Wednesday 31 July 2019

देशबन्धु के साठ साल-5


बापा! आज फिर जरूरत पड़ गई है। इंग्लैंड से मोनोटाइप मशीन ला रहे हैं। मार्जिन मनी का इंतजाम नहीं है।
- ये क्या मशीन है? क्यों खरीद रहे हो? किस काम आएगी? कितनी कीमत है?
- इस मशीन से कंपोजिंग होगी। एक शिफ्ट में आठ आदमियों के बराबर काम करेगी।
- मतलब तुम सात लोगों को नौकरी से निकाल दोगे?
- नहीं बापा। मशीन पर दो आदमी काम करेंगे। और हम पेज संख्या बढ़ा रहे हैं। निकालेंगे किसी को नहीं, बल्कि अपने लोगों को उस पर ट्रेनिंग देंगे। उनका वेतन बढ़ जाएगा और पेपर भी ज्यादा अच्छा निकलेगा।
- ठीक है। रकम ले जाओ। लेकिन किसी को हटाना मत।
बापा और बाबूजी के बीच यह संवाद मई-जून 1969 में किसी दिन हुआ। मैं श्रोता की हैसियत से उपस्थित था। बापा याने रूड़ाभाई वालजी सावरिया, जिन्हें रायपुर में रूड़ावाल सेठ के नाम से जाना जाता था। वे साहूकार थे और नहरपारा में उनके स्वामित्व की महाकौशल फ्लोर मिल की अरसे से बंद पड़ी इमारत को हमने एक साल पहले ही फ्लैटबैड रोटरी मशीन आने के साथ किराए पर लिया था। यह कोई पचास साल पुरानी, मोटी दीवालों, इमारती लकड़ी के फर्श और टीन की छत वाली तीन मंजिला, तीन हॉल की इमारत थी। इसे किराए पर लेने में कांग्रेस नेता मन्नालाल शुक्ल ने हमारी सहायता की थी। वे नगरपालिका के पूर्व उपाध्यक्ष एवं उस समय विधानसभा सदस्य थे।
मेरे दादाजी की उम्र के बापा एक दिलचस्प व्यक्ति थे। उन्होंने व उनके सुपुत्र कांतिभाई ने गाढ़े वक्तों में कई बार हमें सहायता दी और कभी खाली हाथ नहीं लौटाया। जब ग्यारह वर्ष बाद हम स्वयं के भवन में आए, तब न जाने कितने माहों का किराया बाकी था जो हमने धीरे-धीरे कर चुकाया। बापा थे तो साहूकार, लेकिन उनके संस्कार गांधीवादी थे। नहरपारा की उसी गली में वे स्वयं जहां रहते थे, वह पुरानी शैली का साधारण दिखने वाला मकान था, जिसमें साज-सजावट की आवश्यकता उन्हें कभी महसूस नहीं हुई। एक दिन प्रेस परिसर में एक फियेट कार आकर खड़ी हो गई। तीनेक माह खड़ी रही। हमारे पास तब कार नहीं थी। बाबूजी ने बापा से निवेदन किया कि यह कार हमें मिल जाए। किश्तों में पैसा चुका देंगे। बापा का उत्तर अनपेक्षित था। जिसकी कार है, वह तकलीफ़ में है। ईमानदार आदमी है। जिस दिन हालत सुधरेगी, कर्ज की रकम चुकाकर गाड़ी ले जाएगा। गाड़ी बेचकर उसकी इज्ज़त नहीं उतारूंगा। तकरीबन छह माह बाद वैसा ही हुआ। यह बीते समय की व्यवसायिक नैतिकता का एक उदाहरण है। बापा जैसे लोग शायद तब भी अपवाद ही थे। मोनो मशीन की चर्चा करते-करते यह अवांतर प्रसंग ध्यान आ गया।
इसी सिलसिले में एक और रोचक वाकया घटित हुआ। दुर्ग के ब्यूरो प्रमुख धीरज भैया दफ्तर आए। उनके साथ एक सज्जन और थे। परिचय कराया- ''ये राजनांदगांव के कन्हैयालाल शर्मा हैं। दुर्ग में बैंक ऑफ महाराष्ट्र में अकाउंटेंट हैं। अपने पेपर के मुरीद हैं। मोनो मशीन आयात करने में इनका बैंक अपनी मदद करेगा। शर्माजी ने शाखा स्तर पर सारी औपचारिकताएं रुचि लेकर पूरी करवाई। नागपुर जोनल ऑफिस तक जाकर प्रस्ताव पुणे मुख्यालय अंतिम स्वीकृति हेतु भिजवा दिया। हमारी तवालत बची। इसी बीच बैंकों का राष्ट्रीयकरण हो गया। बैंकों का सारा कारोबार कुछ समय के लिए एक तरह से स्थगित हो गया। हमारा आवेदन भी ठंडे बस्ते में चला गया। एक बार फिर हमें अप्रत्याशित रूप से मदद मिली। संघ के मराठी मुखपत्र ''तरुण भारत के प्रबंध संचालक भैया साहेब खांडवेकर से बाबूजी का पुराना परिचय था। बाबूजी ने मुझे पत्र देकर उनके पास नागपुर भेजा। भैया साहब ने बैंक के चेयरमैन से बात की और उनसे मिलने मुझे पुणे भेज दिया। मैं चेयरमैन से मिला। उन्होंने पांच-सात मिनट में मुझसे प्रकरण समझा और अधिकारों का प्रयोग करते हुए ऋण प्रस्ताव को तुरंत स्वीकृति दे दी। यथासमय दो मशीनें लंदन से रायपुर आ गईं।
मशीनें आ गईं। उनको चलाने वाले दक्ष सहयोगी भी तैनात हो गए। पुराने लोगों को प्रशिक्षण भी मिल गया। लेकिन मशीन तो मशीन है। नई हो तब भी कभी तो बिगड़ेगी ही और रिपेयरिंग की आवश्यकता भी होगी। मोनोटाइप कंपनी के कलकत्ता (अब कोलकाता) ऑफिस से मैकेनिक बुलाना महंगा पड़ता था, आने-जाने में समय भी लगता था। वक्त पर मैकेनिक न आए तब क्या किया जाए? ऐसे में धीरज भैया ने ही एक और सज्जन को ढूंढ निकाला। भिलाई इस्पात संयंत्र के प्रेस में श्री अवस्थी नामक सज्जन मोनो मैकेनिक का काम कर लेते थे। हमें जब भी जरूरत पड़े, धीरज भैया रात-बिरात स्कूटर पर बैठाकर उन्हें भिलाई से रायपुर ले आते थे। अवस्थीजी देशबन्धु परिवार के अतिथि सदस्य बन गए। एक समय वह भी आया जब उन्होंने भिलाई में देशबन्धु की एजेंसी ले ली और इस्पात नगरी में अखबार का प्रसार बढ़ाने में भूमिका निभाई। मैं यहां मोनोटाइप मशीन से जुड़े दो अन्य व्यक्तियों का भी उल्लेख करना चाहता हूं।
मोनोटाइप मशीन में अक्षर ढालने के लिए एक मैट्रिक्स (Matrix) या सांचा होता है। पीतल से बने इस सांचे में सारे अक्षर व चिह्न उत्कीर्ण होते हैं, जो सीसे में ढलकर आकार ग्रहण करते हैं। यह सांचा चार-छह माह से अधिक नहीं चलता। अर्थात छठे-छमासे इंग्लैंड से नया सांचा मंगाना पड़ता था, जिसकी कीमत उस समय चालीस हजार रुपए के करीब थी। मेरे कॉलेज जीवन के साथी और पारिवारिक मित्र महेंद्र कोठारी यहां सामने आए। कैमिकल इंजीनियर महेंद्र ने अपने कारखाने में यह सांचा बनाने का प्रयोग किया और काफी हद तक सफल हुए। उनके बनाए सांचे की कीमत पड़ी लगभग ढाई हजार रुपए। यह सांचा तीन माह तक ठीक से चलता था। महेंद्र ने फिर देश में कई हिंदी अखबारों को अपनी बनाई मैट्रिक्स बेची। वैसे इसमें उन्हें कोई खास मुनाफा नहीं हुआ। लेकिन ध्यान आता है कि ''मेक इन इंडिया का प्रयोग आज से पचास साल पहले एक युवा इंजीनियर ने सफलता से कर दिखाया था।
मैंने पहले की एक किश्त में बताया था कि फ्लैटबैड रोटरी मशीन में न्यूज प्रिंट याने अखबारी कागज के पत्ते की बजाय रील या रोल का इस्तेमाल होता था। रायपुर रेलवे स्टेशन पर मुंबई-कोलकाता से वैगन में रोल आते थे। उन्हें वैगन से उतारना, मालधक्के से प्रेस तक लाना मेहनत और सूझबूझ का काम था। बैलगाड़ी में तीन रोल चढ़ाए और उतारे जाते थे। नहरपारा से लगे लोधीपारा के ही भरत नामक युवा मालधक्के पर हमाली करते थे। उनकी एक टीम थी जो हमारे लिए कागज के रोल मालधक्के से प्रेस गोदाम तक लाने में जुटती थी। इसी टीम ने हमारी छपाई मशीनों को भी जब मौका आया ट्रकों से उतार कर मशीन रूम में ले जाने तक का काम बेहद सावधानी व कुशलता के साथ किया। मोनो मशीनों को भी स्थापित करने का काम भरत के ही जिम्मे था। मेरे हमउम्र भरत स्वयं बहुत मेहनती थे। वे टीम को निर्देश देने में भी सक्षम और अपने काम के प्रति बेहद जिम्मेदार थे।
अब तक की कड़ियों को पढ़कर पाठकों ने अनुमान कर लिया होगा कि अखबार को चलाने में कितने सारे जनों की, विविध स्तरों पर प्रत्यक्ष और-परोक्ष भूमिका निभाना होती है।
#देशबंधु में 01 अगस्त 2019 को प्रकाशित
  
