Tuesday 29 May 2012

टोरकिल का शहर



 रमाकांत श्रीवास्तव का नया कहानी संग्रह ''टोरकिल का शहर'' अभी हाल में प्रकाशित हुआ है। मन हुआ कि उस पर कुछ लिखा जाए। सोचते-सोचते रमाकांत व उनकी कहानियों के इर्द-गिर्द एक पूरी तस्वीर ही जेहन में उभर आई।

 छत्तीसगढ़  में हिन्दी कहानी का इतिहास लगभग सौ वर्ष पुराना है याने उतना ही जितना आधुनिक हिन्दी कथा साहित्य का। यह इतिहास पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी के साथ प्रारंभ होता है। उनकी ''बिजली'' और ''झलमला'' जैसी कहानियां भारतीय कथा साहित्य की अनमोल निधि हैं। यद्यपि बच्चू जांजगीरी की मानें तो माधवराव सप्रे की ''टोकरी भर मिट्टी'' हिन्दी की पहली कहानी है तथापि मेरी समझ में यह स्थापना कर बच्चू भाई ने अपने प्रदेश का गौरवगान करने का ही पुण्य काम किया है। ''टोकरी भर मिट्टी'' सच पूछिए तो लंबे समय से चली आ रही लोककथा का लिप्यांतर है। सप्रे जी का जो महती योगदान है वह प्रदेश के पहले पत्रकार और उसके साथ एक श्रेष्ठ निबंधकार के रूप में है। बख्शी जी द्वारा स्थापित परंपरा को आगे बढ़ाने में प्रदेश के अनेक कहानीकारों का योगदान रहा है। इनमें मुक्तिबोध जी का नाम लिया जा सकता है जिनकी ''विपात्र'' तथा कुछ अन्य कहानियां राजनांदगांव में बीते अंतिम वर्षों में ही लिखी गईं। लेकिन बख्शी जी के बाद छत्तीसगढ़ ने हिन्दी को जो बड़ा कहानीकार दिया उसे जैसे हमने भुला दिया है। प्रदेश का संस्कृति विभाग जो चौबीस गुणा सात की शैली में काम करता है उसे तो इस कथा शिल्पी का शायद नाम भी नहीं मालूम है। जिन्हें साहित्य की थोड़ी बहुत जानकारी है वे जान गए होंगे कि मैं बस्तर के सपूत शानी की बात कर रहा हूं। शानी का न तो कोई स्मारक है, न बस्तर के लोग उन्हें याद करते हैं और न छत्तीसगढ़ के लेखकों की स्मृति में वे कभी आते हैं। शानी के समकालीन मनहर चौहान ने भी किसी समय कथा जगत में अपनी धाक जमाई थी। चर्चित ''सचेतन कहानी आंदोलन'' के वे एक प्रमुख स्तंभ थे। 

मनहर एक तरफ गंभीर कहानियों के लिए जाने गए तो दूसरी ओर अंग्रेजी कथाओं के अनुवाद से लेकर जासूसी साहित्य रचने तक उन्होंने अपनी बहुमुखी एवं चंचल प्रतिभा का परिचय दिया। ''एकक'' नाम से साहित्यिक पत्रिका भी उन्होंने कुछ महीनों तक निकाली। खैर! कथा लेखन की इस कड़ी में कुछ और नाम ध्यान आते हैं, जैसे श्रीमती शशि तिवारी, राजनारायण मिश्र, जयशंकर नीरव, प्रदीप कुमार, लाल मोहम्मद रिज़वी, विश्वेश्वर इत्यादि। श्रीमती तिवारी को संभवत: हम प्रदेश की पहली महिला कथाकार होने का सम्मान दे सकते हैं। प्रदीप कुमार ने बेमेतरा जैसे गांव में रहते हुए कहानियां लिखीं और लाल मोहम्मद रिज़वी उससे भी छोटे गांव छिरहा से कभी बाहर ही नहीं निकले। विश्वेश्वर का सारा कथा लेखन छत्तीसगढ़ से बाहर जाकर हुआ। यद्यपि वे भी चले थे एक छोटे से गांव से ही। इन तमाम नामों का जिक्र इतिहास क्रम में लिया जा सकता है लेकिन इनकी कथा यात्रा बहुत जल्दी समाप्त हो गई। निरंतर रचनाशील बने रहने के लिए जिस आंतरिक दृढ़ता की जरूरत होती है, वह शायद उनमें नहीं थी।

प्रदेश के कहानीकारों में एक नाम विनोदकुमार शुक्ल का भी नाम लिया जा सकता है। उन्होंने 'महाविद्यालय', 'घर' आदि पांच या छह कहानियां कुल जमा लिखीं जिनकी अपने समय में चर्चा भी हुई। अगर मुझे सही याद है तो ये सारी कहानियां 1970 के पहले प्रकाशित हो चुकी थी। उसके बाद श्री शुक्ल को पाठकों ने एक उपन्यास लेखक के रूप में जाना। ''नौकर की कमीज'' हिन्दी में एक नए मुहावरे का उपन्यास है और मुझे यह कहने में संकोच नहीं है कि लेखक की सारी कहानियां इस उपन्यास के सामने प्रभाहीन हो जाती हैं। विभु कुमार व जगदलपुर के कृष्ण शुक्ल की कहानियां भी सत्तर के दशक में चर्चित हुईं। विभु ने तो नाटककार व रंगकर्मी के रूप में भी प्रसिध्दि पाई। लेकिन इनका कथालेखन का समय संक्षिप्त ही रहा आया। इस कड़ी में मैं रमेश याज्ञिक का जिक्र करना जरूरी समझता हूं जिन्होंने अपनी जीवन संध्या में कहानियां लिखना प्रारंभ किया था और थोड़े से समय के भीतर में वे चर्चित भी होने लगे थे।

इस सिलसिले को आगे बढ़ाने के लिए पिछले तीन दशकों में अनेक कहानी लेखक सामने आए। उनमें से कुछ लगातार कहानियां लिख रहे हैं, कुछ का लिखना एकदम बंद हो चुका है, और कुछ अपनी सामर्थ्य का सदुपयोग संपन्न संस्थाओं एवं संस्थानों के लिए सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित करने में कर रहे हैं। इन तमाम साहित्यकारों का नामोल्लेख कथा साहित्य में उनके योगदान पर अंतिम रूप से अभी कुछ कहना उपयुक्त नहीं होगा। आखिरकार, हर कहानी लेखक गुलेरी तो नहीं होता जो सिर्फ तीन कहानियां लिखकर अमर हो गए। इसलिए जिनकी कहानियां अभी लगातार सामने आ रही हैं अथवा आयु जिनके पक्ष में है, उन पर बाद में बात करना ही बेहतर होगा।

इस विराट चित्र के भीतर मैं रमाकांत श्रीवास्तव को देखता हूं। रमाकांत गत चार दशक से कथालेखन में सक्रिय हैं। ''टोरकिल का शहर'' उनका  पांचवा कथासंग्रह और कुल मिलाकर दसवीं या बारहवीं पुस्तक है। उनकी गति कहानी के अलावा निबंध, समीक्षा फिल्म, ललितकला और बाल साहित्य में भी है। यह कहना अतिशयोक्ति न होगी कि प्रदेश के लेखकों में रूपंकर कलाओं की जैसी समझ उनको है वैसी और किसी को भी नहीं। इसके अलावा वे सामाजिक सरोकारों वाले सक्रिय नागरिक हैं। इस तरह उनके पास अनुभवों का जो विस्तार है वह प्रदेश में गिने-चुने रचनाकारों के पास ही है। ऐसे गुणों के बावजूद रमाकांत की मुश्किल यह है कि वे आत्मप्रचार में विश्वास नहीं रखते। वे दिल्ली, भोपाल, इलाहाबाद जाकर साहित्य के मसीहाओं से फौरी दोस्ती करने में भी विश्वास नहीं रखते। इसलिए हिन्दी जगत में उन्हें जो समादर मिलना चाहिए वह अभी तक नहीं मिल पाया है। सच पूछिए तो वे अकेले नहीं हैं। उत्तर प्रदेश के शाहजहांपुर में हृदयेश तथा बिहार के पूर्णिया में चन्द्रकिशोर जायसवाल जैसे समर्थ रचनाकार हैं जिनको उनके प्राप्य से मानो किसी षडयंत्र के तहत वंचित रखा गया है। 

यह मानी हुई बात है कि साहित्य रचने की शुरुआत कविता के साथ हुई थी। विश्व के प्राचीनतम ग्रंथ काव्य रचनाएं ही हैं। लेकिन इसके साथ यह स्थापित सत्य भी है कि कविता के बरक्स कहानी मनुष्य को कहीं ज्यादा मुदित और स्फुरित करते आई है। यूरोप में ईसप की नीति कथाएं हो या पश्चिम एशिया में अलिफ लैला के किस्से (सहस्त्र रजनी चरित) या भारत की समृध्द साहित्य परंपरा में पंचतंत्र, हितोपदेश, जातक कथाएं और कथा सरित् सागर। इसकी वजह शायद यही है कि कहानी के साथ श्रोता या पाठक तुरंत तादात्म्य स्थापित कर लेता है। वह उसमें अपने जीवन का अक्स भी शायद ढूंढ पाता है। इसीलिए प्रेमचंद आज भी हमारे बड़े लेखक बने हुए हैं। रवीन्द्रनाथ की कविताओं को जन-जन तक पहुंचने में संगीत का आश्रय मिला लेकिन शरतचन्द्र की कहानियां देखते ही देखते लोगों के हृदय में घर कर गईं।

इसी कसौटी पर रमाकांत श्रीवास्तव की कहानियों को देखा जा सकता है। टोरकिल का शहर में उनका कुल जमा दस कहानियां संकलित है। इस पांचवें संग्रह को मिलाकर उनकी अब तक पचास-साठ कहानियां प्रकाशित हुई होंगी। इन्हें पढ़कर एक बारगी समझ आ जाता है कि रमाकांत में किस्सागोई की विलक्षण क्षमता है। यूं तो हिन्दी में कथाकारों की कोई कमी नहीं है, लेकिन इधर कुछ सालों में कहानी से कथातत्व का लोप होते जा रहा है। कई बार ऐसा लगता है कि जिसे कहानी समझकर पढ़ रहे हैं वह कहीं गद्य गीत तो नहीं है। कुछ सालों पहले जब लातिन अमेरिकी लेखक मार्क्वेज को नोबेल पुरस्कार मिला और उनके उपन्यासों की चर्चा होने लगी तो हिन्दी में भी उसी शैली में 'जादुई यथार्थवाद' की कहानियां लिखी जाने लगीं। इनमें कथावस्तु गौण एवं शिल्प का चमत्कार प्रमुख था, लेकिन लिखने वाले चर्चित लेखक थे सो उनकी आलोचना कौन करता!
इस तरह रमाकांत एक साहस का काम कर रहे हैं। वे धारा के विपरीत नाव खे रहे हैं। उनकी कहानियों में जो कथारस है वह अच्छे साहित्य की आस में टकटकी लगाए प्यासे पाठकों के लिए स्वाति जल है, लेकिन जिनकी क्षमता शब्दों की पच्चीकारी तक सीमित है, वे रमाकांत की कहानियों को पढ़कर सिर्फ अपना सिर धुन सकते हैं।

रमाकांत श्रीवास्तव के अनुभवों का संसार विशाल है जैसा कि इस संग्रह की कहानियों को पढ़कर पता चलता है। छत्तीसगढ़ के एक कस्बे में रहते हुए कैसे उन्होंने इतने अनुभव अर्जित किए और विश्व दृष्टि विकसित की, यह बहुतों के लिए आश्चर्य और शोध का विषय हो सकता है। इस संकलन में दो कहानियां पहली ''अमेरिकी राष्ट्रपति और टेड़गी मास्साब'' तथा दूसरी ''सद्दाम का सातवां महल'' 9-11 के बाद उपजी परिस्थितियों पर लिखी कहानियां हैं। मुझे याद नहीं पड़ता अगर अन्य किसी हिन्दी कथाकार ने अमेरिका नवसाम्राज्यवाद के खिलाफ कोई कहानी लिखी हो, वह भी इस शिद्दत और साफगोई के साथ। पहली कहानी में एक तरफ अमेरिका के प्रति प्रबल होते जा रहे भारतीय आकर्षण का वर्णन है, तो दूसरी तरफ अपने घर लौटने में जो आनंद है तथा अपनी जमीन, अपना आसमान और अपने लोग क्या मायने रखते हैं इसकी मार्मिक व्याख्या है। दूसरी कहानी अमेरिका और उसके पिछलग्गू ब्रिटेन के युध्दोन्माद पर सीधे-सीधे आक्रमण करती हैं।

रमाकांत ने अपनी कहानियों में पत्रकार, शिक्षक, साहित्यकार, कलाकार याने कुल मिलाकर बुध्दिजीवी समाज के आंतरिक और जटिल मनोभावों को भी बखूबी प्रकट किया है। ''राजधानी से गुमी किताब'' साहित्यकारों पर केन्द्रित है तो ''शताब्दी प्रवेश'' कलाकारों पर तथा दोनों कहानियां बेबाकी के साथ बताती हैं कि हमारे कथित बुध्दिजीवी व संस्कृति कर्मी दोहरा जीवन जीते हैं एवं अपने आप के साथ छल करते हैं। 'महोत्सव' कहानी मीडिया जगत के व्यवसायीकरण पर गहरा वार करती है, यद्यपि रमाकांत उसे तार्किक परिणति तक नहीं पहुंचा सके। इस संकलन में ''प्रकृति प्रेम'' शीर्षक से भी एक कहानी है जिसमें आप कथाकार के अपने नगर खैरागढ़ को भी देख सकते हैं। यह कहानी उन नेताओं, अफसरों और व्यापारियों पर गहरा कटाक्ष करती है जिनकी संवेदनाएं प्राकृतिक विपदा के समय भी नहीं जागती व जिनका जीवन अपनी ही धुरी पर घूमता रहता है।

''टोरकिल का शहर'' स्वयं लेखक की संकलन में संभवत: इस दृष्टि में सबसे महत्वपूर्ण कहानी है क्योंकि पुस्तक का शीर्षक वहीं से उठाया गया है। एक सांमती नगर के परिवेश में रची गई यह कहानी उन खौफनाक स्थितियों का चित्रण करती है जिनमें जीने के लिए आम नागरिक अभिशप्त है। एक सामान्य व्यक्ति के जीवन में सुरक्षा की कोई गारंटी नहीं है। उसे सत्ताधीशों और बाहुबलियों की कृपा पर ही मानो जीना है- यह भयावह संदेश इस कहानी से मिलता है। किसी विदेशी कार्टून कथा के खलनायक को सामने रखकर लिखी गई इस कहानी का अंत एक गहरी उदासी में होता है कि इस देश में या इस समाज में एक आम इंसान के लिए सम्मान के साथ जीना कितना मुश्किल है, कि आत्म निर्वासन में ही वह अपना बचा हुआ जीवन जी सकता है।

