Wednesday 30 October 2013

दीपावली पर सिलयारी व कोनी के संदेश

दीपावली के साथ धूम-धड़ाका, चकाचौंध और पूजा-पाठ  जुड़ा है, उसे थोड़ी देर के लिए नजरअंदाज कर दें तो फिर समझ में आता है कि यह त्यौहार भारत के सामाजिक जीवन में भौतिक प्रगति की कामना को, सुख-समृध्दि की आशा को व्यक्त करने का सबसे महत्वपूर्ण अवसर है। जिनके पास सब कुछ या काफी कुछ है, उनकी कोशिश होती है कि लक्ष्मी रूठ कर न जाएं और जिनके पास कुछ नहीं अथवा बहुत कम है वे मनाते हैं कि लक्ष्मी एक बार तो उनकी देहरी लांघ कर भीतर आ जाएं। गरज यह है कि सब अपनी-अपनी सामर्थ्य के अनुसार ऐश्वर्य की देवी को रिझाने में लगे रहते हैं। यह साल का एकमात्र अवसर होता है जब औसत भारतीय उस आडंबर का लबादा उतार देता है कि भारत भौतिकवादी नहीं, बल्कि आध्यात्मवादी समाज है। यह अलग बात है कि वह अपनी भौतिक इच्छा को भी कर्मकांड में लपेट कर पेश करता है।

जो भी हो, भौतिक परिलब्धियों की इच्छा किसे नहीं होती और क्यों नहीं होना चाहिए? बस शर्त इतनी है कि अपनी इच्छा पूरी करने के लिए जो कर्म किए जाएं वे ऐसे न हों जिनसे सामाजिक मर्यादाओं का उल्लंघन होता हो। यदि बिना ज्यादा हाय-हाय किए, बिना चोरी-डकैती किए, लगन, मेहनत व दिमागी ताकत से धनोपार्जन हो सके तो उसमें किसी को क्या आपत्ति होगी! यह हक तो हर व्यक्ति को है कि वह सीधे रास्ते पर चलते हुए अपने व अपने परिवार के लिए सुख-सुविधाएं जुटा सके। कहना होगा कि अधिकांशजन ऐसा ही करते हैं। जो टेढ़े-मेढ़े रास्ते पर चलते हैं, उनकी संख्या कम ही होती है, यद्यपि उनके कारनामे बड़े होते हैं जिसके कारण उनके नाम सुर्खियों में आते हैं। उनके बारे में तो सबेरे-शाम चर्चाएं होती हैं, फिर आज त्यौहार की पूर्व संध्या पर वही बात कर अपना दिमाग खराब क्यों किया जाए?


कहने की आवश्यकता नहीं कि किसी भी समाज में किसान और मजदूर ही आर्थिक प्रगति की रीढ़ होते हैं। वे यदि अपने शरीर को तानकर काम न करें तो न तो खेतों में अनाज पैदा होगा और न कारखानों में उत्पादन ही संभव होगा। आज जब हम साल का सबसे बड़ा त्यौहार मनाने जा रहे हैं तब अपनी डयोढ़ी पर एक दिया इस देश के मेहनतकश लोगों के लिए कृतज्ञतापूर्वक जलाना अच्छा ही होगा।  इसके साथ यह याद करना भी मुनासिब होगा कि किसी भी देश की आर्थिक समृध्दि के लिए सही नीतियां बनाने की जरूरत होती है और उन नीतियों को व्यवहारिक धरातल पर उतारने के लिए ऐसे उद्यमियों की जिनमें नई और अनजानी चुनौतियों का सामना करने का माद्दा हो, जिनके दिमाग की खिड़कियां नए विचारों के लिए खुली हों और जो परिश्रम करने से न घबराते हों। इन सबको मिलाकर जो मणि-कांचन योग बनता है उससे ही व्यक्ति, समाज और देश आगे बढ़ने की प्रेरणा पाते हैं।


यह एक संयोग ही था कि पिछले सप्ताह मुझे ऐसे दो प्रकल्प देखने का अवसर मिला जहां कल्पनाशीलता, उद्यमशीलता, श्रमशीलता और संवेदनशीलता के रंग-बिरंगे धागों से देश की आर्थिक समृध्दि का ताना-बाना बुना जा रहा है। ये दोनों प्रकल्प छत्तीसगढ़ में है, दोनों में सरकार व निजी क्षेत्र की भागीदारी है, दोनों की बागडोर उन व्यक्तियों के हाथ में है जो मेरे मित्र हैं। आज उनकी कथा लिखने का मेरा प्रयोजन यही है कि जब हमारे राष्ट्रीय जीवन में निराशा, कुंठा और किसी हद तक झुंझलाहट की भावना बलवती हो रही है तब ये कथाएं हमें थोड़ी देर के लिए सही प्रेरित कर सकती हैं, मन में उत्साह का संचार कर सकती हैं, और उल्लास के साथ दीपावली मनाने का अवसर जुटा सकती हैं।


मैं पहले जिस प्रकल्प की चर्चा करने जा रहा हूं उसके पूरे होने से छत्तीसगढ़ की एक महत्वपूर्ण सड़क पर माल यातायात का बोझ कम हुआ है याने ट्रकों की आवाजाही में कमी आई है। परिवहन में लगने वाले डीजल की खपत में बहुत बड़ी बचत हुई है याने विदेशी मुद्रा की बचत भी हुई है। एक गांव में करीब पांच सौ लोगों को रोजगार के नए अवसर मिले हैं। गांव का आर्थिक स्तर सुधरा है। शिक्षा, स्वास्थ्य व अन्य सामाजिक कामों में भी इस प्रकल्प से आसपास के गांव में भी उल्लेखनीय सेवा हो रही है। आप ही बताइए कि इसकी सराहना किए बिना कैसे रहा जा सकता है! यह प्रकल्प है- रायपुर-भाटापारा रेलमार्ग पर स्थित सिलयारी गांव में भारतीय रेल की सहमति से स्थापित एक निजी मालधक्का याने गुड्स टर्मिनल। ओडिशा की खदानों से लौह अयस्क व कोरबा की खदानों से कोयले का रायपुर के औद्योगिक संकुल के लिए जो परिवहन कुछ समय पूर्व तक सिर्फ ट्रकों से होता था उसका सत्तर प्रतिशत अब मालगाड़ी से होने लगा है। सिलयारी में माल उतार कर ट्रकों से नजदीक स्थित सिलतरा पहुंचा दिया जाता है। हिन्दी के प्रसिध्द कवि-लेखक व रेलवे बोर्ड के पूर्व अतिरिक्त सदस्य महेन्द्र कुमार मिश्र ने रिटायर होने के बारह-तेरह साल बाद 70 वर्ष की आयु में इसकी परिकल्पना की और उसे साकार रूप देने के लिए साधन जुटाए रायपुर के युवा उद्यमी विनय लूनिया ने। सिलयारी के मालधक्के  पर रोज औसतन दो मालगाड़ियां याने एक सौ बीस वैगनें आती हैं, जिनमें लगभग बहत्तर सौ टन माल होता है। पहले जब यह माल सड़क से आता था तब इसके लिए प्रतिदिन साढ़े तीन सौ डम्परों की आवश्यकता पड़ती थीं। अनुमान लगाना कठिन नहीं है कि इस तरह कितनी बड़ी बचत की गई है।


विनय लूनिया की कंपनी विमला इन्फ्राट्रक्चर इंडिया लि. के इस प्रकल्प के बारे में बहुत चर्चा अभी नहीं हुई है क्योंकि वह कोई अलग से दिखने वाला ढांचा नहीं है, लेकिन इसके माध्यम से सिलयारी व आसपास के गांव में बेहतरी के लिए जो बदलाव आया है वह दिखाई देता है। कंपनी ने आसपास के किसानों को अपनी गारंटी पर बैंक ऋण से ट्रक खरीदवाए हैं, जिसका लाभ करीब तीन सौ लोगों ने उठाया है। समाज सेवा के बहुत से छोटे-मोटे कामों के अलावा विनय सिलयारी में एक कॉलेज खोलने जा रहे हैं। इस प्रकल्प से एक तरफ तो ग्रामवासियों के जीवन में परिवर्तन आया है वहीं विदेशी मुद्रा की बचत और सीमित दायरे में पर्यावरण मित्रता का काम भी हुआ है।


दूसरी कथा छत्तीसगढ़ के दूसरे सबसे बड़े नगर बिलासपुर की है। यहां साठ साल पहले कोनी गांव में औद्योगिक प्रशिक्षण संस्थान स्थापित हुआ था। आगे चलकर उसके नजदीक महिला आईटीआई की भी स्थापना की गई थी। जो भी कारण रहे हों, छत्तीसगढ़ सरकार का तकनीकी शिक्षा विभाग अपनी इस महत्वपूर्ण संस्था का सही ढंग से विकास नहीं कर पाया और आईटीआई बंद होने के कगार पर पहुंच गया। इस बीच भारत सरकार ने तय किया कि पीपीपी याने पब्लिक प्रायवेट पार्टनरशिप के तहत देश के आधे आईटीआई निजी क्षेत्र को संचालन हेतु सौंप दिए जाएं। जिस तरह से सरकार अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ शिक्षा व स्वास्थ्य के क्षेत्र में निजी क्षेत्र को बढ़ावा दे रही है, उसमें यह निर्णय स्वाभाविक ही था।


आज देश में और छत्तीसगढ़ प्रदेश में भी निजी क्षेत्र अनेक आईटीआई का संचालन कर रहा है। यद्यपि उनके हालात आज भी पहले के समान हैं, लेकिन कोनी बिलासपुर की महिला आईटीआई इसका अपवाद है। संस्था की संचालन समिति के अध्यक्ष अपने समय के समाजवादी नेता और बिलासपुर के उद्यमी हरीश केड़िया हैं। कुछ अन्य मित्र भी इसमें उनके साथ हैं। पांच वर्ष पूर्व जब हरीश की समिति ने इस संस्थान को लिया था तब यहां चलने वाले लगभग सारे प्रशिक्षण बंद हो चुके थे। देखते ही देखते तस्वीर बदली और आज नियमित तौर पर यहां तीस-चालीस व्यवसायों में कौशल प्रशिक्षण व कौशल उन्नयन का काम किया जा रहा है। इस वर्ष इस संस्थान से तीन हजार युवतियां प्रशिक्षण प्राप्त कर निकलेंगी।


यहां की प्रशिक्षार्थियों में अधिकतर ग्रामीण पृष्ठभूमि की हैं। वे किसानों और मजदूरों की बेटियां हैं। अनेक कॉलेज की छात्राएं हैं जो अंशकालीन प्रशिक्षण के लिए आती हैं। उनसे कोई फीस नहीं ली जाती। अधिकतर प्रशिक्षिकाएं भी अंशकालीन काम करती हैं। उन्हें प्रति प्रशिक्षार्थी मानदेय दिया जाता है। यहां जो कार्यक्रम चल रहे हैं उनसे प्रशिक्षार्थियों के सामने जीविकोपार्जन के नए अवसर खुले हैं, उनके आत्मविश्वास में भी वृध्दि हुई है। इन्हें भारत सरकार व राय सरकार द्वारा जारी प्रमाण पत्र भी दिए जा रहे हैं। प्रतिदिन करीब हजार लड़कियां अलग-अलग पालियों में आती हैं। उनके लिए आसपास के गांव से बसें भी चलती हैं। संस्थान का वातावरण खुशनुमा है। कुल मिलाकर दिखाई देता है कि लगन के साथ एक अनूठी पहल साकार हो रही है।


