Wednesday 25 December 2013

देवयानी के बहाने भारत का अपमान




भारतीय
राजनयिक देवयानी खोब्रागड़े की अमेरिका में गिरफ्तारी एक ऐसा स्तब्ध कर देने वाला प्रसंग है, जिसके जख्म भारत की राष्ट्रीय स्मृति को लंबे समय तक सालते रहेंगे। अमेरिका ने ऐसा क्यों किया? इस बारे में पक्ष-विपक्ष दोनों ने बहुत से तर्क दिए हैं, लेकिन हमें इसके मूल में एक ही बात समझ आती है कि अमेरिका चूंकि एक महाशक्ति व उसके साथ उद्धत राष्ट्र है इसलिए वह अपने लिए कोई भी मर्यादा, कोई लक्ष्मण रेखा स्वीकार नहीं करता। अमेरिका ने जो कह दिया वह मानो पत्थर की लकीर है जिसे वर्तमान राजनीति की भाषा में कहा जाता है- ''नॉन निगोशिएबल''। जो अमेरिका अपने बरसों के सामरिक भागीदार पाकिस्तान पर ड्रोन हमले करने में नहीं हिचकिचाता उससे भारत को क्या उम्मीद रखना चाहिए जिसके संबंध अमेरिका के साथ कभी भी बहुत मधुर नहीं रहे और न दोनों के बीच कभी परस्पर विश्वास की भावना रही। यूं तो अपने अभ्युदय से लेकर अब तक अमेरिका के खाते में बहुत सी खूबियां दर्ज हैं जिनकी तारीफ अलेक्स द ताकविले से लेकर बट्रेंड रसल और जवाहरलाल नेहरू तक ने की है, लेकिन जब अमेरिका विश्व राजनीति के रंगमंच पर आता है तो अपनी इन खूबियों को घर में छोड़ आता है जिसके उदाहरण अनगिनत हैं।

देवयानी खोब्रागडे क़ो अमेरिकी सरकार ने इस आरोप में गिरफ्तार किया कि वे अपनी घरेलू सेवक संगीता रिचर्ड को झूठे दस्तावेज तैयार कर अमेरिका लेकर आईं तथा उसे अमेरिका में लागू न्यूनतम वेतन नहीं दिया। इस आरोप में कितनी सच्चाई है यह एक पृथक बिन्दु है, किन्तु विचारणीय प्रश्न यह है कि क्या अमेरिका को एक विदेशी राजनयिक के साथ इस तरह का बर्ताव करने का हक था।  सहज बुध्दि कहती है कि देवयानी एक सामान्य भारतीय नागरिक नहीं हैं। अपनी सेवा के आधार पर अमेरिका में या अन्य किसी भी देश में वे भारत की सार्वभौम सत्ता का प्रतीक हैं। अन्तरराष्ट्रीय राजनय में दूतावास कर्मियों को मेजबान देश में बहुत से विशेषाधिकार प्राप्त होते हैं, जिनमें एक यह भी है कि उन पर उस देश में मुकदमा नहीं चलाया जा सकता। याने अमेरिका ने भारत की प्रभुसत्ता का अपमान किया है।

इस बारे में अमेरिका ने एक तकनीकी बारीकी ढूंढ निकाली है कि देवयानी दूतावास की नहीं, बल्कि कौंसुलेट की अधिकारी थीं और इस नाते वे छूट की पात्र नहीं हैं। यह एक कुतर्क है क्योंकि भारत में अमेरिकी दूतावास व कौंसुलेट दोनों के कर्मियों को एक समान विशेषाधिकार प्राप्त हैं। इसका मतलब यह हुआ कि जो व्यवहार भारत अमेरिकी दूतों के साथ करता है, वही व्यवहार अमेरिका को भारतीय दूतों के साथ करना चाहिए। इस सिलसिले में कुछ और तथ्य गौरतलब हैं। देवयानी खोब्रागड़े ने कोई बहुत संगीन जुर्म नहीं किया था, जिसके आधार पर उन्हें छूट की पात्रता न दी जाती। यह एक राजनयिक अधिकारी एवं घरेलू सेवक के बीच का मामला था, जिसे आपस में बैठकर सुलझाना संभव था। दूसरी बात, कोई भी मेजबान देश किसी भी राजनयिक को अवांछित (परसोना नॉन ग्राटा) घोषित कर उसे देश छोड़ने का आदेश दे सकता है। ऐसा कई बार होता है। देवयानी के मामले में अमेरिका नाटक खड़ा करने के बजाय यह रास्ता अपनाता तो यह स्थिति न आती।

इस मामले में जो नए-नए खुलासे हो रहे हैं उनसे अमेरिका की नियत पर और शंका होने लगती है। अमेरिका ने संगीता रिचर्ड को टी-1 श्रेणी का वीजा जारी किया जो मानव तस्करी से उध्दार करने के लिए दिया जाता है। इसके बाद उसके पति और बच्चों को टी-2 और टी-3 वीजा दिए गए जो मानव तस्करी से बचाए गए व्यक्ति के रिश्तेदारों को दिए जाते हैं। इससे प्रतीत होता है कि अमेरिका ने देवयानी खोब्रागड़े को प्रताड़ित करने का इरादा पहले से बना लिया था। अन्यथा जो महिला भारत के सरकारी कर्मचारियों को दिए जाने वाले पासपोर्ट पर यात्रा कर रही हो उसमें मानव तस्करी की बात कैसे उठ गई? न्यूयार्क के सरकारी वकील भारतवंशी प्रीत भरारा ने बीच में यह भी कहा कि उन्होंने संगीता रिचर्ड के परिवार को भारत से सुरक्षित बाहर निकाल लिया है। इसका क्या अर्थ है? क्या रिचर्ड के परिवारजनों को भारत में कोई खतरा था? क्या उन्हें कोई धमकियां दी गई थीं? उनके लिए भारत के अमेरिकी दूतावास में टिकट खरीदे गए, इस मेहरबानी की क्या जरूरत थी?

इस बीच ऐसी खबरें भी सुनने में आई कि संभवत: संगीता रिचर्ड के माता-पिता कभी भारत में अमेरिकी दूतावास में काम करते थे। इसे आधार बनाकर यह शंका प्रकट की गई कि संगीता कहीं अमेरिका के लिए जासूसी तो नहीं करती थी। जिस तरीके से उसे और उसके परिवार वालों को अमेरिकी सरकार ने संरक्षण दिया उससे इस अफवाह को बल मिला। यद्यपि इसकी सच्चाई की तस्दीक शायद कभी नहीं हो पाएगी! इस घटना का दूसरा पहलू यह हो सकता है कि अमेरिका पहुंच जाने के बाद संगीता ने किन्हीं लोगों के फुसलाने से लालच में आकर देवयानी पर केस कर दिया हो, क्योंकि अमेरिका में उसकी हस्तलिखित डायरी तो यही कहती है कि वह देवयानी के यहां खुशी-खुशी और सम्मानपूर्वक कार्य कर रही थी।

इधर इस प्रसंग में एक नया पहलू जुड़ गया है। यह एक प्रकट सत्य है कि भारत में घरेलू कामकाज करने वाली औरतों की स्थिति अच्छी नहीं है। इसे आधार मानकर कुछ स्वयंसेवी संगठनों ने देवयानी खोब्रागड़े पर अपनी घरेलू सेविका के साथ दुर्व्यवहार करने का आरोप लगाया है। मुझे यह एकतरफा कदम लगता है। बिना संगीता रिचर्ड से बात किए, बिना देवयानी खोब्रागड़े का पक्ष जाने, बिना संबंधित तथ्यों का परीक्षण किए कैसे मान लिया जाए कि देवयानी खोब्रागडे दोषी है? यदि संगीता रिचर्ड को देवयानी के घर में बंधक बनाकर रखा गया होता, उसके बाहर आने-जाने पर पाबंदी होती, किसी पड़ोसी के फोन करने पर पुलिस पहुंचकर उसे आज़ाद करवाती तब तो देवयानी को दोषी माना जा सकता था, लेकिन अब तक जो साक्ष्य उपलब्ध हैं, वे कुछ और ही बात कहते हैं।

इस घटनाक्रम में एक पक्ष प्रीत भरारा का है। श्री भरारा भारतवंशी हैं एवं न्यूयार्क राय के सरकारी वकील हैं। वे पिछले दिनों सुर्खियों में आए, जब उन्होंने अरबपति भारतवंशी रजत गुप्ता की कारपोरेट धोखाधड़ी का मामला उजागर कर उन्हें जेल भिजवाया। अमेरिका में भारतवंशियों की एक पूरी पीढ़ी तैयार हो गई है, जिसने वहां जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में महत्वपूर्ण उपलब्धियां हासिल की हैं। इनमें बॉबी जिंदल, सुनीता विलियम्स, विक्रम पंडित, निक्की हेली और ऐसे तमाम लोग शामिल हैं। इनको देख-देखकर हमें ऐसा कुछ अभिमान होता है मानो भारत ने विश्व विजय हासिल कर ली हो। हम भूल जाते हैं कि ये सब अमेरिकी नागरिक हैं जिन्होंने वहां के संविधान के प्रति निष्ठा की शपथ ली है और भारत उनके लिए अंतत: पराया देश है।

इन भारतवंशी नागरिकों में अपने देश अमेरिका की राजनीति में आगे बढ़ने की इच्छा हो, यह स्वाभाविक है। फिलहाल दो भारतवंशी अमेरिकी राज्यों में गवर्नर पद पर आसीन हैं। किसी दिन कोई राष्ट्रपति भी बन जाए तो हमें आश्चर्य नहीं होगा; लेकिन मॉरिशस, सूरीनाम और फिजी इत्यादि के भारतवंशियों का अपने पुरखों की धरती से जो रागात्मक संबंध है, वह अमेरिका के इन भारतवंशियों में शायद नहीं है। इसलिए कि वे किसानों व मजदूरों की संतानें हैं और ये सम्पन्न सुविधाभोगी भारतीयों के वंशज। प्रीत भरारा अपने समकालीनों से शायद अलग नहीं हैं। देवयानी खोब्रागड़े के रूप में उन्हें एक ऐसा आरोपी मिल गया है, जिसे अगर वे दोषी ठहरा सके तो स्वयं को भारत की गर्भनाल से काटकर पूरी तरह से अमेरिकी कहला सकेंगे और शायद ऐसा करना उनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षा की पूर्ति में सहायक हो सकेगा।

कुल मिलाकर यही प्रतीत होता है कि अमेरिकी प्रशासन तंत्र ने देवयानी खोब्रागड़े को माध्यम बना भारत को नीचा दिखाने की कोशिश की है। भारत को इस षड़यंत्र के सामने कतई नहीं झुकना चाहिए। याद करें कि जब अमेरिका के आव्रजन अधिकारियों ने प्रवासियों की नंगा-झोरी लेना शुरु किया तो ब्राजील व वेनजुएला ने यही बर्ताव अमेरिकी प्रवासियों के साथ करना प्रारंभ कर दिया था।


देशबंधु में 26 दिसंबर 2013 को प्रकाशित

"सफेदपोशों का अपराध "



हम यह जानते हैं कि हिन्दी में विपुल मात्रा में साहित्य सर्जना हो रही है। उपन्यास, कहानी, कविता, आलोचना, अन्य विधाएं; कहीं कोई कमी नहीं दिखती। हमें यह भी पता है कि जितना लिखा जा रहा है उसका एक छोटा सा हिस्सा ही पाठकों तक पहुंच पाता है। यह भी देखने में आया है कि  हिन्दी साहित्य के पाठक अधिकतर हिन्दी के लेखक ही हैं। हम इस बात पर भी समय-समय पर चिंता करते हैं कि साहित्य आम जनता से या सामान्य पाठक से दूर होते जा रहा है। इसके लिए सामान्यत: या तो प्रकाशक को कोसा जाता है या फिर पाठक के मत्थे ही दोष मढ़ दिया जाता है कि वही अज्ञानी है। किन्तु ऐसी स्थिति बनने के पीछे स्वयं लेखक भी किसी हद तक जिम्मेदार है, इस सच्चाई को कड़वी दवाई की तरह छुपा लिया जाता है। बहुचर्चित अर्थशास्त्री, लेखक व स्तंभकार गिरीश मिश्र एवं बृजकुमार पाण्डेय द्वारा लिखित ताजा पुस्तक 'सफेदपोशों का अपराध' एक बार हमें अनायास इस कड़वे सच से साक्षात्कार करवाती है। लेखकद्वय द्वारा दो शब्द में दिया गया निम्नलिखित वक्तव्य इस संदर्भ में दृष्टव्य है:-

''पश्चिमी देशों में सफेदपोश अपराध के चरित्र, स्वरूप और किस्मों पर कई गंभीर अध्ययन उपलब्ध हैं। साथ ही साहित्यिक कृतियों में भी उन पर ध्यान दिया गया है। उदाहरण के तौर पर, डिकेंस, बाल्जाक, जोला, मार्क ट्वेन, ड्रीजर आदि ने कई उत्कृष्ट उपन्यास लिखे हैं।''

