Wednesday 31 July 2013

परिभाषा और आंकड़ों में उलझी गरीबी



आम आदमी की रोजमर्रा की जिंदगी के बारे में विचार करें तो उसमें आंकड़ों और परिभाषाओं का कोई खास मतलब नहीं होता। विशेषज्ञ इनका उपयोग नीतियां निर्धारित करने के लिए कर सकते हैं, लेकिन असली मुद्दा तो इतना ही है कि एक सामान्यजन या सामान्य परिवार के जीवन में आर्थिक सुरक्षा कितनी है तथा उस दिशा में सरकार ने क्या कदम उठाए हैं। अर्थशास्त्री आंकड़ों को लेकर बहस कर सकते हैं कि शहर में एक व्यक्ति की न्यूनतम आय क्या हो और गांव में क्या हो, लेकिन ये आंकड़े न तो मनुष्य के श्रम को तौल सकते हैं और न उनसे जिन हालात का मनुष्य को दिन-प्रतिदिन सामना करना पड़ता है उसका कोई संकेत मिलता है। पार्टियों के प्रवक्ता भी पांच रुपए और बारह रुपए और तैंतीस रुपए को लेकर अपनी मुखरता का परिचय भले ही दे दें, परंतु इसके आगे उनका भी अर्थ नहीं है। इसलिए बात तो बुनियादी मुद्दों की ही करना चाहिए, तभी एक स्पष्ट तस्वीर बनाई जा सकती है। यहां से शुरू करें तो एक तो हम पाते हैं कि देश-प्रदेश में सरकार किसी की भी हो, जन आकांक्षाओं की अनदेखी करना किसी भी राजनीतिक दल के लिए संभव नहीं है। हर चुनाव के पहले पार्टियां अपने घोषणा पत्र में कुछ वायदे करती हैं, कुछ नारे देती हैं और जिसकी सरकार बनती है वह अपने घोषणा पत्र के अनुसार कुछ न कुछ सकारात्मक कदम उठाती ही है। इसके लिए जो योजनाएं बनती हैं उनके क्रियान्वयन में भ्रष्टाचार या लापरवाही या अन्य जो बुराइयां देखने मिलती हैं, वे न सिर्फ राजनीतिक दलों के दोहरे चरित्र की ओर बल्कि भारत की नौकरशाही और व्यापार तंत्र में व्याप्त अनैतिकता का भी सबूत देती हैं, गो कि आम बहसों में इस पक्ष को भुला दिया जाता है।

बहरहाल, राजनीतिक दलों की आधी-अधूरी संकल्पबध्दता का ही यह परिणाम है कि ऐसे अनेक कार्यक्रम और योजनाएं लागू की गई हैं, जिन्होंने नागरिकों को पहले की अपेक्षा कहीं अधिक अधिकार-सम्पन्न बनाया है। यदि पिछले नौ साल के दौरान केन्द्र की यूपीए सरकार ने ऐसे अनेक अधिकार जनता को सौंपने की पहल की है तो विपक्षी दलों द्वारा शासित अनेक राज्यों में भी अपने स्तर पर ऐसे कदम समय-समय पर उठाए गए हैं। इसके बाद भी यदि जनता में असंतोष नज़र  आता है तो उसका एक बड़ा कारण यह भी है कि समाज में राजनीतिक चेतना का विकास हुआ है, लोग अपने अधिकारों के प्रति पहले की अपेक्षा ज्यादा सजग हुए हैं तथा उन्हें अपना असंतोष अथवा अपनी शिकायत दर्ज कराने के लिए अब माध्यमों की भी कोई कमी नहीं है। यह रेखांकित करना जरूरी है कि मेरा यह अवलोकन सापेक्ष है और उसे इसी तरह से समझने का मैं आग्रह करता हूं। 

महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी का ही उदाहरण लें। मनरेगा की वर्तमान दरों पर छत्तीसगढ़ में छोटी सी छोटी ग्राम पंचायत वाले ग्राम में भी, मेरा अनुमान है कि दस लाख रुपया प्रतिवर्ष इस खाते में आ रहा है। अगर मनरेगा का क्रियान्वयन सही हो तथा इसे गांव में स्थायी परिसम्पत्तियां निर्मित करने में लगाया जाए तो गांव के हालात तेजी से बदल सकते हैं। अभी जैसे भारतीय रेलवे ने पटरी किनारे के गांवों में मनरेगा से सहयोग लेने का नीतिगत निर्णय लिया है, यह एक स्वागतयोग्य कदम है। लेकिन ऐसा न हो तब भी ग्राम पंचायत के माध्यम से गांवों में पैसा पहुंच रहा है और इससे गांव की तस्वीर कुछ न कुछ तो बदली ही है।  अगर गड़बड़ियां हैं तो उनको उजागर करने का साहस भी स्थानीय जनता करने लगी है। तथापि योजना का सुचारु संचालन कैसे हो, इसकी जिम्मेदारी सिर्फ सरकार की न हो, नौकरशाही, चुने हुए पंच-सरपंच तथा गांव के प्रबुध्दजन- उन्हें भी अपने हिस्से की जिम्मेदारी उठाने के लिए तैयार रहना पड़ेगा।

कुछ इसी तरह की स्थिति शिक्षा का अधिकार, मध्यान्ह भोजन योजना, आंगनबाड़ी, संस्थागत प्रसूति, आशा अथवा मितानिन इत्यादि कार्यक्रमों में भी देखने मिलती है। सर्वशिक्षा अभियान के तहत स्कूलों की अधोसंरचना के विकास के लिए अरबों रुपया आबंटित किया जाता है। आप जीडीपी का कितना प्रतिशत शिक्षा व स्वास्थ्य पर खर्च कर रहे हैं, उससे कहीं ज्यादा जरूरी है कि जो वित्तीय आबंटन है उसका सही इस्तेमाल किया जाए। अगर स्कूल के भवन सही बनेंगे व वहां अन्य व्यवस्थाएं भी ठीक हो जाएंगी तो देश में एक संपूर्ण शिक्षित समाज बनाने में बहुत यादा समय नहीं लगेगा। मिड डे मील के कारण स्कूलों में बच्चों की आवक बढ़ी है, लेकिन यह ध्यान देना भी आवश्यक है कि उनकी पढ़ाई ठीक से हो।


यह बात विचित्र लगती है कि देश में बड़े स्तर पर हुए उन घोटालों का ढिंढोरा तो बहुत पीटा जाता है जिनका आम जनता के साथ प्रत्यक्ष कोई संबंध नहीं है, लेकिन जब बात आम आदमी से जुड़े सीधे मसलों याने रोटी, कपड़ा, मकान, पढाई, सेहत जैसे सीधे प्रश्नों की हो वहां भ्रष्टाचार पर परदा डालने में कोई कसर बाकी नहीं रखी जाती। ऐसा क्या इसलिए है कि निचले स्तर पर होने वाले भ्रष्टाचार में जनता का एक बड़ा वर्ग भी अक्सर स्वेच्छा से शामिल रहता है और उसे उजागर करने में सामान्य व्यक्ति खतरा महसूस करता है? मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ से ही उदाहरण लें तो कितने ही शासकीय कर्मचारियों के भ्रष्टाचार के प्रकरण हाल के समय में उजागर हुए, लेकिन उनमें से एक पर भी कोई सटीक कार्रवाई पिछले दस साल के दौरान सुनने नहीं मिली।

मैं अपने अवलोकन के आधार पर कह सकता हूं कि भारत में हाल के बरसों में आर्थिक तरक्की तो निश्चित रूप से हुई है तथा वह दिल्ली या मुंबई तक सीमित न रहकर देश के सुदूर कोनों तक भी पहुंची है, लेकिन उसका पूरा-पूरा लाभ उठाने के लिए स्वयं जनता को जिस सजगता का परिचय देना चाहिए वह उसने नहीं दिया है। जो यथास्थितिवादी दल हैं याने कांग्रेस और भाजपा उन्होंने भी मैदानी स्तर पर जनता को तैयार करने से परहेज ही किया है। क्षेत्रीय दलों से तो कोई उम्मीद रखना ही बेकार है, लेकिन वामदलों की आलोचना करते हुए कहना होगा कि उन्होंने अपना खोया जनाधार वापिस पाने का एक बड़ा और लंबा मौका यूं ही गंवा दिया है। साथ ही एक विडम्बना यह भी देखने मिली कि पहले जो गांव-गांव में नि:स्वार्थ भाव से काम करने वाले सामाजिक कार्यकर्ता मिल जाते थे, उनकी प्रजाति भी लगभग विलुप्त हो चुकी है।

