद विश्वविद्यालय परिसर में जगह-जगह पोस्टर लगाए जिनसे पता चला कि यह कोई सामान्य कार्यक्रम न होकर कश्मीर की आज़ादी और अफजल गुरु की फांसी पर केन्द्रित होगा। विद्यार्थी परिषद ने इसका विरोध किया। प्रशासन ने सभास्थल बदल दिया और माइक इस्तेमाल करने की अनुमति नहीं दी। जहां कार्यक्रम हुआ वहां भारत-विरोधी नारे लगे, कश्मीर की आज़ादी की मांग की गई और अफजल गुरु की फांसी के खिलाफ नारे लगाए गए। इन सभी नारों का स्वर व भाषा असंयमित और अमर्यादित थी। जेएनयू छात्रसंघ के अध्यक्ष कन्हैया कुमार का कहना है कि इस नारेबाजी के कारण जब झड़प होने की नौबत आ गई तो वे बीच-बचाव करने वहां पहुंचे थे।

कन्हैया कुमार भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई) के छात्र संगठन एआईएसएफ से संबंध रखते हैं। यह जान लेना उचित होगा कि अलग-अलग वामदलों के अलग-अलग छात्र संगठन हैं। सीपीआईएम का छात्र संगठन एसएफआई है तथा सीपीआईएमएल का संगठन आईसा है। इन सभी संगठनों के बीच भारी प्रतिस्पर्धा रहती है। ये कोई साथ मिलकर चुनाव नहीं लड़ते। जेएनयू में कन्हैया कुमार की जीत के साथ एआईएसएफ ने लंबे समय बाद अपना प्रभाव स्थापित किया है। आम जनता तो क्या राजनेता भी कई बार वामदलों के इस विभेद को नहीं समझ पाते। जो भाजपाई नहीं है उसे कम्युनिस्ट कह देने से आसानी होती है, लेकिन इसमें वैचारिक आलस्य का परिचय भी मिलता है। जो लोग कन्हैया पर गंभीर आरोप मढ़ रहे हैं वे एआईएसएफ और डीएसयू के अंतर को शायद जानबूझ कर जानने से इंकार कर रहे हैं।

नौ तारीख की रात के इस हंगामेदार कार्यक्रम के तुरंत बाद अगले दिन याने 10 तारीख को कन्हैया कुमार ने एक सभा ली। अपने लगभग आधा घंटे के भाषण में इस छात्र नेता ने पहले तो संघ और सरकार के विरुद्ध बहुत सी बातें कीं, लेकिन बाद में उसने भारतीय संविधान की सर्वोच्चता, उसका पालन तथा अन्य बातें कहीं। उसने डीएसयू की सभा में लगाए गए नारों का भी विरोध किया व स्वयं की स्पष्ट असहमति दर्ज की। इसके बावजूद पुलिस परिसर में आई और उसे गिरफ्तार कर ले गई। यदि कुलपति ने पुलिस को नहीं बुलाया था तो जेएनयू परिसर में पुलिस कैसे पहुंची? क्या ऐसा गृहमंत्री राजनाथ सिंह के आदेश से ऐसा हुआ? क्या इसके पीछे मानव संसाधन मंत्री की दखलंदाजी थी? गृहराज्य मंत्री किरण रिजिजू ने एक टीवी चैनल में कहा कि सरकार ने पुलिस को कड़ी कार्रवाई करने के लिए कहा था, किसी को गिरफ्तार करने के लिए नहीं। इससे यह निष्कर्ष निकालना कठिन नहीं है कि इस मामले में केन्द्र सरकार ने सीधा हस्तक्षेप किया है और परंपराओं को तोड़ते हुए ऐसा किया है।

डीएसयू के छात्रों ने जो नारे लगाए उनसे हम सहमत नहीं हैं। कश्मीर का भविष्य क्या हो अथवा अफजल गुरु को फांसी देना न्यायोचित था या नहीं? ये ऐसे प्रश्न हैं जिन पर बौद्धिक बहसें हो सकती हैं और होना चाहिए। छात्रों का भी यह हक बनता है कि वे ऐसी बहसों में भाग लें। लेकिन नारेबाजी बौद्धिक बहस का पर्याय नहीं है; फिर शैक्षणिक परिसर और सड़क में कोई फर्क नहीं रह जाता। इस सीमा तक मैं डीएसयू के कृत्य की आलोचना करता हूं, लेकिन उच्छृंखल नारेबाजी करने को देशद्रोह मान लेना एक दूसरी तरह का अतिरेक है। सरकार समर्थक चैनल हेडलाइन टुडे के राहुल कंवल से चर्चा करते हुए विधिवेत्ता सोली सोराबजी ने जो कहा वह ध्यान देने योग्य है। उन्होंने स्पष्ट कहा कि भारत-विरोधी नारे लगाना देशद्रोह नहीं है। उस सभा में कन्हैया कुमार का उपस्थित होना (किसी भी कारण से) भी देशद्रोह नहीं है। स्मरण रहे कि सोली सोराबजी अटल बिहारी वाजपेयी के समय देश के महाधिवक्ता याने कि अटार्नी जनरल थे।