''हमारे यहां ऐसा कुछ भी नहीं है; सिर्फ मीडिया में हुई चर्चाएं, कतिपय आयोगों की रिपोर्टें, अदालती कार्यवाहियां तथा विधानमंडलों और संसद में हुई बहसें ही स्रोत सामग्रियों के नाम पर उपलब्ध हैं। इनके अतिरिक्त एन.एन. वोहरा की अध्यक्षता में बनी एक सरकारी समिति की रिपोर्ट है। यद्यपि यह रिपोर्ट बहुत ही छोटी है, फिर भी इसके द्वारा उजागर किए गए तथ्य और निष्कर्ष काफी सारगर्भित हैं। उम्मीद थी कि हमारे समाज-विज्ञानी और साहित्यकार उनको लेकर आगे जाएंगे, पर ऐसा कुछ भी नहीं हुआ है।''

गिरीश मिश्र की एक अन्य पुस्तक 'बाजार : अतीत और वर्तमान' सन् 2011 में प्रकाशित हुई थी। उसकी चर्चा भी मैंने इन पृष्ठों में की थी। तब भी मुझे ऐसा अनुभव हो रहा था कि हिन्दी साहित्य किसी हद तक फॉर्मूलाबध्द हो गया है, कुछ-कुछ बॉलीवुड की फिल्मों की तरह, जहां नवाचार के लिए गुंजाइश धीरे-धीरे सिमटती जा रही है। इसके क्या कारण हैं यह पृथक चर्चा का विषय है। गाहे-बगाहे चर्चाएं हुई भी हैं, लेकिन शायद अभी हिन्दी जगत नई राह पकड़ने के लिए अपने पाठकों को पूरी तरह से तैयार नहीं कर पा रहा है। बहरहाल हमें इस बात की प्रसन्नता है कि गिरीश मिश्र जैसे समाज चिंतक अपनी जिम्मेदारी को गंभीरता के साथ ले रहे हैं और हिन्दी के माध्यम से लोक शिक्षण के गंभीर काम में जुटे हैं। इस नई पुस्तक में उनके सहयोगी लेखक उनके बालसखा बृजकुमार पाण्डेय हैं जो स्वयं साहित्य जगत में सुपरिचित हस्ताक्षर हैं तथा जो प्रगतिशील लेखक संघ व विश्वशांति आंदोलन से जुड़कर सजगतापूर्वक अपने नागरिक कर्तव्य का निर्वहन कर रहे हैं।

'सफेदपोशों का अपराध' मूल रूप में अंग्रेजी में लिखी गई थी एवं इसका प्रथम प्रकाशन पच्चीस वर्ष पूर्व 1998 में हुआ था। लेखकद्वय ने यह उचित समझा कि पुस्तक हिन्दी में भी आना चाहिए और इसके लिए उन्होंने अंग्रेजी से अनुवाद नहीं, बल्कि हिन्दी में ही नए सिरे से लेखन किया। पच्चीस साल के इस लंबे अंतराल में वैश्विक परिदृश्य में जो बदलाव आए हैं उनसे लेखक भलीभांति परिचित हैं तथा वर्तमान संस्करण में उन्होंने यथासंभव नई जानकारियां जुटाई हैं व उनके आधार पर अपने निष्कर्ष निकाले हैं। इस पुस्तक को लिखने की जरूरत उन्होंने क्यों समझी इसके लिए दो शब्द से ही एक और उध्दरण देने से बात स्पष्ट हो जाएगी।

''यदि हम इतिहास में झांककर देखें तो पाएंगे कि अपराध के स्वरूप में भारी परिवर्तन हुए हैं। अपराध की नई-नई किस्में लगातार आ रही हैं। नवउदारवाद के लिए सफेदपोश अपराध आधुनिक पूंजीवाद के साथ आए हैं। नवउदारवाद आधारित भूमंडलीकरण ने उसमें ऐसे आयाम जोड़े हैं, जिनकी पहले कल्पना भी नहीं की गई थी। उदाहरण के लिए, जॉन लॉ, चार्ल्स पोंजी, बर्नार्ड मैडॉफ्फ और अब राजरत्नम् पूंजीवाद के विभिन्न चरणों के प्रतीक हैं।''

'सफेदपेशों का अपराध' में जो घटनाएं वर्णित हैं उनसे आम जनता काफी हद तक परिचित है। जिन आपराधिक प्रवृत्तियों का विश्लेषण लेखकद्वय ने किया है उनका सामना भी आम आदमी को आए दिन करना पड़ता है। देश की राजनीति हाल के दशकों में किस तरह विकृत हुई है तथा सामाजिक ताना-बाना किस कदर छिन्न-भिन्न हुआ है उसे हम रोज ही देख रहे हैं। बहुत से लोगों, जिनमें मैं भी शामिल हूं, का मानना है कि भारत में इस शोचनीय परिवर्तन की शुरूआत 1990 के दशक में हुई जब आर्थिक उदारीकरण ने हमारी दहलीज पर कदम रखा। एक संज्ञा इन तीस-पैंतीस सालों में काफी प्रचलित हो गई है, जिसे 'एलपीजी' कहा जाता है याने उदारीकरण, निजीकरण एवं वैश्वीकरण। एलपीजी को हम एक अन्य रूप में भी जानते हैं याने घरेलू रसोई गैस। इस समानता को देखकर यह टिप्पणी भी कभी की गई है कि सिलेण्डर में विस्फोट हो जाए तो वह जानलेवा हो सकता है।

अगर हम पिछले कुछ दशकों की राजनैतिक, आर्थिक सामाजिक स्थितियों का अध्ययन करें तो यह बात आईने की तरह साफ हो जाती है कि एलपीजी के चलते देश और दुनिया में अमीर और गरीब के बीच खाई बढ़ी है। गरीब की संघर्षशीलता और संघर्ष क्षमता में कमी आई है, जबकि अमीर पहले की अपेक्षा कहीं ज्य़ादा उच्छृंखल व्यवहार करने लगे। एक समय सम्पन्न लोग तिनके की ओट बराबर ही सही अपने वैभव का प्रदर्शन करने से संकोच करते थे तो वह तिनका भी न जाने कब का उड़ चुका है। अगर थोड़ा बारीकी में जाएं तो यह तथ्य भी समझ आने लगता है कि जो नई सम्पन्नता आई है वह मेहनत के बल पर नहीं बल्कि किसी हद तक अपराधों के बल पर हासिल की गई है।

लेखकद्वय ने अपनी पुस्तक को ग्यारह अध्यायों में बांटा है। ये अध्याय स्वतंत्र हैं तथा अपने आपमें एक सुदीर्घ निबंध की तरह इनमें से प्रत्येक को पढ़ा जा सकता हौ। लेखकों ने अर्थशास्त्र व विश्व साहित्य दोनों का गहरा अध्ययन किया है जिसके बल पर वे सभ्यता के प्रारंभ से लेकर अब तक अपराधों का विकास कैसे हुआ है इस पर विस्तारपूर्वक प्रकाश डालने में सक्षम हैं। इसके लिए वे संस्कृत के क्लासिक साहित्य के साथ-साथ विश्व साहित्य से भी प्रमाण प्रस्तुत करते हैं। ऐसा करने में उन्होंने सामान्यत: उन महान कृतियों को लिया है, जो अंग्रेजी में उपलब्ध हैं। चार्ल्स डिकेंस, बौदलेयर, एमिल जोला, मार्क ट्वेन, बाल्ज़ाक जैसे महान साहित्यकारों की कृतियों को उन्होंने उध्दृत किया है और वर्तमान में आते हुए वे बहुत परिश्रम से उन अपराधिक घटनाओं के दृष्टांत जुटाते हैं जो पिछले सौ-पचास वर्षों के भीतर घटी हैं।

इस पुस्तक के प्रथम अध्याय का शीर्षक है- 'ऊंचे लोगों के गुनाह'। इसमें वे बताते हैं कि सफेदपोशों द्वारा किए गए अपराध अन्य अपराधों से कैसे अलग होते हैं। एक निर्धन व्यक्ति अपनी दारुण जीवन परिस्थितियों के चलते कैसे अपराध की तरफ बढ़ता है और कैसे उसी को अपराध का आदि व अंत मान लिया जाता है यह लेखक हमें विस्तारपूर्वक बतलाते हैं। वे स्पष्ट करते हैं कि सफेदपोशों पर पुलिस कड़ी नज़र नहीं रखती, उन्हें समाज के लिए खतरा नहीं माना जाता तथा उन्हें घृणा की दृष्टि से भी नहीं देखा जाता, जबकि नकली दवाई, जाली सामान, मिलावटी खाद्य सामग्री जैसे प्राणलेवा अपराध ये सफेदपोश ही करते हैं। लेखक सी.एस. लिविस को उध्दृत करते हुए सफेदपोश अपराधियों के सुसज्जित कार्यालयों की तुलना नरक से करते हैं।

'कार्पोरेट जगत में अपराध' शीर्षक अध्याय में लेखक शेयर बाजार की हेराफेरी, कंपनी की फर्जी बैलेंस शीट बनाना, बैंक घोटाले, चिटफंड स्कीम, पिरामिड स्कीम इत्यादि का उल्ले्ख करते हैं तथा अमेरिकी ठग मेडॉफ से लेकर सत्यम कम्प्यूटर के रामालिंगम राजू के उदाहरणों से अपने तर्क की पुष्टि करते हैं। हमें यहां एक नया प्रकरण याद आता है। हाल ही में पता चला है कि भारतीय बैंकों की चार लाख करोड़ से अधिक की पूंजी 'एनपीए' या नॉन परफार्मिंग असेट के खाते में फंस गई है। 'एनपीए' एक भ्रामक संज्ञा है। इसका असली मतलब है कि बैंकों ने जो कर्ज दिए हैं उसमें से इतनी बड़ी राशि डूबत खाते में चली गई है। यह भी पता चलता है कि देश के बड़े-बड़े कार्पोरेट घरानों ने किस तरह से बैंकों से रकम उड़ाई और उसे हड़प कर गए।

एक अन्य अध्याय में लेखकद्वय बतलाते हैं कि सफेदपोश अपराधी जनता की संपत्ति पर डाका डालने में कोई हिचक नहीं दिखलाते। देश के प्राकृतिक संसाधन याने जल, जंगल, जमीन को ये लोग येन-केन-प्रकारेण हासिल कर लेते हैं। यहां तक कि प्राकृतिक आपदाओं के समय असहाय लोगों तक पहुंचने वाली सहायता को भी ये हड़प जाते हैं। इसमें स्वाभाविक रूप से नेता, अफसर, व्यापारी, बिचौलिए सब शामिल होते हैं। इस अध्याय में लेखकों ने केयर संस्था द्वारा पोषण आहार के रूप में वितरित दूध, दलिया भी हड़प जाने का जिक्र किया गया है। मुझे याद है कि रायपुर-जबलपुर मार्ग पर एक ढाबे की खीर बहुत प्रसिध्द थी। बाद में पता चला कि केयर द्वारा गरीब बच्चों के लिए दिए गए दूध पावडर से ही यह खीर बनती थी।

अगले कुछ अध्यायों में लेखकद्वय सफेदपोश अपराधों को बढ़ावा देने में मीडिया के सहयोग, स्वयं मीडिया मालिकों का इन अपराधों में लिप्त होना, तथाकथित अवतारी पुरुष और साधु-संत, महात्मा, शिक्षा जगत के अपराध व प्रशासनिक भ्रष्टाचार आदि पर विस्तार से व प्रमाणों के साथ अपनी बात सामने रखते हैं। मीडिया की बात करते हुए वे साफ कहते हैं कि खोजी पत्रकारिता के लिए जिस प्रतिभा, मेहनत व दक्षतापूर्ण  विश्लेषण की आवश्यकता होती है इसका हमारे यहां सर्वथा अभाव है। हम इसके आगे जान रहे हैं कि स्वयं को खोजी पत्रकार के रूप में स्थापित करने वाले तरुण तेजपाल आज कहां हैं? अवतारी पुरुषों की तो बात ही क्या है! चन्द्रास्वामी के किस्से पुराने पड़ गए। सत्य सांई बाबा के निधन के बाद उनके निजी कक्ष से प्रचुर मात्रा में धन राशि बरामद हुई, उसकी  वहां क्या जरूरत थी? बाबा रामदेव के किस्से अभी सबके सामने हैं और आसाराम के बारे में तो बात करने से भी घिन आती है।

कुल मिलाकर 'सफेदपोशों का अपराध' एक अत्यंत पठनीय पुस्तक है। मुझे इसमें कुछ कमियां भी दिखाई दीं- जैसे कुछेक पुराने संदर्भों में जो परवर्ती तथ्य जुड़े उन्हें छोड़ दिया गया। पुस्तक में माफिया के बारे में भी काफी विस्तार से जानकारी दी गई है किन्तु मैं समझता हूं कि हाजी मस्तान जैसे अपराधी को सफेदपोशों की श्रेणी में नहीं रखे जाना चाहिए और अमेरिकी माफिया भी उस तरह से सफेदपोश नहीं हैं जो कि पुस्तक का केन्द्रीय आधार है। दानिश बुक्स दिल्ली से यह पुस्तक प्रकाशित हुई है। इसे अगर पेपरबैक में उपलब्ध कराया जाए तो एक बड़े पाठक वर्ग तक आसानी से पहुंच सकेगी। इस पुस्तक के दोनों लेखक और प्रकाशक बधाई के पात्र हैं।
अक्षर पर्व दिसंबर 2013 अंक में प्रकाशित

