Wednesday 25 December 2013

देवयानी के बहाने भारत का अपमान




भारतीय
राजनयिक देवयानी खोब्रागड़े की अमेरिका में गिरफ्तारी एक ऐसा स्तब्ध कर देने वाला प्रसंग है, जिसके जख्म भारत की राष्ट्रीय स्मृति को लंबे समय तक सालते रहेंगे। अमेरिका ने ऐसा क्यों किया? इस बारे में पक्ष-विपक्ष दोनों ने बहुत से तर्क दिए हैं, लेकिन हमें इसके मूल में एक ही बात समझ आती है कि अमेरिका चूंकि एक महाशक्ति व उसके साथ उद्धत राष्ट्र है इसलिए वह अपने लिए कोई भी मर्यादा, कोई लक्ष्मण रेखा स्वीकार नहीं करता। अमेरिका ने जो कह दिया वह मानो पत्थर की लकीर है जिसे वर्तमान राजनीति की भाषा में कहा जाता है- ''नॉन निगोशिएबल''। जो अमेरिका अपने बरसों के सामरिक भागीदार पाकिस्तान पर ड्रोन हमले करने में नहीं हिचकिचाता उससे भारत को क्या उम्मीद रखना चाहिए जिसके संबंध अमेरिका के साथ कभी भी बहुत मधुर नहीं रहे और न दोनों के बीच कभी परस्पर विश्वास की भावना रही। यूं तो अपने अभ्युदय से लेकर अब तक अमेरिका के खाते में बहुत सी खूबियां दर्ज हैं जिनकी तारीफ अलेक्स द ताकविले से लेकर बट्रेंड रसल और जवाहरलाल नेहरू तक ने की है, लेकिन जब अमेरिका विश्व राजनीति के रंगमंच पर आता है तो अपनी इन खूबियों को घर में छोड़ आता है जिसके उदाहरण अनगिनत हैं।

देवयानी खोब्रागडे क़ो अमेरिकी सरकार ने इस आरोप में गिरफ्तार किया कि वे अपनी घरेलू सेवक संगीता रिचर्ड को झूठे दस्तावेज तैयार कर अमेरिका लेकर आईं तथा उसे अमेरिका में लागू न्यूनतम वेतन नहीं दिया। इस आरोप में कितनी सच्चाई है यह एक पृथक बिन्दु है, किन्तु विचारणीय प्रश्न यह है कि क्या अमेरिका को एक विदेशी राजनयिक के साथ इस तरह का बर्ताव करने का हक था।  सहज बुध्दि कहती है कि देवयानी एक सामान्य भारतीय नागरिक नहीं हैं। अपनी सेवा के आधार पर अमेरिका में या अन्य किसी भी देश में वे भारत की सार्वभौम सत्ता का प्रतीक हैं। अन्तरराष्ट्रीय राजनय में दूतावास कर्मियों को मेजबान देश में बहुत से विशेषाधिकार प्राप्त होते हैं, जिनमें एक यह भी है कि उन पर उस देश में मुकदमा नहीं चलाया जा सकता। याने अमेरिका ने भारत की प्रभुसत्ता का अपमान किया है।

इस बारे में अमेरिका ने एक तकनीकी बारीकी ढूंढ निकाली है कि देवयानी दूतावास की नहीं, बल्कि कौंसुलेट की अधिकारी थीं और इस नाते वे छूट की पात्र नहीं हैं। यह एक कुतर्क है क्योंकि भारत में अमेरिकी दूतावास व कौंसुलेट दोनों के कर्मियों को एक समान विशेषाधिकार प्राप्त हैं। इसका मतलब यह हुआ कि जो व्यवहार भारत अमेरिकी दूतों के साथ करता है, वही व्यवहार अमेरिका को भारतीय दूतों के साथ करना चाहिए। इस सिलसिले में कुछ और तथ्य गौरतलब हैं। देवयानी खोब्रागड़े ने कोई बहुत संगीन जुर्म नहीं किया था, जिसके आधार पर उन्हें छूट की पात्रता न दी जाती। यह एक राजनयिक अधिकारी एवं घरेलू सेवक के बीच का मामला था, जिसे आपस में बैठकर सुलझाना संभव था। दूसरी बात, कोई भी मेजबान देश किसी भी राजनयिक को अवांछित (परसोना नॉन ग्राटा) घोषित कर उसे देश छोड़ने का आदेश दे सकता है। ऐसा कई बार होता है। देवयानी के मामले में अमेरिका नाटक खड़ा करने के बजाय यह रास्ता अपनाता तो यह स्थिति न आती।

इस मामले में जो नए-नए खुलासे हो रहे हैं उनसे अमेरिका की नियत पर और शंका होने लगती है। अमेरिका ने संगीता रिचर्ड को टी-1 श्रेणी का वीजा जारी किया जो मानव तस्करी से उध्दार करने के लिए दिया जाता है। इसके बाद उसके पति और बच्चों को टी-2 और टी-3 वीजा दिए गए जो मानव तस्करी से बचाए गए व्यक्ति के रिश्तेदारों को दिए जाते हैं। इससे प्रतीत होता है कि अमेरिका ने देवयानी खोब्रागड़े को प्रताड़ित करने का इरादा पहले से बना लिया था। अन्यथा जो महिला भारत के सरकारी कर्मचारियों को दिए जाने वाले पासपोर्ट पर यात्रा कर रही हो उसमें मानव तस्करी की बात कैसे उठ गई? न्यूयार्क के सरकारी वकील भारतवंशी प्रीत भरारा ने बीच में यह भी कहा कि उन्होंने संगीता रिचर्ड के परिवार को भारत से सुरक्षित बाहर निकाल लिया है। इसका क्या अर्थ है? क्या रिचर्ड के परिवारजनों को भारत में कोई खतरा था? क्या उन्हें कोई धमकियां दी गई थीं? उनके लिए भारत के अमेरिकी दूतावास में टिकट खरीदे गए, इस मेहरबानी की क्या जरूरत थी?

इस बीच ऐसी खबरें भी सुनने में आई कि संभवत: संगीता रिचर्ड के माता-पिता कभी भारत में अमेरिकी दूतावास में काम करते थे। इसे आधार बनाकर यह शंका प्रकट की गई कि संगीता कहीं अमेरिका के लिए जासूसी तो नहीं करती थी। जिस तरीके से उसे और उसके परिवार वालों को अमेरिकी सरकार ने संरक्षण दिया उससे इस अफवाह को बल मिला। यद्यपि इसकी सच्चाई की तस्दीक शायद कभी नहीं हो पाएगी! इस घटना का दूसरा पहलू यह हो सकता है कि अमेरिका पहुंच जाने के बाद संगीता ने किन्हीं लोगों के फुसलाने से लालच में आकर देवयानी पर केस कर दिया हो, क्योंकि अमेरिका में उसकी हस्तलिखित डायरी तो यही कहती है कि वह देवयानी के यहां खुशी-खुशी और सम्मानपूर्वक कार्य कर रही थी।

इधर इस प्रसंग में एक नया पहलू जुड़ गया है। यह एक प्रकट सत्य है कि भारत में घरेलू कामकाज करने वाली औरतों की स्थिति अच्छी नहीं है। इसे आधार मानकर कुछ स्वयंसेवी संगठनों ने देवयानी खोब्रागड़े पर अपनी घरेलू सेविका के साथ दुर्व्यवहार करने का आरोप लगाया है। मुझे यह एकतरफा कदम लगता है। बिना संगीता रिचर्ड से बात किए, बिना देवयानी खोब्रागड़े का पक्ष जाने, बिना संबंधित तथ्यों का परीक्षण किए कैसे मान लिया जाए कि देवयानी खोब्रागडे दोषी है? यदि संगीता रिचर्ड को देवयानी के घर में बंधक बनाकर रखा गया होता, उसके बाहर आने-जाने पर पाबंदी होती, किसी पड़ोसी के फोन करने पर पुलिस पहुंचकर उसे आज़ाद करवाती तब तो देवयानी को दोषी माना जा सकता था, लेकिन अब तक जो साक्ष्य उपलब्ध हैं, वे कुछ और ही बात कहते हैं।

इस घटनाक्रम में एक पक्ष प्रीत भरारा का है। श्री भरारा भारतवंशी हैं एवं न्यूयार्क राय के सरकारी वकील हैं। वे पिछले दिनों सुर्खियों में आए, जब उन्होंने अरबपति भारतवंशी रजत गुप्ता की कारपोरेट धोखाधड़ी का मामला उजागर कर उन्हें जेल भिजवाया। अमेरिका में भारतवंशियों की एक पूरी पीढ़ी तैयार हो गई है, जिसने वहां जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में महत्वपूर्ण उपलब्धियां हासिल की हैं। इनमें बॉबी जिंदल, सुनीता विलियम्स, विक्रम पंडित, निक्की हेली और ऐसे तमाम लोग शामिल हैं। इनको देख-देखकर हमें ऐसा कुछ अभिमान होता है मानो भारत ने विश्व विजय हासिल कर ली हो। हम भूल जाते हैं कि ये सब अमेरिकी नागरिक हैं जिन्होंने वहां के संविधान के प्रति निष्ठा की शपथ ली है और भारत उनके लिए अंतत: पराया देश है।