यह भाजपा और संघ के लोगों पर निर्भर करता है कि वे अपने शुभचिंतक सोली सोराबजी की परिपक्व राय को भाव दें या न दें। लेकिन सोमवार 15 तारीख को पटियाला हाउस अदालत में संघ समर्थक वकीलों व भाजपा के एक विधायक ने जो आचरण किया उससे ऐसा प्रतीत होता है कि हिन्दू राष्ट्र का सपना संजोए बैठे एक वर्ग ने स्वतंत्र बुद्धि से निर्णय लेना बंद कर दिया है। सोशल मीडिया पर जिस तरह की टिप्पणियां आ रही हैं वे भी इस मनोदशा को ही प्रकट करती हैं। मैंने विगत एक सप्ताह के दौरान जेएनयू प्रकरण पर अपनी ओर से तो कोई टिप्पणी नहीं की, लेकिन अनेक लेख व टिप्पणियां साझा किए। इन पर संघ समर्थक मेरे अनेक मित्रों ने अपनी असहमति दर्ज की है। मैं उनका सम्मान करता हूं। आप जब तक अपनी बात शिष्ट और शालीन भाषा में कह रहे हैं, तब तक उसे सुनना चाहिए। किन्तु मैं अपने ही मित्रों से जानना चाहता हूं कि पटियाला हाउस कोर्ट में जो हुआ उसका समर्थन वे किस आधार पर करते हैं? क्या नारे लगाना मारने-पीटने से ज्यादा खतरनाक है? इन्हीं मित्रों से दूसरी बात कि संघ के अनेक समर्थक सोशल मीडिया पर अपने विरोधियों को जिस तरह अश्लील से अश्लील गालियां दे रहे हैं क्या वे उनका भी समर्थन करते हैं? मैं नहीं मानता कि संघ की शाखाओं में मां-बहन की गालियां देने की ट्रेनिंग दी जाती होगी। तो क्या संघ के जिम्मेदार लोग ऐसे लम्पट लोगों पर कोई कार्रवाई करेंगे?

हम जानते हैं कि संघ का एजेंडा भारत को हिन्दूराष्ट्र बनाने का है। इस उपक्रम में उनकी कोशिश देश के शैक्षणिक संस्थानों पर कब्जा जमाने की है। लेकिन यह भारत देश धर्म की संकीर्ण परिभाषा से बहुत बड़ा है। आज भले ही शास्त्रार्थ की परंपरा शिथिल पड़ गई हो, विश्वविद्यालयों में अध्यापक वर्ग की काहिली के चलते स्वतंत्र चिंतन का वातावरण न बन पा रहा हो, लेकिन अपने अनजाने में संघ व सरकार ने विश्वविद्यालयों की सुप्त चेतना में सिहरन पैदा कर दी है। इसके परिणाम आगे चलकर अच्छे ही आएंगे। आज भले ही तात्कालिक विजय पर जिसे खुश होना है हो लें।

देशबन्धु में 18 फरवरी 2016 को प्रकाशित 

Wednesday 10 February 2016

स्मार्ट सिटी का सपना-3




भुवनेश्वर के सामाजिक कार्यकर्ता तथा वॉटर इनीशिएटिव ओडिशा के संयोजक रंजन पंडा ने अपने प्रदेश के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक को पत्र लिखकर बधाई दी है कि भुवनेश्वर शहर स्मार्ट सिटी की स्पर्धा में सबसे पहले नंबर पर आया है। इसके साथ श्री पंडा ने कुछ अन्य बिन्दुओं पर ध्यान आकर्षित किया है जो इस प्रकार हैं-

1. भुवनेश्वर में सिर्फ नौ सौ पच्यासी एकड़ क्षेत्र में भुवनेश्वर टाउन सेंटर डिस्ट्रिक्ट (बीटीसीडी) स्मार्ट सिटी के पहले चरण के रूप में विकसित किया जाएगा।
2. इससे छियालीस हजार नागरिक लाभान्वित होंगे।
3. इसके लिए पैंतालीस सौ करोड़ रुपए की राशि खर्च की जाएगी।
4. इसमें से पैंतीस सौ करोड़ रुपया वल्र्ड बैंक से ऋण के रूप में आएगा।
5. इस तरह प्रति व्यक्ति लगभग दस लाख रुपए का निवेश होगा जिसमें से अठहत्तर प्रतिशत ऋण के रूप में होगा।

दूसरे शब्दों में हर नागरिक को सात लाख अस्सी हजार रुपए का कर्ज ब्याज समेत विश्व बैंक को पटाना पड़ेगा। रंजन पंडा सवाल उठाते हैं कि इस भारी-भरकम कर्ज को पटाने के लिए स्मार्ट सिटी से कितनी आमदनी होगी और क्या अंत में जाकर यह रकम प्रदेश की उस आम जनता के लिए बोझ नहीं बनेगी जिसको स्मार्ट सिटी से कोई लाभ होने वाला नहीं है?

पिछले सप्ताह मैंने भोपाल का जिक्र किया था। रंजन पंडा का पत्र तस्वीर का एक और पहलू हमारे सामने उद्घाटित करता है। कुल मिलाकर तीन-चार तथ्य प्रकट होते हैं। एक- स्मार्ट सिटी के रूप में किसी भी शहर का एक बहुत छोटा हिस्सा विकसित होगा। इसका लाभ पाने वाले नगरवासियों की संख्या भी बहुत कम होगी। इसके लिए जो निवेश किया जा रहा है वह गैर अनुपातिक और अविचारित है। दो- वल्र्ड बैंक से जो ऋण लिया जाएगा उसकी भरपाई कैसे होगी। इसकी कोई साफ तस्वीर सामने नहीं है। तीन- मैंने कहीं पढ़ा है कि सौ शहरों के लिए लगभग छह लाख करोड़ रुपयों की आवश्यकता होगी। केन्द्र सरकार मौन है कि यह रकम कैसे जुटाई जाएगी। चार- उल्लेखनीय है कि प्रथम चरण में मात्र बीस नगरों को लिया जाएगा (अभी यह संख्या दस पर रुकी है) जिसमें से प्रत्येक को पहले साल दो सौ करोड़ एवं अगले तीन सालों में सौ-सौ करोड़ की किस्तें दी जाएगीं। याने किसी नगर को मिलने वाली कुल रकम हुई पांच सौ करोड़। अब हमारी समझ में यह गणित नहीं आ रहा है कि भुवनेश्वर नगर निगम पैंतालीस सौ करोड़ की बात कर रही है तो मात्र पांच सौ करोड़ से उसका काम कैसे चलेगा?