सिलयारी, रायपुर व कोनी, बिलासपुर के ये दोनों अलग-अलग तरह के प्रकल्प दिवाली को नए ढंग से मनाने का संदेश देते हैं। 


देशबंधु में 31 अक्टूबर 2013 को प्रकाशित

Friday 25 October 2013

इक्कीसवीं सदी में गांधी की प्रासंगिकता


आज अगर कोई पूछे कि 21वीं सदी में गांधी की क्या प्रासंगिकता है तो सुनने वाले प्रश्नकर्ता की बुध्दि पर तरस ही खाएंगे। एक औसत व्यक्ति की नजर में यह एक अहमकाना सवाल होगा। अधिकतर लोग तो यही मानेंगे कि गांधी और उनके विचारों की कोई समय-सीमा अथवा एक्सपायरी डेट नहीं है और यह कि वे सौ साल या पचहत्तर साल पूर्व जितने प्रासंगिक थे उतने आज भी हैं और आगे भी बने रहेंगे। कुछ विचारवान लोग यह तर्क भी दे सकते हैं कि आज गांधी की प्रासंगिकता पहले से कहीं ज़यादा है। कुछेक का तर्क शायद यह भी हो कि गांधी को भारत की सीमाओं में बांधकर नहीं रखा जा सकता कि उनके विचार तो पूरी दुनिया के लिए मूल्यवान और ग्रहण करने योग्य हैं। इस फौरी प्रतिक्रिया से आगे बढ़कर सोचें तो समझ आता है कि उपरोक्त प्रश्न का उत्तर बहुत कुछ इस पर निर्भर करता है कि कोई व्यक्ति अपने तईं गांधी को किस तरह से देखता-समझता है। आखिरकार गांधी का जीवन उन असाधारण और अभूतपूर्व अवधारणाओं से ढला था जिनकी खोज खुद उन्होंने की थी और जो इन अवधारणाओं पर आधारित नाना प्रयोगों और हस्तक्षेपों से पग-पग पर भरा हुआ था। ऐसे में क्या आश्चर्य कि हर व्यक्ति का गांधी को देखने का नजरिया अपना ही है। 
 
भारत उपमहाद्वीप में बहुसंख्यक जनता के लिए गांधी महात्मा थे और हैं। उनका हर शब्द एक आदेश था और बिना कोई सवाल उठाए उनके हर इंगित का अनुसरण कर  हर व्यक्ति अपने को धन्य समझता था। अपनी मृत्यु के पैंसठ वर्ष बाद गांधी आज एक और ऊंचे आसन पर विराजित हैं तथा उन्हें लगभग भगवान का दर्जा दे दिया गया है। यही नहीं, उनके जीवनकाल में भी दुनिया के अन्य मुल्कों में उनके विचार और कर्म से प्रभावित लोगों की कोई कमी नहीं थी। आज यह संख्या कई गुना बढ़ गई है। रिचर्ड एटनबरो की फिल्म 'गांधी' आने के बाद तो दुनिया का ऐसा कौन सा कोना है जहां गांधी के नए अनुयायी न बने हों! यह भी एक विचित्र तथ्य है कि जिस राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के विचारों में दीक्षित और अनुप्राणित व्यक्ति ने गांधी की हत्या की थी उसी संघ ने गांधी को अपने आराध्यों की सूची में शामिल करने में बहुत देर नहीं लगाई। संघ के विचारों में इस बीच कोई परिवर्तन नहीं हुआ है, तब यह अनुमान लगाना कठिन है कि संघ गांधी के बारे में वास्तव में क्या सोचता है!

 
गांधी के चरित्र का एक अन्य पहलू यह भी है कि वे एक महान लेखक व महान पत्रकार थे तथा दुनिया के तमाम विषयों पर वे अपने विचार विभिन्न माध्यमों से नियमित रूप से व्यक्त करते थे। उन्होंने जितना कुछ लिखा उतना जवाहरलाल नेहरू को छोड़कर विश्व के किसी अन्य नेता ने शायद नहीं लिखा। इसके चलते एक सुभीता, बहाना और अवसर उन बहुत से टीकाकारों अथवा लेखकों को मिल गया है जो अपने निजी विचारों की पुष्टि में गांधी दर्शन से बिना किसी संदर्भ के सामग्री उठाना चाहते हैं। इसे आप चाहे तो बौध्दिक बेईमानी कहें या बौध्दिक चतुराई। मिसाल के तौर पर ऐसे विचारकों की कमी नहीं है जो हर तरह से प्रमाणित करना चाहते हैं कि 1909 में प्रकाशित 'हिन्द स्वराज' गांधी के विचारों का उत्स व चरमसीमा है, गोया इसके बाद गांधी ने न तो कुछ नया लिखा और न उनके विचारों का ही विकास हुआ। इसी तरह कुछ वर्ष पूर्व मैं एक छोटी सी पुस्तक पाकर हतप्रभ रह गया, जिसमें ईसाईयत पर गांधी के विचारों को मनमाने ढंग से संकलित किया गया था। 1999 में ओडिशा में काम कर रहे आस्ट्रेलियाई पादरी ग्राहम स्टेंस की बर्बर हत्या, उग्र हिन्दूवाद से जुड़े कुछ लोगों ने कर दी थी। उसके कुछ हफ्ते बाद ही इस पुस्तक का प्रकाशन मानो उक्त हत्याकांड को जायज ठहराने का प्रयत्न था। 

 
जैसा कि हम जानते हैं कि महात्मा गांधी का व्यक्तित्व बहुमुखी था: वकील, लेखक, पत्रकार, शिक्षक, सामाजिक कार्यकर्ता, पर्यावरणविद्, नागरिक अधिकार कार्यकर्ता, स्वाधीनता सेनानी,राजनीतिक रणनीतिकार, राजनीतिक चिंतक और न जाने क्या-क्या। इसके अलावा उनकी जीवनशैली बेहद सादी थी, जिसका खूबसूरत चित्रण उस स्कैच में हुआ है, जिसमें सिर्फ चश्मे की फ्रेम और छड़ी देखकर गांधी की तस्वीर उभर आती है। गांधी के इस समृध्द व्यक्तित्व के चलते हर उस व्यक्ति को बड़ी सुविधा हो गई है जो अपने माथे पर गांधीवादी होने का लेबल चस्पा करना चाहता है। मसलन कोई भी व्यक्ति जो कभी-कभार कुष्ठ रोगियों के बीच जाकर थोड़ा समय बिता आता है अथवा वह जो हरिजन सेवक संघ जैसी संस्था का सदस्य बन जाता है, अपने आपको गांधी का सच्चा अनुयायी घोषित कर सकता है। यह अधिकार उस व्यक्ति को भी मिल जाता है जो जब-तब खादी पहन लेता है या अपनी बीमारी में प्राकृतिक चिकित्सा का सहारा लेता है या फिर उसे जो 2 अक्टूबर अथवा 30 जनवरी को अपने नगर की गांधी प्रतिमा के सामने बैठकर रामधुन गाता है। अगर हम राजनीतिक परिदृश्य पर नज़र दौड़ाएं तो वे तमाम लोग भी गांधीवादी हैं जो मानते हैं कि पंडित नेहरू नहीं बल्कि सरदार पटेल, गांधी जी के सच्चे उत्तराधिकारी थे। वे यह जानने की कोशिश नहीं करते कि आखिरकार गांधी ने क्या सोचकर नेहरू को अपना वारिस बनाया। 

 
ऐसे तमाम विचारों से गुजरते हुए सचमुच यह उलझन पैदा होती है कि इक्कीसवीं सदी में गांधी की प्रासंगिकता को कैसे निर्धारित किया जाए। मुझे लगता है कि गांधी के व्यक्तित्व के बहुत से आयामों को छोड़कर हमें उनके राजनीतिक दर्शन पर गौर करना चाहिए। कुछ भी हो, गांधी मुख्यत: एक विचारवान राजनेता थे और उस भूमिका में ही हमें अपने सवाल का संतोषजनक उत्तर मिल सकता है। एक राजनैतिक विचारक और कार्यकर्ता के रूप में गांधी ने हमें दो बुनियादी सिध्दांत दिए हैं- अहिंसा और सत्याग्रह। इन सिध्दांतों पर अमल करने के लिए उन्होंने कुछ औजार या पध्दतियां भी दीं जैसे- सविनय अवज्ञा, निडरता, सादा जीवन इत्यादि। उन्होंने इस पथ पर चलते हुए, अपनी गतिविधियों का परीक्षण करते हुए कुछ कसौटियां निर्धारित की जिनमें से दो का उल्लेख मैं यहां करना चाहूंगा। एक तो उन्होंने कहा कि इस धरती पर प्रत्येक व्यक्ति की जरूरत पूरी करने के लिए पर्याप्त साधन है किन्तु एक व्यक्ति के लालच के लिए सब कुछ अपर्याप्त है। दूसरे- उन्होंने कहा कि हमें हमेशा कतार के अंतिम छोर पर खड़े हुए व्यक्ति के बारे में सोचना चाहिए याने अंत्योदय। मेरा निवेदन है कि यदि हम इन दोनों मंत्रों को हृदयंगम करते हैं और उनके अनुसार काम करने के लिए तैयार हैं; यदि हम अपने डर पर विजय पा लेते हैं व निजी सुख-दुख की परवाह किए बिना बड़े उद्देश्यों के लिए लड़ने तैयार हैं और यदि अहिंसा और सत्याग्रह के प्रति हमारी निष्कंप प्रतिश्रुति है तो गांधी हमारे लिए हर समय प्रासंगिक हैं। 

 
मैं अपने विचारों को एक विशेष संदर्भ में स्पष्ट करना चाहता हूं। आज समूची दुनिया में आणविक शक्ति एक चुनौतीभरा और जटिल मुद्दा बन गया है। ऐसा कोई भी देश नहीं है जो आणविक क्षमता हासिल नहीं करना चाहता या है तो उसे बढ़ाना नहीं चाहता। इसके पीछे सामरिक उपयोग की भावना भी हो सकती है अथवा शांतिपूर्ण उपयोग का इरादा भी हो सकता है किन्तु आणविक ऊर्जा के जो खतरे हैं उसके बारे में हर देश खुलकर बात करने में कतराता है। अब मान लीजिए कि कोई देश सचमुच अहिंसा में विश्वास रखता है तो वह युध्द की बात तो नहीं ही करेगा बल्कि इसके विपरीत अपनी सुरक्षा के मुद्दों पर शांतिपूर्ण समाधान निकालने का हरसंभव यत्न करेगा। दूसरी तरफ कोई दूसरा देश जो गांधी के आदर्शों पर चलता है तो पहले तो वह देश ऊर्जा के विवेकपूर्ण खपत के बारे में सोचेगा उसके बाद सौर ऊर्जा, जैविक ऊर्जा जैसे उपायों पर विचार करेगा जिससे पर्यावरण को नुकसान न हो। इस दोनों प्रकरणों में राष्ट्रीय संसाधनों की बचत होगी, बहुत सारे अनचाहे खतरे टल जाएंगे और लोगों को जीने के लिए एक सुरक्षित और शांतिपूर्ण माहौल मिल सकेगा। 

 
एक अन्य दृश्य देखिए। हम एक ऐसे समय में जी रहे हैं जहां दुनियाभर में आंतरिक और बाह्य खतरे मंडरा रहे हैं। जहां तक बाह्य खतरों की बात है, देखना कठिन नहीं है कि साम्रायवाद एक नई ताकत के साथ वापिस लौट आया है। अमेरिका के विश्व पर वर्चस्व के सपने की कोई सीमा नहीं है। क्या उस नवसाम्रायवाद को गांधीवादी तरीके से रोका जा सकता है? पहली नज़र में असंभव लगता है, लेकिन फिर यह भी याद रखिए कि इराक, अमरीका के सैन्य बल का मुकाबला नहीं कर सका और उसकी संप्रभुता नष्ट हो गई। कुछ ऐसा ही हाल अफगानिस्तान का और लीबिया का भी हुआ। यही नहीं बहादुर फिलीस्तीनी पिछले साठ साल से तमाम तकलीफें झेलते हुए भी अपना वतन वापिस पाने के संघर्ष में जुटे हुए हैं, फिर भी वे इजराइल के निरंतर हमलों को रोकने में असमर्थ हो रहे हैं। मैं पूछता हूं कि क्या यह वक्त नहीं आ गया है कि जब हम कुछ नए उपायों पर, विकल्पों पर सोचें। क्या गांधी के विचार यहां हमारी मदद कर सकते हैं। सोचकर देखिए!