 

Thursday 25 July 2019

".तो आ जाओ"



कुछ दिन पहले सड़क किनारे एक विशालकाय होर्डिंग पर बड़े-बड़े अक्षरों में लिखी इबारत देखने मिली। ''अगर कॉमर्स पढ़ना चाहते हो तो आ जाओ। यह होर्डिंग, जाहिर है कि एक कोचिंग संस्थान का था। इस संदेश को पढ़कर पहला ख्याल यही आया कि देश में सारे स्कूल-कॉलेज बंद कर देना चाहिए। कोचिंग संस्थाओं के मालिक ही देश की नई पीढ़ी का प्रगति पथ प्रशस्त करने के लिए पर्याप्त हैं। तकरीबन पच्चीस साल पूर्व कोचिंग संस्थाओं पर प्रतिबंध लगाने पर, उन पर नियंत्रण रखने के बारे में संसद और समाज में बहस होती थी जो अब नहीं होती। हम अपने बच्चों को इस या उस ''सर के हवाले कर निश्चिंत हो गए हैं। लेकिन मेरा मकसद इस समय शिक्षा प्रणाली पर चर्चा करने का नहीं, बल्कि इस लुभावने आमंत्रण को पढ़कर मन में जो विचार उठे, उन्हें आपसे साझा करना है।

''... तो आ जाओ  के आह्वान पर मैं कोचिंग संस्था और शिक्षा जगत से भटक कर न जाने कहां कहां पहुंच गया! एक पल के लिए लगा मानों मैं  किसी भीड़ भरे बाजार में आ गया हूं जहां चारों तरफ दूकानें सजी हैं और दूकानदार हांका लगा रहे हैं- हमारी दूकान पर आ जाओ। सबसे सुंदर, सबसे टिकाऊ, सबसे सस्ता माल यहीं मिलेगा। ऐसा नजारा मैंने जबलपुर के गुरंदी बाजार से लेकर लंदन के पेटीकोट मार्केट और शंघाई के बाजार तक देखा है। दूसरे पल महसूस हुआ कि मैं किसी बस अड्डे पर खड़ा हूं। बस का इंजिन चालू कर ड्राइवर अपनी सीट पर बैठा है और नीचे खड़ा कंडक्टर हांका लगा रहा है- लखौली, आरंग, तुमगांव, पिथौरा की सवारी आ जाओ। दूसरी बस का कंडक्टर किसी और रूट का, और तीसरी बस वाला तीसरे किसी रूट के गांवों के नाम गिना रहा है।

मैं इसी तरह भटकते-भटकते कहीं और पहुंच जाता हूं। यहां भी ऊंची आवाज में हांके लग रहे हैं-

