Wednesday 26 September 2018

क्या तिलिस्म टूट रहा है?


विश्व के स्वघोषित सबसे बड़े राजनीतिक दल भारतीय जनता पार्टी की ऐसी छवि जनमानस में हाल के बरसों में बस गई थी मानो वह कार्टून कथा के जादूगर मैंड्रेक के जनाड़ू (xanadu) जैसा तीन लोक से न्यारा, कल्पना में न समाने वाला ऐसा कोई अजूबा हो जो दूर से देखने पर चमत्कृत करे, और पास चले गए तो उसकी भूल-भूलैया में भटक कर रह गए। वह एक ऐसे अभेद्य किले के रूप में सामने था जिस पर कितने भी तीर बरसें, कितनी भी तोपें चलें, कोई असर होने वाला नहीं है। वह एक ऐसा भव्य राजमहल था जो राहगीरों को बरबस अपनी ओर खींच लेता था। इस नए जनाडू के जादूगर मैंड्रेक के कारनामे भी ऐसे कि जो सुने दांतों तले उंगली दबा ले। उसे भारत की जनता ने इक्कीसवीं सदी का सिकंदर माना। ऐसा सिकंदर जो विश्व विजय पर निकला है और जिसके हाथ की लकीरों में सिर्फ जीत ही दर्ज है। लेकिन इस बीच ऐसा कुछ तो हुआ है कि यह छवि अब दरकती सी प्रतीत होने लगी है!
1984 में राजीव गांधी तीन चौथाई बहुमत लेकर आए थे। तीन साल बीतते न बीतते उनके प्रति जनमानस में अविश्वास की भावना बलवती होने लगी थी।  उनके विश्वस्त साथियों ने भी उन्हें मंझधार में छोड़ दिया था और उन्हें 1989 के चुनावों में पराजय का मुंह देखना पड़ा था। इसके तीस साल बाद 2014 में नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी को स्पष्ट बहुमत मिला, लेकिन 8 नवंबर 2016 को नोटबंदी के ऐलान, फिर 2017 में जीएसटी लागू होने के बाद मोदी सरकार के बारे में भी सवाल उठने लगे और अब 2018 में राफेल युद्धक विमानों की खरीद को लेकर एक बड़ा बवाल खड़ा हो गया है। तीस साल पहले बोफोर्स ने राजीव गांधी को जनता की आंखों में नीचे गिरा दिया था। आज का सवाल है कि क्या राफेल सौदे पर उठे सवालों के बाद नरेन्द्र मोदी अपनी प्रतिष्ठा को कायम रख पाएंगे। भाजपा पार्टी और सरकार इस कांड को लेकर कठघरे में तो आ ही गए हैं और बचाव की हर कोशिश नाकाफी सिद्ध हो रही है।
राफेल कांड में दो-तीन बातें गौरतलब हैं- एक तो फ्रांस के जिस राष्ट्रपति के कार्यकाल में इस डील पर हस्ताक्षर हुए, उन्हीं ओलान्द ने पलटवार करते हुए भारत सरकार को ही जिम्मेवार ठहरा दिया है। दूसरे, यह विचित्र है कि कभी कृषि राज्य मंत्री इस रक्षा सौदे के मामले में सरकार का बचाव करने सामने आते हैं, तो कभी किसी दूसरे विभाग का मंत्री, जबकि प्रधानमंत्री स्वयं खामोश बैठे हैं। तीसरे, जब रक्षा मंत्री सफाई देने सामने आती हैं तो अपनों अधीनस्थ संस्थानों और अधिकारियों को ही अक्षम ठहराने लगती हैं। सबसे हास्यास्पद तो भाजपा अध्यक्ष का तर्क है कि राहुल गांधी पाकिस्तान के साथ मिल गए हैं।  कुल मिलाकर सत्तारूढ़ दल को समझ नहीं पड़ रहा है कि अपने ही बनाए जाल से बाहर कैसे निकला जाए!
राफेल का मामला अभी चलते रहेगा। सरकार ने विपक्ष को वार करने के लिए एक बड़ा मौका दे दिया है। लेकिन सुनने में यह भी आ रहा है कि भाजपा के केन्द्रीय नेतृत्व के भीतर ही परस्पर संशय का वातावरण बन गया है और महत्वाकांक्षी नेता एक-दूसरे को नीचा दिखाने के लिए खबरें बाहर पहुंचा रहे हैं। सुब्रह्मण्यम स्वामी मंत्रिमंडल में नहीं हैं, लेकिन वे अपना असंतोष जब-तब प्रकट करते रहते हैं। वित्त मंत्री से तो वे खासे नाराज प्रतीत होते हैं। उन्हें शायद लगता है कि इस पद के असली हकदार वही थे। जब उन्होंने अपनी एक सदस्यीय जनता पार्टी का विलय भाजपा में किया था, क्या तब उन्हें कोई आश्वासन मिला था जिससे बाद में प्रधानमंत्री मुकर गए? वैसे वित्त मंत्री अरुण जेटली भी इन दिनों कुछ अप्रसन्न दिखाई देते हैं। ऐसी चर्चाएं होती हैं कि आर्थिक मामलों में उनसे बिना राय लिए ,उन्हें बिना विश्वास में लिए फैसले थोप दिए जाते हैं जिनका बाद में उन्हें विवश होकर औचित्य सिद्ध करना पड़ता है।
हमारे प्रधानमंत्री की एक खूबी है कि उनके पास अंधसमर्थकों की एक बड़ी फौज है। विरोधी पक्ष उन्हें भक्त की संज्ञा देता है। यह वर्ग मोदीजी के कहे को अंतिम सत्य मानकर चलता है। फिर वे भले ही बिना तथ्यों व तर्कों की परवाह किए जब जैसा मन में आए कह दें। जैसे अभी उन्होंने सिक्किम में सगर्व बताया कि उनके चार साल के राज में पैंतीस नए विमानतल सेवा के लिए चालू हो गए हैं। हकीकत में यह संख्या सिर्फ सात है। विपक्षी उनके इन उद्गारों को संकलित कर सोशल मीडिया पर खिल्ली उड़ाने से नहीं चूकते। अब तो प्रधानमंत्री के निकट माने जाने वाले चैनल और पत्रकार भी कहने लगे हैं कि प्रधानमंत्री के पास अनुभवी, जानकार और बुद्धिमान लोगों का अभाव है। जो स्तंभकार मोदीजी की प्रशंसा करते थकते नहीं थे, वे अब दबी जुबान से सलाह देने लगे हैं कि उन्हें क्या करना और क्या नहीं करना चाहिए।
इधर राज्यों के हालात भी भाजपा के लिए चिंता उपजाने वाले हैं। राजस्थान में मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे से राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह नाराज हैं, यह खबर पुरानी है और जैसा कि जनता ने देखा वसुंधरा राजे यहां अमित शाह पर भारी पड़ गईं। विधानसभा चुनावों में इस आपसी लड़ाई का चाहे जो परिणाम निकले। राजस्थान के बाद गोवा में भी पार्टी के भीतर संकट स्पष्ट दिख रहा है। यहां भाजपा ने हर तरह के हथकंडे अपना कर कांग्रेस के हाथ में आते-आते सत्ता छीन ली थी। मनोहर पर्रिकर का मन दिल्ली में नहीं लग रहा था, वे मुख्यमंत्री बनकर लौटे, लेकिन स्वास्थ्य ने उनका साथ नहीं दिया। हैरानी की बात है कि गंभीर बीमारी से जूझ रहे वे मुख्यमंत्री पद पर बने हुए हैं, लेकिन उनके दो अन्य बीमार मंत्रियों को बाहर कर दिया गया है। क्या इसलिए कि भाजपा के पास गोवा में पर्रिकर के अलावा और अन्य कोई नेता नहीं हैं और उन्हें हटाया तो कांग्रेस को वहां सरकार बनाने का मौका मिल जाएगा।
मध्यप्रदेश में शिवराज सिंह चौहान के मुखमंडल की उत्फुल्लता अब मद्धिम पड़ गई प्रतीत होती है। उनकी सभाओं में अब पहले जैसी भीड़ नहीं उमड़ती। उन्हें जगह-जगह विरोध का सामना करना पड़ रहा है। कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया ने कांग्रेस में नवजीवन का संचार किया है। आए दिन भाजपा के नेता अपने पितृदल को छोड़कर कांग्रेस का रुख कर रहे हैं। चार साल की अवधि में कांग्रेस छोड़कर जो भाजपा में चले आए वे अब परेशान नजर आ रहे हैं। पिछले दिनों प्रधानमंत्री की मध्यप्रदेश यात्रा की एक तस्वीर को लेकर काफी चर्चा हुई। शिवराज सिंह लंबी सी मुस्कान खींचकर नरेन्द्र मोदी को फूल भेंट कर रहे हैं और मोदीजी प्रत्युत्तर में श्री चौहान को आंखें तरेर कर देख रहे हैं। लगातार यात्राएं करते-करते प्रधानमंत्रीजी भी शायद थक जाते हैं। यह शायद ऐसा ही अवसर रहा हो!
छत्तीसगढ़ में भी चुनाव सन्निकट हैं। यहां कहा जा रहा है कि मायावती जी और जोगीजी के बीच भाजपा की प्रेरणा से ही गठबंधन हुआ है, लेकिन इतने मात्र से भाजपा को खुश नहीं होना चाहिए। बिलासपुर में, जो मंत्री अमर अग्रवाल का क्षेत्र है, वहां कांग्रेसियों पर जिस तरह से पुलिस ने लाठियां बरसाईं वह सत्ता के अहंकार को ही दर्शाता है। महासमुंद, बिलासपुर, जगदलपुर के प्रकरण सत्तारूढ़ दल के लिए चिंता का सबब होना चाहिए। सीडी कांड में सीबीआई द्वारा आरोप पत्र दाखिल करने का समय भी शंकाओं को जन्म देता है। भाजपा के दो बड़े नेताओं की प्रतिद्वंद्विता इस मामले में सामने आई है। वहीं भूपेश बघेल ने जमानत न लेकर राजनैतिक कौशल का परिचय तो दिया ही है, अपना कद भी ऊंचा कर लिया है। देश-प्रदेश में कहने के लिए बातें और भी बहुत हैं, जिनसे ध्वनित होता है कि अब पहले वाला माहौल नहीं है।
 देशबंधु में 27 सितम्बर 2018 को प्रकाशित 