 
जहां तक आंतरिक संघर्षों का प्रश्न है इसकी मुख्य वजह सत्ताधारी वर्ग की हृदयहीनता और संवेदनहीनता है। जिन देशों में जनतांत्रिक व्यवस्था है वहां भी यही स्थिति है। आप सत्ताधारियों के चेहरों से टपकते हुए लालच को साफ-साफ देख सकते हैं। ऐसे में यदि समाज में अंत्योदय का विचार जीवित हो, यदि कतार के अंत में खड़े व्यक्ति का ध्यान हो तो यह स्थिति बदल सकती है। इसी तरह अनेक समाजों में हम नस्लभेद, रंगभेद व साम्प्रदायिकता को पनपता हुआ देखते हैं। ऐसे संघर्ष बहुधा इसलिए होते हैं कि एक वर्ग अपने रीति-रिवाज, परंपरा व विश्वासों पर गर्व करता है किन्तु अन्य के बारे में वह अज्ञान व पूर्वग्रह से प्रेरित होता है। याद दिलाने की जरूरत नहीं कि महात्मा गांधी ने दो समुदायों के बीच में गहरी खाई को पाटने की राह में ही अपने प्राणों की बलि दी।  समुद्र पार उनका अनुसरण मार्टिन लूथर किंग, अल्बर्ट लुथुली और नेल्सन मंडेला ने और हमारे पड़ोस में आंग-सांग सू ची जैसे महान लोगों ने किया। 

 
मैं जोर देकर कहना चाहूंगा कि जिस अहिंसा का पाठ हमें गांधी ने पढ़ाया वह साहस व वीरता का सर्वोच्च स्वरूप है। अहिंसा का अर्थ किसी गरीब की मदद करना या किसी पशु के प्रति दया दिखलाना या गौमाता की सेवा करना मात्र नहीं है जैसा कि बहुत से लोग समझते हैं। अहिंसा और सत्याग्रह गांधी दर्शन के मूल में हैं। इनका उपयोग उन्होंने सफलतापूर्वक राजनीतिक अस्त्र के रूप में किया और शायद वक्त आ गया है कि हम इनका उपयोग करने के बारे में नए सिरे से सोचें।

(इंदौर में ''गांधी : निशस्त्रीकरण और विकास'' पर 4, 5, 6 अक्टूबर 2013
को संपन्न अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन में प्रस्तुत वक्तव्य)

Wednesday 23 October 2013

एक हाथ से ताली नहीं बजती




एक
पुरानी कहावत है- ''एक हाथ से ताली नहीं बजती।'' आज देश के उद्योग जगत में जो माहौल बना है उसमें यह कहावत सटीक बैठती है। सीबीआई द्वारा उद्योगपति कुमार मंगलम बिड़ला के खिलाफ मुकदमा दर्ज करने के बाद चारों तरफ हाय-तौबा मच गई है। तरह-तरह की आशंकाएं प्रकट की जा रही हैं कि इसका संदेश गलत जाएगा, कि देश की आर्थिक प्रगति रुक जाएगी, कि पूंजी निवेशकों का भरोसा टूट जाएगा। श्री बिड़ला के पक्ष में स्वाभाविक ही उद्योग जगत एकजुट होकर खड़ा हो गया है। जनता को याद दिलाया जा रहा है कि बिड़ला घराने को देश की सेवा करते सौ साल से ज्यादा बीत गए हैं, कि कुमार मंगलम स्वयं उज्जवल चरित्र के धनी हैं, कि उनके ऊपर उंगली उठाना सरासर नाइंसाफी है। ये सारे तर्क अपनी जगह ठीक हो सकते हैं लेकिन इसका दूसरा पक्ष भी है।

हम मानते हैं कि यह सरकार की जिम्मेदारी है कि वह अन्य कामों के अलावा देश में उद्योग-व्यापार की प्रगति के लिए भी अनुकूल वातावरण मुहैया करवाए, जिसमें नियम-कायदे से चलने वाले उद्यमी निर्भय और निशंक होकर काम कर सकें। लेकिन यही बात राजनीति पर भी तो लागू होती है। यह देश में सभी वर्गों की जिम्मेदारी है कि एक ऐसी राजनीतिक व्यवस्था व वातावरण बने, जिसमें जिन्हें सरकार चलाने के लिए चुना गया है, वे भी निर्भयतापूर्वक देश की प्रगति के लिए आवश्यक कदम ले सकें। उन पर विश्वास किया जाए कि अगर निर्णय लेने में अनजाने में कोई भूल हो तो उसे अपराध न माना जाए। और जब तक कोई ठोस प्रमाण न हो राजनीतिक नेतृत्व को कटघरे में खड़ा न किया जाए। लेकिन आज तो हालत यह है कि कुछ न्यस्त स्वार्थों ने मिलकर राजनीति को काजल की कोठरी सिध्द करने में कोई कसर बाकी नहीं रखी है। 

हमें भारतीय जनता पार्टी का दु:ख समझ में आता है। जब अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में एनडीए की सरकार बनी तब भाजपा को लगा कि उसने दिल्ली फतह कर ली है और उसे कोई चुनौती देने वाला नहीं है। दुर्भाग्य से 2004 में भाजपा का सपना टूट गया। 2009 में उसे दुबारा झटका लगा। अडवानीजी सहित बहुत से नेताओं की प्रधानमंत्री बनने की चाहत अधूरी रह गई। संघ परिवार का भी भारत को हिन्दू राष्ट्र बनाने का सपना पूरा नहीं हो सका। भाजपा को विश्वास था कि 2009 में वह निश्चित रूप से सत्ता में वापिस लौटेगी, लेकिन जब यूपीए की लकीर एनडीए से लंबी खिंच गई तो भाजपा ने समझा कि अपनी लकीर बड़ी सिध्द करने का बेहतर उपाय यही है कि सामने वाले की लकीर किसी न किसी तरह छोटी कर दी जाए और इस तरह यूपीए नेतृत्व पर राजनीतिक ही नहीं, व्यक्तिगत आरोप लगाने का सिलसिला शुरू हो गया।

भाजपा कुछ भी हो देश की दूसरी सबसे बड़ी पार्टी है और उसके पास व्यूह रचने वालों की कमी नहीं है। इसलिए यूपीए-2 का एक साल बीतते न बीतते भाजपा ने एक नई रणनीति पर काम करना शुरू कर दिया। एक ओर जहां उन्होंने कांग्रेस व मनमोहन सरकार पर आरोप लगाना जारी रखा, वहीं दूसरी ओर देशी कारपोरेट घरानों व एनआरआई के साधनों से मदद लेकर नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में दिल्ली पर कब्जा करने की योजना पर काम शुरू कर दिया गया। भाजपा के पास यद्यपि राष्ट्रीय स्तर पर अनुभव प्राप्त वरिष्ठ नेताओं की कमी नहीं थी, लेकिन नरेन्द्र मोदी पर दांव इसलिए लगाया गया कि कारपोरेट घरानों का सहयोग उनके नाम पर ही सबसे यादा मिल सकता था। यह सब जानते हैं कि उद्योगपति या व्यापारी का पूरा ध्यान मुनाफा कमाने पर रहता है, उसे इसके अलावा और किसी बात से मतलब नहीं रहता। इसलिए वे देश के नेता के रूप में हमेशा ऐसे व्यक्ति को चाहते हैं जो नीति-अनीति की अधिक परवाह किए बिना फौरी निर्णय ले सके। 

इसके साथ एक अन्य घटना भी  हुई। देश के बहुत सारे टीवी चैनल और अखबारों में कारपोरेट घरानों ने बड़ी मात्रा में पूंजी निवेश किया और उनका नियंत्रण हासिल कर लिया। यहां ''करेला, वह भी नीम चढ़ा'' की कहावत चरितार्थ हो गई। कारपोरेट भारत को अपनी मुनाफे की मशीन चलाने के लिए भाजपा के रूप में एक बड़ा राजनीतिक दल मिल गया, नरेन्द्र मोदी के रूप में भावी नेता और मीडिया पर अपना मनचाहा प्रोपेगंडा करने की सुविधा भी उसने हासिल कर ली। यहां कहा जा सकता है कि कांग्रेस पार्टी इस रणनीति को यथासमय समझने में असफल रही। हम देख रहे हैं कि पिछले दो साल से भाजपा द्वारा और किसी हद तक उसके विश्वस्त प्रवक्ता के रूप में मीडिया द्वारा यूपीए-2 पर ताबड़तोड़ हमले किए जा रहे हैं। पहले राष्ट्रमंडल खेलों का मामला उठा, फिर 2 जी का, कोयला खदानों का तथा ऐसे ही और अन्य प्रकरण। इन सबका धुंआधार प्रचार कर जनता को यह विश्वास दिलाने की कोशिश की जा रही है कि यूपीए-2 से ज्यादा नाकारा सरकार आज तक कोई नहीं है। अंग्रेजी में जैसा कि कहा जाता है- 'एट द ड्राप ऑफ द हैट', इस अंदाज में सुबह-शाम प्रधानमंत्री से इस्तीफा मांगा जा रहा है। बीच में एक मौका तो ऐसा आया जब गुस्से में फनफनाए रतन टाटा ने भारत को 'बनाना रिपब्लिक' की उपमा दे डाली।

अगर एक पल के लिए मान लें कि भाजपा के आरोप व कारपोरेट भारत की चिंताएं वाजिब हैं तब दूसरे सवाल उठते हैं। अगर वर्तमान सत्ताधीशों ने कारपोरेट घरानों से कोई रियायत, कोई सुविधा देने के लिए रिश्वत ली, भ्रष्टाचार किया, अनियमितता की तो इसका अंतत: लाभ किसे होगा? कोयला खदानों के आबंटन का मामला हो अथवा 2-जी स्पैक्ट्रम का, इसमें आखिरकार फायदा तो टाटा, बिड़ला या अंबानी जैसों को ही होना है। क्या यह सरल सी सच्चाई किसी से छिपी हुई है? अभी उद्योग-जगत ने वोडाफोन पर किए गए करारोपण को लेकर कुशंका जाहिर की, लेकिन यह आज-कल की ही खबर है कि भारत में टवेरा गाड़ी बनाने वाली अमेरिका की बहुराष्ट्रीय कंपनी जनरल मोटर्स ने बड़े पैमाने पर हेराफेरी की। तो क्या इन सबका कहीं कोई दोष नहीं बनता?

