Wednesday 30 January 2013

राजनाथ की चुनौतियाँ



भारतीय जनता पार्टी के हक़ में यह अच्छा ही हुआ कि नितिन गडकरी दुबारा पार्टी अध्यक्ष नहीं बन पाए। अगर तटस्थ भाव से विवेचन किया जाए तो श्री गडकरी इस महत्वपूर्ण पद के लिए कभी भी योग्य प्रत्याशी नहीं थे। वे विदर्भ में पार्टी के एक स्थानीय नेता मात्र थे। शिवसेना-भाजपा गठबंधन सरकार में लोक निर्माण मंत्री रहते हुए उन्होंने फ्लाईओवर जैसी खर्चीली व महत्वाकांक्षी योजनाएं हाथ में लेकर शहरी मध्यवर्ग की प्रशंसा बटोरने में अवश्य सफलता हासिल की थी तथा इसी कारण से व्यापारियों एवं ठेकेदारों के एक वर्ग विशेष का समर्थन हासिल कर लिया था। उनकी नेतृत्व क्षमता पर यदि किसी को थोड़ा विश्वास भी था तो वह स्वयं उन्होंने उस वक्त तोड़ दिया जब उन्होंने आयकर अधिकारियों को भाजपा राज आने पर देख लेने की धमकी दे डाली। यह तो ज्ञात है ही कि उनके ऊपर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के शीर्ष नेतृत्व का वरदहस्त भी था। उन्हें ऐसे समय पार्टी का अध्यक्ष बनाया गया था जब लालकृष्ण अडवानी जैसे वरिष्ठ नेता पर भी संघ शंका करने लगा था और उसे पार्टी में अन्य कोई विश्वसनीय व्यक्ति नज़र नहीं आ रहा था। संघ नेतृत्व की यह सीमा ही कहना चाहिए कि वह अक्सर राजनीतिक आदर्श व व्यावहारिक राजनीति के बीच के अंतर को समझ नहीं पाता। इस कारण से अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्री काल में संघ उनसे कभी पूरी तरह खुश नहीं रहा। 

बहरहाल गडकरी की विदाई के बाद राजनाथ सिंह के हाथों एक बार फिर पार्टी की कमान सौंप दी गई है। श्री सिंह राजनीति के पुराने खिलाड़ी हैं, देश के सबसे बड़े राज्य उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री रह चुके हैं और वर्तमान में उत्तरप्रदेश की ही गाजियाबाद जैसी  शहरी सीट से लोकसभा के सदस्य हैं। अडवानी-वाजपेयी-जोशी के बाद एक तरह से वे भाजपा के सर्वाधिक वरिष्ठ नेता हैं। इस लिहाज से वे अध्यक्ष पद के लिए एक बेहतर उम्मीदवार थे  इसी लिए   जब उनका नाम सामने किया गया तो इस पद की उम्मीद लगाए बैठे अन्य प्रत्याशियों ने अपनी दावेदारी बिना ना-नुकुर के छोड़ दी। श्री सिंह आयु, अनुभव और पार्टी आदर्शों के प्रति प्रतिबध्दता के पैमानों पर खरे उतरते हैं, लेकिन अपने दूसरे कार्यकाल में उन्हें कुछ पुरानी एवं कुछ नई चुनौतियों से जूझना पड़ेगा। इसमें वे कहां तक सफल हो पाएंगे इसका अंदाज लगा पाना फिलहाल मुश्किल है। 

श्री सिंह जब 2005 में पहली बार भाजपा के अध्यक्ष बने थे तब मेरी दृष्टि में उनकी सबसे बड़ी कमजोरी अंतरराष्ट्रीय राजनीति एवं विदेश नीति की सीमित जानकारी की थी। विगत चार वर्षों में संसद सदस्य रहते हुए वे इस सीमा को तोड़ पाए हैं या नहीं, यह हम नहीं जान पाए हैं। ऐसे समय जब भारतीय जनता पार्टी 2014 में अपनी सरकार बनाने का सिर्फ सपना ही नहीं देख रही है, बल्कि दावा भी ठोक रही है तब पार्टी प्रमुख से यह अपेक्षा करना स्वाभाविक है कि वह वैश्वीकरण के इस दौर की राजनीतिक बुनावट से भली-भांति परिचित हो। यह भी ध्यान देने योग्य है कि 2005 के मुकाबले आज वैश्विक अर्थव्यवस्था राजनीति पर कहीं ज्यादा हावी हो चुकी है। यह कहना ज्यादा सटीक होगा कि आज अंतरराष्ट्रीय धरातल पर राजनीति और अर्थनीति दोनों एकाकार हो चुके हैं। प्रश्न उठता है कि क्या राजनाथ सिंह इस चुनौती का सामना कर पाएंगे।

भाजपा के नए अध्यक्ष के सामने एक नई चुनौती युवा पीढ़ी का विश्वास जीतने की है। उन्हें यह सिध्द करना होगा कि वे अपने वक्तव्यों और कार्यक्रमों से युवा मतदाताओं को लुभा सकते हैं। इसके लिए उन्हें पार्टी की पारंपरिक रीति-नीति में आमूल-चूल बदलाव लाने की जरूरत होगी। यह हम देख रहे हैं कि आज नई पीढ़ी के सामने कोई आदर्श, कोई आईकॉन नहीं है। उसकी राजनीतिक समझ भी तात्कालिक भावनाओं से संचालित होती है, क्योंकि युवा पीढ़ी की राजनैतिक समझ विकसित करने के दायित्व से सभी पार्टियों ने हाथ धो लिए हैं। यह पीढ़ी नई तकनीकी, नए औजारों और नए संसाधनों से व्यवस्था को बदल डालने का स्वप्न देख रही है। इसको आप कैसे समझाएंगे कि भारतीय जनता पार्टी कांग्रेस के मुकाबले न सिर्फ एक बेहतर विकल्प है, बल्कि यह भी कि उसमें युवजनों की आशाओं, आकांक्षाओं को फलीभूत करने की सामर्थ्य है!

राजनाथ सिंह के सामने एक और नई चुनौती नरेन्द्र मोदी के रूप में सामने है। यह सबको पता है कि भाजपा का पितृसंगठन याने राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ मोदी को कोई खास पसंद नहीं करता है। पार्टी में भी जो लोग शीर्ष स्थानों पर बैठे हैं वे भी मोदी को प्रधानमंत्री बनते नहीं देखना चाहते। एक अरुण जेटली ही हैं जिनके बारे में अनुमान होता है कि उन्होंने नरेन्द्र मोदी के साथ तालमेल बना रखा है, वह भी शायद इसलिए कि जेटली गुजरात सेराज्यसभा सदस्य हैं। अन्यथा सुषमा स्वराज, यशवन्त सिन्हा, जसवंत सिंह - इनमें से प्रत्येक संगठन में वरिष्ठता और सरकार चलाने का अनुभव इन दोनों आधारों पर प्रधानमंत्री पद के अभिलाषी है, लेकिन यह ऐसा मामला नहीं है जिसका निपटारा पार्टी के भीतर हो जाए। कारपोरेट भारत ने तो नरेन्द्र मोदी पर दांव लगाया हुआ है। इसलिए आज गडकरी के हटने से जो खुश हैं, कल उन्हें इस प्रश्न से जूझना होगा कि श्री मोदी को गुजरात में ही कैसे बांधकर रखा जाए। 