इससे परे हटकर दो अहम् मुद्दे हैं जो विचार की मांग करते हैं। एक तो यह सच्चाई है कि पिछले पच्चीस साल के दौरान देश में अमीर और गरीब के बीच की खाई बहुत तेजी के साथ बढ़ी है। यह ठीक है कि बहुत सी कल्याणकारी योजनाओं के चलते अब भूख से मरने की खबर शायद ही कहीं से आती हो, लेकिन बड़े और छोटे के बीच इतना बड़ा फर्क पहले कभी नहीं था। इसके लिए सारे राजनीतिक दल एक समान दोषी हैं। जिस तरह से अंबानी बंधु इत्यादि सम्पन्न लोग अपने वैभव का अहंकारपूर्ण प्रदर्शन कर रहे हैं वह जुगुप्सा पैदा करता है। मुझे लगता है कि वाम मोर्चा या मेधा पाटकर जैसे सामाजिक कार्यकर्ता यदि अंबानी महल के सामने जाकर प्रदर्शन करते तो वह अधिक कारगर होता। दुर्भाग्य से इस मसले पर कोई राजनेता, कोई बुध्दिजीवी, कोई समाज चिंतक बात ही नहीं करता। 
दूसरा गंभीर मसला देश की जनसंख्या का है। मेरी दृष्टि में वह अवधारणा अर्थहीन हो गई है कि ज्यादा बच्चे होंगे तो ज्यादा काम करने वाले हाथ होंगे। इस मुद्दे पर क्या राजनेता, क्या बुध्दिजीवी, सब अपने आपको धोखे में रख रहे हैं। देश के पास जो भी संसाधन हैं- धरती, जल, खनिज, वन-सब सीमित हैं। जबकि बढ़ती हुई जनसंख्या के कारण आवश्यकताएं तेजी से बढ़ रही हैं। संजय गांधी के अति उत्साह का जो दुष्परिणाम हुआ उसके भय से आज कोई भी जिम्मेदार राजनेता इस बारे में सीधे-सीधे से बात करने में कतराता है, लेकिन सच्चाई से कब तक मुंह छिपाया जाएगा? 

मेरे तर्कों से पाठक असहमत हो सकते हैं, लेकिन मुख्य बात यही है कि विमर्श को वायवी परिभाषाओं, कटाक्षों, चरित्रहनन आदि से हटाकर वापिस मूलभूत प्रश्नों की ओर लाया जाए। 

देशबंधु में 01 अगस्त 2013 को प्रकाशित 

Thursday 25 July 2013

मोदी : हवा में तलवारबाजी




इतनी बात तो छठवीं-सातवीं के विद्यार्थी भी जानते हैं कि देश में संसदीय शासन प्रणाली है। एक निर्धारित अवधि में या कभी-कभी समय पूर्व भी चुनाव होते हैं। चुनावों में जिस पार्टी को बहुमत मिलता है, वह अपने नेता का चयन करती है, और उसे केंद्र मे राष्ट्रपति के द्वारा अथवा प्रदेश में राज्यपाल के द्वारा सरकार बनाने का न्यौता मिलता है। पार्टी नेता का चुनाव सामान्यत: निर्वाचित प्रतिनिधियों के बीच में से होता है, यद्यपि इसके अपवाद भी देखे गए हैं। पार्टी नेतृत्व की भूमिका यहां निर्णायक भी हो सकती है। हमने यह शासन प्रणाली ग्रेट ब्रिटेन से ली है, क्योंकि हमारे संविधान निर्माताओं को यह व्यवस्था अपने देश की राजनीतिक परिस्थितियों के ज्यादा अनुकूल लगी। इसके बरक्स अमेरिका में राष्ट्रपति शासन प्रणाली है, तथा अन्य अनेक देशों में इन दोनों के मेल से बनी अपनी विशेष पध्दतियां भी हैं। 

भारतीय राजनीति में एक ऐसा तबका है, जो पिछले तीन-चार दशक से यहां राष्ट्रपति शासन प्रणाली लागू करने की मांग करते रहा है। इसकी एक वजह तो यह हो सकती है कि देश के भीतर एक वर्ग विशेष को अमेरिका शुरु से ही बहुत प्रिय रहा है। यह वर्ग अमेरिका को स्वर्ग मानता है और वहां की एक-एक वस्तु को अमृत फल। इस शक्तिसंपन्न और मुखर वर्ग की सोच के चलते हमने अपने दैनंदिन जीवन व्यवहार में अमेरिका से बहुत कुछ ग्रहण कर लिया है। यह स्थिति निजी स्तर पर अथवा एक छोटे स्तर पर तो स्वीकार हो सकती है, लेकिन जब किसी विचार या व्यवस्था को राष्ट्रीय स्तर पर लागू करने की बात उठे तो उसमें बहुत ज्यादा सावधानी बरतने की जरूरत पड़ना स्वाभाविक है। 

राजनीति के अध्येताओं को स्मरण होगा कि कांग्रेस के एक प्रखर नेता वसंत साठे ने सत्तर के दशक में पहले-पहल राष्ट्रपति शासन प्रणाली की वकालत की थी। वे चूंकि प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के करीबी माने जाते थे इसलिए एक शंका यह भी उठी थी कि कहीं स्वयं इंदिराजी तो ऐसा नहीं चाहतीं। लेकिन आगे चलकर स्पष्ट हुआ कि साठेजी ने अपने ही कारणों से यह मुद्दा उठाया था। वे इसके लिए लगातार एक आंदोलन जैसा छेड़े रहे! किंतु इसमें उन्हें पार्टी के भीतर ही समर्थन प्राप्त नहीं हुआ और उस समय बात खत्म हो गई। इसके बाद भी देश में जब कभी चुनाव सुधार की बात उठी, उसके साथ अनिवार्य रूप से संसदीय बनाम राष्ट्रपति प्रणाली का मुद्दा भी उठा। इसे भी न तो आम जनता ने गंभीरता से लिया और न राजनीतिक दलों ने। यद्यपि चुनाव सुधार के अन्य बहुत से बिंदुओं पर यथोचित निर्णय लिए गए।

2014 के आम चुनाव के पहले एक बार फिर देश में राष्ट्रपति शासन प्रणाली लागू करने की कोशिश की जा रही है, प्रत्यक्ष नहीं तो प्रच्छन्न ही सही। इस उद्यम की पहल भाजपा के एक वर्ग ने की है और इसमें उसे उद्योग जगत, मीडिया तथा कथित विचार समूहों या थिंक टैंक्स के एक हिस्से का समर्थन मिल रहा है। लगभग दो साल पहले इस अभियान की शुरुआत हुई, अब धीरे-धीरे उसकी तस्वीर जनता के सामने खुल रही है। कहने की आवश्यकता नहीं है कि यह समूचा अभियान गुजरात के विवादास्पद मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को केंद्र में रखकर संचालित किया जा रहा है। इसमें पहली बार यह अनुमान भी हो रहा है कि जो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पिछले 50 साल से भाजपा की राजनीति को संचालित करते आया है, वह भी एक व्यक्ति के सामने कमजोर पड़ गया है। जिस संगठन में एकचालकानुवर्ती का सिध्दांत सर्वोपरि हो, जिसकी अवज्ञा अटल बिहारी वाजपेयी जैसा लोकप्रिय नेता भी न कर पाया हो, जिसके सामने लालकृष्ण आडवानी की न चली हो, वह संगठन आज सत्ता का एक समानांतर केंद्र स्थापित करने के लिए तत्पर हो जाए, इसके पीछे कौन सी रणनीति या कौन सी विवशता है, कह पाना मुश्किल है।

