Thursday 24 September 2015

सागौन के फूल और उदास नर्मदा


 हर मौसम की अपनी एक निराली छटा होती है और वह जगह-जगह पर बदल भी जाती है। इंग्लैण्ड में नन्हे-नन्हे पौधों पर खिलने वाले डैफोडिल के चमकीले पीले फूल बसंत ऋतु की अगवानी करते हैं, तो जापान में बसंत के आगमन के साथ चारों ओर चैरी के सफेद फूलों से आकाश का रंग भी हिम धवल हो जाता है। हमारे देश में भी अलग-अलग ऋतुओं में अलग-अलग स्थानों पर प्रकृति की शोभा के अनगिनत रूप देखने मिल जाते हैं। सतपुड़ा के जंगलों में फरवरी-मार्च में पलाश के फूलों से मानो आग सुलग उठती है और जब गर्मी आती है तो जलती हुई चट्टानों पर अमलतास के पीले गुच्छे शीतल छाया कर देते हैं। इन वनों से गुजरने वाली पगडंडियों पर मैं बहुत चला हूं और इनसे गुजरने वाली सड़कों पर न जाने कितने सफर तय किए हैं। अभी कुछ समय पहले बालाघाट-सिवनी होते हुए जबलपुर की यात्रा की तो इस वर्षा ऋतु में सतपुड़ा की छवि देखकर मन एक बार फिर मुदित हो उठा।

मैंने इस बार बालाघाट से लेकर बरगी तक सागौन को जिस तरह से फूलते हुए देखा उससे लगा कि जैसे यह अद्भुत दृश्य मैं पहली बार देख रहा हूं। विशेषकर लखनादौन के आस-पास तो ऐसा नज़ारा  था कि मन हुआ यात्रा यहीं रोक कर नीचे घाटी में फूल रहे सागौन के सफेद फूलों को जी भर कर निहार लूं। ऐसा तो नहीं कि यह दृश्य मैंने पहली बार देखा हो, लेकिन इस नएपन के अहसास का एक कारण यह हो सकता है कि बरसात में सड़क मार्ग से यात्रा करने के अवसर कम ही आते हैं। न जाने कब कहां किस रपटे के ऊपर से बरसाती झरने का पानी बह रहा हो और आगे जाना संभव न हो! या फिर बरसात में सड़क टूट गई हो और उस पर चलना दुश्वार हो जाए! लेकिन अब पहले के मुकाबले सड़कें काफी बेहतर हो गई हैं। रपटों की जगह ऊंचे पुल भी बन गए हैं। यह बात अलग है कि जिन पहाड़ी झरनों का पानी नि:संकोच पी लेते थे, और जिनमें उतरकर नहा भी लेते थे, वे अब अधिकतर समय सूखे ही रहते हैं जिसकी गवाही किनारे खड़े अर्जुन के वृक्ष देते हैं।

बहरहाल सतपुड़ा के जंगलों में सागौन को फूलते हुए देखा तो बहुत सी बातें मन में उठीं। एक तो सागौन के वृक्ष अपने आप में शानदार होते हैं। नब्बे डिग्री के कोण पर आकाश की ओर बढ़ते हुए  वृक्ष पतझड़ में किसी ऊंचे स्तंभ की तरह प्रतीत होते हैं। बड़ी-चौड़ी खुरदरी पत्तियां वैसे तो शायद किसी काम में नहीं आतीं, लेकिन उनके आवरण में न जाने कितने सूक्ष्म जीव-जन्तु पलते होंगे। एक समय था जब सागौन से ही हर तरह का फर्नीचर बनता था। ऐसी अद्भुत लकड़ी भला और किस वृक्ष की है? वजन में हल्की, बेहद टिकाऊ, दीमक से सुरक्षित और वैदरप्रूफ याने जो न बरसात में फूले और न गर्मी में सिकुड़े। उस पर कलाकारी भी चाहे जितनी कर लो। हमारे पुराने मध्यप्रदेश याने विदर्भ, महाकौशल और छत्तीसगढ़ का सागौन पूरी दुनिया में सी.पी. टीक के नाम से जाना जाता है। लेकिन सागौन के यही गुण उसके लिए जानलेवा हो जाते हैं। लालची लोगों के लिए पूरी दुनिया का सागौन भी कम है।

एक ओर हम इस यात्रा में पुष्पित-प्रफुल्लित सागौन को देख रहे थे, तो दूसरी ओर यह सोचकर भी हैरानी हो रही थी कि इस मौसम में कांस कैसे फूल रहा है। महाकवि तुलसीदास ने तो लिखा था कि जब वर्षा ऋतु बूढ़ी हो जाती है तब कांस फूलती है। जबकि अभी तो सावन चल रहा था और भादों आना बाकी था। याने चौमासा खत्म होने में पूरे डेढ़ माह का समय था। तो क्या फूली हुई कांस ने चेतावनी दे दी थी कि बादलों को जितना बरसना था बरस चुके और वर्षा ऋतु थक कर कहीं जाकर छुप गई है! मालूम नहीं हमारे मौसम विज्ञानी जीव जगत और वनस्पति जगत से मिलने वाले इन संकेतों का कोई संज्ञान लेते हैं या नहीं। तुलसीदास ने जो लिखा था वह उनकी अवलोकन शक्ति का परिणाम था और हमें याद आता है कि घाघ व भड्डरी ने ऐसे ही अवलोकनों के द्वारा मौसम से संबंधित सैकड़ों भविष्यवाणियां की थीं। क्या आज इनका नाम किसी को स्मरण है?

यूं तो जबलपुर भी मेरा घर है, किन्तु इस बार की यात्रा प्रगतिशील लेखक संघ की जबलपुर इकाई के निमंत्रण पर हो रही थी। प्रलेस हर वर्ष परसाईजी की जयंती पर व्याख्यान आयोजित करता है। इस बार जाने क्या सोचकर मुझे बुला लिया गया। जैसा कि कहते हैं मेरे पैर में सनीचर है तो मैंने निमंत्रण स्वीकार करने में देरी नहीं की। जबलपुर का अपना आकर्षण तो था ही, मुझे यह ध्यान भी था कि इस वर्ष परसाईजी को हमारे बीच से गए पूरे बीस साल हो चुके हैं तथा यह कि उनके विचारों का महत्व हमारे लिए निरंतर बढ़ते जा रहा है। मैं देखता हूं कि फेसबुक जैसे माध्यम पर परसाई जी की रचनाओं को निरंतर उद्धृत किया जा रहा है। यह इसीलिए न कि उन्हें पढ़कर वर्तमान की विसंगितयों से जूझने के लिए शक्ति पाते हैं।