किसी भी देश के विकास में उद्योगों का अपना महत्व है। उनके बिना आर्थिक तरक्की की कल्पना नहीं की जा सकती, लेकिन हर देश में कुछ नियम कानून भी होते हैं, जिनका पालन अनिवार्य रूप से करना होता है। अमेरिका में एनरॉन कंपनी ने कानून तोड़े तो कंपनी तो बंद हुई ही, उसके प्रवर्तकों को जेल भी जाना पड़ा। अमेरिका के अलावा अन्य पूंजीवादी देशों में भी कानून तोड़ने वाले उद्योगों के खिलाफ यथासमय कार्रवाई होती है, फिर भारत को ही इसका अपवाद क्यों बनाया जाए? हम तो समझते हैं कि फिक्की, एसोचेम, सीआईआई जैसे व्यापारिक संघों की यह जिम्मेदारी बनती है कि वे अपने सदस्य प्रतिष्ठानों को देश के कानूनों का पालन करने प्रेरित करें और वे अगर कानून तोड़ें तो उनकी सदस्यता खत्म कर दें। हम यह न भूलें कि सरकार जब नियम और नीतियां बनाती हैं तो बहुत कुछ तो उद्योग-जगत से पूछकर ही तय किया जाता है।

आज जब कारपोरेट भारत कुमार मंगलम बिड़ला पर संभावित कार्रवाई को लेकर इतना चिंतित है तब उसे यह भी याद रखना चाहिए कि अपने चैनलों और अखबारों के माध्यम से उसने कांग्रेस व यूपीए नेताओं पर राजनैतिक ही नहीं, व्यक्तिगत तौर पर भी कितने बेबुनियाद आरोप लगाए हैं और राजनेताओं की छवि धूमिल करने का उपक्रम किया है। प्रधानमंत्री ने तो बिड़ला प्रकरण में अपने ऊपर जिम्मेदारी ले ली है और एक तरह से श्री बिड़ला को आरोप से बरी कर दिया है। क्या कारपोरेट इंडिया में यह साहस है कि वह प्रधानमंत्री से कहे कि आपके ऊपर हमने जो निराधार आरोप लगाए वे हम वापिस लेते हैं?


देशबंधु में 24 अक्टूबर 2013 को प्रकाशित

Wednesday 16 October 2013

देहलीज पर चुनाव-2





ज्यों
ही 11 अक्टूबर को कांग्रेस पार्टी ने छत्तीसगढ़ में प्रथम चरण के अठारह में से सोलह उम्मीदवारों की घोषणा की, प्रदेश की राजनीति में एक छोटा सा जलजला आ गया। अधिकतर लोगों की कल्पना से यह परे था कि इस तरह से एकाएक इतने सारे नए चेहरों को मैदान में उतार दिया जाएगा। दंतेवाड़ा से स्व. महेन्द्र कर्मा की पत्नी श्रीमती देहुती कर्मा को और खरसिया से स्व. नंदकुमार पटेल के बेटे उमेश को टिकट मिलना तय माना जा रहा था, लेकिन राजनांदगांव सीट को लेकर संशय बना हुआ था। वर्तमान में स्वयं मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह इस क्षेत्र से विधायक हैं। इसलिए सवाल उठाये जा रहे थे कि कहीं स्व. उदय मुदलियार की पत्नी श्रीमती अलका मुदलियार मुख्यमंत्री के सामने कमजोर तो नहीं पड़ेंगी! इस तर्क के आधार पर वहां से पूर्व महापौर विजय पांडे और वर्तमान महापौर नरेश ढाकलिया का नाम उनके अपने-अपने समर्थकों के द्वारा आगे बढ़ाया जा रहा था। राजनांदगांव सम्पन्न व्यापारियों की नगरी है। वहां ऐसे प्रभावशाली लोग भी हैं जो कांग्रेस व भाजपा दोनों में बराबरी से दखल रखते हैं। आज की परिस्थिति में वे भी इन नामों का शायद यह सोचकर उछाल रहे थे कि श्रीमती मुदलियार के मैदान में न रहने से डॉ. रमन सिंह के लिए चुनौती आसान होगी।

इसी तरह बस्तर संभाग की जगदलपुर सीट पर अचानक एक नए चेहरे की घोषणा होने से बहुत सारे समीकरण गड़बड़ा गए। बताया जाता है कि कांग्रेस के गजराज पगारिया जो रायपुर के निवासी और उपमहापौर रहते हुए यहां से विधानसभा चुनाव नहीं जीत सके, वे बस्तर में अपना भाग्य आजमाने के लिए बेहद उत्सुक थे। कांग्रेस हो या भाजपा, बहुत लोगों का ख्याल है कि धनबल से सब कुछ हासिल किया जा सकता है। बहरहाल इन तमाम नामों की घोषणा होने के बाद जनसामान्य के अलावा राजनीतिक प्रेक्षकों की भी पहली प्रतिक्रिया यही थी कि चुनाव की बिसात पर कांग्रेस ने अपनी पहली चाल सधे हुए ढंग से चल दी है। इसका श्रेय मुख्य रूप से राहुल गांधी की राजनीति को दिया जा रहा है। अगर ऐसा है तो इसकी पुष्टि तो चरणदास महंत ही कर सकते हैं। श्री गांधी के ''वार रूम'' में क्या हो रहा है, बाकी को क्या पता!

जो भी हो, पहले चरण में ही बस्तर व राजनांदगांव के अलावा खरसिया से उम्मीदवार का नाम घोषित कर देने का यह अर्थ तो निकलता ही है कि कांग्रेस ने 25 मई को जीरमघाटी में नक्सली हमले में शहीद हुए अपने नेताओं की स्मृति का सम्मान तो किया ही, उसने पार्टी कार्यकर्ताओं की भावनाओं व जनभावनाओं का भी ध्यान रखा है। धरसींवा से यदि स्व. योगेन्द्र शर्मा की पत्नी या परिवार के किसी अन्य सदस्य को टिकट नहीं दिया गया है तो उसका कारण यह हो सकता है कि खरसिया, राजनांदगांव और दंतेवाड़ा तीनों के शहीद पार्टी के वरिष्ठ नेता व पूर्व व वर्तमान विधायक थे। याने जिनके जनाधार और चुनावी मशीनरी के बारे में पार्टी किसी हद तक आश्वस्त थी। संभव है कि योगेन्द्र शर्मा की पत्नी अगर सक्रिय राजनीति में आए तो उन्हें भी अपने अनुभव के आधार पर यथासमय उचित अवसर मिले।

अनुमान होता है कि कांग्रेस की इस पहली घोषणा के बाद भाजपा के भीतर भी नए सिरे से विचार मंथन शुरू हो गया है। उसका ध्यान अब इस बात पर लगा है कि कांग्रेस के नए-नवेले उम्मीदवारों के सामने जीत की संभावना वाले प्रत्याशी कैसे तय किए जाएं। आम चुनावों के दौरान एक संज्ञा का बहुत इस्तेमाल होता है- 'एंटी इनकंबेंसी' याने वर्तमान प्रतिनिधि से असंतोष। इसे आधार बनाकर पार्टियां नए लोगों को टिकट देती रही हैं। 2008 में भी भाजपा ने छत्तीसगढ़ में काफी नए उम्मीदवारों को टिकट दिया था। इस बार मामला कुछ पेचीदा नजर आता है। डॉ. रमन सिंह स्वयं चाहे जितने लोकप्रिय हों, उनके अधिकतर मंत्रियों और विधायकों के प्रति जनता में गहरी नाराजगी है। यदि वर्तमान के टिकट काटे गए तो वे अब इतने साधन-सम्पन्न हैं कि भीतरघात कर सकते हैं। यदि प्रत्याशी न बदले गए तब भी टिकट न मिलने से असंतुष्टों द्वारा भीतरघात करने की आशंका कम नहीं है।

मैंने यह दिलचस्प तथ्य मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ दोनों प्रदेशों में नोट किया कि मुख्यमंत्री अभी कुछ दिन पहले तक अपनी आमसभाओं में लोगों से यह निवेदन कर रहे थे कि आप मुझे मुख्यमंत्री बनाना चाहते हैं तो पार्टी के विधायक को जरूर जिताइए। शिवराज सिंह जी हों या रमन सिंह जी, दोनों को यह अपील इसलिए करना पड़ी कि बहुत जगहों पर जनता भाजपा के वर्तमान विधायकों को दोबारा मौका देने के लिए राजी नहीं है। दोनों प्रदेशों में भाजपा के दस साल के शासन के दौरान यह भी हुआ है कि विधायक ही नहीं, ढेर सारे कार्यकर्ता भी काफी शक्ति-सम्पन्न और साधन-सम्पन्न हो चुके हैं। वे अब विधायक बनना चाहते हैं। उन्हें टिकट न मिला तो बिफर कर वे क्या कर बैठेंगे, कुछ कहा नहीं जा सकता। रायपुर में भाजपा कार्यालय के बाहर समर्थन सेअधिक विरोध में रोज जो प्रदर्शन हो रहे हैं, वे और क्या संकेत करते हैं?

कांग्रेस में भीतरघात का यह चलन पहले से रहा है। अब भाजपा ने भी उसे अपना लिया है। कांग्रेस में जब टिकट देने की बात उठती है तो उसके धनी-धोरी उम्मीदवारों के बारे में बताया जाता है कि वे अपनी सीट के अलावा आसपास की दो-तीन सीटें और संभाल लेंगे। दूसरे शब्दों में वे साधनहीन प्रत्याशियों की रुपए-पैसे से मदद कर देंगे। यह कोई आज की बात नहीं है। मैंने रायपुर में कांग्रेसी सेठों के घर आर्थिक रूप से कमजोर सांसदों और विधायकों को डेरा जमाते हुए बहुत बार देखा है। उनके लेटरहेड का इस्तेमाल सेठ के व्यापारिक हितों के लिए चिट्ठियां लिखने के लिए अकसर होते आया है। इस इतिहास को जानते हुए कांग्रेस ने अभी जो टिकटों की घोषणा की है वह सचमुच चौंकाने वाली है। इससे कांग्रेस के भीतर एक नई सोच पनपने का आभास भी होता है।

कांग्रेस पार्टी में एक लंबे समय से जो निष्क्रियता, संवादहीनता और अहंकार तारी है वह बहुत यादा आश्वस्त तो नहीं करता; पार्टी के भीतर जो घात-प्रतिघात चलते हैं उसमें कब किसका सिक्का चलने लगे, यह कहना भी मुश्किल है; राहुल गांधी प्रधानमंत्री बनने के इच्छुक हैं या नहीं यह अभी कोई नहीं जानता, लेकिन वे अपनी पार्टी के कार्यकारी अध्यक्ष हैं इस नाते उनकी राजनीतिक सोच स्पष्ट रूप से जनता के सामने आना चाहिए। वे किस दिशा में देश को ले जाना चाहते हैं, यह जाने बिना कोई उनका अनुसरण करे भी तो क्यों? पांच रायों के उपचुनावों को वे किस रूप में ले रहे हैं, यह बात भी तो कुछ पता चले। इस कुहासे के बीच भी 11 अक्टूबर के इकलौते निर्णय को लेकर कोई पक्की राय बनाना ठीक नहीं होगा, फिर भी मन बहलाने के लिए कुछ माथापच्ची करने में क्या बुराई है!