 मेरी दृष्टि में चैम्पियन इस संकलन की सबसे ताकतवर कहानी है। यह कहानी एक ओर जीवन के प्रति आस्था और विश्वास का संचार करती है, दूसरी ओर सामान्य मनुष्य के भीतर छुपे हुए शिशु की निश्छलता को प्रतिबिम्बित करती है और तीसरी ओर इस विडंबना को भी उजागर करती है कि ऐसे कितने ही लोग हैं जिनकी संभावनाएं, अवसर और आश्रय न मिल पाने के कारण मुरझा जाती हैं। यह कहानी एक नन्हे छात्र की है जो अपने गुरु का सहारा पाकर विपरीत परिस्थितियों से लड़ते हुए खेल में चैम्पियन बनता है और पुरस्कार पाते समय उदास हो जाता है कि उसके वे साथी कहीं पीछे छूट गए जिन्हें वह अपने से ज्यादा काबिल मानता है। रमाकांत की यह कहानी हमें आश्वस्त करती है कि निश्छलता आज भी जीवित व संभव है।

इस संकलन में ''अप्रत्याशित'' कहानी एक फैंटेसी रचती है। चेखव की अमर कहानी ''एक क्लर्क की मौत'' का स्मरण इसे पढ़कर सहसा हो आता है। लेकिन चेखव की कहानी में जहां कार्य कारण स्पष्ट है इसमें वह नदारद है। यह कहानी इस रूप में फैन्टेसी है कि आम नागरिक दिन प्रतिदिन विपरीत परिस्थितियों का सामना करता है और उसके छोटे-मोटे काम भी बिना जद्दोजहद के पूरे नहीं हो पाते। ऐसे में अगर एक दिन अचानक सारा जीवनयापन सामान्य गति से चलने लगे तो यह एक ऐसी अटपटी और असंभव सी प्रतीत होगी जो नागरिक को पागलपन नहीं तो नर्वस ब्रेकडाउन की सीमा तक तो पहुंचा ही देगी। इसी तरह ''सिविल लाइन्स का भूत'' कहानी है जो परसाई जी की बहुचर्चित कहानी ''भोलाराम का जीव'' की याद दिलाती है। दोनों कहानियां प्रशासनतंत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार पर चोट करती है लेकिन अलग-अलग तरीके से। सिविल लाइन का भूत मुक्ति पाना चाहता है इस हेतु यज्ञ की जरूरत है लेकिन शर्त यह कि यज्ञ में बेइमानी का एक पैसा भी नहीं लगना चाहिए। जाहिर है कि ऐसे पैसे का इंतजाम नहीं हो पाता। हमारे वर्तमान की दारूण सच्चाई का बयान इस कहानी में साफ तौर पर है।

 मैं अपने मित्र व साथी रमाकांत श्रीवास्तव को इस कहानी संकलन के लिए बधाई देता हूं। मैं अपने स्तंभ के पाठकों को राय देना चाहता हूं कि खरीदकर या मांगकर इन कहानियों को अवश्य पढ़े। इसमें उनका लाभ होगा और पाठक जो अपनी राय देंगे उससे लेखक को भी अपनी छोटी- मोटी गलतियाँ सुधारने का मौका मिलेगा। 


  19 और 26 फ़रवरी 2009 को देशबंधु में प्रकाशित 


 30 जनवरी 2009 को देशबंधु में प्रकाशित 

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Lalit Surjan
Chief Editor
DESHBANDHU
RAIPUR 492001
C.G. India

मेघना और सोनू


छत्तीसगढ़ में कोरबा के डॉक्टर दम्पत्ति मोहन और अंजली सूबेदार की बेटी मेघना सारी दुश्चिंताओं को झुठलाते हुए घर लौट आई है। स्मरणीय है कि पिछले छह माह से कोरबा की यह होनहार युवती लापता थी और उसकी मृत्यु होने की खबरें तक प्रसारित हो चुकी थीं। यहां अंत भला सो सब भला कहकर चैन की सांस ली जा सकती है। इसके विपरीत एक दु:खद समाचार आगरा का है जहां सैनिकों की अनथक मेहनत के बावजूद बोरवेल के लिए किए गए गङ्ढे में गिरे दो वर्षीय बालक सोनू को नहीं बचाया जा सका। इन दोनों खबरों में प्रत्यक्ष तौर पर कोई समानता नहीं है। एक खबर उत्तरप्रदेश की, दूसरी छत्तीसगढ़ की। एक में सम्पन्न व सुशिक्षित परिवार की उच्च शिक्षा प्राप्त विवाहित बेटी, दूसरी में एक निर्धन परिवार की नन्ही सी जान। एक खबर का अंत सुखद, दूसरी का दु:खद। इन अंतरों के बावजूद दोनों खबरें एक ही दिशा में सोचने पर विवश करती है। 

मेघना सूबेदार का प्रसंग अभी भी रहस्य के आवरण में है। पुलिस की छानबीन जारी है। उसके माता-पिता भी अंधेरे में है। मेघना खुद पिछले छह माह के बारे में अभी तक कुछ बता पाने में समर्थ नहीं है। मीडिया में अवश्य तरह-तरह के कयास लगाए जा रहे हैं। दूसरी तरफ सोनू को न बचा सकने की गहरी निराशा के साथ उस प्रसंग का मानो पटाक्षेप भी हो गया है। फिर भी यह विचारणीय है कि आज के भारत में नई पीढ़ी की परवरिश, सुरक्षा और भविष्य को लेकर समाज की क्या सोच है? अगर हम अपने आसपास के बच्चों को ही देखते चलें तो इस निष्कर्ष पर पहुंचना कठिन नहीं होगा कि नई पीढ़ी के प्रति जिस जिम्मेदारी का अहसास होना चाहिए, वह हममें नहीं है। इसके विपरीत एक किस्म की आपराधिक और अक्षम्य लापरवाही का भाव उनके प्रति है।

यह सच है कि माता-पिता अमीर हो या गरीब, बच्चों को अच्छे से अच्छा वातावरण देने की कोशिश करते हैं। लेकिन एक तबके को शायद यह पता ही नहीं है कि अच्छे वातावरण की परिभाषा क्या है; तो दूसरे के पास उस अच्छे वातावरण तक पहुंचने के लिए आवश्यक साधनों का ही अभाव है। आज जो परिवार सक्षम है वे अपने बच्चों को उन शालाओं में भेज रहे हैं जहां छात्रावास में एसी लगे हैं, पहली कक्षा से ही क्लासरूम में एसी हैं, हजारों रुपयों में सालाना फीस है और बच्चों के विकास के नाम पर बेहूदे कार्यक्रम। इन स्कूलों पर बाजार का बहुत सीधा-सीधा कब्जा हो गया है जहां बच्चों को अखबार, टूथपेस्ट, साबुन जैसी वस्तुएं भी क्लासटीचर के माध्यम से शाला प्रबंधक के निर्देश पर खरीदनी पड़ती है। इन स्कूलों के व्यापारी मालिक अपना जन्मदिन मनाते हैं और उसके लिए भी बच्चों से पैसा वसूल किया जाता है। यह सब हमारे सम्पन्न अभिभावक खुशी-खुशी कबूल कर लेते हैं, क्योंकि वे अपने बच्चों को गरीबों से अलग रखना चाहते हैं। भारतीय समाज की दारुण सच्चाईयों से दूर रखना चाहते हैं।

 वे अपने बच्चों को बड़े होकर भारत का जिम्मेदार नागरिक बनाने के बजाय किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी में क्रीतदास बनते देखना ज्यादा पसंद करते हैं। उनके लिए बच्चों की प्रगति का एकमात्र पैमाना वह पैकेज है जो किसी भी दिन ''पिंक स्लिप'' में तब्दील हो सकता है। इस पैकेज को पाने के लिए भारत का सम्पन्न समाज अपने बच्चों को घर से दूर कोटा, बेंगलुरु और पुणे जैसे शहरों तक भेज रहा है। इन अपरिचित स्थानों का माहौल कैसा है और वहां बच्चे किसी दुष्चक्र का शिकार तो नहीं हो जाएंगे- इस बारे में बहुत ज्यादा सोचने की जरूरत अधिकतर मां-बाप को नहीं होती। इन नवयुवाओं को यदि उनके बाल्यकाल में आसपास की सच्चाईयों से वंचित नहीं कराया गया है तो उनका गुमराह होना आसान हो जाता है। जो नौजवान पढ़ाई-लिखाई पूरी कर देश के साइबर शहरों में नौकरी कर रहे हैं, उनका जीवन भी काफी हद तक एकरस और मशीनी है। ऐसे में वे कभी भी कुंठित होकर टेढ़े-मेढ़े रास्तों पर कदम रख सकते हैं।

गरीब परिवारों का सवाल जहां तक है उनकी उलझनें अलग तरह की हैं। उनके प्रति हमारे समाज और हमारी व्यवस्था दोनों का रूख निर्मम है। भारत का प्रभुताशाली वर्ग चाहता ही नहीं है कि गरीब घर का बच्चा ठीक से पढ़-लिख ले। यदि उसे अच्छा माहौल मिल गया, उसने पढ़ाई-लिखाई ठीक से कर ली, आगे चलकर ठीकठाक नौकरी मिल गई तो फिर वह उन लोगों पर राज करने की क्षमता हासिल कर लेगा जो अब तक उस पर राज करते आए हैं। इसीलिए कागज पर सुन्दर-सुन्दर योजनाएं होने के बावजूद हकीकत कुछ और ही होती है। 

काम की जगह पर दूध पीते बच्चों के लिए झूलाघर नहीं होता। उनके लिए स्कूल नहीं होते। स्कूल का भवन होता है तो शिक्षक नहीं होते। और यदि शिक्षक होते हैं तो वे महज शिक्षाकर्मी होते हैं जो खुद किसी हद तक अनपढ़ होते हैं। प्रिंस और सोनू जैसे बच्चे बोरवेल में इसलिए गिरते हैं क्योंकि उनके मां-बाप की झोपड़ी वहीं पास में होती है और गङ्ढों को ढंकना जरूरी नहीं समझा जाता। हमारे पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम दूसरे चाचा नेहरू बनना चाहते थे लेकिन वे हमेशा वैभवशाली स्कूलों में पढ़ रहे सम्पन्नघरों के बच्चों से ही मिले और अगवानी के लिए झुलसती धूप में झंडे लेकर सड़क पर खड़े कर दिए गए बच्चों से मिलने के बारे में उन्होंने कभी नहीं सोचा। यही रवैया अभिजात सोच के हर व्यक्ति का है। इसीलिए आंगनबाड़ी हो या मध्यान्ह भोजन- जहां कर्मचारियों के मन में दया-ममता है वहां तो ठीक लेकिन बाकी जगह बच्चों को सिर्फ तिरस्कार ही मिलता है।

आज ये दोनों प्रसंग यह सोचने के लिए मजबूर कर रहे हैं कि बच्चों के प्रति हमें अपने विचारों में परिवर्तन लाने की जरूरत है। इसकी शुरुआत तब होगी जब भेदभावपूर्ण शिक्षा व्यवस्था को समाप्त कर देश के तमाम बच्चों के लिए एक समान स्कूली शिक्षा की व्यवस्था की जाएगी, ताकि हर बालक और बालिका का विकास उसकी अन्तर्निहित क्षमताओं के अनुरूप हो सके तथा बच्चों को उनकी जाति, धर्म अथवा मां-बाप के वैभव के आधार पर न तौला जाए।  


प्रकाशन वर्ष  2008 

शहर या मुसाफिरखाना





अभी कुछ साल पहले भारत में नगर नियोजन के लिए दो महत्वाकांक्षी योजनाएं सामने आई। इनमें से पहली योजना 'पुरा' तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. कलाम द्वारा प्रस्तावित की गई थी, जिसका उद्देश्य ग्रामीण क्षेत्रों में नगर-सुलभ सुविधाएं जुटाने का था। दूसरी योजना यूपीए सरकार ने पेश की जवाहर लाल नेहरू स्मृति शहरी नवीनीकरण मिशन के रूप में। यह दूसरी योजना मनमोहन सिंह सरकार के पांच प्रमुख कार्यक्रमों में से एक है। इसका उद्देश्य भारत के चुनिंदा नगरों में विश्व स्तर का वातावरण तथा सुविधाएं निर्मित करना है। इन चुनिंदा नगरों में सभी प्रादेशिक राजधानियों के साथ-साथ ऐतिहासिक, धार्मिक अथवा आर्थिक महत्व के नगर शामिल हैं। ये दोनों योजनाएं सुनने में अच्छी लगती हैं लेकिन कितनी व्यवहारिक हैं, इस पर विचार करना जरूरी है।

जहां तक 'पुरा' का सवाल है यह योजना आगे बढ़ती नजर नहीं आती। अन्य प्रदेशों के साथ-साथ छत्तीसगढ़ में भी रायपुर के पास ही ग्रामीण क्षेत्र में इसकी आधारशिला रखी गई थी, लेकिन आगे कोई बहुत ज्यादा काम इस पर नहीं हुआ। कलाम साहब के पद से हटने के बाद उनकी यह योजना उनके द्वारा प्रस्तावित अन्य योजनाओं, जैसे नदी जोड़ योजना, की तरह अपदस्थ कर दी गई। एक तरह से यह ठीक हुआ। अगर योजना लागू हो जाती तो कहने को तो गांव होता लेकिन वास्तविक रूप में वह शहरी रईसों का उपनिवेश बनकर रह जाता। तथाकथित जनभागीदारी याने पी-पी-पी के अंतर्गत होने वाले विकास में सिर्फ आला दर्जे के नागरिकों के कल्याण की ही यह योजना थी। इसमें महंगे अस्पताल बनते, महंगे स्कूल खुलते, शापिंग मॉल बनते याने वहां सब कुछ होती जो भारत के एक सामान्य देहाती की पहुंच और क्रय क्षमता से परे होता। यह कहने की हिमाकत की जा सकती है कि ''पुरा'' योजना राजनीतिक संयोग से सर्वोच्च पद पर पहुंच गए एक अव्यवहारिक चिंतक की अव्यवहारिक सोच से ज्यादा कुछ नहीं थी। यूपीए सरकार के द्वारा संचालित योजना जवाहरलाल नेहरू के नाम पर है, यह एक विडम्बना है। वर्ल्ड बैंक जैसी संस्थाओं के परामर्श व उनके आर्थिक सहयोग (सस्ती ब्याज दर पर लंबी अवधि का कर्ज) से प्रारंभ की गई है। इसमें शहरों की दशा सुधारने के लिए बहुत सारे उपाय किए गए हैं। लेकिन यह संशय बना हुआ है कि क्या ये कभी ठीक तरह से लागू हो सकेंगे या नहीं।

इसमें भी पी-पी-पी का प्रावधान अनेक स्तरों पर किया गया है। यह हम अतीत में देख चुके हैं कि वर्ल्ड बैंक आदि से अनुमोदित योजनाओं के लिए जो धनराशि आती है उसमें भारी मात्रा में भ्रष्टाचार व अपव्यय होता है। अधिकतर योजनाएं फर्जी आंकड़ों पर आधारित होती हैं जो आगे चलकर टांय-टांय फिस्स हो जाते हैं। रायपुर में तीस साल पहले प्रारंभ की गई भूमिगत नाली योजना इसका उम्दा उदाहरण है। योजना पार नहीं लगना थी, सो नहीं लगी। वर्तमान योजना में ग्राम सभा की तर्ज पर वार्ड सभा गठित करने का अनिवार्य प्रावधान है। योजना के हर चरण में जनता के अनुमोदन को वांछित ही नहीं, अपरिहार्य माना गया है। अगर रायपुर के उदाहरण को सामने रखकर देखें तो यहां उसका किंचित भी पालन नहीं किया गया। सारा जनानुमोदन कागजों में हो गया। जो यहां हाल है वही देश के अन्य नगरों में भी होगा। कहीं कम कहीं ज्यादा।