इस पृष्ठभूमि के मद्देनजर एक और अहम् सवाल उभरता है कि क्या भारतीय जनता पार्टी आगामी लोकसभा चुनाव के लिए तैयार है। पार्टी अध्यक्ष के रूप में राजनाथ सिंह की महत्वपूर्ण भूमिका अवश्य होगी, लेकिन वह अपने आप में पर्याप्त नहीं है। भाजपा के सामने असली सवाल तो स्वयं को नए सांचे में ढालने का है। जैसा कि हम जानते हैं कांग्रेस और भाजपा की आर्थिक नीतियों में अब कोई ज्यादा मतभिन्नता नहीं है। संघ परिवार के पुराने निष्ठावान लोग भले ही स्वदेशी की बात करते रहें, भाजपा की व्यापक सोच में उसके लिए कोई स्थान नहीं है। अब जो फर्क कांग्रेस व भाजपा में है वह मुख्यत: धर्मनिरपेक्षता बनाम सांप्रदायिकता का है। इस मुद्दे पर भाजपा को संघ के निर्देशों पर ही चलना होता है। 

पिछले एक दशक के दौरान अनेक राजनैतिक अध्येताओं ने यह उम्मीद जाहिर की है कि भाजपा संकीर्णता का परित्याग कर एक समावेशी पार्टी बन जाएगी, लेकिन यह उम्मीद निकट भविष्य में तो पूरी होती नार नहीं आती। अटल बिहारी वाजपेयी के क्षेत्रसन्यास के बाद पार्टी में ऐसा कोई नेता नहीं है जो संघ परिवार की रूढ़िवादी सोच को चुनौती दे पार्टी को आगे ले जाने के लिए एक नया रास्ता तलाश कर सके। हमें यहां 1959 में चक्रवर्ती राजगोपालाचारी द्वारा स्थापित स्वतंत्र पार्टी का ध्यान आता है। उन दिनों जब कांग्रेस समाजवाद की बात कर रही थी तब स्वतंत्र पार्टी उन्मुक्त पूंजीवाद के प्रवक्ता के रूप में उभरी थी, लेकिन उसमें धार्मिक संकीर्णता के लिए जगह नहीं थी। इसी की बदौलत 1962 के आम चुनाव में स्वतंत्र पार्टी संसद में दूसरे सबसे बड़े दल के रूप में उभरी थी। यदि भाजपा चाहे तो देश के संसदीय इतिहास के इस अध्याय से आज कुछ प्रेरणा ले सकती है, अन्यथा भावना की राजनीति करते रहने से वह आज जहां है, उससे आगे नहीं जा पाएगी।
 
देशबंधु में 31 जनवरी 2013 को प्रकाशित 

Wednesday 23 January 2013

राहुल गांधी : बदलाव की अपेक्षा





राहुल गांधी औपचारिक तौर पर कांग्रेस पार्टी के उपाध्यक्ष निर्वाचित कर लिए गए: इस घटना को कमतर आंकना भूल होगी। राहुल गांधी पहले से ही कांग्रेस के सांगठनिक ढांचे में दूसरे नंबर पर थे, 2014 के चुनाव में उनकी क्या भूमिका होगी, वे प्रधानमंत्री बन पाएंगे या नहीं, एक युवा पार्टी नेता के रूप में वे अब तक किस हद तक सफल रहे हैं- ऐसे तमाम मुद्दों पर भारतीय जनता पार्टी, पूंजीवादी मीडिया व लोहियावादी सोच से अनुप्राणित पत्रकारों आदि ने जो ढेरों टिप्पणियां की हैं, वे जल्दबाजी में की गई प्रतीत होती हैं। दरअसल, सवाल यह नहीं है कि अब तक राहुल गांधी का भारतीय राजनीति में क्या स्थान या योगदान रहा है, बल्कि यह कि उनके विधिवत उपाध्यक्ष बन जाने से किन बदलावों की अपेक्षा की जा सकती है। इसके बरक्स यह देखना भी मौजूँ होगा कि भारतीय जनता पार्टी में शीर्ष नेतृत्व को लेकर किस तरह से असमंजस बना हुआ है।

यह उल्लेख करना प्रासंगिक होगा कि आज का भारत एक युवा देश है। देश की जनसंख्या का लगभग आधा हिस्सा अठारह से तीस वर्ष के आयु समूह का है। इस नाते तय है कि 2014 के आम चुनावों में पहली बार वोट डालने वाले युवजन बहुत बड़ी संख्या में होंगे। इन नौजवानों की पहली पसंद कौन हो सकता है? मनमोहन सिंह अस्सी के हैं, सोनिया गांधी पैंसठ की। अडवानीजी अस्सी पार कर चुके हैं, सुषमा स्वराज आदि भी साठ के पेटे में हैं। प्रकाश और वृन्दा करात, सीताराम येचुरी, नवीन पटनायक, मुलायम सिंह, लालू प्रसाद यादव, नीतिश कुमार, जयललिता- ये सब भी या तो साठ पार कर चुके हैं या उसके आसपास हैं। एक ममता बनर्जी हैं जो अपेक्षाकृत युवा हैं। इन सबके मुकाबले बयालिस वर्ष के राहुल गांधी युवा मतदाता के लिए एक बेहतर पसंद हो सकते हैं।

इसी तर्क को आगे बढ़ाया जाए तो यह तथ्य भी सामने आता है कि कांग्रेस की युवतर पीढी में राहुल अकेले नहीं, उनका साथ देने के लिए सचिन पायलट, मीनाक्षी नटराजन, योतिरादित्य सिंधिया, जतिन प्रसाद, मिलिन्द देवड़ा, प्रिया दत्त जैसे अनेकानेक युवा सहयोगी हैं, जिन्होंने अपना-अपना प्रभा मंडल निर्मित करने में सफलता पाई है। इनके मुकाबले दूसरी पार्टियों में युवा पीढी क़हां है? भाजपा में प्रेमकुमार धूमल के बेटे अनुराग ठाकुर अथवा माकपा से निकाले गए प्रसेनजीत बसु जैसे कम्युनिस्ट- ऐसे कुछ नाम लिए जा सकते हैं, लेकिन उनका प्रभाव क्षेत्र फिलहाल सीमित ही दिखाई दे रहा है। जिन वरुण गांधी को भाजपा ने बहुत जोर-शोर से आगे बढ़ाया था, वे भी पिछले कुछ समय से हाशिए पर चले गए नजर आते हैं। समाजवादी पार्टी में अखिलेश यादव हैं, लेकिन मुख्यमंत्री बन जाने के बावजूद उनमें वह चमक दिखाई नहीं दी जो राष्ट्रीय राजनीति को प्रभावित कर सके।

राहुल गांधी को लेकर वंशवाद का मुद्दा बार-बार उठाया जाता रहा है: यह एक सच्चाई तो है, लेकिन इसे पूर्वाग्रह मुक्त होकर परखने की आवश्यकता है। ऐसा कोई भी एशियाई देश नहीं है जहां जनतांत्रिक राजनीति में वंश परम्परा से पूरी तरह मुक्ति पा ली गई हो। भारत में भी वामदलों के अलावा कोई ऐसा दल नहीं है, जिसने वंशवाद को प्रश्रय न दिया हो। अगर भाजपा कहती है कि उसके यहां साधारण कार्यकर्ता भी आगे बढ़ सकते हैं तो कांग्रेस में भी ऐसे नेताओं की कमी नहीं है। ए.के. एंटनी, मोतीलाल वोरा, अशोक गहलोत, वीरप्पा मोइली, किरण कुमार जैसे तमाम नेता आज भी हैं जिन्होंने अपनी कूवत से राजनीति में स्थान बनाया है। दूसरी ओर स्वयं को सामान्य कार्यकर्ताओं की पार्टी मानने वाली भाजपा में वसुंधरा राजे, अनुराग ठाकुर, दुष्यंत सिंह, मानवेन्द्र सिंह, यहां तक कि मेनका गांधी के नाम गिनाए जा सकते हैं, जिन्हें राजनीति में अपनी पारिवारिक पृष्ठभूमि के कारण वरीयता मिली। अन्य पार्टियों में भी यही हाल है। अत: इस बिन्दु पर टिप्पणी करना अपना खीज मिटाने से अधिक कुछ नहीं मानना चाहिए।