यूं तो मीडिया और विपक्षी दल राहुल गांधी पर कांग्रेस का युवराज कहकर कटाक्ष करते हैं, लेकिन मेरी नजर में छत्तीसगढ़ के उम्मीदवारों की पहली सूची प्रमाणित करती है कि कांग्रेस में राहुल गांधी के नेतृत्व में एक नई पीढ़ी कामकाज संभालने के लिए तैयार है। इस पहली सूची में शामिल अधिकतर लोग नए और युवा हैं। उम्मीद की जा रही है कि बची हुई बहत्तर सीटों पर भी बहुत सारे युवजनों को टिकट दी जाएगी। इसका एक इशारा कटघोरा के विधायक बोधराम कंवर के बयान से मिलता है। अजय माकन को मुख्य प्रवक्ता एवं ज्योतिरादित्य सिंधिया को मध्यप्रदेश का चुनाव प्रभारी बनाने से भी यही संकेत मिलता है। अगर पांच राज्यों की सवा छह सौ विधानसभा सीटों पर पांच सौ युवा उम्मीदवार आगे आते हैं तो कांग्रेस का चेहरा कितना बदल जाएगा, इसकी कल्पना करना कठिन नहीं है।

यह तो जानी हुई बात है कि कांग्रेस के सारे के सारे प्रत्याशी जीतेंगे तो नहीं, फिर भी अगर जीतने वालों में बड़ी संख्या युवाओं की रही तो अगले दो दशक तक कांग्रेस में एक नई स्फूर्ति बने रहने की उम्मीद की जा सकती है। आदिवासी गढ़ बस्तर की एकमात्र सामान्य सीट जगदलपुर से एक आदिवासी युवक को टिकट देने की बात भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। इससे आदिवासी हितों के प्रति पार्टी की प्रतिबध्दता व्यक्त होती है तथा देश की राजनीति को एक नयी दिशा में ले जाने की चाहत भी प्रकट होती है।

 देशबंधु में 17 अक्टूबर 2013 को प्रकाशित 

Wednesday 9 October 2013

देहलीज पर चुनाव

मुझे कुछ ऐसा अनुमान था कि चुनाव आयोग इतनी मेहरबानी जरूर करेगा कि जिन राज्यों में चुनाव होना हैं, उनकी सरकारें गांधी जयंती के दिन बापू की प्रतिमा पर पुष्पाहार चढ़ाकर फोटो खिंचवाने का एक आखिरी मौका हासिल कर लें, उसके बाद ही विधानसभा चुनावों का कार्यक्रम घोषित किया जाए। इस अनुमान के पीछे शायद मेरी यह स्वार्थ-बुध्दि भी कहीं काम कर रही थी कि गांधी जयंती पर सरकारी विज्ञापन छापने के मौके से कहीं हम अखबार वाले वंचित न हो जाएं। तो सबसे पहले चुनाव आयोग का शुक्रिया,  क्योंकि अब 8 दिसम्बर तक सरकारी विज्ञापन मिलने की कोई सूरत नहीं है। छत्तीसगढ़ में बहुत से लोगों व संस्थाओं को जिनमें अखबार भी शामिल हैं आसन्न चुनावों के कारण एक और बड़ा नुकसान उठाना पड़ेगा। सात दिन के भव्य राज्योत्सव में करोड़ों रुपए खर्च होते थे। कोई नहीं पूछता था कि इस खर्च का कोई औचित्य है या नहीं। शामियाना और स्टाल सजाने वाले, टैक्सी वाले  तथा अन्यान्य व्यक्तियों और संस्थाओं को तो कमाई करने का यह एक अच्छा अवसर होता ही था, सलमान खान और करीना कपूर जैसों की गरीबी भी इस बहाने थोड़ी दूर हो जाती थी। जाहिर है कि समाचारपत्रों को भी उनका हिस्सा मिलता ही था। जो सरकार के करीब उसे उतना ज्यादा । चूंकि चुनाव घोषित हो गए हैं इसलिए इस साल राज्योत्सव मनने के कोई आसार नहीं है। दीपावली का पर्व भी ऐन उन्हीं तिथियों में पड़ रहा है। इसलिए राज्य स्थापना दिवस पर अगर कोई कार्यक्रम होगा तो वह औपचारिकता का निर्वाह मात्र होगा। संभव है कि मुख्यमंत्री के बजाय मुख्य सचिव ही उसका उद्धाटन करें। 

मैं, 4 अक्टूबर को जिस दिन चुनाव आयोग ने चुनावी कार्यक्रम घोषित किया, रायपुर से सात सौ कि.मी. दूर इंदौर में था। चूंकि मध्यप्रदेश में भी चुनाव होना हैं इसलिए वहां की फिजा भी देखते ही देखते बदल गई। मैं जब चार की सुबह इंदौर पहुंचा तब जगह-जगह पर सत्तापक्ष के नेताओं के होर्डिंग्स, बैनर, पोस्टर लगे हुए थे। वहां के प्रशासन ने सबसे पहला काम होर्डिंग्स को हटाने का किया। इसमें एक विषम स्थिति तब पैदा हुई जब नगर निगम कर्मचारियों ने संकोच या भय के कारण सत्तापक्ष के कुछ नेताओं के होर्डिंग्स को हाथ नहीं लगाया। इस पर स्वाभाविक ही विपक्ष याने कांग्रेस के लोगों ने बवाल मचाया और अंतत: नगर निगम को यथोचित कार्रवाई करना पड़ी। 


कुर्सी किस हद तक किसी को दीवाना बना सकती है इसका एक दिलचस्प उदाहरण भी इंदौर में देखने को मिला। वहां भाजपा के कोई नेता हैं शंकर लालवानी। वे कुछ दिनों से मुख्यमंत्री के पीछे-पीछे घूम रहे थे कि उन्हें इंदौर विकास प्राधिकरण का अध्यक्ष बना दिया जाए। बहुत ना-नुकुर के बाद मुख्यमंत्री ने उनकी इच्छा तो पूरी की, लेकिन कहते हैं कि जिस पल सरकारी आदेश पर हस्ताक्षर हुए उस समय आचार संहिता लागू हो चुकी थी। कांग्रेसियों ने इसकी शिकायत की। इंदौर के जिलाधीश ने इस बात की पुष्टि की और मध्यप्रदेश के मुख्य निर्वाचन अधिकारी जयदीप गोविंद ने कलेक्टर की रिपोर्ट के आधार पर निर्णय लेने की सिफारिश निर्वाचन आयोग से कर दी है। हो सकता है कि उस पर आयोग ने अब तक कोई निर्णय ले लिया हो!


इस प्रसंग में गौरतलब है कि मुख्यमंत्री के अलावा अध्यक्ष पद के अभिलाषी व उनके समर्थक यह भलीभांति जानते थे कि चुनाव अब दूर नहीं है तथा आचार संहिता किसी भी दिन लागू हो सकती है, फिर भी श्री लालवानी इस कदर बावले हुए जा रहे थे मानों इंदौर विकास प्राधिकरण का अध्यक्ष पद मिले बिना उनका परलोक नहीं सुधरेगा। कुर्सी न हुई, अंतिम घड़ी में मिलने वाला गंगाजल हो गया! जिस युवा मुख्यमंत्री की समझदारी और नेतृत्व क्षमता की कहानियां हम लगातार पढ़ते आए हैं, उसे ऐसी स्थिति में कमजोरी क्यों दिखानी चाहिए थी, यह मेरी समझ में नहीं आया। 


बहरहाल, 6 तारीख की शाम मैं जब रायपुर लौटा तो अपना शहर कुछ धुला-धुला सा, कुछ ज्यादा साफ-सुथरा नजर  आया। पहले तो उसका कारण नहीं समझ आया, फिर एकाएक ध्यान गया कि तेलीबांधा से टाटीबंध तक के वे सारे होर्डिंग्स उतारे जा चुके थे जिनसे मुख्यमंत्री या कोई अन्य मंत्री झांक रहा था। हर दस कदम पर लगे ये होर्डिंग्स राह चलतों पर अपनी कृपादृष्टि बिखेर रहे थे या गिध्द की मानिंद अपने पंजों में दबोचने के लिए मंडरा रहे थे, कहा नहीं जा सकता। मेरा ध्यान इस तथ्य पर जाए बिना नहीं रहता कि इनमें से बहुत से होर्डिंग्स तो अभी महीने-दो महीने के भीतर लगाए गए थे। गोया आपका पांच साल का काम नहीं, बल्कि पांच हफ्ते का प्रचार चुनाव जितवा देगा। बात निकली है तो जनता के बीच फैली इस चर्चा का जिक्र भी कर देना चाहिए कि बृजमोहन अग्रवाल के होर्डिंग्स की संख्या डॉ. रमन सिंह के होर्डिंग्स के मुकाबले कहीं अधिक नजर आ रही थी। क्यों? तो इसका उत्तर सब जानते हैं। 


इन होर्डिंग्स के हटने से कुछ दिनों के लिए शहर की हवा में थोड़ा हल्कापन, थोड़ी ताजगी जरूर महसूस हो रही है, लेकिन अगर भाजपा तीसरी बार चुनाव जीतती है तो नए दावों के साथ ये विज्ञापन पट फिर से लग जाएंगे और अगर कांग्रेस दस साल के बाद सत्ता में वापिस आती है तो वह भी अपनी नई तस्वीरों व नए वायदों के साथ विज्ञापन करने में कोई कसर बाकी नहीं छोड़ेगी। शायद यही वजह है कि किसी भी कांग्रेस समर्थक ने सूचना के अधिकार के तहत यह जानने की कोशिश नहीं की कि पिछले दिनों किस मंत्री के कितने बोर्ड लगे तथा इनके लिए किस विभाग ने कितने लाख रुपए खर्च किए।


इस बीच छत्तीसगढ़ में दो बाबा भी चर्चा में आए। एक तो संत-कवि-प्रवचनकार-राजनेता एवं हमारे परम हितैषी पवन दीवान चौथी या पांचवी बार भाजपा में वापिस लौट आए। जिसका नाम ही पवन है, उसे यहां-वहां बहने से कोई रोक भी तो नहीं सकता! दूसरे, राजकीय अतिथि बनकर आए बाबा रामदेव बेहिचक कांग्रेस के नेताओं के प्रति संयमहीन वचन बोलते रहे। इस कथित योग-गुरु से अपनी वाणी को साधना नहीं हुआ। देर से सही, कांग्रेसी जागे और चुनाव आयोग से शिकायत की।


चुनावी माहौल में रायपुर के किसी अन्य अखबार में इसी सोमवार को यह खबर पढ़कर मुझे आश्चर्य हुआ कि सरकार का खजाना खाली हो चुका है और उसे बार-बार रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया से ओवर ड्रॉफ्ट लेना पड़ रहा है। यह अखबार चूंकि मुख्यमंत्री का करीबी समझा जाता है इसलिए उसकी खबर पर अविश्वास करने का कोई कारण नहीं है। यद्यपि इस बात का आश्चर्य जरूर है कि कल तक आप इस सरकार के खिलाफ एक शब्द भी नहीं लिखते थे आज अचानक आपका हृदय परिवर्तन कैसे हुआ? खैर! इससे कुछ गंभीर सवाल उठते हैं। यदि सरकार के पास सचमुच रकम नहीं थी तो फिर ऐसे कार्यक्रम क्यों बनाए गए जो एक तरह से खैरात की श्रेणी में गिने जाएंगे? जब सिलाई मशीन, नाई पेटी, बढ़ई पेटी, छात्राओं के अलावा अन्यों को साइकिल, बरसाती, चप्पल जैसी वस्तुएं देने का कार्यक्रम आप बनाते हैं तो ऐसा लगता है मानो प्राचीनकाल का कोई राजा प्रजा को धन्य कर रहा है! 


यह एक लंबी बहस का मुद्दा है, लेकिन प्रदेश की जनता के सामने यह खबर तात्कालिक रूप से चिंताजनक है तथा दो-तीन माह बाद ही इससे उपजी परिस्थिति का सामना करने के लिए उसे तैयार होना पड़ेगा। यदि भाजपा की सरकार तीसरी बार बनती है तो इस साधनहीनता में वह आगे सरकार कैसे चलाएगी और यदि सरकार कांग्रेस की बनती है तो वह आवश्यक किन्तु कठोर आर्थिक निर्णय लेने का क्या साहस बटोर पाएगी?