स्मार्ट सिटी योजना के बारे में मैं जितना कुछ पढ़ सका हूं इससे अनुमान लगता है कि केन्द्र सरकार शहरी बसाहट के कुछ आदर्श प्रतिमान या मॉडल खड़े कर देना चाहती है जिससे अन्य नगरों को भी प्रेरणा मिल सके। भारत का जिस तेजी के साथ शहरीकरण हो रहा है उसमें इस योजना का औचित्य समझ में आता है।  इसके अलावा केन्द्र द्वारा शहरी नवीकरण के लिए अमृत और हृदय जैसी योजनाएं भी प्रारंभ की जा रही हैं। किन्तु इन तमाम योजनाओं को अमल में लाने में सबसे बड़ी समस्या तो धनराशि की होनी है। अगर वल्र्ड बैंक इत्यादि से ऋण लेकर राशि जुटा भी ली जाए तो उससे देश की ऋणग्रस्तता बढ़ेगी तथा कर्ज वापिस करने की तलवार सिर पर सदैव लटकती रहेगी। यह प्रश्न भी उठता है कि क्या हमारे नगरीय निकायों में ऐसी योजनाओं को लागू करने की आवश्यक योग्यता और क्षमता है? इन संभावनाओं को नहीं नकारा जा सकता कि विदेशी परामर्शदाताओं को बुलाए बिना काम पूरा नहीं होगा। ऐसी स्थिति में ऋण से प्राप्त राशि का एक बड़ा हिस्सा उन्हें फीस के रूप में वापिस चला जाएगा और ऋण अपनी जगह पर कायम रहा आएगा।

इस बिन्दुओं के अलावा एक बड़ा सवाल यह भी है कि क्या हमारा नागर समाज मानसिक रूप से इन योजनाओं के लिए तैयार है?  मैं यहां शहरी विकास मंत्री वेंकैया नायडू को उद्धृत करना चाहूंगा। उनका कहना है- स्मार्ट सिटी वह है जैसा कि उसके नागरिक चाहते हैं तथा नगर स्तर की योजना उनके साथ व्यापक विचार विमर्श के आधार पर तैयार की जाएगी।  कुछ माह पूर्व देश के महापौरों को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा था कि  ''आपको अगले चुनाव की चिंता छोड़कर जनता की आशा-आकांक्षा के अनुरूप अपनी प्रतिबद्धता दर्शाने तथा अपने विचारों में परिवर्तन करने की आवश्यकता है। आप अगर अपने नगर को स्मार्ट सिटी बनाना चाहते हैं तो आपके भीतर यह शक्ति है।" श्री नायडू ने बात तो बहुत अच्छी की, लेकिन आप ही बतलाइए कि ऐसा कौन सा मेयर है जिसे अगले चुनाव की चिंता न हो? एक समय था जब जवाहर लाल नेहरू, सरदार पटेल और सुभाषचन्द्र बोस जैसे नेता नगरपालिकाओं के प्रमुख थे। वर्तमान के नेताओं में अगर ऐसी संभावना की किरण कहीं दिखे तो इससे बढ़कर प्रसन्नता की बात और क्या होगी!

स्मार्ट सिटी की परिभाषा में अगर हम ज्यादा न उलझें और सीधे-साधे शब्दों में समझने की कोशिश करें तो एक ऐसी बस्ती की कल्पना मानसपटल पर उभरती है जिसमें काफी कुछ बातें व्यवस्थित हैं जहां जनता अपनी नागरिक जिम्मेदारियों के प्रति सजग है और जहां रहना सुकूनभरा तथा निरापद है। हम फिल्मों में विदेश के नगरों की जो छबियां देखते हैं कुछ-कुछ वैसा दृश्य। भारत में हमने ऐसे नगर बसाने की कोशिश अतीत में की है तथा वर्तमान में जारी है। चंडीगढ़ आज भी शायद हमारा सबसे सुन्दर एवं व्यवस्थित नगर है। वह शायद अपने समय की पहली स्मार्ट सिटी है। भुवनेश्वर व गांधी नगर भी नए शहर हैं। अनेक औद्योगिक नगर भी काफी कुछ व्यवस्थित हैं।

रायपुर से मात्र चौबीस किलोमीटर दूर बसी भिलाई टाउनशिप में पचास साल पहले यह विचार कर लिया गया था कि साइकिल से आने वाले कर्मी कारखाने के निकट रहें और कार से आने वाले अफसरों का सेक्टर दूर बसाया जाए। उस समय जो चौड़ी सड़कें बनाई गईं वे आज भी काम आ रही हंै। उस समय जो मौलश्री के वृक्ष सड़कों के किनारे लगाए गए वे आज भी छाया और सुगंध दे रहे हैं। प्रारंभ में कर्मचारियों को लाने ले जाने के लिए बसों की फ्लीट भी नियमित संचालित होती थी जो निजी वाहनों के बढ़ते प्रयोग के कारण बंद हो गईं। लेकिन अब टाउनशिप के भीतर भी एक तरह से बदइंतजामी बढऩे लगी हैं। दूसरी ओर पटरी पार याने टाउनशिप के बाहर का जो इलाका है इसका व्यवस्थापन तो कई बार हुआ, लेकिन वह इलाका कभी भी व्यवस्थित नहीं हो सका। एक तरह से भिलाई में जी.ई. रोड या रेल लाइन के उत्तर व दक्षिण में दो अलग-अलग तरह की समाज रचना विकसित होने की विसंगति फलित हो गई। सच पूछिए तो क्या यह स्थिति पूरे भारत वर्ष की नहीं है?

