Wednesday 28 August 2013

भारत : बुजुर्गों का ख्याल

सुबह-सुबह फोन की घंटी बजी। 
 ''कहां हैं आप? रायपुर में ही हैं?''
 ''हां यहीं हूं, क्या बात है?''
 ''आज 12 बजे एक कार्यक्रम है। आपको अच्छा लगेगा। आ सकेंगे?''
 ''हां, क्यों नहीं। जरूर आऊंगा।''

यह अच्छा संयोग था कि उस रोज पूर्वान्ह में मैं कोई खास व्यस्त नहीं था और इसलिए मित्र के आदेश को मानते हुए उनके बताए कार्यक्रम में शामिल हो सका। यह कार्यक्रम वृध्दजनों या कि वरिष्ठ नागरिकों के हित में पिछले पैंतीस साल से काम कर रही संस्था  ''हेल्प एज'' ने आयोजित किया था। वह इस प्रदेश में अपनी गतिविधियों को विस्तार देना चाहती है। मेरे लिए इस आयोजन में शरीक होने के दो आकर्षण थे। एक तो मैं स्वयं उसी आयु समूह में हूं जिनकी फिक्र उस जैसी संस्थाएं कर रही हैं और दूसरे इस विषय पर कुछ नई जानकारियां हासिल करने का मौका भी हाथ लग रहा है।

छत्तीसगढ़ के राज्यपाल शेखर दत्त इस कार्यक्रम के मुख्य अतिथि थे।  उन्होंने अपने विविध अनुभवों के आधार पर कुछ अच्छी बातें सामने रखीं। उनके अलावा आयोजक संस्था की ओर से भी भारत में वृध्दजनों की स्थिति को लेकर आंकड़ों और तथ्यों के साथ काफी सूचनाएं दी गईं। श्री दत्त ने एक महत्वपूर्ण प्रश्न उठाया कि आज भारत की जनसंख्या में आधे के लगभग याने कोई पचपन करोड़ व्यक्ति युवा हैं। अर्थात् आज की तारीख में भारत एक युवा देश है और इतने बड़े परिमाण में युवाशक्ति विश्व के किसी अन्य देश में नहीं है। लेकिन आज से बीस-पच्चीस साल बाद यही युवा प्रौढ़ता को प्राप्त करेंगे तब उनकी देखभाल कैसे होगी और दूसरी तरफ समाज में उनकी उपस्थिति का लाभ किस रूप में उठाया जा सकेगा? उन्होंने इसके बाद इंग्लैंड आदि के उदाहरण दिए कि वहां वृध्दजनों को समाज में सक्रिय बनाए रखने के लिए क्या उपाय किए गए।

छत्तीसगढ़ के वरिष्ठ मंत्री बृजमोहन अग्रवाल कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे थे। उन्होंने दूसरे सिरे से बात उठाई। श्री अग्रवाल ने भारत में संयुक्त  परिवार प्रथा के बिखरने पर चिंता व्यक्त की और राजनीतिक भाषण के अंदाज में यह कहकर  तालियां बटोरीं कि देश को वृध्दाश्रमों की नहीं, बल्कि घर-परिवार में वृध्दों को सम्मान देने की जरूरत है।  उनकी बात अपील करने वाली थी और एक आदर्शवादी सोच को प्रतिबिंबित कर रही थी। लेकिन क्या आज की जीवन परिस्थितियों में इस सोच को व्यवहारिक धरातल पर उतारना संभव है? यह एक सवाल उन्होंने छोड़ दिया। बहरहाल एक-डेढ़ घंटे के कार्यक्रम में जो चर्चाएं हुईं, उसने मुझे भी इस विषय पर दिमागी घोड़े दौड़ाने के लिए उकसाया।  वहां बैठे-बैठे ही इससे जुड़े बहुत से मुद्दे मन में उमड़ने लगे।

मेरा ध्यान सबसे पहले वृध्दाश्रम की परिकल्पना पर गया। यूरोप-अमेरिका के देशों में नागरिक वृध्दावस्था में एकाकीपन झेलने के लिए अभिशप्त होते हैं, यह मैंने देखा है। वृध्दाश्रम में रहते हुए वे अपनी जमीन से पूरी तरह उखड़ जाते हैं। वे तरसते हैं कि बेटे-बेटी, नाती-पोते उनसे मिलने के लिए आएं। वहां स्काउट और रोटरी क्लब आदि संस्थाएं स्कूल के बच्चों को वृध्दाश्रम ले जाने का कार्यक्रम भी बनाती हैं ताकि उन रहवासियों को कुछ देर के लिए उत्फुल होने का अवसर मिल सके। घंटे दो घंटे के लिए सही उनका सूनापन तो कम हो। अभी चालीस साल पहले तक भारत में ऐसी स्थिति नहीं थी। हम सचमुच अपनी संयुक्त परिवार प्रथा पर अभिमान करते थे, लेकिन वैश्विक  अर्थव्यवस्था में आए बदलावों से हम भी नहीं बच पाए और वह स्थिति आ ही गई जब मां-बाप एक शहर में और बच्चे नौकरी करने के लिए दूसरे शहर में। उन्हें आपस में मिलने के अवसर भी कम होते गए हैं तथा जरूरत पड़े तो बूढ़े लोगों की देखभाल पड़ोसी ही करते हैं। बच्चों को तो काम से छुट्टी ही नहीं मिलती।

ऐसा नहीं कि भारत में वृध्दजनों का शुरू से सम्मान ही होते आया हो। प्रेमचंद ने अपनी 'बेटों वाली विधवा' शीर्षक कहानी में इस कड़वी सच्चाई पर बखूबी प्रकाश डाला है कि पिता की मृत्यु के बाद विधवा मां कैसे उपेक्षित कर दी जाती है। 1961-62 में उषा प्रियंवदा की अत्यन्त प्रसिध्द कथा 'वापसी' में भी यही वर्णन है कि रिटायर्ड पिता को बेटे के घर में सम्मान नहीं है जबकि मां घर के कामकाज में स्वयं को व्यस्त रखकर समझौता कर लेती है। नब्बे के  दशक में रमेश याज्ञिक की मार्मिक कहानी 'दादाजी तुम कब जाओगे' भी ऐसी ही थीम पर है और आज की पीढ़ी को अमिताभ बच्चन और हेमामालिनी की फिल्म 'बागबान' की कहानी याद दिलाने की जरूरत ही नहीं है।

कहना होगा कि वृध्दों का एकाकीपन आज एक अकाटय सत्य है। वृध्दाश्रम एक व्यवहारिक उपाय। देश में जगह-जगह वृध्दाश्रम स्थापित हो गए हैं। पहले तो सरकार ही इन्हें खोलती थी और उसमें शरण लेने वाले ज़्यादातर गरीब या मध्यमवर्गीय व्यक्ति होते थे। उनका संचालन अगर कोई संवेदनशील अधिकारी हुआ तो ठीक वरना आश्रमवासियों को करुण दशा में ही रहना पड़ता था। हाल के बरसों में सुविधा सम्पन्न वृध्दजनों के लिए कुछ ऊंचे स्तर के वृध्दाश्रम बनने लगे हैं, लेकिन जो संस्थाएं इन्हें बनाती और चलाती हैं उनकी सोच रूढ़िवादी और दृष्टि उपकार की भावना से ग्रस्त होती है। यह क्यों जरूरी है कि एक वृध्द को सबेरे-शाम कीर्तन ही करना चाहिए अथवा कि उसका भोजन शाकाहारी और वह भी लौकी-तुरई तक सीमित क्यों होना चाहिए? मतलब यह कि ऐसे आश्रम में वृध्द व्यक्ति आनंदपूर्वक नहीं रह सकता।  इसके अलावा वह अपने खाली समय का उपयोग कैसे करे इसके बारे में भी कोई सोच यहां दिखाई नहीं देती।