Wednesday 18 December 2013

सोनिया गांधी: नई चुनौतियां




श्रीमती सोनिया गांधी ने सक्रिय राजनीति में ऐसे वक्त प्रवेश किया जब भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की नौका एक तरह से मंझधार में डूब रही थी। उन्होंने न सिर्फ डूबती नाव को किनारे लगाया बल्कि एक सफल कप्तान की भूमिका इस खूबी के साथ निभाई कि आज दस साल से कांग्रेस यूपीए के प्रमुख दल के रूप में देश पर काबिज हैं। वे चाहतीं तो 1991 में राजीव गांधी की शहादत के तुरंत बाद देश की प्रधानमंत्री बन सकती थीं किन्तु उन्होंने अपने आपको राजनीति से दूर कर लिया। पी.वी. नरसिम्हाराव के प्रधानमंत्रीकाल में उन्हें जिस तरह से उपेक्षित किया गया उसे भी सोनिया गांधी ने बर्दाश्त किया और कांग्रेस का नेतृत्व ऐसी घड़ी में संभाला जब पार्टी के सत्ता में लौटने के दूर-दूर तक कोई आसार नहीं थे। इसके बाद 2004 व 2009 में न तो स्वयं सोनिया गांधी ने प्रधानमंत्री पद और न उनके पुत्र राहुल गांधी ने मंत्री पद स्वीकार किया। 2004 में उनके प्रधानमंत्री न बनने को लेकर बहुत सारी अफवाहें फैलाई गईं। लेकिन तत्कालीन राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम ने अपनी आत्मकथा में खुलासा कर दिया है कि सोनिया उस वक्त प्रधानमंत्री पद के लिए कतई इच्छुक नहीं थीं।

इन तथ्यों के आधार पर सोनिया गांधी की संघर्षशीलता, नेतृत्वक्षमता व सत्तामोह से ऊपर उठने की भावना की मैंने अपने लेखों में यथावसर प्रशंसा की है। उनके और प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह के बीच जो आपसी समझदारी व सामंजस्य है उसे भी मैं सराहनीय मानता हूं। राहुल गांधी के लिए भी यह मुश्किल नहीं था कि वे किसी भी दिन केन्द्रीय मंत्री बन जाते बल्कि एक मौके पर हमने भी वकालत की थी कि उन्हें प्रधानमंत्री पद संभाल लेना चाहिए। फिर भी यदि वे सत्तामोह से दूर रहना चाहते हैं तो उनकी इस भावना का सम्मान किया जाना चाहिए। ये सारी बातें अपनी जगह ठीक हैं, लेकिन हाल के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस की जो दुर्दशा हुई है वह इस बात का प्रबल संकेत है कि देश की सबसे पुरानी पार्टी को अपने रवैये में सिर से पैर तक बदलाव लाना चाहिए। जिस ढर्रे पर पार्टी का कामकाज चल रहा है वह आज के जमीनी हालात के अनुकूल नहीं है।

सोनिया गांधी ने 8 दिसम्बर की शाम मीडिया के सामने आकर बहुत सहजता व विनम्रता के साथ विधानसभा चुनावों में पार्टी की हार स्वीकार की। इस दृश्य को देखकर मुझे 1977 की याद आई जब इंदिरा गांधी ने ऐसी ही विनम्रता के साथ अपनी पराजय स्वीकार की थी। उनका वक्तव्य मैंने सुदूर इंग्लैण्ड में रेडियो पर सुना था और मुझे लगा था कि जनतंत्र की खूबसूरती इसी में है। 2013 में सोनिया गांधी के साथ राहुल गांधी भी थे। उन्होंने जब अपनी बात कही तो उसमें किसी हद तक अनावश्यक आक्रामकता थी। जिस तरह कुछ समय पूर्व उन्होंने सांसदों की अपात्रता संबंधी अध्यादेश को लेकर तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की थी, कुछ उसी लहजे में राहुल गांधी ने इस अवसर पर भी टिप्पणी की कि वे संगठन के भीतर बहुत कड़े कदम उठाने जा रहे हैं। यह भावावेश गैरज़रूरी था। यह संभव है कि राहुल प्रधानमंत्री न बनना चाहते हों लेकिन वे अपनी पार्टी के कार्यकारी अध्यक्ष तो बन ही चुके हैं। उन्हें अपने वर्तमान पद के अनुसार अपेक्षित आचरण करना चाहिए।

बात यहीं समाप्त नहीं होती। इस प्रसंग के दो-तीन दिन बाद मुझे यह पढ़कर बहुत आश्चर्य हुआ कि विदेश मंत्री और कांग्रेस के वरिष्ठ नेता सलमान खुर्शीद ने यहां तक कह दिया कि सोनिया गांधी देश की मां हैं। मैं नहीं जानता कि उन्हें इस तरह की संतुलनहीन टिप्पणी करने की जरूरत क्यों आन पड़ी? कांग्रेस पार्टी की मुखिया होने के नाते सोनिया गांधी पार्टी के लिए मातृतुल्य हो सकती हैं, लेकिन इस अतिशयोक्ति को तो वे स्वयं भी स्वीकार नहीं करेंगी कि वे देश की मां हैं। चूंकि भाजपा इस समय विजयगर्व में डूबी हुई है इसलिए उसने इस टिप्पणी पर बहुत हो हल्ला नहीं मचाया तथापि अभी भी ऐसे बहुत से लोग हैं जिन्हें याद है कि आपातकाल के दौरान तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष देवकांत बरुआ ने ''इंडिया इज़ इंदिरा'', ''इंदिरा
इज़ इंडिया'' जैसी अनर्गल टिप्पणी कर न सिर्फ पार्टी के लिए बल्कि अपनी सर्वोच्च नेता के लिए भी बेवजह परेशानी खड़ी कर दी थी। कांग्रेस में वंशवाद व चाटुकारिता की संस्कृति पनपने की बात जब-तब होती है और ऐसे समय श्री बरुआ की टिप्पणी को नजीर की तरह पेश किया जाता है। आज जब कांग्रेस उन दिनों के मुकाबले कमजोर स्थिति में है तब पार्टी के वरिष्ठ नेताओं को इस बारे में अधिक संयम बरतने की जरूरत है।

विधानसभा चुनावों के नतीजे देखने से कुछ और बातों का खुलासा हुआ है। मैंने छत्तीसगढ़ में प्रथम चरण की अठारह सीटों पर अधिकतर नए उम्मीदवार उतारने का स्वागत करते हुए उम्मीद की थी कि पांच राज्यों की छह सौ सीटों पर कांग्रेस अगर पांच सौ नए उम्मीदवार उतारती है तो इससे पार्टी में नए खून का संचार होगा। कांग्रेस के भीतर इसे राहुल फार्मूला कहा गया था। किन्तु बाद में जब टिकट बंटे तो पता चला कि राहुल फार्मूला दरकिनार कर दिया गया। बहुत से ऐसे उम्मीदवारों को टिकट दे दिए गए जिनकी हार निश्चित थी। इसके अलावा संदिग्ध चरित्र वाले अनेक उम्मीदवारों को ले आया गया जिससे जनता के बीच ठीक संदेश नहीं गया। कांग्रेस जैसी पार्टी के भीतर आपसी खींचातानी चलते रहना स्वाभाविक है, लेकिन उस पर वक्त रहते काबू पा लेना भी जरूरी है। ऐसा लगता है कि कांग्रेस नेतृत्व इस मोर्चे पर कठोर व सामयिक निर्णय नहीं ले पा रहा है।

मध्यप्रदेश में हमने सुन रखा था कि कांग्रेस के भीतर चार-पांच गुट चल रहे हैं। ज्योतिरादित्य सिंधिया को चुनाव प्रभारी बनाकर स्थिति को नियंत्रित करने की कोशिश की गई। श्री सिंधिया की नियुक्ति का स्वागत भी हुआ। लेकिन फिर पता चला कि सारे गुट अपने-अपने हिसाब से बदस्तूर चल रहे हैं बल्कि खबरें तो यहां तक भी आईं कि श्री सिंधिया के खिलाफ बाकी सारे नेता एकजुट हो गए। कुछ ऐसी ही स्थिति राजस्थान में देखने मिली जहां बेहतर छवि वाले जमीनी नेता मुख्यमंत्री अशोक गहलोत की लगातार उपेक्षा की गई व राहुल गांधी उन लोगों पर भरोसा किए बैठे रहे जिनका अपना जनाधार बहुत सीमित था। यहां जातिगत समीकरणों का आकलन करने में भी कांग्रेस नेतृत्व सफल नहीं हुआ। कुल मिलाकर ऐसी धारणा बन गई कि कांग्रेस नेतृत्व न तो जमीनी सच्चाईयों से वाकिफ है और न वह पार्टी की भीतरी गुटबाजी पर अंकुश लगाने में सक्षम है।

कारपोरेट भारत, मीडिया व भाजपा का वश चलता तो 2011 या 12 में ही मध्यावधि चुनाव हो गए होते। गनीमत है कि आम चुनाव अब यथासमय ही होंगे। उसके लिए चार माह ही बचे हैं। एक सवाल सहज उठता है कि क्या कांग्रेस पार्टी 2014 की चुनौती का सफलतापूर्वक सामना कर पाएगी? आज जैसी कठिन परिस्थिति कांग्रेस के सामने पहले शायद ही कभी रही होगी। वह इस समय चौतरफा दबावों से घिरी है। एक तरफ भाजपा व हिन्दू राष्ट्रवादी ताकतें, दूसरी तरफ भारत के कारपोरेट घराने, तीसरी तरफ अमेरिका व बहुराष्ट्रीय कंपनियां, और इन सबसे बढ़कर चौथी तरफ देश का वह तबका जिसे सामान्य तौर पर उदारवादी की संज्ञा दी जाती है। मुझे कई बार यह सोचकर हैरानी होती है कि ये कथित उदारवादी बुध्दिजीवी अंतत: किसके साथ हैं! अपनी बौध्दिकता के अहंकार में कहीं वे जाने-अनजाने देश के भीतर पनप रही फासिस्ट ताकतों को तो बढ़ावा नहीं दे रहे! एक पक्ष वामपंथ का भी है। उनकी कांग्रेस से शिकायत वाजिब है कि उसने 2004 के राष्ट्रीय न्यूनतम साझा कार्यक्रम का उल्लंघन कर अमेरिका के साथ आण्विक करार किया और एक बड़ी वादाखिलाफी की। लेकिन आज जब मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के भीतर ममता बनर्जी के साथ हाथ मिलाने की बात उठती है तो अपना सिर पीटने की इच्छा होती है। यदि भारत को अपने संविधान में निहित शाश्वत मूल्यों को कायम रखना है तो आज सभी उदारवादी मध्यमार्गी शक्तियों को एकजुट होना पड़ेगा और इसकी ईमानदार पहल कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में सोनिया गांधी को ही करना पड़ेगी।

देशबंधु में 19 दिसम्बर 2013 को प्रकाशित

ये नतीजे क्या कहते हैं?





पांच
राज्यों से आए विधानसभा चुनावों के नतीजे स्पष्ट हैं।  दिल्ली और राजस्थान में कांग्रेस को शर्मनाक पराजय का सामना करना पड़ा है, मध्यप्रदेश में लगभग पिछले चुनावों जैसी स्थिति है, छत्तीसगढ़ में पार्टी निश्चित विजय के दरवाजे जाकर लौट आई है तथा मिजोरम में उसे एक बार फिर दो तिहाई से ज्यादा बहुमत मिला है। भारतीय जनता पार्टी ने राजस्थान में प्रचंड विजय हासिल की है, मध्यप्रदेश में वह कुछ अतिरिक्त सीटों के साथ तीसरी बार सत्ता में लौटी है, छत्तीसगढ़ में भाजपा को हार की संभावना के बीच तीसरी बार जीत मिली है, दिल्ली में स्पष्ट बहुमत न मिल पाने के कारण उसकी जीत अधूरी है और मिजोरम में पार्टी कहीं है ही नहीं। इन नतीजों के कारणों और भावी संकेतों को लेकर 8 दिसंबर की शाम से ही चर्चाएं प्रारंभ हो गई हैं। मेरा मानना है कि तात्कालिक प्रतिक्रियाओं का यह दौर थमने और सभी राज्यों  से विस्तारपूर्वक आंकड़े मिलने के बाद ही इन पर कोई सुनिश्चित राज्य बनाना संभव हो पाएगा।

फिलहाल ऐसे कुछ कारणों की चर्चा की जा सकती है जिन्होंने इन चुनावों में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष, वास्तविक या आभासी भूमिका निभाई। सबसे पहले 'आप' याने आम आदमी पार्टी की चर्चा करना उचित होगा। मतगणना के कुछ दिन पूर्व पार्टी के प्रमुख प्रवक्ता योगेन्द्र यादव ने अड़तालीस सीट जीतने का दावा अपने सर्वेक्षण के आधार पर किया था। दूसरी ओर भाजपा प्रवक्ता जीवीएल नरसिम्हन ने 7 तारीख की रात को कहा था कि 'आप' को दो से ज्यादा सीटें नहीं मिलेंगी। जाहिर है कि दोनों के अनुमान गलत निकले, फिर भी 'आप' को मिली 28 सीटों से देश का एक वर्ग खासा उत्साहित नजर आ रहा है। उसे लग रहा है कि भारतीय राजनीति में एक नए युग का पदार्पण हो चुका है। 'आप' के एजेंडा में कुछ अच्छी बातें हैं जैसे सादगी का संकल्प, प्रतिभागी जनतंत्र का वायदा व भ्रष्टाचार से मुक्ति आदि। लेकिन एक राष्ट्रीय विकल्प बनने के लिए 'आप' के पास कौन सी नीतियां, सिध्दांत या दृष्टि है इस बारे में हम अभी कुछ नहीं जानते। इनके नेता अरविंद केजरीवाल जिस लहजे में बात करते हैं उससे ममता बनर्जी की याद आती है। कहने का मतलब यह कि अभी बहुत खुश होने का कोई ठोस कारण नजर नहीं आता।

ऐसा माना जा रहा है कि महंगाई भी इन चुनावों में कांग्रेस की पराजय का एक बड़ा कारण है। आम आदमी पार्टी ने जहां सस्ते दर पर प्याज बेचने का नाटक  किया, वहीं उसने अपने घोषणा पत्र में बिजली, पानी आदि की दरें कम करने का वायदा भी किया। यह संभव है कि दिल्ली के मतदाताओं पर महंगाई का असर पड़ा है। आखिरकार देश की राजधानी में सिर्फ वे ही नहीं रहते जिन्हें छठवें वेतन आयोग का लाभ मिल रहा है। लेकिन अन्य राज्यों में महंगाई चुनावी मुद्दा नहीं था। यदि 'आप' पार्टी को स्पष्ट बहुमत मिलता और उसकी सरकार बनती तब शायद हमें यह देखने का अवसर मिलता कि यह पार्टी महंगाई कम करने के अपने वायदे पर कितना अमल कर पाती है!