बहरहाल, भाजपा ने भले ही औपचारिक घोषणा न की हो, लेकिन नरेन्द्र मोदी अभी से ऐसा आचरण कर रहे हैं, मानो वे देश के अगले प्रधानमंत्री हों। उनकी इस छवि को गढ़ने में कार्पोरेट पूंजी से प्रायोजित एक सशक्त प्रचारतंत्र लगा हुआ है। बार-बार भाजपा से नरेन्द्र मोदी तो कांग्रेस से कौन का सवाल सधे हुए ढंग से उछाला जा रहा है। मोदी पक्ष ने अपने आप ही यह तय कर लिया है कि उसका मुकाबला कांग्रेस के राहुल गांधी से है और उन्हें बार-बार सामने आने के लिए उकसाया व ललकारा जा रहा है। मोदी खेमा मानकर चल रहा है कि उसके जबरदस्त प्रचार के आगे बाकी सारी बातें बेमानी हो जाएंगी। लेकिन हकीकत क्या है, भाजपा के परिपक्व नेतागण इसे जानते हैं। 

अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव में टीवी पर होने वाली बहसें अपना महत्व रखती हैं, लेकिन वह स्थिति भारत में नहींहै। 543 सीटों पर चुनाव होंगे और सरकार उसी की बनेगी, जिसके पास बहुमत याने कम से कम 272 सीटें होंगी। क्या नरेन्द्र मोदी को आगे करके भाजपा इतनी सीटें ला पाएगी? यह एक असंभव सी कल्पना है। क्या भाजपा सबसे बड़े दल के रूप में उभरेगी, यह भी आज दूर की कौड़ी लगती है। भाजपा को गठबंधन के सहयोगी कहां से मिलेंगे? भाजपा में जब संसदीय दल का नेता चुनने का अवसर आएगा, क्या उस समय भी सुषमा स्वराज, राजनाथ सिंह, अरुण जेटली, शिवराज सिंह चौहान इत्यादि नेता चुपचाप बैठे रहेंगे?

इसके अलावा मोदी खेमा यह क्यों मान बैठा है कि राहुल गांधी ही कांग्रेस के प्रत्याशी होंगे? 2004 और 2009 दोनों अवसरों पर कांग्रेस की सबसे बड़ी नेता सोनिया गांधी प्रधानमंत्री नहीं बनीं। राहुल गांधी ने तो मंत्री बनना भी स्वीकार नहींकिया। कैसे मान लें कि वे प्रधानमंत्री पद के दावेदार हैं ! इसलिए कम से कम आज राहुल गांधी को नरेन्द्र मोदी से बहस में उलझने की कोई जरूरत नहींहै। दूसरी ओर कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह ने खुली चुनौती दी है कि उनका पद और अनुभव श्री मोदी के समकक्ष है, और वे उनसे बहस करने तैयार हैं। नरेन्द्र मोदी को श्री सिंह की यह चुनौती स्वीकार करने का साहस दिखाना चाहिए।  

देशबंधु में 25 जुलाई 2013 को प्रकाशित 

Thursday 18 July 2013

जातिसूचक रैलियों पर प्रतिबंध




भारत की जातीय व्यवस्था अति प्राचीन एवं जटिलताओं से भरपूर एक सामाजिक संस्था है, जिसे समझने व जिसका निर्मूलन करने के लिए लंबे समय से प्रयत्न चल रहे हैं। लेकिन आज तक न तो देश की संसदीय राजनीति इसका कोई माकूल समाधान खोज पाई  है और न उदारचेता, प्रगतिकामी समाज सुधारकों के प्रयत्न पूरी तरह से सफल हो सके हैं। स्वाधीन देश के संविधान में इस दिशा में जो प्रावधान किए गए हैं, तथा जिनके आधार पर न्यायपालिका समय-समय पर हस्तक्षेप करती है, वे भी वस्तुस्थिति को देखते हुए नाकाफी ही कहे जाएंगे।

उत्तरप्रदेश उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ ने पिछले सप्ताह जातिसूचक रैलियों पर प्रतिबंध लगाने का जो आदेश जारी किया है, उसे इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए। अदालत के निर्णय का मोटे तौर पर पूरे देश में स्वागत हुआ है। अनेक राजनीतिक दलों ने भी बुझे मन से ही सही इस आदेश का पालन करने के प्रति सहमति जतलाई है। बसपा की सर्वोच्च नेता मायावती ही एकमात्र प्रमुख राजनेता हैं, जिन्होंने खुलकर इस पर अपनी असहमति दर्ज की है। मीडिया भी इस निर्णय से खासा प्रसन्न नजर आता है। टीवी सूत्रधारों के उध्दत नायक अर्णब गोस्वामी ने तो यहां तक कह दिया कि इक्कीसवींसदी में यह सब नहीं चलेगा। जाति व्यवस्था टूट जाए, बिखर जाए, एक नई सामाजिक व्यवस्था इसका स्थान ले, ये सारे विचार कर्णप्रिय हो सकते हैं, लेकिन क्या हाईकोर्ट के फैसले के बाद स्थितियां सचमुच बदल जाएंगी?

यह देखना कठिन नहीं है कि जाति के प्रश्न पर देश दो धड़ों में बंटा हुआ है। आज चूंकि देश का संविधान जाति के आधार पर भेदभाव की इजाज़त नहीं देता, इसलिए उसे खत्म करने या उसके अप्रासंगिक हो जाने की बात जो लोग करते हैं, वे एक तरह से अपना मन बहलाव ही करते हैं। यह सच है कि आज के समय में बहुतेरे नवयुवा जातिबंधन के परे जाकर प्रेमविवाह करते हैं, लेकिन इनका प्रतिशत कितना है? दूसरी तरफ अखबारों में जो वैवाहिक विज्ञापन छपते हैं, उनमें अन्य अहर्ताओं के साथ जाति की अनिवार्यता अथवा जाति का उल्लेख जिस प्रमुखता के साथ किया जाता है, वह क्या दर्शाता है? आईआईटी और आईआईएम से पढ़कर निकलने वाले बच्चे भी अपनी रूढ़िवादी मानसिकता के चलते स्वयं को जातिवाद से मुक्त नहींकर पाते हैं। सच तो यह है कि जो लोग जाति प्रथा अप्रासंगिक हो जाने की बात करते हैं, वे तथाकथित निचली जातियों के राजनीतिक या आर्थिक सशक्तिकरण से घबराए हुए लोग हैं। 

देश के बड़े-बड़े शिक्षा संस्थानों में जहां आरक्षण के कारण दलित, आदिवासी और पिछड़े समुदायों के बच्चों को प्रवेश मिल जाता है, वहां आए दिन उनके साथ उच्च वर्ण के विद्यार्थियों द्वारा जो दुर्व्यवहार और उत्पीड़न किया जाता है, वह एक कड़वी सच्चाई है। यही स्थिति सरकारी दफ्तरों में भी है। निजी क्षेत्र की बात करें तो वहां सरकार की मंशा और अनुरोधों के बावजूद इनके लिए कोई व्यवस्था अभी तक नहींबनने दी गई है। इस पृष्ठभूमि में हाईकोर्ट का यह फैसला समस्या के सिर्फ एक पहलू का संज्ञान लेता है, उससे जुड़े बाकी आयामों का नहीं। 

यह ठीक है कि चुनाव के समय या वैसे भी जनतांत्रिक राजनीति में जातिवाद को प्रश्रय नहींदिया जाना चाहिए। लेकिन क्या सिर्फ रैलियों पर प्रतिबंध लगने से जातिवाद समाप्त हो जाएगा? अगर अदालत के फैसले को व्यापक धरातल पर देखें तो धर्म, भाषा, प्रांत आदि तमाम पहचानों को सूचित करने वाले रैलियां प्रतिबंधित होना चाहिए। फिर रैलियां ही क्यों, सम्मेलन, संगोष्ठियों आदि पर भी प्रतिबंध क्यों न लगे? जब किसी भाषा विशेष को क्लासिक भाषा का दर्जा दिया जाता है या जब राजनेता धार्मिक अनुष्ठानों में भाग लेते हैं, तब भी क्या अदालत की मंशा की अवहेलना नहीं होती? फिर चुनावों के समय जातीय समीकरणों के आधार पर टिकिट भी क्यों दिए जाते हैं? 