हमारी सरकारों का जो रवैय्या है उसके बारे में ज्यादा क्या लिखें। लेकिन नगर नियोजन की बात चलने पर जनता के रवैय्ये पर भी गौर कर लेना चाहिए। इस संदर्भ में कुछ घटनाओं का जिक्र करना प्रासंगिक होगा। कुछ दिन पहले मुझे एक गृह प्रवेश में जाने का अवसर आया। मेरा ध्यान इस बात पर गया कि आजकल देशी नामों को भुला दिया गया है और कॉलोनियों का नामकरण एकदम पाश्चात्य शैली में होने लगा है, मसलन गोल्डन पॉम, सिल्वर सैंड्स, पार्क रेसिडेन्सी आदि-आदि। ऐसे नामों से जैसे निवासियों को अतिरिक्त सम्मान या गौरव मिल जाता है। इन कॉलोनियों में भांति-भांति के, विदेशी समझी जाने वाली प्रजातियों के, पौधे लगाए जाते हैं तथा उनमें ज्यामितीय संतुलन का ख्याल रखा जाता है। अरेका पाम व ड्रूपिंग अशोका (अशोक नहीं) जैसे वृक्ष आप यहाँ देख सकते हैं। दूसरी तरफ लगभग हर फ्लैट में पूजा का कमरा या एक कोना निर्धारित तो होता ही है। आजकल भक्तिभाव भी कुछ ज्यादा बढ़ गया है। कितने ही घरों में हर पूनम सत्यनारायण की कथा होने लगी है। लेकिन यह नहीं होता कि कॉलोनी के सुरक्षित परिवेश में लाल-पीला कनेर, कागजी मोगरा या चाँदनी, जवाकुसुम या गुड़हल अथवा बेल के पौधे लगाए जाएं जिनसे पूजा के लिए फूल-पत्ती मिलने में दिक्कत न हो। 

इस तरह से तथाकथित आधुनिक विधि से जो मकान इन दिनों बन रहे हैं, उनमें स्थानीय आबोहवा व परिस्थितियों का ध्यान बिलकुल भी नहीं रखा जाता। इमारतों में बिजली की खपत कम से कम कैसे हो, धूप और प्राकृतिक रौशनी कैसे मिले, ताजा हवा लगातार मिलती रहे, पानी का इस्तेमाल युक्तियुक्त रूप से हो, इस सब पर न तो वास्तुशिल्पी ध्यान देते, न मकान मालिक। घर से बाहर निकलो तो भी वही हालात। सौंदयीकरण के नाम पर पैसे की बरबादी। शहर को एक रहने लायक इकाई कैसे बनाया जाए, इस पर नगरपिताओं और नगरमाताओं का ज्ञान शून्य ही होता है। एक विचित्र बात और देखने मिल रही है। आजकल हर घर में बाउंड्रीवाल बनाना अनिवार्य हो गया है। इसमें कितना लोहा, सीमेंट लगता है इसका हिसाब नहीं लगाया जाता। पहले घरों में चारदीवारियां नहीं होती थीं। बहुत हुआ तो मेहंदी की बाड़ लगाने से काम चल जाता था। आज उठ रही ये दीवालें हमारे भय और बेगानेपन को ही दर्शाती है। यह सर्वविदित है कि हम अपने पुरखों का बहुत सम्मान करते हैं। शहर हो या गांव- मूर्ति स्थापना, सड़कों-गलियों का नामकरण, मोहल्ले या संस्थाओं का नामकरण कर श्रध्दा व्यक्त करके इतिश्री मान ली जाती है। किंतु यह हमारी सोच का हिस्सा नहीं है कि समाज को खासकर नई पीढ़ी को ऐसे नामित व्यक्ति के व्यक्तित्व और कृतित्व से परिचित कराया जाए। इतिहास पुरुषों की बात जाने दीजिए, लेकिन नई दिल्ली में हरिश्चन्द्र माथुर लेन जिनके नाम पर है ये कौन थे? अथवा रायपुर में शासकीय कन्या विद्यालय को जगन्नाथराव दानी का नाम क्यों दिया गया? ये मामूली से लगने वाले प्रश्न हैं जिनका उत्तर हमारे नगर नियोजन की कार्यनीति से मिलना चाहिए। 


दरअसल यदि समाज अपने वृहत्तर परिवेश के प्रति जागरूक नहीं है तो वह उसके साथ एक स्थायी और आत्मीय रिश्ता नहीं जोड़ सकता। अगर मुझे नहीं पता कि रायपुर में रहते हुए मैं खारून नदी का जल पी रहा हूं तो खारून के प्रति मेरे मन में आदर कभी नहीं जागेगा। दूसरे शब्दों में अपने पर्यावास के प्रति गहरी समझ और संवेदना ही एक जीवंत नगर को रच सकती है अन्यथा हमारे तमाम शहर आज की तरह मुसाफिर खाने बनकर ही रह जाएंगे।




 30 जनवरी 2009 को देशबंधु में प्रकाशित 

Wednesday 23 May 2012

यात्रा वृत्तांत : आम खाने का सुख


एक हाथ में आम, दूसरे में मोबाइल। आम चूसते हुए ही मैंने रवि श्रीवास्तव को फोन कर धन्यवाद दिया कि उन्होंने ऐसे उम्दा स्वादिष्ट आम भिजवाए। भिलाई में रवि भाई के आंगन में आम के 2-3 पेड़ हैं, जिनके फलों पर मुख्य रूप से मुहल्लावासियों का अधिकार बनता है, लेकिन हम जैसे साथियों को भी कभी-कभार उनका स्वाद पाने का सौभाग्य मिल जाता है। सच बताऊं तो मैं हमेशा इस ताक में रहता हूं कि किस-किस मित्र के बागीचे में आम फल रहे हैं। (उनके नाम नहीं बताऊंगा, ताकि मेरा हिस्सा बाँटने कोई और मित्र न आगे आ जाए)  बाज़ार  से खरीदकर भी आम खाए जाते हैं, लेकिन मित्रों-पड़ौसियों के यहां धावा बोलकर जो फल मिलें, उनका स्वाद कई गुना बेहतर होता है। मैं बचपन के उन दिनों को याद करता हूं जब पचमढ़ी की पगडंडियों पर घूमते हुए हम आम बीना करते थे। देसी आम के ऊंचे-ऊंचे वृक्ष। हवा चलती थी तो छोटे-छोटे फल टूटकर गिरते थे। घर लाए, कुछ देर मटके के पानी में उन्हें ठंडा किया और फिर खूब लालच के साथ आम चूसे, इस तरह कि छिलके में एक भी रेशा बाकी न रह जाए और गुठली पूरी तरह सफेद हो जाए। कितने भी आम खा लो, मन कहां भरता था!

अब देसी आम लुप्त होते जा रहे हैं। बांजार में विदेशी फलों की बहार है। ये मलेसिया की लीची तो यह आस्ट्रेलिया का सेब तो यह अमेरिका का संतरा। जो फल जितना नायाब, वह उतना ही महंगा और उसे खाने में स्वाद आए न आए, शान जरूर बढ़ जाती है। पहिले ये विदेशी फल दिल्ली-मुम्बई की आला दर्जे की दूकानों की शोभा बढ़ाते थे, अब रायपुर-बिलासपुर में भी मिलने लगे हैं। ठीक भी है, जब इतना कुछ विदेशी हमारे जीवन में आकर पैठ गया है तो फल भला पीछे क्यों रहें? संभव है कि यही फल कुछ साल बाद भारत के देसी फल बन जाएं। आखिरकार, सेब भी तो विदेशों से ही आया था और अंगूर भी।  यहां तक कि बिही (अमरूद), चीकू और टमाटर भी सात समंदर पार से यहां आए और यहीं के होकर रह गए। इसमें कोई बुराई भी नहीं है। विभिन्न समाजों के बीच ऐसा विनिमय शताब्दियों से चलते आया है। जो कुछ रसमय, स्वादिष्ट और स्वास्थ्यकारक है, वह कहीं से भी आए, उसे अपनाने में कैसा संकोच? फिर वह चाहे फल हो या कोई सुन्दर विचार।

यह समाज के अपने सामूहिक विवेक पर निर्भर करता है कि वह किसे अपनाए और किसे खारिज करे। यदि कोई फल- आम, केला या अन्य कुछ- कार्बाइड में पकाकर बांजार में बिके और उसका सेवन करने से शरीर को नुकसान होता हो, जीभ में छाले पड़ते हों, पेट में मरोड़ उठती हो, तो उसे स्वीकार करने में कौन सी बुध्दिमानी होगी? उचित तो यही होगा कि ऐसे फलों की बिक्री बंद की जाए, ऐसी दूकानें उठा दी जाएं। मुश्किल यही है कि जिस तरह खोटा सिक्का खरे सिक्के को चलन से बाहर कर देता है, उसी तरह नकली मिठास वाले फलों के चलते सच्ची मिठास जीवन से गायब होते जा रही है। यह नकली मिठास कार्बाइड से पकाने से पैदा होती है तो मानना होगा कि व्यापार-कुशलता भी एक तरह का कार्बाइड है। भोले-भाले ग्राहक से मीठी-मीठी बात करो और उसे अपना नकली या घटिया माल बेच दो। इस कार्बाइड को अन्तरराष्ट्रीय संबंधों में देखा जा सकता है और राजनेताओं की जुबान तो निश्चित ही उसी में पगी-पकी होती है।

मैं देख रहा हूं कि अब बांजार में लाख ढूंढने पर भी ऐसे फल नहीं मिलते, जो प्राकृतिक रूप से पके हों।  दूसरी तरफ अखबारों में छपने वाले कॉलम पढ़ें तो उनमें निरोग रहने के लिए फल और सलाह ज्यादा से ज्यादा सेवन करने की सलाह दी जाती है। इन डॉक्टरों और आहार-विशेषज्ञों से कोई पूछे कि हानिकारक रसायनों से युक्त फल या सलाद खाने से कोई भी कैसे निरोग रह सकता है।  हम तो देखते हैं कि सम्पन्न किसान (याने जिनका मुख्य व्यवसाय कुछ और है, वरना खेती और सम्पन्नता?) बांजार में बेचने के लिए रसायनों का उपयोग करते हैं और स्वयं अपने उपभोग के लिए जैविक कृषि करते हैं। इधर आर्थिक उदारीकरण के इस युग में यह भी हो रहा है कि फलों का जूस, सॉस, मुरब्बा इत्यादि बनाने वाली कंपनियां किसानों से किराए पर खेत ले लेती हैं और वहां अपने मानकों के अनुसार बीज, खाद, कीटनाशक का प्रयोग करती हैं।  उनका सोचना है कि आलू पैदा हो तो हर आलू का वजन, आकार, रंग एकरूप हो; टमाटर हो तो वह भी वैसा ही और पपीता भी वैसा ही। याने प्रकृति में जो अन्तर्निहित विविधता है, उसे खत्म कर दिया जाए। प्राकृतिक सुन्दरता का तिरस्कार कर अब कृत्रिम लुभावनापन पैदा किया जा रहा है। सब कुछ फेयर एवं लवली होना चाहिए।

ऐसे वातावरण में बांजार से फल खरीदने में तिहरा नुकसान होता है। पैसे भी गए और स्वाद भी नहीं मिला, सेहत पर बुरा असर तो पड़ना ही है। इसलिए मन फिर भटकता है, खोजता है उस मौलिक रस-रूप-गंध (ओरिंजनल टेस्ट) को, जो खत्म होने के कगार पर है। पिछले साल इसी मौसम में सतपुड़ा अंचल में कुछ दिनों की सड़क यात्रा का योग बना तो रास्ते के दृश्य देखकर मन प्रफुल्लित हो उठा- कवर्धा से आगे मंडला, वहां से लखनादौन-नरसिंहपुर होकर पिपरिया, आगे मटकुली-तामिया-छिंदवाड़ा-सौंसर-पाँढुरना से वरुड़ (अमरावती जिला) तक।  दोनों तरफ देसी आम के वृक्ष फलों से लदे झुके जा रहे थे। न जाने कितने बरसों बाद यह स्वर्गोपम दृश्य देखने का सौभाग्य मिला। गर्मी का समय था, इसलिए बरसाती झरनों में पानी की जगह रेत बिछी थी, लेकिन झरनों के किनारे जहां भी अर्जुन के पेड़ थे, वहां पानी अवश्य था। गुलमोहर तथा अमलतास के वृक्ष भी अपने लाल-पीले फूलों की छटा बिखेर रहे थे। पूरे रास्ते हरियाली थी, छाया थी और आंखों को ठंडक मिल रही थी। यात्रा के अंतिम चरणों में तामिया के डाक बंगले के बाहर देसी आम का एक पिटारा भी, किस्मत अच्छी थी तो मिल गया, जैसे बचपन ही वापिस लौट आया।

ऐसा ही एक अनुपम दृश्य देखा इसी साल होली के आसपास। रायपुर से बिलासपुर-अमरकंटक-शहडोल होकर चुरहट। पांच सौ कि.मी. के इस मार्ग पर टेसू के फूलों की जो बहार देखी तो मन उमग उठा। कोटा के आगे जहां तक नंजर जाए, वहीं फूलों से लदे पलाश के वृक्ष, जिनके बारे में माखनलाल चतुर्वेदी ने लिखा था- वन के तरुओं को क्या देखें, उनके फूल लाल अंगारे हैं। इस अंचल में आम के वृक्ष भी खूब हैं और उन पर बौर आने लगे थे। इसी तरह जनवरी-फरवरी के महीनों में दो-एक बार मालवा अंचल में यात्रा करने का अवसर मिला। सर्दी के मौसम में वहाँ जो इंद्रधनुषी नज़ारा  देखने मिला, उसका कहना ही क्या? अलसी और लहसुन की नीलिमा, सरसों  का पीतांबर, धनिया व प्याज की श्वेताभा, ऊपर टेसू के फूलों की रक्ताभा, शिशिर के आकाश से उतरती कुनकुनी धूप और खेतों में यहां-वहां दिख जाते मोर।

ऐसे तमाम दृश्य हमारे जीवन से धीरे-धीरे विदा होते जा रहे हैं। इन्हें बचाना चाहिए या नहीं? यदि बचाना है तो जिम्मेदारी किसकी है? गाड़ियों की संख्या बढ़ी है तो हमें फोर-लेन और सिक्स-लेन सड़कों की आवश्यकता पड़ रही है, लेकिन क्या इसके लिए सड़क किनारे के वृक्षों की बलि देना अपरिहार्य है? बढ़ती आबादी की जरूरतों के लिए नई-नई इमारतें बनना है तो क्या इसके लिए खेतों को उजाड़ना, तालाबों को पाटने के सिवाय और कोई उपाय नहीं है? हमारे तमाम योजनाविद्, इंजीनियर, नगर निवेशक, वन अधिकारी, मेयर, मंत्री ने किस स्कूल में पढ़ाई की है कि वे आम के रस की मिठास भूलने लगे हैं? क्या बेईमानी से कमाए हुए पैसे में, पद के अहंकार में, पूंजीपतियों से मिली सौगातों में ज्यादा मिठास होती है? अगर उन्हें ऐसा ही लगता है तो मैं कहूंगा कि उन्होंने अपना भारत के नागरिक होने का अधिकार खो दिया है। ऐसे व्यक्ति को भला कैसे भारतीय माना जाए जो आम के पेड़ों पर कुल्हाड़ी चलाता हो!