दस-बीस-चालीस करोड़ चाहिए तो आ जाओ।
मंत्री बनना है तो आ जाओ।
छापे पड़ने से बचना है तो आ जाओ।
जेल जाने से बचना है तो आ जाओ।
मारे जाने से बचना है तो आ जाओ।

मैं एक तरफ ये आवाज सुन रहा हूं और दूसरी तरफ देखता हूं कि कितने सारे लोग दौड़ते -भागते हांका लगाने वाले की ओर उमड़ पड़ रहे हैं। एक दूकान पर ऐसी भीड़! जबकि बाकी जगह दूकानदार मुंह लटकाए बैठ गए हैं। अगर यह बस अड्डे का दृश्य है तो मानो सारे यात्री पुन्नी मेला जा रहे हैं। उन्हें कहीं और जाना ही नहीं है।
अगर यह कोचिंग संस्थान का दृश्य है तो उस जगह का है जहां जीवन जीने की कला सिखाई जाती है, जहां योगबल से जितेंद्रिय बना जाता है, जहां व्यक्ति के बदलने से समाज बदलने का मंत्र मिलता है, जहां किसी जादू से भक्त की मुरादें पूरी हो जाती हैं। यह सचमुच इक्कीसवीं सदी के भारत की अद्भुत कहानी है।

तुम्हें अगर राजनीति में सफल होना है ''तो आ जाओ" का मंत्र सुगठित रूप में शायद पहली बार 1967 में फूंका गया था। लोकसभा चुनावों में कांग्रेस को अत्यन्त क्षीण बहुमत से जीत मिली थी और उसका प्रभाव विधानसभा चुनावों में भी देखने मिला था, जो साथ-साथ संपन्न हुए थे। गैर-कांग्रेसवाद का नारा तब बुलंद हुआ था और कितने ही प्रदेशों में बड़ी संख्या में कांग्रेस विधायकों ने अपना दल त्याग संयुक्त विधायक दल की याने संविद सरकार बनाने में निर्णायक भूमिका अदा की थी। मध्यप्रदेश में इनका नेतृत्व श्रीमती विजयाराजे सिंधिया ने किया था और छत्तीस दलबदलू विधायकों के सहारे गोविंद नारायण सिंह की सरकार बनी थी। तब मुख्यमंत्री द्वारिकाप्रसाद मिश्र ने श्रीमती इंदिरा गांधी से कहा था कि उन्हें राज्यपाल से मिलकर विधानसभा भंग कर नए चुनाव की सिफारिश करने की अनुमति दी जाए। इंदिराजी ने उनकी राय नहीं मानी। वरिष्ठ केंद्रीय मंत्री यशवंत राव चव्हाण का मानना था कि दलदबल के इसी अस्त्र से वे उत्तरप्रदेश में चरणसिंह सरकार को अपदस्थ कर देंगे। अगर मिश्रजी की सलाह मान ली गई होती तो दलबदल की दूकान पर वहीं ताला लग गया होता। आज किसे दोष दें- श्रीमती सिंधिया को, श्रीमती गांधी को, श्री चव्हाण को या उन तमाम समाजवादी-साम्यवादी नेताओं को जो दलबदल में जनसंघ के पिछलग्गू बन गए?

1985 में राजीव गांधी ने प्रधानमंत्री बनने के बाद दलबदल की प्रवृत्ति पर रोक लगाने की ईमानदार लेकिन निष्फल कोशिश की। वे दलबदल विरोधी कानून लेकर आए। उस समय मधु लिमये एकमात्र नेता थे, जिन्होंने कहा था कि इस कानून से कोई लाभ नहीं होगा। वही हुआ। पहले एक तिहाई विधायकों के एकमुश्त दल बदलने की वैधानिक न्यूनतम सीमा तय की गई। वह बढ़कर पचास प्रतिशत और फिर दो-तिहाई कर दी गई, किंतु कानून तोड़ने में माहिर, और ऐसा करने में गर्व महसूस करने वाले भारतीय समाज के रहनुमाओं ने असंभव को भी संभव कर दिखाया। निस्संदेह, भारतीय संस्कृति के रखवालों ने ही ताला तोड़ने के गुर सिखाए।
1985 में आपके इस अखबार की भी राय थी कि लंबा-चौड़ा कानून बनाने के बजाय एक सीधा-सरल प्रावधान हो कि दलबदलू विधायक की सदस्यता तुरंत रद्द हो जाएगी और उसे अगले चुनाव तक कोई पद नहीं मिलेगा। लेकिन अब लगता है कि  इसकी भी कोई काट शायद निकाल ली जाती! आज पश्चिम बंगाल, आंध्र, कर्नाटक, गोवा, मणिपुर, मेघालय, लोकसभा, राज्यसभा, विधानसभा, कुल मिलाकर चारों तरफ जो स्थिति बनी है, उसे देखकर तो यही प्रतीत होता है कि ''तो आ जाओ" का प्रलोभन बाकी तमाम बातों पर भारी पड़ गया है।

मुझे इस बात की चिंता कम है कि प्रदेश सरकारों का क्या होगा। बड़ी चिंता यह है कि इस दलबदल का मकसद कहीं गहरा है। ''तो आ जाओ" के होर्डिंग लगाकर जो बैठे हैं, वे दरअसल भारत में संसदीय जनतंत्र को समाप्त करना चाहते हैं। जब निर्वाचित प्रतिनिधियों की इन कारगुजारियों के चलते मतदाता उनमें विश्वास खो बैठेंगे, तब क्या होगा? यही न कि ये सब भ्रष्ट हैं, लालची हैं, भरोसेमंद नहीं हैं; कि इससे बेहतर तो तानाशाही है।
जिन समाज ने दो सौ साल तक अंग्रेजों की गुलामी झेली है; उस पर यदि कोई देसी तानाशाह राज करने लगे तो उसे जनता शायद खुशी-खुशी स्वीकार कर लेगी। आश्चर्य मत कीजिए यदि आगामी लोकसभा चुनावों के पूर्व इस देश में एक नया संविधान लागू हो जाए। आखिरकार, कितने ही संविधानवेत्ता और संसदविद् न जाने कब से राष्ट्रपति शासन प्रणाली की पैरवी करते आए हैं। अगर हम इसी योग्य हैं तो यही सही।