बदलाव की चाहत याने एंटी इंकम्बेंसी का मुद्दा इस बार काफी हावी रहा। राजस्थान के बारे में तो कहा ही गया कि वहां हर पांच साल में सरकार बदल जाती है, लेकिन कांग्रेस की ऐसी दुर्दशा की कल्पना किसी ने न की होगी। ऐसा लगता है कि वहां बदलाव की चाहत के अलावा कुछ और भी कारण रहे होंगे जिनकी अनदेखी कांग्रेस के राष्ट्रीय नेतृत्व ने कर दी। यही बात दिल्ली के बारे में कही जा सकती है। पंद्रह साल एक लंबा समय होता है और हर मुख्यमंत्री ज्योति बसु नहीं होता। राष्ट्रमंडल खेलों के समय से शीला दीक्षित की छवि धूमिल होने लगी थी। लेकिन दीवार पर लिखी इबारत को पढ़ने से पार्टी कतराती रही। सवाल उठता है कि जो बदलाव की चाहत दिल्ली या राजस्थान में थी या इसके पहले कर्नाटक, हिमाचल व उत्तराखण्ड में देखने मिली थी वह मध्यप्रदेश व छत्तीसगढ़ में क्या बिल्कुल नदारत थी? यह बात भी समझ आई कि इस बार वर्तमान विधायकों के खिलाफ एंटी इंकम्बेंसी पहले की अपेक्षा कहीं ज्यादा मुखर थी।

हर चुनाव की तरह इस बार भी बड़ी संख्या में युवाओं को पहली बार वोट देने का अवसर मिला। उन्होंने किसका साथ दिया इसके आंकड़े अभी उपलब्ध नहीं हैं। लेकिन स्पष्ट है कि कांग्रेस ने इन चुनावों में युवाशक्ति का पर्याप्त लाभ नहीं उठाया। छत्तीसगढ़ में उसने पहले दौर में नए चेहरों को विशेषकर युवाओं को टिकट देकर उम्मीद जगाई थी कि राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस अपने आपको एक युवा पार्टी के रूप में ढालने जा रही है। लेकिन इसके तुरंत बाद पार्टी अपने स्थापित नेताओं को खारिज करने का साहस नहीं दिखा पाई और चारों प्रदेशों में फिर वही ढाक के तीन पात वाली स्थिति कमोबेश निर्मित हो गई। इतना ही नहीं, एक ज्योतिरादित्य सिंधिया को छोड़कर अन्य किसी युवा नेता को चुनावों के दौरान कोई प्रभावी भूमिका नहीं दी गई। छत्तीसगढ़ में तो खैर पार्टी के पास कोई युवा नेता है ही नहीं, राजस्थान और दिल्ली में सचिन पायलट और अजय माकन को आगे लाया जाता और मध्यप्रदेश में
ज्योतिरादित्य सिंधिया को खुलकर काम करने का मौका दिया जाता तो ऐसी बदहाली की नौबत नहीं आती।

इस दौर में नरेन्द्र मोदी का खूब गुणगान हुआ। नतीजे आने के बाद तो भाजपा नेताओं की जबान मोदी का नाम लेते थक नहीं रही है, लेकिन क्या सचमुच यह मोदी के नेतृत्व का चमत्कार है? छत्तीसगढ़ में सरगुजा से नरेन्द्र मोदी ने लालकिले की अनुकृति वाले मंच से चुनाव अभियान की शुरूआत की थी। वहां भाजपा को आठ में से सिर्फ एक सीट पर विजय मिली। बस्तर में मोदी की सभाओं के बावजूद भाजपा की सीटें ग्यारह से घटकर चार रह गईं और दुर्ग में तीन बार के हारे हुए कांग्रेसी अरुण वोरा चुनाव जीत गए। दिल्ली में भाजपा को स्पष्ट बहुमत न मिलना मोदी मिथक को पूरी तरह खारिज करता है और मध्यप्रदेश में शिवराज सिंह चौहान ने न ही उनका नाम लिया और पोस्टर लगाए तो बेमन से। अब तक मोदी तीन बार का विजेता होने के गर्व से भरे थे। सरल सौम्य रमन सिंह और सरल हंसमुख शिवराज सिंह को भी यह गौरव हासिल हो गया है। बहरहाल हम जानते हैं कि कारपोरेट भारत मोदी के साथ है।

छत्तीसगढ़ के विशेष संदर्भ में माओवाद भी एक मुद्दा रहा है। 2003 और 2008 के चुनावों में नक्सलियों ने भाजपा को बस्तर में जीतने में प्रत्यक्ष -अप्रत्यक्ष सहयोग किया था। इस बार अनुमान था कि कुछ कारणों से वे कांग्रेस का समर्थन करेंगे और वैसा हुआ भी। बस्तर में नोटा का बटन जितना दबाया गया उतना अन्यत्र कहीं नहीं। क्या यह भविष्य के लिए माओवादियों का कोई प्रयोग था? कहना मुश्किल है। यह एक अलग मुद्दा है। यदि छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की सरकार बन पाती तो माओवादियों के साथ बातचीत का रास्ता खुलता, लेकिन वैसा नहीं हो पाया। अब वही भाजपा सरकार है और वही माओवादी। 'देशबन्धु' के पत्रकार साई रेड्डी की निर्ममतापूर्वक हत्या कर नक्सलियों ने संदेश दिया है कि उनके तौर-तरीके वही रहेंगे। अगर भाजपा की भी रीति-नीति पूर्ववत् रही तो विशेषकर बस्तर में कठिन परिस्थिति उत्पन्न हो जाएगी।

इस समय चुनावी सर्वेक्षण करने वाले अपनी पीठ थपथपा रहे हैं कि उनके अनुमान सही निकले। चारों राज्यों में भाजपा सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी। यहां तक तो उनका दावा ठीक है किन्तु अगर सर्वेक्षणों के आंकड़े सामने देखकर बात की जाए तो स्पष्ट पता चल जाता है कि एक भी सर्वेक्षण सही नहीं निकला। किसी ने भी न तो राजस्थान में और न दिल्ली में कांग्रेस के इस तरह हारने का अनुमान लगाया था। सच यह है कि इन सर्वेक्षणों के पीछे मुख्य मकसद चैनलों की रेटिंग बढ़ाना होता है और उसमें कुछ दिनों के लिए दर्शकों को चटपटी चाट का स्वाद मिल जाता है। बहरहाल, सभी जीतने वालों को मुबारकबाद। इस उम्मीद के साथ कि आने वाले दिनों में लोकतंत्र और मजबूत होगा।

देशबंधु में 12 दिसम्बर 2013 को प्रकाशित


 

 
 
 

 

 
 
 
 

Monday 9 December 2013

विरासत संरक्षण में तकनीकी की भूमिका



विरासत
अथवा धरोहर की सरल शब्दों में व्याख्या करना हो तो मैं कहूंगा कि यह एक बहुमूल्य और  बहुत जल्दी नष्ट न होने वाला खजाना है, जो एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को अनुपम उपहार के रूप में हस्तांतरित होता है। अपने निजी व पारिवारिक जीवन में विरासत के महत्व को हम भलीभांति जानते हैं। उसके विस्तार में जाने की आवश्यकता यहां नहीं है। यह महत्व कई गुणा बढ़ जाता है जब हम देश, दुनिया या समाज के परिप्रेक्ष्य में विरासत की बात करते हैं। विशेषज्ञ इस सामाजिक विरासत राशि को मुख्यत: तीन भागों में बांटते हैं- प्राकृतिक, निर्मित व सांस्कृतिक। सांस्कृतिक पक्ष में एक अंश निर्मित विरासत का भी है, जिसकी हम आगे चर्चा करेंगे। प्राकृतिक विरासत की अनेक श्रेणियां हैं- जैसे नदी, झरने, पहाड़, वनस्पति, पशु-पक्षी इत्यादि। निर्मित विरासत में हजारों या सैकड़ों साल पहले बनाई गई इमारतें जैसे धर्मस्थल, किले, महल या फिर उद्योग, औद्योगिक उपकरण, अन्य औजार आएंगे। सांस्कृतिक विरासत में साहित्य, चित्रकला, संगीत, नृत्य, सिनेमा, कृषि, मेले, पर्व, वस्त्राभूषण आदि शामिल किए जा सकते हैं।


प्रश्न उठता है कि इस प्रचुर विरासत के संरक्षण की आवश्यकता क्यों है? इसका उत्तर खोजते हुए मुझे लगता है कि जब हम विरासत का संरक्षण करते हैं तो बात वहीं तक सीमित नहीं रह जाती बल्कि उसमें सभ्यता के प्रारंभ से लेकर अब तक मनुष्य जीवन का जो तंतु-जाल है उसके संरक्षण की बात भी अपने आप शामिल हो जाती है। यही नहीं, इस पृथ्वी पर जो जैव विविधता है उसका संरक्षण विरासत के बारे में सम्यक ज्ञान होने से ही किया जा सकता है। मैं एक उदाहरण लेना चाहूंगा। आज के युग में चॉकलेट एक आनंददायक स्वादिष्ट उपभोक्ता वस्तु है। इस चॉकलेट के उत्पादन में साल एवं अन्य कुछ वृक्षों से निकलने वाले तेल का बड़ी मात्रा में इस्तेमाल किया जाता है। हमारा छत्तीसगढ़ खासकर बस्तर अपने साल वनों के लिए प्रसिध्द रहा है। आज यदि साल या ऐसे अन्य वृक्ष नष्ट हो जाएं तो चॉकलेट उत्पादन के लिए तेल कैसे मिलेगा और यदि चॉकलेट नहीं रहेगी तो विज्ञापन की भाषा में ''कुछ मीठा हो जाए'' का विकल्प क्या होगा? कहने का आशय कि घने जंगलों में उगे साल के वृक्ष से लेकर उपभोक्ता बाजार तक एक अटूट श्रृंखला बनी हुई है, जो विरासत का ज्ञान होने पर ही बनी रह सकती है।

आइए, इसी बात को कुछ और विस्तार में समझने की कोशिश करते हैं। विरासत अथवा धरोहर के बारे में सही समझ हमारे लिए कई मायनों में उपयोगी होगी। सबसे पहले तो कोई भी विरासत हमें अहसास दिलाती है कि यह मेरी चीज है, मैं इसका अधिकारी हूं। यह ठीक उसी तरह की भावना है जैसे दादा-दादी या माता-पिता ने हमें कोई ऐसी भेंट दी हो जिसे हम हमेशा संभालकर रखने की इच्छा रखते हैं। दूसरे, विरासत से हममें उचित गर्व या अभिमान का भाव जागृत होता है। श्रीनगर की डल झील हो या जैसलमेर का किला, ताजमहल हो या अजंता के चित्र, इन सबके बारे में सोचते हुए हमारा मन फूल जाता है। हम अपनी नजरों में ही कहीं ऊंचे उठ जाते हैं। इसका विपर्यय भी हमें नहीं भूलना चाहिए। बाज वक्त हम यह कहने से नहीं चूकते कि अमेरिका की संस्कृति चार सौ साल पुरानी है, जबकि हमारी हजारों साल पुरानी। ऐसी तुलना करना और ऐसी भावना रखना थोथे अहंकार व मानसिक अपरिपक्वता को दर्शाता है।

विरासत की समझ से हमें इतिहास की समझ भी मिलती है और अतीत से स्वयं को जोड़ने का अवसर भी। गुजरात के समुद्र तट पर सोमनाथ के मंदिर को देखकर एक विदेशी आक्रांता का स्मरण सहज हो जाता है, लेकिन सोमनाथ से मात्र सौ किलोमीटर दूर उसी पश्चिमी समुद्र तट पर द्वारिका का मंदिर अक्षुण्ण देखकर यह प्रश्न अपने आप मन में आता है कि इसे आक्रांताओं ने क्यों छोड़ दिया। इसी तरह एक ओर जलियांवाला बाग की गोलियों से छलनी दीवार औपनिवेशिक क्रूरता की याद दिलाती है, तो 1911 में तामीर मैसूर का भव्य राजप्रासाद सोचने पर बाध्य करता है कि राजे-महाराजे किस तरह से विदेशी शासकों की ताबेदारी कर रहे थे। इस बात को समेटते हुए कहा जा सकता है कि ऐसी प्राचीन विरासतों का संरक्षण करना इतिहास की सही समझ विकसित करने के लिए न सिर्फ सहायक बल्कि आवश्यक भी है।