हमारे ध्यान में आता है कि स्वतंत्रता के बाद राजनीति में वंचितों व हाशिए के लोगों की हिस्सेदारी धीरे-धीरे कर के बढ़ी है। उनके भीतर संविधान से मिली नई ताकत का एहसास धीरे-धीरे बढ़ रहा है। वे चूंकि संख्याबल में अधिक हैं, इसलिए स्वाभाविक तौर पर राजनीति में उनकी भूमिका आने वाले दिनों में और भी बढ़ेगी। उनके राजनीतिक विवेक व कौशल का विकास जैसे-जैसे होगा, वैसे-वैसे उनकी राजनीतिक निर्णय लेने की क्षमता का भी विकास होगा। भविष्य की यह तस्वीर उन लोगों के दिलों में खौफ पैदा करती है, जिन्हें इस प्रक्रिया में अपने वर्ग के हाशिए पर चले जाने की आशंका सताती रहती है। लेकिन यह आशंका किसी हद तक निर्मूल है। अगर समाज के सभी वर्ग बराबरी से सशक्त हैं तो वे अपनी-अपनी क्षमता के अनुरूप देश की राजनीति में सकारात्मक भूमिका निभा सकते हैं।

सुश्री मायावती ने अदालती फैसले पर अपनी प्रतिक्रिया में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ व विश्व हिन्दू परिषद् आदि को प्रतिबंधित करने की मांग की है। यह तस्वीर का दूसरा पहलू है। आज देश के जनतांत्रिक ढांचे को जातिवाद के मुकाबले सांप्रदायिकता से कहींज्यादा खतरा है, जिसकी ओर मायावतीजी ने सही इशारा किया है। जब भाजपा नरेन्द्र मोदी की ताजपोशी के लिए उतावली नजर आ रही है, तब देश की अदालतों को टोपी, बुर्का, पिल्ला जैसे अर्थप्रगल्भ वचनों की भी अनदेखी नहींकरना चाहिए। अदालत पूछे या न पूछे जनता को यह भी पूछना चाहिए कि हत्याकांड के आरोपी राजनेता को उत्तरप्रदेश का प्रभारी नियुक्त कर राम मंदिर बनाने की पुर्नघोषणा करने से क्या देश के संविधान का सम्मान होता है। 

देशबंधु में 18 जुलाई 2013 को प्रकाशित 

Wednesday 10 July 2013

फर्जी मुठभेड़ : खतरनाक प्रवृत्ति

इशरत जहां हत्याकांड में जिस तरह की बयानबाजी अनथक चल रही है, वह व्यथित और परेशान करने वाली है। कांग्रेस और भाजपा दोनों एक-दूसरे को नीचा दिखाने की होड़ में लगे हुए हैं। दरअसल इन दिनों ऐसा कुछ माहौल बन गया है कि कोई भी मामला क्यों न हो, छोटा या बड़ा, जरा सी गुंजाइश दिखते साथ दोनों दल आरोप-प्रत्यारोप में उलझ पड़ते हैं और ऐसा करते हुए राजनीतिक मर्यादाओं को पूरी तरह से भुला देते हैं। उत्तराखंड की त्रासदी में भी यही हुआ, महाबोधि मंदिर में हुए आतंकी विस्फोटों पर भी और मध्यप्रदेश के वित्त मंत्री राघवजी के सीडी प्रकरण में भी। लोकसभा चुनाव के पहले चार राज्यों मेंविधानसभाओं के चुनाव होने हैं, जहां कांग्रेस और भाजपा ही एक-दूसरे के आमने-सामने हैं तथा दोनों को शायद यह लगता है कि ऐसी बयानबाजी करके चुनाव जीते जा सकते हैं। वे इस सच्चाई को भूल जाते हैं कि भारत का मतदाता इस तरह के झांसों में नहीं आता। 

बहरहाल यह प्रकरण कुछ बुनियादी सवालों की ओर हमारा ध्यान खींचता है। भाजपा की ओर से अथवा मोदी सरकार के समर्थन में जो वक्तव्य दिए गए हैं, उनसे भी कुछ सवाल उपजते हैं। भारतीय जनता पार्टी की एक मुखर प्रवक्ता मीनाक्षी लेखी ने इशरत जहां के चरित्र पर जो टीका की, उससे पता चलता है कि भारतीय जनता पार्टी आज भी पुरुष सत्तात्मकता में ही विश्वास रखती है। यूं तो इस पार्टी ने राजनीति में महिलाओं को आगे आने के बहुत मौके दिए हैं, इसके बावजूद उसे अभी भी स्त्री की स्वतंत्र हैसियत कुबूल नहींहै। भाजपा हमेशा मातृ शक्ति का उद्धोष करती है व औरत को मां, पत्नी या बहन से अलग रूप में देखने के लिए मानसिक रूप से तैयार नहींहै। जो बात निर्भया कांड के बाद कथित संत आसाराम बापू ने कही थी, कुछ वैसी ही बात सुश्री लेखी ने भी की। इस देश के अनुदार, रूढ़िवादी सामाजिक ढांचे में जिनका मानसिक विकास हुआ है, उन्हें भाजपा प्रवक्ता की टिप्पणी से शायद कोई ऐतराज न हो, लेकिन शेष समाज इससे सहमत नहीं होगा।  

 मोदी सरकार के पैरोकार बार-बार इशरत जहां के आतंकवादी संगठनों से तार जुड़े होने की बात उठा रहे हैं। इस बारे में अपनी सीमित जानकारी के कारण मैं कोई पक्ष लेने में असमर्थ हूं, लेकिन किसी व्यक्ति के आतंकवादी होने के आधार पर क्या उसे फर्जी मुठभेड़ में मारा जा सकता है, यह एक चिंताजनक प्रश्न है। पाठकों को याद दिलाने की जरूरत नहींहै कि मुंबई आतंकी हमले के एकमात्र जीवित अपराधी अजमल कसाब को भी फांसी पर चढ़ाने के पहले इस देश की न्यायिक प्रक्रिया का पालन करने में किसी किस्म की कोताही नहींबरती गई। ऐसे लोग कम नहीं थे, जो कसाब को सरेआम चौराहे पर तुरंत फांसी पर लटका देने के पक्ष में थे। इसके बाद जेल में उसे कानूनन जो भी सुविधाएं दी गईं, उन पर भी बहुत बड़े वर्ग ने ऐतराज जताया था। कसाब की पैरवी करने के लिए जब वकील तैयार नहींथे, तब न्यायालय के आदेश से उसे वकील मुहैया कराया गया। यह सब करने की जरूरत इसलिए पड़ी क्योंकि भारत एक सभ्य देश है और विधि-विधान में विश्वास रखता है। निस्संदेह ऐसे अवसरों पर सरकार को आलोचनाओं का सामना करना पड़ता है, लेकिन इस वजह से किसी भी सरकार को अपनी वैधानिक भूमिका से विचलित नहींहोना चाहिए। कसाब के बाद अफजल गुरु को भी फांसी दी गई। उसमें सरकार ने परिवार के लोगों को समय रहते सूचना न देकर अपनी जिम्मेदारी पूरी तरह नहीं निभाई,  इसके लिए भी उसे आलोचना सुनना पड़ी।  

देश में अपराधियों को मुठभेड़ में मार गिराने का चलन नया नहीं है। मुझे ध्यान आता है कि आज से 40 साल पहले दिल्ली-उत्तरप्रदेश की सीमा पर शायद यमुना के किसी पुल पर एक कुख्यात अपराधी को दिल्ली पुलिस ने फर्जी मुठभेड़ में मार गिराया था। उस समय वह शायद इस तरह का पहला प्रसंग था और इसके कारण दिल्ली पुलिस को कोई वाहवाही नहींमिली थी, उल्टे सारे राजनीतिक दलों ने इस अवैधानिक कृत्य की आलोचना ही की थी। दुर्भाग्य से यह सिलसिला वहीं खत्म नहीं हुआ, बाद के बरसों में महाराष्ट्र में खासकर मुंबई में तस्करी, हत्या आदि अपराधों में लिप्त अपराधियों को एनकाउंटर में मारने का चलन प्रारंभ हुआ और यहां तक बढ़ा कि कुछ पुलिस कर्मी एनकाउंटर स्पेशलिस्ट के विशेषण से विभूषित होने लगे। इनमें से कुछेक का महिमामंडन इस सीमा तक हुआ कि उन पर फिल्में बनने लगीं तथा बालीवुड के महानायकों ने इन्हें पुरस्कृत भी किया। एक दुर्दांत अपराधी के खात्मे से शांतिप्रिय समाज कुछ समय के लिए राहत महसूस कर सकता है, लेकिन यह प्रवृत्ति अपनी परिणति में समाज के लिए किस तरह घातक हो सकती है, यह मीमांसा की जाना अभी बाकी है।