इन भारतवंशी नागरिकों में अपने देश अमेरिका की राजनीति में आगे बढ़ने की इच्छा हो, यह स्वाभाविक है। फिलहाल दो भारतवंशी अमेरिकी राज्यों में गवर्नर पद पर आसीन हैं। किसी दिन कोई राष्ट्रपति भी बन जाए तो हमें आश्चर्य नहीं होगा; लेकिन मॉरिशस, सूरीनाम और फिजी इत्यादि के भारतवंशियों का अपने पुरखों की धरती से जो रागात्मक संबंध है, वह अमेरिका के इन भारतवंशियों में शायद नहीं है। इसलिए कि वे किसानों व मजदूरों की संतानें हैं और ये सम्पन्न सुविधाभोगी भारतीयों के वंशज। प्रीत भरारा अपने समकालीनों से शायद अलग नहीं हैं। देवयानी खोब्रागड़े के रूप में उन्हें एक ऐसा आरोपी मिल गया है, जिसे अगर वे दोषी ठहरा सके तो स्वयं को भारत की गर्भनाल से काटकर पूरी तरह से अमेरिकी कहला सकेंगे और शायद ऐसा करना उनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षा की पूर्ति में सहायक हो सकेगा।

कुल मिलाकर यही प्रतीत होता है कि अमेरिकी प्रशासन तंत्र ने देवयानी खोब्रागड़े को माध्यम बना भारत को नीचा दिखाने की कोशिश की है। भारत को इस षड़यंत्र के सामने कतई नहीं झुकना चाहिए। याद करें कि जब अमेरिका के आव्रजन अधिकारियों ने प्रवासियों की नंगा-झोरी लेना शुरु किया तो ब्राजील व वेनजुएला ने यही बर्ताव अमेरिकी प्रवासियों के साथ करना प्रारंभ कर दिया था।


देशबंधु में 26 दिसंबर 2013 को प्रकाशित

"सफेदपोशों का अपराध "



हम यह जानते हैं कि हिन्दी में विपुल मात्रा में साहित्य सर्जना हो रही है। उपन्यास, कहानी, कविता, आलोचना, अन्य विधाएं; कहीं कोई कमी नहीं दिखती। हमें यह भी पता है कि जितना लिखा जा रहा है उसका एक छोटा सा हिस्सा ही पाठकों तक पहुंच पाता है। यह भी देखने में आया है कि  हिन्दी साहित्य के पाठक अधिकतर हिन्दी के लेखक ही हैं। हम इस बात पर भी समय-समय पर चिंता करते हैं कि साहित्य आम जनता से या सामान्य पाठक से दूर होते जा रहा है। इसके लिए सामान्यत: या तो प्रकाशक को कोसा जाता है या फिर पाठक के मत्थे ही दोष मढ़ दिया जाता है कि वही अज्ञानी है। किन्तु ऐसी स्थिति बनने के पीछे स्वयं लेखक भी किसी हद तक जिम्मेदार है, इस सच्चाई को कड़वी दवाई की तरह छुपा लिया जाता है। बहुचर्चित अर्थशास्त्री, लेखक व स्तंभकार गिरीश मिश्र एवं बृजकुमार पाण्डेय द्वारा लिखित ताजा पुस्तक 'सफेदपोशों का अपराध' एक बार हमें अनायास इस कड़वे सच से साक्षात्कार करवाती है। लेखकद्वय द्वारा दो शब्द में दिया गया निम्नलिखित वक्तव्य इस संदर्भ में दृष्टव्य है:-

''पश्चिमी देशों में सफेदपोश अपराध के चरित्र, स्वरूप और किस्मों पर कई गंभीर अध्ययन उपलब्ध हैं। साथ ही साहित्यिक कृतियों में भी उन पर ध्यान दिया गया है। उदाहरण के तौर पर, डिकेंस, बाल्जाक, जोला, मार्क ट्वेन, ड्रीजर आदि ने कई उत्कृष्ट उपन्यास लिखे हैं।''

''हमारे यहां ऐसा कुछ भी नहीं है; सिर्फ मीडिया में हुई चर्चाएं, कतिपय आयोगों की रिपोर्टें, अदालती कार्यवाहियां तथा विधानमंडलों और संसद में हुई बहसें ही स्रोत सामग्रियों के नाम पर उपलब्ध हैं। इनके अतिरिक्त एन.एन. वोहरा की अध्यक्षता में बनी एक सरकारी समिति की रिपोर्ट है। यद्यपि यह रिपोर्ट बहुत ही छोटी है, फिर भी इसके द्वारा उजागर किए गए तथ्य और निष्कर्ष काफी सारगर्भित हैं। उम्मीद थी कि हमारे समाज-विज्ञानी और साहित्यकार उनको लेकर आगे जाएंगे, पर ऐसा कुछ भी नहीं हुआ है।''

गिरीश मिश्र की एक अन्य पुस्तक 'बाजार : अतीत और वर्तमान' सन् 2011 में प्रकाशित हुई थी। उसकी चर्चा भी मैंने इन पृष्ठों में की थी। तब भी मुझे ऐसा अनुभव हो रहा था कि हिन्दी साहित्य किसी हद तक फॉर्मूलाबध्द हो गया है, कुछ-कुछ बॉलीवुड की फिल्मों की तरह, जहां नवाचार के लिए गुंजाइश धीरे-धीरे सिमटती जा रही है। इसके क्या कारण हैं यह पृथक चर्चा का विषय है। गाहे-बगाहे चर्चाएं हुई भी हैं, लेकिन शायद अभी हिन्दी जगत नई राह पकड़ने के लिए अपने पाठकों को पूरी तरह से तैयार नहीं कर पा रहा है। बहरहाल हमें इस बात की प्रसन्नता है कि गिरीश मिश्र जैसे समाज चिंतक अपनी जिम्मेदारी को गंभीरता के साथ ले रहे हैं और हिन्दी के माध्यम से लोक शिक्षण के गंभीर काम में जुटे हैं। इस नई पुस्तक में उनके सहयोगी लेखक उनके बालसखा बृजकुमार पाण्डेय हैं जो स्वयं साहित्य जगत में सुपरिचित हस्ताक्षर हैं तथा जो प्रगतिशील लेखक संघ व विश्वशांति आंदोलन से जुड़कर सजगतापूर्वक अपने नागरिक कर्तव्य का निर्वहन कर रहे हैं।

'सफेदपोशों का अपराध' मूल रूप में अंग्रेजी में लिखी गई थी एवं इसका प्रथम प्रकाशन पच्चीस वर्ष पूर्व 1998 में हुआ था। लेखकद्वय ने यह उचित समझा कि पुस्तक हिन्दी में भी आना चाहिए और इसके लिए उन्होंने अंग्रेजी से अनुवाद नहीं, बल्कि हिन्दी में ही नए सिरे से लेखन किया। पच्चीस साल के इस लंबे अंतराल में वैश्विक परिदृश्य में जो बदलाव आए हैं उनसे लेखक भलीभांति परिचित हैं तथा वर्तमान संस्करण में उन्होंने यथासंभव नई जानकारियां जुटाई हैं व उनके आधार पर अपने निष्कर्ष निकाले हैं। इस पुस्तक को लिखने की जरूरत उन्होंने क्यों समझी इसके लिए दो शब्द से ही एक और उध्दरण देने से बात स्पष्ट हो जाएगी।

''यदि हम इतिहास में झांककर देखें तो पाएंगे कि अपराध के स्वरूप में भारी परिवर्तन हुए हैं। अपराध की नई-नई किस्में लगातार आ रही हैं। नवउदारवाद के लिए सफेदपोश अपराध आधुनिक पूंजीवाद के साथ आए हैं। नवउदारवाद आधारित भूमंडलीकरण ने उसमें ऐसे आयाम जोड़े हैं, जिनकी पहले कल्पना भी नहीं की गई थी। उदाहरण के लिए, जॉन लॉ, चार्ल्स पोंजी, बर्नार्ड मैडॉफ्फ और अब राजरत्नम् पूंजीवाद के विभिन्न चरणों के प्रतीक हैं।''

'सफेदपेशों का अपराध' में जो घटनाएं वर्णित हैं उनसे आम जनता काफी हद तक परिचित है। जिन आपराधिक प्रवृत्तियों का विश्लेषण लेखकद्वय ने किया है उनका सामना भी आम आदमी को आए दिन करना पड़ता है। देश की राजनीति हाल के दशकों में किस तरह विकृत हुई है तथा सामाजिक ताना-बाना किस कदर छिन्न-भिन्न हुआ है उसे हम रोज ही देख रहे हैं। बहुत से लोगों, जिनमें मैं भी शामिल हूं, का मानना है कि भारत में इस शोचनीय परिवर्तन की शुरूआत 1990 के दशक में हुई जब आर्थिक उदारीकरण ने हमारी दहलीज पर कदम रखा। एक संज्ञा इन तीस-पैंतीस सालों में काफी प्रचलित हो गई है, जिसे 'एलपीजी' कहा जाता है याने उदारीकरण, निजीकरण एवं वैश्वीकरण। एलपीजी को हम एक अन्य रूप में भी जानते हैं याने घरेलू रसोई गैस। इस समानता को देखकर यह टिप्पणी भी कभी की गई है कि सिलेण्डर में विस्फोट हो जाए तो वह जानलेवा हो सकता है।