जबलपुर में बहुत पहले एक भंवरताल नाम से उद्यान हुआ करता था। बाद में इसका नाम रानी दुर्गावती उद्यान रख दिया गया। यह एक विचित्र सत्य है कि रानी दुर्गावती ने जो रानीताल, चेरीताल और आधारताल जैसे विशालकाय तालाब खुदवाए थे, जिनसे जबलपुर की प्यास बुझती थी और आसपास के खेतों को पानी मिलता था, वे पूरी तरह पाट दिए गए हैं और इक्के-दुक्के नामकरण कर उनकी स्मृति को संजोने का यत्न हो रहा है। जिस अद्भुत मदनमहल के साथ रानी दुर्गावती की स्मृतियां जुड़ी हैं, वह भी अब चारों तरफ से नवनिर्माण की चपेट में आ गया है। मदनमहल के निकट ही बैलेसिंग रॉक नामक एक प्राकृतिक अजूबा था जिसे देखने लोग दूर-दूर से आते थे उसके बारे में खबर पढ़ी कि उसे किसी व्यक्ति ने अपने निजी खाते में चढ़वा लिया है जिस पर कोर्ट-कचहरी में मामला चल रहा है। कुल मिलाकर जबलपुरवासी इस बात से संतुष्ट हैं कि उनके पास मदनमहल नामक एक रेलवे स्टेशन है और रानी दुर्गावती के नाम पर एक पार्क एक म्यूजियम और एक विश्वविद्यालय।

प्रगतिशील लेखक संघ का कार्यक्रम तो घंटे-दो-घंटे का था, वह भी शाम के समय। मैंने सोच रखा था कि दो दिन जबलपुर घूमने-फिरने में बिताऊंगा। जिस नवीन विद्या भवन में पांचवीं-छठवीं की पढ़ाई की वह भंवरताल उद्यान के पास ही है। मैं अपने स्कूल तक गया और साठ साल बाद उसके प्रांगण में कदम रखे। पहले जहां स्कूल परिसर में दोनों तरफ खपरैल वाले एक मंजिले भवन थे वहां अब पक्की तीन मंजिली इमारतें खड़ी हो गई हैं। एक विधि महाविद्यालय भी चलने लगा है। स्कूल का खेल का मैदान पहले की ही तरह सुरक्षित है और सबसे अच्छा यह लगा कि स्कूल प्रांगण में शापिंग काम्पलेक्स नहीं बनाया गया है। परिसर में एक खंड संस्थापक प्राचार्य किशोरीलाल पांडेय के नाम पर है। ध्यान आया कि उन्होंने अपने समय की अप्रतिम गायिका एम.एस. शुभलक्ष्मी का कार्यक्रम भवन निर्माण के लिए धन संग्रह हेतु कराया था और तब मुझे उन्हें सुनने का विरल सौभाग्य मिला था।

जबलपुर की एक भौगोलिक विशेषता है कि एक दिशा में गौर नदी इसकी सीमा बनाती है और दो दिशाओं में नर्मदा। इनके किनारों पर गौरैयाघाट, ग्वारीघाट, तिलवाराघाट व भेड़ाघाट स्थापित हैं। तिलवाराघाट में इस बरसात में भी बहुत कम पानी था। जीवनदायिनी नर्मदा को ऐसा उदास मैंने पहले शायद कभी नहीं देखा। नदी के तीर पर बहुत सारे मंदिर बन गए हैं, लेकिन निकट ही जिस शाहनाला पर लोग-बाग वनभोज करने याने पिकनिक मनाने जाते थे उसे मैं कोशिश करके भी नहीं खोज पाया। समय बदलने के साथ बहुत कुछ बदल जाता है किंतु नयापन तभी अच्छा है जब वह पहिले से बेहतर हो।
देशबन्धु में 24 सितम्बर 2015 को प्रकाशित

Wednesday 16 September 2015

एकालाप बनाम संवाद





प्रधानमंत्री
नरेन्द्र मोदी विगत एक वर्ष से माह में एक बार आकाशवाणी पर मन की बात कर रहे हैं। चूंकि प्रधानमंत्री की मन की बात है इसलिए आकाशवाणी के अलावा दूरदर्शन तथा व्यवसायिक समाचार चैनलों से भी उसका प्रसारण होता है। छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह ने मानो इसी राह पर चलते हुए अपने प्रदेश में आकाशवाणी के केन्द्रों से माह में एक बार रमन के गोठ की शुरुआत कर दी है जिसका पहला प्रसारण बीते रविवार 13 सितम्बर को हुआ। प्रधानमंत्री अपने मन की बात करने के लिए आकाशवाणी की सेवाएं लें तो इसमें आपत्ति की कोई बात नहीं है। इसी तरह अगर किसी प्रदेश का मुख्यमंत्री भी प्रदेशवासियों तक आकाशवाणी के माध्यम से अपने विचार पहुंचाना चाहेें तो इसे एक स्वागत योग्य पहल माना जा सकता है। संभव है कि आने वाले दिनों में अन्य प्रदेशों के मुख्यमंत्री भी डॉ. रमन सिंह का अनुकरण करने लगेंगे।

जनतंत्र की मजबूती के लिए यह नितांत आवश्यक है कि जनता द्वारा चुने गए प्रतिनिधि जनता के साथ जीवंत संवाद बनाए रखें। इस दृष्टि से प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री के प्रसारण की उपयोगिता समझ आती है। लेकिन उसकी एक सीमा है। यह संवाद यदि एकालाप में बदल जाए, यदि वह सिर्फ रस्म अदायगी बनकर रह जाए, यदि वह रसहीन, प्राणहीन औपचारिकता में परिणत हो जाए तो ऐसी व्यवस्था  लम्बे समय तक नहीं चल सकती। प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री के विचारों को जानने की प्रारंभिक उत्सुकता जन-मन में हो सकती है। नएपन का कौतूहल उसके साथ जुड़ा होता है। किन्तु यदि संदेश में कोई नई बात न हो, उसमें अगर घिसे-पिटे वायदे ही दोहराए जाएं तो सुनने वाले जल्दी ही उकताने लगेंगे। यह एक ऐसी सच्चाई है जिस पर सत्ताधीशों के मीडिया प्रबंधकों को ध्यान देने की आवश्यकता है। उन्हें इसके लिए खासे परिश्रम और कल्पनाशीलता की दरकार होगी कि हर माह वे इस एकालाप में किसी नए रस का संचार कर सकें।

मुझे प्रधानमंत्री जो अपने मन की बात करते हैं उसे लेकर कुछ अधिक शंका होती है। यह तो जनता पिछले कई वर्षों से देख रही है कि नरेन्द्र मोदी को भाषण देना अतिप्रिय है। वे एक सधे हुए अभिनेता की भांति स्वराघातों व भाव मुद्राओं का प्रयोग कर जब कोई बात करते हैं तो श्रोताओं से एक बड़े वर्ग को अपने साथ बहाकर ले जाते हैं। लेकिन यह आश्चर्य की बात है कि उन्हें जनता के साथ संवाद याने दोतरफा बातचीत करते हुए लगभग नहीं के बराबर देखा गया है। वे जब आमसभाएं करते हैं तब श्रोताओं से अपनी बात के समर्थन में हुंकारा भरवाते हैं, किन्तु याद नहीं आता कि उन्होंने आमने-सामने कभी लोगों से बातचीत की हो। इसका यह अर्थ होता है कि जनता क्या सोच रही है इसे वे अपने प्रत्यक्ष अनुभव से नहीं जान पाते। उनके गुप्तचर जो सूचनाएं देते हैं उनके आधार पर ही वे अपने एकालाप की तैयारी करते होंगे।