देशबंधु में 25 जुलाई 2019 को प्रकाशित

Wednesday 17 July 2019

देशबन्धु के साठ साल-4


'प्रिंटर्स डेविल' याने छापाखाने का शैतान अखबार जगत में और पुस्तकों की दुनिया में भी एक प्रचलित मुहावरा रहा है। छपी हुई सामग्री में कोई शब्द या अक्षर इधर का उधर हो जाए, फलत: अर्थ का अनर्थ होने की नौबत आ जाए तो उसे किसी अदृश्य शक्ति याने शैतान की कारगुजारी बता कर बच जाओ। वास्तविकता में यह अक्सर कंपोजिंग की गलती होती है। बाज दफे समाचार-लेखक भी हड़बड़ी में कुछ गलत लिख जाता है और कंपोजाटर सतर्क न हो तो वैसा ही गलत छप भी जाता है। एक बेहतरीन कंपोजिटर को परिश्रमी और सजग होने के साथ-साथ भाषा का भी पर्याप्त ज्ञान होना आवश्यक होता है। मैंने अब तक ऐसी दो ही पत्रिकाएं देखीं, जिनमें कभी न तो तथ्यों की गलती देखने मिली और न वर्तनी या व्याकरण की। एक- अमेरिका से प्रकाशित ''नेशनल ज्योग्राफिक'' और दूसरी इंग्लैंड की ''द इकानॉमिस्ट''। बाकी तो हम गलतियां करते चलते हैं और समझदारी हो तो इसके लिए पाठकों से माफी भी मांग लेते हैं। आप समझ रहे होंगे कि एक अच्छा अखबार निकालने की शर्त है कि उसमें गलतियां न हों और यह बड़ी हद तक कंपोजिंग विभाग में कुशल सहयोगी होने पर निर्भर करता है।
मैं देशबन्धु के कंपोजिंग विभाग के साथियों को याद करता हूं तो सबसे पहले 'राय साहब' का ध्यान आता है। सिर्फ बाबूजी ही उन्हें जीतनारायण नाम से संबोधित करते थे। जौनपुर (उप्र) के राय साहब शायद 1956 में भोपाल में बाबूजी से जुड़ गए थे। वे ऊंची कद-काठी के स्वामी थे। मैं उन दिनों अपनी बुआ के पास पहले नागपुर, फिर ग्वालियर में पढ़ रहा था, इसलिए मैंने उन्हें रायपुर आने पर ही पहली बार देखा। वे कंपोजाग से पदोन्नत होकर फोरमैन बन चुके थे। आगे चलकर वे हैड फोरमैन भी बने। बढ़ती आयु में जब नेत्र ज्योति शिथिल होने लगी तो उनके प्रभावी व्यक्तित्व के अनुकूल दूसरे काम सौंप दिए गए। उन्हें गुजरे लंबा समय बीत गया है, लेकिन चाची और उनके बच्चों के साथ आज भी संपर्क बना हुआ है। फोरमैन के जिम्मे संपादकीय विभाग से समाचार आदि लेना, उसे कंपोजिटरों के बीच बांटना, कंपोज हो गई सामग्री के प्रूफ निकालना, सुधार करना, और इस लंबी प्रक्रिया में समय की पाबंदी व अनुशासन बनाए रखना आदि काम होते थे। उन शुरुआती दिनों में चार पेज के अखबार में भी कोई अठारह-बीस कंपोजिटर, उन पर दो या तीन फोरमैन और सबके ऊपर हैड फोरमैन होता था। राय साहब के साथ इलाहाबाद से आए रामप्रसाद यादव, जबलपुर के दुलीसिंह, जगन्नाथ प्रसाद पांडे आदि थे। ये सभी अपने फन के माहिर थे।
समय आगे बढ़ने के साथ इनका स्थान लेने के लिए एक नई पीढ़ी सामने आ गई। 1970 के दशक में एक समय ऐसी स्थिति बनी कि अखबार निकलने में प्राय: रोज ही देरी होने लगी। जो हैड फोरमैन थे, वे विभाग को सम्हाल नहीं पा रहे थे। तब मैंने एक प्रयोग किया। तीन युवा फोरमैन क्रमश: लीलूराम साहू, मोहम्मद सलाम हाशिमी और रणजीत यादव को एक-एक माह के लिए हैड फोरमैन का प्रभार इस वायदे के साथ सौंपा कि जिसका काम सबसे अधिक संतोषजनक होगा, उसे विभाग का मुखिया बना दिया जाएगा। उन तीनों साथियों में अपनी बेहतर काबिलियत का परिचय लीलूराम ने दिया। वे हैड फोरमैन नियुक्त किए गए और रिटायरमेंट तक इस पद पर बने रहे। मेरे हमउम्र लीलूराम का कद नाटा था, लेकिन वे अपने दायित्व को भलीभांति समझते थे, उनमें नेतृत्व क्षमता भरपूर थी, और वे नई चीजें सीखने में भी दिलचस्पी रखते थे। अपने इन गुणों और साथ में विनम्र स्वभाव के कारण वे प्रेस में हम सभी के प्रिय थे। नए दौर में कंपोजिंग विभाग में उन्नत तकनीकी का आगमन हुआ तो उसे समझने और उपयोग करने में भी लीलूराम ने देरी नहीं की।