देशबंधु में 10 अक्टूबर 2013 को प्रकाशित

Sunday 6 October 2013

The relevance of Gandhi in the 21st Century


At the first glance, it appears to be an idle and, to some extent absurd, exercise to ask if
Gandhi has any relevance in the 21st century. Who would not agree with the preposition that the validity of Gandhi has no expiry date and that he is as important and relevant today as he was almost a hundred years ago! Some might argue that we need him more than ever and some would like to position him in the global context rather than confining to India. But the real answer to this question much depends upon how one sees & understands Gandhi. After all, his was a life shaped by self-discovered theories- extraordinary and unprecedented in many ways and filled with myriad experiences and actions based upon such theories. Little wonder that everyone has his or her own perspective on Gandhi.


To a vast majority in the sub-continent he was a Mahatma: a saint, a sage whose every word was a command and who was to be followed with no questions asked. Six and half decades later, he stands on an even higher pedestal, being treated almost like a god. Moving farther we note that in his life time, a large number of people in foreign countries were attracted to his words and deeds. The number seems to have grown exponentially in the present times, more so after the making of the film “Gandhi”. In fact, this was the very first glimpse of Gandhi to a whole new lot of people across the seven seas. It can be safely assumed that it has become almost impossible today to ignore Gandhi-the Mahatma. Take for instance the case of RSS- the Hindu right-wing outfit. The irony is hard to miss that Gandhi was assassinated by a volunteer of this so-called cultural organisation. Yet it has of late tried to appropriate Gandhi by including him to its pantheon. How it perceives Gandhi is any body’s guess, because it has never deviated from its ideological core in the following years.


Another aspect of Gandhi was that he was a great writer and a great journalist . He quite
regularly expressed his thoughts using various media on a whole range of subjects. It has
afforded an opportunity, an alibi and an excuse to many a writer/commentator to pick up
freely & selectively from his works and interpret it in a manner best suited to one’s own
purpose. There are social thinkers and commentators galore who would like us to believe
that “Hind Swaraj” published in 1909 is the ultimate in the Gandhian philosophy and thereafter he had nothing more to say or to revise his own views! As if this was not enough, in 1999 I was sent a booklet published by a so-called Gandhian activist that juxtaposed
Gandhi’s view on Christianity and in that light sought justification for the gruesome killing
of the Australian missionary Father Graham Staines in Odisha only few weeks ago. (I was
not only appalled to read the book, but also sent a strong rejoinder to the author & the
Gandhian society he was linked with).


Mahatma Gandhi was a mulch-faceted personality- lawyer, civil rights activist, author,
journalist, educationist, environmentalist, social worker, freedom fighter, political strategist and a political philosopher. He was also known for his austere life style that is eloquently depicted in a simple line sketch with the hint of a walking stick and specs. This larger than life personality of Gandhi opens an easy road for anyone who aspires to be labeled as a
Gandhian. A person may very well claim to be a true follower of Gandhi if he spends
some spare time with leprosy patients, becomes a member of the "Harijan Sevak Sangh"  wears Khadi or believes in naturopathy.  Moving to political landscape, you have the set
of people swearing by Gandhi who deeply yet naively believe that Sardar Patel and not
Pandit Nehru was the true heir of the Mahatma.


Meandering through such thoughts, it indeed becomes little fuzzy and problem-some to
understand the relevance of Gandhi in the 21st century. Therefore I propose that we turn
to his political philosophy. Only then we shall be able to find adequate answer to our
question. As a political thinker and activist Gandhi gave us two basic tenets- Ahimsa and
Satyagrah: non-violence and non-negotiability of truth. The tools he gave to fight for
these paramount ideals were- civil disobedience, fearlessness, self-denial of creature
comforts etc. Then he also gave us some mantras to judge our own actions .Here I would
mention only two. One- There is enough in this world for everyone’s needs but not
enough for a single man’s greed and two- in all your actions always think about the last
person down the line. My submission is that Gandhi will remain relevant for us, as long
as 1) we are willing to learn these mantras by heart and prepared to act upon them, 2) are ready to overcome our fears, sacrifice personal comforts and fight for the greater good ; and 3) are steadfastly committed to the twin principals of Ahimsa and Satyagrah.


I may perhaps illustrate my views by putting them in a specific perspective. Let us, for
example, take a quick look at the highly contentious issue of nuclear power. Almost
every nation on the earth wants to acquire or augment nuclear capability either to
strengthen its war machine or on the pretext of its peaceful use. But no one is willing to
talk about the horrendous consequences it presents. Now if a country truly believes in
non-violence, it must not only abhor war, but on the contrary make all possible efforts to
find peaceful solutions to its security issues. Similarly if a country that has faith in the
Gandhian ideals, it should adopt a strategy to reduce wasteful consumption and simultaneously make plans to use green technology to overcome energy crisis, rather than
resorting to generation of nuclear power. In both the cases, adherence to Gandhian
values would mean a win-win situation by considerable saving of precious national
resources, and creation of a safer and peaceful environment to live in.


Take another scenario. We are living in an era when so many conflicts, either internal or
external, are going on in several parts of the world. In the case of situations imposed from
the outside we find that the old ways of the empire have come back with vengeance to
torment us. We realise that the American dream of hegemony over the world knows no
limits. The point is do we have an answer in the Gandhian discourse to stop the US from
its onslaught on humanity? On the face of it seems improbable. But we should not overlook
the fact that Iraq could not match the military might of the US and its allies and thus failed to
save its sovereignty. So did Afghanistan and Libya. Likewise,The valiant Palestinians
in spite of countless sufferings have been fighting a long-drawn battle to get a country of their own,  but again they have not yet succeeded in thwarting Israel’s continued aggression. Therefore, I put it to you- is it not the time to think of some new approach in order to turn the
wheels! If yes, what it could be other than what Gandhi taught us. You may like to ponder
over it.


Talking about internal conflicts, mostly it appears to be the insensitivity of the ruling elite.
Even those who work in a democratic framework are prone to acquire this trait quickly. In
these situations, one can hardly miss the unbridled greed writ large on the face of those
who rule us.This pathetic situation could possibly be averted, if only one remembered the
mantra given by the Mahatma to not lose sight of the last man at the end of the line. There is also the question of communal or sectarian strife in many societies. Such clashes mainly
occur due to prejudice and ignorance about others and pride in one’s own customs, traditions and beliefs. The Mahatma all his life tried to build bridges between different communities & ultimately gave his life in the cause of bridging the gap between two communities. Across the oceans, he found worthy followers in Martin Luther King Jr. Chief Albert Luthuli, Nelson Mandela and many others.


I would like to emphasise that Ahimsa as taught by Gandhi is the highest form of courage and valour. It should not be misunderstood or equated, as many people tend to do, with passive kindness towards a fellow human being or an animal! Ahimsa and Satyagrah both are at the core of Gandhian thoughts. He brilliantly and successfully used them as political weapons and perhaps the time has come to re-engage with them.



Lalit Surjan
Vice President
All India Peace & Solidarity Organisation
New Delhi



Paper presented in International Conference On “Gandhi, Disarmament & Development”
held in Indore, India On 4,5,6 October 2013.

Wednesday 2 October 2013

संसद की सर्वोच्चता कायम रखने की जरूरत

भारत के राजनीतिक ढांचे में बहुत सी विशेषताएं हैं। इनमें सर्वोपरि है विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच कामकाज का स्पष्ट विभाजन। विधायिका की जिम्मेदारी नियम- कानून बनाने की है, कार्यपालिका को उन पर अमल करना है और न्यायपालिका को यह देखना है कि अमल करने में कोई गड़बड़ी न हो। ऐसी सुंदर व्यवस्था विश्व के अनेक सुंदर जनतांत्रिक देशों में नहीं है और इसके लिए हमें अपने संविधान निर्माताओं का आभार मानना चाहिए। ये तीनों संस्थाएं अपने आप में स्वतंत्र हैं, लेकिन तीनों अपने-अपने स्तर पर जब सही ढंग से काम करती हैं तभी कड़ियां जुड़कर आदि से अंत तक व्यवस्था सुचारु बनती है । यूं तो तीनों संस्थाओं की अपनी-अपनी प्रतिष्ठा है, लेकिन यह मानना चाहिए कि विधायिका की स्थिति अन्य दो संस्थाओं के मुकाबले थोड़ी ऊंची हैं क्योंकि वह सार्वभौम देश की स्वाधीन जनता का सीधे-सीधे प्रतिनिधित्व करती हैं, जिसका जयघोष हर आम चुनाव के समय प्रतिध्वनित होता है।

यह दुर्भाग्य का विषय है कि पिछले तीस साल के दौरान भारतीय संसद की इस प्रतिष्ठा में कहीं कोई कमी आई है। इसके कारणों की समीक्षा समय-समय पर होती रहती है। इसी तरह कार्यपालिका के प्रति जनता के विश्वास में भी धीरे-धीरे कर कमी आई है। प्रतिष्ठा और विश्वास की इस गिरावट को दूर करने का काम किसी हद तक न्यायपालिका ने किया है। एक आम धारणा बन गई है कि अगर देश में स्थितियां बिगड़ती हैं तो उन्हें न्यायपालिका का सहारा लेकर ही सुधारा जा सकता है। यह भावना इस नाते तो ठीक है कि जनतंत्र के एक आधार स्तंभ की विश्वसनीयता अब भी कायम है; लेकिन इससे यह प्रश्न भी उठता है कि सिर्फ एक खंभे के आधार पर इमारत कब तक खड़ी रह सकती है। दूसरे शब्दों में, जनता को यह विचार करना ही होगा कि अन्य दो स्तंभों की विश्वसनीयता को दुबारा कायम कैसे किया जाए! 