 4 जून 2011 को देशबंधु में प्रकाशित 

यात्रा वृत्तांत : बृजभूमि में रीयल एस्टेट




दूर-दूर तक फैली हरियाली की गोद में इठलाते खिलखिलाते सरसों के फूल। बीच-बीच में यमुना की शाखा नहरों में बहता ठंडा पानी-खेतों को सींचता हुआ। पेड़ों पर और बिजली के तारों पर बैठे झुंड के झुंड में बैठे पक्षी। किसी गांव में अनायास दिख जाते मोर। जगह-जगह खेतों में विचरण कर रहे प्रवासी पक्षी। 2008 के लगभग अंत में बृजभूमि की यह एक छोटी सी झलक है। इसके साथ सवाल कि अगली बार आएंगे तो क्या सब कुछ ऐसा ही बचा हुआ होगा! जनसंख्या बढ़ रही है। जरूरतें बढ़ रही हैं। इसलिए विकास भी हो रहा है। ऐसा विकास जो हरियाली की कीमत पर हासिल किया गया है। ऐसा विकास जिसमें अनंत कथाओं में वर्णित राष्ट्रीय पक्षी मोर लुप्त हो रहा है। ऐसा विकास जिसमें पक्षियों के दर्शन करने चिड़ियाघर ही जाना होगा। ऐसा विकास जिसमें साइबेरिया के पक्षी पासपोर्ट और वीसा उपलब्ध होने के बावजूद यमुना की लहरों के साथ नाचने के लिए नहीं लौटेंगे। 

दिल्ली से लेकर आगरा तक ढाई सौ किलोमीटर की पट्टी अब जैसे किसी शहर की लंबी सड़क बनकर रह गई है। वैसे तो यह राजमार्ग है, जिस पर कभी देवानंद ने अपनी पत्नी कल्पना कार्तिक के साथ की गई आखिरी फिल्म 'नौ दो ग्यारह' की शूटिंग की थी। यह वही सड़क है जिस पर चलकर 'अब दिल्ली दूर नहीं' के बाल कलाकार ने चाचा नेहरू के सामने फरियाद रखने दिल्ली तक का सफर किया था। इन पुरानी फिल्मों का फुटेज देखें तो इस पथ पर हुए परिवर्तन का अनुमान लग जाएगा। दिल्ली से मथुरा दो सौ किलोमीटर और आगरा ढाई सौ किलोमीटर है। फोरलेन राजमार्ग पर बताया गया था कि आगरा पहुंचने में चार घंटे का समय लगेगा। दिल्ली शहर पार करने में एक घंटे से ज्यादा लगा। फिर मथुरा बाईपास आधा घंटे से ज्यादा और आगरे में शहर के हृदयस्थल तक पहुंचने में फिर एक घंटा। कुल मिलाकर छह घंटे का थका देने वाला सफर। हमारे पास अपनी बढ़ती हुई जनसंख्या और उसी रफ्तार में बढ़ती वाहन संख्या के अलावा गर्व करने के लिए और क्या बचा है, यह विचारणीय है।

सन् 2000 की जून में मैं आखिरी बार आगरा गया था। उस समय ताजमहल की जो दुर्दशा देखी थी उस पर एक लंबी कविता भी लिखी थी। इस बार आगरा और ताजमहल दोनों को देखकर पिछली बार से कहीं ज्यादा क्षोभ हुआ। भारतवासियों में पर्यटन का शौक बढ़ रहा है। यह तो अच्छी बात है लेकिन पर्यटन का कोई सलीका, कोई तहजीब होती है, इस बारे में हम बिलकुल उदासीन हैं। हम जानते हैं कि मथुरा रिफायनरी के काले धुएं से ताजमहल को बचाने के लिए उस पर रासायनिक लेप किया गया है। लेकिन सैलानियों की जो बेहिसाब आवाजाही है और जैसा शोर-शराबा है उसे देखकर तो डर लगता है कि इसी शोर से घबराकर ही ताजमहल किसी दिन दम तोड़ देगा। यहां आने वाले 99 प्रतिशत लोग ताजमहल देखने नहीं बल्कि उसके सामने खड़े होकर फोटो खिंचवाने ही आते हैं। उन्होंने सुन रखा है कि ताजमहल दुनिया के महानतम आश्चर्य में से एक है। वे उसे देखकर अपना जीवन धन्य करना चाहते हैं, लेकिन इस ऐतिहासिक धरोहर में वास्तुशिल्प का जो अद्वितीय सौंदर्य है उसे समझने का वक्त किसी के पास नहीं होता और न ही इच्छा। यद्यपि परिसर के भीतर साफ-सफाई का बहुत माकूल इंतजाम है लेकिन खाली बोतल और गुटके के पाउच आदि यहां-वहां फेंकने में सैलानियों को तनिक भी संकोच नहीं होता।

आगरा से लौटकर हम मथुरा पहुंचे तो उस दिन विवाह का कोई बड़ा मुहूर्त था। कहीं भी ठहरने की जगह नहीं मिली। रात्रि विश्राम के लिए स्थान ढूंढते-ढूंढते हम वृंदावन पहुंच गए। वहां एक नए-नए बने होटल में कमरे मिल गए। मेरे लिए यह भी एक आश्चर्य था। वृंदावन में भी होटल हो सकता है, यह मैंने नहीं सोचा था। इस यात्रा में मथुरा न देख पाने का पछतावा तो रहा लेकिन वृंदावन में उसकी कसर पूरी करने की कोशिश की। मथुरा और वृंदावन के बीच आठ किलोमीटर की दूरी है। अपने बचपन में हम तांगे से यह यात्रा करते थे। लगभग आधी दूरी पर एक ऐसा स्थान भी था जहां लुटेरे ताक में रहते थे। लेकिन अब यह गुंजाइश नहीं है। सड़क के दोनों तरफ आवासीय कॉलोनियां, अस्पताल, मंदिर और आश्रम बन गए हैं। मुगल जमाने से चली आ रही गोचर भूमि भी इस रास्ते पर थी। वह भी शायद लुप्त हो चुकी है। वृंदावन में घूमते हुए देखा कि बस्ती के चारों ओर नई-नई कॉलोनियां बन रही हैं और नए-नए आश्रम। धर्म के साथ-साथ रीयल एस्टेट अब शायद बृजभूमि का बड़ा व्यापार बन गया है। वृंदावन में चार-पांच पुराने प्रसिध्द मंदिर हैं। इसमें बांकेबिहारी मंदिर की शोभा सर्वोत्तम है। वहीं श्रध्दालुओं का तांता भी ज्यादा लगता है। लेकिन लगभग उतने ही पुराने राधावल्लभ मंदिर का वातावरण पहले की अपेक्षा कुछ फीका लगा। सेवाकुंज के बारे में किंवदंती है कि वहां आधी रात राधा-कृष्ण रास रचाने आते हैं लेकिन इस जगह अब वृक्षों की जगह कुछ झाडियां ही कुंज का अहसास दिलाती हैं। लखनऊ के एक साह परिवार द्वारा बनवाया गया शाहजी का मंदिर अस्सी-नब्बे साल पहले ही बना है। इस मंदिर में भारतीय शिल्प के साथ-साथ अंग्रेजी चित्रकला और स्थापत्य का प्रभाव स्पष्ट दिखाई देता है। वृंदावन में पिछले तीस-पैंतीस साल में नए-नए मंदिर बने हैं जो भक्ति भावना के कम और कौतूहल के केंद्र ज्यादा हैं। शाहजी के मंदिर से इस परंपरा की शुरुआत मानी जा सकती है। पुराने मंदिरों में रंगजी का मंदिर अपने भव्य परकोटे, विशाल प्रांगण तथा सोने का पत्थर जड़े गर्व स्तंभ के कारण सहज आकर्षित करता है। मैंने एक रोचक तथ्य नोट किया कि रंगजी के मंदिर में ज्यादातर दक्षिण भारतीय आते हैं तो बिहारी जी के मंदिर में उत्तर भारतीय। अधिकतर बंगाली भक्त चैतन्य महाप्रभु के गौड़ीय मठ में जाते हैं और कहना न होगा कि विदेशी नए-नए बने इस्कॉन मंदिर में। सब अपने-अपने सम्प्रदाय और अपनी-अपनी गुरु परंपरा का पालन करते नजर आते हैं। इस सबको अगर कोई जोड़ने वाली बात है तो वह वृंदावन की संकरी गलियों में छोटी-बड़ी दुकानों पर मिलने वाले भांति-भांति के सुस्वादी व्यंजन।
मावे और छेने की मिठाईयां तथा पूरी-कचौरी का स्वाद लेते हुए सारे भक्त एक ही रसधारा में जुट जाते हैं।


इस संक्षिप्त यात्रा में जतीपुरा के दर्शन करना हमारे लिए जैसे अनिवार्य था। गिरिराज पर्वत की तलहटी में जहां मुख्य पूजा होती है उस ''मुखारविंद'' नामक स्थान पर ही मेरी दादी का स्वर्गवास हुआ था। यहां से प्रारंभ होने वाली गोवर्धन पर्वत की 21 किलोमीटर की परिक्रमा की कृष्णभक्तों के बीच बड़ी मान्यता है। इस यात्रा पथ पर गोवर्धन, श्यामकुंंड, राधाकुंड, मानसीगंगा, आदि प्राचीन स्थल है। लेकिन इस बार जतीपुरा की यात्रा करना जैसे एक यंत्रणा से गुजरना था। मुखारविंद पर लाखों का चढ़ावा आता है, उसे पंडे रख लेते हैं। धनिक समाज ने अपने-अपने सुविधा सम्पन्न विश्रामगृह निर्मित कर लिए हैं लेकिन छोटे से गांव में गंदगी का जो विकराल स्वरूप है उसकी ओर किसी का ध्यान नहीं है। शायद इसके लिए कृष्ण को ही अवतार लेकर सफाई अभियान चलाना पड़ेगा। क्या तभी बृजभूमि बच पाएगी?



 6 फ़रवरी 2009 को देशबंधु में प्रकाशित 

Tuesday 22 May 2012

यह क्रिकेट नहीं अफीम है


जब रोम जल रहा था, तब नीरो बांसुरी बजा रहा था। जब भारत पर उत्तर और पश्चिम दिशाओं से विदेशी आक्रमण हो रहे थे,तब भारत के सम्राट, नरेश, क्षत्रप और सामंत खजुराहो जैसे मंदिरों का निर्माण करवाने में जुटे हुए थे।

जब फ्रांस में राज्यक्रांति होने को थी, तब महारानी मैरी भूखे प्रजाजनों को रोटी न मिलने पर केक खाने की मासूम सलाह दे रही थीं।

जब 1857 में लखनऊ पर ईस्ट इंडिया कंपनी की फौज चढ़ी आ रही थी, तब बकौल प्रेमचंद, लखनऊ के नवाब शतरंज की बिसात में उलझे हुए थे।

जब इंदिरा गांधी की हत्या के बाद भारत राजनीतिक दिशा और लक्ष्य खो बैठा था, तब हमारे देश की सरकार रूस, फ्रांस और न जाने कहाँ-कहाँ भारत महोत्सव मनाने में मगन थी।

और जब भारत में महंगाई आसमान छू रही है, अनाज और सब्जियां मिलना तक दुश्वार हो रहा है तथा समूचा सत्तातंत्र भ्रष्टाचार के कीचड़ में आपादमस्तक लिथड़ा हुआ नजर आ रहा है, तब इस देश का सुविधाभोगी वर्ग क्रिकेट के नशे में डूबा हुआ है।

भारत इस समय अपने राजनैतिक इतिहास के एक बेहद नाजुक मोड़ से गुजर रहा है। आज वह आजादी और गुलामी के बीच जो फर्क है, उसे समझ पाने में असमर्थ नजर आता है। पूंजीवाद के नए अवतार ने देश को ऐसी चकाचौंध में डाल दिया है जहां किसी भी बात का सिरा मिलना लगभग असंभव हो गया है।

मुझे क्रिकेट से कोई परेशानी नहीं है, बशर्ते उसे एक खेल की तरह खेला जाए। लेकिन हकीकत यही है कि आज क्रिकेट खेल छोड़कर बाकी सब कुछ है। वह व्यापार है, प्रचार है, ग्लैमर है, राजनीति है; और अगर कार्ल मार्क्स के शब्दों को उधार लूं तो वह इस उपमहाद्वीप की जनता के लिए अफीम है। यहां शायद ''करेला और नीम चढ़ा'' की कहावत चरितार्थ हो रही है। देश धार्मिक कर्मकांडों में तो डूबा हुआ है ही, वह क्रिकेट में भी गाफिल है और जैसे इतना पर्याप्त न हो तो उसे पूरी तरह डूबा देने के लिए शराब पानी की तरह बह रही है। यद्यपि इस पानी मिली शराब के लिए गाढ़े पसीने की कमाई लुटाना पड़ती है।

भारत और क्रिकेट के बीच जो संबंध विकसित हुआ है वह अभूतपूर्व है। ब्राजील में फुटबाल, इंग्लैण्ड में रग्बी, अमेरिका में बेसबाल- ये सब राष्ट्रीय खेल की तरह खेले जाते हैं। इनके मैच देखने के लिए भारी संख्या में खेलप्रेमी एकत्र होते हैं। इन खेलों में भी सट्टा होता है; लेकिन जैसा जुनून भारत में क्रिकेट के प्रति पैदा किया गया है, वैसा कहीं और देखने नहीं मिलता। इस खेल को राष्ट्रीय गौरव से जोड़ कर भारतवासी आत्मवंचना का शिकार हो रहे हैं। कोई भी खेल हो, उसमें हार-जीत तो होती ही है। थोड़ी देर का आनंद, थोड़ी देर की उत्तेजना, थोड़े समय का रोमांच- उसके बाद सब कुछ सामान्य हो जाना चाहिए। लेकिन हमारे यहां नजारा कुछ और ही है। आजकल जिस तरह जगह-जगह पर भगवान के चित्र के मूर्ति के ऊपर अथवा सामने चौबीस घंटे बिजली का दीया जलते रहता है वैसे ही हम क्रिकेट के देवताओं के सामने चौबीस घंटे माथा टेके नजर आते हैं।

हम जानते हैं कि हमारे देश में क्रिकेट के खेल में कितनी चालबाजियां की जा रही हैं। क्रिकेट खिलाड़ियों और प्रबंधकों के ढेरों स्कैण्डल सामने आ चुके हैं। कुछ साल पहले स्थिति यहां तक पहुंच गई थी कि इस खेल को संदेह की दृष्टि से देखा जाने लगा था। क्रिकेट की लोकप्रियता में भारी कमी आ गई थी, लेकिन फिर आमिर खान 'लगान' फिल्म लेकर आए तथा क्रिकेट के साथ स्वाधीनता संग्राम का मिथक जोड़कर खेल को नए सिरे से वैधता प्रदान कर दी गई। आज तो हालत यह है कि 2 अप्रैल को मुंबई के वानखेड़े स्टेडियम में विश्व कप का पटाक्षेप हुआ नहीं कि टी-20 सीरीज का प्रचार प्रारंभ हो गया। गोया इस देश में लोगों को कोई काम ही नहीं है, कि उन्हें फुरसत ही फुरसत है कि दिन-रात क्रिकेट मैच ही देखते रहें।