आज के समय में बहुत से जिज्ञासु जन टीवी पर डिस्कवरी व हिस्ट्री चैनल आदि देखकर अपनी ज्ञान पिपासा शांत करने की कोशिश करते हैं। यह अच्छी बात है। मेरा कहना है कि विरासत संपदा स्वयं ज्ञान प्राप्ति का बेहद महत्वपूर्ण साधन है। पहाड़ की चोटी पर बने किसी मंदिर में लगे भीमकाय पाषाण खंडों को देखकर जिज्ञासा होती है कि ये बड़े-बड़े पत्थर इतने ऊपर कैसे लाए गए। देलवाड़ा, हॉलीबिड, बेलूर आदि के मंदिरों में जो अनुपम संगतराशी की गई है, वह प्रश्न उठाती है कि हजार-बारह सौ साल पहले इस देश में पत्थर काटने वाले यंत्र कैसे आए होंगे। जब ऐसे प्रश्न मन में उठते हैं तो फिर सृजनशील मन में सहज ही कल्पना की नई लहर उठने लगती है। क्या आज भी इस तरह का निर्माण संभव है। इसके लिए क्या करना होगा, ऐसे विचार उमड़ने लगते हैं।

अपनी विरासत का बोध मनुष्य का पर्यावरण के प्रति लगाव को बढ़ाता भी है। यदि रायपुर निवासी को यह मालूम हो कि घर के नल में आए जिस पानी को वह पी रहा है वह खारून नदी से आया है तो नदी के प्रति उसका ममत्व भाव जागृत हो सकता है। अपने घर के आसपास के पेड़-पौधे छत पर या सामने किसी पेड़ पर बसेरा करने वाले पक्षी हमें आह्लादित करते ही हैं। कहना न होगा कि उपरोक्त सारी बातें हमारी सृजनशीलता को आगे बढ़ाती हैं। हमारे जीवन में अगर ये सब निधियां न हो तो सोचिए कि किस विषय पर कविता लिखी जाएगी, चित्र में क्या उकेरा जाएगा! इन उपादानों के बिना कलाओं का स्वरूप इकहरा हो जाएगा। आज हमारी जैसी जीवन शैली हो गई है, इसमें ''अंधेरे बंद कमरे'' जैसा उपन्यास तो लिखा जा सकता है, लेकिन ''मेघदूत'' नहीं।

आज इस परिसर में ''विरासत संरक्षण में तकनीकी का योगदान'' पर चर्चा करते हुए मैं यह सोचने की कोशिश कर रहा हूं कि एक प्रबुध्द तकनीकी शिक्षक के रूप में इस दिशा में आपकी क्या भूमिका हो सकती है। मुझे चार बिन्दु मोटे तौर पर ध्यान आते हैं- एक तो शिक्षक होने के नाते निजी व संस्थागत तौर पर आप विरासत के बारे में समाज को जागरूक करने का काम कर सकते हैं। दूसरे तकनीकीविद् होने के नाते आप सदियों पुरानी तकनीकों का विश्लेषण कर बतला सकते हैं कि आज के समय में उनकी उपयोगिता कहां तक है। इसी तरह वैज्ञानिक विधि से शोध कर आप हमारी धरोहरों को दीर्घकाल तक सुरक्षित रखने के लिए नई तरकीबें ईजाद कर सकते हैं। आप ही बता सकते हैं कि भोपाल के बड़े तालाब का अस्तित्व बचाने के लिए क्या किया जाना चाहिए। चौथे आज की नई प्रविधियों का उपयोग करते हुए विरासत निधियों का सूचीकरण व दस्तावेजीकरण करने में भी आपकी महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती है।

मैं यद्यपि तकनीकी व्यक्ति नहीं हूं तथापि टेक्नालॉजी के प्रयोग से विरासत संपदा को कैसे बचाया जा सकता है इस बारे में अपने कुछ विचार मैं आपके साथ बांटने की अनुमति चाहता हूं। एक तो मैं ऐसा सोचता हूं कि हमारी तकनीकी ज्ञान परंपरा में ही ऐसा बहुत कुछ है, जो विरासत की श्रेणी में आता है। मसलन दस-बारह सदी पूर्व बने मंदिरों में पत्थर की खुदाई की विधि, छठवीं-सातवीं शताब्दी में ईंट पकाने की विधि, उन्हें जोड़ने के लिए प्रयुक्त मसाला बनाने की विधि या फिर वे बारीक यंत्र जिनसे ग्रेनाइट में छेद करना संभव था। इसी तरह हम प्राचीन वाद्य यंत्र, वाहन, वस्त्र निर्माण आदि बहुत-सी बातों को ले सकते हैं। इनका विधिवत सूचीकरण करने से पता लगेगा कि हमारे देश में तकनीकी का विकास कैसे हुआ। दूसरे, वर्तमान में विरासत संरक्षण में तकनीकी का इस्तेमाल। यह ऐसा मुद्दा है, जो आपसे गंभीर विचार की अपेक्षा रखता है।

हम पहले प्राकृतिक विरासत के संरक्षण की बात करें। यह सबको पता है कि देश की कितनी ही नदियां धीरे-धीरे कर मर रही हैं। गंगा और यमुना की जो दुर्गति है वह किसी से छुपी नहीं है। इनके लिए योजनाएं भी बनाई गई हैं, लेकिन उनमें समन्वित प्रयास का अभाव दिखाई देता है। शायद वक्त आ गया है कि हमारे नीति निर्माता तकनीकी विशेषज्ञों को अपेक्षित स्वायत्तता व सम्मान दें ताकि वे ऐसी योजनाओं को सही ढंग से लागू कर सकें। जर्मनी में राईन व अन्य नदियों को सफलतापूर्वक प्रदूषण मुक्त किया गया है। उसी तरह हमें अपनी नदियों को प्रदूषण मुक्त करने की जरूरत है, उनमें कारखानों व नगरों का अपशिष्ट डालना रोकना है, उनके स्वाभाविक प्रवाह को रोकने में सावधानी बरतना है तथा नदियों की जो अपनी पारिस्थितिकी एवं जैव विविधता है उसे बचाना है। कुछ यही बात तालाबों पर भी लागू होती है। तालाबों को पाटकर उस भूमि का जो बेहिसाब व्यवसायिक उपयोग किया जा रहा है उसे समय रहते रोकना आवश्यक है। हमारे जंगलों में फिर वैसा परिवेश लाने की जरूरत है, जिसमें बहुमूल्य वृक्षों और वनस्पतियों के पुनरोत्पादन की संभावना बनी रहे। इसमें आदिवासी एवं वन्य क्षेत्र के अन्य निवासियों का सहयोग कैसे सुनिश्चित किया जाए यह विचारणीय है। वन्य जीवों व पक्षियों के बारे में भी इसी तरह विचार करना आवश्यक है। मेरा मानना है कि तकनीकीविदों को इन सब मामलों में निरपेक्ष नागरिक की नहीं बल्कि सक्रिय नेतृत्वकारी भूमिका निभाना चाहिए।

जहां तक निर्मित धरोहरों की बात है आप स्वयं इस विषय के विशेषज्ञ हैं। आप जहां एक तरफ नए-नए प्रयोग, नए-नए निर्माण कर नई-नई ऊंचाईयों को हासिल कर रहे हैं, वहीं आपके ज्ञान व अनुभव का लाभ प्राचीन धरोहरों के संरक्षण को भी मिलना चाहिए। पुरानी इमारतों को मौसम की मार से कैसे बचाया जाए, उन्हें प्रदूषण से क्षति न पहुंचे, जो भवन खंडित हो रहे हैं उन्हें मूल रूप में कैसे वापिस लाया जाए, इनकी साज-सज्जा कैसी हो, आज के समय में इनका उपयोग किस तरह से किया जाए यह आपके विचार का ही विषय है। हमारी खेती में कौन सी पुरानी पध्दतियां आज भी कारगर हो सकती हैं, भोजन और औषधि के लिए वनस्पतियों का सम्यक उपयोग कैसे हो, विलुप्त होती भाषाओं को कैसे बचाया जाए, पुराने वाद्य यंत्र और गायन पध्दतियों को जीवित रखने क्या किया जाए- इस सबमें भी आपके तकनीकी ज्ञान व परामर्श की बेहद जरूरत है। मैं यही उम्मीद कर सकता हूं कि आप भारत की समृध्द विरासत को एक सामान्य सैलानी की नज़र से नहीं बल्कि एक जागरुक अध्येता की दृष्टि से देखेंगे और उसके संरक्षण में सक्रियतापूर्वक योगदान करेंगे।

(राष्ट्रीय तकनीकी शिक्षक प्रशिक्षण एवं अनुसंधान संस्थान भोपाल में 5 अगस्त 2013 को 'विरासत संरक्षण में तकनीकी का योगदान' विषय पर किए गए व्याख्यान का परिवर्ध्दित रूप)

अक्षर पर्व नवम्बर 2013 अंक में प्रकाशित

Thursday 5 December 2013

तीसरे प्रेस आयोग की जरूरत



जनवरी 1973 का कोई एक दिन। मध्यप्रदेश के कुछ जिलों का दौरा करते हुए मैं उस दिन रीवा में था और कुछ समय पूर्व रायपुर से तबादले पर पहुंचे एक परिचित सज्जन से मिलने गया था। बातचीत के दौरान मैंने उन्हें जबलपुर के एक साप्ताहिक अखबार के स्वामी-संपादक के निधन की जानकारी दी तो उक्त परिचित अधिकारी की पहली प्रतिक्रिया थी- '' थैंक्स गॉड''। यह सुन कर मुझे कोई हैरानी नहीं हुई। जिस दिवंगत पत्रकार का जिक्र मैंने छेड़ा था वे एक शासकीय विभाग के कारनामों का भंडाफोड़ करने या उसके एवज में अच्छी-खासी वसूली करने के लिए चर्चित थे। ऐसा करने वाले वे अकेले पत्रकार नहीं थे। भोपाल, इंदौर, ग्वालियर, रायपुर, जबलपुर- सब जगह दो-चार ऐसे अखबार निकलते ही थे। सबने अपने-अपने कार्यक्षेत्र भी बांट रखे थे। कोई लोक निर्माण विभाग (पीडब्ल्यूडी) की खबरें छापता या दबाता, तो कोई सिंचाई विभाग की। किसी के निशाने पर राज्य विद्युत मंडल था, तो कोई शिक्षा विभाग से ही संतुष्ट था।

इन तमाम अखबारों में जिस प्रकृति की खबरें छपती थीं उनके चलते इन्हें पीत पत्रकारिता की संज्ञा दी जाती थी। ये अगर सामने पड़ जाएं तो लोग इनसे बचने की कोशिश करते थे। नहीं बच पाए तो बेमन से दुआ-सलाम करना पड़ती थी। न जाने कब, किसके बारे में, क्या छाप दें। पीठ पीछे उनकी तारीफ करने वाला कोई नहीं था। मर गए तो घरवालों को छोड़कर कोई आंसू बहाने वाला भी नहीं होता था। कालांतर में ऐसे अखबार और भी फले-फूले। एक जगह से निकलने वाले पत्र के कई-कई कथित संस्करण हो गए। जहां कहीं सरकारी प्रोजेक्ट चल रही हो, वहां ये भी मौजूद रहने लगे। अधिकारियों ने भी समझदारी दिखाई। खबर छप जाए या उसे दबाने के लिए दौड़-धूप करना पड़े इससे अच्छा कि हर महीने निश्चित राशि का लिफाफा संपादकजी को भेंट कर दिया जाए।

जाहिर है कि इन अखबारों में प्रकाशन के लिए आई सामग्री संबंधित दफ्तर के भीतर से ही आती होगी। दफ्तरों में होने वाली राजनीति के लिए ये अखबार एक तरह से मोहरा बन जाते थे। इस सच्चाई को समझने में राजनेताओं ने भी देर नहीं की। देखते ही देखते नेताओं द्वारा प्रायोजित दर्जनों अखबार सामने आ गए। ट्रेडल या सिलेण्डर मशीन पर छपने वाले साप्ताहिक तो अपनी जगह पर कायम रहे, राजनीति से प्रायोजित नए अखबार नयी सजधज के साथ बाजार में आए। वैसे बाजार में आए कहना गलत होगा, सीमित संख्या में छपने वाली इन पत्र-पत्रिकाओं का वितरण राजनीति के गलियारों तक ही सीमित रहा है। इनका उपयोग अपने राजनीतिक विरोधियों पर वार करने के लिए किया गया। कोई खबर या लेख जैसे ही छपा उसकी फाइलें तैयार हो गईं ताकि वक्त पड़ने पर पार्टी हाईकमान के सामने पेश की जा सकें।