यह जो स्थिति है, इसमें न्यायपालिका के प्रति ऐसी अंधश्रध्दा रखना भी शायद उचित नहीं है। कहीं हम अपनी निराशा के चलते न्यायतंत्र में जो कमजोरियां घर कर गई हैं उनकी अनदेखी तो नहीं कर रहे हैं, यह प्रश्न अपने आपसे हमें करना चाहिए। इस बारे में हाल के बरसों में जो सूचनाएं और प्रमाण मिले हैं उनका संज्ञान लेना भी उतना ही आवश्यक है, जितना विधायिका और कार्यपालिका की गड़बड़ियों के बारे में। याद करें कि 13 दिसंबर 2001 को भारतीय संसद पर हमला हुआ था तब उसे सीधे-सीधे लोकतंत्र पर हमला माना गया था इसलिए कि संसद सिर्फ एक इमारत नहीं है, वह हमारी जनतांत्रिक महत्वाकांक्षा का कोरा प्रतीक भी नहीं है, बल्कि संसद ही वह मंच है जिसके माध्यम से हम अपने लिए शक्ति पाते हैं। जब हम अभिमान से कहते हैं कि भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है तब यह याद रखना उचित होगा कि इसका स्रोत और आधार कहां है।  


अभी हाल में सर्वोच्च न्यायालय ने जनप्रतिनिधित्व कानून की जो व्याख्या दो अवसरों पर की है वह हमारे मन में चिंता उपजाती है।  जनभावना अपनी जगह बिल्कुल उचित है कि जो व्यक्ति अपराध में लिप्त रहे हों वे विधान सदनों में प्रवेश न कर सकें, लेकिन क्या यह सिर्फ कानून बना लेने या कानून की व्याख्या कर देने मात्र से संभव है या इसके लिए अलग हटकर सोचने की जरूरत है? मैंने दो माह पूर्व अपने एक लेख में कहा था कि सर्वोच्च न्यायालय की व्याख्या के बाद राजनीतिक दलों को इसका विरोध नहीं करना चाहिए, क्योंकि जनभावना संसद और विधानसभा में अपराधियों को नहीं देखना चाहती। इसके बाद भी यदि केन्द्र सरकार ने अध्यादेश लाकर न्यायालय के फैसले को बदलने की कोशिश की तो उसकी पृष्ठभूमि को समझना भी जरूरी है। आज सारे राजनीतिक दल सिध्दांत की राजनीति के बजाय महज चुनावी राजनीति कर रहे हैं और सबसे पहले जरूरत है तो इस प्रवृत्ति को बदलने की। यह महती कार्य न्यायालय के फैसले से नहीं हो सकता।


सर्वोच्च न्यायालय का दूसरा फैसला मतदान प्रक्रिया के संबंध में आया है। अब मतदाताओं को अधिकार है कि वे चुनाव में खड़े सारे उम्मीदवारों को खारिज कर दें। इससे एक विचित्र स्थिति पैदा होती है। इस तरह से नकारने वाले जो वोट डाले जाएंगे उनकी गिनती अलग से होगी और वे नतीजों को प्रभावित नहीं कर सकेंगे। यदि पचास प्रतिशत से अधिक मतदाता भी सारे उम्मीदवारों को खारिज कर दें तो भी चुनाव दुबारा नहीं होंगे। यह कुछ वैसी ही स्थिति होगी कि मतदाता घर बैठा रहे और वोट डालने जाए ही नहीं। मेरे हिसाब से यह निठल्लेपन की कसरत है। संविधान में राजनीतिक दलों की व्यवस्था है, निर्दलीय उम्मीदवार भी चुनाव लड़ सकते हैं, एक शक्ति सम्पन्न चुनाव आयोग है जो चुनावी प्रक्रिया का नियमन करता है। यदि राजनीतिक दलों ने सही उम्मीदवार मैदान में नहीं उतारे तो उसका विरोध सिर्फ वोट न डालकर नहीं हो सकता। 


देश में एक ऐसी सुविधाभोगी जमात है, जिसका जनतंत्र में सचमुच विश्वास नहीं है। इस तबके के लोग वोट डालने जैसे कामों में अपना वक्त बर्बाद नहीं करते। उनके लिए मतदान का दिन  छुट्टी का एक और दिन होता है। अब इनमें से कोई नहीं का विकल्प देने का एक ही परिणाम होगा कि मतदान केन्द्र तक जाकर कुछ अन्य लोग अपनी खीझ उतारकर वापस आ जाएंगे। दरअसल, यहां जरूरत इस बात पर विचार करने की है कि आमजन के मन में राजनीतिक दलों, प्रत्याशियों और कुल मिलाकर जनतांत्रिक व्यवस्था के प्रति निराशा का जो भाव पनप रहा है उसे कैसे दूर किया जाए। इसके लिए बहुत कुछ सोचने और करने की आवश्यकता है, लेकिन इतना तो तय है कि अदालत के ऐसे फैसलों से आप कुछ खास हासिल नहीं कर सकते।  यदि मतदाता को पहले से ही कोई भी उम्मीदवार पसंद नहीं है तो वह भला वोट डालने जाएगा ही क्यों, जबकि हमारा लक्ष्य तो अधिकतम मतदाताओं को मतदान केन्द्र तक लाने का होना चाहिए।


मेरा सदैव से मानना रहा है कि लोकतांत्रिक व्यवस्था सिर्फ कानून से नहीं चलती, जबकि हमारी विडंबना यह है कि कुछ भी गड़बड़ होने पर हम तुरंत एक नया कानून बनाने की मांग करने लगते हैं। जब कानून बन जाता है तो उस पर अमल हो भी रहा है या नहीं, यह देखने की सुध किसी को नहीं रहती। जहां अधिनायकवाद, राजतंत्र या सैन्यतंत्र है वहां शासन चलाने में न तो इतिहास की परवाह की जाती और न भविष्य की। सत्ताधीश की जुबान से निकली बात ही प्रथम और अंतिम होती है। इसके विपरीत जनतंत्र आम सहमति के आधार पर एक दीर्घकालीन दृष्टि को लेकर चलता है, जिसमें इतिहास से सबक लेकर वर्तमान की जमीन पर भविष्य के सपने बुने जाते हैं। 


मुख्य रूप से यह कार्य राजनीतिक दलों का है, क्योंकि जनता उन पर विश्वास करती है, उनकी नीतियों और कार्यक्रमों से प्रभावित होती है और इसी आधार पर उन्हें चुनने के लिए अपना मत देती है। इसलिए यह जिम्मेदारी राजनीतिक दलों की है कि वे देश में राजनीति के लिए एक स्वस्थ माहौल का निर्माण करें। इसके लिए पंचायतीराज से शुरू कर संसद तक उनकी भूमिका ऐसी हो कि वे जनता का विश्वास जीत सकें।  बात सिर्फ दागी या नाकाबिल लोगों को टिकट देने की नहीं है। इसके आगे निर्वाचित सदनों में उनका व्यवहार कैसा है, वे किस तरह से नीतियां व कार्यक्रम बनाते हैं, वे भय व राग से मुक्त होकर अपना दायित्व निभाने में सक्षम हैं या नहीं, वे संसदीय गरिमा का पालन करते हैं या नहीं- ऐसे तमाम सवाल भी उठते हैं। जाहिर है कि विधायिका की सारी की सारी जिम्मेदारियां न्यायपालिका अपने ऊपर कभी नहीं ले सकती। इसके लिए तो राजनीतिक दलों को ही आत्मालोचन करने की आवश्यकता है। सर्वोच्च न्यायालय के फैसलों में यह संदेश निहित है कि भारत के राजनीतिक दलों को समय रहते अपने आचरण में वांछित परिवर्तन कर लेना चाहिए। एक बार यदि जनता का विश्वास खंडित हो गया तो फिर देश पहले अराजकता और फिर अधिनायकवाद की तरफ जा सकता है। हमारे संसदीय जनतंत्र को चोर दरवाजे से अमेरिका के व्यक्ति केन्द्रित जनतंत्र में बदलने की जो कोशिश चल रही है उससे इसी खतरे का संकेत मिलता है। 


देशबंधु में 3 अक्टूबर 2013 को प्रकाशित

Tuesday 1 October 2013

जे एम् कोइत्जी के साहित्यिक निबंध


जे.एम. कोइत्जी वर्तमान समय के एक अत्यंत महत्वपूर्ण रचनाकार हैं। उन्हें नोबल पुरस्कार तो प्राप्त हुआ ही है, वे संभवत: एकमात्र लेखक हैं, जिन्हें दो बार बुकर पुरस्कार से सम्मानित किया गया है। यूं तो कोइत्जी दक्षिण अफ्रीका के हैं, लेकिन पिछले कुछ सालों से उन्होंने ऑस्ट्रेलिया को अपना घर बना लिया है। अपने नाम से लिखने के अलावा एलिजाबेथ कॉस्टेलो के छद्मनाम से भी उन्होंने रचनाएं की हैं। कोइत्जी की ख्याति मुख्य रूप से उपन्यासकार अथवा गल्प लेखक के रूप में है, लेकिन उन्होंने अनेक निबंध भी लिखे हैं। उनके तीन निबंध संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। मैं अपनी बात उनके एक निबंध संग्रह ''इनर वर्किंग्स-2000-2005'' को केन्द्र में रखकर कर रहा हूं। इस पुस्तक ने मुझे गहरे तक प्रभावित किया है तथा साहित्य के मर्म को नए सिरे से समझने का रास्ता दिखाया है। वे लोग जो साहित्य का ज्ञान मुझसे ज्यादा रखते हैं उन्हें यह अतिशयोक्ति लग सकती है कि इस पुस्तक का एक-एक लेख अनूठा है। 

इन निबंधों में क्या है? संडे टाइम्स लंदन के पुस्तक समीक्षक हावर्ड जैकबसन के अनुसार ''कोइत्जी इन निबंधों के माध्यम से बार-बार उन लेखकों को पढ़ने के लिए प्रेरित करते हैं जिन्हें आपने अब तक नहीं पढ़ा है और जिन्हें आप अब तक पढ़ चुके हैं उन्हें दुबारा पढ़ने के लिए उकसाते हैं। इस पुस्तक में कोइत्जी ने इक्कीस प्रमुख लेखकों के व्यक्तित्व व कृतित्व पर निबंध लिखे हैं। पुस्तक के संपादक डेरेक आल्ट्रिज की यह टिप्पणी दृष्टव्य है- ''ऐसा भान होता है कि लेखक ने अपने विषय से जुड़े हर प्रासंगिक पहलू का अध्ययन कर लिया है। यहां तक कि प्रतिपाद्य लेखक के रचना संचार की मामूली, गैर जरूरी और भूलने योग्य कृतियों को भी। वे रचना के ऐतिहासिक, सांस्कृतिक पृष्ठभूमियों से भी भली-भांति परिचित होते हैं। वे हर शैली एवं हर विषय पर लिखे साहित्य के एक उदार पाठक हैं किन्तु निर्णय देने में संकोच नहीं बरतते। कुल मिलाकर वे एक आदर्श समालोचक हैं।''

''इनर वर्किंग्स'' में कोइत्जी ने इक्कीस लेखकों के कृतित्व पर अपनी समीक्षात्मक टिप्पणियां की हैं। इनमें यूरोप, अमेरिका, लेटिन अमेरिका, अफ्रीका व एशियाई मूल के लेखक शामिल हैं। भारतीय पाठकों के लिए कुछ नाम अधिक परिचित हैं जैसे- वॉल्टर बेंजामिन, वॉल्ट ह्विटमेन, सेमुएल बैकेट, ग्रेब्रिएल गार्सिया मार्क्वेज, वी.एस. नॉयपाल, गुंटर ग्रास, ग्राहम ग्रीन व विलियम फॉकनर। अन्य लेखक भी अपने देश व अपनी भाषा के महत्वपूर्ण लेखक हैं, लेकिन हिन्दी के पाठकों का उनके साथ बहुत यादा परिचय नहीं है। कम से कम मैंने तो रॉबर्ट वाल्सर, इतालो स्वेवो जैसे लेखकों को बिल्कुल भी नहीं पढ़ा है। इनमें कुछ लेखक अंग्रेजी से इतर भाषाओं के हैं, लेकिन इनके काम अंग्रेजी में उपलब्ध हैं। यद्यपि कोइत्जी स्वयं मूलत: अफ्रीकान भाषी (दक्षिण अफ्रीका के डच वंशजों की भाषा) हैं, लेकिन अंग्रेजी उनकी प्रथम भाषा है तथा यादातर निबंध अंग्रेजी लेखकों पर ही हैं। 