यह तो सबको पता है कि पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का भी जनता से कोई सीधा संवाद नहीं था। वे प्रचलित अर्थों में राजनेता भी नहीं थे इसलिए उन्होंने यदा-कदा आमसभाएं संबोधित भी कीं तो बेहद ठण्डे मन से। यूं तो उन्होंने अपने दस साल के कार्यकाल में चार-बार पत्रकार वार्ता करने की हिम्मत भी जुटाई, लेकिन उनमें भी वे सहज होकर बात नहीं कर पाए। इसीलिए उन्हें विपक्षियों ने मौन मोहन की उपाधि से विभूषित कर दिया था। नरेन्द्र मोदी के आने के बाद जनता ने खासकर पत्रकारों ने बड़ी उम्मीद लगा रखी थी कि नए प्रधानमंत्री के साथ खुलकर बातचीत के अवसर मिलेंगे। दुर्भाग्य कि ऐसा न हो सका। प्रधानमंत्री यदा-कदा पत्रकारों से मिलते हंै तब पत्रकारों को उनके साथ सेल्फी खिंचाने का ''गौरवपूर्ण" क्षण भले ही हासिल हो जाता हो, बातचीत तो नहीं होती। इसीलिए मोदीजी को मौनेंद्र मोदी भी कहा जाने लगा है।

भाजपा के लगभग सभी मुख्यमंत्री एक दूसरी तस्वीर पेश करते हैं। छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह को इस पद पर ग्यारह साल से अधिक का समय बीत चुका है। वे चाहे विधायक रहे हों या संसद सदस्य, केन्द्रीय मंत्री रहे हों या पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष या फिर मुख्यमंत्री, उन्होंने हर स्तर पर जनता के साथ जीवंत संवाद और संपर्क बनाए रखा। वे जब रायपुर में रहते हैं तो लगभग प्रतिदिन दो-तीन सौ लोगों से व्यक्तिगत तौर पर और दर्जनों प्रतिनिधि मंडलों से मिलते हैं। वे प्रदेश में निरंतर दौरा भी करते हैं और अप्रैल-मई की भरी धूप में प्रदेशवासियों ने उन्हें जनसंपर्क अभियान में निकलते हुए देखा है। इसके अलावा वे मीडिया के लिए भी सहज उपलब्ध होते हैं। इसे देखते हुए अनुमान लगाया जा सकता है कि वे जनभावनाओं से अपरिचित नहीं हैं तथा अपने प्रत्यक्ष अनुभव के आधार पर नीतिगत निर्णय लेते होंगे। यह कहने की बात नहीं कि बहुत अच्छे इरादों से लिए गए निर्णयों में भी राजनीतिक और पार्टीगत विवशताएं आड़े आ जाती हैं।

अब जबकि डॉ. रमनसिंह ने आकाशवाणी के माध्यम से जनता को संबोधित करने की पहल की है तो इसका स्वागत करते हुए शंका उपजती है कि मुख्यमंत्री भी कहीं एकालाप की दिशा में तो नहीं जा रहे हैं। यह हम उम्मीद करना चाहेंगे कि ऐसा नहीं होगा और डॉ. रमनसिंह पूर्व की भांति प्रदेश की जनता के साथ संवाद का कोई भी अवसर नहीं छोड़ेंगे। यद्यपि इसमें  एक बड़ी अड़चन उस सुरक्षातंत्र की है जिससे शायद स्वयं मुख्यमंत्री चाहें भी तो पार नहीं पा सकते। मेरी उम्र के लोगों को वे दिन याद आ जाते हैं जब प्रधानमंत्री से लेकर मुख्यमंत्री तक किसी भी बड़े नेता से आम जनता सीधे-सीधे जाकर बात कर सकती थी। अगर हमने ब्रिटेन की संसदीय परंपराओं को सही ढंग से अपनाया होता तो शायद आज भी वैसा सहज संवाद संभव हो पाता।

बहरहाल 'मन की बात' हो या 'रमन के गोठ'- एक आवश्यक प्रश्न अपनी जगह पर कायम है कि देश और प्रदेश के शीर्ष नेता जब जनता के सामने कोई घोषणा करते हैं, कोई वायदा करते हैं, तो उस पर अमल किस तरह से होता है, उसके लिए जो प्रशासनिक तैयारी और राजनीतिक इच्छाशक्ति होना चाहिए, वह होती है या नहीं? यह प्रश्न भी उठता है कि क्या एक प्रधानमंत्री या एक मुख्यमंत्री प्रभावी प्रशासन की सारी जिम्मेदारी अपने कंधे पर ले सकता है और क्या ऐसा होना वांछित है? जो सरकारी अमला है, जो एक व्यवस्था लंबे समय से बनी हुई है उसकी भूमिका तथा उत्तरदायित्व कहां तक है? मंत्रिमंडल के सहयोगी, विभागों के सचिव तथा संचालक, जिलाधीश इत्यादि ये सब इस तस्वीर में कहां हैं?

मेरा मानना है कि प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री को जनता के साथ द्विपक्षीय संवाद तो निश्चित रूप से करना ही चाहिए। इसके आगे उन्हें यह देखने की आवश्यकता है कि प्रशासनतंत्र अपनी भूमिका का निर्वाह भलीभांति करता है या नहीं। हमारे देश में त्रिस्तरीय शासन व्यवस्था है। इसमें पंचायती राज संस्थाओं को भी अधिकार-सम्पन्न बनाने की बात कही गई है। इस पृष्ठभूमि में यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि बड़े नेता यदि कोई घोषणा करते हैं या आश्वासन देते हैं तो उससे पंचायती राज संस्थाओं के अधिकारों का हनन न हो। इसी तरह सत्ता के शीर्ष पर बैठे लोगों को व्यापक नीतिगत निर्णय तो लेना चाहिए, लेकिन जहां तक संभव हो व्यक्तिगत समस्याओं में उलझने से बचना चाहिए। मैं एक उदाहरण से बात साफ करना चाहूंगा। जब कभी कोई दुर्घटना होती है सरकार हताहतों के लिए मुआवजा घोषित करती है, लेकिन दुर्घटना के पीछे कारण क्या थे इस ओर से आंखें मूंद लेती है। यह इसलिए होता है क्योंकि नौकरशाही की दिलचस्पी मुख्यमंत्री को खुश करने में होती है न कि अपनी सामान्य जिम्मेदारी निर्वहन करने में। मैं समझता हूं कि इस पर आगे और बहस की आवश्यकता है।
देशबन्धु में 17 सितम्बर 2015 को प्रकाशित
 

Saturday 12 September 2015

शिक्षक राष्ट्रपति, शिक्षक प्रधानमंत्री


 