हैड कंपोजिंग याने छापे के अक्षर हाथ से जोड़ने की विधि पुरानी पड़ चुकी थी। उन दिनों लाईनोटाइप और मोनोटाइप ऐसी दो यांत्रिक प्रणालियां प्रचलन में थीं। पहली में एक-एक लाइन मशीन से ढलकर निकलती थी। एक गलती हो जाए तो पूरी लाइन बदलो। दूसरी में एक-एक अक्षर की पृथक ढलाई होती थी। हमने मोनोटाइप मशीनें खरीदना तय किया। छत्तीसगढ़ में देशबन्धु पहला अखबार था, जहां ये मशीनें आईं। स्वाभाविक ही यहां उनका कोई जानकार नहीं था। हम इलाहाबाद से रामनिवास सिंह और जगदीश नारायण श्रीवास्तव को लेकर आए। सिंह साहब मशीन ऑपरेटर थे, याने की-बोर्ड पर कंपोजिंग करते थे।
जगदीश उससे जुड़ी मशीन पर सात सौ डिग्री तापमान पर खौलते सीसे से अक्षरों की ढलाई करते थे। रामनिवास सिंह बुजुर्ग थे। खादी के शुभ्र धवल वस्त्र पहनते थे। उनकी भाषा बेहद अच्छी थी। संपादकों की गलतियां सुधार देते थे। जगदीश भी अपने काम में कुशल, और मृदुभाषी व्यक्ति थे। एक लंबे अरसे बाद जब मोनो तकनीक भी पुरानी पड़ गई, मशीनें बेच दी गईं, तब भी जगदीश एक तरह से प्रेस परिसर के सुपरवाइजर बनकर जीवन पर्यन्त हमारे साथ बने रहे। उनके बेटे आज भी किसी न किसी रूप में प्रेस से जुड़े हुए हैं।
इधर मोनो मशीन खरीदने की प्रक्रिया प्रारंभ की, इलाहाबाद से कुशल कर्मियों को बुलाया; दूसरी ओर यह भी तय किया कि वर्तमान स्टाफ को भी इन मशीनों पर काम सिखाया जाए। कलकत्ता में मोनोटाइप कंपनी तकनीकी प्रशिक्षण देने के लिए एक स्कूल चलाती थी। लीलूराम, फेरहाराम साहू और हेमलाल धीवर को इस स्कूल में शायद तीन माह का प्रशिक्षण लेने भेजा गया। इन तीनों साथियों ने पूरे मनोयोग के साथ काम सीखा और अपने प्रशिक्षकों से सराहना हासिल की। मोनोटाइप स्कूल के प्राचार्य ने तीनों को श्रेष्ठ प्रशिक्षार्थी होने के प्रमाणपत्र दिए और एक अलग पत्र भेजकर हेमलाल की विशेष प्रशंसा की कि उनके जैसा कुशाग्र प्रशिक्षार्थी पहले कभी नहीं आया। लगभग एक साल बाद रायपुर नवभारत में मोनोटाइप मशीन आई तो उनके प्रबंधन के अनुरोध पर लीलूराम को वहां दूसरी शिफ्ट में काम करने भेजा कि उनके लोगों को काम सिखा दें। हमने तो सहयोग की भावना से भेजा था, लेकिन नवभारत में उन्हें बेहतर सुविधाओं का लाभ देकर वहीं रोक लेने की पेशकश कर दी। लीलूराम उनके ऑफर को ठुकराकर वापिस लौट आए।
समय के साथ एक बार फिर तकनीकी में बदलाव आया। मोनोटाइप मशीनों का स्थान वेरीटाइपर मशीनों ने ले लिया। अब तक हॉट मैटल प्रोसेस याने गर्म धातु से ढलाई होती थी। उसकी जगह कंप्यूटर आधारित प्रक्रिया आ गई जो कुछ-कुछ फोटोग्राफी से मिलती-जुलती थी। इसमें एक फिल्म के निगेटिव पर शब्द और पृष्ठ का संयोजन होकर उसके पॉजीटिव से ऑफसेट मशीन पर छपाई होती थी। लीलूराम और हेमलाल ने इस प्रविधि को समझने-सीखने में कोई देरी नहीं की।
उन्होंने अपने अन्य साथियों को भी काम सिखाया। मेरे प्रिय साथी लीलू कंपोजिंग प्रक्रिया के इस तीसरे चरण में भी विभाग प्रमुख का दायित्व कुशलतापूर्वक सम्हालते रहे। जब चौथे चरण में डेस्कटॉप कंप्यूटर का युग आया, तब तक वे शायद रिटायरमेंट की आयु में पहुंच चुके थे। इस नई तकनीक के साथ वे मेल नहीं बैठा सके। उन्हें कोई दूसरा दायित्व भी सौंपा किंतु वह उनके मन-माफिक नहीं था। वे रिटायर होकर चले गए। काफी समय से उनसे मुलाकात नहीं हुई है। हेमलाल डेस्कटॉप पर भी कुछ बरसों तक काम करते हुए हमारे साथ बने रहे। अभी कुछ दिन पहले ही उनके देहांत की सूचना मुझे मिली। कंपोजिंग विभाग की यह कहानी अभी अधूरी है।
देशबंधु में 18 जुलाई 2019 को प्रकाशित