बहरहाल, राहुल गांधी के पार्टी उपाध्यक्ष बन जाने से एक बड़ी बात तो यह हुई है कि उनके बारे में जो अटकलबाजियां लगाई जा रही थीं, वे अब समाप्त हो जाएगी। राहुल ने यह स्पष्ट संदेश दे दिया है कि राजनीति भले ही जहर का प्याला हो, उसे पीने के लिए वे अपना मन दृढ़ कर चुके हैं। उनके इस निर्णय से कांग्रेस पार्टी में नए सिरे से उत्साह का संचार होना स्वाभाविक है। उम्मीद करना चाहिए कि वे यथाशीघ्र एक नई टीम भी बनाएंगे ताकि कांग्रेस सचमुच नए भारत की नई पीढ़ी की पार्टी बन सके। इस पीढ़ी की आशाएं, आकांक्षाएं पिछली पीढ़ी से बहुत अलग है तथा यह मानने में संकोच नहीं करना चाहिए कि राजनेताओं की पुरानी पीढ़ी नौजवान भारत के सपनों को समझने में बड़ी हद तक नाकाम ही रही है।

ऐसी उम्मीद राजीव गांधी के राजनीति में आने पर भी की गई थी, लेकिन दोनों के बीच एक बड़ा फर्क है। राजीव गांधी को सत्ता और संगठन दोनों स्तर पर जिस अनुभव और प्रशिक्षण की आवश्यकता थी, वह उन्हें बिलकुल नहीं मिला था और न ही उनके निकट मित्रों में ऐसा था जो राजनीतिक समझ का धनी रहा हो। अरुण नेहरू, अरुण सिंह, अमिताभ बच्चन इत्यादि राजनीति के लिए बिलकुल नए थे। इसीलिए राजीव गांधी से अपने तमाम नेक इरादों के बावजूद गलतियां हुईं जिसका खामियाजा 1989 की हार में उन्हें भुगतना पड़ा। इसके बाद उन्होंने विपक्ष में रहते हुए जो कुछ सीखा-समझा, उसके आधार पर दुबारा जीतने के बाद वे देश को नई दिशा देते, उसके पहले ही उनकी हत्या कर दी गई। इस लिहाज से राहुल गांधी बेहतर स्थिति में हैं। वे नौ साल से संसद सदस्य हैं, पार्टी में विभिन्न मोर्चों पर लगातार सक्रिय हैं और अपनी मां की तरह उन्हें भी सत्ता का मोह नहीं है। इस नाते उनमें पार्टी का सफल नेतृत्व करने के लिए आवश्यक गुण हैं। अपनी इन क्षमताओं का उपयोग वे कितना कर पाते हैं यह आने वाले दिनों में देखने को मिलेगा।

राहुल गांधी 2014 के चुनावों के बाद प्रधानमंत्री बन पाएंगे या नहीं, यह बहस अर्थहीन है। भाजपा में उनके सामने मुकाबले के लिए कौन होगा- नरेन्द्र मोदी या कोई और, यह भी बैठे-ठाले की बहस का ही विषय हो सकता है। यह कोई छिपी हुई बात नहीं है कि नरेन्द्र मोदी तो प्रधानमंत्री बनने का सपना देख ही रहे हैं व  देशी-विदेशी कारपोरेट घराने उनके समर्थन में थैलियों का मुंह खोले बैठे हुए हैं। किंतु राहुल गांधी से मुकाबला होने से पहले उन्हें पार्टी के भीतर अपना वर्चस्व सिध्द करना होगा। संघ प्रमुख न जाने क्यों, नितिन गडकरी को ही दोबारा भाजपा अध्यक्ष बनाने पर अड़े हैं। क्या इसलिए कि वे गडकरी को लाल किले की प्राचीर से भाषण देते सुनना चाहते हैं! खैर! भाजपा में जो भी हो, कांग्रेस में यह कहां जरूरी है कि राहुल ही प्रधानमंत्री बनेंगे! अगर सोनिया गांधी के अध्यक्षकाल में मनमोहन सिंह दस साल प्रधानमंत्री रह सकते हैं तो राहुल गांधी भी तो स्वयं को पार्टी तक सीमित रख सरकार चलाने का जिम्मा ए.के. एंटनी, सुशील कुमार शिंदे या अन्य किसी को दे सकते हैं। 

मेरा प्रारंभ से मानना रहा है कि राहुल गांधी को पार्टी अथवा सरकार में बड़ी जिम्मेदारी निभाने के लिए आगे आना चाहिए। मेरा तर्क है कि ऐसा करने से पार्टी की विचार प्रक्रिया और कार्यप्रणाली में एक जरूरी स्पष्टता आएगी। इसी सोच के अनुसार मैं राहुल गांधी के कांग्रेस उपाध्यक्ष बनने का स्वागत करता हूं।