मैं फिर अपने देखे के उदाहरण देता हूं। भोपाल में तात्या टोपे नगर बसाया गया। 1956 से लेकर कुछ साल बाद तक राजधानी क्षेत्र का जो विकास हुआ वह एक सुंदर नगर का चित्र प्रस्तुत करता है। लेकिन आज जो भोपाल विकसित हो रहा है उसने नगर नियोजन की सारी शर्तों को ध्वस्त कर दिया है। यही बात दिल्ली पर लागू होती है और रायपुर पर भी।  रायपुर इत्यादि स्थानों पर मध्यप्रदेश हाउसिंग बोर्ड ने जो कालोनियां बनाईं उनमें नगर नियोजन से जुड़े सभी आवश्यक बिन्दुओं पर ध्यान दिया गया, लेकिन आगे चलकर अधिकतर सहकारी समितियों ने तथा निजी बिल्डरों ने जो कालोनियां बसाईं उनके हाल बेहाल हैं। रायपुर में आप चाहे सुन्दर नगर चले जाएं, चाहे श्रीराम नगर, कौन कहेगा कि ये आधुनिक समय में विकसित आवासीय क्षेत्र हैं? यहां मेरे कहने का आशय है कि हमने संभवत: अपने चरित्र में एक अवज्ञा का भाव विकसित कर लिया है कि हमें नियम-कायदों से नहीं चलना है। अगर हमारा यही रुख जारी रहा तो स्मार्ट सिटी की पूरी अवधारणा पर पानी फिरते देर न लगेगी।

इन सबसे अहम् एक अन्य प्रश्न है जो बेहद चिंताजनक है। भारतीय समाज ने हाल के बरसों में अपने आपको बहुत संकुचित कर लिया है। आज से कुछ साल पहले तक हिन्दु, मुसलमान, सिख, ईसाई सब एक मुहल्ले में एक साथ रह सकते थे। अधिकतर इलाकों में अमीर और गरीब भी साथ-साथ बसते थे। एक-दूसरे के साथ संपर्क घना था।  अब ऊंचे-ऊंचे अपार्टमेंट भवनों में यह स्थिति है कि जहां हिन्दु रह रहे हैं वहां कोई मुसलमान या ईसाई शायद ही रहता हो। फिर अभी कुछ दिन पहले बंगलुरू में तंजानिया की एक छात्रा के साथ जनता ने जो सलूक किया उससे भी हमारी संकुचित, असहिष्णु, संवेदनहीन, रंगभेदी और नस्लवादी मानसिकता के कम होने के बजाय बढऩे का परिचय मिलता है। अगर भारत की साइबर राजधानी जिसमें देश के सबसे स्मार्ट लोग रहते हैं उसमें ऐसे हालात हैं तो बाकी की बात क्या करें?

देशबन्धु में 11 फरवरी 2016 को प्रकाशित 

Tuesday 9 February 2016

वर्धा हिंदी शब्दकोश




 महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय वर्धा अपने स्थापना काल से लगातार गलत कारणों से अखबारों में सुर्खियां बटोरता रहा है। यह आज के क्रूर समय की विडंबना है कि विश्वविद्यालय ने जो एक बड़ा महत्वपूर्ण कार्य कुछ समय पहले संपादित किया उसकी जैसी चर्चा और प्रशंसा होना चाहिए थी वह आज तक नहीं हुई। इस राष्ट्रीय तो क्या अंतरराष्ट्रीय महत्व के संस्थान को जो पहले तीन कुलपति मिले वे हिन्दी साहित्य और भाषा में प्रमुख स्थान रखते थे; उनकी संस्थान के विकास को लेकर अपनी-अपनी योजनाएं और महत्वाकांक्षाएं थीं। सबकी अपनी-अपनी कार्यपद्धति भी थी। यह हम देख सकते हैं कि संस्थान को जिस गति के साथ आगे बढऩा चाहिए था वह संभव नहीं हो सका। इसके विपरीत अनेक बार विश्वविद्यालय के कामकाज पर उंगलियां उठाई गई जिनमें बड़ी हद तक सच्चाई थी। मुझे स्वयं दो बार वर्धा जाने का अवसर मिला और दोनों अवसरों पर यही लगा कि वहां सब कुछ ठीक नहीं था। किन्तु यह भी क्या बात हुई कि विश्वविद्यालय ने कोई अच्छा काम किया है तो उसकी उपेक्षा की जाए या उसकी पर्याप्त चर्चा न हो!

मैं बात कर रहा हूं सन् 2014 में विश्वविद्यालय द्वारा प्रकाशित वर्धा हिन्दी शब्दकोश की। यह ऐसा ग्रंथ है जिसकी प्रति हर हिन्दीभाषी और हिन्दीप्रेमी के घर में होना चाहिए। तत्कालीन कुलपति विभूति नारायण राय के कार्यकाल में इसकी योजना बनाई गई थी। इसके मुख्य संपादक भाषाविद् डॉ. रामप्रकाश सक्सेना हैं। कुलपति के प्राक्कथन और प्रधान संपादक की भूमिका दोनों से यह पता नहीं चलता कि शब्दकोश बनाने की योजना पर काम कब प्रारंभ हुआ। यह जानकारी भी मिल जाती तो बेहतर होता। फिर भी इस शब्दकोश ने एक बहुत बड़ी कमी को दूर किया है। यह कहना कठिन है कि इस तरह का अगला उपक्रम अगली बार कब संभव होगा। डॉ. सक्सेना ने अपनी भूमिका में जिक्र किया है ''कुलपति राय का स्वप्न था कि यह कोश हर दो साल बाद अद्यतन होता जाए।" ऐसा फिलहाल संभव नहीं दिखता। 2015 में दूसरा संस्करण छपा है और शायद अभी आने वाले कुछ समय तक  हमें पुनर्मुद्रित संस्करणों से ही काम चलाना पड़ेगा।