Thursday 11 July 2019

देशबन्धु के साठ साल-3


आज से साठ साल पहले जिस मशीन पर देशबंधु की छपाई शुरू हुई वह ब्रेमनर मशीनरी कंपनी, लन्दन द्वारा निर्मित थी। 1880, जी हां, 1880-85 के आसपास बनी यह मशीन हमने नौ हजार रुपए में सेकंड हैंड खरीदी थी। इतनी रकम भी उस वक्त के लिहाज से काफी मायने रखती थी। तकनीकी विकास और साधनों की उपलब्धता के अनुसार आगे चलकर हमने समय-समय पर दूसरी उन्नत मशीनें खरीदीं, लेकिन दिलचस्प तथ्य यह है कि एक लंबी अवधि तक छोटेलाल ही मशीनमैन और मशीन विभाग के प्रमुख के रूप में सेवाएं देते रहे। वे जब रिटायर हो गए तब भी देशबन्धु के साथ उनका आत्मीय संबंध बना रहा। दरअसल, छोटेलाल और बाबूसिंह बाबूजी के ऐसे दो साथी थे जिन्होंने हम भाई-बहनों को नहीं, हमारे बच्चों को भी गोद में खिलाया है। फिलहाल मैं छोटेलालजी के साथ श्री जोसेफ, इब्राहीम भाई और मशीन विभाग से जुड़े कुछ अन्य साथियों को याद कर रहा हूं।
1945-50 के बीच बाबूजी नागपुर 'नवभारत में कार्यरत थे। उस दौरान प्रेस में छोटेलाल नामक एक अन्य मशीनमैन थे। सन् 50 में बाबूजी जब पत्र का दूसरा संस्करण स्थापित करने जबलपुर आए तो उपरोक्त छोटेलालजी की अनुशंसा पर उनके हमनाम दामाद हमारे छोटेलालजी साथ में जुड़ गए और सदा के लिए जुड़े रहे। बाबूजी नवभारत का नया संस्करण प्रारंभ करने भोपाल गए तो छोटेलाल भी उनके साथ गए। जब रायपुर से देशबन्धु (तब नई दुनिया रायुपर) निकालना तय हुआ तो छोटेलाल यहां आ गए। बाबूजी ने 1958 के अंत-अंत में अस्पताल के बिस्तर से अपना इस्तीफा नवभारत को भेज दिया था। उपचार के लिए धनाभाव था। छोटेलाल ने नवभारत प्रेस में मैनेजर से जाकर पैसे मांगे। मनाही हो गई तो वे मैनेजर की टेबल पर चढ़कर सीलिंग फैन खोलकर ले आए। उसे बेचकर जो रकम मिली वह बाई (मां को हम यही संबोधन देते थे) के हाथों पर लाकर रख दी। बाबूजी को बाद में जब पता चला तो उन्होंने अपने पूर्व नियोक्ता को पत्र लिखकर इस उद्दंडता के लिए माफी मांगी और रकम वापस भिजवाई।
अपने इन्हीं बुजुर्ग साथी को 1985 के आसपास कभी मुझे मजबूरन रिटायर करना पड़ा। मैं किसी मित्र के घर रात्रिभोज पर गया था। प्रेस से फोन आया- छोटेलालजी शराब पीकर उपद्रव कर रहे हैं। किसी की बात नहीं सुन रहे हैं। मैं भागा-भागा प्रेस आया। डांट-फटकार कर उन्हें घर भिजवाया और अगले दिन सेवामुक्त कर दिया। बाबूजी रायपुर से बाहर थे। लौटकर आए तो मेरी पेशी हुई। ठीक है, तुमने काम से हटा तो दिया है, उनका घर कैसे चलेगा! मेरे तीस-पैंतीस साल के साथी हैं। मैंने आश्वस्त किया कि उसकी व्यवस्था कर दी है। उनके घर हर माह राशन जाएगा और चाची के हाथ में वेतन की राशि। बाबूजी संतुष्ट हुए, लेकिन छोटेलाल जी इस बात से खफ़ा हुए कि उनको मदिरापान के लिए पैसे नहीं मिल पा रहे हैं। खैर, यह व्यवस्था चलती रही। इसमें एक मजेदार बात और हुई। छोटेलाल बीच-बीच में घर आते। मेरी पत्नी को भोजन कराने का आदेश देते। होली-दीवाली उनके और चाची के लिए नए वस्त्रों का प्रबंध भी किया जाता। मैं सामने पड़ जाता तो कहते- मैं बहूरानी से मिलने आया हूं। तुमसे बात नहीं करूंगा।
मैंने जिस मशीन का ऊपर जिक्र किया वह फ्लैटबैड सिलिंडर मशीन थी, जिसमें एक बार में सिर्फ दो पेज छपते थे। एक तरफ से कोरी शीट डालते, दूसरी तरफ से छपा कागज निकलता। जब एक तरफ की छपाई पूरी हो जाती तो उलटी तरफ दो पेज छापे जाते। इसमें छोटेलालजी के साथ दूसरे सिरे पर एक हेल्पर होता था। बाद में ऐसी ही एक और मशीन खरीद ली ताकि समय की बचत हो सके। उस मशीन पर मुझे जहां तक याद है, कंछेदीलाल राठौड़ नियुक्त थे। वे पेपर छापने के अलावा ऊंची आवाज़ लगाकर शहर में पेपर बेचने भी जाते थे। 64-65 के आसपास परमानंद साहू हेल्पर होकर आ गए थे। वे आगे चलकर एक कुशल मशीनमैन बने। 