मैं समझता हूं कि इस विषय पर हमें नए सिरे से विचार करने की जरूरत है। यह एक तथ्य है कि देश में स्वास्थ्य सेवाओं के विस्तार के चलते औसत आयु में वृध्दि हुई है। आज 70-75 साल की उम्र तक भी नागरिक सक्रियतापूर्वक काम कर सकता है बल्कि 80 और 90 की उम्र में भी सक्रिय रहने वाले व्यक्तियों की समाज में कमी नहीं है। इसे ध्यान में रखकर रिटायरमेंट की वर्तमान आयु 60 से बढ़ाकर 65 कर दी जाए तो इन वयप्राप्त व्यक्तियों को सक्रियता व सम्मान के साथ जीने के कुछ अतिरिक्त वर्ष मिल जाएंगे। डॉ. रमनसिंह ने चुनावी वर्ष में सेवानिवृत्ति की आयु 60 से बढ़ाकर 62 कर दी है, इसका स्वागत है, लेकिन इस बारे में मुकम्मल राष्ट्रीय नीति बनाने की जरूरत है।

साठ पैंसठ की आयु के बाद नागरिकों के समय, अनुभव व शक्ति का उपयोग कैसे हो, यह भी विचारणीय है। उन्हें साक्षर भारत या सर्वशिक्षा अभियान जैसी योजनाओं से जोड़ने में क्या कठिनाई है? भारतीय रेल में स्टेशनों के प्रतीक्षालयों की देखभाल में शारीरिक अशक्तजनों को प्राथमिकता दी जाती है। ऐसे और क्षेत्र हो सकते हैं जहां इसी तर्ज पर वृध्दजनों की सेवाएं ली जा सकें। पर्यटन स्थलों पर बल्कि बड़े नगरों में भी वृध्दजनों के लिए योजना बनाई जा सकती है कि उनके घर में पर्यटकों के लिए 'ब्रेड एंड ब्रेकफास्ट' या 'पेइंग गेस्ट' रखने का इंतजाम हो जाए।  इससे उनका समय भी कटेगा तथा अर्थलाभ भी होगा। भारत सरकार की एक राष्ट्रीय पुस्तक संवर्ध्दन परिषद है। इसके अंतर्गत देश भर में लाइब्रेरियां संचालित होना है। वरिष्ठ नागरिकों को मानदेय पर इन पुस्तकालयों का संचालक बनाया जा सकता है।

कहने की जरूरत नहीं कि ये वरिष्ठ नागरिक अनुभवों के धनी हैं।  इनमें से कुछ के पास लेखन की क्षमता होगी, लेकिन अधिकतर के पास नहीं। क्या विद्यार्थियों के लिए कोई ऐसी व्यवस्था बनाई जा सकती है कि इनके पास जाकर बैठें और इनके अनुभवों को लिपिबध्द करने का काम करें? इस तरह की और बहुत सी योजनाओं के बारे में विचार किया जा सकता है।  इन सबके साथ-साथ यह भी परम आवश्यक है कि इन्हें अपने अधिकारों के प्रति, अपने सम्मान के प्रति सजग किया जाए ताकि कोरी भावनाओं में बहकर इनके जीवन के अंतिम वर्ष नरक में तब्दील न हो जाएं। मुझे वह प्रसंग आज भी बहुत सालता है जब हमारे एक अत्यन्त सम्मानीय बुजुर्ग के लिए उनकी बहू ने दीपावली पर नए कपड़े लाने से इंकार कर दिया क्योंकि वे अपनी संपत्ति की वसीयत इकलौते बेटे के नाम कर चुके थे। दीवाली के दो दिन बाद मेरे दफ्तर में मेरे सामने वे फूट-फूटकर रोए। वह करुण प्रसंग भुलाए नहीं भूलता। भारत सरकार ने बुजुर्गों की सुरक्षा और देखभाल के लिए पर्याप्त कानून प्रावधान कर दिया है। जरूरत पड़ने पर इनका सहारा लेने से बुजुर्गों को हिचकना नहीं चाहिए।

मैं अंत में अपने मित्र को धन्यवाद देता हूं जिनके टेलीफोन पर मिले आमंत्रण के बहाने इस विषय पर सोचने का अवसर मुझे मिला।

देशबंधु में 28 अगस्त 2013 को प्रकाशित 

नवसाम्राज्यवाद, विदेश मोह और लेखक



ऐसा याद पड़ता है कि वह कहानी भीष्म साहनी की ही थी। शीर्षक क्या था, ध्यान नहीं है। कहानी में एक भारतीय महिला पर्यटक का चित्रण है, जो विदेश यात्रा के दौरान इटली में एक खूबसूरत सा पर्स इस लालच में खरीद लेती है कि देश में इम्पोर्टेड  पर्स का रौब जमाया जा सकेगा। दुर्भाग्य कि वापिस आने पर पर्स के भीतर लगा लेबल देखने से पता चलता है कि वह तो मेड इन इंडिया है। यह कहानी लगभग पांच दशक पहले लिखी गई होगी। यह वह दौर था जब भारतवासियों के लिए विदेश यात्रा सहज सुलभ नहीं थी तथा विदेश यात्रा कर लेना अपने आपमें प्रतिष्ठा का पर्याय था। भारत से बाहर जाने पर विदेशी मुद्रा भी सीमित मात्रा में मिलती थी तथा खर्च करते समय एक-एक पाई, पेन्स या सेंट का हिसाब लगाना पड़ता था। इस वजह से विदेशों में भारतीय पर्यटकों को किसी हद तक हिकारत की नजर से भी देखा जाता था। यद्यपि इसके पीछे कुछ दूसरे कारण भी होते थे। 

भीष्म साहनी उन गिने-चुने लेखकों में थे जिन्हें उस दौर में विदेश यात्रा के ही नहीं बल्कि वहां लम्बे समय तक रहने का अवसर भी मिला था। उनके समकालीन दूसरे लेखक निर्मल वर्मा थे जिन्होंने विदेश में लम्बा वक्त गुजारा। निर्मल जी ने तो अपने सुदीर्घ प्रवास की पृष्ठभूमि पर बहुत-सी रचनाएं भी लिखी हैं, लेकिन भीष्म जी की यह उपरोक्त कहानी एक नई भावभूमि को उद्धाटित करती है, जिसके सूत्र मुक्तिबोध की सुप्रसिध्द कहानी ''क्लॉड इथरली'' में पाए जा सकते हैं। दो सौ साल की गुलामी से उबरा देश, एक नए सत्तासम्पन्न, सुविधा सम्पन्न वर्ग का उदय, विदेश और विदेशी वस्तुओं के प्रति आकर्षण, अपने देशज परिवेश के प्रति भर्त्सना का भाव, एक नए किस्म की श्रेष्ठता का दंभ- इनका बयान मुक्तिबोध की कहानी में विस्तार से है और भीष्म जी की कहानी का आधार भी वही है। 