वर्धा हिन्दी शब्दकोश की सबसे बड़ी विशेषता है कि इसमें अंग्रेजी के वर्तमान में प्रचलित अनेकानेक शब्दों का समावेश किया गया है। यह एक व्यावहारिक और सटीक पहल है। भाषा निरंतर प्रवहमान होती है। दैनंदिन व्यवहार के चलते नए शब्द जुड़ते हैं। टेक्नालॉजी का विकास भी शब्द भंडार को समृद्ध करने में सहायक होता है। विश्व की कोई भी प्रमुख भाषा इसका अपवाद नहीं है। हम लोग इस तथ्य पर चकित और प्रसन्न होते रहे हैं कि विश्व की सबसे प्रामाणिक माने जाने वाली ऑक्सफोर्ड इंग्लिश डिक्शनरी में साल-दर-साल भारतीय भाषाओं से कितने नए शब्द जुड़ते जाते हैं। जो बात उनके लिए सच है वही बात हमारे लिए भी उतनी ही सच है। भाषा विज्ञान के विद्यार्थी तो पढ़ते ही हैं कि हिन्दी में दुनिया की किन-किन भाषाओं से शब्द लिए गए। 

सामान्य लोकव्यवहार में भी हमें पता है कि कैसे दूसरी भाषाओं से आकर चुपचाप कितने सारे शब्द हमारी भाषा से घुलमिल जाते हैं। आज भला कौन कहेगा कि मुश्किल, हवा, दुनिया, रेत, ट्रेन, लीची, चाय, सुनामी, सुडोकू, हाइकू, स्पूतनिक आदि शब्द मूलत: हिन्दी के नहीं है। इनके अलावा भी हजारों शब्द हैं जो हिन्दी के पुराने शब्दकोशों में देखने मिल सकते हैं। इस पृष्ठभूमि में मुझे अक्सर कोफ्त होती रही है कि टेक्नालॉजी के विकास के साथ ढेर सारे नए शब्द हमारे प्रचलन में आ चुके हैं, लेकिन हिन्दी शब्दकोश में उनको जगह नहीं मिल पाई है। वह भी क्या इसलिए कि डॉ. फादर कामिल बुल्के के बाद हिन्दी का नया शब्दकोश बनाने की बात पर कभी ध्यान ही नहीं दिया गया। जब हमें यह जानकारी मिलती है कि फादर कामिल बुल्के का अंग्रेजी हिन्दी कोश 1965-66 में प्रथमत: प्रकाशित हुआ था तब इस लंबे अंतराल को देखकर मन में विचार उठता है कि क्या इसी बलबूते पर हिन्दी विश्वभाषा बन पाएगी। ऐसा नहीं कि इस बीच अन्य शब्दकोश न बने हों, लेकिन उनकी प्रामाणिकता सौ टंच नहीं है।

यह सर्वविदित है कि ऑक्सफोर्ड इंग्लिश डिक्शनरी का हर वर्ष नया संस्करण प्रकाशित होता है। अब यह कोश इंटरनेट पर भी उपलब्ध है। ओईडी का ट्विटर एकाउंट या खाता भी है। उसमें लगभग प्रतिदिन वे नए-नए शब्दों से पाठकों का परिचय कराते हैं। आप स्वयं भी यदि कोई शब्दार्थ देखना चाहते हैं तो ट्विटर/ फेसबुक के ओईडी पेज पर उसे पा सकते हैं। अगर कोई चाहे तो अपने स्मार्ट फोन पर ओईडी का एप नि:शुल्क डाउनलोड भी कर सकता है। यद्यपि हिन्दी शब्दकोश के भी अनेक एप्स नि:शुल्क उपलब्ध हैं, लेकिन ये कितने अद्यतन और कितने प्रामाणिक हैं यह कहना कठिन है। सच तो यह है कि हम अभी तक कामिल बुल्के के अंग्रेजी-हिन्दी कोश से ही काम चला रहे हैं। यह ध्यान रखने की बात है कि इसमें अंग्रेजी शब्दों के हिन्दी अर्थ दिए गए हैं और यह हिन्दी शब्दकोश नहीं है। मैं हिन्दी की जिन संस्थाओं से समय-समय पर संबद्ध रहा हूं वहां मैंने अक्सर इस विषय को उठाया है किन्तु जिन्हें निर्णय लेना था उनकी प्राथमिकता में या तो यह बात न आ सकी या फिर साधनों का अभाव सामने आकर खड़ा हो गया। 

देशबन्धु लाइब्रेरी में हिन्दी का जो प्राचीनतम कोश उपलब्ध है वह काशी नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा प्रकाशित एवं बाबू श्यामसुंदर दास द्वारा संपादित हिन्दी शब्द सागर है जो पहले-पहल 1929 में प्रकाशित हुआ था। इस उपक्रम में बाबू श्यामसुंदर दास के साथ सहायक संपादक के रूप में निम्नलिखित मनीषियों ने अपनी सेवाएं दीं- बालकृष्ण भट्ट, रामचंद्र शुक्ल, अमीर सिंह, जगमोहन, भगवानदीन, रामचंद्र वर्मा। इस महत्तर कार्य को सम्पन्न करने में संपादक मंडल को क्या-क्या पापड़ बेलना पड़े इसका विस्तृत ब्यौरा प्रथम संस्करण की भूमिका से मिलता है। यह एक रोचक दस्तावेज है जिसे अक्षर पर्व के पाठकों के लिए हमने इसी अंक में पुनप्र्रकाशित किया है। इसमें कुछ बिन्दु विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं:- 

1. हिन्दी का सबसे पहला शब्दकोश लंदन से एक अंग्रेज सज्जन ने सन् 1775 में प्रकाशित किया था। 
2. अंग्रेजों को चूंकि इस देश की भाषा का प्रयोग करने की जरूरत आन पड़ी थी इसलिए यह और इसके बाद अनेक शब्दकोश छपे। 
3. नागरी प्रचारिणी सभा ने 1893 में कोश की योजना तैयार की। 
4. संपादकों ने शब्द संग्रह करने के लिए जो प्रयत्न किए वे अद्भुत हैं। 
5. 1893 में सबसे पहले विचार हुआ; 1909 में काम शुरू हुआ और ठीक बीस साल बाद 31 जनवरी 1929 को हिन्दी शब्दसागर प्रकाशित हुआ। 
6. बाबू श्यामसुंदर दास ने अपनी प्रस्तावना के पहले पैराग्राफ में एक सटीक बात कही है:- ''शब्दकोश किसी भाषा के साहित्य की मूल्यवान संपत्ति और उस भाषा के भंडार का सबसे बड़ा नि:दर्शक होता है।" 