Tuesday 25 September 2018

हिंदी दिवस पर एक हिंदी सेवक से मुलाक़ात


               
आज मैं आपकी मुलाकात सुरेन्द्र प्रसाद जी से करवाना चाहता हूं। श्री प्रसाद जमशेदपुर में रहते हैं। टाटा स्टील के वित्त विभाग में उच्च अधिकारी थे। सेवा से अवकाश लिए काफी अरसा गुजर चुका है। होम्योपैथी के जानकार हैं। जमशेदपुर के होम्योपैथी कॉलेज में अध्यापन कर चुके हैं इसलिए नाम के आगे डॉक्टर उपाधि भी जुड़ी हुई है। वनस्पतिशास्त्र में दिलचस्पी रखते हैं, पेड़-पौधों का अच्छा ज्ञान है, डाक टिकट संग्रह में गहरी रुचि है। इतना परिचय पा लेने के बाद यह भी जान लीजिए कि श्री प्रसाद इस 14 सितंबर को ब्यानवे साल की आयु पूरी कर तिरानबे साल की दहलीज पर दस्तक दे रहे हैं। इस रोचक संयोग पर ध्यान दीजिए कि उनकी जन्म तारीख 14 सितंबर है। ऐसा कौन सा हिन्दी प्रेमी होगा जिसे यह तारीख याद न रहे! सितंबर की यह तिथि जो कभी एक दिन के राजभाषा दिवस या हिन्दी दिवस के रूप में मनाई जाती थी, उसने अपने अधिकार का विस्तार एक तारीख से 30 तारीख तक पूरे महीने तक कर लिया है।
मैं श्री प्रसाद का उल्लेख सिर्फ उनकी जन्मतिथि के लिए नहीं कर रहा हूं बल्कि इसलिए कि वे एक विचारशील हिन्दीसेवी हैं जिन्होंने बढ़ती आयु के बावजूद अपनी सक्रियता बनाए रखी है। इसका प्रमाण है कि उन्होंने अब तक अपनी छह पुस्तकें प्रकाशित की हैं। इनमें एक उपन्यास है, दो लघुकथा संग्रह और तीन कहानी संकलन। ये सारी पुस्तकें उन्होंने सेवानिवृत्ति के बाद लिखी हैं और इनमें उनके जीवन के अनुभवों की छाप स्पष्टत: देखी जा सकती है। जॉगर्स पार्क की कहानियां नामक पुस्तक की भूमिका में वे अपने बारे में लिखते हैं कि-
मैं वृद्धावस्था के अवकाश का सदुपयोग करने के लिए लेख और कहानियां लिखने लगा जो कई समाचार पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगे। उस समय मुझे एक कहावत याद आयी - 'चलता आदमी और दौड़ता घोड़ा कभी बूढ़ा नहीं होता। बस फिर क्या था मैंने ठान लिया कि अंत समय तक लिखने का काम करता रहूंगा।'
लेखक का विचार सराहनीय है और अनुकरणीय भी कि वह वृद्धावस्था को अपने ऊपर हावी न होने देकर जीवन की संध्या को रचनात्मकता के एक नए रास्ते पर ले जाने का साहस कर सका है। मैं कहना चाहूंगा कि हिन्दी को श्री प्रसाद जैसे सच्चे प्रेमियों की आवश्यकता है जो बिना लाभ-लोभ के भाषा की उन्नति में योगदान करने के लिए तत्पर रहते हैं। श्री प्रसाद की भावना उन्हें स्वघोषित हिन्दीप्रेमियों के एक बहुत बड़े समुच्चय से अलग कर अलग धरातल पर स्थापित कर देती है। श्री प्रसाद से मेरा परिचय लगभग पन्द्रह वर्ष पूर्व हुआ जब वे अपनी रायपुर निवासी बेटी श्रीमती सुनीता गुप्ता के घर आए थे और फिर नाती राकेश को लेकर मुझसे मिलने के लिए पधारे थे। उन्होंने तब डाक टिकटों के बारे में कुछ लेख लिखे थे। वे लेख मैंने देखे, रोचक प्रतीत हुए, मुझे लगा कि देशबन्धु के पाठक इन लेखों को पसंद करेंगे। वहां से एक सिलसिला शुरू हुआ। डाक टिकटों के बाद पेड़-पौधों पर भी उन्होंने छोटे-छोटे लेख लिखे जिनका देशबन्धु में धारावाहिक प्रकाशन हुआ।
अभी कुछ दिन पूर्व सुनीता जी मेरे दफ्तर आईं और अपने पिता द्वारा लिखी छह पुस्तकों का सेट मुझे प्रदान किया। उस दिन से मेरे मन में विचार उठ रहा था कि प्रसाद जी और उनके रचना कर्म से पाठकों को परिचित कराऊं। वे स्वयं अपनी रचनाओं के बारे में क्या कहते हैं इसे लघुकथा संग्रह अजनबी की भूमिका से उनके ही शब्दों में जानिए-
'पुराने जमाने की तुलना में आज लगभग सभी लोग बहुत अधिक और अनेक प्रकार की समस्याओं से जूझ रहे हैं। मैंने अपनी लघुकथाओं में इन समस्याओं को उजागर कर, उनका समाधान ढूंढने में पाठकों की सहायता करने की चेष्टा की है। उन्हें कुछ भी लाभ हुआ तो अपना प्रयास सार्थक समझूंगा।' 
यह बात तो उन्होंने कथावस्तु के बारे में की है, भाषा शैली के बारे में उनके विचार क्या हैं यह इसी प्रस्तावना की निम्नलिखित पंक्तियों से जानिए-
'आज के युग में आज के लोगों के बीच रहता हूं और उनके लिए ही लिखता हूं। इसलिए अधिकांश जनता द्वारा बोली जाने वाली सरल हिन्दी में ही लिखना पसंद करता हूं जिससे कम पढ़े-लिखे तथा गैर हिन्दी भाषी लोग भी आसानी से पढ़ और समझ सकें और लाभ उठाएं।'