अगर हम पिछले कुछ दशकों की राजनैतिक, आर्थिक सामाजिक स्थितियों का अध्ययन करें तो यह बात आईने की तरह साफ हो जाती है कि एलपीजी के चलते देश और दुनिया में अमीर और गरीब के बीच खाई बढ़ी है। गरीब की संघर्षशीलता और संघर्ष क्षमता में कमी आई है, जबकि अमीर पहले की अपेक्षा कहीं ज्य़ादा उच्छृंखल व्यवहार करने लगे। एक समय सम्पन्न लोग तिनके की ओट बराबर ही सही अपने वैभव का प्रदर्शन करने से संकोच करते थे तो वह तिनका भी न जाने कब का उड़ चुका है। अगर थोड़ा बारीकी में जाएं तो यह तथ्य भी समझ आने लगता है कि जो नई सम्पन्नता आई है वह मेहनत के बल पर नहीं बल्कि किसी हद तक अपराधों के बल पर हासिल की गई है।

लेखकद्वय ने अपनी पुस्तक को ग्यारह अध्यायों में बांटा है। ये अध्याय स्वतंत्र हैं तथा अपने आपमें एक सुदीर्घ निबंध की तरह इनमें से प्रत्येक को पढ़ा जा सकता हौ। लेखकों ने अर्थशास्त्र व विश्व साहित्य दोनों का गहरा अध्ययन किया है जिसके बल पर वे सभ्यता के प्रारंभ से लेकर अब तक अपराधों का विकास कैसे हुआ है इस पर विस्तारपूर्वक प्रकाश डालने में सक्षम हैं। इसके लिए वे संस्कृत के क्लासिक साहित्य के साथ-साथ विश्व साहित्य से भी प्रमाण प्रस्तुत करते हैं। ऐसा करने में उन्होंने सामान्यत: उन महान कृतियों को लिया है, जो अंग्रेजी में उपलब्ध हैं। चार्ल्स डिकेंस, बौदलेयर, एमिल जोला, मार्क ट्वेन, बाल्ज़ाक जैसे महान साहित्यकारों की कृतियों को उन्होंने उध्दृत किया है और वर्तमान में आते हुए वे बहुत परिश्रम से उन अपराधिक घटनाओं के दृष्टांत जुटाते हैं जो पिछले सौ-पचास वर्षों के भीतर घटी हैं।

इस पुस्तक के प्रथम अध्याय का शीर्षक है- 'ऊंचे लोगों के गुनाह'। इसमें वे बताते हैं कि सफेदपोशों द्वारा किए गए अपराध अन्य अपराधों से कैसे अलग होते हैं। एक निर्धन व्यक्ति अपनी दारुण जीवन परिस्थितियों के चलते कैसे अपराध की तरफ बढ़ता है और कैसे उसी को अपराध का आदि व अंत मान लिया जाता है यह लेखक हमें विस्तारपूर्वक बतलाते हैं। वे स्पष्ट करते हैं कि सफेदपोशों पर पुलिस कड़ी नज़र नहीं रखती, उन्हें समाज के लिए खतरा नहीं माना जाता तथा उन्हें घृणा की दृष्टि से भी नहीं देखा जाता, जबकि नकली दवाई, जाली सामान, मिलावटी खाद्य सामग्री जैसे प्राणलेवा अपराध ये सफेदपोश ही करते हैं। लेखक सी.एस. लिविस को उध्दृत करते हुए सफेदपोश अपराधियों के सुसज्जित कार्यालयों की तुलना नरक से करते हैं।

'कार्पोरेट जगत में अपराध' शीर्षक अध्याय में लेखक शेयर बाजार की हेराफेरी, कंपनी की फर्जी बैलेंस शीट बनाना, बैंक घोटाले, चिटफंड स्कीम, पिरामिड स्कीम इत्यादि का उल्ले्ख करते हैं तथा अमेरिकी ठग मेडॉफ से लेकर सत्यम कम्प्यूटर के रामालिंगम राजू के उदाहरणों से अपने तर्क की पुष्टि करते हैं। हमें यहां एक नया प्रकरण याद आता है। हाल ही में पता चला है कि भारतीय बैंकों की चार लाख करोड़ से अधिक की पूंजी 'एनपीए' या नॉन परफार्मिंग असेट के खाते में फंस गई है। 'एनपीए' एक भ्रामक संज्ञा है। इसका असली मतलब है कि बैंकों ने जो कर्ज दिए हैं उसमें से इतनी बड़ी राशि डूबत खाते में चली गई है। यह भी पता चलता है कि देश के बड़े-बड़े कार्पोरेट घरानों ने किस तरह से बैंकों से रकम उड़ाई और उसे हड़प कर गए।

एक अन्य अध्याय में लेखकद्वय बतलाते हैं कि सफेदपोश अपराधी जनता की संपत्ति पर डाका डालने में कोई हिचक नहीं दिखलाते। देश के प्राकृतिक संसाधन याने जल, जंगल, जमीन को ये लोग येन-केन-प्रकारेण हासिल कर लेते हैं। यहां तक कि प्राकृतिक आपदाओं के समय असहाय लोगों तक पहुंचने वाली सहायता को भी ये हड़प जाते हैं। इसमें स्वाभाविक रूप से नेता, अफसर, व्यापारी, बिचौलिए सब शामिल होते हैं। इस अध्याय में लेखकों ने केयर संस्था द्वारा पोषण आहार के रूप में वितरित दूध, दलिया भी हड़प जाने का जिक्र किया गया है। मुझे याद है कि रायपुर-जबलपुर मार्ग पर एक ढाबे की खीर बहुत प्रसिध्द थी। बाद में पता चला कि केयर द्वारा गरीब बच्चों के लिए दिए गए दूध पावडर से ही यह खीर बनती थी।

अगले कुछ अध्यायों में लेखकद्वय सफेदपोश अपराधों को बढ़ावा देने में मीडिया के सहयोग, स्वयं मीडिया मालिकों का इन अपराधों में लिप्त होना, तथाकथित अवतारी पुरुष और साधु-संत, महात्मा, शिक्षा जगत के अपराध व प्रशासनिक भ्रष्टाचार आदि पर विस्तार से व प्रमाणों के साथ अपनी बात सामने रखते हैं। मीडिया की बात करते हुए वे साफ कहते हैं कि खोजी पत्रकारिता के लिए जिस प्रतिभा, मेहनत व दक्षतापूर्ण  विश्लेषण की आवश्यकता होती है इसका हमारे यहां सर्वथा अभाव है। हम इसके आगे जान रहे हैं कि स्वयं को खोजी पत्रकार के रूप में स्थापित करने वाले तरुण तेजपाल आज कहां हैं? अवतारी पुरुषों की तो बात ही क्या है! चन्द्रास्वामी के किस्से पुराने पड़ गए। सत्य सांई बाबा के निधन के बाद उनके निजी कक्ष से प्रचुर मात्रा में धन राशि बरामद हुई, उसकी  वहां क्या जरूरत थी? बाबा रामदेव के किस्से अभी सबके सामने हैं और आसाराम के बारे में तो बात करने से भी घिन आती है।

कुल मिलाकर 'सफेदपोशों का अपराध' एक अत्यंत पठनीय पुस्तक है। मुझे इसमें कुछ कमियां भी दिखाई दीं- जैसे कुछेक पुराने संदर्भों में जो परवर्ती तथ्य जुड़े उन्हें छोड़ दिया गया। पुस्तक में माफिया के बारे में भी काफी विस्तार से जानकारी दी गई है किन्तु मैं समझता हूं कि हाजी मस्तान जैसे अपराधी को सफेदपोशों की श्रेणी में नहीं रखे जाना चाहिए और अमेरिकी माफिया भी उस तरह से सफेदपोश नहीं हैं जो कि पुस्तक का केन्द्रीय आधार है। दानिश बुक्स दिल्ली से यह पुस्तक प्रकाशित हुई है। इसे अगर पेपरबैक में उपलब्ध कराया जाए तो एक बड़े पाठक वर्ग तक आसानी से पहुंच सकेगी। इस पुस्तक के दोनों लेखक और प्रकाशक बधाई के पात्र हैं।
अक्षर पर्व दिसंबर 2013 अंक में प्रकाशित

Wednesday 18 December 2013

सोनिया गांधी: नई चुनौतियां




श्रीमती सोनिया गांधी ने सक्रिय राजनीति में ऐसे वक्त प्रवेश किया जब भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की नौका एक तरह से मंझधार में डूब रही थी। उन्होंने न सिर्फ डूबती नाव को किनारे लगाया बल्कि एक सफल कप्तान की भूमिका इस खूबी के साथ निभाई कि आज दस साल से कांग्रेस यूपीए के प्रमुख दल के रूप में देश पर काबिज हैं। वे चाहतीं तो 1991 में राजीव गांधी की शहादत के तुरंत बाद देश की प्रधानमंत्री बन सकती थीं किन्तु उन्होंने अपने आपको राजनीति से दूर कर लिया। पी.वी. नरसिम्हाराव के प्रधानमंत्रीकाल में उन्हें जिस तरह से उपेक्षित किया गया उसे भी सोनिया गांधी ने बर्दाश्त किया और कांग्रेस का नेतृत्व ऐसी घड़ी में संभाला जब पार्टी के सत्ता में लौटने के दूर-दूर तक कोई आसार नहीं थे। इसके बाद 2004 व 2009 में न तो स्वयं सोनिया गांधी ने प्रधानमंत्री पद और न उनके पुत्र राहुल गांधी ने मंत्री पद स्वीकार किया। 2004 में उनके प्रधानमंत्री न बनने को लेकर बहुत सारी अफवाहें फैलाई गईं। लेकिन तत्कालीन राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम ने अपनी आत्मकथा में खुलासा कर दिया है कि सोनिया उस वक्त प्रधानमंत्री पद के लिए कतई इच्छुक नहीं थीं।