अब
इस बारे में कोई संदेह नहीं होना चाहिए कि भारत विश्व गुरु है। यह वशिष्ठ, विश्वामित्र और सांदीपनि की पुण्यधरा है, जिनके पास स्वयं ईश्वर अवतार धर कर शिक्षा पाने गए। गुरु द्रोणाचार्य का विद्यालय है, जिसमें पांडव कुमार तमाम कलाओं में पारंगत होकर निकले। इसी भूमि पर चाणक्य हुए जिन्होंने चंद्रगुप्त मौर्य को चक्रवर्ती सम्राट बनने की प्रेरणा व उसके लिए दीक्षा दी। अतीतकाल में यहीं तक्षशिला और नालंदा सरीखे विश्वविद्यालयों की स्थापना हुई।  इस भारत में ही हम देशवासी 5 सितम्बर को शिक्षक दिवस मनाते हैं, शिक्षकों को प्रणाम कर उनकी चरण धूलि लेते हैं, उन्हें शाल-श्रीफल से सम्मानित करते हैं। अहा! धन्य है यह देश जहां शिक्षक का, गुरु का इतना समादर होता है। उनके इस सौभाग्य से संभवत: स्वर्ग के देवता भी ईष्र्या करते हैं। वे भी शायद मन ही मन इच्छा करते हैं कि एक दिन के लिए सही मनुष्य जन्म लेकर भारत में शिक्षक बन जाएं।

अब देवताओं की बात तो देवता जानें, किंतु यह तो हमारे समक्ष है कि देश में सर्वोच्च पदों को विभूषित कर रहे श्रीमंत भी अपने हृदय में शिक्षक बनने की अभिलाषा संजोए रखते हैं। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण 4 सितम्बर को मिला जब राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी तथा प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी दोनों ने अलग-अलग स्थानों पर बच्चों की कक्षाएं लीं।  हमारे राष्ट्रपति ने तो अपने कॅरियर की शुरुआत ही शिक्षक के रूप में की थी और लोकसभा-राज्यसभा में भी यदा-कदा उनके शिक्षकीय गुणों के दर्शन हो जाते थे। इधर राष्ट्रपति भवन के विशाल परिसर में लगभग एकाकी रहते हुए उन्हें शायद अकुलाहट होती हो और उससे उबरने के लिए उन्होंने नौनिहालों के साथ समय बिताने की ठानी हो! जहां तक प्रधानमंत्री का प्रश्न है, यह तो सारा देश जानता है कि संसद छोड़कर वे देश में कहीं भी कभी भी किसी की भी क्लास लेने के लिए उत्सुक और तत्पर रहते हैं। वे इसके पूर्व भारत में ही नहीं, जापान से लेकर अमेरिका तक कक्षाएं ले चुके हैं। सो उनके लिए तो यह एक तरह से उनकी दिनचर्या का अंग ही था।

हमारे ऐसे दिग्गज बाकायदा शाला में जाएं और विद्यार्थियों से बातचीत करें तो सामान्यत: इस पहल का स्वागत करना चाहिए। हमें स्मरण आता है कि देश के दूसरे और तीसरे राष्ट्रपति अर्थात् डॉ. राधाकृष्णन और डॉ. जाकिर हुसैन दोनों अपने समय के सर्वोत्तम शिक्षकों में गिने जाते थे। उनके बाद डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम के रूप में देश को एक और ऐसा विद्वान राष्ट्रपति के रूप में मिला जो अतीत में शिक्षक रह चुका था। राजनीति और प्रशासन में ऐसे अनेक उदाहरण इसके नीचे की सीढिय़ों पर मिल जाएंगे। देश को चलाने वाले आई.ए.एस. और आई.पी.एस. अफसरों में एक बड़ी संख्या में उन जनों की है जो अखिल भारतीय सेवा में चुने जाने के पहले कहीं अध्यापक के पद पर सेवा दे रहे थे। इनके भीतर का शिक्षक भी बीच-बीच में जाग उठता है। अखबार के पाठकों के सामने प्राय: प्रतिदिन ऐसे शीर्षक आते हैं कि मुख्यमंत्री ने क्लास ली, मंत्री ने क्लास ली, मुख्यसचिव ने क्लास ली या कलेक्टर ने क्लास ली। इस आशय के शीर्षक पढ़कर यह संदेह भी होता है कि क्या स्वयं पत्रकारों के मन में भी शिक्षक बनने और क्लास लेने की चाह बनी रहती है! तभी वे बड़े लोगों द्वारा क्लास लेने पर इस तरह मुग्ध हो जाते हैं।

शिक्षक दिवस के एक दिन पूर्व जब राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री विद्यार्थियों को पढ़ा रहे थे तब उसके आसपास ही यह समाचार भी मिला कि छत्तीसगढ़ में मुख्यमंत्री सहित अनेक मंत्री व अधिकारी स्वयं शासकीय विद्यालयों में जाकर उनकी सुध लेंगे। अगर मुझे सही स्मरण है तो प्रदेश के मुख्य सचिव ने रायपुर के पास किसी ग्रामीण शाला में कक्षा लेकर इस अभियान का शुभारंभ भी कर दिया है। इस तरह यदि देश में सर्वोच्च पदों से लेकर जिले और तहसील तक पहुंचकर सत्तासीन लोग शालाओं की तरफ ध्यान देने लगे तथा शिक्षकों व विद्यार्थियों से जीवंत संपर्क स्थापित कर सकें तो विश्वास होता है कि देश में शिक्षा क्षेत्र में क्रांतिकारी परिवर्तन होने में अधिक समय नहीं लगेगा। जब नीति निर्माता और पालनकर्ता स्वयं ध्यान देंगे तो स्थितियां सुधरने के बारे में शंका क्यों हो?

यह भी एक संयोग है कि अभी कुछ दिन पूर्व ही इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति सुधीर अग्रवाल ने निर्णय दिया कि शासकीय पदों पर कार्यरत सभी व्यक्तियों के पाल्यों को शासकीय विद्यालयों में ही अनिवार्य रूप से पढऩा चाहिए। इस निर्णय का स्वागत तत्काल हुआ। दो-चार दिन तक इसकी प्रशंसा मिली, प्रतिक्रियाएं भी आईं, लेकिन फिर उसे विस्मृत कर दिया गया। एक ओर राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री की पहल, दूसरी ओर उच्च न्यायालय का एक निर्णय। यूं ऊपरी तौर पर दोनों एक ही दिशा में जाते दिखाई देते हैं, किन्तु गहरे पैठने पर दोनों के बीच का अन्तर्विरोध स्पष्ट होने लगता है। हम स्मरण करें कि पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने शिक्षा के अधिकार को मौलिक अधिकारों में शामिल करने जैसा महत्वपूर्ण कदम उठाया था। इसे क्रियान्वित करने के लिए जिस वैधानिक सक्षमता की आवश्यकता थी वह डॉ. मनमोहन सिंह के कार्यकाल में मानव संसाधन विकास मंत्री अर्जुन सिंह की पहल से संभव हुई व अनिवार्य एवं नि:शुल्क शिक्षा का कानून अमल में आया। यह अधिनियम अभी तक उसी रूप में लागू है, किन्तु इसको प्रभावी ढंग से लागू क्यों नहीं किया जा रहा, इस प्रश्न का उत्तर सिर्फ मौन से मिलता है।