लड़ाई के मोर्चे पर सैनिक आमने-सामने एक-दूसरे को मारते हैं, कुछ उसी तरह अपराधी व पुलिस के बीच यदि आमने-सामने मुठभेड़ हो और पुलिस अपराधी को मार गिराए तो वह उचित और स्वाभाविक है, लेकिन जब पुलिस न्यायप्रक्रिया को नजरअंदाज कर कानून अपने हाथ में ले ले तो ऐसा पुलिस अधिकारी स्वयं अपने को अपराधी के सांचे मेंढाल लेता है। एक फर्जी मुठभेड़ को सही सिध्द करने के लिए उसे कितने सारे प्रपंच रचना पड़ते हैं, झूठी गवाहियां, झूठे साक्ष्य, बनावटी घटनास्थल, नकली सच आदि। ऐसा एनकाउंटर कोई एक व्यक्ति तो करता नहींहै, इसलिए एक झूठ को सच बनाने में न्यायतंत्र की बहुत सारी कड़ियां एक-दूसरे के बचाव में जुड़ जाती हैं। इसका अर्थ यह होता है कि एक फर्जी एनकाउंटर, एक समांतर न्यायतंत्र का निरर््माण करने लगता है। यहां पंजाब में आतंकवाद के दौर में की गई फर्जी मुठभेड़ों के हाल में हुए खुलासों का संज्ञान लेना उचित होगा।

जो पुलिस अधिकारी फर्जी मुठभेड़ में अपराधियों को मार गिराते हैं, उन्हें अपने अपराधी होने का एहसास हमेशा बना रहता है और वे फिर कानून-व्यवस्था का पालन करने में जिस समर्पण के साथ काम करना चाहिए, आगे वैसा नहींकर पाते। उन्हें हर वक्त अपने बचाव की चिंता रहती है और ऐसे में वे अपने वरिष्ठ अधिकारियों यहां तक कि अपराधियों के दूसरे गिरोहों के द्वारा भी ब्लैकमेल किए जा सकते हैं। इशरत जहां मामले में निष्पक्ष रूप से विचार करने पर समझ आता है कि फर्जी मुठभेड़ में उसको मारना एक अपराध ही था, जिसे अंजाम देने में संलिप्त पुलिसकर्मियों ने अपने विवेक को खो दिया था। वह आतंकवादी थी या नहीं, यह एक अलग मुद्दा है। इन दोनों बातों में घालमेल करेंगे तो सही निष्कर्ष तक नहींपहुंच पाएंगे।
देशबन्धु में 11जुलाई 2013 को प्रकाशित

Wednesday 3 July 2013

स्नोडन : अपराधी नहीं, विश्व नागरिक



एडवर्ड स्नोडन को मास्को विमानतल के ट्रांजिट एरिया में रहते हुए ग्यारह दिन बीत चुके हैं। अमेरिका ने उसका पासपोर्ट रद्द कर दिया है, और आज वह किसी भी देश का वैधानिक तौर पर नागरिक नहीं है। वह अमेरिका तो खैर वापिस जा ही नहीं सकता। जब तक कोई अन्य देश उसे अपने यहां शरण न दे दे। वह इस विशाल पृथ्वी पर एक अनागरिक बन कर ही जी सकता है। सवाल उठता है कि एक विमानतल की बंद इमारत के भीतर वह कब तक रह पाएगा। उसकी हालत फिलहाल विकिलीक्स के संस्थापक जूलियन असांजे के तरह है, जो पिछले एक साल से लंदन में इक्वाडोर के दूतावास में शरण लिए हुए है। उस छोटे से मुल्क के दूतावास के सामने समस्या है कि असांजे को राजनीतिक शरण तो दे दी है, दूतावास से निकालकर उसे इक्वाडोर कैसे ले जाया जाए, क्योंकि इक्वाडोर की प्रभुसत्ता दूतावास के दरवाजे के भीतर ही है। दूतावास की चौखट पार करते ही ब्रिटिश पुलिस उसे गिरफ्तार कर लेगी।

यही समस्या एडवर्ड स्नोडन की भी है। चूंकि इक्वाडोर ने उसे हांगकांग से मास्को जाने के लिए अपने देश का अस्थायी यात्रा पत्र मुहैया करवा दिया था इसलिए वह मास्को पहुंच सका अन्यथा हांगकांग में ही उसे गिरफ्तार या अगवा किया जा सकता था। अब स्थिति विकट है। अभी तो विश्व के मीडिया की निगाहें उस पर लगी हुई हैं। उसकी खोज खबर मीडिया को प्रतिदिन मिल जाती है, लेकिन ऐसा कब तक चलेगा। हो सकता है कि हफ्ते दो हफ्ते बीतते न बीतते मीडिया का ध्यान इस चर्चित व्यक्ति से हट जाए, संभव है कि उसके बाद ही रूस या अन्य किसी देश की सरकार उसे शरण देने के बारे में सोचे। वैसे बताया जा रहा है कि विमानतल पर भी रूसी पुलिस उसकी सुरक्षा कर रही है। इस बीच में स्नोडन ने दुनिया के इक्कीस देशों से राजनैतिक शरण पाने के लिए आवेदन किया। इनमें से अभी तक किसी ने भी उसे सकारात्मक जवाब नहीं दिया है। ऐसे में एक कल्पना मन में उभरती है कि एडवर्ड स्नोडन का हाल कहीं उस व्यक्ति की तरह तो नहीं होगा जिसने किसी एयरपोर्ट को ही तीस-पैंतीस साल के लिए अपना घर बना लिया था।

स्नोडन ने जिन इक्कीस देशों को शरण देने हेतु आवेदन किया था, उनमें भारत भी एक था। हमारे देश में राजनीतिक शरण देने की बहुत पुरानी परंपरा रही है जिसका सबसे ज्वलंत उदाहरण दलाईलामा के रूप में सामने है। श्रीलंका, बर्मा, नेपाल, बंगलादेश, पाकिस्तान, अफगानिस्तान आदि के राजनेताओं को भी भारत ने समय-समय पर पूरे सम्मान और सुरक्षा के साथ शरण दी है। इसका श्रेय पंडित नेहरू द्वारा स्थापित उदार जनतांत्रिक परंपराओं को दिया जाना चाहिए, यद्यपि उसकी जड़ें भारतीय इतिहास की उदारवादी परंपरा में खोजी जा सकती है। भारत ही दुनिया का अकेला देश है जहां यहूदियों को प्रताड़ना के बदले सम्मान मिला। पारसियों को भी जब इरान छोड़ना पड़ा तब भारत ही उनका घर बना।

इस इतिहास को देखते हुए यह अजीब लगता है कि भारत ने एडवर्ड स्नोडन की शरण याचिका ठुकराने में ज़रा  भी देर नहीं की। 2 जुलाई को उसका आवेदन मिला और दो-चार घंटे के भीतर ही उसे खारिज कर दिया गया। विदेश मंत्री सलमान खुर्शीद ने तो यहां तक कह दिया कि भारत ऐसी जगह नहीं है जहां हर कोई मुंह उठाए चला आए। तकनीकी रूप से देखें तो स्नोडन को राजनीतिक शरणार्थी शायद नहीं माना जा सकता। वह कोई राजनीतिक कार्यकर्ता नहीं है। इसके विपरीत वह अमेरिकी सुरक्षातंत्र का एक छोटा कर्मचारी था जिसने अपने देश के कानून को और अपनी सेवा शर्तों को जाहिरा तौर पर तोड़ा जिसके कारण वह अपने आप मुलजिम की श्रेणी में आ जाता है, लेकिन क्या सिर्फ इसी बिना पर भारत ने उसे शरण देने से इंकार किया या इसके पीछे कोई और कारण हैं।