मुझे 1982-83 का एक प्रसंग ध्यान आता है। भोपाल के जनसंपर्क विभाग में पत्रकार अधिमान्यता समिति की बैठक कुछ देर पहले समाप्त हुई थी। मैं जनसंपर्क संचालक के कक्ष में उनके साथ चाय पीने के लिए रुक गया था। इतने में एक सज्जन धड़धड़ाते हुए भीतर आए। कडक़ आवाज में पूछा- हमारा काम हो गया। संचालक ने जवाब दिया- मुझे पता नहीं, मैं बैठक में नहीं था, अभी अतिरिक्त संचालक मेरे पास रिपोर्ट देने नहीं आए। उन सज्जन ने लगभग धमकाने के स्वर में कहा कि इस बार मेरा काम नहीं हुआ तो ठीक नहीं होगा। वे चले गए। संचालक ने बताया कि इन महाशय की पत्नी एक साप्ताहिक अखबार निकालती हैं। ये स्वयं किसी सार्वजनिक उद्यम में क्लर्क के पद पर हैं, लेकिन इन पर किसी बड़े राजनेता की कृपादृष्टि है। उन्हें अधिमान्यता की पात्रता नहीं थी सो हमारी कमेटी ने उनका आवेदन निरस्त कर दिया था। इसके बाद क्या हुआ मुझे नहीं पता, लेकिन इस प्रसंग का जिक्र इसलिए किया कि पत्रकारिता में भी कैसे अलग-अलग रंग देखने मिलते हैं।

वर्तमान माहौल पहले से काफी कुछ बदला हुआ नज़र आ सकता है, लेकिन विश्लेषण करें तो सवाल उभरता है कि आज जो धूम-धड़ाके की पत्रकारिता हो रही है उसके बीज कहीं पुराने समय की पीत पत्रकारिता में तो नहीं छिपे हैं! आज के अखबारों या मीडिया पोर्टलों के नामकरण से ही कुछ अनुमान लगाया जा सकता है। पहले डमडम डिगा डिगा, एटम, स्पुतनिक, भंडाफोड़- जैसे नामों के अखबार होते थे तो आज भी बुलंद, दबंग, गुलेल, तहलका, कोबरा- जैसे नाम सामने हैं। मैंने ऊपर मुख्यत: हिन्दी पत्रकारिता की चर्चा की है, लेकिन ऐसा नहीं कि उस दौर में अंग्रेजी अखबार इस चलन के परे थे। ब्लिट्ज् और करंट का इतिहास तो पत्रकारिता के सुधी अध्येता जानते ही हैं। स्टारडस्ट नाम की एक फिल्मी पत्रिका भी निकलती थी, जिसमें फिल्मी हस्तियों के बारे में आपत्तिजनक हद तक चटपटी खबरें छापी जाती थीं। यही क्यों, पहले खुशवंत सिंह और फिर प्रीतिश नंदी के संपादन में इलस्ट्रेटेड वीकली ऑफ इंडिया में भी भंडाफोड़ मार्का फीचर छपने लगे थे। कहना होगा कि वह प्रवृत्ति न सिर्फ बढ़ गई है, बल्कि बंधनहीन भी हो गई है।

आज जब तरुण तेजपाल प्रकरण के चलते आम जनता में न सही, मीडिया जगत में एक किस्म से तहलका मचा हुआ है तब हम पत्रकारों को तो कम से कम अपना इतिहास देख लेना चाहिए। ब्लिट्ज्, करंट और वीकली- सब हमारे देखते-देखते बंद हो चुके हैं। अगर उनकी कहीं चर्चा होती भी है तो उनके द्वारा पूर्व में की गई वस्तुपरक पत्रकारिता के कारण, न कि बाद के समय की विषयपरक सामग्री के कारण। पत्रकारिता की कक्षा में जो इतिहास पढ़ाया जाता है, उसमें इनका नाम कहीं दूर-दूर तक भी नहीं आता, जबकि अपने समय में इनका रुतबा देखते ही बनता था। वर्तमान में पत्रकारिता के तीन रूप देखे जा सकते हैं- पारंपरिक एवं वस्तुनिष्ठ, सनसनीखेज और विषयनिष्ठ तथा प्रचारनिष्ठ। तीसरी श्रेणी याने प्रचारनिष्ठ से आशय उन चमकीली-भड़कीली पत्रिकाओं से है, जो सत्ता प्रतिष्ठान की मेहरबानी से निकलती हैं और उन्हीं से अपना आजीविका पाती हैं। रायपुर में ही ऐसी कोई एक दर्जन पत्रिकाएं निकलने लगी हैं, लेकिन इन्हें कोई गंभीरता से नहीं लेता।

सनसनीखेज और विषयनिष्ठ पत्रकारिता का उदाहरण न सिर्फ तहलका, बल्कि बहुत से समाचार चैनल भी हैं। भारतीय समाज में हाल के बरसों में जो अंग्रेजीपरस्ती आई  है उसके चलते इनका कारोबार चल रहा है। मुझे यह देखकर दु:ख होता है कि सामाजिक उदारवाद (लिबरलिज् म) के नाम पर देश में एक अंग्रेजीदाँ वर्ग तैयार हो गया है जो दिल्ली में, सत्ता किसी की भी हो, उसके आसपास मंडराता रहता है। वह देश में नीति-निर्धारण में भी हस्तक्षेप कर रहा है, लेकिन जिसका देश की आम जनता के साथ कोई लेना-देना नहीं है। इस वर्ग ने सामाजिक न्याय के लिए चल रही लड़ाई में सिर्फ जबान से काम लिया है और निजी तौर पर खतरे उठाने से बचते रहा है।
वस्तुनिष्ठ पत्रकारिता की जहां तक बात है, ऐसे अखबारों और पत्रकारों की कमी नहीं है, जो पत्रकारिता के बुनियादी उसूलों का आज भी पालन कर रहे हैं। सच तो यह है कि हिन्दी व अन्य भारतीय भाषाओं में ऐसे पत्रकारों की ही संख्या ज्यादा  है और अंग्रेजी में भी उनके लिए जगह पूरी तरह खत्म नहीं हुई है। आशंका इस बात की है कि नवपूंजीवाद के इस युग में मीडिया भी पूंजी आधारित, पूंजी आश्रित और पूंजीमुखी हो गया है। इससे कैसे बचा जाए, सिर्फ पत्रकारों के लिए नहीं, बल्कि व्यापक समाज और कल्याणकारी राज्य के सोचने का भी विषय है। शायद वक्त आ गया है कि तीसरे प्रेस आयोग का गठन किया जाए जो देश में पत्रकारिता के समक्ष मौजूदा खतरों और चुनौतियों का अध्ययन कर बेहतर विकल्प सुझा सके!

देशबंधु में 5 दिसम्बर 2013 को प्रकाशित

Thursday 28 November 2013

तेजपाल और केजरीवाल





"संसार
 में सबसे अधिक दंडनीय वह व्यक्ति है जिसने यथार्थ के कुत्सित पक्ष को एकत्र कर नरक का आविष्कार कर डाला, क्योंकि उस चित्र ने मनुष्य की सारी बर्बरता को चुन-चुनकर ऐसे ब्यौरेवार प्रदर्शित किया है कि जीवन के कोने-कोने में नरक गढ़ा जाने लगा।  इसके उपरांत उसे यथार्थ के अकेले सुखपक्ष को पुंजीभूत कर इस तरह सजाना पड़ा कि मनुष्य उसे खोजने के लिए जीवन को छिन्न-भिन्न करने लगा।''

भारत की अग्रणी लेखिका महादेवी वर्मा ने आज से लगभग अस्सी वर्ष पूर्व अपने कविता संकलन दीपशिखा में आत्मकथ्य लिखते हुए उपरोक्त विचार प्रकट किए थे। उन्होंने भले ही अपनी बात साहित्य और कला के संदर्भ में की हो, लेकिन आज भारत का मीडिया चुन-चुनकर जिस तरह की खबरें परोस रहा है, उसमें इन विचारों की प्रासंगिकता अपने आप स्पष्ट हो जाती है।

पिछले आठ-दस दिन से मीडिया पर एक तरफ तरुण तेजपाल और दूसरी तरफ अरविंद केजरीवाल और उनकी 'आम आदमी पार्टी' से संबंधित खबरें छायी हुई हैं। इनके बारे में सोचते हुए एकाएक मेरा ध्यान महादेवीजी के कथन की ओर तो गया ही, कोई आठ-नौ वर्ष पहले मैंने स्वयं भंडाफोड़ करने वाली पत्रकारिता पर जो दो लेख लिखे थे उनका भी स्मरण हो आया। याद करें कि वर्तमान समय में इस तरह की पत्रकारिता तरुण तेजपाल ने ही तहलका के माध्यम से प्रारंभ की थी। उन्होंने बंगारू लक्ष्मण व जार्ज फर्नाडीज आदि को लेकर जो स्टिंग ऑपरेशन किए थे उनकी खूब चर्चा हुई थी और देश में उन्हें बड़े पैमाने पर वाहवाही हासिल हुई थी। लेकिन मेरा तब भी मानना था कि यह तौर-तरीका पत्रकारिता के लिए ठीक नहीं है। दोनों लेखों- ''बिच्छू का डंक मार्का पत्रकारिता'' (विदुर अप्रैल-जून 2005 में प्रकाशित) तथा ''पत्रकारिता में बिच्छू, मकड़ी और ततैया'' (देशबन्धु में 22 दिसंबर 2005 को प्रकाशित) में बिना किसी लाग-लपेट के यह बात कही थी। जाहिर है कि मैं उस समय अल्पमत में था और शायद आज भी हूं।

मेरी कुछ ऐसी ही राय अरविंद केजरीवाल की राजनीति के बारे में है। यदि तरुण तेजपाल का दावा पत्रकारिता के माध्यम से सार्वजनिक जीवन में व्याप्त मलिनता को दूर करने का था तो श्री केजरीवाल देश की राजनीति को साफ-स्वच्छ करने का बीड़ा उठाकर मैदान में उतरे थे। उन्होंने पहले अन्ना हजारे एवं अन्य कई लोगों के साथ मिलकर आंदोलन  किया और फिर बाहर से सफाई करते-करते सक्रिय राजनीति में प्रवेश कर अपने आपको विकल्प के रूप में प्रस्तुत कर दिया। एक समय था जब अन्ना और अरविंद की जोड़ी पर देश का एक वर्ग मुग्ध हो उठा था। अन्ना के नेपथ्य में चले जाने के बाद अरविंद केजरीवाल को प्रकाश स्तंभ के रूप में देखने वालों की कमी नहीं थी। लेकिन हमें न तो उनके लोकपाल आंदोलन से कोई आशा थी और न उनकी आज की राजनीति से। हमारी राय में वे तब भी जन-भावनाओं से खेल रहे थे और आज भी उनकी यही स्थिति है।

तरुण तेजपाल की पत्रकारिता और अरविंद केजरीवाल की राजनीति दोनों का आधार, दिशा और मंतव्य एक जैसे ही थे। उनका मकसद ऐसे लोगों पर कीचड़ उछालना और आरोप लगाना था जो सार्वजनिक जीवन में किसी महत्वपूर्ण स्थान पर हों। यह पूरी तरह से व्यक्ति केन्द्रित कार्रवाई थी और सिध्दांत के नाम पर यत्र-तत्र भ्रष्टाचार उजागर करने तक सीमित थी। उन्होंने  अपनी ओर से जो बातें उजागर कीं उनमें सत्य का अंश रहा होगा, लेकिन जिस तरह दीवाली की रात फुलझड़ी जलाने से सारी रातें रोशन नहीं हो जातीं, उसी तरह ऐसे चुन-चुनकर लगाए गए आरोपों से भी सार्वजनिक जीवन में स्थायी रूप से शुचिता नहीं लाई जा सकती। होता है तो सिर्फ इतना कि कुछ लोगों का सार्वजनिक जीवन ऐसे आरोपों के घेरे में आकर समाप्त हो जाता है। इसके आगे उनकी कोई उपयोगिता नहीं है।

दरअसल भारत का सुविधाभोगी समाज ऐसी प्रवृत्ति को बढ़ावा देता है। यह वह वर्ग है जिसे अपने लिए जीवन की सारी नेमतें चाहिए। इसके लिए वह समझौते भी करता है। इस वर्ग को बीच-बीच में प्रायश्चित बोध होता है तब वह किसी मसीहा  की तलाश करता है, जो एक ऐसी नई व्यवस्था लागू कर दे जिसमें सुविधाभोगी समाज को बिना समझौते किए, बिना अपने मन पर बोझ लादे, आराम से वह सब कुछ हासिल हो सके जिसकी उसने ख्वाहिश की हो। भारत में आर्थिक उदारवाद आने के बाद से यह भावना कुछ यादा ही तेजी से पनपी। ऐसा शायद माना जा सकता है कि टी.एन. शेषन इन तथाकथित मसीहाओं के आदि देव थे। किन्तु एक समय आता है जब ये खुद अपने ही बनाए हुए जाल में फंस जाते हैं और इनकी प्रतिमा खंडित हो जाती है। टी.एन. शेषन से लेकर तेजपाल और केजरीवाल तक यही हुआ है।

फिलहाल श्री केजरीवाल और उनकी आम आदमी पार्टी ''मीडिया सरकार'' नामक पोर्टल के द्वारा किए गए स्टिंग ऑपरेशन के चलते कुछ परेशानी में पड़ गई है। अब वे और उनके साथी खुद ही अपनी जांच कर खुद को पाक-साफ होने का प्रमाणपत्र दे रहे हैं। वे इसके लिए अन्य राजनीतिक दलों को जिम्मेदार भी ठहरा रहे हैं। देखा जा सकता है कि जो कडवी दवा वे दूसरों को पिलाना चाहते थे अब उनके हलक में आकर बेचैनी पैदा कर रही है। उधर तरुण तेजपाल अपने पहले स्टिंग ऑपरेशन के बाद कुछ समय के लिए दृश्य से ओझल हो गए थे। लेकिन देखते न देखते वे वापिस लौटे और मीडिया में एक बड़ी ताकत बनकर उभरे। राष्ट्रीय स्तर पर श्री तेजपाल की छवि उदारवादी विचारधारा के एक दु:साहसी प्रवक्ता के रूप में बनी। आश्चर्यजनक रूप से यह सवाल किसी ने नहीं उठाया कि इतने कम समय में इतने बड़े पैमाने पर उद्यम खड़ा करने के लिए उन्हें धनराशि कहां से मुहैया हुई! आज जब उनका निजी जीवन शोचनीय विवादों के घेरे में है, तब उनके धन के स्रोतों व व्यवसायिक  गतिविधियों के बारे में नए-नए खुलासे हो रहे हैं। एक तरफ जहां देश में उन्हें उदारवादी माना जाता है, वहीं छत्तीसगढ़ में उन्होंने जिनको तहलका की फ्रेंचाइजी दी है उनका संबंध भाजपा से होने की चर्चा यहां के मीडियाकर्मियों में हुई है।