यदि देश में एक नया विदेशोन्मुखी अथवा मुख्यत: पश्चिम से प्रभाव ग्रहण करने वाला वर्ग तैयार हो रहा था, तो लेखक समुदाय भी सात समंदर पार के आकर्षण से अछूता नहीं बचा था। एक बार किसी तरह विदेश यात्रा का मौका मिल जाए, फॉरेन रिटर्न कहला सकें, यह लालसा काफी बलवती थी और इसके लिए कितने सारे लेखक, चाहे जितने पापड़ बेलना पड़े, तैयार रहते थे। यह एक समय विशेष का प्रभाव था कि दबाव जिसके लिए लेखक की ही आलोचना करना न्यायसंगत नहीं होगा। सो उस दौर में कुछ ऐसे ईवेन्ट मैनेजरनुमा लेखक भी हुए जिन्होंने अपने बिरादरी के लोगों की बलवती आकांक्षा को तुष्ट करने के लिए कल्पनाशील प्रयोग किए और किसी न किसी बैनर के तले लेखकों का विदेश यात्रा करना प्रारंभ हुआ। जब वे लौटकर आते तो पता चलता था कि उन्होंने मास्को या वाशिंगटन, न्यूयार्क या लंदन, पेरिस या वारसा में किस तरह से हिन्दी भाषा के झंडे गाड़ दिए हैं। 

सच पूछिए तो यह सिलसिला आज भी चल रहा है। सत्तर के दशक में ईवेन्ट मैनेजमेंट नामक विधा से लोग अपरिचित थे तथा इस तरह की सेवा देने वाले लोगों की प्रशंसा इंतजाम अली कहकर की जाती थी। इधर नई सदी में ईवेन्ट मैनेजमेंट व्यापार प्रबंधन की एक सर्व स्वीकार्य विधा बन चुकी है तथा अब जो इंतजामात होते हैं वे पहले के मुकाबले कहीं ज्यादा सलीके से। ऐसा पता चलता है कि दुनिया के तमाम देश हिन्दी साहित्य का रसास्वाद करने के लिए मानो तड़प रहे हों। अब छोटे-मोटे कार्यक्रम नहीं होते, सीधे-सीधे विश्व सम्मेलन या अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन होते हैं। हमारे मित्र विदेश से लौटकर आते हैं और फिर अपनी यात्रा का जिस भावोच्छ्वास के साथ वर्णन करते हैं वह देखते ही बनता है। प्रकारांतर से वे यह सिध्द करते हैं कि भारत कितना दरिद्र देश है और विदेश में तो स्वर्ग ही स्वर्ग है। 

हमारे ये लेखक मित्र चूंकि अपनी गाढ़ी कमाई में से रकम निकालकर विदेश यात्रा करते हैं इसलिए उन्हें पूरा हक बनता है कि विदेश में व्याप्त स्वर्ग का पूरा आनंद उठाएं। कुछेक अधिक बुध्दिमान लोग सरकारी डेलिगेशनों के सदस्य बनकर यात्राएं करते हैं तो उनके लिए भी कहा जा सकता है कि आखिर पैसा तो अपना ही है। बहरहाल मैंने बात तो एक कहानी से शुरू की थी और उसका सूत्र कहीं और मिलाने जा रहा था कि बीच की इतनी सारी बात अवांतर ही आ गई, जिसे समेटते हुए इतना कह लेने में शायद कोई बुराई नहीं है कि हमारे ''फॉरेन रिटर्न'' लेखकों की रचनाओं से वह अंतर्द्वंद्व लगभग नदारद है जिसका बहुत ही सशक्त चित्रण भीष्म जी की कहानी में देखने मिला था। 

उपरोक्त कहानी के सहसा याद आ जाने के पीछे एक छोटा-सा समाचार है जो अभी दो-तीन दिन पहले किसी अंग्रेजी अखबार में पढ़ने मिला था। इस खबर में बताया गया था कि अब विदेश यात्रा करने वाले भारतीय उदारता के साथ टिप देने लगे हैं ताकि उनके ऊपर लगा कंजूसी का लेबल हट जाए और उन्हें विदेश प्रवास के दौरान हिकारत से न देखा जाए। यह एक दिलचस्प खबर है और कुछेक सवाल उठाती है- आजकल विदेश यात्रा करने वाले भारतीय किस तबके से आते हैं, उनकी आय का स्तर क्या है, देश में रहते हुए उनके लेनदेन का व्यवहार कैसा है, वे विदेश यात्रा पर क्यों जाते हैं और क्या देखते हैं, विदेशी धरती पर उनका आचरण कैसा होता है और वापिस आने के बाद वे समाज में कैसा आचरण करते हैं? इन सबसे बढ़कर यह है कि उदारता से टिप देने के पीछे उनकी मनोभावना क्या होती है। 

एक छोटी सी खबर से उठते इन सवालों को मैं यहां इसलिए सामने रख रहा हूं कि इनसे हमें भारत की एक बदलती हुई तस्वीर देखने में मदद मिलती है और यदि आज भी हमारे बीच कहीं भीष्म साहनी जैसे प्रतिभाशाली लेखक हैं तो उन्हें इन सवालों से अपनी रचनाओं के लिए नए विषय मिल सकते हैं। ऐसे नए विषयों पर रचना की बात इसलिए कि थैचर और रीगन के जमाने से बढ़ते-बढ़ते नवसाम्राज्यवादी ताकतों ने जिस तरह से भारत सहित लगभग समूचे विश्व को अपनी जकड़ में ले लिया है, उस पर हिन्दी जगत में सैध्दांतिक चर्चा तो बहुत हुई है, लेकिन रचनात्मक साहित्य के रूप में उसका प्रकाशन लगभग नहीं के बराबर हुआ है। यदि साहित्य समाज का दर्पण है तो यह कहने की जरूरत नहीं पड़ना चाहिए कि हिन्दी के कवि और कथाकार आज के दौर में अपनी जिम्मेदारी को अपेक्षित गंभीरता से नहीं ले रहे हैं। 

साफ-साफ दिखाई देता है कि पिछले तीस वर्षों के दौरान भारत के आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक ढांचे में बहुत बड़ा बदलाव आया है। एक समय मुंबई की दलाल स्ट्रीट और बॉम्बे स्टॉक एक्सचेंज का हमारे दैनंदिन जीवन में सामान्यत: कोई स्थान नहीं था। आज पूंजी बाजार का सट्टा आर्थिक गतिविधि का एक अहम् हिस्सा बन चुका है। जो बैंगलुरु और हैदराबाद सार्वजनिक क्षेत्र के कारखानों के लिए ख्याति प्राप्त थे, वे आज सिलिकॉन वैली के भारतीय संस्करण में बदल चुके हैं। आईआईटी और आईआईएम की स्थापना इसलिए हुई थी कि इनसे देश के भीतर काम करने के लिए दक्ष इंजीनियर और कुशल व्यापार प्रबंधक तैयार होंगे। यह तब  अनुमान नहीं था कि कैम्पस सिलेक्शन के नाम पर उत्कृष्ट शिक्षा के केन्द्रों को मंदी में बदल दिया जाएगा जहां विदेशी और देशी कंपनियां बोली लगाकर नौजवानों को खरीदेंगी। 