हमें इस बात की प्रसन्नता है कि देश-प्रदेश के कर्णधार विद्यार्थियों से रूबरू हो रहे हैं। राष्ट्रपति  एक शासकीय विद्यालय में बाकायदा एक विषय चुनकर उसे पढ़ाने के लिए गए किन्तु प्रधानमंत्री ने दिल्ली छावनी में भारतीय सेना के मानेकशा सेंटर के भव्य सभागार में कक्षा लगाना उचित समझा। वहां उन्होंने किसी विषय विशेष पर बच्चों को पढ़ाने के बजाय गुरु-शिष्य परंपरा आदि के बारे में बातें कीं। इनके व्याख्यान का सीधा प्रसारण देश भर में दूरदर्शन एवं आकाशवाणी से होना था, लेकिन अनेक स्थानों पर विद्युत व्यवस्था में अवरोध इत्यादि कारणों से बच्चे उसे सुनने से वंचित रह गए। चूंकि नियमित कक्षा नहीं थी इसलिए विद्यार्थी अपने प्रधानमंत्री से सीधे सवाल-जवाब भी नहीं कर सके। वे अगर राष्ट्रपति का अनुसरण करते तो इसमें लगा समय और श्रम अधिक लाभकारी हो सकता था। वैसे प्रधानमंत्री पूर्व राष्ट्रपति डॉ. कलाम का भी अनुसरण कर सकते थे जो विद्यार्थियों के बीच सीधे जाकर बातचीत किया करते थे। यह बात अलग है कि डॉ. कलाम की भेंटें सम्पन्न स्कूलों के बच्चों से ही होती थी।

हम यह जानने के लिए उत्सुक हैं कि 4 अप्रैल की इन कक्षाओं से अंतत: क्या उपलब्धि हुई। हमें प्रसन्नता होगी यदि इससे शिक्षकों के मन में अपने विषय के प्रति गौरव जागृत हो, उनका आत्मसम्मान बढ़े तथा वे नई ऊर्जा, नए विश्वास से देश की भावी पीढ़ी को विकसित करने के लिए पुन: संकल्पित और समर्पित हो जाएं। किन्तु यक्ष प्रश्न है कि ऐसा होगा कैसे? इलाहाबाद उच्च न्यायालय का जो फैसला आया उस पर शायद तत्काल ही रोक लगा दी गई। शिक्षा का अधिकार कानून की जो दुर्दशा है उसके बारे में जितना लिखा जाए कम है। खबरें तो ये आ रही हैं कि इस कानून में बड़े पैमाने पर संशोधन किए जाने की मुहिम चल रही है। जो निजी शालाएं हैं वे किसी भी कीमत पर साधनहीन बच्चों को अपने स्कूल में नि:शुल्क तो क्या, फीस लेकर पढ़ाने के लिए भी राजी नहीं। शिक्षक एक बार राजी हो भी जाएं तो साधन-सम्पन्न अभिभावकों की दृष्टि में इससे बढ़कर पाप और कुछ नहीं हो सकता कि अमीर और गरीब के बच्चे साथ पढ़ें।

प्रधानमंत्री ने अपने एकपक्षीय व्याख्यान में गुरु-शिष्य परंपरा का बखान किया। यह उस युग की बात है जब गुरु का पद उसी को मिलता था जो प्रभुतासम्पन्न समाज के बच्चों को पढ़ा सके। आखिरकार द्रोणाचार्य ने एकलव्य को अपनी कक्षा में बैठाने से साफ-साफ इंकार कर दिया था। और सांदीपनि की कक्षा में सुदामा सिर्फ इसलिए पढ़ पाए क्योंकि वे द्विज थे। आज की स्थिति तो और बदतर है। आज से लगभग तीस साल पहले वल्र्ड बैंक के इशारे पर जब नियमित शिक्षकों की भर्ती पूरे देश में बंद कर दी गई और उनका स्थान तदर्थ शिक्षकों ने ले लिया तब से शिक्षा व्यवस्था निरंतर रसातल को जा रही है। आज किसी प्रदेश सरकार के पास यह अधिकार भी नहीं है कि वह शासकीय शालाओं में पूर्णकालिक शिक्षकों की नियुक्ति कर सके।

प्रथम जैसी संस्था द्वारा जो एसीईआर (असर) रिपोर्ट प्रकाशित होती है वह सरकारी स्कूलों की दुर्दशा का बयान तो करती ही है, लेकिन दुर्दशा  के कारणों पर मौन रहती है। बात साफ है। हमने अपनी शिक्षा व्यवस्था पूंजीपतियों के हाथों में सौंपने की पूरी तैयारी कर ली है। देश भर में महंगे से महंगे निजी स्कूल जिन्हें न जाने क्यों पब्लिक स्कूल कहा जाता है, खुल रहे हैं। मुंबई स्थित धीरूभाई अंबानी इंटरनेशनल स्कूल इसका ज्वलंत उदाहरण है। कुछ समय बाद होगा यह कि साधनहीन बच्चों को पढऩे के अवसर ही नहीं होंगे, उनकी शालाएं बंद हो जाएंगी; जो मुंहमांगी फीस देकर पढ़ सकेंगे स्कूल उनके लिए ही होंगे और तब देश में फिर से गुरु-शिष्य परंपरा स्थापित होगी। द्रोणाचार्य पढ़ाएंगे और उनके छात्रों में सौ कौरव होंगे और पांडव सिर्फ पांच।
देशबन्धु में 10 सितम्बर 2015 को प्रकाशित

Wednesday 2 September 2015

मंगलौर और मडि़केरी के आसपास


 मंगलौर का हवाई अड्डा देश के अन्य मंझोले विमानतलों की तरह ही है। वैसे इसे अंतरराष्ट्रीय विमानतल का दर्जा मिला है क्योंकि यहां से प्रतिदिन खाड़ी के देशों को तीन-चार उड़ानें जा रही हैं। लेकिन मुझे यहां एक अटपटी विशेषता देखने मिली। विमानतल के प्रस्थान खंड में छातों की एक दूकान थी जिसमें छह सौ रुपए से लेकर छ: हजार रुपए तक के रंग-बिरंगे छाते मिल रहे थे। जिज्ञासा करने पर सेल्समैन ने बताया कि छह हजार का छाता ऑटोमेटिक है। अपने पल्ले यह नहीं पड़ा कि एक छाते में ऐसा क्या यंत्र हो सकता है। गनीमत थी कि कीमत सुनकर मैं बेहोश नहीं हुआ। और पूछने पर पता चला कि केरल की छाता बनाने वाली कंपनी ने दक्षिण भारत के कुछ और विमानतलों पर ऐसी दुकानें खोल रखी हैं। शायद खाड़ी देशों की ओर जाने वाले हवाई यात्री ये छाते खरीदकर वहां बारिश से न सही, धूप से बचते हों!