इससे हमें फिलहाल सरोकार नहीं है कि श्री केजरीवाल और उनकी पार्टी का चुनावों में क्या हश्र होता है। श्री तेजपाल के अपनी महिला सहकर्मी के साथ यौन प्रताड़ना के मामले में अंतत: क्या होगा, इसके बारे में भी हम कोई अनुमान नहीं लगाना चाहते। लेकिन इन दोनाें प्रकरणों को लेकर कुछ बुनियादी सवाल उठाना जरूरी हैं। इन दिनों कुछ ऐसा माहौल बन गया हैं मानो देश में घोटालों और स्कैण्डलों के अलावा कुछ होता ही नहीं है। राजनीति को देखें तो वहां विचारों को जैसे भुला ही दिया गया है; अब बात होती है तो सिर्फ व्यक्तियों की और उसमें भी किसी भी तरह की मर्यादा का पालन करना जरूरी नहीं समझा जाता। पांच राज्यों में चल रहे विधानसभा चुनावों के इस दौर में यह प्रवृत्ति बार-बार देखने आई है। इसमें वह पार्टी सबसे आगे है जो कल तक चाल, चेहरा और चरित्र की बात करती थी। सोचकर ही दहशत होती है कि अभी यह हाल है तो लोकसभा चुनावों के समय क्या नजारा बनेगा!

अफवाहों, अर्ध्दसत्यों एवं गैरजरूरी  मुद्दों को खबरों व बहसों के केन्द्र में लाकर मीडिया अपनी पीठ थपथपा सकता है, थपथपा रहा है, लेकिन उसे इस सच्चाई का अहसास नहीं है कि इस रास्ते पर चलकर वह खुद अपनी विश्वसनीयता किस तरह खो रहा है। एक दौर था जब अखबारों को उनके संपादकों के नाम से जाना जाता था और वे स्वयं अखबार में जो लिखते थे उसे पाठक गंभीरतापूर्वक पढ़ते थे।  अब कुछेक अपवादों को छोड़कर संपादक नाम की संस्था ही विलुप्त हो चुकी है। चैनलों के जो संपादक हैं उनके विचारों का उथलापन तो तुरंत ही प्रकट हो जाता है। पूंजीमुखी राजनीति से संचालित मीडिया और पूंजीवादी मीडिया से संचालित राजनीति- यह आज की पीड़ादायक वास्तविकता है।

 देशबंधु में 28 नवंबर 2013 को प्रकाशित 

Wednesday 20 November 2013

अब नतीजों का इंतजार




छत्तीसगढ़ में 19 नवंबर को दूसरे चरण की 72 सीटों पर मतदान के साथ विधानसभा चुनाव का बड़ा हिस्सा सम्पन्न हो गया। अब इंतजार है अन्य चार राज्यों  में मतदान का और फिर 8 दिसंबर को नतीजों का। अंतत: परिणाम क्या निकलते हैं, इसे लेकर 11 तारीख को हुए पहले चरण के मतदान के साथ ही कयास लगना प्रारंभ हो गए हैं।  यह उधेड़बुन  चलती रहेगी। अभी शायद इस बात पर गौर किया जा सकता है कि छत्तीसगढ़ में चुनावी माहौल कुल मिलाकर कैसा था। सबसे पहले ख्याल आता है कि 2013 के चुनाव न सिर्फ शांतिपूर्वक सम्पन्न हुए बल्कि चुनाव आयोग का काम भी बीते अवसरों की अपेक्षा कहीं ज्यादा सुचारु व व्यवस्थित था। भारत निर्वाचन आयोग ने अपनी जिम्मेदारी बखूबी निभाई है।  छत्तीसगढ़ के मुख्य निर्वाचन पदाधिकारी सुनील कुजूर एवं उनके साथ चुनाव कार्य में लगे तमाम लोग मतदाताओं से बधाई पाने के हकदार हैं।

इस बार जनता ने मतदान में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया है। पहले चरण में बस्तर व राजनांदगांव में जो भारी मतदान हुआ वह चकित करता है। ऐसा बहुत लोगों का मानना है कि चुनाव आयोग ने जिस मेहनत से घर-घर तक मतदाता पर्चियां पहुंचाईं व मतदाताओं को जागरूक करने के लिए नए-नए उपाय किए उसका अनुकूल प्रभाव हुआ है। इसके अलावा यह भी लगता है कि स्वयं मतदाताओं में किसी न किसी कारण से चुनावी प्रक्रिया के प्रति एक नए उत्साह का संचार हुआ है।  इसका विश्लेषण राजनीति के पंडित आगे-पीछे करेंगे ही। बस्तर में हो सकता है कि एक अन्य कारण से भी भारी मतदान हुआ हो। पिछले दो-तीन चुनावों में नक्सलियों ने चुनाव बहिष्कार का ऐलान किया था, जिसे मानने के अलावा और कोई विकल्प एक बड़े इलाके में नहीं था। इस  बार नक्सलियों ने एक सीमित क्षेत्र में ही मतदान का बहिष्कार करवाया और कहीं यह संभावना उभरती है कि नक्सलियों की अनुमति से ही आदिवासी मतदाता अपने अधिकार का इस्तेमाल करने का अवसर पा सके । यह विश्लेषण का विषय है कि नक्सलियों ने अपनी नीति में परिवर्तन क्यों किया!

यह वर्ष छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह के लिए तूफानी यात्राओं का साल रहा है। छत्तीसगढ़ में भाजपा के पास उनका कोई विकल्प नहीं है। मुख्यमंत्री होने के नाते उन पर जिम्मेदारी भी भारी है। पहले वे ग्राम स्वराज में भरी गर्मी में पूरे प्रदेश में घूमे और फिर चुनाव प्रचार में भी उन्हें चारों तरफ दौड़ लगानी पड़ी। अपने निर्वाचन क्षेत्र राजनांदगांव में भी वे वोटिंग के दिन पूरा समय नहीं दे सके। यह रोचक तथ्य है कि भाजपा ने जब चुनाव प्रचार शुरू किया तो शुरूआत में सिर्फ रमन सिंह की तस्वीर सामने थी। कुछ दिनों बाद एकाएक नरेन्द्र मोदी को भी प्रचार सामग्री में उनके बराबर महत्व देने की जरूरत जाने क्यों आन पड़ी!  शुरुआती रिपोर्टों में स्वतंत्र पर्यवेक्षकों का मानना था कि यहां मोदी को कोई नहीं जानता। इसके बाद भी श्री मोदी का रोपा लगाने के यत्न यहां किए गए। क्या इसलिए कि लोकसभा चुनावों तक फसल कटने लायक हो जाएगी?

प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष चरणदास महंत ने भी मेहनत करने में कोई कमी नहीं की।  वे जब पहली बार अध्यक्ष बने थे तभी इतनी स्फूर्ति दिखलाते तो यह उनके और कांग्रेस दोनों के हित में होता। बहरहाल नंदकुमार पटेल की शहादत के बाद उन्हें जब जिम्मेदारी मिली तो आधे अधूरे मन से काम शुरू कर धीरे-धीरे उन्होंने स्वयं को चुनावी चुनौती झेलने के लिए तैयार किया। उन्होंने दौरे कितने किए, यह तो मुझे ठीक से पता नहीं, किन्तु अपनी पत्रवार्ताओं में उन्होंने बीजेपी पर काफी प्रभावी ढंग से तथ्यों और तर्कों के साथ आक्रमण किए। यह नोट किया जाना चाहिए कि उनके बहुत से वरिष्ठ साथी चुनावी लड़ाई में फंसे हुए थे और वे अपना चुनाव क्षेत्र छोड़कर श्री महंत का साथ देने की स्थिति में नहीं थे।

ऐसे में कांग्रेस के चुनाव अभियान को गति देने में श्री महंत का साथ दिया पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी ने। अगर भाजपा सिर्फ डॉ. रमन सिंह से आस लगाए बैठी थी तो कांग्रेस को एक तरफ से महंत और दूसरी तरफ से जोगी संभाल रहे थे। मजे की बात यह है कि भाजपा के चुनावी संचालकों ने श्री महंत के बजाय श्री जोगी पर ही निशाना साधने की रणनीति पर काम किया। मतदाताओं के मन में श्री जोगी के खिलाफ खौफ पैदा करने के हर संभव प्रयत्न किए गए। ऐसी चर्चाएं आम तौर पर हुईं कि कांग्रेस जीती तो वे मुख्यमंत्री बनेंगे और आतंक का राज आ जाएगा। बहुत से जोगी विरोधी कांग्रेसियों ने भी इस तरह के अफवाहों को फैलाने में अपनी तरफ से कोई कसर नहीं छोड़ी। यह शोध का विषय हो सकता है कि दस साल सत्ता से बाहर व व्हील चेयर पर रहने के बावजूद श्री जोगी का ऐसा दबदबा कैसे कायम है!

जैसा कि दस्तूर है चुनाव प्रचार करने के लिए प्रदेश के बाहर से बड़े-बड़े लोग यहां आए। कांग्रेस की ओर से डॉ. मनमोहन सिंह, सोनिया गांधी व राहुल गांधी तो भाजपा से लालकृष्ण आडवानी, राजनाथ सिंह व नरेन्द्र मोदी। श्री मोदी ने पहले चक्कर में तीन जगह सभाएं लीं। कांकेर की सभा में बमुश्किल तमाम ढाई हजार लोग थे और जगदलपुर में छह हजार। उसी दिन कोण्डागांव में सोनिया गांधी की सभा में पच्चीस हजार से अधिक की उपस्थिति थी। श्री मोदी के दूसरे चक्कर में ताबड़तोड़ नौ सभाएं थीं जिसमें दुर्ग, रायपुर व रायगढ़ में उपस्थिति उत्साहजनक थी, लेकिन अगले दिन राहुल गांधी के सभाओं के आगे मोदीजी फीके पड़ गए। ऐसा क्यों हुआ? क्या इसलिए कि मोदीजी की जुमलेबाजी को लोग अब पसंद नहीं कर रहे हैं? क्या इसलिए कि छत्तीसगढ़ में वाकई उनकी कोई प्रासंगिकता नहीं है? क्या इसलिए कि जीरम घाटी की शहादत को प्रदेश की जनता भूली नहीं है? बहरहाल, इनके अलावा और जो भी बाहरी नेता यहां आए उनके प्रति जनता में कोई आकर्षण नहीं था। राजनाथ सिंह, दिग्विजय सिंह, हेमा मालिनी, राजब्बर, यहां तक कि लालकृष्ण आडवानी की सभाएं बहुत छोटी और फीकी रहीं।

इन दिनों एक नया चलन चला है कि मुद्दों की बात करके नहीं, बल्कि खैरात बांटकर जनता को खुश करो। कांग्रेस व भाजपा दोनों के घोषणा पत्रों में मोटे तौर पर यही बात देखने में आई। सरकार विपन्न लोगों को मुफ्त में अनाज दे बात समझ में आती है, लेकिन क्या कोई भी सरकार अनंत काल तक पचहत्तर प्रतिशत आबादी को मुफ्त अनाज, बिजली, पानी इत्यादि दे सकती है? यह एक अहम् सैध्दांतिक मसला है, जिस पर आगे बात करना जरूरी है। फिलहाल हमारा मानना है कि दोनों बड़ी पार्टियों के घोषणा पत्र में शायद ही ऐसा कुछ है जो प्रदेश को प्रगति की नई मंजिल की ओर ले जाने में सहायक हो। नक्सल समस्या, बेरोजगारी, जंगलों की कटाई, खनिजों का दोहन, लघु वनोपज का प्रसंस्करण, बेहतर शिक्षा, बेहतर चिकित्सा, प्रदूषण से बचाव इत्यादि गंभीर मुद्दों पर सिर्फ ऊपरी-ऊपरी बातें की गईं। इससे यह आशंका उत्पन्न होती है कि सरकार चाहे जिसकी आए, मामला वही ढाक के तीन पात वाला रह जाएगा।

हर बार की तरह इस बार भी मतदाताओं को भांति-भांति के प्रलोभन देने के किस्से लगातार सामने आए। चुनाव आयोग ने अपनी ओर से काफी सावधानी बरती, काफी कड़े उपाय किए। रुपयों से भरे बैग, कंबल, क्रिकेट किट, शराब की पेटियां आदि सामान बड़ी मात्रा में जब्त हुए। किन्तु आयोग को इस दिशा में पूरी तौर पर सफलता नहीं मिल पाई। आखिरी रात तक पैसा-शराब बंटने का काम चलता रहा। इसमें कई जगह पुलिस या अन्य एजेंसियों की भूमिका पर संदेह भी किया गया। हमें लगता है कि मतदाता बहती गंगा में हाथ धोने में कोई बुराई नहीं देखता, लेकिन ऐसा भी नहीं कि वह अपना वोट इस तरह से बेच देता हो। यह अकाटय सत्य है भारत के मतदाता ने प्रलोभनों के बावजूद अतीत में बार-बार सरकारों को बदला है। विश्वास है कि चुनावी नतीजे एक बार फिर मतदाता के विवेक को प्रमाणित करेंगे।