यह भी हम कहां जानते थे कि हॉकी को अपदस्थ कर क्रिकेट भारत का राष्ट्रीय खेल बन जाएगा कि उसमें खिलाड़ियों की खरीद-बिक्री होगी, खिलाड़ी सहर्ष बिकने को तैयार होंगे और यह इसलिए कि अन्य खेलों के बनिस्बत क्रिकेट में विज्ञापन और प्रचार के बेहतर अवसर उपलब्ध हैं। यही क्यों, एक तरफ देश में स्त्री के अधिकारों की बात उठती है, दूसरी तरफ विश्व के टेनिस कोर्टों में महिला खिलाड़ियों का मूल्यांकन उनकी देहयष्टि से किया जाने लगा है और अब तो भारत में बैडमिंटन को भी क्रिकेट की तर्ज पर बाजार के हवाले कर दिया गया है। उधर क्रिकेट व अन्य खेलों में सट्टे को वैध करने की आवाज पुरजोर तरीके से उठाई जा रही है। देश की राजनीति पर गौर करें तो बहुत महीन तरीके से कोशिश चल रही है कि यहां अमेरिकी तर्ज पर राष्ट्रपति शासन प्रणाली लागू कर दी जाए। कार्पोरेट जगत के लिए यह सुविधाजनक है कि एक आदमी पर दांव लगा दे, बजाय इसके कि बड़ी संख्या में चुने गए संसद सदस्यों के साथ सौदेबाजी करना पड़े। जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में इस तरह से आए परिवर्तनों के प्रमाण देखे जा सकते हैं- लेकिन जो बात नहीं बदली है वह यह कि नेता, अफसर, व्यापारी का जो गठबंधन पहले होता था वह आज भी कायम है। पहले यदा-कदा इस तिकड़ी के खिलाफ आवाज् उठाई जा सकती थी, लेकिन आज तो वह भी संभव नहीं है। मीडिया भी उनका है और गुंडे भी उनके। भारत में अगर सबसे सुरक्षित, सबसे अच्छा व्यवसाय कोई है तो वह है गवर्नमेंट सप्लाई का। यह पहले भी था, लेकिन अब इसका अनुपात कई गुना बढ़ चुका है। 

भारत से जो लोग विदेश यात्रा पर जाते हैं उनमें से ज्यादातर इसी वर्ग के लोग होते हैं। सुविधा के लिए इसे हम नवधनाढ्य वर्ग कह सकते हैं, यद्यपि उनके लिए यह संज्ञा अधूरी ही मानी जाएगी। इस वर्ग ने अपनी पहुंच, पहचान और प्रभाव का उपयोग कर अपार संपत्ति बटोरी है। इनके कारखानों, प्रतिष्ठानों में काम कर रहे काबिल लोगों को ऐसे आकर्षक पैकेज मिलते हैं कि वे उनमें बंधकर रह जाते हैं। एक नई आर्थिक संस्कृति विकसित हो गई है जो अंधाधुंध गैर जरूरी सामानों के उत्पादन में लगी है और जिसे खपाने के लिए नए-नए उपाय किए जा रहे हैं। विदेश यात्रा भी इस संस्कृति का ही एक हिस्सा है। यूं तो मनुष्य सृष्टि के प्रारंभ से ही यात्राएं करते रहा है, लेकिन आज का पर्यटन उद्योग एक अलग ही विषय है। मुक्तिबोध की कहानी में स्वतंत्रता के बाद उभरे जिस नए वर्ग का जिक्र हुआ है वही वर्ग अब एक नए तेवर के साथ सामने आ रहा है। इस वर्ग के लोग विदेशों में जाकर वहां के अनुकूल आचरण करते हैं, लेकिन अपनी धरती पर वापिस कदम रखते साथ उनके तौर तरीके बदल जाते हैं। ये विदेशों की बहुत-सी अच्छी बातों की तारीफ तो करते हैं, लेकिन इनके अपने आचरण में उसका लेशमात्र भी नहीं है। ये जब विदेश में उदारतापूर्वक टिप देते हैं तो अपने अहंकार की तुष्टि के लिए कि इन्हें कोई कंजूस न समझ ले। इनके लिए विदेश वैसा ही स्वर्ग है जैसा भीष्म जी की नायिका के लिए था। ये जितना बटोर सके उतना सामान लाने की कोशिश करते हैं। फिर इनकी कोशिश होती है कि कस्टम में घूस देकर सामान निकाल लिया जाए और बाद में फिर यही लोग देश में भ्रष्टाचार को लेकर शिकायत करते हैं। 

नवसाम्राज्यवाद के दौर में यह जो नया समाज तैयार हुआ है इसके वर्गचरित्र का बारीकी से अध्ययन करना समय की आवश्यकता है। हर समर्थ लेखक अपने देशकाल की प्रवृत्तियों का लेखा-जोखा अपनी रचनाओं में करता है। यही उम्मीद आज के लेखक से करना गलत न होगा।

अक्षर पर्व अगस्त 2013 की प्रस्तावना 

Wednesday 21 August 2013

इजिप्त : बिगड़ते हालात



दो साल पहले सोशल मीडिया को माध्यम बनाकर अरब जगत में बसंत का जो स्वप्न देखा गया था वह चकनाचूर हो चुका है। पिछले कुछ दिनों से इजिप्त में सैनिक शासन और अपदस्थ मुस्लिम ब्रदरहुड के बीच भीषण संघर्ष चला हुआ है, जिसमें अब तक कोई सात-आठ सौ लोग मारे जा चुके हैं। जो अध्येता इजिप्त अथवा मध्यपूर्व की राजनीति को जानने का दावा करते हैं वे भी अनुमान लगाने में असमर्थ हैं कि भविष्य क्या होगा?  टयूनीशिया, जहां से 'अरब बसंत' का आगाज् हुआ, वहां हालात अस्थिर बने हुए हैं। यमन और बहरीन में भी आंदोलनकारी जनता सड़कों पर उतरी थी लेकिन कुछ दिनों की हलचल के बाद फिर वही पुरानी स्थिति कायम हो गई। सीरिया में अमेरिका और उसके पिछलग्गू देश बसर-अल-असद को अपदस्थ करने की पुरजोर कोशिशों में लगे हैं, लेकिन कोई सिरा मिलता नज़र नहीं आता। विश्व के एक बड़े भू-भाग में विद्यमान यह वातावरण विश्वशांति की दिशा में एक बड़ी चुनौती के रूप में सामने है।

स्मरणीय है कि 2011 में टयूनीशिया व इजिप्त में मुख्यत: सोशल मीडिया के माध्यम से सत्ता परिवर्तन की मांग उठी थी। इस मांग को देखते ही देखते भारी जनसमर्थन मिला और दोनों देशों में नई सरकारें स्थापित हो गईं। इसमें इजिप्त की ओर राजनीतिक पर्यवेक्षकों का ध्यान विशेषकर गया इसलिए कि एक तरफ अफ्रीकी महाद्वीप और दूसरी तरफ अरब जगत, दोनों में लंबे समय से इजिप्त का विशेष महत्व रहा है। यदि इजिप्त अपने प्राचीन सांस्कृतिक वैभव के लिए जाना जाता है तो दूसरी तरफ स्वेज नहर के माध्यम से वह एशिया और यूरोप के बीच व्यापार सेतु का काम भी करता है। उपनिवेशवाद के दौर की समाप्ति के बाद गुटनिरपेक्ष देशों के आंदोलन में भी उसकी महती भूमिका थी। आज वही देश लहूलुहान हो रहा है।

आज के इजिप्त को देखकर विश्वास नहीं होता कि यह वही देश है जिसकी पुनर्रचना की नींव गमाल अब्दुल नासिर के क्रांतिकारी नेतृत्व में रखी गई थी। इसके लिए एक तरफ अगर पूर्व राष्ट्रपति हुस्नी मुबारक की तीस साल लंबी तानाशाही को दोष दिया जा सकता है तो दूसरी ओर वर्तमान में जो राजनीतिक शक्तियां सक्रिय हैं उनके क्रियाकलापों से भी दूरदर्शिता का परिचय नहीं मिलता। मुबारक के प्रति लंबे समय से जनता के मन में गुस्सा उमड़ रहा था और उन्हें तो एक न एक दिन जाना ही था, लेकिन उनके जाने के बाद देश की राजनीति को एक नई दिशा कैसे दी जाए, इस बारे में कोई विचार ही नहीं किया गया!