इन तथ्यों के आधार पर सोनिया गांधी की संघर्षशीलता, नेतृत्वक्षमता व सत्तामोह से ऊपर उठने की भावना की मैंने अपने लेखों में यथावसर प्रशंसा की है। उनके और प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह के बीच जो आपसी समझदारी व सामंजस्य है उसे भी मैं सराहनीय मानता हूं। राहुल गांधी के लिए भी यह मुश्किल नहीं था कि वे किसी भी दिन केन्द्रीय मंत्री बन जाते बल्कि एक मौके पर हमने भी वकालत की थी कि उन्हें प्रधानमंत्री पद संभाल लेना चाहिए। फिर भी यदि वे सत्तामोह से दूर रहना चाहते हैं तो उनकी इस भावना का सम्मान किया जाना चाहिए। ये सारी बातें अपनी जगह ठीक हैं, लेकिन हाल के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस की जो दुर्दशा हुई है वह इस बात का प्रबल संकेत है कि देश की सबसे पुरानी पार्टी को अपने रवैये में सिर से पैर तक बदलाव लाना चाहिए। जिस ढर्रे पर पार्टी का कामकाज चल रहा है वह आज के जमीनी हालात के अनुकूल नहीं है।

सोनिया गांधी ने 8 दिसम्बर की शाम मीडिया के सामने आकर बहुत सहजता व विनम्रता के साथ विधानसभा चुनावों में पार्टी की हार स्वीकार की। इस दृश्य को देखकर मुझे 1977 की याद आई जब इंदिरा गांधी ने ऐसी ही विनम्रता के साथ अपनी पराजय स्वीकार की थी। उनका वक्तव्य मैंने सुदूर इंग्लैण्ड में रेडियो पर सुना था और मुझे लगा था कि जनतंत्र की खूबसूरती इसी में है। 2013 में सोनिया गांधी के साथ राहुल गांधी भी थे। उन्होंने जब अपनी बात कही तो उसमें किसी हद तक अनावश्यक आक्रामकता थी। जिस तरह कुछ समय पूर्व उन्होंने सांसदों की अपात्रता संबंधी अध्यादेश को लेकर तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की थी, कुछ उसी लहजे में राहुल गांधी ने इस अवसर पर भी टिप्पणी की कि वे संगठन के भीतर बहुत कड़े कदम उठाने जा रहे हैं। यह भावावेश गैरज़रूरी था। यह संभव है कि राहुल प्रधानमंत्री न बनना चाहते हों लेकिन वे अपनी पार्टी के कार्यकारी अध्यक्ष तो बन ही चुके हैं। उन्हें अपने वर्तमान पद के अनुसार अपेक्षित आचरण करना चाहिए।

बात यहीं समाप्त नहीं होती। इस प्रसंग के दो-तीन दिन बाद मुझे यह पढ़कर बहुत आश्चर्य हुआ कि विदेश मंत्री और कांग्रेस के वरिष्ठ नेता सलमान खुर्शीद ने यहां तक कह दिया कि सोनिया गांधी देश की मां हैं। मैं नहीं जानता कि उन्हें इस तरह की संतुलनहीन टिप्पणी करने की जरूरत क्यों आन पड़ी? कांग्रेस पार्टी की मुखिया होने के नाते सोनिया गांधी पार्टी के लिए मातृतुल्य हो सकती हैं, लेकिन इस अतिशयोक्ति को तो वे स्वयं भी स्वीकार नहीं करेंगी कि वे देश की मां हैं। चूंकि भाजपा इस समय विजयगर्व में डूबी हुई है इसलिए उसने इस टिप्पणी पर बहुत हो हल्ला नहीं मचाया तथापि अभी भी ऐसे बहुत से लोग हैं जिन्हें याद है कि आपातकाल के दौरान तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष देवकांत बरुआ ने ''इंडिया इज़ इंदिरा'', ''इंदिरा
इज़ इंडिया'' जैसी अनर्गल टिप्पणी कर न सिर्फ पार्टी के लिए बल्कि अपनी सर्वोच्च नेता के लिए भी बेवजह परेशानी खड़ी कर दी थी। कांग्रेस में वंशवाद व चाटुकारिता की संस्कृति पनपने की बात जब-तब होती है और ऐसे समय श्री बरुआ की टिप्पणी को नजीर की तरह पेश किया जाता है। आज जब कांग्रेस उन दिनों के मुकाबले कमजोर स्थिति में है तब पार्टी के वरिष्ठ नेताओं को इस बारे में अधिक संयम बरतने की जरूरत है।

विधानसभा चुनावों के नतीजे देखने से कुछ और बातों का खुलासा हुआ है। मैंने छत्तीसगढ़ में प्रथम चरण की अठारह सीटों पर अधिकतर नए उम्मीदवार उतारने का स्वागत करते हुए उम्मीद की थी कि पांच राज्यों की छह सौ सीटों पर कांग्रेस अगर पांच सौ नए उम्मीदवार उतारती है तो इससे पार्टी में नए खून का संचार होगा। कांग्रेस के भीतर इसे राहुल फार्मूला कहा गया था। किन्तु बाद में जब टिकट बंटे तो पता चला कि राहुल फार्मूला दरकिनार कर दिया गया। बहुत से ऐसे उम्मीदवारों को टिकट दे दिए गए जिनकी हार निश्चित थी। इसके अलावा संदिग्ध चरित्र वाले अनेक उम्मीदवारों को ले आया गया जिससे जनता के बीच ठीक संदेश नहीं गया। कांग्रेस जैसी पार्टी के भीतर आपसी खींचातानी चलते रहना स्वाभाविक है, लेकिन उस पर वक्त रहते काबू पा लेना भी जरूरी है। ऐसा लगता है कि कांग्रेस नेतृत्व इस मोर्चे पर कठोर व सामयिक निर्णय नहीं ले पा रहा है।

मध्यप्रदेश में हमने सुन रखा था कि कांग्रेस के भीतर चार-पांच गुट चल रहे हैं। ज्योतिरादित्य सिंधिया को चुनाव प्रभारी बनाकर स्थिति को नियंत्रित करने की कोशिश की गई। श्री सिंधिया की नियुक्ति का स्वागत भी हुआ। लेकिन फिर पता चला कि सारे गुट अपने-अपने हिसाब से बदस्तूर चल रहे हैं बल्कि खबरें तो यहां तक भी आईं कि श्री सिंधिया के खिलाफ बाकी सारे नेता एकजुट हो गए। कुछ ऐसी ही स्थिति राजस्थान में देखने मिली जहां बेहतर छवि वाले जमीनी नेता मुख्यमंत्री अशोक गहलोत की लगातार उपेक्षा की गई व राहुल गांधी उन लोगों पर भरोसा किए बैठे रहे जिनका अपना जनाधार बहुत सीमित था। यहां जातिगत समीकरणों का आकलन करने में भी कांग्रेस नेतृत्व सफल नहीं हुआ। कुल मिलाकर ऐसी धारणा बन गई कि कांग्रेस नेतृत्व न तो जमीनी सच्चाईयों से वाकिफ है और न वह पार्टी की भीतरी गुटबाजी पर अंकुश लगाने में सक्षम है।

कारपोरेट भारत, मीडिया व भाजपा का वश चलता तो 2011 या 12 में ही मध्यावधि चुनाव हो गए होते। गनीमत है कि आम चुनाव अब यथासमय ही होंगे। उसके लिए चार माह ही बचे हैं। एक सवाल सहज उठता है कि क्या कांग्रेस पार्टी 2014 की चुनौती का सफलतापूर्वक सामना कर पाएगी? आज जैसी कठिन परिस्थिति कांग्रेस के सामने पहले शायद ही कभी रही होगी। वह इस समय चौतरफा दबावों से घिरी है। एक तरफ भाजपा व हिन्दू राष्ट्रवादी ताकतें, दूसरी तरफ भारत के कारपोरेट घराने, तीसरी तरफ अमेरिका व बहुराष्ट्रीय कंपनियां, और इन सबसे बढ़कर चौथी तरफ देश का वह तबका जिसे सामान्य तौर पर उदारवादी की संज्ञा दी जाती है। मुझे कई बार यह सोचकर हैरानी होती है कि ये कथित उदारवादी बुध्दिजीवी अंतत: किसके साथ हैं! अपनी बौध्दिकता के अहंकार में कहीं वे जाने-अनजाने देश के भीतर पनप रही फासिस्ट ताकतों को तो बढ़ावा नहीं दे रहे! एक पक्ष वामपंथ का भी है। उनकी कांग्रेस से शिकायत वाजिब है कि उसने 2004 के राष्ट्रीय न्यूनतम साझा कार्यक्रम का उल्लंघन कर अमेरिका के साथ आण्विक करार किया और एक बड़ी वादाखिलाफी की। लेकिन आज जब मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के भीतर ममता बनर्जी के साथ हाथ मिलाने की बात उठती है तो अपना सिर पीटने की इच्छा होती है। यदि भारत को अपने संविधान में निहित शाश्वत मूल्यों को कायम रखना है तो आज सभी उदारवादी मध्यमार्गी शक्तियों को एकजुट होना पड़ेगा और इसकी ईमानदार पहल कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में सोनिया गांधी को ही करना पड़ेगी।

देशबंधु में 19 दिसम्बर 2013 को प्रकाशित

ये नतीजे क्या कहते हैं?