यह सबको पता है कि पिछले पच्चीस साल से भारत लगातार अमेरिकापरस्ती कर रहा है। आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक, शैक्षणिक, लगभग हर मोर्चे पर भारत की राजसत्ता अमेरिका की समर्थक और ताबेदार बन गई है। पी.वी. नरसिंह राव, अटलबिहारी वाजपेयी, मनमोहन सिंह- प्रधानमंत्री कोई भी हो, अमेरिका का अनुसरण करने में ही सबको अपनी भलाई नज़र आती है। आज भले ही इंदिरा गांधी की पार्टी देश पर राज कर रही हो, लेकिन इंदिराजी की स्वतंत्र विदेश नीति को हमने पूरी तरह तिलांजलि दे दी है। इसीलिए भारत के विदेश मंत्री को इस कड़वी सच्चाई से भी कोई तकलीफ नहीं हुई कि अमेरिका प्रमुख रूप से जिन पैंतीस देशों की साइबर जासूसी कर रहा है, उसमें भारत का स्थान पांचवें नंबर पर है। खुर्शीदजी ने इस बात को बहुत हल्के में टाल दिया कि अमेरिका छानबीन कर रहा है, जासूसी नहीं। ऐसा कह कर वे अपने आपको समझा सकते हैं, लेकिन जनता को नहीं।

हमारा ध्यान इस तथ्य पर जाता है कि उपरोक्त पैंतीस देशों में यूरोपीय संघ के अनेक देश जैसे इटली, फ्रांस व जर्मनी शामिल हैं। ये देश जी-8 के सदस्य हैं याने पूंजीवादी जगत के सिरमौर हैं। इनके साथ अमेरिका के गहरे राजनीतिक व आर्थिक ताल्लुकात हैं। यूरोपीय संघ अपने आप में भी अमेरिका का मित्र है। अमेरिका दुनिया में अपनी स्वार्थपूर्ति के लिए जब भी कोई कदम उठाता है, जैसे इराक या अफगानिस्तान पर आक्रमण या ईरान की आर्थिक नाकेबंदी या सीरिया के विद्रोहियों को समर्थन- यूरोपीय संघ के देश मोटे तौर पर उसका साथ ही देते हैं। फिर भी जासूसी के इस कांड का खुलासा होने के बाद अमेरिका के इन मित्र देशों ने उसकी खुलकर आलोचना की है। उनमें से हरेक ने अलग-अलग यही कहा है कि, इससे आपसी दोस्ती को नुकसान पहुंचेगा कि एक दोस्त मुल्क से इस तरह के व्यवहार की कतई अपेक्षा नहीं की जा सकती थी।

जब अमेरिका के निकट मित्र उसकी आलोचना करने में पीछे नहीं हैं तब भारत को अमेरिका की तरफ से सफाई देने या उसके बचाव में उतरने की क्या जरूरत थी? श्री खुर्शीद कम से कम इतना तो कह ही सकते थे कि अभी हम इस मामले की जांच कर रहे हैं। अमेरिका के प्रति ऐसी फौरी वंफादारी व्यक्त करने का परिणाम यह हुआ कि टीवी की बहसों में कांग्रेस के प्रवक्ता बगलें झांकते नज़र आए क्योंकि अमेरिका ने जो किया वह अंतरराष्ट्रीय राजनीति या नैतिकता की दृष्टि से क्षम्य नहीं है। विश्व में इंटरनेट सेवाओं का जो आल-जाल बिछा है उसका केन्द्रीय नियंत्रण अमेरिका में है। जिस तरह से संयुक्त राष्ट्र संघ का मुख्यालय न्यूयार्क में होकर भी वह एक सार्वभौम इकाई है; उसी तरह इंटरनेट कंपनियों के मुख्यालय अमेरिका में होने का मतलब यह नहीं होता कि उनकी हर गतिविधियों को नियंत्रित करें।

यह एक बात है कि इंटरनेट सेवाओं का आविष्कार और विकास मुख्यत: अमेरिका की सशस्त्र सेवाओं के उपयोग के लिए हुआ था, लेकिन समय के साथ-साथ उन सेवाओं का अभूतपूर्व ढंग से विस्तार हुआ और गैर-सैनिक प्रयोजनों के लिए इन सेवाओं का इस्तेमाल पूरी दुनिया के नागरिक एक निजी माध्यम के रूप में कर रहे हों। उनके लिए ई-मेल, मोबाईल फोन जैसे अभिकरण आधुनिक युग के पोस्टकार्ड या टेलीग्राम की तरह हैं।  उन्हें लेशमात्र भी शंका नहीं होती कि कोई और उनके संदेशों को गुपचुप तरीके से पढ़ रहा है। इस तरह एक  ओर तो अमेरिका गूगल आदि कंपनियों की व्यापारिक स्वायत्तता का अतिक्रमण कर रहा है, तो दूसरी ओर वह एक आम नागरिक की जिंदगी में भी अनाधिकृत घुसपैठ कर रहा है। इसकी निंदा ही की जा सकती है। 
अमेरिका का तर्क हो सकता है कि दुनिया में चल रही आतंकवादी गतिविधियों पर नज़र रखने और समय रहते उसे रोकने की दृष्टि से इस तरह की जासूसी करना अपरिहार्य है। लेकिन यह तर्क एक सीमा के आगे बेमानी हो जाता है। मान लीजिए उसे भारत में किसी संगठन या व्यक्ति पर आतंकवादी होने की शंका है, ऐसे में उसे यह सूचना भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा एजेंसियों के साथ साझा करना चाहिए ताकि भारत इस बारे में जो भी आवश्यक कार्रवाई है, कर सके। आखिरकार अमेरिका और भारत के बीच अथवा अमेरिका और अन्य देशों के बीच इस तरह की जानकारियां साझा करने की व्यवस्थाएं बनी हुई हैं, पर मुद्दे की बात यह है कि अमेरिका अपने को दुनिया का खुद मुख्तार मानता है और अपने अहंकार के चलते किसी की परवाह नही करता। पाकिस्तान पर बिना इजाजत हो रहे ड्रोन हमले इसका प्रमाण है। 

दरअसल अमेरिका को एक तरफ सर्वशक्तिमान होने का मुगालता है तो दूसरी ओर वह हर पल एक भयग्रस्त मानसिकता में जीता है। अभी कल बोलीविया के राष्ट्रपति ईवा मोरालेस जब रूस यात्रा से वापिस लौट रहे थे तो उनके विमान को पूर्व निर्धारित पड़ावों पर नहीं ठहरने दिया गया कि कहीं विमान में उनके साथ स्नोडन तो नहीं है। इसी तरह रूस यात्रा से लौट रहे वेनेजुएला के राष्ट्रपति मडेरो के विमान में भी स्नोडन के छिपे होने की आशंका जाहिर की गई। इससे पता चलता है कि अमेरिका किस तरह से अपने काल्पनिक शत्रु खड़े करता है। बहरहाल, एडवर्ड स्नोडन के बारे में मैं दो बातें कहना चाहूंगा- एक तो अमेरिका से बाहर निकलने के बाद उसे पहले कहीं राजनीतिक शरण मांगना चाहिए थी। एक बार शरण मिल जाती तो अमेरिकी करतूतों का खुलासा बाद में होते रहता। दूसरे, अब रूस या अन्य किसी देश को उसे मानवीय आधार पर शरण दे देना चाहिए। उसने जो किया वह अमेरिका की नजर में अपराध हो सकता है, लेकिन वास्तव में उसने एक जिम्मेदार विश्व नागरिक होने का रोल अदा किया है।