 देशबंधु में 24 जनवरी 2013 को प्रकाशित 

Wednesday 16 January 2013

स्त्री सुरक्षा और सम्मान : कुछ सुझाव



जब भावनाएं उफान पर हों तब सहज बुद्धि और तर्क किनारे धरे रह जाते हैं। जब भावनाएं खुद होकर उमड़ती हैं तब उनमें आगे का रास्ता बना लेने की क्षमता भी अन्तर्निहित होती है, लेकिन जहां उफान का स्रोत बाहरी हो तब बहाव के बीच भंवर पैदा होने का खतरा भी विद्यमान होता है। दिल्ली के सामूहिक बलात्कार कांड की प्रतिक्रिया में जो वातावरण बना उसमें ऐसी ही कुछ स्थिति देखने में आई। यदि इस पाशविक अपराध की खबर मिलने के बाद दिल्ली के युवा अपने गुस्से का इजहार करने के लिए खुद-ब-खुद सड़कों पर उतर आए तो छद्म विद्रोहियों व देश को दुर्दशा से उबारने का संकल्प लिए बैठे पेशेवर समूहों ने उस जायज गुस्से को एक तमाशे में तब्दील करने में कोई देरी नहीं की।
बहरहाल अब पूरे देश में इस त्रासद वाकये को लेकर जो क्रोध है वह लोगों के हृदय में भीतर ही भीतर भले ही सुलग रहा हो, उसके साथ-साथ एक संकल्प भी सामूहिक रूप से बन रहा है कि दुबारा ऐसा न हो इसके लिए विवेकपूर्ण ढंग से सारी स्थितियों पर विचार करके आगे का रास्ता तलाशा जाए। इस बीच में मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, पंजाब, पश्चिम बंगाल व अन्य प्रदेश में भी बलात्कार व स्त्रियों पर हो रहे अन्य अत्याचारों की जो खबरें सामने आई हैं उन्होंने भी जनसंकल्प को दृढ़ करने का काम किया है। यह तथ्य भी अब सबकी नजर में है कि स्त्रियों के प्रति हो रहे अपराधों के लिए यदि न्याय व्यवस्था की एजेंसियां बड़ी हद तक जिम्मेदार हैं तो देश की रूढि़वादी सामाजिक व्यवस्था और इसके अलावा अर्थनीति का कारपोरेटीकरण भी उतने ही जिम्मेदार हैं।
इस पृष्ठभूमि में हम विचार कर सकते हैं कि ऐसे कौन से कदम उठाए जाएं जिनसे भारत में स्त्रियों का सम्मान व गरिमा सुनिश्चित की जा सके। न्यायमूर्ति जे.एस. वर्मा कमेटी के सामने इस बीच सैकड़ों सुझाव विभिन्न व्यक्तियों, दलों  व समूहों द्वारा पेश किए गए हैं। उनके आधार पर निश्चित ही कुछ ठोस कदम उठाने की पहल आने वाले दिनों में होगी, किंतु जितना मैं देख सका हूं उससे लगता है कि वर्मा कमेटी के सामने रखे गए ज्यादातर सुझाव कानून व्यवस्था से संबंधित है तथा अन्य पहलू काफी हद तक अलक्षित रह गए हैं। अनेक समाज विज्ञानियों व सामाजिक कार्यकर्ताओं ने दूसरे पहलुओं पर अपने विचार प्रकाशित किए हैं, तथापि एक नया वातावरण बनाने के लिए क्या-क्या कदम अपनाए जाएं इस बारे में कुछ और स्पष्टता के साथ बात करना अभीष्ट है।
मेरा मानना है कि भारत में औरत के साथ दोयम दर्जे का बर्ताव आज नहीं, अनादिकाल से होते आया है। उसे जन्म से लेकर मृत्यु तक किसी न किसी रूप में पुरुष के संरक्षण में रहना चाहिए, यह भारतीय समाज की मान्यता है। स्त्री-पुरुष संबंधों में जब सामाजिक रूढिय़ों के अनुसार कुछ भी अवांछनीय घटता है तब उसमें हमेशा स्त्री को ही दोषी ठहरा दिया जाता है। ऐसे में पहला प्रश्न तो यही है कि समाज में नई सोच कैसे पैदा हो। दूसरे- भारत में ही नहीं लगभग सारी दुनिया में स्त्री को भोग्या ही माना जाता रहा है और पूंजीवादी शक्तियां इसी मानसिकता का लाभ उठाकर बाजार के एक बड़े हिस्से को संचालित करते आई हंै। अत: इस बात पर भी गौर करना आवश्यक है कि बाजार को किस रूप में नियंत्रित किया जाए। तीसरे- वर्तमान दौर में तकनीकी विकास के चलते जनसंचार माध्यम जिस तरह से पनपे हैं उसमें भी स्त्री की उस रुढिग़्रस्त छवि को ही पुष्ट किया जा रहा है याने यहां भी नई सोच की जरूरत है। अंतिमत:  इन सबके अलावा न्याय व्यवस्था के तंत्र को भी संवेदनशील बनाने और उसमें नवाचार लाने के प्रयत्न करना भी बेहद आवश्यक है। मैं कुछ बिन्दुवार और बेतरतीब सुझाव सामने रखने की हिमाकत करना चाहता हूं-
1. मेरी राय में सबसे बड़ी जिम्मेदारी हमारे लेखकों, अध्यापकों और अन्य बुद्धिजीवियों पर है। आज का बच्चा जो, कुछ घर में सीखता है उससे कहीं ज्यादा वह बाह्य परिवेश याने स्कूल, कॉलेज, मित्रमण्डली, सिनेमा और टीवी से ग्रहण करता है। इसे ध्यान में रखकर देखना चाहिए कि हमारी पाठ्यपुस्तकें उसे क्या सिखा रही हंै। जरूरी होगा कि पुरुष वर्चस्व को स्थापित करने वाले पाठ हटाए जाएं और उसकी जगह वह सामग्री दी जाए जो आदमी और औरत की समानता को प्रतिष्ठित करती हैं।
2. टीवी सीरियल, सिनेमा व अखबारों में भी उस सामग्री पर रोक लगना लाजिमी है जो पुरुषवादी मानसिकता को बढ़ावा देती व स्त्री को दोयम दर्जे पर खड़ा करती हंै। अभिव्यक्ति की आज़ादी के नाम पर आप कुछ भी लिखें और कुछ भी दिखाएं इस तर्क को बहुत लंबा नहीं खींचना चाहिए। एक पत्रकार होने के नाते मुझे सेंसरशिप की वकालत नहीं करना चाहिए, लेकिन जो सामग्री इन दिनों परोसी जा रही है, उससे स्पष्ट है कि हमारे भीतर स्वविवेक से निर्णय लेने की क्षमता का अभाव हो चला है।
3. यह जाहिर है कि अधिकतर साहित्य पुरुषों द्वारा रचा गया है। भारत के जिस मूर्तिशिल्प का इतना बखान होता है वह भी पुरुषों ने ही उकेरा है। हमें यह सच्चाई स्वीकार कर लेना चाहिए कि अतीत में विलासी राजाओं के आदेश से ये रचनाएं हुई थीं। हरिमोहन झा के खट्टर काका श्रृंखला के निबंधों में इसका प्रमाण मिलता है। जो है उसे मिटाने की बात तो नहीं है, लेकिन यह तो हम मानें कि देहराग की ये कृतियां सृजन क्षमता का नहीं, बल्कि भोगवादी मानसिकता का उत्स हंै।
4. जो भी पाठ्यपुस्तकें लिखी जाएं, जो सीरियल व फिल्में बनें उनका परीक्षण करने के लिए बनी कमेटियों में स्त्रियों का समुचित प्रतिनिधित्व होना चाहिए।
5. एडवरटाइजिंग स्टैण्डर्स कौंसिल ऑफ इंडिया जैसी संस्थाओं में विज्ञापनों के परीक्षण के लिए बनी समितियों में महिलाओं को समुचित स्थान दिया जाए। ये समितियां शिकायत मिलने पर नहीं, बल्कि खुद संज्ञान लेकर परीक्षण करें।
6. यदि सीरियल लेखक, गीतकार, संवाद लेखक, विज्ञापन लेखक, हास्य कवि और पत्रकार तय कर लें कि उन्हें स्त्री का अपमान करने वाली बातें नहीं लिखना है और इसके लिए अपनी कलम नहीं बेचेेंगे तो वे भूखे नहीं मर जाएंगे।
7. भारत में साल में 365 दिन औरतों के लिए किसी न किसी उपवास का प्रावधान रहता है। यह पिता, पति और पुत्र का दायित्व है कि वह इसके खिलाफ आवाज उठाए।  जिस समाज में औरत के लिए एक जन्म भारी पड़ता है वहां सात जन्मों तक वही पति पाने की मनौती क्यों मानी जाए? मेरी राय में करवा चौथ, तीज, छठ जैसे पर्वों का स्वरूप बदल देना चाहिए।
8. जहां तक कानून व्यवस्था की बात है, सिपाहियों को उनकी ट्रेनिंग के दौरान सबसे पहले यही सिखाया जाना चाहिए कि वे स्त्री जाति व वंचित समूहों का सम्मान करना सीखें व उसके साथ अदब के साथ पेश आए। उन्हें संवेदनशील बनाने के लिए तत्काल बड़े पैमाने पर विशेष प्रशिक्षण आयोजित किए जाएं।
9. जिस तरह मायावती ने घोषणा की है कि वे किसी बलात्कारी को आगे टिकट नहीं देंगी उसी तरह सारे राजनीतिक दल शपथ लें कि स्त्रियों के अपमान के किसी भी आरोपियों को कोई भी पद नहीं दिया जाएगा।
10. राजनीतिक दलों को अपने संसद सदस्यों से लेकर ग्राम स्तर तक के कार्यकर्ताओं तक के लिए प्रशिक्षण आयोजन करना चाहिए जहां उन्हें रुढि़वादी, ओछी, पूर्वाग्रह से ग्रस्त मानसिकता से मुक्त होने का पाठ पढ़ाने के साथ तमीज़ से बात करना भी सिखाया जाए।

देशबंधु में 17 जनवरी 2013 को प्रकाशित 


The Role Of Editor In Contemporary Media


                          





My father, the late Shri Mayaram Surjan, a pioneer of value-based Hindi journalism in post-independence India, fondly used to say that our prestige is auctioned just for 25 paise everyday (hamaree izzat 25 paise mein roz neelam hotee hai). It was the cover price of the newspaper in those days and what he meant was that once a paper has been sold, it becomes the property of the buyer and s/he is free to pass a judgment on that day’s production. I have narrated this little story to bring home the point that media is a complex business. It’s not a solo performance but requires close coordination at several levels and utmost care has to be exercised at every step before the paper hits the stands. The same holds true about the electronic media. The reader, viewer, listener demands credible output in return of the subscription paid by him/her and if you look carefully at the structure of a media establishment, you will find that there is only one person in that system who can relate to the outside world and who in the public eye has the capability to fulfill this requirement. Once upon a time that person was known as the Editor with a capital E.