हमारी आठ दिन की यात्रा का यह अंतिम रोचक प्रसंग था, लेकिन इस बीच हमने जो कुछ देखा उनमें से कुछ का उल्लेख होना बाकी है। जैसे-दक्षिण भारत की प्रमुख नदी कावेरी कोडग़ू जिले के दक्षिण-पश्चिम से निकलकर दक्षिण-पूर्व की ओर जब बहती है तो वह दुबारे नामक एक रमणीक स्थान से गुजरती है। दुबारे में नदी की शोभा एकबारगी ही आकर्षित करती है, खासकर धारा के बीचोंबीच उभर आए छोटे-छोटे टीलों पर उगे विशाल मैंग्रोव वृक्ष जो एक तरह से कावेरी के ऊपर चंदोबा तान देते हैं। नदी के दूसरे किनारे पर जाने के लिए मोटरबोट का सहारा लेना पड़ता है। उस किनारे पर दुबारे एलीफेंट केंप याने हाथियों का शिविर है। कर्नाटक वन विभाग के अंतर्गत इस शिविर में हाथियों को प्रशिक्षित करने का काम किया जाता है। यह शिविर अंग्रेजों के जमाने में कायम किया गया था। हम जिस दिन पहुंचे उस दिन बारिश के कारण मिट्टी चिकनी हो गई थी और यह पर्यटकों के लिए कौतुक भरा दृश्य था कि कावेरी में स्नान के लिए अपनी मां के साथ उतरता एक हस्तिशावक बार-बार फिसल जा रहा था। उसने तंग आकर अंतत: नहाने का इरादा ही छोड़ दिया। बच्चे तो बच्चे ही ठहरे, आदमी के हों या हाथी के।

दुबारे और मडि़केरी के बीच कावेरी पर दृश्यावलोकन के लिए एक और सुंदर स्थान है जिसे उचित ही कावेरी निसर्गधाम नाम दिया गया है। यहां पर नदी घने वृक्षों की छाया के बीच से गुजरती है। एक लक्ष्मण झूला लगा दिया गया है जिसके पार वनराशि के बीच सैर-सपाटे के इंतजाम कर दिए गए हैं। यूं तो इस जगह में कोई विशेष बात नहीं थी, लेकिन मुझे लगा कि हमारे छत्तीसगढ़ पर्यटन मंडल के कर्ता-धर्ता यहां से पर्यटन विकास के लिए दो-चार बातें सीख सकते हैं। निसर्गधाम में एक छोटा सा चिडिय़ाघर था और एक हिरण उद्यान। इसके अलावा अलग-अलग ऊंचाई के कुछ मचान जहां से प्राकृतिक छटा का आनंद लिया जा सकता था। मुझे इस जगह पहुंच कर रायपुर के निकट स्थित सोमनाथ की याद आई जहां खारून और शिवनाथ का संगम है।

मंगलौर चूंकि सागर तट पर है इसलिए वहां गर्मी होना स्वाभाविक है, लेकिन वहां से जब मडि़केरी की ओर चलते हैं तो शीतलता के अलावा धीरे-धीरे वातावरण बदलने लगता है। हरियाली तो शुरु से अंत तक साथ रहती है, लेकिन उसकी रंगत कुछ और रूप ले लेती है। पूरब की ओर चलते हुए दक्षिण कन्नड़ जिले की सीमा जहां तक है लगभग वहां तक सुपारी और नारियल के वृक्षों के साथ रबर के पेड़ भी लगातार दिखाई देते हैं। इस अंचल में रबर की खेती होती है। पेड़ों में प्लास्टिक की थैलियां टांग दी गई हैं। पेड़ के तने से द्रव निकल कर इनमें इकट्ठा कर लिया जाता है जो बाद में रबर फैक्ट्रियों में चला जाता है। इन ऊंचे पेड़ों के बीच जहां भी समतल भूखंड हैं वहां धान की खेती होती है। लेकिन जैसे-जैसे आप ऊपर चढ़ते हैं रबर का स्थान दूसरे पेड़ ले लेते हैं और धान की जगह कॉफी के पौधे आ जाते हैं। मंगलौर के इलाके में इसके अलावा काजू की खेती भी व्यवसायिक पैमाने पर होती है और इलाके में काजू का प्रसंस्करण करने वाली अनेक इकाईयां कायम हैं।

मैंने पिछली किश्त में चॉकलेट की चर्चा की थी। मडि़केरी के आस-पास एक और कुटीर उद्योग चलता है-मदिरा उत्पादन का। जिन दुकानों पर मसाले और चॉकलेट मिलते हैं वहीं या उनके आस-पास आपको घर की बनी विभिन्न स्वादों वाली मदिरा खरीदने का निमंत्रण भी मिल जाता है। सोचा कि अपने रसप्रिय मित्रों के लिए उपहार स्वरूप यहां से कुछ नमूने ले लिए जाएं, लेकिन फिर मालूम पड़ा कि सरकार ने गृह उद्योग के रूप में मदिरा निर्माण पर रोक लगा रखी है और उसके नाम पर बोतलों में जो बिक रहा है वह एसेंस मात्र है। यह सच्चाई जानकर निराशा तो हुई लेकिन अच्छा हुआ कि बेवकूफ बनने से बच गए। मडि़केरी में ही इसके अलावा बांस के करील बाजार में बिकते हुए देखे। यह भी बातचीत में पता चला कि इस प्रांतर में और भी अनेक तरह की वनस्पतियां पाई जाती हैं। आशय यह कि कोडग़ू जिला जैवविविधता से सम्पन्न है और गनीमत है कि अंधाधुंध आधुनिकीकरण से काफी हद तक बचा हुआ है।

यह तो हम जानते ही हैं कि केरल से बड़ी संख्या में लोग खाड़ी के देशों में रोजगार के लिए आते हैं। वे अपनी मेहनत से वहां जो कमाते हैं उससे भारत के विदेशी मुद्रा भंडार को बढ़ाने में काफी सहायता मिलती है। केरल के लगभग हर शहर में एक नई सम्पन्नता के दर्शन होते हैं, वह भी इन्हीं की बदौलत। कोझीकोड, कोच्चि इत्यादि नगरों का स्वरूप बहुत तेजी के साथ बदला है। यही बात मंगलौर के बारे में भी कही जा सकती है। अगर भारत के नक्शे पर एक निगाह डालें तो पश्चिमी समुद्र तट पर मंगलौर से नीचे तक सीधे पट्टी चली गई है जिसका भौगोलिक-आर्थिक परिवेश लगभग एक जैसा है। हां, इतना अवश्य है कि मंगलौर याने दक्षिण कन्नड़ जिले में प्रमुख रूप से तुलु भाषा बोली जाती है जबकि केरल में मलयाली।

मंगलौर पिछले कुछ सालों से नकारात्मक समाचारों के लिए सुर्खियों में रहा है। श्रीराम सेने आदि के समाचार टीवी पर देखने-सुनने मिल जाते हैं। मैं यह अनुमान लगाता हूं कि एक तरफ इस अंचल का औद्योगीकरण और दूसरी ओर खाड़ी देशों  से हो रही आमदनी- इन दोनों के चलते स्थानीय निवासियों के रहन-सहन में बदलाव तो आया ही है, साथ-साथ सामाजिक संबंधों में अलगाव के लक्षण दिखाई देने लगे हैं। एक तरफ इस अंचल में साक्षरता और शिक्षा का प्रतिशत बहुत ऊंचा है तो दूसरी ओर लोक व्यवहार में जड़वाद और कठमुल्लापन फैलता हुआ प्रतीत होता है। जिस दक्षिण कन्नड़ जिले ने भारत की बैंकिंग व्यवस्था में महत्वपूर्ण योगदान के अलावा उडुपी भोजनालय और मणिपाल जैसी शिक्षण संस्थाएं देश को दी हों, वहां यह जो नया माहौल बन रहा है उससे चिंता उपजती ही है।