साहित्यिक आलोचना के प्रतिमानों पर श्री प्रसाद की रचनाएं एकआयामी और सपाट प्रतीत होती हैं लेकिन विषयवस्तु की दृष्टि से चर्चा करें तो इन कहानियों में आज के समय के ढेर सारे प्रश्न उठाए गए हैं। लेखक के हृदय में स्त्रियों के प्रति गहरी सहानुभूति है जो अनेक कहानियों में परिलक्षित हुई है। पार्क का माली शीर्षक कहानी में लेखक माली को सलाह देता है कि बेटी को पढ़ा-लिखाकर अपने पैरों पर खड़े होने लायक बनाने के बाद ही उसकी शादी के बारे में सोचना। इसी तरह हाशिए के समाज के प्रति भी लेखक के मन में सहानुभूति अनेक रचनाओं में प्रकट हुई है। पर्यावरण की चिंता, बेरोजगारी, टूटे परिवार,  सांप्रदायिक सद्भाव, नई पीढ़ी के स्वप्न जैसे विविध विषयों पर लेखक ने अपनी कलम चलाई है। इन्हें पढ़ते हुए यह धारणा बनती है कि लेखक ने जीवन स्थितियों का सूक्ष्म अध्ययन किया है। मैं सुरेन्द्र प्रसाद जी को उनकी सजग लेखनी और सामाजिक पक्षधरता के लिए साधुवाद देता हूं। मेरा उनसे परिचय होना एक संयोग था, लेकिन कितना अच्छा हो कि हम अपने आसपास ऐसे सुधीजनों की तलाश करें, उनके साथ संवाद करें और इस तरह हिन्दी को और समृद्ध बनाने के उपक्रम में एक नए तरीके से सहभागी बनें।
हिन्दी दिवस के सिलसिले में मैं एक और प्रसंग पर पाठकों का ध्यान आकर्षित करना चाहता हूं। कुछ दिन पहले इंदौर में कुछ साहित्यकार मित्रों ने वहां से प्रकाशित कतिपय समाचारपत्रों की सार्वजनिक रूप से होली जलाई। उनका आक्रोश इस बात पर था कि इन अखबारों में बेवजह अंग्रेजी शब्दों का इस्तेमाल कर हिन्दी के साथ खिलवाड़ और उसका निरादर किया जा रहा है। मित्रों ने जो मुद्दा उठाया उसे मेरा पूरा समर्थन है। लेकिन पुस्तक, पत्र-पत्रिका इनको जलाकर विरोध प्रकट करने से मैं सहमत नहीं हूं। इसके बरक्स दूसरा प्रसंग रांची में घटित हुआ जहां आदिवासी समाज ने कुछ अखबारों का सार्वजनिक तौर पर बहिष्कार करने की घोषणा की। मेरी राय में यह दूसरा तरीका बेहतर है। पुस्तक हो या अखबार, होली जलाने या फाड़कर फेंकने से आप गुस्सा तो जाहिर कर सकते हैं लेकिन ऐसा करके हम स्वयं अपनी मर्यादा भंग करते हैं।
मैं मानता हूं कि हिन्दी के अनेक अखबार पिछले कुछ सालों से जानबूझ कर भाषा को भ्रष्ट करने का पाप कर रहे हैं। यह सोचना आवश्यक है कि वे ऐसा क्यों कर रहे हैं। आदिवासियों द्वारा अखबार का बहिष्कार करने से पता चलता है कि वे आदिवासी हितों के विरुद्ध लेखन कर रहे हैं। वहां भी यह समझना आवश्यक है कि वे ऐसा क्यों कर रहे हैं। इसके उत्तर में एक बात स्पष्ट है कि मीडिया का पूरी तरह कार्पोरेटीकरण हो चुका है। जो पत्र और चैनल पूंजीवादी समाज के द्वारा उसके हितरक्षण के लिए चलाए जा रहे हैं उनसे व्यापक हित में काम करने की अपेक्षा करना व्यर्थ है। दूसरी बात गौरतलब है कि आज बाजार में और सामाजिक जीवन में किस तरह की भाषा का प्रयोग हो रहा है। क्या अखबारों की भाषा वही नहीं है जिसका चलन दैनिक जीवन में लगातार बढ़ते जा रहा है?
यह विचार करके देखिए कि हिन्दी के लिए इतने चिंतित हमने अपने परिवार में, विशेषकर नई पीढ़ी के सदस्यों में, अपनी भाषा के प्रति अनुराग उत्पन्न करने के लिए अब तक क्या किया है। एक दौर था जब हिन्दी की कुछ पत्रिकाएं घर-घर में पढ़ी जाती थीं। उनमें परिवार के हर सदस्य के लिए कुछ न कुछ पठनीय होता था। वे पत्रिकाएं बंद हो गईं।  मेरा सोचना शायद गलत नहीं होगा कि अधिकतर लेखक अपनी मां, पत्नी, भाई, बहन या बच्चों के साथ अपनी रचनाओं के बारे में भी बात नहीं करते। एक मिनट के लिए इस तर्क को छोड़कर एक नए बिन्दु पर बात करते हैं।
यह तय है कि जिस भाषा में रोजी-रोटी का इंतजाम हो सके उसी में पढ़ाई-लिखाई करना बेहतर होता है। अगर अंग्रेजी पढऩे से नौकरी मिलती है तो बच्चों को अंग्रेजी पढ़ाना चाहिए। इसमें कोई उज्र नहीं। लेकिन अंग्रेजी माध्यम में पढऩे वाले बच्चों के साथ क्या घर पर हिन्दी में वार्तालाप नहीं हो सकता। उन्हें हिन्दी के श्रेष्ठ लेखन से परिचित कौन करवाएगा? सब जानते हैं कि युवा वर्ग अखबारों का एक बड़ा पाठक है। वह बाजार में एक महत्वपूर्ण उपभोक्ता भी है। दूसरी तरफ अखबार एक व्यवसाय है। वह अपने युवा पाठक बनाम उपभोक्ता को ललचाने के लिए अगर भ्रष्ट हिन्दी का प्रयोग करता है तो उसके लिए हम स्वयं किसी हद तक दोषी हैं या नहीं?
मैं जानता हूं कि बहुत सारे मित्र अभी हिन्दी दिवस के उपलक्ष्य में यहां-वहां से आमंत्रण की प्रतीक्षा में होंगे। अपना भाषण तैयार कर रहे होंगे किन्तु इसके साथ-साथ वे अगर अपने उच्चासन से थोड़ा नीचे उतरने का कष्ट करें और हिन्दी को जन-जन तक पहुंचाने के लिए क्या नई युक्तियां अपनाई जाएं इस पर विचार करें तो शायद उसका कोई लाभ आगे चलकर मिल सके।
अक्षर पर्व सितम्बर 2018 अंक की प्रस्तावना 
 