Why the editor? Why no one else? What were his qualifications? What was his remit? What was his authority? How did he connect with the readers? What was his role in coordination? Several questions crop up. The answer in one word is that the editor used to be the guiding spirit of a newspaper. In the days of the yore, the newspaper business had two clear-cut compartments- editorial and management. The owner or his nominee would look after the finances, advertisement, circulation, shop floor and so on. Yes, the editor was also appointed by the owner, but he was not supposed to report to the manager. Rather, he was much above the manager and had direct access to the owner. In fact, the editor enjoyed much greater esteem in the eyes of the general public and the owner quite often remained in the background. Then, there was another kind of establishment where the editor himself was the owner of the paper, howsoever small it may be. In both the cases, the editor enjoyed this exalted position due to his knowledge, experience, leadership, grasp of language, and understanding of issues, decision-making ability, fearlessness, sagacity and many other qualities.

It is not hard to realise that while the owner invested the money, procured material and machinery, built up circulation network, solicited advertisements- it had no direct bearing upon the general public or readership. On the other hand, what the editor did was clearly and visibly reflected in the newspaper- the selection of news, its placement, drafting, layout and so on. One may say that it was the editor who shaped the identity of a newspaper, turned a sheet of newsprint into a vehicle of information, ideas and interpretation. What was true yesterday is equally true today. What is relevant for a paper is relevant for a channel as well. One, who ignores the truth, does so not only at ones own peril, but also at a great cost to the democratic society and the very idea of democracy. I must add that at one hand, media is an essential tool for strengthening democracy and on the other side; it can healthily grow only in a democratic environment. Therefore, any devious intervention puts both in danger. The diminishing role of editor is one such unwelcome plot.

There has been much talk in the recent days about the degradation of the institution of editor in the print media. Most of it is true, has been said with pious intent and has a touch of nostalgia about the days when press was a mission and not commerce, but in the process, we have somehow failed to the see the larger picture. The print media once dominated the whole spectrum, but over the last few decades bit-by-bit the media scene in India has gone under complete transformation; and today a sizeable part of that space has been taken over by news channels and social media sites. I hold that the role of editor is similarly important in the electronic sphere as well, though it is seldom discussed. It might be due to the fact that a) most critics and analysts come from the print media fraternity and b) on the whole the role of electronic media is still in want of critical assessment. Then there is this all-important fact about changing ownership pattern in the media industry that has a huge bearing upon the issue under discussion.   We also need to factor in the impact on Indian media of the changes in global political economy and media as part of it.

I read some fifty years ago an autobiographical book titled “ I bought a newspaper” written by a British journalist Claude Morris. Morris narrated his life story as to how he came to acquire a small newspaper in a county in Wales and with the support of the cross-section of the local community turned it into a vibrant tool for social action and mirror of public aspirations. This started changing in the 1960s with the arrival of Roy Herbert Thomson (later Lord Thomson of the Fleet Street) on the media scene, who once defined the news as something tucked between advertisements in a paper. His place has been taken over by Rupert Murdoch and his family. The difference between Morris and Thomson or Murdoch is evident. For the former journalism was his calling, a sacred duty to the society, for the later it was all about wielding power and minting money. Morris was a journalist whereas Thomson and Murdoch hired journalists as wage labourers. This transformation of media took place side-by-side with the similar paradigm shift in the political economy that reached its pinnacle during the Thatcher-Reagan years.

The corporate India didn’t lag behind in emulating the trend set by its role models. The mighty Times Of India group was the first to diminish and demolish the institute of the editors. Many others followed the suit. The compartments were broken, owners became editors without any qualification needed for the task, and their names started appearing in the print line. In some cases, the name of the editor altogether disappeared. However, the story doesn’t end here. Perhaps, in order to establish their credentials, they also took on publishing newspaper articles under their bylines, which were in fact, penned by ghostwriters. But this charade reached its height in the late-eighties, when on several occasions, these newspaper barons managed to steal the opportunity, at the expense of the working journalists, to join the press party of the prime minister on his foreign visits. On each occasion, before flying out the master shamelessly left instructions to the staff to publish the stories from abroad filed by the wire service under his name. To be sure, this was not new to Indian press. Some fifteen years before this, veteran journalist and founder-secretary of IFWJ, Jagdish Prasad Chaturvedi was told by his employer to forego a foreign trip with the prime minister in favour of the employer’s son. This was a rare incident for those times and Shri Chaturvedi taking exception to this demand immediately resigned from the newspaper without giving a thought to his future.  Sadly enough, what was an aberration has become the order of the day and most journalists, unlike Shri Chaturvedi, seem to be averse to take any risk. In the current atmosphere, many remain clung to lucrative package offered to them and have no compunction in becoming willing partners in this game of media corporatisation. The story of page-3, paid news, response features and other marketing gimmicks is all too well known and I will not waste your time on that. In stead, let us focus our eyes on the electronic media.

The situation seems to be different here, but only at the surface; the underlying reality remains the same. The editors of news channels very regularly appear on the screen, particularly during the prime time or when there is a ‘hot story’. They wear the holier than thou attitude on their sleeves and with certain smugness promise to change the things. They tend to blast any small event out of proportion, try their best to sell it as an epoch making one and once it fizzles out, slip out to cash upon some other event. They present themselves as the prosecutor, police, judge and the witness- all rolled into one, and lambaste the democratic polity. Why? What public good is served in this way? The fact is that they are doing what their masters have ordered them to do. In the USA, the corporate houses largely control politics. Their Indian counterparts are also trying to achieve the same here.

I am tempted to compare this phenomenon with a similar trait in the film industry. The financier dictates the term and the director has no alternative but to follow the orders. A manifestation of this can be seen in a bizarre thing called an ‘Item Song.’ One may cite the differences between a news channel and a film, but they cause greater worry in my mind. The active life of a film is not more than a few weeks and hardly has a permanent impression on the viewers psyche; whereas the news channel is there day in and day out with the editor or anchor harping repeatedly and relentlessly upon the same topic. Secondly, in a film, the director is never face-to-face with the audience as the channel editor does. Therefore he is able to wield greater influence on the news watcher. Thirdly, a film is often a fantasy presented as fantasy, but TV news is offered as an undeniable reality. This has led me to believe that our 24x7 news channels are doing a grave disservice to the nation, but there seems to be no stopping in sight.

Let us now talk a little about the Internet and the new media that comes in two varieties- 1) individual messaging and 2) group messaging. It is rather impossible to check or edit what is posted on individual sites. The postings are mostly of juvenile kind and need not concern us. Yet, the possibility of socially harmful messaging is always there, but at least I don’t know if there is any remedy for it. We leave it for the present and go to group sites. I myself subscribe to a number of such groups that carry discussions on the topics of my interest. But I feel that many of these sites have no adequate editing or moderating mechanism, although they were promoted and run by experienced journalists. These sites soon turn out to be free for all and the basic object of setting up the facility is soon lost in a haze. It is unfortunate because the Internet has a potential to provide an alternative media, which in turn has the potential of becoming vox populi. So even in this case, the need for an editor can’t be over emphasized.