1968 में हमने सेलम (तमिलनाडु) से आदित्यन समूह के ''मलाई मुरुसु अखबार से एक सेकंडहैंड फ्लैडबैड रोटरी मशीन खरीदी। इसमें कागज की शीट के बजाय रील लगती थी और एक साथ चार पेज छपते थे। नागपुर के श्री जोसेफ नामक मशीन मैकेनिक की सेवाएं सेलम से मशीन खोलकर लाने और रायपुर में स्थापित करने के लिए ली गई। यह मशीन अपनी आयु पूरी कर चुकी थी। बार-बार रिपेयरिंग की आवश्यकता पड़ती थी। नागपुर से जोसेफजी इसके लिए आते थे। मैं मोहन नगर, नागपुर में उनके घर भी एक बार गया। छोटेलालजी ने जोसेफजी से जल्दी ही नई तकनीक की समझ हासिल कर ली। वे और परमानंद इसे चलाते रहे।
हमें एक बेहतर मशीन की तलाश थी जो लखनऊ के 'नेशनल हैराल्ड अखबार पहुंचकर पूरी हुई। वहां एक उम्दा फ्लैटबैड रोटरी लगभग नई कंडीशन में खड़ी थी। जनवरी 1971 में बाबूजी ने मुझे और मशीन मैकेनिक इब्राहीम भाई को मशीन लाने लखनऊ भेजा। इब्राहीम सौराष्ट्र में लिंबडी के निवासी थे और एक अच्छे मैकेनिक के रूप में पत्र जगत में उनकी प्रतिष्ठा थी। हम दोनों लखनऊ में एक साथ दस दिन रहे। मशीन खोलकर इब्राहीम भाई को ट्रकों के साथ सड़क मार्ग से रायपुर के लिए रवाना किया और मैं ट्रेन से वापस लौटा। यह नई मशीन बहुत अच्छी थी, लेकिन समय-समय पर रख-रखाव के लिए इब्राहीम अगले कई वर्षों तक रायपुर आते रहे। वे ऐसे मशीन मैकेनिक थे, जो मद्यपान से एकदम दूर थे। कहना न होगा कि छोटेलालजी ने ही बदस्तूर इस मशीन का काम भी संभाला। 'नेशनल हैराल्ड कार्यालय में बीते दस दिनों में जो अनुभव हुए उन्हें मैं अलग से लिख चुका हूं। नए पाठकों की जानकारी के लिए इतना बताना काफी होगा कि लखनऊ का स्टाफ अपने कार्यस्थल को ''नेहरूजी का यतीमखाना कहता था।
छोटेलालजी की कहानी अभी बाकी है। 1974 की जनवरी में छोटेलाल, मैं, मेरी पत्नी माया और हमारी दो नन्हीं-नन्हीं बेटियां रायपुर से सुदूर तिरुनल्लवैल्ली (तमिलनाडु) के लिए रवाना हुए। इस बार भी मशीन लेने ही जाना था, लेकिन उसका गंतव्य भोपाल था, जहां जुलाई 74 में देशबन्धु का तीसरा संस्करण प्रारंभ हुआ। रायपुर से नागपुर तो आराम से पहुंच गए, लेकिन ट्रेनों की भीड़-भाड़ के चलते हमें वहां तीन दिन रुकना पड़ा। पत्रकार अनुज प्रकाश दुबे ने संपर्कों का उपयोग कर किसी तरह हमारा चैन्नई के लिए आरक्षण करवाया। तिरुनल्लवैली में ''दिनमलार" अखबार की एक पुरानी मशीन खरीदना थी। जोसेफ और इब्राहीम के साथ काम करते-करते छोटेलाल इतने प्रवीण हो चुके थे कि मशीन खोलने के लिए बाहर से किसी की सेवाएं लेने की आवश्यकता महसूस नहीं की गई। यात्रा के पांच दिनों के अलावा हमने दिनमलार में दस दिन तक मशीन खोलने का काम किया। सुबह निकलते थे तो लौटते तक शाम छह-सात बज जाते थे। अंतत: खुली मशीन ट्रकों पर लादी गई, छोटेलाल उनके साथ भोपाल के लिए रवाना हुए, रायपुर लौटने के पहले हमने सपरिवार तमिलनाडु दर्शन में कुछ दिन बिताए, जिसकी रोमांचक कहानी मैं कभी बाद में सुनाऊंगा।
सिलिंडर मशीन, फ्लैडबैड रोटरी के बाद अब नई तकनीक की वेब ऑफसेट मशीन का समय था। हमारी पहली ऑफसेट मशीन 1979 में स्थापित हुई। इस पर एक साथ श्वेत-श्याम बारह पेज छापना संभव था। यह मशीन एक घंटे में पच्चीस हजार कॉपी छाप सकती थी। तकनीकी तौर से बंधु ऑफसेट मशीनरी वर्क्स की यह मशीन अब तक की सभी मशीनों से अलग थी, लेकिन अपनी नैसर्गिक क्षमता व प्रतिभा के बल पर छोटेलालजी ने इस मशीन का काम भी सम्हाला। उनकी याद अब भी आ ही जाती है। प्रसंगवश यह संकेत करना शायद उचित होगा कि छोटेलाल सफाई कामगार समुदाय से आते थे। बाद में एक कुशाग्र मशीनमैन राधेलाल आदिवासी थे। इस तरह हमारा मशीन विभाग भारत की बहुलतावादी संस्कृति का ज्वलंत उदाहरण था।
देशबंधु में 11 जुलाई 2019 को प्रकाशित
  