Thursday 20 September 2018

विश्व बाजार में विदेश नीति!


                                             

 अमेरिकी पत्रकार थॉमस फ्रीडमैन की पुस्तक 'द वर्ल्ड इज फ्लैट' सन् 2005 में प्रकाशित हुई थी। देखते ही देखते लाखों प्रतियां बिक गई थीं। भारत में भी इस पुस्तक की खूब चर्चा हुई थी। थॉमस फ्रीडमैन के लेख हमारे कुछ अंग्रेजी अखबारों में नियमित रूप से छपने लगे थे। मोटे अर्थों में यह पुस्तक अंतरराष्ट्रीय पूंजीवाद और वैश्वीकरण की वकालत में लिखी गई थी। हम भारतीयों को पुस्तक शायद इसलिए कुछ अधिक अच्छी लगी थी कि इसकी शुरूआत फ्रीडमैन के बंगलौर दौरे, इंफोसिस के कारपोरेट दफ्तर के भ्रमण, और नंदन निलेकणी के साथ वार्तालाप से हुई थी। पुस्तक के शीर्षक से ध्वनित होता है कि दुनिया गोल न रहकर चपटी या सपाट हो गई है यानि यहां से वहां तक संबंधों के तार जोड़ना आसान हो गया है और यह कि विश्व समाज का व्यवहार इस संपर्क-सघनता पर ही आधारित होगा।