यह साफ-साफ दिखाई दे रहा था कि मुबारक के हटने के बाद मुस्लिम ब्रदरहुड का नई ताकत के साथ उभार होगा। इजिप्त में ब्रदरहुड का एक लंबा इतिहास है। वह एक जड़वादी संगठन है और उसे नियंत्रित करने की कोशिशें पिछले सौ साल से चलती रहीं। उसके नेताओं को लंबी जेल यात्राएं करना पड़ी और संगठन को कई बार प्रतिबंधित भी किया गया। हुस्नी मुबारक यूं तो निर्वाचित राष्ट्रपति थे, लेकिन मूलत: वे सेना के जनरल थे और उनके तीस साल के दौरान सेना का खासा दखल प्रशासन में था, इस वजह से आम जनता के बीच वे कभी मन से स्वीकार नहीं किए गए। उनकी अमेरिकापरस्ती भी जनसामान्य के बीच उनकी स्वीकार्यता में आड़े आती थी। उनमें अगर कोई एक गुण था तो यही कि शासन घोषित रूप से धर्मनिरपेक्ष था तथा कॉप्टिक ईसाइयों को, जो कि आबादी का दस प्रतिशत हैं नीतिगत तौर पर सुरक्षा हासिल थी।

उधर मुस्लिम ब्रदरहुड के प्रति जनता में सहानुभूति  इसलिए जागी कि उसके नेता लंबे समय से जेल में बंद थे। इस नाते स्वतंत्र चुनाव का अवसर आने पर उन्हें व्यापक जनसमर्थन मिलना अवश्यम्भावी था। ठीक उस समय दो महत्वपूर्ण बिन्दुओं की अनदेखी कर दी गई। एक तो यह कि इजिप्त का बहुसंख्यक समाज धर्मपरायण भले हो, कट्टरपंथी नहीं है, उसका चरित्र उदारवादी है व राजनीतिक स्तर पर  धर्मनिरपेक्ष है। दूसरे  कि इसको आधार बनाकर एक नया राजनैतिक प्लेटफार्म बनाने पर जो ध्यान दिया जाना था वह नहीं दिया गया। बुतरस-बुतरस घाली, मोहम्मद अलबरदेई और अमरू मूसा जैसे उदारवादी राजनेता किसी दिन होस्नी मुबारक की जगह लेंगे, तथाकथित  'अरब बसंत'  आने के पहले ही इस बारे में इजिप्त में खुलकर चर्चाएं होने लगी थीं। मैंने ऊपर जिन तीन नेताओं के नाम लिए, ये तीनों अंतरराष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त व्यक्ति हैं और बड़े-बड़े ओहदों पर काम कर चुके हैं। इन जैसे अनुभवी नेताओं से यह उम्मीद की जा रही थी कि वे सैन्यतंत्र और धार्मिक जड़वादिता दोनों के विरूध्द एक उदारवादी जनतांत्रिक राजनैतिक विकल्प पेश कर सकेंगे, लेकिन ऐसा नहीं हो सका।

 ध्यातव्य है कि इजिप्त में जब आम चुनाव हुए तब मुस्लिम ब्रदरहुड को जनता की सहानुभूति भले ही मिली हो, अपेक्षित संख्या में वोट नहीं मिले। मुझे अगर ठीक याद है तो मुस्लिम ब्रदरहुड को 30 प्रतिशत से कम ही वोट मिल पाए, जबकि उदारवादी दलों के वोट आपस में बंट गए। दूसरे शब्दों में अगर उदारवादी दलों ने एकजुटता दिखाई होती, वे जनता के बीच गए होते,  एक विश्वसनीय घोषणापत्र और कार्यक्रम पेश किया होता तो मोहम्मद मुर्सी को राष्ट्रपति बनने का मौका न मिला होता।

मुस्लिम ब्रदरहुड और उसके नेता मुर्सी ने भी चुनाव जीतने के बाद राजनीतिक विवेक का अपेक्षित परिचय नहीं दिया। उन्हें लगा कि वे इजिप्त को एक इस्लामी गणतंत्र में रातोंरात तब्दील कर सकते हैं। मुर्सी के संक्षिप्त कार्यकाल में संकीर्ण सांप्रदायिकता को बढ़ावा दिया गया, जिसका शिकार कॉप्टिक ईसाई हुए। सरकार ने नासिर के समय से चली आ रही उदारवादी नीतियों को भी बदलने की कोशिश की। यह रवैया जनता को पसंद नहीं आया तथा मुर्सी के खिलाफ असंतोष का माहौल बनने लगा। सत्ता से वंचित सेना को मानो इसी मौके  की ही तलाश थी।

अब स्थिति यह है कि मुस्लिम ब्रदरहुड मुर्सी की रिहाई और बहाली के लिए उग्र आंदोलन छेड़े हुए है तो सेना बंदूक की गोलियों से उसका मुकाबला करने में लगी है। ऐसे में सेना का यह दावा  निरर्थक हो जाता है कि वह जनतंत्र की बहाली करना चाहता है। इस सैनिक शासन में अलबरदेई ने उपराष्ट्रपति पद संभाल लिया था, लेकिन सेना के साथ मुठभेड़ में बड़े पैमाने पर हुई मौतों के बाद उन्होंने न सिर्फ पद त्याग कर दिया, बल्कि देश छोड़कर भी चले गए।

अभी आगे कोई रास्ता दिखाई नहीं दे रहा है, लेकिन मेरा सोचना यही है कि इजिप्त के उदारवादी तबके को हिम्मत के साथ सामने आकर नेतृत्वकारी भूमिका का परिचय देना चाहिए तभी देश के ऊपर छाया अंधेरा दूर होगा। इसके साथ यह याद रख लेना भी उचित होगा कि सोशल मीडिया से सच्ची क्रांति नहीं होती।