देशबंधु में 4 जुलाई 2013 को प्रकाशित 

Monday 1 July 2013

उत्तराखंड: भविष्य के सवाल



उत्तराखंड ने जून 2013 में अभूतपूर्व विनाशलीला देखी और भुगती है। यह तो निश्चित है कि विपत्ति के दौर से गुजर चुकने के बाद प्रदेश का नवनिर्माण होगा। मनुष्य की फितरत ही ऐसी है कि वह कभी हार नहीं मानता, लेकिन भविष्य की मंजिल पर पहला कदम रखने के इस पल प्रदेश को बहुत से अनसुलझे सवालों का जवाब ढूंढने के लिए मानसिक तैयारी कर लेना चाहिए।  ''मेरा दागिस्तान''  में रसूल हमजातोव ने लगभग इन शब्दों में लिखा था- ''हमारे पहाड़ों में ऐसी प्रथा है कि बाहर जाते समय घुड़सवार गांव की सीमा तक घोड़े की रास हाथ में थामे पैदल चलता है ताकि अगर यात्रा की तैयारी में कोई कमी रह गई हो, कोई सामान छूट गया हो, घरवालों से कोई बात कहना भूल गया हो तो वह याद आ जाए।''  उत्तराखंड भी एक नए सफर पर निकल रहा है और इसके लिए तैयारी मुकम्मल होना चाहिए ताकि किसी कमी के कारण यात्रा में रुकावट न आए। पिछले दिनों प्राकृतिक आपदा के दौरान जो सवाल उठे, इनमें से बहुत से तो पहले से उत्तर की तलाश में थे, कुछेक नए सवाल भी खड़े हो गए हैं। इनका सामना करने से ही आगे की यात्रा निरापद और कुशलतापूर्वक हो सकेगी।

सबसे पहले तो यही जानने की कोशिश की जाए कि ये कहर बरपा तो क्यों। इसका आंशिक उत्तर हमें दक्षिण के समुद्र तट पर 2004 में आई सुनामी के कारणों में भी मिल सकता है। उस वक्त यह तथ्य सामने आया था कि मैंग्रोव के जो कुंज समुद्र की तूफानी लहरों से तट की रक्षा किया करते थे उनको बेरहमी से काट दिया गया था ताकि ऐन समुद्र की छाती पर विलासी पर्यटकों के लिए सुविधाओं का निर्माण किया जा सके। महासागर के साथ जो मर्यादापूर्ण आचरण करना चाहिए था वह लोभी मनुष्य ने नहीं किया। गुजरात के भूकम्प में भी यह देखने मिला था कि ऊंची अट्टालिकाओं के निर्माण में तकनीकी और पारिस्थितिकी मानकों की अवहेलना की गई। इसके बाद भी हम नहीं सुधरे। आज भी मुंबई  समुद्र तट स्थित नमक के खेतों पर भूमाफिया की गिध्द निगाहें लगी हुई हैं। उत्तराखंड ने भी देश में अन्यत्र हुई प्राकृतिक विपदाओं से अब तक कोई सबक नहीं लिया, लेकिन क्या आगे भी यही चलते रहेगा?

यह बात सामने आई है कि उत्तराखंड में धार्मिक पर्यटन को जमकर बढ़ावा दिया गया। हमें पता था कि आदि शंकर ने भारत में चार धाम स्थापित किए थे- बद्रीनाथ, जगन्नाथपुरी, द्वारिका और दक्षिण में शृंगेरी। पिछले सौ एक सालों में जिस तरह से अनेक स्वयंभू शंकराचार्य प्रकट हो गए, उसी तरह उत्तराखंड में ही चार धाम का प्रचार हो गया; गंगोत्री, यमुनोत्री व केदारनाथ का अपना महत्व था, लेकिन उनकी गिनती चार मूलधामों में नहीं थी। कुछ पर्यटन को बढावा देने के लिए, कुछ पंडे-पुरोहितों को प्रसन्न करने के लिए इनका प्रचार किया गया, वैसे ही जैसे छत्तीसगढ़ के राजिम में पांचवां कुंभ भरने लगा। जाहिर है कि यात्रियों की आवाजाही बढ़ी तो उनके लिए वैसी व्यवस्थाएं भी जुटाना पड़ीं। इन सारे तीर्थ स्थानों पर और रास्ते के पड़ावों पर अंधाधुंध तरीके से होटल इत्यादि खुलने लगे, लेकिन आजकल के फैशनेबल तीर्थयात्रियों के लिए इतना पर्याप्त नहीं था।

पुराने समय के तीर्थयात्री ऋषिकेश से हनुमानचट्टी, गरुड़चट्टी आदि पड़ावों को पार करते हुए पैदल बद्रीनाथ जाते थे या फिर पहाड़ी खच्चरों का सहारा लेते थे। इसमें न तो चौड़ी सड़कों की आवश्यकता होती थी और न वाहनों का प्रदूषण फैलता था; यात्री भी भक्तिभाव में गहरे रम कर इस पथ पर जाते थे। उन्हें पांच सितारा होटलों की भी जरूरत नहीं पड़ती थी। लेकिन पिछले पचास साल में शनै: शनै: परस्थिति बदल गई। मैंने 2005 में इस अंचल की यात्रा से लौटकर लिखा था कि ऋषिकेश से बद्रीनाथ के बीच सेना व आवश्यक सामग्री के परिवहन के अलावा मोटर यातायात पूरी तरह बंद कर देना चाहिए। मोटर यातायात से उस इलाके का तापमान लगातार बढ़ रहा था, जिसके चलते वहां की पहाड़ियों पर साल भर जमा रहने वाली बर्फ मई-जून आते-आते पिघलने लगी थी। जाहिर है कि ऐसा सुझाव किसी के काम का नहीं था।

यही नहीं, पिछले दस-पंद्रह सालों में एक नया चलन यह भी आया कि सम्पन्न तीर्थयात्री अपना परलोक सुधारने के लिए हेलीकाप्टर से यात्रा करने लगे। मंदिर न हुआ, वेंडिंग मशीन हो गई। भेंट पूजा चढ़ाई, बटन दबाया और स्वर्ग जाने का सर्टिफिकेट हाथ में आ गया।  बहरहाल, आज जरूरत इस बात की है कि हेलीकाप्टर से तीर्थ यात्रा पूरी तरह से बंद की जाए। तीर्थयात्रियों को पैदल पथ पर चलने के लिए प्रेरित किया जाए। यह पूरी तरह से संभव न हो तो यात्रियों की संख्या को प्रतिबंधित किया जाए। इसके अलावा अब जो भी होटल, दूकान, मकान बनें उनमें तमाम आवश्यक नियम-कायदों का कड़ाई के साथ पालन किया जाए। इसी तरह जो सैलानी औली (जोशी मठ) में स्कीइंग करने आते हैं अथवा फूलों की घाटी जाते हैं, उन्हें भी बेतहाशा बढ़ावा न दिया जाए।

पिछले दिनों बार-बार कहा गया कि कारपोरेट पूंजी द्वारा जो पनबिजली परियोजनाएं निर्मित की जा रही हैं वे भी इस आपदा का एक बड़ा कारण था। यह बात सही है। इस तरह उत्तराखंड में बड़ी पूंजी और छोटी पूंजी दोनों ने अपनी-अपनी ताकत के अनुसार त्रासदी को न्यौता दिया। यहां प्रश्न उठता है कि जिस पनबिजली को अब तक सुरक्षित और पर्यावरण के अनुकूल माना जा रहा था, उसे रोकने के क्या परिणाम होंगे। उत्तराखंड ही नहीं, देश के सारे पर्वतीय प्रदेशों में इन परियोजनाओं को आंख मूंदकर अनुमति पिछले सालों दी गई और इनके प्रायोजकों ने जमकर सरकारी सब्सिडी  लूटी। देश में ऊर्जा की मांग दिनोंदिन जिस तरह बढ़ रही है, उसमें सरकार के पास क्या विकल्प है यह एक विचारणीय प्रश्न है। ताप विद्युत नहीं, जल विद्युत नहीं, परमाणु ऊर्जा नहीं तो फिर देश की बढ़ती हुई जरूरत की पूर्ति कैसे की जाए? इस बारे में वैज्ञानिकों और तकनीकीविदों को गंभीरतापूर्वक विचार करना होगा।

एक अन्य सवाल का सीधा संबंध उत्तराखंड की आर्थिक सेहत से है। उत्तराखण्ड की कमाई का एक प्रमुख स्रोत पर्यटन उद्योग है। पनबिजली संयंत्रों से भी लोगों को रोजगार मिल रहा होगा। अब यदि इन पर किसी भी सीमा तक रोक लगती है तो उसका सीधा असर स्थानीय जनता के जीवनयापन पर पड़ेगा। यह ऐसी विकट समस्या है जिसका हल ढूंढ़ने में बड़े-बड़े अर्थविशेषज्ञों को पसीना आ जाएगा। उत्तराखण्ड के युवक पारंपरिक तौर पर भारत की थलसेना में सेवाएं देते रहे हैं। इसके अलावा इस दुर्गम पहाड़ी प्रदेश में रोजगार के अवसर बहुत कम मिलते हैं। पर्यटन उद्योग से अब तक कुछ न कुछ प्रतिपूर्ति होती रही है लेकिन आने वाले दिनों में क्या तस्वीर बनेगी, यह समझना कठिन है। यूं उत्तराखण्ड के दोनों क्षेत्रों कुमाऊं और गढ़वाल अपनी बौध्दिक प्रखरता के लिए जाने जाते हैं। इस प्रदेश ने देश को नामीगिरामी लेखक, पत्रकार, अध्यापक और अधिकारी दिए हैं। मुझे लगता है कि इन विद्वानों का ध्यान इस आने वाली समस्या की ओर जरूर गया होगा और वे इस पर मंथन कर रहे होंगे!