फ्रांसीस फुकुयामा की बहुचर्चित पुस्तक 'द एंड ऑफ हिस्ट्री' भी किन्हीं अर्थों में इसी अवधारणा पर लिखी गई थी। एक तरह से देखें तो अमेरिका में रीगन और इंग्लैंड में थैचर के आने के बाद वैश्विक संबंधों में एक नए युग की शुरुआत हुई थी। ये दोनों तथा इन जैसी अनेक पुस्तकें इस नए दौर की कथित उपलब्धियों का गुणगान करने के लिए लिखी गईं। द्वितीय विश्व युद्ध समाप्त होने तथा उपनिवेशवाद से तीसरी दुनिया के अनेक देशों की मुक्ति के बाद दुनिया में जो नया माहौल बन रहा था उनका निषेध रीगन-थैचर युग में होना शुरू हो गया था। यह समय था जब न तो तीसरी दुनिया में जवाहरलाल नेहरू जैसा कोई नेता था, न अमेरिका में न्यू डील लाने वाला रूजवेल्ट जैसा राष्ट्रपति, और न रूस में ख्रुश्चेव जैसा संतुलन साधने वाला जनरल सेक्रेटरी, न इंग्लैंड में नेशनल हेल्थ सर्विस लाने वाला एन्युरिन बेवन जैसा दूरदर्शी मंत्री।
इस बीच तकनालॉजी में कल्पनातीत प्रगति हो रही थी। जनता को समझाया जा रहा था कि प्रौद्योगिकी के विकास के साथ-साथ हमारा यह विराट संसार एक विश्व ग्राम में बदल जाएगा और आधुनिक तकनीकों का इस्तेमाल कर हम अपने लिए एक बेहतर संसार रच सकेंगे। कुछ अंशों में तकनालॉजी का विकास एक वरदान था, लेकिन हमें न तब समझ आया और न आज समझ आ रहा है कि आम आदमी तो सिर्फ उपभोक्ता है। तकनालॉजी का मालिकाना हक जिनके पास है वे अपने लिए एक नए संसार की रचना कर रहे हैं; जिसमें हमारे लिए तो कुछ हद तक झुनझुने हैं, और बाकी कभी न पूरे होने वाले सपने। इस तरह भारत ही नहीं, अनेकानेक देश एक व्यामोह में जकड़कर रह गए हैं। 
भारत ने 1991 में पी.वी. नरसिम्हाराव के प्रधानमंत्री और डॉ. मनमोहन सिंह के वित्त मंत्री बनने के साथ ही सपनों की उस राह पर चलना शुरू कर दिया था जिसे रीगन-थैचर के समय में बिछाया गया था। लगभग तीन दशक पहले के उस वातावरण को याद करूं तो समझ आता है कि इस नए रास्ते को चुनने के दो कारण थे। एक तो शायद यह विश्वास था कि इस पर चलने से ही देश की आर्थिक प्रगति होगी और दूसरा शायद यह कि हमारे नीति निर्धारकों को कोई अन्य विकल्प दिखाई नहीं दे रहा था। जो भी हो, उस समय से लेकर अब तक वैश्विक स्तर पर ऐसी आर्थिक नीतियां बनाई जा रही हैं जो जनता के बिल्कुल पल्ले नहीं पड़तीं। तथापि भारत सहित अनेक देश इन नीतियों को लागू करने के लिए वचनबद्ध व एक हद तक मजबूर दिखाई देते हैं। 
वर्तमान की चर्चा करें तो दिखाई देता है कि हम अमेरिका और चीन इन दोनों की प्रतिस्पर्द्धा और महत्वाकांक्षा के बीच फंस गए हैं। यह अजीब विडंबना है कि एक ओर हम विश्व की चौथी-पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था होने का दंभ कर रहे हैैं और दूसरी ओर हमें समझ नहीं आ रहा कि अमेरिका और चीन की प्रतिस्पर्द्धा के बीच अपनी स्वाधीन हैसियत को कैसे बचाकर रखा जाए। वैश्विक राजनीति में नए-नए समीकरण बन रहे हैं जो दुनिया दो ध्रुवों में बंटी थी वह एकध्रुवीय हुई और फिर देखते ही देखते एक नया दूसरा ध्रुव उभर गया। पुराने वक्त में की गई संधियां अप्रासंगिक हो गईर्ं और जो नई संधियां बन रही हैं वे अनेक तरह की पेंचीदगियों से भरी हुई है। एक नई दिक्कत यह भी पेश आ रही है कि सार्वभौम सत्ताओं के बीच हुई संधियों का भी तिरस्कार किया जा रहा है। 
पिछले तीस-चालीस साल के दौरान सत्ता प्रतिष्ठान में यह सोच मजबूत हुई है कि विदेश नीति सिर्फ राजनीतिक भलमनसाहत से नहीं चलती, देशों के बीच आर्थिक संबंधों पर ध्यान देना अधिक आवश्यक है। अमेरिका और चीन दोनों की विदेश नीति में इसे देखा जा सकता है। अपने अध्ययन से हम अमेरिका के बारे में जानते हैं कि उसने हमेशा अपने देश के पूंजीपति वर्ग को ध्यान में ही अन्य देशों के साथ संबंध बनाए या तोड़े। शीतयुद्ध के दिनों में सोवियत संघ की नीति इसके बिल्कुल विपरीत थी, वह बहुत पुरानी बात हो गई है। चीन कहने को साम्यवादी देश है, किन्तु वैदेशिक संबंध निभाने में उसका रवैया अमेरिका नीति से बहुत अलग नहीं है।
भारत की दुविधा यह है कि वह किसके साथ जाए और कितनी दूर तक जाए। हमारे प्रभुत्वशाली वर्ग की मानसिकता अमेरिकापरस्त है और इस वजह से हमारे सत्ताधीश आंख मूंदकर अमेरिका का अनुसरण करना चाहते हैं। ऐसा करने से देश को क्या लाभ-हानि होगी इसकी चिंता भी वे नहीं करते। इसलिए हम फिलीस्तीन का साथ देना छोड़ देते हैं, इजराइल को सगे भाई से बढ़कर मान देते हैं, इरान के साथ किए गए समझौतों का उल्लंघन करने में संकोच नहीं करते, फिर बीच-बीच में संतुलन साधने के लिए नए-नए उपाय खोजते हैं। इस अमेरिकापरस्त विदेश नीति का नुकसान हमें घरेलू मोर्चे पर कई तरह से उठाना पड़ता है। जैसे अगर आज हम इरान से कच्चा तेल लेना बंद कर दें जैसा कि अमेरिका चाहता है तो पेट्रोल-डीजल की कीमतों पर क्या प्रभाव पड़ेगा यह अभी समझ नहीं आ रहा है।
चीन के साथ संबंधों का निर्वाह कैसे किया जाए यह एक जटिल प्रश्न है। 1962 की कड़वी यादों से हम अभी तक उबर नहीं पाए हैं। चीन का वैभव हमें लुभाता है। उसने जो आर्थिक तरक्की की है उससे हम चकित हैं। दूसरी तरफ चीन को लेकर एक संशय हमेशा बना रहता है। हमारे पड़ोसी देशों के साथ, फिर एशिया और अफ्रीका के अनेक देशों के साथ चीन ने जो व्यापारिक रिश्ते कायम किए हैं वे भी हमें परेशान करते हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि चीन हमारा पड़ोसी देश है जबकि अमेरिका हमसे सात समंदर पार है। यह तथ्य रेखांकित करना चाहिए कि दो सौ साल की गुलामी में भारत हर तरह से कमजोर हुआ जबकि चीन में प्रारंभ से उद्यमशीलता का वातावरण था जिसके कारण वह देश हमसे कभी भी पीछे नहीं था। 
आज की स्थिति यह है कि कुछ ऐसे अंतरराष्ट्रीय मंच है जिन पर हम अमेरिका के साथ हैं, तो कुछ ऐसे भी मंच हैं जहां भारत और चीन साथ बैठते हैं याने संतुलन साधने की कोशिश तो है, लेकिन एक अस्पष्टता बनी हुई है। मुझे मलेशिया के प्रधानमंत्री महातिर मोहम्मद का ध्यान आता है। जब 1997 में दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों की अर्थव्यवस्था ध्वस्त हो गई थी तब अकेला मलेशिया ही उस संकट से बच सका था। महातिर मोहम्मद प्रधानमंत्री थे और उन्होंने मलेशियाई मुद्रा पर सट्टेबाजी नहीं होने दी थी। अब जब वे दुबारा प्रधानमंत्री बने हैं तो उन्होंने चीन से भारी-भरकम योजनाओं के लिए कर्ज लेने से इंकार कर दिया है। आशय यह कि हमारे नीति-निर्धारकों को खासकर विदेश नीति बनाने वालों को निर्णय लेने  में साहस और स्पष्टवादिता का परिचय देना चाहिए।
देशबंधु में 20 सितम्बर 2018 को प्रकाशित 

Wednesday 12 September 2018

हिंदी : विसंगतियां व विडंबनाएं



कल 14 सितंबर है। हिन्दी दिवस। इस मौके पर मुझे कुछ ऐसे नाम याद आ रहे हैं जिनसे कम से कम छत्तीसगढ़ में पाठकों का  एक बड़ा वर्ग परिचित है। प्रोफेसर वि.गो. वैद्य रायपुर के शासकीय अभियांत्रिकी महाविद्यालय में रसायनशास्त्र के प्राध्यापक थे। पड़ोसी  थे और अक्सर मुलाकातें होती थीं। एक दिन यूं ही कुछ बात छिड़ी तो उन्होंने देशबन्धु के लिए ''कुछ ज्ञान-कुछ विज्ञान"  शीर्षक से साप्ताहिक स्तंभ लिखना शुरू किया जो कई बरस चला। वे मराठीभाषी थे और उनके कॉलम में मराठी का पुट आने से भाषा और निखर जाती थी। वैद्य साहब बाद में बेटे के पास पुणे चले गए। वहां उन्होंने मराठी से हिन्दी में विज्ञान कथाओं का अनुवाद करना प्रारंभ किया, फिर उन्होंने एनबीटी के लिए मूल हिन्दी में ही एक विज्ञान उपन्यास लिखा।