क्रिकेट चाहे पांच दिन का हो, चाहे एक दिन का, चाहे बीस ओवर का, उसका उद्देश्य यदि मनोरंजन है तब तक तो ठीक है, लेकिन जब खिलाड़ी आपादमस्तक बिकने लगे और खेल का मैदान विज्ञापनों से अंट जाए तो फिर यह खेल नहीं व्यापार हो जाता है। दरअसल यह  बहुराष्ट्रीय कारपोरेट घरानों की व्यापारिक साजिश ही है जिसने हमारे देश में क्रिकेट को इतना ऊंचा दर्जा दे दिया है। यह तथ्य जनता के ध्यान में बार-बार लाने की जरूरत है कि भारत में लगभग बीस-पच्चीस करोड़ लोग मध्यवर्ग में आते हैं: वैश्वीकरण के पिछले दो दशकों में इसे भांति-भांति से लुभाने की कोशिश की गई है। उसे समझाया गया है कि जीवन में कुछ भी अलभ्य नहीं है। उसे नित प्रतिदिन अपने या अपने परिवार के ऊपर खर्च या ज्यादा खर्च करने के लिए प्रेरित किया जा रहा है। ''शॉप अन्टिल यू ड्रॉप'' उसके जीवन का मूलमंत्र बना दिया गया है। अब कोई गालिब नहीं है जो यह कहे कि ''बाजार से निकला हूं खरीदार नहीं हूँ''। आज भारत का मध्यमवर्गीय नागरिक या तो उदासीन मतदाता है या फिर उत्फुल्ल उपभोक्ता। एक दुरभिसंधि के तहत उसके नागरिक बने रहने का विकल्प मानो समाप्त कर दिया गया है।

इस मध्यमवर्गीय उपभोक्ता को वह सब कुछ चाहिए जो बाजार में है; और बाजार उसे दोनों बाँहें पसारे अपनी ओर बुला रहा है। इस षड़यंत्र में सब शामिल हैं: याने सिर्फ माल बनाने और बेचने वाले ही नहीं, बल्कि राजनेता, उद्योगपति, मीडिया मालिक, क्रिकेट खिलाड़ी, फिल्मी सितारे और सट्टाबाजार के रहस्यमय नियंत्रक भी। इन सबने मिलकर जनता को बेहोश कर बाजार के सामने फेंक दिया है कि जितना नोंच सकते हो नोंच लो, हमारा मुनाफा हमें जरूर मिल जाना चाहिए।

7 अप्रैल 2011 को देशबंधु में प्रकाशित

ललित कलाएं और मीडिया-2


सामंतों और श्रेष्ठियों के स्थान पर अब कारपोरेट घराने मीडिया के बड़े हिस्से को भी नियंत्रित और संचालित करते हैं। इस नए श्रेष्ठि वर्ग में उस उदार दृष्टि का अभाव बड़ी हद तक परिलक्षित होता है, जो पहले के  श्रेष्ठि वर्ग में दिख जाती थी। यद्यपि कारपोरेट घरानों द्वारा कलाओं के उन्नयन और संरक्षण के प्रति सदाशय का दावा किया जाता है, लेकिन वास्तविकता यही है कि उन्होंने अब तक जो भी किया है, वह बहुत कम है। इनके द्वारा जो मीडिया तंत्र संचालित होता है, उसमें भी बाज़ार को बढ़ावा देने पर पूरा जोर होता है, न कि कला के माध्यम से निजी और सामाजिक जीवन को सरस बनाने का। टीवी पर प्रसारित सीरियल, रीयल्टी शो, गेम शो इत्यादि सभी कार्यक्रम इसी सोच का प्रतिबिंब है। यदि दूरदर्शन और आकाशवाणी को छोड़ दें तो टीवी और रेडियो दोनों में ललित कलाओं के लिए जगह बनाई ही नहीं  गई है।

इस निराशाजनक स्थिति के बरक्स एक ऐसा वर्ग भी है जो इसमें नई संभावनाएं तलाश कर रहा है। ऐसी सोच रखने वालों का मानना है कि मीडिया का लोकव्यापीकरण और परिणामस्वरूप जनतंत्रीकरण का रास्ता प्रशस्त हो रहा है। आज मीडिया में संस्कृति के विभिन्न आयामों की प्रस्तुति जिस रूप में हो रही है, उसे ये अध्येता ''पापुलर-कल्चर'' की संज्ञा देते हुए और किसी हद तक इसे लोकसंस्कृति के समकक्ष लाकर खड़ा करने का प्रयत्न करते हैं। संभव है कि उनका आशावादी दृष्टिकोण ही सही हो, लेकिन मैं उनसे अपने-आपको असहमत पाता हूं।

मेरा मानना है कि अपनी सांस्कृतिक अभिव्यक्ति के लिए जो शैलियां इन दिनों अपनाई जा रही हैं वे देशज नहीं हैं और उनमें एक नए परिवेश में सहज ग्राह्य हो जाने के लिए अनिवार्य तत्वों की कमी है। भारत की उदारवादी सांस्कृतिक परंपरा में हमने बाहर से ग्रहण करने में कभी कोई संकोच नहीं किया है, लेकिन प्रचार माध्यमों का सहारा लेकर जो हमें परोसा जा रहा है वह हमारी मिट्टी-पानी के अनुकूल नहीं जान पड़ता। भाषा प्रयोग हो या भवन निर्माण, हर आयाम व हर विधा पर यह बात लागू होती है और ललित कलाओं के संदर्भ में भी इस वैषम्य को स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है।

जो विद्वान ''पापुलर कल्चर'' को लोक संस्कृति का पर्याय मानकर स्थापनाएं देते हैं वे इस तथ्य को अनदेखा कर देते हैं कि लोक संस्कृति का जन्म और विकास स्वस्फूर्त होता है। उसके लिए किसी प्रायोजक की आवश्यकता नहीं होती। लोक संस्कृति ही विकास की एक अवस्था पर पहुंच कर रूढ़ होते हुए शास्त्रीय स्वरूप ले लेती है, तब उसका एक अनुशासन बन जाता है। संगीत, नृत्य, चित्रकला इन सब पर यह बात लागू होती है। लोक से विशेष की प्रक्रिया में जनाधार सिमट जाने के बाद ही संरक्षण की आवश्यकता पड़ती है। उस समय कला, चौपाल और खुले मंच से सभागारों और सभाकक्षों में चली जाती है। यह एक सर्वव्यापी, समयसिध्द सच्चाई है।

दूसरी ओर कथित ''पापुलर कल्चर'' तो पहले से ही प्रायोजित हैं। टीवी, एफएम रेडियो, पेज थ्री आदि माध्यमों से ललित कलाओं के नाम पर होने वाली प्रस्तुतियाँ कार्पोरेट घराने सीधे या विज्ञापनों से या ईनामी योजनाओं के द्वारा प्रायोजित होती हैं। ये प्रदर्शन रातोंरात यश और समृध्दि बटोरने का लालच देते हैं जबकि हजारों में कोई एक ही ऐसे प्रायोजित मंच के बदौलत सफलता प्राप्त कर पाता है। यह सफलता भी कितनी दीर्घजीवी है, कहना मुश्किल है।

यहां आकर अब साफ-साफ देखा जा सकता है कि संस्कृति (जिसमें ललित कलाएं भी शामिल हैं) और मीडिया दोनों ही इस दौर में नवसाम्राज्यवादी शक्तियों के द्वारा ही नियमित और संचालित हो रहे हैं। इसके दुष्परिणाम सामने हैं। एक तो कला में जो स्वभावगत कल्पनाशीलता व रचनाशीलता होना चाहिए वह समाप्त हो रही है। दूसरे, कला की श्रेष्ठता इससे विपरीत ढंग से प्रभावित हो रही है। तीसरे, उदीयमान कलासाधकों के सामने अपना सर्वोत्तम देने की इच्छा और संभावना कमजोर हो रही है। एक जनतांत्रिक समाज में अलिखित सीमाओं के भीतर एक कलाकार को जो स्वतंत्रता और स्वायत्तता हासिल हो सकती है, उस पर भी उल्टा प्रभाव पड़ रहा है।

मीडिया अपने आपको जनतंत्र का प्रहरी और चौथा स्तंभ मानता है। इस नाते अवसर आने पर उससे अभिव्यक्ति की स्वाधीनता के मौलिक अधिकार के पक्ष में खड़े होने की अपेक्षा की जाती है, लेकिन विगत वर्षों में जब भी ऐसे प्रसंग आए हैं, मीडिया इस अपेक्षा पर खरा नहीं उतर सका है। उसने ऐसे मौकों पर या तो सनसनी फैलाने का काम किया है या तो चुप्पी साध ली है। ऐसे कठिन अवसरों पर टीवी पर जब चर्चाएं आयोजित होती हैं तो शायद जानबूझकर ही ऐसे व्यक्तियों को आमंत्रित किया जाता है जो विवाद  बढ़ाने का काम करे। अपनी लोकप्रियता और टीआरपी बढ़ाने का शायद यही सुनहरा नियम है!

कुल मिलाकर स्थिति यह है कि ललित कलाओं के संवर्धन और संरक्षण के लिए जो वातावरण होना चाहिए, वह अब नहीं है। मीडिया को इस दिशा में जो सकारात्मक पहल करना चाहिए उसका भी अभाव है। जैसा कि मैंने प्रारंभ में कहा- यह एक संक्रमण काल है और अनुकूल वातावरण निर्मित होने में समय लगेगा, लेकिन जो लोग इस बात को समझते हैं कि कलाएं समाज को और व्यक्तिगत जीवन को समृध्द करती हैं, उन्हें अपने प्रयत्न जारी रखने चाहिए। 

16 फरवरी 2012 को देशबंधु में प्रकाशित 


ललित कलाएं और मीडिया-1



सामान्य तौर पर जब किसी विषय पर चर्चा होती है तो सबसे पहले उससे जुड़ी परम्परा अथवा स्मृति से हासिल परिभाषा और धारणाएं सामने आती हैं। आज जो विषय है उसके दोनों पक्ष याने ललित कला और मीडिया भी इसका अपवाद नहीं हैं। ललित कला से अमूमन हमारा अभिप्राय नृत्य, संगीत और चित्रकला-मूर्तिकला से होता है। इसी तरह मीडिया को अखबार, टीवी और भूले-भटके रेडियो तक सीमित मानकर चला जाता है। अगर इसी सोच को आधार बनाकर बात की जाए तो वह अधूरी कहलाएगी। दूसरे शब्दों में जरूरत इस बात की है कि ललित कला और मीडिया इन दोनों की परिभाषा का विस्तार आज के समय में कहां तक है, यह जान लिया जाए। 

ललित कला में नृत्य, संगीत और चित्रकला का समावेश तो है ही, इसमें सिनेमा, फोटोग्राफी और रंगमंच को भी जोड़ना चाहिए। जो कला के प्रति शुध्दतावादी दृष्टिकोण रखते हैं उन्हें शायद इस विस्तारीकरण से एतराज हो, क्योंकि इन प्रदर्शनकारी कलारूपों में विविध तकनीकों का अवलंब लिया जाता है। इस बारे में कहना न होगा कि जो पारंपरिक कलाएं हैं, वे भी ऐतिहासिक कालक्रम में अपने-अपने समय में ईजाद तकनीकों व यंत्रों का सहारा लेती रही हैं। एक क्षण के लिए क्रीड़ा का उदाहरण लें। आज कोई भी खेल ऐसा नहीं है, जिसमें नई-नई तकनीकों का उपयोग न किया जाता हो: इसके बाद भी वे सब खेल ही कहलाते हैं। यही बात कलाओं पर भी लागू होती है।

ललित कलाओं को परिभाषित करते हुए उन्हें तीन श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है। सबसे पहले तो कलाओं के शास्त्रीय रूप हैं, फिर लोक कलाएं हैं और अंत में आज के समय में जो प्रयोग हो रहे हैं वे नव्य रूप हैं। चूंकि हम कला और मीडिया के पारस्परिक संबंधों पर चर्चा कर रहे हैं; तब एक और बिन्दु ध्यान में आता है कि इन सारी कलाओं द्वारा स्वयं ही मीडिया की भूमिका निभाने की संभावना कहीं-न-कहीं अन्तर्निहित होती है। मीडिया में जहां समय व स्थान विशेष की घटनाओं एवं प्रवृतियों के साक्ष्य मिलते हैं, वहीं एक श्रेष्ठ कृति में यह शक्ति होती है कि वह सार्वदेशिक और सार्वकालिक रूप से प्रासंगिक हो जाए। मिसाल के तौर पर पिकासो की अमर कृति ''गुएर्निका''। इस तरह यदि एक रचना क्लासिक आयाम की है तो वह कलाकार की निजी अभिव्यक्ति को एक सार्वजनिक साँचे में ढाल देती है। 

इसी तरह मीडिया का स्वरूप भी पिछली एक शताब्दी के दौरान बहुत तेजी के साथ परिवर्तित और विस्तृत हुआ है। इसमें जनसंचार के प्रारंभिक माध्यमों की अपनी जगह अब तक बनी हुई है; इसके बाद प्रेस, रेडियो और टीवी ने मिलकर मीडिया का वह स्वरूप बनाया जिससे उसे एक शास्त्रीय मान्यता मिली; अब हम इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक में इंटरनेट के द्वारा नए मीडिया को प्रबल गति से विकसित होते देख रहे हैं। इनके अलावा सिनेमा और रंगमंच ऐसे माध्यम हैं जिन्हें मीडिया और कला दोनों श्रेणियों में सरलता से रखा जा सकता है। इस पृष्ठभूमि में हम ललित कला और मीडिया के पारस्परिक संबंधों को समझने की कोशिश करेंगे।

हमारा ध्यान सर्वप्रथम इस ओर जाता है कि आज के मीडिया में ललित कलाओं के लिए नहीं के बराबर स्थान है। एक तरफ नित-नए प्रकाशित हो रहे समाचार पत्र हैं, चौबीस घंटे चलने वाले टीवी चैनल हैं, आकाशवाणी के अलावा एफएम रेडियो केन्द्र हैं, यू-टयूब जैसे नए माध्यम हैं और इन सबका परिचालन करने के लिए नई से नई यांत्रिक विधियां हैं; लेकिन दूसरी ओर कलाओं के प्रति अवहेलना, अरुचि व उनके गैर-जरूरी होने का भाव है। एक समय समाचार पत्रों में कला समीक्षक हुआ करते थे, वे अब विलुप्तप्राय हैं। कभी आकाशवाणी से जुड़ने में लेखक और संगीतज्ञ न सिर्फ गौरव का अनुभव करते थे, बल्कि वह उनकी पहचान बनाने का एक सशक्त मंच था, यह भी एक पुरानी बात हो गई है। टीवी का विस्तार होने से रूपंकर कलाओं को महत्व मिलने की अपेक्षा की गई थी, वह सही नहीं उतरी। 78 आरपीएम के रिकार्डों और सिनेमा की पेटी से चलकर डीवीडी और वी सेट-तक सूचना तकनीकी पहुंच गई, लेकिन कलाओं का संवर्धन नहीं हो सका।

इस बात की पुष्टि में छत्तीसगढ़ से ही कुछ उदाहरण लिए जा सकते हैं। खैरागढ़ में सन् 1954 में स्थापित इंदिरा कला व संगीत विश्वविद्यालय है। यह प्रदेश का ही नहीं, देश का एकमात्र उच्च शिक्षा संस्थान है जो पूरी तरह ललित कलाओं को समर्पित है। हम इसे एशिया का ऐसा एकमात्र विश्वविद्यालय भी मानते हैं। लेकिन दु:खपूर्वक सच्चाई स्वीकार करना पड़ती है कि इस साठ वर्ष पुराने गौरवशाली संस्थान के साथ प्रदेश के मीडिया का मानो कोई रिश्ता ही नहीं है। वि.वि. की खबरें अखबारों के राजनांदगांव जिला संस्करण तक सिमटकर रह जाती हैं। उसमें भी ज्यादातर खबरें भीतरी राजनीति एवं प्रशासनिक मसलों पर होती हैं। वि.वि. का कला जगत को  कोई योगदान है भी या नहीं, न तो अखबार पढ़कर जाना जा सकता और न टीवी समाचार देखकर।

जब एक महत्वपूर्ण संस्था के प्रति यह उदासीनता है, तब व्यक्तिश: कलाकारों के प्रति क्या रवैय्या होगा, यह सहज ही समझ में आता है। जो मीडिया बॉलीवुड के छोटे-मोटे कलाकारों के आने पर दीवाना हुआ जाता है, उसे अपने प्रदेश के बड़े से बड़े कलाकार के बारे में शायद ही कोई ज्ञान हो। कभी-कभार किसी कलाकार के बीमार पड़ने पर या कोई अनहोनी हो जाने पर मीडिया का ध्यान उस पर ारूर जाता है, वरना तो वे अक्सर हमारी दृष्टि से ओझल ही रहते हैं। इसका अपवाद सिर्फ वे कलाकार हैं, जो आत्मप्रचार का गुर जानते हैं। ऐसे में जो अपने काम में तल्लीन साधक कलावंत हैं, उन्हें कौन पूछे?