देशबंधु में 22 अगस्त 2013 को प्रकाशित 

Thursday 15 August 2013

अजीत जोगी पर असमंजस



चार हिन्दीभाषी राज्यों में विधानसभा चुनाव  होने में अब ज्यादा वक्त नहीं है। ज्यादा से ज्यादा बारह हफ्ते याने तीन माह। छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश में वर्तमान में भाजपा सरकार है जबकि राजस्थान और दिल्ली में कांग्रेस। याने अभी हिसाब बराबरी पर है। क्या इसमें कोई परिवर्तन आएगा, अनुमान लगाना कठिन है। सबकी अपनी-अपनी कोशिशें हैं और अपने-अपने दावे। कांग्रेस और भाजपा दोनों में हरेक प्रदेश में आपसी खींचतान चल रही है, लेकिन इतना तय है कि अपने-अपने प्रदेश में वर्तमान मुख्यमंत्री के नेतृत्व में ही उनकी पार्टी चुनाव लड़ेगी। छत्तीसगढ़ में डॉ. रमन सिंह, दिल्ली में श्रीमती शीला दीक्षित, राजस्थान में अशोक गहलोत व मध्यप्रदेश में शिवराज सिंह चौहान। चुनाव परिणाम आने के बाद इन नेताओं की भूमिकाओं में कोई फेरबदल हो तो हो। श्री चौहान को तो उनकी पार्टी व मीडिया का एक वर्ग भावी प्रधानमंत्री के रूप में देख रहा है तो शेष तीन को भी संभव है कि आगे-पीछे सत्ता या संगठन में नई जिम्मेदारियां सौंपी जाएं।

एक राजनैतिक दल में भीतर-भीतर समीकरण बनते-बिगड़ते रहते हैं, लेकिन इन चार राज्यों में फिलहाल सबसे विकट स्थिति छत्तीसगढ़ में कांग्रेस पार्टी में दिखाई दे रही है। यहां एक लंबे समय से नेतृत्व का संकट बना हुआ था जिसे दूर कर पार्टी को पुनर्जीवित करने में स्वर्गीय नंदकुमार पटेल ने जी-तोड़ प्रयत्न किए थे। 25 मई को बस्तर में हुए नक्सली हमले में उनके बलिदान के बाद पार्टी एक बार फिर वहीं पहुंच गई जहां दो ढाई साल पहले थी। चरणदास महंत को पुन: नेतृत्व सौंपकर स्थिति संभालने की कोशिश की गई, लेकिन आम जनता समझ नहीं पा रही है कि छत्तीसगढ़ में पार्टी का नेतृत्व किसके हाथों में है। यह स्थिति वरिष्ठ नेता और पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी की रीति-नीति पर चलते उत्पन्न हुई है। कांग्रेस आलाकमान इस बात को लेकर असमंजस में है कि श्री जोगी की सेवाएं पार्टी के लिए किस सीमा तक लाभदायक हैं।

यूं तो सार्वजनिक तौर पर पार्टी के कर्ताधर्ता अपने भीतर किसी तरह की गुटबाजी या मतभेद की बातों से इंकार करते हैं, लेकिन समय-समय पर उनका अंतर्द्वन्द्व किसी न किसी रूप में छलक पड़ता है। कभी-कभी ऐसा लगता है कि जोगी समर्थक व जोगी विरोधी, दोनों के बीच एक-दूसरे को नीचा दिखाने की होड़ लगी हुई है। उल्लेखनीय है कि छत्तीसगढ़ में कांग्रेस पिछले दस साल से सत्ता से बाहर है व कार्यकर्ताओं को लगता है कि अगर तीसरी बार भी चुनाव हार गए तो प्रदेश से पार्टी का सफाया ही हो जाएगा याने प्रदेश में पार्टी के लिए यह जीवन-मरण का प्रश्न है। अब नहीं जीते तो फिर कब जीतेंगे, यह डर सबको खाए जा रहा है। इस वस्तुस्थिति को समझकर अपनी-अपनी तरफ से उपाय सुझाए जा रहे हैं। इनमें से एक विचार है कि श्री जोगी को चुनाव की कमान नि:शर्त सौंप दी जाए। इसके विपरीत दूसरा विचार है कि श्री जोगी को पार्टी से निकाल दिया जाए, उससे कम में बात नहीं बनेगी। अब यह तो हाईकमान को तय करना है कि वह श्री जोगी के साथ क्या बर्ताव करे, लेकिन इस बहाने हम श्री जोगी की राजनीतिक यात्रा पर एक सरसरी निगाह अवश्य डाल सकते हैं।

अजीत जोगी के पक्ष में मोटे तौर पर निम्नलिखित तर्क दिए जा सकते हैं-
1.     श्री जोगी एक उच्च शिक्षित, मेधावी राजनेता हैं। वे प्रावीण्यता के साथ उत्तीर्ण इंजीनियर हैं। वे विधि स्नातक भी हैं। इसके साथ-साथ वे आईएएस में भी चुने गए थे।
2.    वे विविध और व्यापक जीवनानुभवों के धनी हैं। शासकीय इंजीनियरिंग महाविद्यालय में सहायक प्राध्यापक रहे, आईपीएस कर पुलिस में सेवा की, फिर आईएएस कर सोलह साल तक भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी रहे।
3.     उन्होंने राज्यसभा के माध्यम से राजनीति में प्रवेश किया, फिर दो बार लोकसभा के लिए निर्वाचित हुए और तीन बार विधानसभा के लिए।
4.     वे छत्तीसगढ़ के पहले मुख्यमंत्री निर्वाचित हुए तथा तीन साल तक इस पद पर रहे।
5.     वे चाहे जिलाधीश रहे हों या मुख्यमंत्री, उनकी मजबूत पकड़ प्रशासन पर हर समय रही। जब मुख्यमंत्री बने तब सुबह सात बजे भी फोन खुद उठा लेते थे।
6.     वे त्वरित निर्णय लेने में सक्षम हैं। मुख्यमंत्री बनने के तीन-चार दिन के भीतर छत्तीसगढ़ विद्युत मंडल का गठन कर उन्होंने अपनी कार्यशैली का प्रभावी परिचय दिया था।
7.     वे एक अध्ययनशील व्यक्ति हैं। हिन्दी, छत्तीसगढ़ी, अंग्रेजी पर उनका समान रूप से अधिकार है तथा एक लेखक के रूप में अपनी पहचान बनाने की कोशिश उन्होंने कभी की थी।
8.     प्रदेश के वंचित समुदायों के प्रति उनकी संकल्पबध्दता समय-समय पर व्यक्त होती रही है।
9.     वे जीवट के धनी व्यक्ति हैं। 2004 के लोकसभा चुनाव के दौरान गंभीर रूप से घायल हो जाने के बावजूद मृत्यु के मुंह से जाकर लौटे तथा शारीरिक बाध्यता के बावजूद दस साल से प्रदेश की राजनीति में प्रखरता के साथ अपनी उपस्थिति निरंतर दर्ज करते आए हैं।