रायपुर के वास्तुविद् याने आर्किटेक्ट के.एल. बानी के साथ अच्छा संपर्क था। एक दिन उनका लिखा पत्र देखा तो भाषा और लिखावट ने अनायास ही मन मोह लिया। मेरे आग्रह पर श्री बानी ने इस अखबार में तत्व चिंतन पर एक साप्ताहिक कॉलम की शुरूआत की जो पिछले साल उनके असमय निधन तक नियमित प्रकाशित होता रहा। कुछ ऐसा ही किस्सा डॉ. सोमनाथ साहू के साथ हुआ। वे हमारे प्रदेश के वरिष्ठ और सम्मानित चिकित्सक हैं। उन्होंने एक दिन मुंबई में मेडिकल कॉलेज के अपने शिक्षक के पत्र की कापी अपने एक टिप्पणी के साथ मुझे पढ़ने भेजी। सुंदर लिखावट, सुंदर भाषा, और सुंदर अभिव्यक्ति। मैंने डॉ. साहब को उकसाया तो वे अपने आत्मकथात्मक संस्मरण लिखने के लिए काफी ना-नुकुर के बाद राजी हुए और इस तरह उन्होंने एक मुकम्मल पुस्तक लिख डाली।
एक नाम का जिक्र और करूंगा। इंदर सिंह आहूजा बेमेतरा जिले के दाढ़ी नामक गांव से आते हैं। इनका रायपुर में अनाज की आढ़त का कारोबार था। आहूजा जी ने शायद कॉलेज की पढ़ाई भी नहीं की है। लेकिन पिछले दो दशक से वे देशबन्धु में गुरु ग्रंथ साहब पर एक साप्ताहिक स्तंभ लिख रहे हैं। उन्होंने हमारे लिए खालसा पंथ के तीन सौ वर्ष पूर्ण होने पर मनोयोग से एक पुस्तक का संपादन भी किया। इस सिलसिले को विस्तार दें तो हमें दक्षिण भारत के उन हजारों व्यक्तियों का ध्यान आता है जिन्होंने महात्मा गांधी और राजाजी की प्रेरणा से हिन्दी सीखी और फिर अहिन्दी भाषी दक्षिण भारतीयों को हिन्दी सिखाने के मिशन में जुट गए। आज भी दक्षिण के पांचों राज्यों में स्वैच्छिक कार्यकर्ता बड़ी संख्या में इस कार्य में जुटे हुए हैं।  इनके साथ-साथ हमें मुंबई के फिल्म उद्योग का भी ध्यान आता है जिसने हिन्दी को देशव्यापी स्तर पर लोकप्रिय बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
यह क्रम यहां समाप्त नहीं होता। फिलहाल मेरा मकसद यह रेखांकित करना है कि जिस हिन्दी को हम राष्ट्रभाषा कहकर इठलाते हैं  उसके उन्नयन का काम कितने जाने-अनजाने लोगों ने बिना किसी प्रत्याशा के किया है। ऐसे तमाम उदाहरण हिन्दी के भविष्य के प्रति आश्वस्त करते हैं। किन्तु दूसरी तरफ निराशा होती है जब हमारा ध्यान हिन्दी जगत में व्याप्त विसंगतियों और विडंबनाओं की ओर जाता है।  हिन्दी भाषी प्रदेशों में प्राथमिक शिक्षा के स्तर पर हिन्दी की जो स्थिति देखते हैं, निराशा से मन वहीं घिर जाता है। प्राथमिक शिक्षा पर 'असर' नामक जो वार्षिक रिपोर्ट आती है उसमें सरकारी स्कूलों की बात होती है, गणित की कमजोरी का उल्लेख होता है; लेकिन जिस भाषा में सारा जीवन व्यवहार होना है, उसकी तरफ कोई तवज्जो नहीं दी जाती। एक ओर जहां पहली कक्षा से अंग्रेजी पढ़ाने की योजनाएं चल रही हैं वहीं मातृभाषा या राष्ट्रभाषा के प्रति बेरुखी पर क्यों नहीं चिंता होना चाहिए? 
उच्च शिक्षा में तो हाल बेहाल हैं। अधिकतर विद्यार्थी हिन्दी में एम.ए. इसलिए करते हैं कि उन्हें यह विषय स्नातकोत्तर उपाधि पाने का सबसे सरल उपाय लगता है। विषय में उनकी रुचि अक्सर नहीं होती और उपाधिधारी अनेक व्यक्ति हिन्दी में खुद को भलीभांति अभिव्यक्त नहीं कर पाते। एम.ए. ही क्यों, हिन्दी साहित्य में पीएचडी करने वालों की भी रुचि न तो भाषा में होती, न तो साहित्य में। उनके लिए वह नौकरी पा जाने का एक जरिया मात्र है। जब शिक्षा प्राप्ति के दौरान यह स्थिति है तो आगे चलकर क्या होगा इसका अनुमान लगाना कठिन नहीं है। किन्तु हम विद्यार्थियों को ही क्यों दोष दें? हिन्दी का पूरा तंत्र जिनके जिम्मे है वे लोग क्या कर रहे हैं? इसमें हिन्दी अखबार, टीवी चैनल, सरकारी उपक्रमों के राजभाषा विभाग, हिन्दी सेवा के नाम पर चल रही संस्थाएं, विश्व हिन्दी सम्मेलन इत्यादि सब शामिल हैं।
मैं एक समय रेलवे बोर्ड की राजभाषा समिति का सदस्य था। तब देखा कि देश के अनेकानेक रेलवे स्टेशनों पर जो हिन्दी ग्रंथालय हैं उनमें एक सिरे से अपठनीय पुस्तकें भरी पड़ी हैं जिन्हें गैर-हिन्दी तो क्या, हिन्दीभाषी रेलकर्मी भी छूना पसंद नहीं करते। जाहिर है कि यह लेखक, प्रकाशक और राजभाषा विभाग का मिला-जुला करतब था। अन्य सार्वजनिक उपक्रमों में भी स्थिति बेहतर नहीं है।  जो राजभाषा अधिकारी होते हैं उनमें से अधिकतर औपचारिकता का निर्वाह करने में विश्वास करते हैं। भूले-भटके कोई कल्पनाशील और परिश्रमी हिन्दी अधिकारी आ जाए तो वह एक अपवाद ही होता है। इस विषय में चिंता यह देखकर और बढ़ जाती है कि सार्वजनिक उपक्रमों का धीरे-धीरे निजीकरण हो रहा है। निजी कंपनियों को अपने कारोबार से मतलब। वे राष्ट्रभाषा जैसे व्यर्थ के कामों में अपना दिमाग खपाना पसंद नहीं करते।
मेरा ध्यान अभी-अभी मॉरीशस में सम्पन्न हुए विश्व हिन्दी सम्मेलन पर जाता है। पहला विश्व हिन्दी सम्मेलन 1975 में नागपुर में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की व्यक्तिगत रुचि से आयोजित हुआ था। उसी समय महात्मा गांधी के नाम पर वर्धा में अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय स्थापित करने का फैसला लिया गया था। दूसरा सम्मेलन 1976 में मॉरीशस में ही हुआ था जिसमें मैंने भाग लिया था। तभी  यह आशंका हो गई थी कि विश्व हिन्दी सम्मेलन के नाम पर ऊंची पहुंच वाले कुछ लेखकों, पत्रकारों और हिन्दी सेवियों ने एक प्रपंच रच लिया है जिसका इस्तेमाल वे निज लाभ के लिए करेंगे। वही हुआ भी। मॉरीशस के ताजा सम्मेलन में जो कुछ हुआ उससे तो मॉरीशस के ही हिन्दी लेखक व हिन्दी प्रेमी विक्षुब्ध और हताश हैं। वैसे भी नाम के लिए यह हिन्दी सम्मेलन था, इसकी पूरी परिकल्पना हिन्दुत्व सम्मेलन की थी।
दरअसल, तमाम भारतीय भाषाओं में सबसे प्रमुख हिन्दी एक दुरभिसंधि का शिकार हो गई है। हिन्दी के समूचा तंत्र पर मनुवादी सोच का कब्जा ऊपर से नीचे तक दिखाई देता है। जातीय, प्रांतीय और धार्मिक आस्थाओं ने हिन्दी को पुष्ट करने के बजाय दुर्बल करने में कोई कमी नहीं छोड़ी है। मीडिया भी कम अपराधी नहीं है। हिन्दी अखबारों से हिन्दी को लगातार खारिज किया जा रहा है। चैनलों की स्थिति भी बेहतर नहीं है और सबसे बढ़कर दोष तो हमारे उस प्रबुद्ध समाज का है जिसकी मानसिकता हिन्दी में विमर्श करने के लिए, संवाद करने के लिए, है ही नहीं। वे अंग्रेजी में भाषण देते हैं, लेख लिखते हैं, उनकी पुस्तकें उसी में छपती हैं; और वे सोचते हैं कि हिन्दी का प्रयोग करने से  उनका उच्चासन छीन जाएगा। कुल मिलाकर हिन्दी अब धार्मिक कर्मकांड की भाषा बनती जा रही है। हिन्दी दिवस पर इस बारे में हम सबको सोचने की आवश्यकता है। 
देशबंधु में 13 सितम्बर  2018 को प्रकाशित 