 I have witnessed the erosion of the institute of the editor over the last four decades or so. There used to be an All India Newspaper Editors Conference. It is defunct now. Its offshoot grew in the avatar of Editors Guild of India. It has also become non-functional. Another fine organisation called Press Institute of India, too, has been left to die a slow death. The trade unions like IFWJ and others have also lost their vigour. Then, there is a big number of journalism training schools in the country; all painting a rosy and glamorous picture about the future but I do not know if anyone of them is honest enough to tell the bitter truth that whatever is being taught in the classroom has no relevance in the outside world and their sole purpose is to prepare wage slaves for the corporate driven media industry. 

This is a dismal picture and doesn’t bode well for the future. An instrument of media without an editor is like a ship without a captain at the helm that is certain to go adrift, sooner rather than later. A media baron may invest enormous sums on packaging his ‘product’ and be successful in creating a ‘brand’ but what does it mean to the society? A newspaper with constant infusion of funds can achieve astronomical growth in circulation and a news channel highest possible ratings, but if the content is rotten inside the beautiful wrappings than it is tantamount to a scam. The primary objective of media is to present the current events in a way that helps people in becoming more cognizant about their life and enables to take decisions based upon such understanding. But what is happening today is that media houses have turned into event management outfits providing cheap entertainment. As regards editors, I may give two examples- one is a chief editor of a big newspaper and other a channel anchor once known for his arrogant manners: both now travel around the country and tell juicy stories on culinary delights offered at five star hotels and roadside dhabas. This is what corporate chiefs have reduced them to. 

This brings us to the million-dollar question- what should be done to reverse the situation. I should not claim to have a ready answer; yet, I venture to offer a couple of suggestions that might be useful in this direction. The first is that the journalistic fraternity comes together, pools its resources, forms cooperative societies and launches its own newspapers and channels. This will require at least some, if not all, eminent journalists to say good-bye to corporate media houses and lead from the front: much like what Dr Verghese Kurien did in Amul or what the employees of the erstwhile Indian Coffee Board did to take over Indian Coffee Houses. If such step is taken then I am sure a huge number of public-spirited citizens will also come forward to support the cause of independent media in the country. The second suggestion does not need such drastic action. A group of journalists while continuing to work with corporate media houses may set aside a certain amount of their income to build up alternative media like a weekly paper or a wall paper or at least an internet site. The thrust of these suggestions is that the journalists alone have the find the answer and they must take up the challenge. Obviously, The issue is much larger and deep-rooted and has to be understood in that way. Else, one should not moan and grumble about the victimization of the editor.


Talk delivered at Indian Institute of Mass Communication, Dhenkanal, Odisha on 15th January 2013 


Thursday 10 January 2013

नया साल : कैलेण्डर, डायरी और कार्ड




मुझे
 पचास-साठ साल पहले के वे दिन याद आते हैं, जब नया साल लगते न लगते बाजार में कैलेण्डरों की बहार आ जाती थी। अपने मुहल्ले के किराना दूकानदार से एक पन्ने वाला बड़ा सा कैलेण्डर मिलना तो तय रहता ही था। उसमें अमूमन किसी देवी-देवता का चित्र छपा होता था। दूकानदार को ये कैलेण्डर तेल या साबुन वाली कम्पनी के द्वारा भेजे जाते थे। ऐसे कैलेण्डर सबसे अधिक प्रचलन में होते थे। उनसे कुछ ऊपर का दर्जा उनका होता था जिसमें राजा रविवर्मा या फिर उस दौर के चित्रकार मुलगांवकर की बनाई तस्वीर होती थी, लेकिन उनसे भी ज्यादा मांग ज्यादा पन्नों वाले उस कैलेण्डर की होती थी, जिसमें जे.पी. सिंघल की स्त्री मॉडलों को लेकर बनाए गए मादक चित्र होते थे। इन कैलेण्डरों में कलात्मकता तो कुछ खास नहीं होती थी, लेकिन किसी भी औसत घर में प्रवेश करते साथ ही ऐसे कैलेण्डर दीवार पर टंगे नज़र आते थे।

हमें बचपन में जब सौदा-सुलफ लाने के लिए दूकान में जाना होता था तब घर से यह हिदायत मिलती थी कि नए साल का कैलेण्डर मांगना मत भूलना। उन दिनों मर्फी रेडियो का कैलेण्डर बहुत लोकप्रिय हो गया था, उसमें गाल पर उंगली रखे एक सलोने से बच्चे की तस्वीर सहज ही मन मोह लेती थी। एक अन्य कैलेण्डर जिसकी मुझे याद है वह भोपाल की एक दूकान अमर अलाइड एजेंसी ने छपवाया था, जिस पर तीन बिल्लियों की तस्वीर थी। इन सामान्य कैलेण्डरों के अलावा कंपनियां विशिष्ट ग्राहकों व विशिष्टजनों को देने के लिए महंगे व खूबसूरत छह पन्ने या बारह पन्ने वाले कैलेण्डर भी छपवाती थीं: जिसे ऐसा कैलेण्डर मिल जाए मानो उसने कोई किला फतह कर लिया। उन दिनों जब अपनी हैसियत जतलाने के लिए बहुत अधिक साधन उपलब्ध नहीं थे तब बैठक की दीवार पर टंगा कैलेण्डर ही विशिष्ट होने के गर्व से भर देता था।

किसी साल एयर इंडिया ने विभिन्न नृत्य मुद्राओं के छायाचित्रों वाला एक बेहद खूबसूरत कैलेण्डर निकाला था। ऐसे और भी सुन्दर कैलेण्डर समय-समय पर देखने मिले, जिनकी तस्वीरों को मढ़वाकर सुरक्षित रखने का मन हो जाता था।  इस बीच डायरियों  का चलन भी बढ़ा।  इन डायरियों में भी कल्पनाशीलता और कलाप्रियता के एक से बढ़कर एक नमूने देखने मिले। अखबार का दफ्तर होने के कारण मेरे टेबल पर हर साल दर्जनों डायरी अब भी आती हैं, लेकिन यह समझ नहीं आता कि इन सबका एक साथ उपयोग कैसे किया जाए! बहुत सी डायरियां तो सहकर्मियों और मित्रों के बीच बांटने के काम आ जाती हैं, लेकिन जिसके आवरण पर अपना नाम छपकर आया है वह किसे दूं!