और अंत में, दो प्रसंग जिनका संबंध इस अंचल में हुए शिक्षा प्रसार से है। मंगलौर  के कादरी मंदिर में हमारी भेंट शहडोल के एक तिवारीजी से हुई। वे अपनी पत्नी और बेटी के साथ आए थे। मंगलौर के निकट सूरतकल एनआईटी देश के श्रेष्ठ तकनीकी संस्थानों में एक है। तिवारी दंपति अपनी बेटी को छोडऩे के लिए आए थे जिसका प्रवेश इस संस्था में अखिल भारतीय कोटे से हुआ है। इसी तरह मडि़केरी के अब्बी जलप्रपात पर हमें एक सिख दंपति मिल गए। वे बंबई से अपनी बेटी के साथ आए थे जिसे मंगलौर के कस्तूरबा गांधी मेडिकल कॉलेज में दाखिला मिला था। कहने की आवश्यकता नहीं कि इन शिक्षण संस्थानों के चलते देश की युवा पीढ़ी मंगलौर में एक लघु भारत की रचना कर रही है। अगर धर्म के नाम पर दंगा-फसाद करने वाले इस सच्चाई को समझ सकें  तो बेहतर होगा।
देशबन्धु में 03 सितम्बर 2015 को प्रकाशित

भगवत रावत की कवितायेँ

भगवत रावत कविता नहीं लिखते। वे बातचीत करते हैं। वे सुनने या पढऩे वाले को आतंकित नहीं करते, बल्कि साथ लेकर चलते हैं। भगवत जैसे सहज सरल व्यक्तित्व के धनी थे, वैसे ही वे अपनी कविताओं से सामने आते हैं। उन्हें हमारे बीच से गए लगभग दो साल होने आए, लेकिन उनकी कविताएं एक सच्चे और बहुत प्यारे दोस्त की तरह हमारे साथ चल रही हैं। इस साथ चलने का अर्थ यह भी है कि ये कविताएं पांच, दस या बीस साल पहले लिखी जाने के बावजूद पुरानी नहीं पड़ीं। कहने को तो दुनिया बदल गई है, लेकिन बदलाव के हर मोड़ पर अगर कविता आपके साथ निरंतर बनी हुई है तो इसका मतलब यही है कि वह सच्ची कविता है। मैं उनकी पुस्तकों के पन्ने पलट रहा हूं और मेरे सामने यह कविता खुलती है- जिसका शीर्षक है- ''गाय"। इस कविता को पढि़ए और महसूस कीजिए कि भगवत रावत की गाय उस गाय से कितनी अलग है जिसे लेकर राजनीतिक प्रपंच हो रहा है।
और अब यह भी याद नहीं आता
हमने कब किसी गाय की पीठ थपथपाई थी
कब उनकी आंखों में
कृतज्ञता की बे आवाज भाषा को पढ़ा था
हमें सचमुच याद नहीं आता
हमने कब किसी गाय को
उसके नाम से पुकारा था
और उसने अपनी थूथन हमारे कंधे पर
ऐसे टिका दी थी जैसे
अब उसे कोई चिन्ता नहीं
इसी कविता की आखिरी पंक्तियां भी पढ़ लेना चाहिए-
गाय के सहारे इस समय मां को याद करना
एक तो अतिरिक्त भावुकता होगी
दूसरे मुझे उन लोगों का प्रवक्ता समझ लिया जाएगा
जो गाय के नाम पर ही मरने-मारने पर
उतारू हो जाते हैं
वे पृथ्वी पर कोई लुप्त होती प्रजाति नहीं
फिर भी हमारे जीवन से चली गई हैं।
एक और कविता है- ''शाकाहारी-मांसाहारी"। यह कविता भी बिना किसी प्रयत्न के सीधे-सीधे आज के राजनीतिक परिदृश्य को हमारी आंखों के सामने प्रगट कर देती है। कविता की ये पंक्तियां दृष्टव्य हैं-
क्षमा करें
मैं खाने-पीने की चीजो को लेकर
न तो किसी की निंदा कर रहा हूं
और न कोई सिद्धांत गढ़ रहा हूं
केवल अपने ही शुद्ध-शाकाहारी लोगों के बीच
धीरे-धीरे जड़ पकड़ती
असहिष्णुता और हिंसा की ओर
इशारा भर कर रहा हूं
रही मांसाहारियों की बात
तो सबसे पहले सोचें उनके बारे में
जो मनुष्य और मनुष्यता को
खड़े-खड़े
कच्चा चबा जाते हैं
और दुनिया के मसीहा कहे जाते हैं
हम उन्हें ऐसा करते केवल देखते रहते हैं
और शायद यह सोचकर खुश होते हैं
कि यह कहर हम पर नहीं टूटा
फिर इसके बाद क्या  फ़र्क़ पड़ता है
कि कौन मांसाहारी है
कौन शाकाहारी है।
भगवत रावत ने कविता लिखने के लिए ऐसी सरल भाषा कैसे सिद्ध की होगी यह सोचकर विस्मय होता है मुझे। किन्तु कवि स्वयं ही कई जगह पर अपनी कविताओं में इसका खुलासा करता है। एक जगह पर वह लिखते हैं-
दिन-रात जो साहित्य से खेलते हैं
उसी को ओढ़ते-बिछाते हैं
उसी का नाम ले-लेकर पीते हैं-खाते हैं
मैं ऐसे दिमागों को हिला देने वाली कविताएं
लिख नहीं पाता
इस कविता का अंत इस प्रकार होता है-
जिसके पन्ने दर पन्ने पढ़ते चले जाओ
कभी अपने घर का पता नहीं बनाती
सुना है वही है जो आजकल
मर्मज्ञों, गुणीजनों के दिमागों को उकसाती है
मैं ऐसी कविता कोशिश करने पर भी
कभी लिख नहीं पाता।
बात बहुत साफ है कि भगवत रावत शब्द विलास के लिए कविता नहीं लिखते। अपने कवि होने का उन्हें कोई अहंकार नहीं है और न ही वे कविता से कोई बहुत बड़ी अपेक्षा रखते हैं। कविता लिखना तो है, लेकिन इसलिए कि अपने समय को जैसा देख रहे हैं उसका बयान करना है। यह जानते हुए कि अगर समाज को बदलना है तो उसके लिए कविता की दुनिया से बाहर निकलना होगा। इसलिए वे एक जगह कहते हैं-
कविता से, कहानी से हटकर भी लिखा जाना चाहिए
इसलिए नहीं कि लिखकर अमर होना है
इसलिए कि मर-मरकर लिखना है।
इन पंक्तियों से स्पष्ट है कि कवि जैसे दुनिया को देख रहा है उससे उसे मर्मांतक पीड़ा हो रही है। और वह जानता है कि उसके पास अगर भाषा है तो उसका सार्थक तरीके से इस्तेमाल होना चाहिए। अगर वह अपने मन की पीड़ा को अभिव्यक्ति नहीं दे पाया तो फिर उसकी शब्द साधना किस काम की?
भगवत रावत का कवि सिर्फ इतने में ही संतुष्ट नहीं है कि वह अपनी वेदना व्यक्त कर दे। वह तो अपने साथियों का भी आह्वान करता है-
क्या  कही
कभी घर से बाहर नहीं गए