Wednesday 5 September 2018

मानसरोवर यात्रा पर राहुल 



कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी इन दिनों मानसरोवर यात्रा पर हैं। ध्यान आता है कि आज से तकरीबन सौ साल पहले पंडित जवाहरलाल नेहरू  ने अमरनाथ की यात्रा की थी। उन दिनों दुर्गम पहाड़ी रास्तों पर यात्रा करना कष्टसाध्य था। रास्ते में सुविधाएं भी न्यून थीं फिर भी नेहरूजी ने यह यात्रा की। इसका सुंदर वर्णन उन्होंने अपनी आत्मकथा 'मेरी कहानी' में किया है। बात निकल पड़ी है तो ध्यान आता है कि जब पंडित नेहरू नैनी जेल में कैद थे तब उन्होंने माघ स्नान के लिए जाते श्रद्धालुओं को लेकर गंगा के बारे में इंदिरा जी को एक रोचक पत्र लिखा था।

इसी तरह वे जब अहमदनगर जेल में बंद थे तब बुद्ध पूर्णिमा का चन्द्रमा देखकर उन्होंने भगवान बुद्ध के बारे में एक संक्षिप्त लेकिन सटीक टिप्पणी लिखी थी। यह भी हमें पता है कि गीता उनके सिरहाने हमेशा रखी रहती थी और वे नियमित योगाभ्यास भी करते थे। शीर्षासन की मुद्रा में उनका फोटो बहुत ही दिलचस्प है। इलाहाबाद के पैतृक घर आनंद भवन के संग्रहालय में यह देखना दिलचस्प है कि नेहरू जी ने इंदिरा गांधी के जन्म पर उनकी कुंडली भी बनवाई थी। इन तथ्यों के आईने में अनुमान लगाना कठिन नहीं है कि भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू एक आस्थावान व्यक्ति थे। वे जड़ अर्थ में नास्तिक नहीं थे लेकिन उनकी रुचि तत्वज्ञान में अधिक थी, कर्मकांड में उनका विश्वास लगभग नहीं था और वे धर्म को निजी आस्था का विषय मानते थे।

सवाल उठता है कि क्या राहुल गांधी उनका अनुसरण कर रहे हैं? जाहिरा तौर पर ऐसा नहीं लगता। लेकिन थोड़ी गहराई में जाएं तो कयास लगता है कि राहुल ने नेहरू परिवार की परंपरा को त्यागा नहीं है बल्कि कुछ अधिक उत्साह से उसे आगे बढ़ाने में लगे हुए हैं। इसके पीछे क्या कारण हैं यह जानने की कोशिश हम करेंगे। मेरी समझ में तीन बिन्दु आते हैं- एक- पंडित नेहरू की तरह राहुल भी आस्थावान हैं। दो- उन्हें इंदिरा गांधी की तरह अपनी आस्तिकता का प्रदर्शन करने से संकोच नहीं है। तीन- वे जो ऐसा कर रहे हैं, आज के राजनीतिक माहौल में शायद उसकी आवश्यकता है।

एक समय था जब प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने बनारस में पंडितों के पैर धोए थे और नेहरू जी ने उस पर आपत्ति दर्ज की थी। राजेन्द्र बाबू से इस पर उनका संवाद हुआ।  नेहरू जी का स्पष्ट मत था कि राष्ट्रपति जैसे संवैधानिक पद पर बैठे व्यक्ति का जीवन व्यापार निजी नहीं होता इसलिए उन्हें अपनी आस्था का सार्वजनिक प्रदर्शन करने से बचना चाहिए। उनकी यही सोच थी जिस वजह से देश में एक बहुत बड़े वर्ग ने सोमनाथ मंदिर के पुनर्निर्माण में सत्ताधारी नेताओं जैसे के.एम. मुंशी की सक्रिय भूमिका को नापसंद किया था। आगे चलकर जब प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने देवरहा बाबा के मचान के नीचे खड़े होकर बाबा के चरणों तले अपना मस्तक रखा था तो वह दृश्य भी प्रबुद्ध समाज को नागवार गुजरा था। इसमें भविष्य में आने वाले खतरे की परछाई भी नजर आ रही थी।