इसकी पहली वजह तो शायद यही है कि जीवनशैली में आ रहे निरंतर परिवर्तनों के कारण कलाओं के आस्वाद के लिए जो मानसिक अवकाश चाहिए, वह आज उपलब्ध नहीं है। इसे शायद यूं भी कहा जा सकता है कि मनुष्य सभ्यता ऐसे संक्रमण काल में है जैसी पहले कभी नहीं थी; इसे स्थिर होने में अब जितना भी वक्त लगे। उधर आज का मीडिया भी अपने समय का ही दर्पण है, इस नाते उससे भी शायद आज कोई बड़ी उम्मीद कलाकारों या कलाप्रेमियों को नहीं रखना चाहिए। यह निश्चित है कि कलाओं को संरक्षण की आवश्यकता होती है, जो उसे कभी नरेशों से, कभी सामंतों से और कभी श्रेष्ठियों से प्राप्त होते रहा है। इनका स्थान आज जनतांत्रिक संस्थाओं और कारपोरेट घरानों ने ले लिया है। एकतंत्र के स्थान पर जनतंत्र में कोई भी कार्य संपादित करने की जटिलताएं और सीमाएं हैं। यदि जनतांत्रिक राजनीति में विचार-न्यूनता अथवा विचार-शून्यता की स्थिति है तो कलाओं के संरक्षण की उम्मीद उससे करना किसी हद तक व्यर्थ ही होगा। ऐसी स्थिति में मीडिया की भूमिका भी स्वमेव सीमित हो जाती है। 

(शासकीय कन्या महाविद्यालय दुर्ग में  ललित कला पर आयोजित राष्ट्रीय संगोष्ठी में  07 फरवरी 2012 को विशिष्ट अतिथि की आसंदी से दिया गया व्याख्यान)




 9 फरवरी 2012को देशबंधु में प्रकाशित 

प्रधानमंत्री और पत्रकार



हमारे प्रधानमंत्री खामोश किस्म के व्यक्ति हैं। उनकी पृष्ठभूमि को देखते हुए इसे स्वाभाविक ही माना जाएगा।
अचरज की बात यह है राजनीति में सक्रिय होने के बाद पांच साल वित्तमंत्री तथा सात साल प्रधानमंत्री पद पर काम करने के बावजूद उनकी इस स्वभावगत विशेषता में कोई परिवर्तन नहीं आया है। वे शायद इस कहावत में विश्वास रखते हैं कि ''मौन ही स्वर्णिम है'' (साइलेंस इंज गोल्डन)। उनकी इस विशेषता को लेकर ही एक चुटकुला इधर प्रचलित हो गया है कि  वे जब दांतों के डॉक्टर के पास गए तो वहां भी बहुत समझाने-बुझाने के बाद मुंह खोलने को राजी हुए। ऐसा मौन धारण करने के अपने लाभ हो सकते हैं, लेकिन आमफहम भाषा में इसे घुन्नापन कहकर इसकी आलोचना की जाती है। 

कांग्रेस पार्टी के सामने यह एक बड़ी मुश्किल है। पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी के जोशीले भाषण सिर्फ चुनावी सभाओं में ही सुनने मिलते हैं, बाकी समय वे चुप्पी अख्तियार किए रहती हैं। अमेठी, रायबरेली के मतदाता भले ही उनसे मिल पाते हों, बाकी का तो उनसे मिलना असंभव ही होता है। वे क्या सोच रही हैं, इसका अनुमान जनार्दन द्विवेदी अथवा टॉम वडक्कन के वक्तव्यों से ही हो पाता है। प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह चुप रहने में बराबरी से उनका साथ देते हैं: वे क्या सोचते हैं इसके लिए अमूमन कपिल सिब्बल अथवा पी. चिदम्बरम के बयानों पर निर्भर रहना पड़ता है। कांग्रेस की इस त्रिमूर्ति के तीसरे देवता राहुल गांधी हैं। वे यहां-वहां सक्रिय नजर आते हैं, लेकिन नीतिगत एवं गंभीर प्रश्नों पर उनकी क्या राय है यह कभी पता नहीं चलता। दिग्विजय सिंह जो कह दें उसे ही राहुल वाणी मानना पड़ता है।

ऐसे में आम जनता तो क्या स्वयं कांग्रेसी भी नहीं जान पाते कि उनकी पार्टी के भीतर क्या चल रहा है। पिछले सात साल में लोकमहत्व के दर्जनों मुद्दे सामने आए, लेकिन कांग्रेस कभी भी अपना पक्ष जनता के सामने मजबूती के साथ नहीं रख पाई। कांग्रेस के बड़े नेताओं को सुरक्षा घेरे में रहना पड़ता है, जिसके कारण आम जनता से उनका संपर्क बहुत सीमित होता है। यह स्थिति एक हद तक समझ में आती है, लेकिन शासन और जनता के बीच संवाद का कोई नियमित साधन न हो तो यह स्थिति न तो नेताओं के लिए अच्छी है, न पार्टी के लिए और न लोकतंत्र के लिए।

आज नेहरू युग की चर्चा करना शायद मुनासिब न हो क्योंकि जमाना बदल गया है क्योंकि संदर्भ के तौर पर उस समय को थोड़ा याद कर लेना गलत नहीं होगा। पंडित नेहरू आम जनता के लिए सदैव उपलब्ध ही नहीं थे, बल्कि जनसमुदाय के बीच पहुंचकर मानो वे संजीवनी पाते थे।  पंडित जी की पत्रकार वार्ता हर माह हुआ करती थी, जिसके माध्यम से देश की जनता के साथ उनका निरंतर संवाद बने रहता था। आज उस दौर के मुकाबले अखबारों की संख्या कई गुणा बढ़ गई है। दसियों न्यूज चैनल भी आ गए हैं।  इस माहौल में हर माह पत्रकार वार्ता करना अव्यवहारिक हो सकता है, लेकिन पत्रकारों से मिला ही न जाए, यह कौन सी बात हुई। इंदिरा गांधी अपने पिता की तरह उदार नहीं थीं, लेकिन आम जनता से उन्होंने भी कभी दूरी बनाकर नहीं रखीं। इंदिरा जी की पत्रवार्ताएं यद्यपि नियमित नहीं होती थीं, लेकिन पत्रकारों से उनका मिलना अत्यंत सुलभ था। वे चाहे देश के दौरे पर हों, चाहे दिल्ली में, एक साधारण सी सूचना पर पत्रकारों को उनसे भेंट का समय मिल जाता था। आपातकाल के दौरान अवश्य दूरी आ गई थी, लेकिन 1980 में सत्ता में लौटते साथ उन्होंने टूटे तार फिर जोड़ने की पहल की थी।

अटल बिहारी वाजपेयी ने भी एक सच्चे जननेता के रूप में आम जनता और प्रेस दोनों के साथ संवाद बनाए रखा। इन्द्रकुमार गुजराल के मीडिया के साथ हमेशा अच्छे संबंध रहे। यह रोचक तथ्य है कि दिल्ली के अधिकतर वरिष्ठ पत्रकारों का वाजपेयीजी और गुजराल साहब दोनों के साथ अनौपचारिक स्तर पर भी सम्पर्क बना रहा। वीपी सिंह और चंद्रशेखर ने भी प्रेस के साथ नियमित संपर्कों का ध्यान रखा। यह जानकर पाठकों को आश्चर्य हो सकता है कि एच.डी. देवेगौड़ा जब प्रधानमंत्री बने तब उन्होंने भी अंग्रेजी और कन्नड़ ही नहीं, तमाम भारतीय भाषाओं के पत्रकारों के साथ संवाद स्थापित किया। उन्होंने अपने कार्यकाल के प्रारंभ में भी हिन्दी तथा अन्य भाषाओं के संपादकों को आमंत्रित कर उनसे खुली चर्चा की पहल की।

सन् 2004 की फरवरी में जब एनडीए का शासन था, श्रीमती सोनिया गांधी ने हिन्दी के संपादकों को रात्रि भोज पर आमंत्रित किया था। संभवत: अन्य भाषाओं के पत्रकारों से भी वे बाद में मिली  होंगी. हम पन्द्रह-सोलह पत्रकार, जो सोनियाजी से मिले थे, उनसे किसी हद तक प्रभावित होकर ही लौटे थे। उस रात्रि भोज में विभिन्न प्रदेशों के कांग्रेस के प्रमुख नेता भी शामिल थे, जो मेहमानों का ख्याल रख रहे थे। सोनिया गांधी खुद सारी टेबलों पर जाकर पत्रकारों के साथ पन्द्रह-पन्द्रह मिनट तक बात कर रहीं थीं। इसके कुछ माह बाद ही आम चुनाव हुए, सोनिया गांधी के नेतृत्व में यूपीए ने चुनाव जीता, डॉ. मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बने और इसके बाद मानो कांग्रेस पार्टी को मीडिया से परहेज हो गया।

इधर जब भ्रष्टाचार के नैतिक मूल्यों पर कांग्रेस पर चौतरफा आक्रमण हो रहे हैं तब पार्टी को एक बार फिर प्रेस की याद आई है। जैसी कि हमें जानकारी है, कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक मंगलवार 28 जून को हुई, उसमें तय किया गया कि प्रधानमंत्री को प्रेस से मिलना चाहिए और आनन-फानन अगले ही दिन याने 29 जून को प्रधानमंत्री ने पांच संपादकों को चर्चा के लिए आमंत्रित कर लिया। इसकी खूब चर्चा हो रही है, लेकिन भारतीय राजनीति में जैसे प्रहसन इन दिनों चल रहे हैं, मुझे यह सीमित पत्रवार्ता भी उसी का एक और मंचन प्रतीत होता है। इसके पहले प्रधानमंत्री की दो वृहद पत्रवार्ताएं हुईं। दोनों में उन्हें जो कहना था वह कहा और पत्रकारों के सवालों को वे चतुराई के साथ टाल गए। सच यह भी है कि उनसे जो सवाल पूछे गए वे अधिकतर बेसिर-पैर के ही थे। कुल मिलाकर ऐसा लगा कि दोनों पत्रवार्ताएं आधे-अधूरे मन से आयोजित की गई थीं। पार्टी के निर्देश पर प्रधानमंत्री ने पत्रकारों से भेंटकर जो सिलसिला प्रारंभ किया है, वह भी कोई उत्साह जागृत नहीं करता।

एक तो यही समझ नहीं आया कि जिन पांच जनों को आमंत्रित किया गया, उसका आधार क्या था? क्या इसलिए कि वे कांग्रेस पार्टी के करीबी हैं, या प्रधानमंत्री के या फिर उनके प्रेस सलाहकार हरीश खरे के? फिर इन पत्रकारों के बाहर आने के बाद मीडिया से चर्चा क्यों करनी चाहिए? एक पत्रकार को सिध्दांतत: अपनी बात अपने अखबार के माध्यम से ही करना चाहिए। इस प्रसंग में वे चाहे-अनचाहे कांग्रेस पार्टी के प्रवक्ता बन गए। प्रधानमंत्री के साथ चर्चा का जो विवरण प्रकाशित हुआ, उसके कुछ बिन्दुओं पर प्रधानमंत्री को नए सिरे से आलोचनाओं का सामना करना पड़ रहा है। ऐसा क्यों कर हुआ, इसका उत्तर पत्रकारों को ही देना होगा। ऐसा लगता है कि प्रधानमंत्री कार्यालय में मीडिया से संवाद करने के लिए कोई सुविचारित नीति या योजना नहीं है। क्या इसके लिए स्वयं डॉ. सिंह का अन्तर्मुखी व्यक्तित्व जिम्मेदार नहीं है?

 7 जुलाई 2011को देशबंधु में प्रकाशित 




Monday 21 May 2012

प्रधानमंत्री की प्रेस वार्ता



डॉ. मनमोहन सिंह ने 25 मई को बाकायदा पत्रकार वार्ता आयोजित की। छह साल के दौरान प्रधानमंत्री की यह दूसरी तथा चार वर्ष के लंबे अंतराल के बाद पहली पत्रवार्ता थी। अगर यह रिकार्ड भविष्य का सूचक है तो मान लेना चाहिए कि अब अगले चार सालों के दौरान पत्रकारों को प्रधानमंत्री से इस तरह मुखातिब होने का मौका नहीं मिलेगा। अगर प्रधानमंत्री की कृपा हो गई तो शायद वे दूसरा कार्यकाल पूरा करने के पहले एकाध मौका भले ही दे दें। वे पत्रकार जिन्होंने बीते समय को देखा है, प्रधानमंत्री की प्रेस से इस तरह दूरी बनाए रखने पर स्वाभाविक रूप से खिन्न हैं। प्रथम प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू लगभग हर माह प्रेस से मिला करते थे। शास्त्री जी का कार्यकाल छोटा रहा, लेकिन प्रेस के साथ संवाद उनका नियमित था। यह मेरा अपना देखा हुआ है कि इंदिरा गांधी बहुत सहजता के साथ पत्रकारों से मिला करती थीं। यद्यपि आपातकाल के दौरान प्रेस के साथ उनकी दूरी बन गई थी। जहां तक मुझे ध्यान आता है पी.वी. नरसिंहराव के समय प्रधानमंत्री का प्रेस के साथ प्रत्यक्ष संवाद लगभग समाप्त हो गया था। आज भी वही स्थिति चल रही है।

डॉ. मनमोहन सिंह ने यह पत्रवार्ता संबोधित करने का निर्णय क्यों लिया इसे लेकर अनुमान लगाए जा रहे हैं। यह ज्ञातव्य है कि यूपीए-2 का एक साल पूरे होने पर सारे टीवी चैनलों पर सिर्फ प्रणव मुखर्जी ही नजर आ रहे थे। वे ही पिछले एक साल की उपलब्धियों पर मीडिया को जानकारी दे रहे थे। यह बात कुछ अटपटी थी कि न तो यूपीए की अध्यक्ष इस मौके पर सामने आईं और न ही प्रधानमंत्री। जैसा कि हम जानते हैं आजकल टीवी अपनी तकनीकी महारत के कारण सार्वजनिक विमर्श का एजेंडा बहुत बड़ी हद तक खुद ही तय कर देता है। अत: यह अनुमान ही लगाया जा सकता है कि इसकी प्रतिक्रिया प्रधानमंत्री कार्यालय में हुई हो। जो भी हो देश का प्रधानमंत्री पत्रवार्ता के माध्यम से देशवासियों तक अपनी बात पहुंचाने के लिए सामने आए तो यह स्वागतयोग्य है।