इसके बरक्स उनके विरुध्द निम्नानुसार तर्क दिए जा सकते हैं-

1.     वे एक तरह से मूर्तिभंजक हैं और इस बात की परवाह नहीं करते कि कौन उनके साथ है या नहीं।
2.     वे अपनी शर्तों पर राजनीति करते हैं और संभवत: कांग्रेस आलाकमान को छोड़कर अन्य किसी नेता की परवाह नहीं करते। क्या यह उनका आत्मविश्वास का अतिरेक है, कहना कठिन है।
3.     उन्हें नए प्रदेश के पहले मुख्यमंत्री बनने का दुर्लभ अवसर मिला था, लेकिन तीन साल बीतते न बीतते उनके नेतृत्व में छत्तीसगढ़ में कांग्रेस को पराजय का सामना करना पड़ा। यह स्थिति क्यों उत्पन्न हुई?
4.     2008 में एक बार फिर विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को जीत हाथ आते दिखाई दे रही थी, लेकिन दुबारा हार हुई और पार्टी के भीतर इसका दोष फिर श्री जोगी के मत्थे डाला गया ।
5.     यद्यपि एक अत्यंत कुशल प्रशासक के रूप में उनकी छवि थी, लेकिन एक तो उन्हें विरोध बर्दाश्त नहीं है और दूसरे वे साथी या समर्थक नहीं, अंधभक्त चाहते हैं। वैसे यही आरोप उनके पूर्ववर्ती कुछ अन्य बड़े नेताओं पर भी उनके समय में लगाया जाता था।
6.     यह भी कहा जाता है कि उनकी प्रशासनिक क्षमता के बावजूद लोग उन्हें प्रेम या आदर से कम, भय की भावना से ज्यादा देखते हैं।
7.     उन पर एक आरोप अपने बेटे को राजनीति में स्थापित करने का लगाया जाता है। यह सही है कि उनके मुख्यमंत्री बनने के बाद से ही उनके सुपुत्र की राजनीतिक महत्वाकांक्षा को बल मिला, लेकिन यह आरोप तो प्रदेश व पार्टी की सीमा के बाहर भी हर स्थापित राजनेता पर लगाया जा सकता है। श्री जोगी ने इस बारे में जो भी किया हो, वे सिर्फ प्रचलित प्रथा का पालन कर रहे हैं।

श्री जोगी की अच्छाईयों और कमियों को लेकर इस सूची में और भी बिन्दु जोड़े जा सकते हैं, लेकिन असली सवाल तो यही है कि आसन्न चुनावों में यदि कांग्रेस को जीतना है तो पार्टी नेतृत्व ऐसे तमाम बिन्दुओं का विश्लेषण किस तरह से करता है।

बताया जाता है कि प्रदेश कांग्रेस कमेटी के पुर्नगठन से श्री जोगी प्रसन्न नहीं हैं। इसका इजहार वे काफी कुछ खुलकर कर चुके हैं। उनके एक समय के राजनीतिक प्रतिस्पर्धी दिग्विजय सिंह के शिष्यगण प्रदेश कांग्रेस पर हावी हैं यह बात उन्हें व्यथित करती है तथा मोतीलाल वोरा या यूं कहें तो वोरा बंधुओं से उनकी दूरी उस समय से है जब वे अविभाजित रायपुर जिला के कलेक्टर थे। अभी चर्चाएं हैं कि वे छत्तीसगढ़ स्वाभिमान मंच के साथ मोर्चेबंदी कर सकते हैं, लेकिन इस मोर्चे में जोगी विरोधी अरविंद नेताम एक प्रमुख नेता हैं। श्री जोगी अलग हेलीकाप्टर लेकर मिनी माता स्मृति के कार्यक्रमों में शिरकत कर रहे हैं, इसे लेकर भी कयास लगाए जा रहे हैं। जो भी हो, यह तो छत्तीसगढ़ में कांग्रेस के सभी नेताओं को समझना होगा कि यदि वे एकजुट न होंगे तो प्रदेश में सचमुच कांग्रेस की दुर्गति हो सकती है। यदि आपसी लड़ाई-झगड़ों , अहंकार, महत्वाकांक्षा आदि को चुनावों तक के लिए स्थगित रखा जाए तभी कांग्रेस का भला हो पाएगा।

देशबंधु में 15 अगस्त 2013 को प्रकाशित 

Wednesday 7 August 2013

तेलंगाना : सही निर्णय



आंध्र को विभाजित कर पृथक तेलंगाना राज्य गठित करने का निर्णय क्यों लिया गया! यह स्वाधीनता के बाद देश की राजनीति में उभरी एक और विडम्बना है, इसलिए कि हमारा राजनैतिक तंत्र (बॉडी पॉलिटिक) इतिहास से सबक लेने से इंकार करता है। मैं छोटे राज्यों की स्थापना का प्रबल पक्षधर हूं तथा आगे इस पर अपने तर्क रखूंगा, लेकिन पहले इस विडम्बना को समझ लिया जाए। पिछले साठ सालों के दौरान आधा दर्जन बड़े प्रांतों का विभाजन होकर नए प्रांत बने। इसकी सबसे बड़ी वजह यही समझ में आई थी कि सत्ता का विकेन्द्रीकरण न होने से कई स्तरों पर विषमता पैदा हो रही थी तथा सत्ता केन्द्र से दूर बसे जनपद अपने आपको छला गया व किसी हद तक तिरस्कृत अनुभव करते थे। पंजाब, असम, उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्यप्रदेश- इन सबमें यही भावना व्याप्त थी। अगर समय रहते सब को साथ लेकर चलने की मंशा से विकेन्द्रीकरण की दिशा में जरूरी कदम उठाए गए होते तो इन राज्यों के  विभाजन की जरूरत शायद नहीं पड़ती। आंध्र और उसके एक हिस्से के रूप में तेलंगाना में भी यही स्थिति बनी हुई थी, जिसका निराकरण करने के ईमानदार प्रयत्न नहीं किए गए।

आज तेलंगाना नया राज्य बनने की राह पर अग्रसर है, किन्तु देश के बहुत से हिस्सों में भीतर ही भीतर इसी तरह की भावनाएं उबल रही हैं। अलग विदर्भ प्रांत बनाने की मांग पिछले पचास साल से चली आ रही है। एक समय जामवंत राव धोटे के नेतृत्व में वहां प्रखर आंदोलन चला था। आज कांग्रेस के ही वरिष्ठ सांसद व कांग्रेस कार्यसमिति के स्थायी आमंत्रित विलासराव मुत्तेमवार सोनिया गांधी को पत्र लिखकर विदर्भ पर आगाह कर रहे हैं। इस परिदृश्य में मुझे दोहरी विडम्बना नज़र आती है इसलिए कि राजीव गांधी की पहल पर ही जनतंत्र के तीसरे स्तर याने पंचायती राज व स्थानीय स्वशासन की अवधारणा को वैधानिक स्वरूप दिया गया था। एक तरफ विकेन्द्रीकरण के लिए सैध्दांतिक सहमति, दूसरी तरफ व्यवहारिक रूप में केन्द्रीकृत सत्ता का वर्चस्व! यह संभवत: राजनीति का स्वभावगत चरित्र है कि जिसके पास सत्ता है वह उसमें किसी तरह भागीदारी नहीं करना चाहता। अधिकतर प्रदेशों में पंचायती राज संस्थाएं शक्तिशाली नहीं हो पाई हैं तो उसका कारण यही है।

खैर! अब तो एक नया राज्य बनने की प्रक्रिया प्रारंभ हो चुकी है। इसके पीछे-पीछे अनेक क्षेत्रों से नए राज्य गठन करने की मांगें भी सहज ही उठने लगी हैं। मेरा मानना है कि सरकार को बिना ज्यादा वक्त गंवाए द्वितीय राज्य पुर्नगठन आयोग की स्थापना कर देना चाहिए। जिस दिन तेलंगाना की खबर आई थी उसी दिन मैंने सोशल मीडिया के माध्यम से यह बात कही थी तथा मुझे यह जानकर आश्चर्य नहीं हुआ है कि अनेक राजनैतिक अध्येता यही बात कह रहे हैं। केन्द्र सरकार इस प्रस्ताव को मान ले तो इस मुद्दे पर व्यर्थ की राजनीतिक उठापटक से बचा जा सकेगा। जहां कहीं भी नए राज्य की मांग है वहां के निवासियों का अपना पक्ष तैयार व प्रस्तुत करने के लिए पर्याप्त समय मिल जाएगा और अंतत: जो भी निर्णय होंगे वे उद्दाम भावनाओं के बजाय ठोस तर्कों पर आधारित होंगे।