 

Wednesday 3 July 2019

राहुल! आप किस सोच में डूबे हैं?


राहुल! आप किस सोच में डूबे हैं?
आपने पार्टी के अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया है और उसे वापिस न लेने पर अड़े हैं तो फिर दिल्ली में बैठकर आप क्या कर रहे हैं?
मैंने कुछ समय पहले इसी कॉलम में सुझाव दिया था कि आप अध्यक्ष पद पर बने रहें; साल-दो साल का अवकाश लेकर देश की पदयात्रा पर निकल जाएं; और पार्टी का काम एक कार्यकारी अध्यक्ष के हवाले कर दें। आज कहना चाहता हूं कि आप पहले सुझाव से सहमत नहीं हैं तो नया अध्यक्ष चुनने में देरी न करें। आप और पार्टी जिसका चयन करें वह देखे कि संगठन को कैसे नए सिरे से मजबूत करना है आदि। लेकिन आपको मेरा दूसरा सुझाव एक दीर्घकालीन दृष्टि से दिया गया है।
मैं इस बात को दोहराना जरूरी समझता हूं कि कांग्रेस अपने प्रारंभ काल से ही पार्टी कम और आंदोलन अधिक रही है। यह कहना गलत नहीं होगा कि आंदोलन का पक्ष ही अधिक मजबूत रहा है। जवाहरलाल नेहरू के समय में उनकी सर्वसमावेशी सोच और अजातशत्रु चरित्र के कारण सत्ता में रहने के बावजूद आंदोलन का पक्ष काफी हद तक बचा रहा। लेकिन उत्तर-नेहरू युग में कांग्रेस लंबे समय तक सत्ता की पार्टी बनी रही, जिसके चलते इसमें जड़ता, असहिष्णुता, मदांधता जैसी बुराइयां किसी सीमा तक घर कर गईं। उसी का खामियाजा आज भुगतना पड़ रहा है। खैर, अब यही सोचना है कि आगे क्या किया जाए!
यह याद कर लेना अच्छा ही होगा कि स्वाधीनता पूर्व पार्टी के लगभग हर बड़े नेता का गांवों और किसानों के साथ जीवंत संपर्क व संवाद था। चंपारन में बापू, बारडोली में सरदार और प्रतापगढ़ में पंडितजी ने जिस शिद्दत के साथ किसानों के हक के लिए संघर्ष किया, वह कांग्रेस के इतिहास का स्वर्णिम अध्याय है। मुझे ध्यान आता है कि पंडित नेहरू ऑल इंडिया ट्रेड यूनियन कांग्रेस (एटक) के भी अध्यक्ष थे, जो बाद में एटक और इंटक में विभाजित हो गई। और जब अधिकतर राजे-महाराजे ब्रिटिश राज के कृपापात्र बने हुए थे, तब नेहरूजी देशी रियासतों में स्वाधीनता की लड़ाई लड़ने वाले अखिल भारतीय प्रजामंडल के भी अध्यक्ष थे। ऐसे तमाम प्रसंग पर्याप्त संकेत दे रहे हैं कि कांग्रेस पार्टी को किस तरफ जाना चाहिए।
यह भी रेखांकित करना उचित होगा कि नेहरूजी ने संगठन की कभी परवाह नहीं की। उनका ध्यान हर समय आम जनता की ओर ही लगा रहता था। पार्टी में अनेक वरिष्ठ व प्रभावशाली साथी उनकी नीतियों और विचारों से असहमत रहते थे लेकिन खुलकर विरोध इसीलिए नहीं करते थे कि वे जनता के दिलों में वास करते थे। 1952 के आम चुनावों के पहले संगठन के कर्णधारों ने उन्हें चुनौती देने की ठानी थी। उनके इशारे पर 1951 में मध्यप्रदेश के गृहमंत्री डी.पी. मिश्र ने पद से इस्तीफा देकर विद्रोह का बिगुल बजाया था, लेकिन उनकी यह दुरभिसंधि सफल नहीं हो सकी। उल्टे मिश्राजी को ही ग्यारह-बारह साल का वनवास भुगतने पर विवश होना पड़ा। इंदिराजी के समय भी ऐसे षड़यंत्र रचे गए जो सफल नहीं हुए। फर्क इतना था कि अजातशत्रु नेहरू क्षमा करना जानते थे। वह गुण इंदिराजी में नहीं था। इतना सब लिखने का प्रयोजन यही है कि आपको जनता के बीच जाकर ताकत हासिल करना चाहिए। आपका अपना राजनैतिक भविष्य भी उसी पर निर्भर करता है।
आप यदि सचमुच पदयात्रा पर निकलने का मन बना पाते हैं तो उसके पहले आपको देहरादून जाकर अपनी दादी की बहन नयनतारा सहगल से अवश्य मिलना चाहिए। भूल जाइए कि उनकी माँ विजयलक्ष्मी पंडित ने 1977 में इंदिराजी का विरोध किया था। नयनताराजी से मिलेंगे तो आपको नेहरूजी की राजनैतिक यात्रा के बारे में अन्तर्दृष्टि मिल सकेगी। उनकी लिखी ''नेहरू : सिविलाइजिंग अ सेवेज वर्ल्ड'' एक अद्भुत पुस्तक है जो नेहरूजी के बारे में लंबे समय से फैलाई गई बहुत सी भ्रांत धारणाओं का तर्क और तथ्य के आधार पर खंडन करती है। काश्मीर, चीन, कॉमनवेल्थ, इत्यादि अनेक प्रश्नों पर उन्होंने जो विवेचना की है, वह सारे कांग्रेसजनों के काम की है। यह तो आपको मालूम ही है कि नयनतारा सहगल ने मोदीराज-एक में बढ़ती असहिष्णुता का विरोध करते हुए साहित्य अकादमी का पुरस्कार लौटा दिया था। वे आपके वृहत्तर परिवार की ऐसी सदस्य हैं जो नब्बे साल की उम्र में भी प्रतिगामी शक्तियों का विरोध करने का साहस रखती हैं।
इस समय आपके सामने एक व्यवहारिक समस्या निश्चित ही खड़ी होगी कि आपका स्थान कौन लेगा! यह एक कठिन निर्णय हो सकता है, जिसे तथ्यों का आश्रय लेकर आप सरल बना सकते हैं। उन तमाम लोगों को दरकिनार कर दीजिए जिनकी सत्ता लोलुपता और सत्ता को व्यक्तिगत स्वार्थ साधने की मशीन बना देने की मानसिकता से आप भलीभांति परिचित हैं। आपको मल्लिकार्जुन खड़गे जैसे वरिष्ठ साथी पर ऐतबार जताना चाहिए, जिसका मजबूत जनाधार है; जो ग्यारह बार अविजित रहा है; जिसने लोकसभा में मात्र चवालीस सदस्य होने के बावजूद विपरीत परिस्थिति में दलनेता के रूप में दमखम का परिचय दिया है; जो दक्षिण भारत से आता है; जो वंचित समाज का प्रतिनिधित्व करता है; और जिसके बारे में कोई सार्वजनिक प्रवाद नहीं है। लेकिन मेहरबानी करके ऐसे नेता को अपना उत्तराधिकारी मत बनाइए, जिनकी सलाहों पर चलने से कांग्रेस की दुर्गति होते आई है।
2017 में राष्ट्रपति-उपराष्ट्रपति चुनाव के लिए क्रमश: सुश्री मीरा कुमार और गोपालकृष्ण गांधी के रूप में कांग्रेस ने सही प्रत्याशियों का चयन किया था। पूर्व उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी भी आपके साथ हैं। डॉ. मनमोहन सिंह तो हैं ही। ऐसे प्रबुद्धजनों की सेवाओं का लाभ कैसे लिया जा सकता है, इस पर भी विचार होना चाहिए। अशोक गहलोत, नवजोत सिद्धू जैसे व्यक्तियों को यदि संगठन में महत्वपूर्ण जिम्मेदारियां सौंपी जाती हैं तो यह भी पार्टी के हित में होगा। एक ओर संगठन की समझ, दूसरी ओर वैचारिक आधार, तीसरी ओर कांग्रेस शासित और समर्थित राज्य सरकारें- ये सभी अपने-अपने दायरे में ऐसे कार्यक्रम बना सकते हैं जिनसे कुल मिलाकर कांग्रेस को ताकत मिले। मुझे लगता है कि वैश्विक राजनीति की जो दशा-दिशा है, उसमें अन्तरराष्ट्रीय मंच पर भारत की कांग्रेस पार्टी की बात ध्यानपूर्वक सुनी जाए, इसके लिए पी. चिदंबरम जैसे साथियों को भी यथोचित स्थान मिलना चाहिए।
विगत वर्षों में जिन दूसरे दलों ने कांग्रेस को खुलकर साथ दिया है, उनमें राजद का नाम सबसे पहले आता है। आज राजद संस्थापक लालूप्रसाद सजा काट रहे हैं और रांची के अस्पताल में भर्ती हैं। आपका उनसे भी एक बार जाकर अवश्य मिलने का संदेश सही जाएगा। शरद यादव अनुभवी संसदवेत्ता हैं और बीते दिनों में उनकी सही सलाह पार्टी के लिए उपयोगी सिद्ध हुई है। स्टालिन भी आपके साथ बने हुए हैं। इन सबके साथ कांग्रेस का गठबंधन और दृढ़ होने की गुंजाइशें हैं। और कर्नाटक में कुमारस्वामी के साथ अनावश्यक छेड़खानी भी बंद करना उचित होगा। आशा करता हूं कि आपसे मेरा जो संक्षिप्त सा परिचय है, उसे याद रखते हुए आप इन सुझावों पर गंभीरतापूर्वक करेंगे।
पुनश्च: यह लेख 3 जुलाई को मोतीलाल वोरा को अंतरिम अध्यक्ष बनाए जाने की घोषणा के पूर्व लिखा गया था।
देशबंधु में 4 जुलाई 2019 को प्रकाशित