इस पत्रवार्ता की विस्तृत रिपोर्ट तो अगले दिन सर्वत्र प्रकाशित होना ही थी, वह हुई भी, लेकिन इसे लेकर पत्रकारों और प्रबुध्द समाज के बीच जो उत्तेजना पैदा होना चाहिए थी वह नहीं हुई। इसके विपरीत एक ठंडापन व्याप्त रहा। इसकी एक वजह तो यही थी कि प्रधानमंत्री ने प्रश्नों के उत्तर खुलकर नहीं दिए। वे किसी बैडमिंटन चैम्पियन की तरह अपने पाले में आई चिड़िया को एक पल भी बिना गँवाए  नेट के उस तरफ रिटर्न करते रहे। आप चाहें तो बैडमिंटन की जगह किसी और खेल का नाम ले लीजिए किंतु हम सामान्य तौर पर एक राजनेता से ऐसे उत्तरों की अपेक्षा नहीं रखते। दरअसल मुझे तो पत्रवार्ता के टेलीप्रसारण के दौरान बार-बार ''यस मिनिस्टर'' धारावाहिक के उस नौकरशाह सचिव का ख्याल आ रहा था जो बड़ी सफाई से अपनी मंत्री की बातों को काटकर बातचीत को किसी और दिशा की ओर मोड़ देता था। दूसरे शब्दों में एक चतुर अफसर जिस तरह से अपने-आपको किसी भी निर्णय की जिम्मेदारी से बचा ले जाता है कुछ वैसा ही प्रभाव प्रधानमंत्री दे रहे थे।

दूसरी तरफ उपस्थित पत्रकारों ने भी अपनी ओर से इस नायाब अवसर को गंवाने में कोई कसर बाकी नहीं रखी। उस सुबह लगभग चार सौ देशी-विदेशी पत्रकार विज्ञान भवन के सभाकक्ष में मौजूद रहे होंगे। जिन्होंने सवाल पूछे उनकी संख्या भी शायद सौ के आसपास थी, लेकिन पैंसठ-सत्तर मिनट में मेरी दृष्टि में कुल तीन पत्रकारों ने मुद्दे के सवाल उठाए- हिन्दी के उर्मिलेश, अंग्रेजी की मानिनी चटर्जी तथा उर्दू के एक संपादक जिनका नाम फिलहाल याद नहीं आ रहा है। उपस्थित विदेशी पत्रकारों में से भी एक पत्रकार को सवाल पूछने का मौका मिला; वह संभवत: जापान का था। उसकी बात सवाल कम, शिकायत ज्यादा थी कि सभाकक्ष तक पहुंचने में उसे सिक्योरिटी के कारण कितनी परेशानी भुगतनी पड़ी। सुश्री चटर्जी ने यूपीए के घटक दलों द्वारा किए जा रहे राजनैतिक भयादोहन के संदर्भ में मौजूँ सवाल उठाया कि क्या आज आपको वामदलों का साथ छोड़ देना अखर नहीं रहा है। इस पर प्रधानमंत्री खुलकर अपना मंतव्य सामने रख सकते थे, लेकिन इसे उन्होंने एक अंग्रेजी मुहावरे से उड़ा दिया।

उर्दू के पत्रकार का सवाल एक ठोस समस्या को लेकर था कि साठ वर्ष पूर्व देश छोड़कर पाकिस्तान चले गए लोगों के जो मकान ''दुश्मन की सम्पत्ति'' घोषित हो चुके हैं; उनमें बसे लोगों को बेदखल किया जा रहा है, जिनमें से अधिकतर अल्पसंख्यक हैं, इस बारे में सरकार क्या कर रही है। प्रधानमंत्री का उत्तर यहाँ तक तो ठीक था कि उनके संज्ञान में यह बात नहीं है, लेकिन इसके आगे उन्हें जो कहना चाहिए था वह उन्होंने नहीं कहा। बजाय इसके कि वे प्रधानमंत्री कार्यालय द्वारा इसकी पड़ताल करने का आश्वासन देते, उन्होंने उस पत्रकार पर ही जिम्मेदारी डाल दी कि वह उनके कार्यालय तक सारी जानकारी पहुंचा दे। यह उत्तर किसी कदर संवेदनहीनता का परिचायक था एवं मुझे समझ में नहीं आया। बहरहाल इन कुछेक प्रश्नों के अलावा बाकी प्रश्नों से यही लग रहा था कि मीडिया ने अपनी ओर से कोई तैयारी ही नहीं की थी। यहां हम देख रहे हैं कि भारतीय मीडिया से दिनोंदिन गंभीरता गायब होते जा रही है। यह पत्रकार वार्ता उसका प्रत्यक्ष प्रमाण है। राहुल गांधी कब मंत्री बनेंगे अथवा आप राहुल गांधी के लिए कब कुर्सी छोडेंग़े जैसी बातें गपशप के लिए तो ठीक है, लेकिन इन्हें एक गंभीर पत्रकार वार्ता में पूछे जाने का कोई औचित्य नहीं था। यह स्वाभाविक था कि प्रधानमंत्री ऐसे व्यर्थ के प्रश्नों को हवा में उड़ा देते जो उन्होंने किया। अधिकतर सवाल उसी श्रेणी के थे।

प्रधानमंत्री अगर चाहते तो इस अवसर का उपयोग अपनी सरकार की नीतियों के बारे में जनता को शिक्षित करने के लिए कर सकते हैं। यह शायद उचित होता कि वे दस प्रन्द्रह मिनट का एक प्रारंभिक वक्तव्य दे देते जिससे वहां उपस्थित जानकार पत्रकारों को बेहतर सवाल पूछने का आधार मिल जाता। वैसा नहीं हो पाया। प्रधानमंत्री के प्रेस सलाहकार हरीश खरे इस पत्रवार्ता का संचालन कर रहे थे। उनकी अपनी पहचान एक गंभीर पत्रकार की है, लेकिन इस प्रसंग के दौरान वे टेबल के उस तरफ थे। यह उनके लिए पहला अनुभव था और संभवत: दिल्ली के पत्रजगत से उनका कोई नियमित संपर्क नहीं है। इस पत्रवार्ता का संचालन अगर पत्र सूचना कार्यालय के प्रमुख द्वारा किया जाता तो शायद स्थिति कुछ बेहतर बन सकती थी। फिलहाल हम प्रधानमंत्री जी तक यह अनुरोध पहुंचाना चाहेंगे कि वे नेहरू जी की तरह  भले हर माह पत्रवार्ता न लें लेकिन तीन माह में एक बार तो उन्हें प्रेस से मिलना ही चाहिए। इसके अलावा जब बड़े नीतिगत फैसले लेने का अवसर हो तब भी उन्हें प्रेस से वार्तालाप की पहल करना चाहिए। ऐसा करना शायद काँग्रेस पार्टी के हित में भी होता।


3 जून 2010 को देशबंधु में प्रकाशित 

प्रश्न, प्रवक्ता, नेता और मीडिया


एक सीधी सी बात को हमारे राजनेता और जिम्मेदार अधिकारी शायद जानबूझकर भी नहीं समझना चाहते। एक ओर ज्ञान युग, ज्ञान समाज तथा संचार क्रांति की बातें बढ़-चढ़कर होती हैं; दूसरी ओर यह ध्यान नहीं दिया जाता कि यह नया माहौल राजनीति व प्रशासन तंत्र के लिए किस तरह की नई चुनौतियां खड़ी कर रहा है। संचार क्रांति के चलते मीडिया का जो विस्फोटक विस्तार हुआ है उसने बहुत सारी मान्यताओं एवं परम्पराओं को तहस-नहस कर दिया है। यह नया समय किसी हद तक एक दृश्यमान मानसिक क्रूरता को उकसाने वाला है। जो सावधान नहीं है वे इस क्रूरता का शिकार हो रहे हैं। क्योंकि यह व्यापार आभासी वास्तविकता का है इसलिए संभव है कि नुकसान का तत्काल पता चल न पा रहा हो, किंतु इसमें कालांतर में जो नुकसान हो सकता है उसके बारे में अभी से सतर्कता बरतना बेहतर होगा। 

विश्व राजनीति पर हाल में आई पुस्तक ''समिट्स'' (Summits)  में अमेरिकी राष्ट्रपति निक्सन के कार्यकाल का उल्लेख करते हुए लेखक प्रो. डेविड रेनॉल्ड्स ने स्थापित किया है कि ''उद्धत मीडिया के चलते राष्ट्रपति जिस गोपनीयता के साथ अपनी नीतियां निर्मित करना चाहते थे, नहीं कर सके।'' यह वाटरगेट के पहले की बात है। कहने का आशय कि मीडिया जिस आक्रामक तरीके से जीवन के हर क्षेत्र में हस्तक्षेप कर रहा है, उसके चलते निजता, गोपनीयता, पवित्रता आदि सब धारणाएं तार-तार हो रही हैं। ऐसा अगर व्यापक जनहित में होता तो कोई बात नहीं थी, लेकिन इसका उद्देश्य कुछ अलग ही है। मीडिया जब मूर्तिभंजन करता है तो उसके दो नतीजे निकलते हैं। एक तो मीडिया अपने लिए, क्षणिक ही सही, सस्ती लोकप्रियता हासिल करता है जिसे टीआरपी आदि से आंका जाता है। इस तरह उसके व्यवसायिक हित सधते हैं। दूसरे, ऐसा करने से जनतांत्रिक राजनीति के प्रति अविश्वास पैदा होता है। यह अनायास नहीं है कि प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री आदि को सीईओ की संज्ञा दी जाने लगी है। यह दुनिया पर कारपोरेट पूंजी के नियंत्रण की तरकीब है। 


आज यह सब लिखने की जरूरत इसलिए महसूस हो रही है कि हमारे राजनेता टी.वी. के परदे पर आने के लिए उतावले बैठे हुए हैं। उन्हें टी.वी. का परदा कुछ इस तरह से आकर्षित करता है जैसे बाजार में आए बच्चे को शो-केस में रखे खिलौने। बच्चा मचल उठता है कि उसे खिलौना नहीं मिलेगा तो घर नहीं लौटेगा। वैसे ही अनेक राजनेता है जो प्रतिदिन कम से कम एक चैनल पर दिखे बिना घर नहीं लौटते। उन्हें लगता है कि इसमें उनकी खूब वाहवाही हो रही है, लेकिन इस आत्ममुग्धता के कारण पार्टी को कितना नुकसान हो रहा है इसके बारे में वे बिलकुल भी विचार नहीं करते। मुझे आश्चर्य होता है कि जिन्हें हम वयस्क और उत्तरदायी समझते हैं वे क्यों कर ऐसे प्रपंचों में पड़ जाते हैं। वे यदि इस व्यामोह से मुक्त होने में असमर्थ हैं तो पार्टी का शीर्ष नेतृत्व क्या कर रहा है?


इस संदर्भ में कुछ उदाहरण सामने रखना उचित होगा। मेरी जानकारी में सीपीआई महासचिव ए.बी. बर्ध्दन व जदयू के अध्यक्ष शरद यादव अपवाद स्वरूप ऐसे नेता हैं जो मीडिया के फंदे में नहीं फंसते। वे किसी चैनल में नहीं जाते। उनके विचार जिन्हें जानना हो वे समय लें और घर पर आकर बात करें। वे इस बात की भी इजाजत नहीं देते कि उन्हें बिना श्री या जी लगाए संबोधित किया जाए। याने आपको उनसे बात करना हो तो तमीज के साथ ही करना होगा। लेकिन बाकी का क्या हाल है। अंग्रेजी के दो चैनल तो पार्टी प्रवक्ताओं से, बल्कि बड़े नेताओं से सीधे नाम लेकर इस तरह बात करते हैं जैसे कि वे लंगोटिया यार हों। यह भारत में अंग्रेजी का अभिमान है। इस तरह की छूट तो बीबीसी भी नहीं लेता और न 'द
इकोनोमिस्ट' जैसी प्रतिष्ठित पत्रिका।

यह संभव है कि टी.वी. के सूत्रधारों के इन प्रवक्ताओं के साथ प्रथम नाम संबोधन के रिश्ते हों। लेकिन यह व्यवहार सार्वजनिक रूप से नहीं होना चाहिए। जब आप रवि (रविशंकर प्रसाद), मणि (मणिशंकर अय्यर), सलमान (सलमान खुर्शीद), सीता (सीताराम येचुरी), जयंती (जयंती नटराजन) जैसे संबोधन सार्वजनिक रूप से देते हैं तो श्रोता-दर्शक को यही लगता है कि मीडिया के सामने राजनेता छोटे पड़ गए हैं। सौभाग्य से हिन्दी चैनलों में अभी यह नहीं हुआ है। गो कि विनोद दुआ जैसे एकाध सूत्रधार हैं जो अपनी सर्वज्ञता का आतंक उत्पन्न करने का प्रयत्न करते हैं। अंग्रेजी और हिन्दी का यह फर्क हमारी गुलाम मानसिकता को ही दर्शाता है। यह बदकिस्मती है कि हिन्दी अथवा अन्य भारतीय भाषाएं इस तरह से लगातार अंग्रेजी के सामने लगातार दबती जा रही हैं।


विचारणीय है कि लगभग हर बड़ी पार्टी के दिल्ली में अपने 
सुसज्जित कार्यालय हैं। कुछेक के पास पत्रवार्ता के लिए विशेष रूप से निर्मित कक्ष भी हैं। हरेक पार्टी में प्रवक्ताओं की भी अपनी-अपनी फौज है। जब भी लोकमहत्व का कोई प्रश्न उपस्थित होता है- सरकार के प्रवक्ता पत्र सूचना कार्यालय में पत्रवार्ता करते ही हैं और पार्टी प्रवक्ता अपने-अपने दफ्तर में। उन्हें वहां जो कहना है, कह चुके होते हैं। इसके बाद अगर किसी पत्रकार को कुछ जानना हो तो वह अतिरिक्त प्रयत्न कर जानकारी हासिल कर सकता है। इसके बाद किसी भी मंत्री, नेता या प्रवक्ता को टी.वी. स्टूडियो में जाकर अंतहीन बहसों में अपना समय क्यों गंवाना चाहिए! इससे चैनल को जो भी लाभ होता हो, पार्टी को क्या लाभ मिलता है? मुझे कभी-कभी ऐसा लगता है कि पिछले आम चुनाव में सीपीआईएम को जो नुकसान उठाना पड़ा, उसका एक बड़ा कारण यह भी था कि पार्टी के नेता मैदान में कम व टी.वी. स्टूडियो में ज्यादा समय बिताते थे। 

मेरी राय में हर पार्टी को यह निर्णय लेना चाहिए कि वे अपनी बात संसद और विधानसभा में बहसों द्वारा जनता तक पहुंचाएंगे। और दूसरे यह कि उन्हें अगर इसके बाद कोई बात कहना है तो पार्टी दफ्तर में ही कहेंगे। उन्हें शैम्पू और हेयर डाई के विज्ञापन के बीच बच रहे समय में आयोजित बहसों में अपने प्रवक्ताओं का जाना बंद कर देना चाहिए। हम लोग देख रहे हैं कि तथाकथित कवि सम्मेलनों में फूहड़ कवि राजनेताओं को गालियों से नवाजते हैं और उपस्थित नेतागण हंस-हंस कर तालियां बजाते हैं। टी.वी. के सूत्रधार भी अपने नियंताओं के आदेश पर इसी तरह स्टूडियो में बुलाकर राजनेताओं को अपमानित कर रहे हैं। तो क्या वे सचमुच इसी के योग्य हैं? 