पांच
राज्यों से आए विधानसभा चुनावों के नतीजे स्पष्ट हैं।  दिल्ली और राजस्थान में कांग्रेस को शर्मनाक पराजय का सामना करना पड़ा है, मध्यप्रदेश में लगभग पिछले चुनावों जैसी स्थिति है, छत्तीसगढ़ में पार्टी निश्चित विजय के दरवाजे जाकर लौट आई है तथा मिजोरम में उसे एक बार फिर दो तिहाई से ज्यादा बहुमत मिला है। भारतीय जनता पार्टी ने राजस्थान में प्रचंड विजय हासिल की है, मध्यप्रदेश में वह कुछ अतिरिक्त सीटों के साथ तीसरी बार सत्ता में लौटी है, छत्तीसगढ़ में भाजपा को हार की संभावना के बीच तीसरी बार जीत मिली है, दिल्ली में स्पष्ट बहुमत न मिल पाने के कारण उसकी जीत अधूरी है और मिजोरम में पार्टी कहीं है ही नहीं। इन नतीजों के कारणों और भावी संकेतों को लेकर 8 दिसंबर की शाम से ही चर्चाएं प्रारंभ हो गई हैं। मेरा मानना है कि तात्कालिक प्रतिक्रियाओं का यह दौर थमने और सभी राज्यों  से विस्तारपूर्वक आंकड़े मिलने के बाद ही इन पर कोई सुनिश्चित राज्य बनाना संभव हो पाएगा।

फिलहाल ऐसे कुछ कारणों की चर्चा की जा सकती है जिन्होंने इन चुनावों में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष, वास्तविक या आभासी भूमिका निभाई। सबसे पहले 'आप' याने आम आदमी पार्टी की चर्चा करना उचित होगा। मतगणना के कुछ दिन पूर्व पार्टी के प्रमुख प्रवक्ता योगेन्द्र यादव ने अड़तालीस सीट जीतने का दावा अपने सर्वेक्षण के आधार पर किया था। दूसरी ओर भाजपा प्रवक्ता जीवीएल नरसिम्हन ने 7 तारीख की रात को कहा था कि 'आप' को दो से ज्यादा सीटें नहीं मिलेंगी। जाहिर है कि दोनों के अनुमान गलत निकले, फिर भी 'आप' को मिली 28 सीटों से देश का एक वर्ग खासा उत्साहित नजर आ रहा है। उसे लग रहा है कि भारतीय राजनीति में एक नए युग का पदार्पण हो चुका है। 'आप' के एजेंडा में कुछ अच्छी बातें हैं जैसे सादगी का संकल्प, प्रतिभागी जनतंत्र का वायदा व भ्रष्टाचार से मुक्ति आदि। लेकिन एक राष्ट्रीय विकल्प बनने के लिए 'आप' के पास कौन सी नीतियां, सिध्दांत या दृष्टि है इस बारे में हम अभी कुछ नहीं जानते। इनके नेता अरविंद केजरीवाल जिस लहजे में बात करते हैं उससे ममता बनर्जी की याद आती है। कहने का मतलब यह कि अभी बहुत खुश होने का कोई ठोस कारण नजर नहीं आता।

ऐसा माना जा रहा है कि महंगाई भी इन चुनावों में कांग्रेस की पराजय का एक बड़ा कारण है। आम आदमी पार्टी ने जहां सस्ते दर पर प्याज बेचने का नाटक  किया, वहीं उसने अपने घोषणा पत्र में बिजली, पानी आदि की दरें कम करने का वायदा भी किया। यह संभव है कि दिल्ली के मतदाताओं पर महंगाई का असर पड़ा है। आखिरकार देश की राजधानी में सिर्फ वे ही नहीं रहते जिन्हें छठवें वेतन आयोग का लाभ मिल रहा है। लेकिन अन्य राज्यों में महंगाई चुनावी मुद्दा नहीं था। यदि 'आप' पार्टी को स्पष्ट बहुमत मिलता और उसकी सरकार बनती तब शायद हमें यह देखने का अवसर मिलता कि यह पार्टी महंगाई कम करने के अपने वायदे पर कितना अमल कर पाती है!

बदलाव की चाहत याने एंटी इंकम्बेंसी का मुद्दा इस बार काफी हावी रहा। राजस्थान के बारे में तो कहा ही गया कि वहां हर पांच साल में सरकार बदल जाती है, लेकिन कांग्रेस की ऐसी दुर्दशा की कल्पना किसी ने न की होगी। ऐसा लगता है कि वहां बदलाव की चाहत के अलावा कुछ और भी कारण रहे होंगे जिनकी अनदेखी कांग्रेस के राष्ट्रीय नेतृत्व ने कर दी। यही बात दिल्ली के बारे में कही जा सकती है। पंद्रह साल एक लंबा समय होता है और हर मुख्यमंत्री ज्योति बसु नहीं होता। राष्ट्रमंडल खेलों के समय से शीला दीक्षित की छवि धूमिल होने लगी थी। लेकिन दीवार पर लिखी इबारत को पढ़ने से पार्टी कतराती रही। सवाल उठता है कि जो बदलाव की चाहत दिल्ली या राजस्थान में थी या इसके पहले कर्नाटक, हिमाचल व उत्तराखण्ड में देखने मिली थी वह मध्यप्रदेश व छत्तीसगढ़ में क्या बिल्कुल नदारत थी? यह बात भी समझ आई कि इस बार वर्तमान विधायकों के खिलाफ एंटी इंकम्बेंसी पहले की अपेक्षा कहीं ज्यादा मुखर थी।

हर चुनाव की तरह इस बार भी बड़ी संख्या में युवाओं को पहली बार वोट देने का अवसर मिला। उन्होंने किसका साथ दिया इसके आंकड़े अभी उपलब्ध नहीं हैं। लेकिन स्पष्ट है कि कांग्रेस ने इन चुनावों में युवाशक्ति का पर्याप्त लाभ नहीं उठाया। छत्तीसगढ़ में उसने पहले दौर में नए चेहरों को विशेषकर युवाओं को टिकट देकर उम्मीद जगाई थी कि राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस अपने आपको एक युवा पार्टी के रूप में ढालने जा रही है। लेकिन इसके तुरंत बाद पार्टी अपने स्थापित नेताओं को खारिज करने का साहस नहीं दिखा पाई और चारों प्रदेशों में फिर वही ढाक के तीन पात वाली स्थिति कमोबेश निर्मित हो गई। इतना ही नहीं, एक ज्योतिरादित्य सिंधिया को छोड़कर अन्य किसी युवा नेता को चुनावों के दौरान कोई प्रभावी भूमिका नहीं दी गई। छत्तीसगढ़ में तो खैर पार्टी के पास कोई युवा नेता है ही नहीं, राजस्थान और दिल्ली में सचिन पायलट और अजय माकन को आगे लाया जाता और मध्यप्रदेश में
ज्योतिरादित्य सिंधिया को खुलकर काम करने का मौका दिया जाता तो ऐसी बदहाली की नौबत नहीं आती।

इस दौर में नरेन्द्र मोदी का खूब गुणगान हुआ। नतीजे आने के बाद तो भाजपा नेताओं की जबान मोदी का नाम लेते थक नहीं रही है, लेकिन क्या सचमुच यह मोदी के नेतृत्व का चमत्कार है? छत्तीसगढ़ में सरगुजा से नरेन्द्र मोदी ने लालकिले की अनुकृति वाले मंच से चुनाव अभियान की शुरूआत की थी। वहां भाजपा को आठ में से सिर्फ एक सीट पर विजय मिली। बस्तर में मोदी की सभाओं के बावजूद भाजपा की सीटें ग्यारह से घटकर चार रह गईं और दुर्ग में तीन बार के हारे हुए कांग्रेसी अरुण वोरा चुनाव जीत गए। दिल्ली में भाजपा को स्पष्ट बहुमत न मिलना मोदी मिथक को पूरी तरह खारिज करता है और मध्यप्रदेश में शिवराज सिंह चौहान ने न ही उनका नाम लिया और पोस्टर लगाए तो बेमन से। अब तक मोदी तीन बार का विजेता होने के गर्व से भरे थे। सरल सौम्य रमन सिंह और सरल हंसमुख शिवराज सिंह को भी यह गौरव हासिल हो गया है। बहरहाल हम जानते हैं कि कारपोरेट भारत मोदी के साथ है।