जैसा कि ऊपर उल्लेख हुआ है अनेक उपसंपादकों में एक श्री रामचन्द्र वर्मा भी थे। वे इस पूरे उद्यम में प्रारंभ से अंत तक साथ रहे। आगे चलकर श्री वर्मा ने अच्छी हिन्दी नामक एक पुस्तिका लिखी जो आज भी हर हिन्दी जानने या सीखने वाले के लिए बहुत काम की है। 

बहरहाल हम वर्धा हिन्दी शब्दकोश की ओर लौटते हैं। इसमें अंग्रेजी के बहुत सारे शब्द जैसे कम्प्यूटर, ब्लॉग, टैक्स, टैक्सी, टायलेट, शिफ्ट, आर्टिस्ट, आर्मी आदि का समावेश किया गया है जिनका सामान्य व्यवहार में प्रयोग होता है। इससे निश्चित ही कोश का उपयोग करने वालों को सहूलियत होगी, लेकिन मैं समझता हूं कि कोश पर अभी और परिश्रम किए जाने की आवश्यकता है। संपादक मंडल में निर्मला जैन व गंगाप्रसाद विमल प्रभृत्ति विद्वानों के नाम हैं। इनकी कोश के प्रकाशन में क्या भूमिका रही है यह पता नहीं चलता। प्रधान संपादक इस बारे में विस्तार से लिखते तो बेहतर होता। हिन्दी शब्दसागर की उपरलिखित भूमिका तो उन्होंने देखी ही होगी। इसका अनुसरण वे करते तो कोश की भावी दिशा तय होने में सहायता मिलती। 

मुझे ऐसा संदेह होता है कि कुलपति विभूतिनारायण राय अपना कार्यकाल समाप्त होने के पूर्व इस कोश को प्रकाशित कर देने के इच्छुक रहे होंगे। यह शायद ठीक भी था। कौन जानता है कि नए कुलपति के आने के बाद इस महत्वाकांक्षी योजना का क्या हश्र होता कि अब आपके पास एक आधार ग्रंथ तो है, जिसे सामने रखकर आगे बढ़ा जा सकता है। इसी बिना पर मैं जोडऩा चाहूंगा कि हम हिन्दी में अंग्रेजी शब्दों को जबरदस्ती न ठूंसें, लेकिन जो सहजता से आ गए हैं उन्हें तो शामिल करना ही चाहिए, मसलन एम्बेसी, एम्बेसेडर, बाईक आदि। इसी तरह परिशिष्ट में पदबंधों के जो संक्षिप्त रूप हैं अथवा एक्रोनिम दिए गए हैं वहां यूनेस्को हो, लेकिन यूएनओ न हो, एडीबी हो, लेकिन आईएलओ न हो, तो अटपटा लगना स्वाभाविक है। यह सूची बढ़ाई जा सकती है लेकिन यहां सिर्फ संकेत देना पर्याप्त है।

जब कभी कोश का पुनर्मुद्रण हो तब साथ-साथ उसका परिवर्द्धन भी किया जा सके तो बहुत अच्छा होगा। इसके अलावा एक अत्यंत व्यावहारिक बिन्दु भी हम उठाना चाहेंगे। साढ़े बारह सौ पेज के कोश का मूल्य एक हजार रुपया रखा गया है। यह मूल्य आजकल किताबों की जैसी कीमतें चल रही हैं उसे देखते हुए उचित प्रतीत होता है, लेकिन क्या एक आम पाठक इस कीमत पर कोश खरीदने की इच्छा रखता है या कि साहस जुटा सकता है। यह एक अटपटी बात है कि कोश का प्रकाशन भारतीय ज्ञानपीठ ने किया है और विश्वविद्यालय का उपयोग सहयोगी के रूप में हुआ है। यह बात पल्ले नहीं पड़ी। महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय वर्धा भारत शासन की एक स्वायत्त संस्था है। उसके द्वारा किए गए इस उद्यम का प्रकाशन स्वयं विश्वविद्यालय को ही करना था या फिर इसे भारत सरकार के प्रकाशन विभाग अथवा राष्ट्रीय पुस्तक न्यास को दिया जा सकता था। तब यह कोश उचित दामों पर जनता को मिल पाता। अगर विश्वविद्यालय का प्रकाशन के साथ अभेद्य अनुबंध न हुआ हो तो उसे भंग कर नए सिरे से प्रकाशन के बारे में सोचना उचित होगा। इस बारे में हम यह उल्लेख कर दें कि नागरी-प्रचारिणी सभा ने 1965 में हिन्दी शब्दसागर का जो दस खंडों का परिवर्द्धित संस्करण प्रकाशित किया उसका मूल्य मात्र डेढ़ सौ रुपए रखा गया था और भारत सरकार ने इस हेतु साठ प्रतिशत सब्सिडी दी थी। यही फार्मूला आज भी अपनाया जा सकता है। 