  3 जून 2010को देशबंधु में प्रकाशित 

पत्रकारिता: एक आधा-अधूरा शोधकार्य



एक पत्रकार से यह सहज सामान्य अपेक्षा होती है कि उसके लिखे में तथ्यों के प्रति पूरी सतर्कता बरती जाएगी।
 यह इसलिए कि आज लिखा हुआ आगे चलकर रिकार्ड बनता है तथा यदि तथ्यों में कहीं त्रुटि हुई तो उससे अर्थ का अनर्थ होने के अलावा पाठकों के साथ भी अन्याय होगा। ऐसे में कोई पत्रकार अपने दैनंदिन कार्य से अवकाश ले शोध की ओर मुड़े; उस शोधकार्य के पुस्तक रूप में प्रकाशन का लक्ष्य सामने हो; पत्रकारिता का एक प्रतिष्ठित संस्थान उस कार्य को प्रायोजित करे तथा एक शासकीय संस्थान ऐसी पुस्तक के प्रकाशन का माध्यम बने तो स्वाभाविक रूप से यह अपेक्षा कई गुना बढ़ जाती है; लेकिन जब प्रकाशित शोधकार्य में तथ्यों की अनदेखी हो अथवा तथ्य तोड़-मरोड़कर पेश किए गए हों एवं अन्य तरह से भी लापरवाही हो तो इससे न सिर्फ निराशा, बल्कि क्षोभ भी उपजता है। 

माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय ने पाँच वर्ष पूर्व संकल्प किया कि ''स्वतंत्रता के बाद से भारतीय भाषाओं में पत्रकारिता के विस्तार और प्रभाव, उसकी प्रवृत्तियों और उपलब्धियों, उसकी कमियों और कमजोरियों का विश्वसनीय विश्लेषण, प्रामाणिक दस्तावेज के रूप में लिपिबध्द किया जाए।'' इसके अंतर्गत छत्तीसगढ़ में हिन्दी पत्रकारिता के इतिहास को भी लिपिबध्द करने का कार्य हाथ में लिया गया।  इस प्रकल्प को विश्वविद्यालय के तत्कालीन कुलपति अच्युतानंद मिश्र ने ''इतिहास संरक्षण का विनम्र प्रयास'' की संज्ञा दी। उनकी सेवानिवृत्त के बाद वर्तमान कुलपति बृजकिशोर कुठियाला के मार्गदर्शन में काम आगे बढ़ा। सप्रे संग्रहालय के माध्यम से अपने शोधपरक कार्य के लिए सुपरिचित पत्रकार विजय दत्त श्रीधर परियोजना  के निर्देशक बने। छत्तीसगढ़ राज्य हिन्दी ग्रंथ अकादमी के अनुरोध पर इस परियोजना के तहत तैयार ग्रंथमाला के प्रकाशन का दायित्व वि.वि. ने उसे सौंपा। छत्तीसगढ़ के इतिहास का लेखन रायपुर के युवा पत्रकार विभाष कुमार झा ने किया, जिन्हें इसके पूर्व भी शोधपरक कार्यों के लिए अन्यान्य संस्थाओं से फैलोशिप प्राप्त हो चुकी हैं।

इस शोधकार्य के आधार पर ''हिन्दी पत्रकारिता का इतिहास: छत्तीसगढ़'' का पुस्तक रूप में प्रकाशन सन् 2011 में याने कुछ दिन पहले ही किया गया, लेकिन 124 पृष्ठ के इस शोध प्रबंध ने आद्योपांत निराश ही किया है। एक शोधमूलक कार्य में इतनी लापरवाही बरती जा सकती है, वह भी पत्रकारिता से जुड़े चार-चार अनुभवी व्यक्तियों के रहते हुए, यह कल्पना से परे था। अच्युतानंद मिश्र ने अपनी प्रस्तावना में लिखा- ''श्री विभाष कुमार झा ने छत्तीसगढ़ की हिन्दी पत्रकारिता का गहन शोध-अध्ययन कर परिश्रमपूर्वक पाण्डुलिपि तैयार की। वे प्रशंसा के हकदार हैं। श्री शैलेन्द्र खंडेलवाल शोध सहायक थे।'' इसी तरह ग्रंथ अकादमी के संचालक रमेश नैय्यर ने अपने प्रकाशकीय वक्तव्य में कहा- ''इस ग्रंथमाला की मीडिया के साथ ही राजनीतिशास्त्र, समाजशास्त्र, मानवशास्त्र और इतिहास सहित अन्य विषयों के विद्यार्थियों के लिए विशिष्ट उपादेयता है।'' लेकिन पुस्तक पढ़कर ऐसा लगता है कि ये दोनों वक्तव्य महज औपचारिकता निभाने के लिए दिए गए। 

मैं अपनी बात आवरण पृष्ठ से ही शुरु करूं। इसमें विभिन्न समाचारपत्रों के शीर्ष लेकर कोलाज बनाया गया है। इसमें न तो छत्तीसगढ क़ा प्रथम पत्र ''छत्तीसगढ़ मित्र'' है, न ही प्रथम हिन्दी दैनिक ''महाकौशल'' और न 'उत्थान' अथवा 'अग्रदूत' जैसे महत्वपूर्ण पत्र। ''देशबन्धु'' का मास्टहैड शायद जानबूझकर ही छोड़ा गया है; लेकिन जो समाचारपत्र छत्तीसगढ़ से प्रकाशित ही नहीं होते जैसे 'अमर उजाला', 'हिन्दुस्तान' या 'दैनिक जागरण'- उनके शीर्ष क्यों दिए गए, इसका कोई तर्कपूर्ण उत्तर खोजना मुश्किल है। इसके बाद हम विषयवस्तु पर आते हैं। मेरा ध्यान अनायास जिन बिंदुओं पर गया, उन्हें उध्दृत करते हुए अपनी टिप्पणी मैंने नीचे दी है।

1. ''आजादी के पूर्व इस क्षेत्र में पत्रकारिता के अग्रणी हस्ताक्षरों में पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी, पं. विष्णुदत्त मिश्र तरंगी, पं. स्वराज्य प्रसाद त्रिवेदी, मधुकर खेर, गोविन्दलाल वोरा, गुरुदेव काश्यप तथा रमेश नैयर जैसे ख्यातिलब्ध नाम शामिल हैं।'' (पृष्ठ-13)
टिप्पणी-यह लिखना ही हास्यास्पद है कि गोविन्दलाल वोरा, गुरुदेव काश्यप तथा रमेश नैय्यर स्वाधीनता पूर्व के पत्रकार हैं।

2. ''महाकौशल पत्र ने कभी भी सत्तापरक होने की भूमिका अदा नहीं की।'' (पृष्ठ- 22)
-'महाकौशल' सत्तापक्ष का अखबार था, यह सभी जानते हैं।

3. ''सन् 1952 से सन् 1960 के बीच छत्तीसगढ़ में नागपुर और कोलकाता से समाचारपत्र आया करते थे जबकि दूसरे दैनिक यहां सन् 1960 में आए। तब स्वाभाविक रूप से 'महाकोशल' को प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ा।'' (पृष्ठ - 23)
-रायपुर से 'नवभारत' एवं  'नई दुनिया' (वर्तमान में 'देशबन्धु') का प्रकाशन 1959 में प्रारंभ हुआ, न कि 1960 में।

4. ''प्रखर पत्रकार श्री मायाराम सुरजन के संपादन में दैनिक 'नई दुनिया' का प्रकाशन 19 अप्रैल 1959 को रायपुर से हुआ।'' (पृष्ठ- 34)
-'नई दुनिया' के प्रकाशन की सही तारीख 17 अप्रैल है।

5. ''उन दिनों बस्तर में बांग्लादेश से विस्थापित बंगालियों को भी छत्तीसगढ़ के कुछ स्थानों पर लाकर शिविरों में बसाया गया था।'' (पृष्ठ- 41)
-साठ के दशक में विस्थापन पूर्वी पाकिस्तान से हुआ था; तब बंगलादेश बना ही नहीं था।

6. ''इस दशक में महाकोशल ने साहित्य और अन्य विशेषांक तथा फीचर अंकों में पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी, पुरातत्त्ववेत्ता पं. लोचनप्रसाद पांडेय, छायावादी कवि पं. मुकुटधर पांडेय, पंकज शर्मा, सरजूप्रसाद दुबे सहित अन्य लेखकों को प्रोत्साहित और स्थापित किया।'' (पृष्ठ- 44-45)
-''महाकौशल'' ने उपरोक्त मूर्धन्य साहित्यकारों को स्थापित व प्रोत्साहित किया, यह विचित्र कथन है। इसमें पंकज शर्मा का नाम भी लिया गया है जो लेखक नहीं, विशुध्द पत्रकार ही थे।

7. ''मोनोटाइप के कारण महाकोशल के रोज नए टाइपसेट बनते थे। इससे छपाई की गति प्रभावित होती थी। लेकिन तब अधिकांश समाचारपत्रों के पास यही तकनीक उपलब्ध  थी।'' (पृष्ठ- 51)
-मोनोटाइप मशीन रायपुर में सबसे पहले 1970 में 'देशबन्धु' में आई थी और उसके बाद 'नवभारत' में। जिस कालखण्ड का जिक्र यहां किया गया है उस कालखण्ड में ये मशीनें नहीं थीं। यही नहीं, मोनोटाइप से कंपोजिंग की रफ्तार बढ़ गई थी, जबकि यहाँ एकदम विपरीत संकेत दिया गया है।

8. ''देशबन्धु के आरंभ और स्थापित होने तक सुरजन के सार्वजनिक जीवन के अनेक प्रसंग देशबन्धु में 'धूप छांव के दिन' साप्ताहिक स्तंभ में छपते थे।'' (पृष्ठ- 55)
-'धूप छांव के दिन' का प्रकाशन अस्सी के दशक में हुआ न कि देशबन्धु के प्रारंभिक दिनों में।

लेखक ने पृष्ठ 25 पर 'मुक्ति' पत्र का जिक्र किया है, लेकिन एक बड़े तथ्य की ओर उनका ध्यान नहीं गया कि यह पत्रिका छत्तीसगढ़ में दलित चेतना के प्रसार हेतु प्रारंभ हुई तथा मूलचंद जांगड़े ने इसे प्रारंभ किया था। इसी तरह पृष्ठ-37 पर साप्ताहिक 'स्नातक' का जिक्र करते हुए इस तथ्य का उल्लेख नहीं किया गया कि यह विश्वविद्यालयीन छात्रों का पत्र था और इस तरह राष्ट्रीय स्तर पर एक अभिनव प्रयोग था।

पृष्ठ-65-66 पर पत्रकार सनत चतुर्वेदी के हवाले से बस्तर की पाइन परियोजना का जिक्र किया गया है। यह प्रसंग 1971-72 का है न कि अस्सी के दशक का, जैसा कि पुस्तक में लिखा गया है। ऐसी ही लापरवाही अगले पृष्ठों पर है। पृष्ठ 67 पर उल्लेख है कि गोविन्दलाल वोरा ने 1984 में 'अमृत संदेश' प्रारंभ किया और उसके एक दो वर्ष बाद उनके भाई मोतीलाल वोरा मुख्यमंत्री बने। शोधकर्ता थोड़ी सी मेहनत करते तो वे 1985 की सही-सही तारीख लिख सकते थे। और आगे देखें। चन्दूलाल चंद्राकर ने छत्तीसगढ़ में कभी पत्रकारिता नहीं की, लेकिन पृष्ठ 67 में इस रूप में इनका उल्लेख किया गया।

पुस्तक को पच्चीस अध्यायों में बांटा गया है। हरेक अध्याय में उपशीर्षक भी दिए गए हैं, किंतु अध्यायों के शीर्षक और उसके अंतर्गत प्रकाशित सामग्री में तालमेल की कमी खटकती है। मसलन, बड़े ''अखबारों का आगाज '' शीर्षक अध्याय में 'ज्वालामुखी', 'रायपुर न्यूज', 'विचार और समाचार', 'रथचक्र' इत्यादि पत्रों का जिक्र किया गया है: ये ऐसे पत्र हैं जिनका जीवन संक्षिप्त रहा तथा इन्हें बड़ा अखबार तो किसी भी दृष्टि से नहीं कहा जा सकता। इसी तरह पृष्ठ 31 पर एक उपशीर्षक है- ''चर्चित घटनाएं''। इसमें गास मेमोरियल कांड का जिक्र है, लेकिन बस्तर गोलीकांड में राजा प्रवीरचंद्र भंजदेव की मृत्यु वाली महत्वपूर्ण घटना का उल्लेख ''पत्रकारिता का तकनीकी शैशवकाल'' शीर्षक अध्याय के अंतर्गत दिया गया है। साहित्यिक पत्रकारिता नामक अध्याय में सिर्फ एक या दो साहित्यिक पत्रिकाओं का जिक्र है।

शोधकर्ता ने एक शालेय पत्रिका 'कला सौरभ' के प्रकाशन का उल्लेख किया है। छत्तीसगढ़ के विभिन्न विद्यालयों से समय-समय पर सालाना पत्रिका प्रकाशित होती हैं। इनका विस्तृत विवरण देकर पूरा अध्याय लिखा जाता तब तो उचित था, लेकिन सिर्फ एक पत्रिका का बिना किसी विवरण के उल्लेख करना समझ नहीं आया। इसी क्रम में यदि थोड़ी मेहनत की जाती तो प्रदेश के औद्योगिक प्रतिष्ठानों द्वारा नियमित रूप से प्रकाशित गृहपत्रिकाओं के बारे में जानकारी दी जा सकती थी। आखिर उन्हें क्यों छोड़ा जाए! शोधकर्ता ने हाल में प्रारंभ हुए अखबारों का भी जिक्र किया है, लेकिन आश्चर्य की बात है कि ''हाईवे चैनल'' सहित कुछ अन्य समाचारपत्रों का जिक्र करना वे भूल गए।

इस पुस्तक में गंभीर रूप से खटकने वाली दो और बातें हैं। एक तो शोधकर्ता ने जिन पत्रकारों से साक्षात्कार लिए हैं उन्हें यथावत छाप दिया है: उनकी प्रामाणिकता का परीक्षण करने की आवश्यकता लेखक ने महसूस नहीं की। दूसरे यह भी लगता है कि पूर्व में किसी अन्य फैलोशिप के अंतर्गत संकलित की गई सामग्री को यथावत इसमें जगह दे दी गई है। जो पत्रकार दिवंगत हो चुके हैं उनका नामोल्लेख भूतकाल की बजाय वर्तमान काल में किया गया है। इस तरह की और भी अनेक त्रुटियां हैं जिनके कारण छत्तीसगढ़ राज्य हिन्दी ग्रंथ अकादमी का यह प्रकाशन व्यर्थ हो गया है। पत्रकार और पत्रकारिता के छात्र अगर इसे पढ़ेंगे तो अपना नुकसान ही करेंगे।


17 फरवरी 2011 को देशबंधु में प्रकाशित