छत्तीसगढ़ के विशेष संदर्भ में माओवाद भी एक मुद्दा रहा है। 2003 और 2008 के चुनावों में नक्सलियों ने भाजपा को बस्तर में जीतने में प्रत्यक्ष -अप्रत्यक्ष सहयोग किया था। इस बार अनुमान था कि कुछ कारणों से वे कांग्रेस का समर्थन करेंगे और वैसा हुआ भी। बस्तर में नोटा का बटन जितना दबाया गया उतना अन्यत्र कहीं नहीं। क्या यह भविष्य के लिए माओवादियों का कोई प्रयोग था? कहना मुश्किल है। यह एक अलग मुद्दा है। यदि छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की सरकार बन पाती तो माओवादियों के साथ बातचीत का रास्ता खुलता, लेकिन वैसा नहीं हो पाया। अब वही भाजपा सरकार है और वही माओवादी। 'देशबन्धु' के पत्रकार साई रेड्डी की निर्ममतापूर्वक हत्या कर नक्सलियों ने संदेश दिया है कि उनके तौर-तरीके वही रहेंगे। अगर भाजपा की भी रीति-नीति पूर्ववत् रही तो विशेषकर बस्तर में कठिन परिस्थिति उत्पन्न हो जाएगी।

इस समय चुनावी सर्वेक्षण करने वाले अपनी पीठ थपथपा रहे हैं कि उनके अनुमान सही निकले। चारों राज्यों में भाजपा सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी। यहां तक तो उनका दावा ठीक है किन्तु अगर सर्वेक्षणों के आंकड़े सामने देखकर बात की जाए तो स्पष्ट पता चल जाता है कि एक भी सर्वेक्षण सही नहीं निकला। किसी ने भी न तो राजस्थान में और न दिल्ली में कांग्रेस के इस तरह हारने का अनुमान लगाया था। सच यह है कि इन सर्वेक्षणों के पीछे मुख्य मकसद चैनलों की रेटिंग बढ़ाना होता है और उसमें कुछ दिनों के लिए दर्शकों को चटपटी चाट का स्वाद मिल जाता है। बहरहाल, सभी जीतने वालों को मुबारकबाद। इस उम्मीद के साथ कि आने वाले दिनों में लोकतंत्र और मजबूत होगा।

देशबंधु में 12 दिसम्बर 2013 को प्रकाशित


 

 
 
 

 

 
 
 
 

Monday 9 December 2013

विरासत संरक्षण में तकनीकी की भूमिका



विरासत
अथवा धरोहर की सरल शब्दों में व्याख्या करना हो तो मैं कहूंगा कि यह एक बहुमूल्य और  बहुत जल्दी नष्ट न होने वाला खजाना है, जो एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को अनुपम उपहार के रूप में हस्तांतरित होता है। अपने निजी व पारिवारिक जीवन में विरासत के महत्व को हम भलीभांति जानते हैं। उसके विस्तार में जाने की आवश्यकता यहां नहीं है। यह महत्व कई गुणा बढ़ जाता है जब हम देश, दुनिया या समाज के परिप्रेक्ष्य में विरासत की बात करते हैं। विशेषज्ञ इस सामाजिक विरासत राशि को मुख्यत: तीन भागों में बांटते हैं- प्राकृतिक, निर्मित व सांस्कृतिक। सांस्कृतिक पक्ष में एक अंश निर्मित विरासत का भी है, जिसकी हम आगे चर्चा करेंगे। प्राकृतिक विरासत की अनेक श्रेणियां हैं- जैसे नदी, झरने, पहाड़, वनस्पति, पशु-पक्षी इत्यादि। निर्मित विरासत में हजारों या सैकड़ों साल पहले बनाई गई इमारतें जैसे धर्मस्थल, किले, महल या फिर उद्योग, औद्योगिक उपकरण, अन्य औजार आएंगे। सांस्कृतिक विरासत में साहित्य, चित्रकला, संगीत, नृत्य, सिनेमा, कृषि, मेले, पर्व, वस्त्राभूषण आदि शामिल किए जा सकते हैं।


प्रश्न उठता है कि इस प्रचुर विरासत के संरक्षण की आवश्यकता क्यों है? इसका उत्तर खोजते हुए मुझे लगता है कि जब हम विरासत का संरक्षण करते हैं तो बात वहीं तक सीमित नहीं रह जाती बल्कि उसमें सभ्यता के प्रारंभ से लेकर अब तक मनुष्य जीवन का जो तंतु-जाल है उसके संरक्षण की बात भी अपने आप शामिल हो जाती है। यही नहीं, इस पृथ्वी पर जो जैव विविधता है उसका संरक्षण विरासत के बारे में सम्यक ज्ञान होने से ही किया जा सकता है। मैं एक उदाहरण लेना चाहूंगा। आज के युग में चॉकलेट एक आनंददायक स्वादिष्ट उपभोक्ता वस्तु है। इस चॉकलेट के उत्पादन में साल एवं अन्य कुछ वृक्षों से निकलने वाले तेल का बड़ी मात्रा में इस्तेमाल किया जाता है। हमारा छत्तीसगढ़ खासकर बस्तर अपने साल वनों के लिए प्रसिध्द रहा है। आज यदि साल या ऐसे अन्य वृक्ष नष्ट हो जाएं तो चॉकलेट उत्पादन के लिए तेल कैसे मिलेगा और यदि चॉकलेट नहीं रहेगी तो विज्ञापन की भाषा में ''कुछ मीठा हो जाए'' का विकल्प क्या होगा? कहने का आशय कि घने जंगलों में उगे साल के वृक्ष से लेकर उपभोक्ता बाजार तक एक अटूट श्रृंखला बनी हुई है, जो विरासत का ज्ञान होने पर ही बनी रह सकती है।

आइए, इसी बात को कुछ और विस्तार में समझने की कोशिश करते हैं। विरासत अथवा धरोहर के बारे में सही समझ हमारे लिए कई मायनों में उपयोगी होगी। सबसे पहले तो कोई भी विरासत हमें अहसास दिलाती है कि यह मेरी चीज है, मैं इसका अधिकारी हूं। यह ठीक उसी तरह की भावना है जैसे दादा-दादी या माता-पिता ने हमें कोई ऐसी भेंट दी हो जिसे हम हमेशा संभालकर रखने की इच्छा रखते हैं। दूसरे, विरासत से हममें उचित गर्व या अभिमान का भाव जागृत होता है। श्रीनगर की डल झील हो या जैसलमेर का किला, ताजमहल हो या अजंता के चित्र, इन सबके बारे में सोचते हुए हमारा मन फूल जाता है। हम अपनी नजरों में ही कहीं ऊंचे उठ जाते हैं। इसका विपर्यय भी हमें नहीं भूलना चाहिए। बाज वक्त हम यह कहने से नहीं चूकते कि अमेरिका की संस्कृति चार सौ साल पुरानी है, जबकि हमारी हजारों साल पुरानी। ऐसी तुलना करना और ऐसी भावना रखना थोथे अहंकार व मानसिक अपरिपक्वता को दर्शाता है।

विरासत की समझ से हमें इतिहास की समझ भी मिलती है और अतीत से स्वयं को जोड़ने का अवसर भी। गुजरात के समुद्र तट पर सोमनाथ के मंदिर को देखकर एक विदेशी आक्रांता का स्मरण सहज हो जाता है, लेकिन सोमनाथ से मात्र सौ किलोमीटर दूर उसी पश्चिमी समुद्र तट पर द्वारिका का मंदिर अक्षुण्ण देखकर यह प्रश्न अपने आप मन में आता है कि इसे आक्रांताओं ने क्यों छोड़ दिया। इसी तरह एक ओर जलियांवाला बाग की गोलियों से छलनी दीवार औपनिवेशिक क्रूरता की याद दिलाती है, तो 1911 में तामीर मैसूर का भव्य राजप्रासाद सोचने पर बाध्य करता है कि राजे-महाराजे किस तरह से विदेशी शासकों की ताबेदारी कर रहे थे। इस बात को समेटते हुए कहा जा सकता है कि ऐसी प्राचीन विरासतों का संरक्षण करना इतिहास की सही समझ विकसित करने के लिए न सिर्फ सहायक बल्कि आवश्यक भी है।

आज के समय में बहुत से जिज्ञासु जन टीवी पर डिस्कवरी व हिस्ट्री चैनल आदि देखकर अपनी ज्ञान पिपासा शांत करने की कोशिश करते हैं। यह अच्छी बात है। मेरा कहना है कि विरासत संपदा स्वयं ज्ञान प्राप्ति का बेहद महत्वपूर्ण साधन है। पहाड़ की चोटी पर बने किसी मंदिर में लगे भीमकाय पाषाण खंडों को देखकर जिज्ञासा होती है कि ये बड़े-बड़े पत्थर इतने ऊपर कैसे लाए गए। देलवाड़ा, हॉलीबिड, बेलूर आदि के मंदिरों में जो अनुपम संगतराशी की गई है, वह प्रश्न उठाती है कि हजार-बारह सौ साल पहले इस देश में पत्थर काटने वाले यंत्र कैसे आए होंगे। जब ऐसे प्रश्न मन में उठते हैं तो फिर सृजनशील मन में सहज ही कल्पना की नई लहर उठने लगती है। क्या आज भी इस तरह का निर्माण संभव है। इसके लिए क्या करना होगा, ऐसे विचार उमड़ने लगते हैं।