बाबूजी भेंट में डायरी मिलने का इंतजार करने के बजाय नया साल शुरू होने के पहले ही गांधी डायरी खरीदकर ले आया करते थे। इस तीन सौ पैंसठ पृष्ठों की दैनंदिनी में तीज-त्यौहार, उत्सव, पर्व, विक्रम, शक, हिजरी तिथि और अंग्रेजी संवत की तिथि-मिति के अलावा गांधीजी के वचन भी प्रकाशित होते हैं। बाबूजी नियमत: रात को सोने से पहले डायरी लिखा करते थे और उन्हें गांधी डायरी ही सबसे अच्छी जान पड़ती थी। देशबन्धु के संपादकीय विभाग में भी गांधी डायरी का इस्तेमाल लंबे समय से हो रहा है। उससे पता चल जाता है कि कब किस महापुरुष की जयंती अथवा कौन सा पर्व आने वाला है। मैं स्वयं अपने लिए दुर्ग निवासी मित्र इंदर जोतवानी द्वारा भेंट की गई चौबीस पृष्ठ की बेहद पतली सी डायरी का इस्तेमाल करता हूं, जिसमें यात्रा और बैठकों के कार्यक्रम नोट हो सकें।

कैलेण्डर और डायरी के अलावा नए साल पर एक और चलन लंबे समय से रहा है- शुभकामना पत्र या ग्रीटिंग्स कार्ड भेजने का। यूं दीपावली पर कार्ड भेजना कहीं ज्यादा प्रचलित था। अब धीरे-धीरे दीपावली और नववर्ष दोनों पर ही कार्ड भेजने में कमी आ रही है। पहले जब डाकघर से दिन में तीन बार डाक बंटती थी तब कार्ड अवसर के दो चार दिन आगे-पीछे मिल ही जाते थे। फिलहाल स्थिति यह है कि दीवाली तो नवम्बर में मन गई, कार्ड जनवरी में लोगों को मिल रहे हैं। मैं इसमें डाकघर को दोषी नहीं मानता। जब विभाग में पर्याप्त संख्या में कर्मचारी नहीं होंगे, चलती डाकगाड़ी में छंटाई का काम बंद होगा तब यह होना ही है। डाकघर वाले भी जानते हैं कि अब संदेशों के आदान-प्रदान के लिए उनकी भूमिका गौण हो चली है।

ठीक भी है। किसी युग में कबूतरों से चिट्ठियां भेजी जाती थीं। तकनीकी के विकास के साथ-साथ व्यवस्था में परिवर्तन आना ही थे। अब एसएमएस, एमएमएस, ई-मेल, फेसबुक वगैरह-वगैरह का जमाना है, लेकिन मेरे जैसे व्यक्ति के लिए इसमें भी तकलीफ का सामान है। 31 दिसम्बर की सुबह से जो एसएमएस आना शुरू हुए तो अगले छत्तीस घंटों तक तो अबाध गति से और फिर रुक-रुककर न जाने कितने संदेसे आए होंगे। यूं तो खुश होने की बात है कि आपका भला चाहने वाले इतने सारे लोग दुनिया में हैं, लेकिन मैं उन्हें कैसे बताऊं कि मैं भी उनका उतना ही भला चाहता हूं! संदेश तैयार करो, फिर फोनबुक में जाकर एक-एक को या समूह में भेजो, यह भारी तवालत का काम है। यही स्थिति ई-मेल से प्राप्त संदेशों की भी है।

ऐसे में लगता है कि कार्ड भेजना ही बेहतर उपाय था। मैं महंगे कार्ड का इस्तेमाल नहीं करता और बीसेक सालों से दीपावली अथवा जनवरी के बजाय फरवरी में एक साधारण से पन्ने पर छपी हिन्दी और अंग्रेजी की एक-एक कविता शुभकामना संदेश के रूप में प्रेषित करते रहा हूं। इसमें पैसे की बचत भी है, सामने वाले को एक अच्छी रचना भी पढ़ने मिलती है और आराम से पढ़ने का समय भी मिलता है। मुझे देखकर अच्छा लगता है कि इन दिनों बहुत से मित्र नववर्ष पर अपने शुभकामना पत्रों में हिन्दी कविता छापने लगे हैं। मेरे अग्रज बंधु रायपुर के वरिष्ठ वकील जे.एन. ठाकुर ने तो इस साल अपने कार्ड में शिवरीनारायण मठ के माखन कटोरी वृक्ष (फाइकस कृष्णी) की खूबसूरत पत्ती का चित्र छापा है। 

मुझे यह देखकर भी अच्छा लग रहा है कि देश का जनसामान्य नववर्ष का स्वागत अकुंठित मन से करने लगता है।  पिछले साल एक जनवरी को रविवार था और उस दिन रायगढ़ से लौटते हुए महानदी तट पर चन्द्रहासिनी के मंदिर में नववर्ष पर प्रार्थना करने के लिए उमड़े भारी हुजूम को मैंने देखा था। इस बार भी मालूम हुआ कि सुबह-सुबह लोग मंदिर-मस्जिद में नववर्ष पर प्रार्थना करने गए। इसमें उस भारतीय परम्परा का विकास दिखाई देता है, जो उदारवादी, बहुलतावादी है और जो अच्छा लगता है, उसे अपनाने में संकोच नहीं है। यह उन धार्मिक पुनरुत्थानवादियों के लिए एक माकूल जवाब भी है जो नववर्ष को विदेशी संस्कृति कहकर उसका बहिष्कार करने का आह्वान करते हैं।

बहुत से लोग नववर्ष को खास तरीके से मनाने के लिए सैरगाहों पर जाते हैं। जब वीआईपी ऐसा करते हैं तो खबर बनती है। राजीव गांधी का नववर्ष इसीलिए हमेशा चर्चा में रहता था। इस वर्ष राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, कांग्रेस अध्यक्ष, छत्तीसगढ़ के रायपाल जैसे विशिष्टजनों ने दिल्ली के जघन्य सामूहिक बलात्कार कांड की परछांई में नववर्ष नहीं मनाया। आश्चर्य इस बात पर हुआ कि भारतीय संस्कृति के अनेक रक्षकों ने इस बारे में कोई परहेज नहीं किया।

देशबंधु में 10 जनवरी 2013 को प्रकाशित 

Thursday 3 January 2013

यात्रा वृत्तांत : दूसरी चीन यात्रा : कुछ नए अनुभव-2



मैं 9 दिसम्बर की रात को दिल्ली से शंघाई के लिए रवाना हुआ था। चाइना ईस्टर्न एयरलाइन्स की इस उड़ान में सहसा मेरा ध्यान इस ओर गया कि लगभग आधे यात्री भारतीय और लगभग उतने ही चीनी थे। कुछेक यात्री अन्य देशों के भी थे। एक सप्ताह बाद स्वदेश लौटते हुए भी यही नजारा पेश आया। यूं तो इसमें हैरानी की कोई बात नहीं थी लेकिन इससे दो-एक बातें समझ आईं। भारत और चीन के बीच आज पचास साल बाद भी रिश्ते सामान्य नहीं हैं। 1962 के कड़वे अनुभव के बाद चीन पर एकाएक विश्वास करने का मन नहीं होता। टीवी चैनलों पर बीच-बीच में जो खबरें आती हैं वे आशंकाओं को बढ़ाने का काम भी करती हैं। इसके बावजूद अगर प्रतिदिन बडी संख्या में भारतीय नागरिक चीन आ-जा रहे हैं तो इसका मतलब है कि चीन के साथ हमारे नागरिक संबंधों में गति आई है। 

मैं जिस दिन रवाना हो रहा था, उसी दिन एक मित्र ने बताया कि शंघाई में अब बड़ी संख्या में ऐसे रेस्तोरां खुल गए हैं जिनमें भारतीय भोजन मिलता है। अन्य व्यापारिक नगरों में भी यही स्थिति है। लौटते समय मैंने यह भी देखा कि दिल्ली का ही कोई युवा व्यवसायी अपने वृध्द माता-पिता को चीन की सैर करवाकर लौट रहा था। याने स्थितियां इतनी असहज नहीं हैं जितनी कि हमारी धारणा बन गई है। चीनी नागरिकों का भी प्रतिदिन बड़ी संख्या में भारत आना इस बात का प्रमाण है कि देश में उद्योग और तकनीकी के क्षेत्र में चीन की भूमिका बढ़ रही है। एक समय हमारे सार्वजनिक उद्यमों में रूस के इंजीनियर आते थे, अब निजी क्षेत्र के कारखानों में हम चीन के तकनीकी ज्ञान का लाभ ले रहे हैं। यह मजे की बात थी कि दोनों देशों के यात्रियों में ज्यादातर  युवा ही थे और लगभग सभी उद्योग व्यापार से जुड़े हुए थे।