मुझे इस पुस्तक ने मुख्यत: इसलिए आकर्षित किया कि इसके निबंधों में मुझे समालोचना के नए आयाम देखने मिले। हिन्दी में समीक्षाएं अमूमन यांत्रिक तरीके से लिखी जाती हैं। इनमें मित्र लेखक या प्रकाशक के साथ मधुर संबंध निभाने की भावना हावी होती है। नतीजतन विवेच्य पुस्तक या लेखक के बारे में तटस्थता के साथ विचार कम ही किया जाता है। अनेक बार पुस्तक समीक्षा में हमारा राजनैतिक मत भी पुस्तक के गुण-दोष पर भारी पड़ जाता है। यह कोई अच्छी स्थिति नहीं है। एक तो हिन्दी में वैसे ही पुस्तकों के खरीदने और पढ़ने का चलन अनेकानेक कारणों से कम होते जा रहा है। ऐसे में किसी रचना की समीक्षा उस रचना को पढ़ने के लिए पाठक को प्रेरित न कर पाए तो फिर ऐसी समीक्षा लिखने और छापने का क्या अर्थ रह जाता है? 
ऐसा नहीं कि इसके अपवाद न हों। रामविलास शर्मा द्वारा लिखित 'निराला की जीवनी', अमृत राय का 'कलम का सिपाही', विष्णु प्रभाकर का 'आवारा मसीहा'  जैसे विशद ग्रंथ भी हिन्दी में लिखे गए हैं जो महान साहित्यकारों के व्यक्तित्व और कृतित्व दोनों से पाठक का मुकम्मल परिचय कराते हैं। दूसरी तरफ चुनिंदा कृतियों को लेकर भी बेहतरीन समीक्षाएं लिखी गई हैं। राजेश जोशी ने निराला की किसी कविता पर 'नया पथ' में बेहद सटीक समीक्षात्मक लेख कुछ बरस पहले लिखा था। हाल-हाल में एकांत श्रीवास्तव ने अज्ञेय की 'असाध्य वीणा' व रवीन्द्रनाथ ठाकुर की ''सोनार तरी' पर अक्षर पर्व में लिखे लेखों में इन रचनाओं की आंतरिक शक्ति को बहुत समर्थ रूप से पाठक के सामने उद्धाटित किया है। जाहिर है कि ऐसे कार्य में समीक्षक को पूरी तरह से अपने आपको विषय में डुबाना पड़ता है। 

मैं कोइत्जी की इनर वर्किंग्स के सामने हिन्दी के इन श्रेष्ठ उदाहरणों को सामने रखता हूं तो एक दूसरी बात प्रकट होती है कि उन्होंने अपने एक-एक निबंध में गागर में सागर भरने का काम किया है। उनके लेखों में न तो कहीं असावधानी है और न कहीं शब्द स्फीति और न ही भाषा की दुरूहता। जिस खूबसूरती के साथ इतालो कालविनो ने क्लासिकी साहित्य को परिभाषित किया वैसी ही समझ में आने वाली व बांध लेने वाली भाषा कोइत्जी के निबंधों में है। जैसा कि कहा जाता है कि सरल भाषा में लिखना सबसे ज्यादा कठिन होता है तो कठिनाई पर विजय पाने की शक्ति उनका लेखनी में भरपूर है। कोइत्जी के इन इक्कीस समीक्षात्मक लेखकों में से हरेक के लेख की शुरुआत एक नए ढंग से होती है, वे फिर रचना का मर्म खोजते हुए उसे विस्तार देते हैं और एक सटीक टिप्पणी के साथ लेख का समापन करते हैं। उनकी इस शैली की तुलना किस तरह करुं इसका कोई खाका मैं तैयार नहीं कर पाया हूं। विवेच्य लेखक के जीवन के किसी एक पहलू को उठाकर फिर उसे एक नदी समान विस्तार देना और अंत में सैकड़ों धाराओं में डेल्टा की तरह बिखर जाने के बजाय वापिस उस प्रवाह को समेट लेना इसमें ही लेखक का सामर्थ्य प्रगट होता है।

 वे वॉल्टर बेंजामिन पर अपने निबंध की शुरूआत उस दारुण प्रसंग के साथ करते हैं जब बेंजामिन 1940 के हिटलरकालीन फ्रांस छोड़कर स्पेन की ओर भाग रहे हैं, उन्हें सीमा पर रोक दिया जाता है, कागजात अधूरे हैं, अवसाद में बेंजामिन नींद की गोलियां खाकर आत्महत्या कर लेते हैं। वे जो महत्वपूर्ण पांडुलिपि अपने साथ लेकर भाग रहे हैं वह गुम हो जाती है। बरसों-बरस बाद 1982 में उस पांडुलिपि की दूसरी प्रति मिलती है और तब प्रकाशन होता है पेरिस के चंदोबे वाले बाज़ारों (आर्केड) को आधार बनाकर लिखी उनकी पुस्तक का। 
इस सुदीर्घ निबंध में कोइत्जी, वॉल्टर बेंजामिन की राजनीति पर मार्क्सवाद का प्रभाव, फासीवाद, इतिहास दृष्टि, बाजार का प्रभाव इन सबकी विवेचना करते हैं। बेंजामिन बढ़ते हुए शहरीकरण के दुष्प्रभावों से चिंतित थे, यहां वे बॉदलेयर से प्रभावित हैं, लेकिन कोइत्जी इंगित करते हैं कि बेंजामिन ने बॉदलेयर से पचास साल पहले हुए वर्ड्सवर्थ को शायद नहीं पढ़ा जिनकी कविताओं में लंदन के बाजारीकरण के चित्र अंकित हैं। बहरहाल, इन सबसे होते हुए अंत पर पहुंचकर कोइत्जी सवाल उठाते हैं- ''वॉल्टर बेंजामिन आखिरकार क्या था : दार्शनिक? समीक्षक? इतिहासवेत्ता? या महज लेखक? इसका सर्वोत्तम उत्तर हन्ना अरेंड्ट ने दिया है। उन्हें आप किसी श्रेणी में नहीं बांध सकते। वे न तो पहले के बने ढांचे में फिट होते हैं और न उन्होंने कोई नई विधा प्रारंभ की है।''

अपने हर निबंध को कोइत्जी ने प्रारंभ से अंत तक इसी साफ नजर और सुघड़ता के साथ बांधा है। उनके कुछ अन्य निबंधों का प्रारंभ हम देखें। ग्राह्म ग्रीन पर लिखते हुए वे 1930 में ब्राइटन नामक समुद्र तट पर बसे एक आकर्षक स्थान की चर्चा करते हैं, जो ग्रीन को बेहद पसंद था। वे लिखते हैं कि- ''ब्राइटन सैलानियों के लिए तो आकर्षक था, लेकिन उसका एक कुरूप चेहरा भी था जहां उद्योगों की धुएं से भरी थकान में भी परस्पर अविश्वास था, अपराध था और ग्रीन वहां बार-बार अपनी रचनाओं के लिए विषय खोजने अथवा प्रेरणा पाने आते थे।'' वॉल्ट ह्विटमेन के लेख की शुरूआत उस पत्र से होती है जो ह्विटमेन अगस्त 1863 में वाशिंगटन के एक अस्पताल में मृत सिपाही के परिवार को शोक संवेदना के नाते भेजते हैं: उस समय ह्विटमेन सिपाहियों के बीच एक पादरी की तरह काम कर रहे थे। बी.एस. नॉयपाल वाले लेख के प्रारंभ में सुप्रसिध्द लेखक सॉमरसेट मॉम की भारत यात्रा का वर्णन है कि वे 1930 की दशक में यहां आए व मद्रास के निकट महर्षि रमण के आश्रम में उनसे मिलने गए। वे वहां गर्मी के कारण कुछ देर के लिए बेहोश भी हो गए। इसके आगे कोइत्जी वर्णन करते हैं कि इस घटना ने परवर्ती काल में नायपाल की लेखनी को किस तरह प्रभावित किया।

जब कोइत्जी विलियम फॉकनर पर लिखते हैं तो सबसे पहले उनकी एक महिला मित्र को लिखे उस पत्र को उध्दृत करते हैं जिसमें उन्होंने कहा कि मैं बिल्कुल अनपढ़ हूं, लेकिन इसके बाद भी न जाने कैसे मैं लेखक बन गया। संकलन में शामिल अकेली लेखिका नदीन गोर्डिमार के लेखन की शुरूआत उनकी एक कहानी से होती है, जिसे आगे चलकर 'द पिकअप' नामक उपन्यास का रूप मिला। एक अन्य लेख में वे बताते हैं कि 1956 में क्रिसमस के दिन स्विट्जरलैण्ड में बच्चों को बर्फ में दबा एक शव दिखाई देता है। छानबीन से पता चलता है कि वह शव लेखक राबर्ट वाल्सर का था, जो विक्षिप्तावस्था में अस्पताल से कुछ दिन पहले गायब हो गया था। 

अब हम कुछ चर्चा इन लेखों की विस्तृत भावभूमि पर भी करें। ऑर्थर मिलर के एक नाटक पर बनी फिल्म 'द मिसफिट्स' में उनकी पूर्व पत्नी मर्लिन मुनरो नायिका की भूमिका में थी। इस कथा में नायिका नेवादा में ग्वालों (काऊ ब्वॉयों) के एक समूह से मिलती है और उनके साथ जंगली घोड़ों को पकड़ने के अभियान में शामिल हो जाती है, फिर उसे पता चलता है कि उसके साथी घोड़ों का उपयोग पालतू पशु के रूप में नहीं बल्कि पशु आहार के रूप में करने वाले हैं तो उसका मन उचट जाता है। यहां कोइत्जी टिप्पणी करते हैं- ''ये लोग मिलर के मिसफिट हैं जो न तो वर्तमान से समझौता कर पा रहे हैं और न इससे बाहर निकलने का कोई सम्मानजनक रास्ता खोज पा रहे हैं।'' कोइत्जी इसकी एक और व्याख्या करते हैं कि ''ये काऊब्वॉय आइजनहोवर के अमेरिका में तो मिसफिट हैं ही, नेवादा के जंगली घोड़ों का भी वही हाल है क्योंकि उनकी संख्या कई हजार से हटकर कुछ सौ तक सिमट गई है।'' मार्क्वेज् के बारे में वे कहते हैं- उनका लेखन जादुई यथार्थवाद नहीं बल्कि मनोवैज्ञानिक यथार्थवाद है जिसकी परंपरा सर्वांतीस से चली आ रही है। ऐसी सटीक टिप्पणियां अन्य लेखों में भी हैं।

जब हम निष्कर्षों की ओर जाते हैं तो वहां भी पाते हैं कि कितने बेहतरीन ढंग से लेखक ने अपने निबंध का समापन किया है। मसलन वे कहते हैं कि वॉल्ट ह्विटमेन किसी एक ग्रंथ के लिए नहीं बल्कि उनकी कुछ चुनिंदा कविताओं के लिए जाने जाएंगे। अन्यत्र उनकी टिप्पणी है कि विलियम फॉकनर की मयनोशी को समझने में उनके जीवनीकार अब तक असफल रहे हैं, लेकिन किसी भी तरह की लत को समझ पाना हमेशा ही एक निष्फल उद्यम होगा। कोइत्जी की राय नॉयपाल के बारे में है कि वे सूक्ष्म सांस्कृतिक स्तर पर अमेरिकी और भारतीय प्रभावों को सम्मिश्रित करने के प्रयास में असफल रहे हैं। सेमुअल बैकेट के बारे में कोइत्जी कहते हैं कि उनका अपना जैसा मिजाज था उसके चलते उन्होंने एक दार्शनिक भाव अपनी रचनाओं में अपनाया जिसका परिचय ''वेटिंग फॉर द गोडो'' में मिलता है। 

ये थोड़े से चुने हुए अंश मैंने जे.एम. कोइत्जी की लेखनी से परिचित कराने के उद्देश्य से दिए हैं। साहित्य के एक सामान्य पाठक के लिए ये सारे लेख उपयोगी हैं; ये हमारे समीक्षकों से भी ध्यानाकर्षण की अपेक्षा रखते हैं।

अक्षर पर्व सितम्बर 2013 में प्रकाशित