अपनी विरासत का बोध मनुष्य का पर्यावरण के प्रति लगाव को बढ़ाता भी है। यदि रायपुर निवासी को यह मालूम हो कि घर के नल में आए जिस पानी को वह पी रहा है वह खारून नदी से आया है तो नदी के प्रति उसका ममत्व भाव जागृत हो सकता है। अपने घर के आसपास के पेड़-पौधे छत पर या सामने किसी पेड़ पर बसेरा करने वाले पक्षी हमें आह्लादित करते ही हैं। कहना न होगा कि उपरोक्त सारी बातें हमारी सृजनशीलता को आगे बढ़ाती हैं। हमारे जीवन में अगर ये सब निधियां न हो तो सोचिए कि किस विषय पर कविता लिखी जाएगी, चित्र में क्या उकेरा जाएगा! इन उपादानों के बिना कलाओं का स्वरूप इकहरा हो जाएगा। आज हमारी जैसी जीवन शैली हो गई है, इसमें ''अंधेरे बंद कमरे'' जैसा उपन्यास तो लिखा जा सकता है, लेकिन ''मेघदूत'' नहीं।

आज इस परिसर में ''विरासत संरक्षण में तकनीकी का योगदान'' पर चर्चा करते हुए मैं यह सोचने की कोशिश कर रहा हूं कि एक प्रबुध्द तकनीकी शिक्षक के रूप में इस दिशा में आपकी क्या भूमिका हो सकती है। मुझे चार बिन्दु मोटे तौर पर ध्यान आते हैं- एक तो शिक्षक होने के नाते निजी व संस्थागत तौर पर आप विरासत के बारे में समाज को जागरूक करने का काम कर सकते हैं। दूसरे तकनीकीविद् होने के नाते आप सदियों पुरानी तकनीकों का विश्लेषण कर बतला सकते हैं कि आज के समय में उनकी उपयोगिता कहां तक है। इसी तरह वैज्ञानिक विधि से शोध कर आप हमारी धरोहरों को दीर्घकाल तक सुरक्षित रखने के लिए नई तरकीबें ईजाद कर सकते हैं। आप ही बता सकते हैं कि भोपाल के बड़े तालाब का अस्तित्व बचाने के लिए क्या किया जाना चाहिए। चौथे आज की नई प्रविधियों का उपयोग करते हुए विरासत निधियों का सूचीकरण व दस्तावेजीकरण करने में भी आपकी महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती है।

मैं यद्यपि तकनीकी व्यक्ति नहीं हूं तथापि टेक्नालॉजी के प्रयोग से विरासत संपदा को कैसे बचाया जा सकता है इस बारे में अपने कुछ विचार मैं आपके साथ बांटने की अनुमति चाहता हूं। एक तो मैं ऐसा सोचता हूं कि हमारी तकनीकी ज्ञान परंपरा में ही ऐसा बहुत कुछ है, जो विरासत की श्रेणी में आता है। मसलन दस-बारह सदी पूर्व बने मंदिरों में पत्थर की खुदाई की विधि, छठवीं-सातवीं शताब्दी में ईंट पकाने की विधि, उन्हें जोड़ने के लिए प्रयुक्त मसाला बनाने की विधि या फिर वे बारीक यंत्र जिनसे ग्रेनाइट में छेद करना संभव था। इसी तरह हम प्राचीन वाद्य यंत्र, वाहन, वस्त्र निर्माण आदि बहुत-सी बातों को ले सकते हैं। इनका विधिवत सूचीकरण करने से पता लगेगा कि हमारे देश में तकनीकी का विकास कैसे हुआ। दूसरे, वर्तमान में विरासत संरक्षण में तकनीकी का इस्तेमाल। यह ऐसा मुद्दा है, जो आपसे गंभीर विचार की अपेक्षा रखता है।

हम पहले प्राकृतिक विरासत के संरक्षण की बात करें। यह सबको पता है कि देश की कितनी ही नदियां धीरे-धीरे कर मर रही हैं। गंगा और यमुना की जो दुर्गति है वह किसी से छुपी नहीं है। इनके लिए योजनाएं भी बनाई गई हैं, लेकिन उनमें समन्वित प्रयास का अभाव दिखाई देता है। शायद वक्त आ गया है कि हमारे नीति निर्माता तकनीकी विशेषज्ञों को अपेक्षित स्वायत्तता व सम्मान दें ताकि वे ऐसी योजनाओं को सही ढंग से लागू कर सकें। जर्मनी में राईन व अन्य नदियों को सफलतापूर्वक प्रदूषण मुक्त किया गया है। उसी तरह हमें अपनी नदियों को प्रदूषण मुक्त करने की जरूरत है, उनमें कारखानों व नगरों का अपशिष्ट डालना रोकना है, उनके स्वाभाविक प्रवाह को रोकने में सावधानी बरतना है तथा नदियों की जो अपनी पारिस्थितिकी एवं जैव विविधता है उसे बचाना है। कुछ यही बात तालाबों पर भी लागू होती है। तालाबों को पाटकर उस भूमि का जो बेहिसाब व्यवसायिक उपयोग किया जा रहा है उसे समय रहते रोकना आवश्यक है। हमारे जंगलों में फिर वैसा परिवेश लाने की जरूरत है, जिसमें बहुमूल्य वृक्षों और वनस्पतियों के पुनरोत्पादन की संभावना बनी रहे। इसमें आदिवासी एवं वन्य क्षेत्र के अन्य निवासियों का सहयोग कैसे सुनिश्चित किया जाए यह विचारणीय है। वन्य जीवों व पक्षियों के बारे में भी इसी तरह विचार करना आवश्यक है। मेरा मानना है कि तकनीकीविदों को इन सब मामलों में निरपेक्ष नागरिक की नहीं बल्कि सक्रिय नेतृत्वकारी भूमिका निभाना चाहिए।

जहां तक निर्मित धरोहरों की बात है आप स्वयं इस विषय के विशेषज्ञ हैं। आप जहां एक तरफ नए-नए प्रयोग, नए-नए निर्माण कर नई-नई ऊंचाईयों को हासिल कर रहे हैं, वहीं आपके ज्ञान व अनुभव का लाभ प्राचीन धरोहरों के संरक्षण को भी मिलना चाहिए। पुरानी इमारतों को मौसम की मार से कैसे बचाया जाए, उन्हें प्रदूषण से क्षति न पहुंचे, जो भवन खंडित हो रहे हैं उन्हें मूल रूप में कैसे वापिस लाया जाए, इनकी साज-सज्जा कैसी हो, आज के समय में इनका उपयोग किस तरह से किया जाए यह आपके विचार का ही विषय है। हमारी खेती में कौन सी पुरानी पध्दतियां आज भी कारगर हो सकती हैं, भोजन और औषधि के लिए वनस्पतियों का सम्यक उपयोग कैसे हो, विलुप्त होती भाषाओं को कैसे बचाया जाए, पुराने वाद्य यंत्र और गायन पध्दतियों को जीवित रखने क्या किया जाए- इस सबमें भी आपके तकनीकी ज्ञान व परामर्श की बेहद जरूरत है। मैं यही उम्मीद कर सकता हूं कि आप भारत की समृध्द विरासत को एक सामान्य सैलानी की नज़र से नहीं बल्कि एक जागरुक अध्येता की दृष्टि से देखेंगे और उसके संरक्षण में सक्रियतापूर्वक योगदान करेंगे।

(राष्ट्रीय तकनीकी शिक्षक प्रशिक्षण एवं अनुसंधान संस्थान भोपाल में 5 अगस्त 2013 को 'विरासत संरक्षण में तकनीकी का योगदान' विषय पर किए गए व्याख्यान का परिवर्ध्दित रूप)

अक्षर पर्व नवम्बर 2013 अंक में प्रकाशित

Thursday 5 December 2013

तीसरे प्रेस आयोग की जरूरत



जनवरी 1973 का कोई एक दिन। मध्यप्रदेश के कुछ जिलों का दौरा करते हुए मैं उस दिन रीवा में था और कुछ समय पूर्व रायपुर से तबादले पर पहुंचे एक परिचित सज्जन से मिलने गया था। बातचीत के दौरान मैंने उन्हें जबलपुर के एक साप्ताहिक अखबार के स्वामी-संपादक के निधन की जानकारी दी तो उक्त परिचित अधिकारी की पहली प्रतिक्रिया थी- '' थैंक्स गॉड''। यह सुन कर मुझे कोई हैरानी नहीं हुई। जिस दिवंगत पत्रकार का जिक्र मैंने छेड़ा था वे एक शासकीय विभाग के कारनामों का भंडाफोड़ करने या उसके एवज में अच्छी-खासी वसूली करने के लिए चर्चित थे। ऐसा करने वाले वे अकेले पत्रकार नहीं थे। भोपाल, इंदौर, ग्वालियर, रायपुर, जबलपुर- सब जगह दो-चार ऐसे अखबार निकलते ही थे। सबने अपने-अपने कार्यक्षेत्र भी बांट रखे थे। कोई लोक निर्माण विभाग (पीडब्ल्यूडी) की खबरें छापता या दबाता, तो कोई सिंचाई विभाग की। किसी के निशाने पर राज्य विद्युत मंडल था, तो कोई शिक्षा विभाग से ही संतुष्ट था।