इसके पहले लेख में मैंने माओ त्से तुंग की समाधि हटाने पर चल रहे विचार का जिक्र किया था। यह तो तय है कि चीन में उनसे बड़ा कोई नेता नहीं हुआ और वे ही वहां के राष्ट्रनायक माने जाते हैं, लेकिन हमारे यहां जिस तरह विदेशी अतिथि को राजघाट ले जाना एक तरह से अनिवार्य माना जाता है, वैसा कुछ चीन में नहीं होता। यदि कोई आग्रह करे तभी माओ की समाधि पर जाना हो पाता है अन्यथा चीनी अधिकारी अपनी ओर से कोई उत्सुकता नहीं दिखाते। यह तब जबकि आज भी हजारों की संख्या में चीनी नागरिक प्रतिदिन माओ को श्रध्दांजलि देने के लिए आते हैं। मैंने देखा कि भीषण ठंड और बर्फ जमा होने के बावजूद सुबह नौ बजे से सैकड़ों सामान्यजन समाधि के बाहर दर्शन के लिए कतार लगाए खड़े थे।

चीन के सामाजिक जीवन का एक पहलू यह भी देखने में आया कि साम्यवादी देश होने के बावजूद व्यापार करने के नुस्खे, टोटके और लटके-झटके उन्हें खूब आते हैं। बीजिंग में माओ की समाधि पर ही आप एक प्रवेश द्वार से भीतर जाते हैं और दूसरे द्वार से बाहर निकलते ही आपके सामने उसी परिसर के भीतर बाजार सजा नजर आता है। मुख्य इमारत की सीढ़ियों से नीचे उतरते साथ दोनों तरफ कोई दो दर्जन दूकानें हैं, जिनमें माओ के फोटो वाली सामग्री बिकती हैं। फिर वह चाहे बालों में लगाने की क्लिप हो, चाहे पैन, चाहे अंगूठी या लॉकेट। फोटो तो इस तरह बिकते हैं जैसे मंदिर के बाहर देवी-देवताओं के चित्र।

शंघाई के टीवी टॉवर में बाजार की यह माया और नंफासत के साथ देखने मिली। सबसे ऊपरी मंजिल पर तो दूकानें हैं ही, फिर उसके नीचे की मंजिल पर भी और जब वहां से आप नीचे उतरते हैं तो उस मंजिल पर रुकना ही पड़ता है जहां बच्चों के लिए खिलौना कार, खिलौना रेलगाड़ी आदि की सवारी के आकर्षण स्थापित हैं। इसके बाद लिफ्ट आपको नीचे लाती है तो एक गोलबाजार सा आपके सामने खुल जाता है। अगर छोटे बच्चे साथ हों तो आप बिना खरीदारी किए वहां से निकल ही नहीं सकते। अगर जेब में भरपूर पैसा है तब भी यही होना है। बीजिंग और शंघाई में ऐसे बाजार भी हैं जहां अकल्पनीय ढंग से मोल-भाव होता है। दूकानदार किसी वस्तु का मूल्य बताएगा एक हजार युआन। ग्राहक अनुभवी हुआ तो बीस युआन से सौदेबाजी शुरु कर सकता है और संभव है कि एक सौ पर सौदा पट जाए। जिन्हें मोलभाव करना नहीं आता, वे पांच सौ भी खुशी-खुशी दे देते हैं।

देखा जा सकता है कि चीन ने समाजवाद और पूंजीवाद के बीच अर्थव्यवस्था का एक अलग ही मॉडल विकसित कर लिया है। बड़े शहर तो यही संकेत देते हैं। गांवों की स्थिति क्या है यह मैं नहीं जानता। चीन की राजनीति में धीरे-धीरे कर जो परिवर्तन आ रहे हैं उसका एक प्रभाव मुझे बीजिंग के अपने एक होटल में देखने मिला। इस चार सितारा होटल का संचालन उनके विदेश मंत्रालय द्वारा किया जाता है। यहां भोजन कक्ष में तीनों समय बूफे में मुस्लिम भोजन उसी तरह अलग से मिलता है जिस तरह हमारे यहां बिना लहसुन-प्याज का जैन भोजन। यह शायद इसलिए कि इस बड़े देश में उत्तर-पश्चिम में सिक्यांग नामक मुस्लिम बहुल प्रांत भी है और अन्यत्र कहीं न सही सरकार द्वारा संचालित होटल में तो अल्प संख्यक समुदाय की भावनाओं का आदर देखने मिल ही रहा था।

यह हम लंबे समय से सुनते आए हैं कि चीनियों के लिए कुछ भी अखाद्य नहीं है, वे तैरने वाले, उड़ने वाले, चलने वाले किसी भी जन्तु को अपना आहार बना सकते हैं। यह धारणा सही तो है, लेकिन अधूरी है। चीनी भोजन में मांसाहार अनिवार्य है, लेकिन उनके भोजन में सामिष और निरामिष की मात्रा लगभग बराबर होती है। वे चावल, नूडल्स, तोफू (सोयाबीन का दही) के अलावा हर तरह की साग-सब्जी और फल खाते हैं। यह बात अलग है कि उनकी व्यंजन विधि हमसे बहुत अलग है और इसलिए जो प्रामाणिक चीनी भोजन है वह हमें बहुत नहीं रुचता। मुस्लिम भोजन के नाम पर वे जो व्यंजन परोसते हैं वे लगभग वैसे ही हैं जैसे मध्य एशिया में जिनसे कि हमारी भोजन शैली काफी हद तक प्रभावित है।

चीन में सिगरेट खूब पी जाती है और वे भी देसी ब्रांड की।  किंतु मुझे अनुमान हुआ कि वहां मदिरापान बहुत ज्यादा प्रचलित नहीं है या उसे प्रोत्साहित नहीं किया जाता। भोजन की टेबल पर हमसे पूछा जाता था कि आप कौन सा सॉफ्ट ड्रिंक लेना पसंद करेंगे। मेजबान आपकी बीयर का बिल भले ही चुका दे, उसके ऊपर कुछ और पीना है तो अपनी जेब हल्की कीजिए।  जिन 3-4 औपचारिक भोजों में हमें आमंत्रित किया गया, वहां भी देसी ''व्हाइट वाइन'' या '' रेड वाइन'' तक मामला सीमित था। वाइन शब्द से फ्रांस या इटली की नफीस अंगूरी मदिरा का चित्र उभरता है, लेकिन चीन की व्हाइट वाइन का स्वाद ठर्रे से बेहतर नहीं था। बाज़ार में भी मदिरा की दूकानें कम ही देखने आईं।

और अंत में एक रोचक प्रसंग! शंघाई में नदी तट के पास नए गगनचुंबी भवन बन रहे हैं। इनमें किनके ऑफिस हैं, यहां कौन काम करते या रहते हैं, पूछने पर उत्तर मिला कि यह ''गोल्डन कॉलर'' वालों का इलाका है। अब तक हमने ''ब्लू कॉलर'' याने श्रमिक वर्ग और ''व्हाइट कॉलर'' अर्थात सफेदपोश लोगों के बारे में सुना था। चीन में वित्तीय प्रबंधक, विश्लेषक, बैंक मैनेजर और मोटी तनख्वाह वाले अन्य जनों को ''गोल्डन कॉलर'' का विशेषण मिल गया है।  इनका वेतन दस हजार युआन प्रतिमाह से अधिक होता है जबकि औसत वेतन तीन हजार युआन के आसपास है। यह चीन की बदलती सच्चाई है।

देशबंधु में 04 जनवरी 2013 को प्रकाशित