अक्षर पर्व फरवरी 2016 अंक की प्रस्तावना 

Thursday 4 February 2016

स्मार्ट सिटी का सपना-2




रायपुर के महापौर प्रमोद दुबे बेवजह दुखी, परेशान और क्षुब्ध हो रहे हैं। दुख तो शायद बिलासपुर के महापौर किशोर राय को भी हो रहा होगा, लेकिन वे सत्तारूढ़ पार्टी के समर्पित सिपाही हैं इसलिए उनकी मजबूरी है कि खुलकर कुछ न कह पाएं। किन्तु बात छत्तीसगढ़ के दो शहरों मात्र की नहीं है। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भी नाराज हैं तथा केन्द्र पर गैरभाजपाई राज्यों के साथ सौतेला बर्ताव करने का आरोप लगा रहे हैं। उधर उत्तराखण्ड के कांग्रेसी मुख्यमंत्री हरीश रावत दुखी होकर भी निराश नहीं हैं। वे केन्द्र सरकार को नए सिरे से प्रस्ताव भेजने की बात कर रहे हैं। इन सबका दुख समझ में आता है किन्तु सच पूछिए तो ये व्यर्थ में आंसू बहा रहे हैं। इन्हें तो खुश होना चाहिए कि सिर पर आई बला फिलहाल टल गई है। मुझे यहां शायद पहेलियां बुझाना छोड़कर साफ-साफ बात करना चाहिए। तो पाठको! यह मामला स्मार्ट सिटी का है। जिन राज्यों और जिन नगरों को सारी जोड़-तोड़ और मशक्कत के बावजूद स्मार्ट सिटी योजना के पहले चरण में शामिल होने का अवसर नहीं मिल पाया वे अपने आपको ठगा गया महसूस कर रहे हैं। लेकिन वास्तविक कहानी कुछ और ही है जिससे वे शायद अब तक अनभिज्ञ हैं।

भोपाल के हमारे मित्र और वरिष्ठ पत्रकार एनडी शर्मा ने दो-तीन दिन पहले ही फेसबुक पर लिखा है कि स्मार्ट सिटी योजना में भोपाल का नाम आ जाने के बाद वहां की दो पुरानी रिहाइशों तुलसी नगर और शिवाजी नगर के नागरिक मुसीबत में पड़ गए हैं। भोपाल से पुराना नाता रखने वालों को याद होगा कि कभी उन्हें 1250 और 1464 क्वार्टर्स के नाम से जाना जाता था। यह भोपाल की अपनी खासियत थी।  तुलसी और शिवाजी नाम से तो दूसरे शहरों में भी कालोनियां मिल जाएंगी। वहां अभी भी 4 बंगला, 45 बंगले और 74 बंगले जैसी रिहाइशें आबाद हैं और उनके नाम नहीं बदले गए हैं। बहरहाल मुद्दा यह है कि स्मार्ट सिटी बनाने के लिए पहले चरण में उन दो इलाकों का चयन किया गया है और इसके साथ यह फरमान भी जारी हो गया है कि उन्हें अपने घर छोड़कर कहीं और जाकर बसना पड़ेगा। इसमें शायद यह आश्वासन निहित है कि जब स्मार्ट सिटी का सरंजाम पूरा हो जाएगा तब उन्हें यहां वापिस बसाने की अनुमति मिल जाएगी! किन्तु नागरिक चिंतित हैं कि जब स्मार्ट सिटी या स्मार्ट कालोनी बनेगी तो उसमें बसने का हक भी तथाकथित स्मार्ट लोगों को ही होगा। सामान्यजन तो बेदखल हो गए तो हो गए।

श्री शर्मा की इस फेसबुक पोस्ट पर इस कॉलम के लिखे जाने तक मध्यप्रदेश सरकार अथवा केन्द्र सरकार से कोई स्पष्टीकरण या खंडन नहीं आया है। मेरा ख्याल है कि आएगा भी नहीं। इस वस्तुस्थिति को जान लेने के बाद नीतीश कुमार और हरीश रावत से लेकर प्रमोद दुबे और किशोर राय तक हर उस राजनेता को प्रसन्न होना चाहिए जिसकी स्मार्ट सिटी की मांग फिलहाल मंजूर नहीं की गई है। इसे और थोड़ा समझ लेते हैं। भोपाल के शिवाजी नगर और तुलसी नगर तो राजधानी क्षेत्र में ही अवस्थित हैं। मंत्रालय और विधानसभा दोनों नजदीक हैं। यहां के अधिकतर रहवासी ही सरकारी कर्मचारी ही होंगे जिन्हें सरकार ही कहीं और बसाने की व्यवस्था कर देगी। लेकिन रायपुर में अगर आपको ऐसे दो वार्डों, कालोनियों या मुहल्लों का चयन करना पड़े तो आप क्या करेंगे? अगर सिविल लाईंस और शंकर नगर के निवासियों को कहीं और जाकर बसने को कहा जाए तो क्या यह संभव होगा? ऐसा होने पर जो बवाल मचेगा उसका ठीकरा अंतत: महापौर प्रमोद दुबे के सिर पर ही फूटेगा। वे इस वस्तुस्थिति को समझ लें तो शुक्र मना सकते हैं कि मुसीबत बुलाने से बच गए।

दरअसल, केन्द्र सरकार ने जब स्मार्ट सिटी  योजना का बीड़ा उठाया और उसका जो गैरअनुपातिक व धुआंधार प्रचार किया उसमें देश के तमाम मेयर और तमाम मुख्यमंत्री बह गए। एक तो उन्हें लगा कि अपने शहर को स्मार्ट सिटी बना देने से उन्हें भी स्मार्ट मेयर की पदवी मिल जाएगी तथा अपने समकक्षों के सामने उन्हें इठलाने का मौका मिल जाएगा। इसमें एक और बात जो सार्वजिनक रूप से कबूल नहीं की जा सकती थी वह यह कि स्मार्ट सिटी के नाम पर जो भारी भरकम राशि मिलती उसमें नगर के कल्याण के साथ पार्टी का और निज का भी कुछ कल्याण संभव हो जाता। अगर इस बिन्दु पर हमारे नेतागण दुखी हों तो वह समझ में आता है और यहां हमारी उनके साथ सहानुभूति है। मैं पाठकों का ध्यान अपने 30 जुलाई के लेख की ओर आकर्षित करना चाहता हूं जिसमें मैंने स्मार्ट सिटी की अवधारणा और उसकी कुछ सीमाओं का उल्लेख किया था। मैंने उस समय तक प्राप्त सूचना के आधार पर यह भी लिखा था कि स्मार्ट सिटी वर्तमान नगर में नहीं बल्कि एक नए उपनगर अथवा सेटेलाइट टाउनशिप के रूप में विकसित की जाएगी। वह बात आज प्रमाणित हो रही है।