बैठे-बैठे घर में ही
कविता करते रहे?
कहना न होगा कि कितने ही कवि इस तरह शब्दों के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं। और जब बाहर निकलकर वृहत्तर समाज से जोडऩे की बात आती है तो वे कभी बादलों पर, कभी चांद-तारों पर, तो कभी पक्षियों पर कविता लिखकर अपने कर्तव्य की इतिश्री मान लेते हैं। हिन्दी कविता में अभी बहुत अधिक समय नहीं बीता है जब ऐसी कविताएं बेशुमार लिखी गईं। ''चिडिय़ों को पता नहीं" शीर्षक कविता में वे इस प्रवृत्ति पर करारा व्यंग्य करते हुए चिडिय़ों से कहते हैं-
तुम हमेशा की तरह
कविताओं की परवाह किए बिना उड़ो
न सही कविता में
पर हर रोज
पेड़ से उतरकर
घर में
दो-चार बार
जरूर आओ-जाओ।
पता नहीं समकालीन कवियों ने इस व्यंग्य को कितना समझा, लेकिन कविता के पाठक जानते हैं ऐसी कविताएं एक फैशन की तरह आयीं और जल्दी ही चली गईं।
भगवत भाई की जो कविता मुझे बहुत पसंद है वह है- ''तीजन बाई"। इस रचना में वे छत्तीसगढ़ की लोक गायिका तीजन बाई के अद्भुत पंडवानी गायन की सराहना इन शब्दों में करते हैं-
महाभारत गाती है तीजन बाई
दुहराती नहीं
गाती है
गाना दोहराना नहीं होता
हर बार नये सिरे से रचना होता है
हाथ में इकतारा लेकर गाते हुए
जब काल को आवाजो लगाती है तीजन बाई
तो आकाश में देवता
हाथ जोड़कर खड़े हो जाते हैं
लेकिन वे किसी व्यवसायिक कला मर्मज्ञ की तरह इतने पर रुक नहीं जाते। वे देखते हैं कि तीजन बाई की प्रतिभा देश-विदेश में कैसे उसकी पहचान बनाती है, उसके अपने व्यक्तित्व का रूपांतरण कैसे इस प्रक्रिया में होता है और इस बिन्दु पर वे तीजन बाई के सामने एक चुभता हुआ प्रश्न रख देते हैं;
तो कभी पूछना तो अपने मुरारी से
कि प्रभो!
इन शहराती बाबुओं को अचानक क्यों भाई
तीजन बाई?
तीजन बाई के सामने रखा यह सवाल सिर्फ उसके लिए नहीं है। एक बड़ी मंचसिद्ध कलाकार महाभारत की पुनर्रचना कर रही है, लेकिन कवि धीरे से कहता है कि इसके बाद भी कुछ नहीं बदला और अदृश्य चौपड़ पर खेल अभी भी जारी है। यहीं भगवत रावत के व्यक्तित्व का एक और पहलू स्पष्ट होता है। एक तरफ कवि है, एक तरफ गायिका। वे दो कलाकारों के बीच एक आत्मीय संबंध जोड़ते हैं और उस अधिकार से तीजन बाई को इन पंक्तियों में सलाह देते हैं-
तुम दुनिया-जहान में घूम आना
गुंजा आना जगह-जगह अपना छत्तीसगढ़ी गाना
लेकिन उनके बीच जाना मत छोडऩा
जो तुम्हारा एक-एक बोल सच मानते हैं
जो न्याय और अन्याय
तुम्हारी ही बोली में
पहचानते हैं।
आप देखेंगे कि भगवत रावत इस तरह कदम-कदम पर रिश्ते बनाते हुए चलते हैं। वे अपने हृदय के तरल प्रवाह में अपने संपर्क में आने वाले व्यक्तियों और वस्तुओं को बहा ले चलते हैं। जिस तरह वे तीजन बाई के लिए चिंता करते हैं कि कहीं वह अपनी जमीन से कट न जाए, उसी तरह वे कचरा बीनने वाली लड़कियों के प्रति, गांव से मिलने आए मजदूर समधी-समधिन के प्रति और ऐसे ही तमाम सामान्यजनों के प्रति भी गहरी सहानुभूति का परिचय देते हैं।
मैं जब भगवत रावत की कविताओं को पढ़ता हूं तो दो-तीन बातें और समझ में आती हैं। एक तो वे अनेक स्थानों पर रेखांकित करते हैं कि आज के दौर में मनुष्य कितना असहाय हो चला है और यह असहायता सामूहिकता के क्षीण होने तथा अकेलेपन से उपजी है। उन्हें यह चिंता बार-बार सताती है कि आज अपने बलबूते पर ही हरेक को लडऩा पड़ रहा है। इसमें कवि की राजनीतिक दृष्टि बिल्कुल साफ है। विश्व में और देश में जो कुछ घटित हो रहा है उसका वह बखूबी कार्य-कारण विश्लेषण करता है। देश में बढ़ती हुई धर्मांधता, साम्प्रदायिकता, वैश्विक पूंजीवाद का बढ़ता प्रभाव, इन सबके संदर्भ उनकी कविताओं में आते हैं। उन्होंने मेधा पाटकर के संघर्ष पर भी कविता लिखी है और मेधा को अपनी कविता का पात्र बनाने वाले वे शायद पहले कवि हैं।
भगवत भाई ने प्रेम कविताएं भी लिखी हैं। इनमें वे बुंदेलखंड के पिछली पीढ़ी के कवि केदारनाथ अग्रवाल का अनजाने में अनुसरण करते प्रतीत होते हैं। दोनों को प्रेम का आलंबन बाहर नहीं ढूंढना पड़ा। केदार जी की तरह भगवत की कविताएं भी स्वकीया प्रेम की कविता हैं जिसका परिचय ''उसकी थकान", ''बाहर जाने की जल्दी" आदि कविताओं में मिलता है। भगवत रावत ने कविता लिखने की शुरूआत गीत से की थी, लेकिन परवर्ती काल में उन्होंने ''कहते हैं कि दिल्ली की है कुछ आबोहवा" और ''अथ: रूपकुमार कथा" और ''सुनो हीरामन" जैसी लंबी कविताएं भी लिखी। उनकी कविताओं में चलचित्र की तरह दृश्यबंद देखने मिलते हैं, जिनसे उनकी पैनी अवलोकन शक्ति का पता चलता है। मैं समझता हूं कि भगवत रावत की कविताएं अपने समय का दस्तावेज तो है ही, वे एक लंबी दूरी तक हमारे लिए प्रासंगिक बनी रहेगी।
अक्षर पर्व सितम्बर 2015 अंक की प्रस्तावना