उत्तराखण्ड के प्राकृतिक परिवेश व पर्यावरण को समुचित रूप से संभालना भी आज की एक  बड़ी चुनौती है। यूं तो हिमालय नगाधिराज है, पर्वतों का पर्वत है, किन्तु पृथ्वी की आयु के अधिमान से हिमालय की पर्वतमालाएं बहुत पुरानी नहीं हैं एवं नाजुक हैं। यहां के हिमखण्डों से प्रवाहित होने वाली नदियां भारत के एक बड़े भू-भाग को सिंचित करती हैं। किंतु पिछले तीन दशक से हम लगातार सुन रहे हैं कि ग्लोबल वार्मिंग के चलते ये हिमखण्ड तेज रफ्तार से पिघल रहे हैं। फिर नदियों पर बनने वाले बांधों से भी पर्यावरण पर प्रतिकूल असर पड़ रहा है। सड़कों-सुरंगों का निर्माण, उनका रखरखाव, भारी वाहनों की आवाजाही, नित नये निर्माण कार्य- ये भी अपना असर डाल ही रहे हैं। इस स्थिति में यह देखना जरूरी है कि प्रदेश के प्राकृतिक परिवेश के साथ छेड़खानी को रोका जाए। प्रकृति से उतना ही लिया जाए जितना वह खुशी-खुशी हमें दे दे तथा उस पर किसी भी तरह का अत्याचार न किया जाए। चंडीप्रसाद भट्ट जैसे अनुभवी विद्वानों की बातों को आज हमें गंभीरता से लेना चाहिए।

उत्तराखण्ड की इस त्रासदी में देश का ध्यान पंद्रह-बीस दिनों तक लगातार तीर्थयात्रियों की ओर लगा रहा। यह स्वाभाविक था। जो भी लोग उत्तराखण्ड के पहाड़ों में आपदा के बीच फंसे थे, उनके सकुशल लौट आने की प्रार्थना और प्रतीक्षा उनके बंधु-बांधव कर रहे थे। राय सरकारों ने भी इसे अपना कर्तव्य माना कि उनके प्रदेश के नागरिक जो मुसीबत में पड़े हों उन्हें तत्काल मदद दी जाए। इस देशव्यापी चिंता के बीच इस तथ्य को लगभग भुला दिया गया कि बाढ़ और बरसात की मार झेलने वालों में उत्तराखण्ड प्रदेश के निवासी भी शामिल थे। केदारनाथ, बद्रीनाथ, गौरीकुण्ड, हरसिल इत्यादि गांवों के निवासियों का क्या हुआ? जो जीवित बचे हैं उनके सामने क्या भविष्य है? स्थानीय टैक्सी ड्राइवर, बोझा ढोने वाले, खच्चरों के मालिक, छोटे-मोटे दूकानदार- इन सबकी ओर भी ध्यान देना जरूरी है, बल्कि उन्हें अपने पुर्नवास के लिए शायद कहीं ज्यादा मदद की दरकार है।

इस अभूतपूर्व विपदा के दौरान जो राजनैतिक खेल हुआ और मीडिया ने जितना रस लेकर बढ़ा-चढ़ा कर उसे पेश किया, वह एक कड़वा स्वाद छोड़ गया। प्रधानमंत्री और सत्तारूढ़ गठबंधन की अध्यक्ष द्वारा हवाई सर्वेक्षण करना जरूरी था, लेकिन इनके अलावा किसी और राजनेता को वहां जाने की कतई जरूरत नहीं थी। छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह ने एक अच्छी मिसाल पेश की कि अपने प्रदेश के नागरिकों की मदद के लिए अधिकारियों की  एक टीम लगा दी और वह अपना काम करती रही। ऐसी समझदारी नरेन्द्र मोदी भी दिखा सकते थे, लेकिन उन्हें तो प्रधानमंत्री बनने की जल्दी है और वे येन-केन-प्रकारेण सिध्द करना चाहते हैं कि देश में उनसे ज्यादा समझदार कोई दूसरा व्यक्ति है ही नहीं। उनके इस अहंकार का ही परिणाम था तक एक दिन में पंद्रह हजार गुजरातियों को सुरक्षित निकाल लेने की अविश्सवनीय कहानी प्रचारित की गई और दूसरे श्री मोदी केदारनाथ मंदिर के पुर्ननिर्माण का टेंडर भरने में रुचि दिखाकर आ गए। जहां एक लाख पीड़ितों को सकुशल बचाने की जद्दोजहद चल रही हो, वहां उस पल उन्हें पत्थर के मंदिर की चिंता हो रही थी।

भारत की थलसेना, वायुसेना व अर्ध्दसैनिक बलों ने संकट के इस दौर में जिस साहस, सूझबूझ, दक्षता व कर्तव्यपरायणता का परिचय दिया वह अपने आपमें एक मिसाल है। इसके लिए हमारे जांबाज सैनिकों की जितनी भी सराहना की जाए, उन्हें जितना भी पुरस्कृत किया जाए, कम है। इसमें हमें इस तथ्य को बराबर स्मरण रखना होगा कि सेना को ऐसी परिस्थितियों का सामना करने के लिए ही प्रशिक्षित किया जाता है। जब अमन चैन वापिस लौट आए तो उनकी भूमिका भी वहीं स्थगित हो जाती है। दूसरे शब्दों में सैन्य बलों से हमें नागरिक प्रशासन संभालने की अवांछित आशा या अपेक्षा नहीं करना चाहिए। दूसरी बात जो देखने में आई कि इस तरह की प्राकृतिक आपदा से निपटने में हमारा प्रशासन तंत्र अपने आपको सक्षम सिध्द नहीं कर पाया। लेकिन यह दुर्दशा किस प्रदेश में नहीं है? एक तो देश-प्रदेश की नौकरशाही का जो हाल-बेहाल है उसे सब जानते हैं, ऐसे मौकों पर वह और खुलकर दिखने लगता है। किन्तु इससे बढ़कर चिंता की बात यह है कि केन्द्र और राज्यों के स्तर पर आपदा प्रबंधन का जो तंत्र विकसित किया गया है वह भी विशेषज्ञों के जिम्मे न होकर रिटायर्ड अफसरों के हवाले छोड़ दिया गया है। इस संबंध में जिस राजनैतिक इच्छाशक्ति का परिचय दिया जाना चाहिए वह हम नहीं दे पाते। यह शोचनीय स्थिति है।

एक चिंताजनक बात जो पिछले दिनों बार-बार सुनने मिली कि उत्तराखंड के स्थानीय निवासियों के एक वर्ग ने मुसीबतजदा  यात्रियों की मदद करने के बजाय उन्हें लूटने में कोई कसर बाकी नहीं रखी। संभव है कि ये खबरें अतिरंजित हों, लेकिन यदि इनमें थोड़ी भी सच्चाई है तो इसके क्या सामाजिक, मनोवैज्ञानिक कारण हो सकते हैं, इसकी विवेचना होना चाहिए।  केदारनाथ मंदिर के पुर्ननिर्माण की बात भी है तो भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ने इसमें अपनी रुचि जाहिर कर दी है। वह ऐसे काम को समर्पित  विशेषज्ञ एजेंसी है। उचित यही होगा कि उसे ही यह काम सौंपा जाए।

देशबंधु में 30 जून 2013 को प्रकाशित