मेरा मानना है कि कोई भी व्यक्ति आस्थाहीन नहीं होता। आवश्यक नहीं कि आपका विश्वास किसी अदृश्य शक्ति में हो। आस्था का केन्द्र जीवित या मृत, हाड़-मांस का कोई व्यक्ति भी हो सकता है, या फिर कोई अन्य वस्तु। आखिरकार संगठित धर्म का उदय होने के पहले प्राचीन युग का मनुष्य सूर्य, आकाश, चन्द्रमा, अग्नि- इन सबकी ही आराधना करता था। आज के दौर में हम जितना महत्व धर्मग्रंथों को देते हैं, कम से कम कहने के लिए, उतना ही महत्व देश के संविधान को देते हैं। नरेन्द्र मोदी ने प्रधानमंत्री बनने के बाद संसद की ड्योढ़ी पर माथा टेका था तो क्या वे यही संदेश नहीं दे रहे थे कि संसद ही जनतंत्र का सर्वमान्य मंदिर है! इसके बाद उन्होंने क्या किया, उसकी चर्चा करने पर हम विषय से भटक जाएंगे। दरअसल वर्तमान समय जनतांत्रिक आकांक्षाओं का समय है और उसकी सार्थकता इसी में निहित है कि बेड़ियों में जकड़ने वाले धार्मिक कर्मकांड के बजाय प्रगति की दिशा में ले जाने वाली वैज्ञानिक सोच को हम अंगीकार करें।

जनतंत्र बहुमत से चलता है, लेकिन बहुमतवाद से नहीं। किसी संगठित धर्म के प्रति निष्ठा निजी आचरण का विषय हो सकता है, तथापि जनतांत्रिक राजनीति में वह इस मायने में अनर्थ है कि तब अल्पमत की निष्ठा और विश्वास का तिरस्कार होने लगता है। इसीलिए अमेरिका जैसे अग्रणी देश में भी जहां शपथ ईश्वर के नाम पर ली जाती है किन्तु राजकारण में धर्मनिरपेक्षता का पालन किया जाता है। इसका उल्लंघन होता है तो ऐसा करने वाले को दंडित भी होना पड़ता है। यही वातावरण इंग्लैंड और यूरोप के अनेक देशों में है। फ्रांस, जर्मनी, स्वीडन, नार्वे, डेनमार्क, इटली ऐसे तमाम देशों में अल्पसंख्यक समुदाय को सिर्फ शरण ही नहीं, बल्कि नागरिकता और नागरिक अधिकार भी दिए गए हैं। वहां यदा- कदा संकीर्ण मतवाद को लेकर संघर्ष होते हैं, किन्तु उस कारण से राज्य की जनतांत्रिक नीतियों में कोई परिवर्तन नहीं होता।

पंडित नेहरू और उनके लगभग सभी साथी- सहयोगी भी स्वतंत्र भारत में इन जनतांत्रिक विश्वासों को पुष्ट करना चाहते थे। पाठकों को शायद ध्यान हो कि हर साल 3 जनवरी को इंडियन साइंस कांग्रेस का प्रारंभ होता है जिसमें प्रधानमंत्री उद्घाटनकर्ता होते हैं। यह परंपरा पंडित नेहरू ने ही प्रारंभ की थी। 1954 में जब पहली बार भारत रत्न का सर्वोच्च सम्मान देना प्रारंभ हुआ तो प्रथम तीन व्यक्तियों- चक्रवर्ती राजगोपालाचारी और डॉ. राधाकृष्णन के साथ महान वैज्ञानिक सी.वी. रमन को यह सम्मान मिला। इससे वैज्ञानिक सोच के प्रति तत्कालीन सरकार की प्रतिबद्धता जाहिर होती है। ध्यान देना चाहिए कि धार्मिक विश्वास को लेकर नेहरू जी से सरदार पटेल व राजेन्द्र बाबू के बीच मतभेद भले रहे हों, लेकिन शासन स्तर पर उन्होंने कोई ऐसा निर्णय नहीं लिया जिससे अन्य धर्मों के मतावलंबियों को कोई आघात पहुंचता हो।

उस युग की चर्चा चलने पर मुझे बांग्ला के प्रसिद्ध उपन्यासकार प्रबोध कुमार सान्याल का फिर स्मरण हो आता है। उन्होंने 'हुस्नबानो' उपन्यास लिखा था जिसमें पूर्व और पश्चिम, हिन्दू और मुस्लिम के द्वैत से हटकर बंगाल की सांस्कृतिक एकता पर बल दिया गया था। यह उपन्यास धर्मनिरपेक्षता की पुरजोर वकालत करता है। मजे की बात है कि इन्हीं प्रबोध कुमार सान्याल ने दो बार हिमालय की सुदीर्घ यात्राएं कीं। उनके यात्रा विवरण 'देवतात्मा हिमालय' और 'महाप्रस्थान के पथ पर' इन दो ग्रंथों में संकलित हैं। एक व्यक्ति अपने निजी धार्मिक विश्वासों के बावजूद कैसे धर्म की संकीर्णता से उबर सकता है श्री सान्याल उसका प्रबल प्रमाण हैं। उस दौर में वे ऐसे अकेले व्यक्ति नहीं थे। सच कहें तो सारे देश का माहौल कुछ इसी तरह का था कि धरम-करम घर तक सीमित रखो, और सार्वजनिक जीवन में संकीर्ण मतवाद से दूर रहो। हमने तो रायपुर में देखा है कि गणेश उत्सव और नवरात्रि के समय पंडालों में सार्वजनिक महत्व के विषयों पर भाषण व वाद विवाद आदि कार्यक्रम होते थे और उनमें विश्वविद्यालय के प्रोफेसर, कॉलेज के प्राचार्य, पत्रकार, कलाकार इत्यादि बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेते थे। उनमें तब आज जैसा धार्मिक आस्था का भौंडा प्रदर्शन नहीं होता था।

आज है कि समूचा बाजार, जिसमें मीडिया भी शामिल है, सारे माहौल को बहुसंख्यक धार्मिकता के मद में डूबा देने के लिए हरसंभव युक्तियां कर रहा है। इसी के बीच से  राहुल गांधी को अपना रास्ता निकालना है। उन्हें शायद लगता है कि अपनी साख कायम करने और अपनी स्वीकार्यता बढ़ाने के लिए उन्हें अपनी आस्था का खुलकर प्रदर्शन करना चाहिए। यह एक फौरी रणनीति हो सकती है, लेकिन राहुल गांधी की असली परीक्षा तो इसी में है कि वे भारतीय जनमानस को संकीर्णता और जड़वाद से मुक्त कर कैसे वैज्ञानिक चेतना से लैस होने के लिए प्रेरित कर पाते हैं।

#देशबंधु में 06 सितंबर 2018 को प्रकाशित