इन तमाम अखबारों में जिस प्रकृति की खबरें छपती थीं उनके चलते इन्हें पीत पत्रकारिता की संज्ञा दी जाती थी। ये अगर सामने पड़ जाएं तो लोग इनसे बचने की कोशिश करते थे। नहीं बच पाए तो बेमन से दुआ-सलाम करना पड़ती थी। न जाने कब, किसके बारे में, क्या छाप दें। पीठ पीछे उनकी तारीफ करने वाला कोई नहीं था। मर गए तो घरवालों को छोड़कर कोई आंसू बहाने वाला भी नहीं होता था। कालांतर में ऐसे अखबार और भी फले-फूले। एक जगह से निकलने वाले पत्र के कई-कई कथित संस्करण हो गए। जहां कहीं सरकारी प्रोजेक्ट चल रही हो, वहां ये भी मौजूद रहने लगे। अधिकारियों ने भी समझदारी दिखाई। खबर छप जाए या उसे दबाने के लिए दौड़-धूप करना पड़े इससे अच्छा कि हर महीने निश्चित राशि का लिफाफा संपादकजी को भेंट कर दिया जाए।

जाहिर है कि इन अखबारों में प्रकाशन के लिए आई सामग्री संबंधित दफ्तर के भीतर से ही आती होगी। दफ्तरों में होने वाली राजनीति के लिए ये अखबार एक तरह से मोहरा बन जाते थे। इस सच्चाई को समझने में राजनेताओं ने भी देर नहीं की। देखते ही देखते नेताओं द्वारा प्रायोजित दर्जनों अखबार सामने आ गए। ट्रेडल या सिलेण्डर मशीन पर छपने वाले साप्ताहिक तो अपनी जगह पर कायम रहे, राजनीति से प्रायोजित नए अखबार नयी सजधज के साथ बाजार में आए। वैसे बाजार में आए कहना गलत होगा, सीमित संख्या में छपने वाली इन पत्र-पत्रिकाओं का वितरण राजनीति के गलियारों तक ही सीमित रहा है। इनका उपयोग अपने राजनीतिक विरोधियों पर वार करने के लिए किया गया। कोई खबर या लेख जैसे ही छपा उसकी फाइलें तैयार हो गईं ताकि वक्त पड़ने पर पार्टी हाईकमान के सामने पेश की जा सकें।

मुझे 1982-83 का एक प्रसंग ध्यान आता है। भोपाल के जनसंपर्क विभाग में पत्रकार अधिमान्यता समिति की बैठक कुछ देर पहले समाप्त हुई थी। मैं जनसंपर्क संचालक के कक्ष में उनके साथ चाय पीने के लिए रुक गया था। इतने में एक सज्जन धड़धड़ाते हुए भीतर आए। कडक़ आवाज में पूछा- हमारा काम हो गया। संचालक ने जवाब दिया- मुझे पता नहीं, मैं बैठक में नहीं था, अभी अतिरिक्त संचालक मेरे पास रिपोर्ट देने नहीं आए। उन सज्जन ने लगभग धमकाने के स्वर में कहा कि इस बार मेरा काम नहीं हुआ तो ठीक नहीं होगा। वे चले गए। संचालक ने बताया कि इन महाशय की पत्नी एक साप्ताहिक अखबार निकालती हैं। ये स्वयं किसी सार्वजनिक उद्यम में क्लर्क के पद पर हैं, लेकिन इन पर किसी बड़े राजनेता की कृपादृष्टि है। उन्हें अधिमान्यता की पात्रता नहीं थी सो हमारी कमेटी ने उनका आवेदन निरस्त कर दिया था। इसके बाद क्या हुआ मुझे नहीं पता, लेकिन इस प्रसंग का जिक्र इसलिए किया कि पत्रकारिता में भी कैसे अलग-अलग रंग देखने मिलते हैं।

वर्तमान माहौल पहले से काफी कुछ बदला हुआ नज़र आ सकता है, लेकिन विश्लेषण करें तो सवाल उभरता है कि आज जो धूम-धड़ाके की पत्रकारिता हो रही है उसके बीज कहीं पुराने समय की पीत पत्रकारिता में तो नहीं छिपे हैं! आज के अखबारों या मीडिया पोर्टलों के नामकरण से ही कुछ अनुमान लगाया जा सकता है। पहले डमडम डिगा डिगा, एटम, स्पुतनिक, भंडाफोड़- जैसे नामों के अखबार होते थे तो आज भी बुलंद, दबंग, गुलेल, तहलका, कोबरा- जैसे नाम सामने हैं। मैंने ऊपर मुख्यत: हिन्दी पत्रकारिता की चर्चा की है, लेकिन ऐसा नहीं कि उस दौर में अंग्रेजी अखबार इस चलन के परे थे। ब्लिट्ज् और करंट का इतिहास तो पत्रकारिता के सुधी अध्येता जानते ही हैं। स्टारडस्ट नाम की एक फिल्मी पत्रिका भी निकलती थी, जिसमें फिल्मी हस्तियों के बारे में आपत्तिजनक हद तक चटपटी खबरें छापी जाती थीं। यही क्यों, पहले खुशवंत सिंह और फिर प्रीतिश नंदी के संपादन में इलस्ट्रेटेड वीकली ऑफ इंडिया में भी भंडाफोड़ मार्का फीचर छपने लगे थे। कहना होगा कि वह प्रवृत्ति न सिर्फ बढ़ गई है, बल्कि बंधनहीन भी हो गई है।

आज जब तरुण तेजपाल प्रकरण के चलते आम जनता में न सही, मीडिया जगत में एक किस्म से तहलका मचा हुआ है तब हम पत्रकारों को तो कम से कम अपना इतिहास देख लेना चाहिए। ब्लिट्ज्, करंट और वीकली- सब हमारे देखते-देखते बंद हो चुके हैं। अगर उनकी कहीं चर्चा होती भी है तो उनके द्वारा पूर्व में की गई वस्तुपरक पत्रकारिता के कारण, न कि बाद के समय की विषयपरक सामग्री के कारण। पत्रकारिता की कक्षा में जो इतिहास पढ़ाया जाता है, उसमें इनका नाम कहीं दूर-दूर तक भी नहीं आता, जबकि अपने समय में इनका रुतबा देखते ही बनता था। वर्तमान में पत्रकारिता के तीन रूप देखे जा सकते हैं- पारंपरिक एवं वस्तुनिष्ठ, सनसनीखेज और विषयनिष्ठ तथा प्रचारनिष्ठ। तीसरी श्रेणी याने प्रचारनिष्ठ से आशय उन चमकीली-भड़कीली पत्रिकाओं से है, जो सत्ता प्रतिष्ठान की मेहरबानी से निकलती हैं और उन्हीं से अपना आजीविका पाती हैं। रायपुर में ही ऐसी कोई एक दर्जन पत्रिकाएं निकलने लगी हैं, लेकिन इन्हें कोई गंभीरता से नहीं लेता।

सनसनीखेज और विषयनिष्ठ पत्रकारिता का उदाहरण न सिर्फ तहलका, बल्कि बहुत से समाचार चैनल भी हैं। भारतीय समाज में हाल के बरसों में जो अंग्रेजीपरस्ती आई  है उसके चलते इनका कारोबार चल रहा है। मुझे यह देखकर दु:ख होता है कि सामाजिक उदारवाद (लिबरलिज् म) के नाम पर देश में एक अंग्रेजीदाँ वर्ग तैयार हो गया है जो दिल्ली में, सत्ता किसी की भी हो, उसके आसपास मंडराता रहता है। वह देश में नीति-निर्धारण में भी हस्तक्षेप कर रहा है, लेकिन जिसका देश की आम जनता के साथ कोई लेना-देना नहीं है। इस वर्ग ने सामाजिक न्याय के लिए चल रही लड़ाई में सिर्फ जबान से काम लिया है और निजी तौर पर खतरे उठाने से बचते रहा है।
वस्तुनिष्ठ पत्रकारिता की जहां तक बात है, ऐसे अखबारों और पत्रकारों की कमी नहीं है, जो पत्रकारिता के बुनियादी उसूलों का आज भी पालन कर रहे हैं। सच तो यह है कि हिन्दी व अन्य भारतीय भाषाओं में ऐसे पत्रकारों की ही संख्या ज्यादा  है और अंग्रेजी में भी उनके लिए जगह पूरी तरह खत्म नहीं हुई है। आशंका इस बात की है कि नवपूंजीवाद के इस युग में मीडिया भी पूंजी आधारित, पूंजी आश्रित और पूंजीमुखी हो गया है। इससे कैसे बचा जाए, सिर्फ पत्रकारों के लिए नहीं, बल्कि व्यापक समाज और कल्याणकारी राज्य के सोचने का भी विषय है। शायद वक्त आ गया है कि तीसरे प्रेस आयोग का गठन किया जाए जो देश में पत्रकारिता के समक्ष मौजूदा खतरों और चुनौतियों का अध्ययन कर बेहतर विकल्प सुझा सके!

देशबंधु में 5 दिसम्बर 2013 को प्रकाशित