छोटे राज्यों की स्थापना के पीछे मेरा सबसे पहला तर्क है कि जनसंख्या बहुल प्रदेशों का सुचारु प्रशासन करना किसी भी प्रादेशिक सरकार की क्षमता के परे है। मसलन बीस करोड़ की आबादी वाले उप्र में यह संभव ही नहीं है कि मुख्यमंत्री जनता के साथ जीवंत संपर्क रख सके। 1956 में जब नए मध्यप्रदेश का गठन हुआ था तब प्रदेश की आबादी दो करोड़ थी जो सन् 2000 में बढ़कर आठ करोड़ पर पहुंच गई थी। ऐसे में मुख्यमंत्री के लिए यह नामुमकिन था कि वह देश के सारे हिस्सों पर बराबरी और सही ढंग से ध्यान दे सके। छत्तीसगढ़ नया राज्य बनने के बाद यहां के निवासियों के लिए शासन निश्चित रूप से करीब आ गया है। उसमें जो विकृतियां हैं वह एक अलग बहस का मुद्दा है।

छोटे राज्यों के विरोधी तर्क देते हैं कि इससे देश में अलगाववाद को बढ़ावा मिलेगा। वे आशंका जतलाते हैं कि ऐसे में भारत किसी दिन टूट जाएगा। वे छोटे  राज्यों पर कारपोरेट नियंत्रण होने के खतरे के प्रति भी चेतावनी देते हैं। मेरा कहना है कि अलगाववाद तो उपेक्षा, अन्याय और अपमान से पैदा होता है। विकास में असंतुलन होगा तब भी असंतोष बढ़ेगा, लेकिन अगर इन बुराइयों को मिटाने का रास्ता बन जाए तो फिर अलगाव की भावना बढ़ने के बजाय अपने आप शांत हो जाएगी। वे अगर सीमांत प्रदेशों को लेकर बात कर रहे हैं तब भी यह आशंका निर्मूल है। मिजोरम, अरुणाचल, मेघालय, इनमें आज अलगाव की भावना कहीं दिखाई  नहीं देती। नगालैण्ड, मणिपुर की समस्या एकदम भिन्न है और उसे छोटे राज्यों से जोड़कर नहीं देखना चाहिए। यही बात जम्मू-काश्मीर के बारे में भी कही जा सकती है। जहां तक कारपोरेट नियंत्रण का सवाल है तो उसका संबंध राज्य के छोटे-बड़े होने से नहीं हैं। बहुराष्ट्रीय कंपनियां हों या देश के भीतर टाटा, बिड़ला, अंबानी, यह तो राजनीतिक इच्छाशक्ति  पर निर्भर करता है कि आप उनसे दबावमुक्त रह सकते हैं या नहीं।

एक और तर्क विरोध में दिया गया है कि तेलंगाना का गठन भाषावाद प्रांत के सिध्दांत के विपरीत है। सच है कि 1930 में कांग्रेस ने भाषावाद प्रांतों की रचना का संकल्प लिया था, लेकिन इस पर पूरी तरह अमल कभी नहीं हुआ। क्योंकि यह व्यवहारिक नहीं था। हिन्दी के मूर्धन्य विद्वान डॉ. रामविलास शर्मा आदि विशाल हिन्दी प्रदेश की बात करते रहे, लेकिन वैसा नहीं हो सका। यही नहीं, गुजरात और महाराष्ट्र को मिलाकर द्विभाषी बंबई प्रांत बनाया गया था व मद्रास प्रांत में वर्तमान आंध्र व तमिलनाडु दोनों शामिल किए गए थे। आज भी कर्नाटक का बेलगाम क्षेत्र मुख्यरूप से मराठी भाषी है। ओडिशा के गंजाम इलाके में तेलगू का ही प्राधान्य है। भाषा किसी समाज को गढ़ने में एक कारक तो हो सकती है, लेकिन इतिहास और भूगोल की भूमिका को अनदेखा करना अक्सर संभव नहीं होता।

अभी तेलंगाना के विरोध में शेष आंध्र से आवाजें  उठ रहीं हैं। यह शुरुआती दौर की प्रतिक्रिया है। अनुमान होता है कि धीरे-धीरे जनभावनाओं का शमन होगा और आंध्र की जनता आंदोलन छोड़कर एक नई इकाई के रूप में अपने विकास की नई संभावनाएं तलाश करने लगेगी। नए प्रदेश में एक नई राजधानी विकसित होगी ही। कई दृष्टियों से विजयवाड़ा इसके लिए उपयुक्त प्रतीत होता है यद्यपि कुरनुल व विशाखापट्टनम भी दावा पेश कर सकते  हैं। जो भी हो, नई राजधानी के अलावा एक नई राजधानी ट्रेन, एक केन्द्रीय विश्वविद्यालय, आईआईटी, आईआईएम, एनआईटी, एम्स, नवोदय विद्यालय, केन्द्रीय विद्यालय आदि भी  राज्य को मिलेंगे। दोनों राज्यों के बीच संसाधनों के बंटवारे आदि को लेकर प्रश्न जरूर खड़े होंगे, लेकिन समय के साथ उनका भी समाधान होगा। आंध्र को शायद इस बात से खुश होना चाहिए कि नक्सलवाद तेलंगाना में छूट जाएगा।

मेरा लंबे समय से मानना है कि एक प्रदेश के सुचारु प्रशासन के लिए उसकी आबादी दो करोड़ के आसपास होना चाहिए। दुर्गम प्रदेशों में आबादी और भी कम हो सकती है। इस लिहाज से भारत में अभी कम से कम बीस नए प्रांतों का गठन हो सकता है। सुश्री मायावती ने अपने मुख्यमंत्री काल में उत्तर प्रदेश को चार हिस्सों में विभाजित करने का संकल्प किया था। वहां पूर्वांचल, अवध, बुंदेलखंड, बृज व हरित प्रदेश बनने की परिस्थितियां निश्चित रूप से मौजूद हैं। यही बात कुछ अंतर के साथ राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र मध्यप्रदेश, ओडिशा, कर्नाटक, तमिलनाडु, बिहार, पश्चिम बंगाल व जम्मू-काश्मीर के बारे में कही जा सकती है। जहां भी सत्ता का विकेन्द्रीकरण होगा वह परिधि के निवासियों के लिए नए अवसर लेकर आएगा। उन्हें स्वयं को पराए समझे जाने के क्षोभ से भी मुक्ति मिलेगी तथा सरकारी दफ्तरों व कोर्ट कचहरी के चक्कर काटने में जो समय बर्बाद होता है व जितनी रकम खर्च करना पड़ती है उसमें भी बचत होगी।

कुल मिलाकर नए तेलंगाना का स्वागत है और द्वितीय राज्य पुर्नगठन आयोग का इंतजार!

देशबंधु में 8 अगस्त 2013 को प्रकाशित