मेरे सामने भारत सरकार के शहरी विकास मंत्रालय के सचिव मधुसूदन प्रसाद का एक बयान है। इसमें उन्होंने बहुत स्पष्ट शब्दों में कहा है कि स्मार्ट सिटी मिशन की योजना ही इस रूप में बनाई गई है कि किसी एक सुगठित क्षेत्र का चयन कर स्मार्ट सिटी के तमाम मानकों पर उसका विकास किया जाएगा तथा बाद में शहर के अन्य इलाकों में उसका अनुकरण किया जाएगा। श्री प्रसाद ने मिशन के तीन स्पष्ट भाग किए हैं-क) मूलभूत संरचना, ख) स्मार्ट साल्यूशन्स अथवा सूचना प्रौद्योगिकी का इस्तेमाल एवं ग) सुखद-सुरक्षित वातावरण।  इनमें से भी जो दूसरा हिस्सा है अर्थात सूचना प्रौद्योगिकी का इस्तेमाल, उसको पूरे शहर में समानांतर लागू किया जाएगा। यद्यपि यहां बात कुछ ज्यादा तकनीकी हो रही है, लेकिन इसे समझ लेना बेहतर होगा। मोटे तौर पर सरकार का कहना है कि स्मार्ट सिटी के अंतर्गत चुने गए उन बीस या सौ शहरों में सिर्फ एक इलाके का समग्र विकास होगा, जिसमें चौबीस घंटे बिजली होगी, चौबीस घंटे पानी मिलेगा, वर्षा जल संचित होगा, निस्तार तथा कूड़ा-कचरा निपटान की माकूल व्यवस्था होगी। सिर्फ इसी एक इलाके में पैदल चलने वालों के लिए फुटपाथ होंगे, और साईकिल चलाने वालों के लिए अलग लेन, वाहनमुक्त सड़कें व क्षेत्र होंगे, खूब खुली जगहें होंगी, व बच्चों, महिलाओं व वृद्धों की सुरक्षा की गारंटी इत्यादि होगी।

इसके बरक्स सूचना प्रौद्योगिकी का इस्तेमाल जो पूरे शहर में होना है उसमें आईटी का विस्तार, यातायात व पार्किंग के लिए डिजिटल तकनीकी का उपयोग जैसी बातें शामिल हैं। इसे हम अगर उदाहरण के लिए रायपुर में घटित करके देखें और पुन: उदाहरण के लिए शंकर नगर को ले लें तो यह समझ में आता है कि उस इलाके में स्मार्ट सिटी के सारे मानक विद्यमान होंगे, लेकिन पुरानी बस्ती, बूढ़ापारा, नयापारा, तात्यापारा, रामसागरपारा, गुढिय़ारी इत्यादि इलाकों में सब कुछ वैसा ही चलता रहेगा जैसा अब तक चलता आया है। वाई-फाई तो खैर सब जगह पहुंच ही गया है, लेकिन दूसरे मानक के अनुरूप इन इलाकों में कैसे तो पार्किंग होगी और कैसे टै्रफिक व्यवस्थित होगा, यह न तो पहले महापौर स्वरूपचंद जैन बतला सकते हैं और न वर्तमान महापौर प्रमोद दुबे। जो तीसरा मानक है सुखद-सुरक्षित वातावरण का उसकी तो कल्पना भी हमें नहीं करनी चाहिए। हमें समझ में नहीं आता कि क्यों तो भारत सरकार ने सौ शहरों के सामने स्मार्ट सिटी का चारा फेंका और क्यों रायपुर, बिलासपुर जैसे शहर उस चारे को निगल कर फंस गए! प्रमोद दुबे जब नौकरशाही पर आरोप लगाते हैं कि उसने अपना केस मजबूती से सामने नहीं रखा तो उनकी बात में सत्य का एक अंश अवश्य है। हमारे अधिकतर जनप्रतिनिधि आधुनिक टेक्नालॉजी के बारे में अधिक जानकारी नहीं रखते। उन्हें इसमें रुचि भी नहीं है। उनके पास न तो वैज्ञानिक दृष्टिकोण है और न विज्ञान की प्रगति से कोई सरोकार। ऐसे में वे अक्सर उन अफसरों पर निर्भर रहते हैं जो आईआईटी और आईआईएम इत्यादि से डिग्री लेकर देश की सेवा कर रहे हैं। उनसे यह अपेक्षा करना उचित है कि वे स्मार्ट सिटी हो या ऐसी कोई अन्य योजना उसके सारे पहलुओं से जनप्रतिनिधियों को भलीभांति अवगत कराएं ताकि योजना में शामिल होने या न होने का निर्णय सोच-समझकर लिया जा सके।

भारत सरकार को भी एकदम शुरू में ही स्थिति स्पष्ट कर देना चाहिए थी कि जिन सौ शहरों का चयन किया जा रहा है उसमें पूरा शहर नहीं बल्कि उसका एक छोटा हिस्सा ही लाभान्वित होगा। हमें बल्कि यह भी लगता है कि भारत सरकार को एक-दो प्रांतों में पायलट प्रोजेक्ट के रूप में पहले दो-तीन शहर स्मार्ट सिटी के रूप में विकसित कर देना था। बात वहां से आगे बढ़ती तो उसे सही दिशा का पालन करते हुए लक्ष्य तक पहुंचने में सहायता मिलती।

देशबन्धु में 04 फरवरी 2016 को प्रकाशित 

टिप्पणी: इस संबंध में पहला लेख 30 जुलाई 2015 को प्रकाशित हुआ था।