देशबंधु में 21 नवम्बर 2013 को प्रकाशित








Wednesday 13 November 2013

स्वच्छ प्रशासन की चिंता-2



सर्वोच्च न्यायालय ने अभी हाल में टीएसआर सुब्रह्मण्यम और 83 अन्य की जनहित याचिका पर प्रशासनिक सेवाओं के बारे में जो निर्देश दिए हैं उनमें एक यह भी है कि  प्रशासनिक अधिकारी मंत्री के मौखिक आदेश पर कोई काम न करें। इस निर्देश की जरूरत क्यों पड़ी? इससे यह प्रतिध्वनित होता है कि मंत्रीगण मनमाने आदेश करते हैं और अधिकारी आंख मूंदकर उनका पालन करते हैं। यह कोई राजशाही या तानाशाही का जमाना तो है नहीं कि अधिकारी सिर झुकाकर राजनेता की हर बात मान ले। मंत्री अगर अधिकारी से नाखुश है तो वह मुख्यमंत्री से शिकायत कर सकता है और मुख्यमंत्री के पास ज्यादा से ज्यादा ऐसे अधिकारी के तबादला करने का  ही अधिकार  है। बीच-बीच में अधिकारियों के निलंबित करने के प्रकरण भी हुए हैं, लेकिन वैसा सामान्यत: नहीं होता।  ध्यान रहे कि हम यह चर्चा उच्च प्रशासनिक अधिकारियों विशेषकर आईएएस इत्यादि के संबंध में कर रहे हैं।  जिनका चयन संघ लोक सेवा आयोग द्वारा किया जाता है। कुछ माह पूर्व ही उत्तर प्रदेश की आईएएस अधिकारी दुर्गाशक्ति नागपाल के प्रकरण में हमने देखा कि अखिलेश सरकार को निलंबन आदेश वापिस लेना पड़ा।

राज्य सेवा के कर्मचारियों की स्थिति इतनी सुरक्षित नहीं है।  उनकी नियुक्ति पदस्थापना और तबादले आदि में लेन-देन का जो खेल चलता है उससे सब वाकिफ हैं।  इसके बावजूद ऐसा कम ही देखने में आया है कि  शक्ति-सम्पन्न अधिकारी ने अपने किसी मातहत पर होने वाले अन्याय या अत्याचार को रोकने में कभी कोई रुचि दिखाई हो।  यहां तक कि राज्य सेवा के जो अधिकारी प्रमोशन पाकर आईएएस संवर्ग में आ जाते हैं उन्हें भी अपनी बिरादरी का नहीं समझा जाता। एक तरह की वर्णव्यवस्था देश के प्रशासन तंत्र में प्रारंभ से ही चली आ रही है। इसे दूर करने में किसी की भी दिलचस्पी नहीं है। इस दृष्टि से देखें तो श्री सुब्रह्मण्यम की याचिका भी शक्ति-सम्पन्न अधिकारियों के लिए कवच की मांग है। जो अधीनस्थ कर्मचारी हैं उनका जो होना हो सो हो। अब यह इन ऊंचे लोगों को ही सोचना चाहिए कि अपने लिए एक ''गेटेड कम्युनिटी'' बनाकर वे कब तक सुरक्षित रह सकते हैं।


फिलहाल हम याचिका के संदर्भ में दिए गए निर्णय की बात करें तो यह बात अटपटी लगती है कि सर्वोच्च न्यायालय को कार्यपालिका के आंतरिक तंत्र में हस्तक्षेप करने की जरूरत पड़े। मंत्री और उसके सचिव के बीच में ऐसा द्वंद्व उपस्थित ही क्यों होना चाहिए? जैसा कि हम समझते हैं, जनतांत्रिक व्यवस्था में अंतिम निर्णय लेने का अधिकार मंत्री के पास है, क्योंकि वह जनता का चुना हुआ प्रतिनिधि है।  सिध्दांत रूप में माना जा सकता है कि उसके निर्णयों में जनाकांक्षा प्रतिबिंबित होती है। सचिव की नियुक्ति निर्वाचित सरकार करती है, वह एक वेतनभोगी कर्मचारी है। उसका दायित्व है कि अपने ज्ञान, अनुभव व विशेषज्ञता के आधार पर वह समीचीन राय दे ताकि मंत्री युक्तियुक्त निर्णय ले सके।  ऐसा होने में क्या अड़चन पेश आ रही है?


मैं आज फिर दो किस्से सुनाकर अपनी बात स्पष्ट करना चाहता हूं।  अर्जुन सिंह मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री थे। उनके समय में एक जुमला खासा प्रचलित हो गया था- ''समस्त नियमों को शिथिल करते हुए''। यह उनके काम करने का अपना अंदाज था।  कोई भी प्रकरण हो, सचिव को पूरी छूट थी कि वह बेबाकी से अपनी राय रखे।  श्री सिंह जब सचिव की राय या स्थापित नियमों के खिलाफ जाकर निर्णय लेते थे तो फाइल में अपने हाथों से लिख देते थे कि यह काम किया जाना है।  इसका अर्थ यह हुआ कि वे मुख्यमंत्री होने के नाते अपनी निजी जिम्मेदारी पर निर्णय लेते थे।  अधिकारी के कंधे पर रखकर बंदूक उन्होंने कभी नहीं चलाई।  उन्हीं से जुड़ा एक अन्य प्रसंग है। दुर्ग जिले के एक प्रभावी नेता के कहने  से उन्होंने तत्कालीन जिलाधीश हर्षमंदर का तबादला कर दिया। मैंने उनसे पूछा कि ऐसे  लोकप्रिय और स्वच्छ छवि के अधिकारी को उन्हें क्यों हटाया। उन्होंने बड़ी सरलता से उत्तर दिया- ''वे जनप्रतिनिधियों के खिलाफ कार्रवाई कर रहे थे। मुझे काँफिडेंस में लेकर काम करते तो यह स्थिति नहीं आती।'' बात समझ में आई कि निर्वाचित जनप्रतिनिधि का सम्मान बरकरार रखकर ही निर्णय लेना चाहिए था।


एक अन्य प्रसंग 1967-68 के मध्यप्रदेश का है। गोविन्द नारायण सिंह संविद सरकार के मुख्यमंत्री थे। उन्होंने डॉ. रामचंद्र सिंहदेव को अपने मंत्रिमंडल में शामिल किया तथा कोई सत्रह-अठारह विभाग उन्हें सौंप दिए।  सिंहदेवजी ने कहा कि इतना सारा काम मैं कैसे संभालूं। मुख्यमंत्री का जवाब था कि आपके पास अच्छे अधिकारी हैं। उनकी बात सुनिए, समझिए और आपको भरोसा हो तो उनकी लाई फाइल पर दस्तखत कर दीजिए।''  इसके साथ उन्होंने अपने  युवा (तब) मंत्री को आगाह भी किया कि कभी भी सचिव पर अपनी मनमर्जी की टीप लिखने का दबाव मत डालिए।  सचिव का काम सलाह देना और मंत्री का काम फैसला लेना है।  उपरोक्त प्रसंगों का आकलन करें तो समझ आ जाता है कि देश के प्रशासन तंत्र में गिरावट क्यों आई है।


सर्वश्री सुब्रह्मण्यम, प्रकाश सिंह आदि अनेक सेवानिवृत्त आला अफसर आए दिन टीवी पर दिखाई देते हैं। हम मानते हैं कि प्रशासनतंत्र में आई गिरावट को लेकर इनके मन में जो चिंता है वह वास्तविक है, लेकिन टीवी पर होने वाली छुटपुट बहसों से या अदालती आदेशों से व्यवस्था में कोई बड़ा  सुधार आ जाएगा, ऐसा हमें नहीं लगता।  इन अनुभवी व्यक्तियों को इस सच्चाई का भी संज्ञान लेना चाहिए कि संघ लोकसेवा आयोग के माध्यम से जो अधिकारी चुने जा रहे हैं उनमें कितना नैतिक बल है। हमने सुना और देखा भी है कि कुछ साल पहले तक युवा अधिकारियों की मैदानी ट्रेनिंग कैसे होती थी, कैसे वे पटवारी से लेकर सिपाही तक से ज्ञान हासिल करते थे, छोटे-मोटे कस्बों में किस तरह वे अपने दिन बिताते थे।  वह सब शायद आज भी होता हो, लेकिन ऐसा लगता है कि नवसाम्राज्यवाद के इस दौर में जो इंद्रजाल फैला है उसमें फंसने से ये अपने आपको नहीं बचा पा रहे हैं। अखिल भारतीय सेवा के किसी भी अधिकारी के पास दो बातें होती हैं- गर्व और दंभ।  वह या तो गर्व कर सकता है कि उसे समाज की सेवा करने का एक बहुमूल्य अवसर मिला है इसके विपरीत वह इस दंभ में रह सकता है कि उसका जन्म लोगों पर राज करने के लिए हुआ है। 


एक समय था जब नए-नए आईएएस के बारे में आमतौर पर माना जाता था कि वह पांच-सात साल तो बिना पैसा खाए काम करेगा। पिछले बीस साल में यह धारणा पूरी तरह बदल गई। यही वजह है कि अब अधिकारी अपनी राय लिखने के बजाय मौखिक आदेश पर काम करते हैं। शायद ऐसा भी है कि बहुत से लोग अपने मंत्री को ही बताते हैं कि सर ऐसा करने से आपको फायदा होगा। और अगले चुनाव की चिंता में डूबा मंत्री ऐसे चतुर अधिकारी की बात मान लेता है। संभवत: इसी का परिणाम है कि छत्तीसगढ़ जैसे नए राज्य में जहां कार्य संस्कृति का विकास होना बाकी है वहां मंत्री चीफ सेक्रेटरी तक को हटाने की मांग करने लगते हैं।  जहां भविष्य का कोई सपना न हो, दूर तक देख पाने की न तो क्षमता हो न इच्छा और सारा ध्यान तुरंत लाभ पर केन्द्रित हो, उस वातावरण में सुप्रीम कोर्ट के दिशानिर्देश कितने कारगर हो पाएंगे, कहना कठिन है।


देशबंधु में 14 नवम्बर 2013 को प्रकाशित

Thursday 7 November 2013

स्वच्छ प्रशासन की चिंता

आज एक किस्से से बात शुरू करते हैं। यह कोई चालीस साल पुरानी बात है। एक राज्य के मुख्यमंत्री की पत्नी तिरुपति बालाजी के दर्शन के लिए गईं। प्रचलित परंपरा व निज श्रध्दा के चलते उन्होंने अपना मुंडन करवाया। लौटकर आईं तो पूरे समय सिर पर पल्ला रखने लगीं कि मुंडा हुआ सिर दिखाई न दे। कुछ दिनों बाद उनके गृह जिले के कलेक्टर, एसपी, अधीक्षण यंत्री, वन अधिकारी इत्यादि की पत्नियां भी तिरुपति जाकर अपनी केशराशि समर्पित कर आईं। वे लौटीं और देखते ही देखते उस जिले में संभ्रांत समाज की महिलाओं के बीच सिर पर पल्ला रखने का रिवाज चालू हो गया व दो-एक साल तक चलता रहा। ये किस प्रदेश की, किस जिले की बात है, यह जानकर क्या करेंगे? शायद आपने भी अपने आसपास ऐसा कोई प्रसंग देखा होगा!

एक और किस्सा अनायास ध्यान आ रहा है। एक जिले के जिलाधीश महोदय को किसी सामाजिक संस्था ने भाषण देने बुलाया। अपने व्याख्यान में उन्होंने बड़े प्रभावशाली तरीके से अपनी बात सामने रखी कि भारत में तीन ओहदे सबसे यादा महत्व रखते हैं- पीएम याने प्रधानमंत्री, सीएम याने मुख्यमंत्री और डीएम याने डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट अथवा कलेक्टर। कालांतर में इस आला अफसर ने सरकारी नौकरी छोड़ राजनीति में प्रवेश किया और यथासमय एक ऊंचे ओहदे पर पहुंचने में सफलता पाई। जनसेवा का एक क्षेत्र छोड़कर दूसरे क्षेत्र में आने वाले न तो ये पहले व्यक्ति थे और न अंतिम। इसमें कोई बुराई भी शायद नहीं है। हमारा मकसद इस बारे में कोई टिप्पणी करना भी नहीं है बल्कि इन दोनों प्रसंगों के माध्यम से यह स्पष्ट करना है कि भारत की अफसरशाही, नौकरशाही, बाबूतंत्र या प्रशासनतंत्र पिछले कई दशकों से किस मानसिकता से काम कर रहा है। 


 यूं देश में ऐसे अफसरों की कमी नहीं है, जिन्होंने अपने सरकारी कार्यकाल के अनुभव लिखे हैं।  इनमें सबसे पहला नाम तो आर.एस. वी.पी. नरोन्हा का है जो मध्यप्रदेश के मुख्य सचिव थे। सत्तर के दशक में प्रकाशित उनकी आत्मकथा का शीर्षक है- 'अ टेल टोल्ड बाइ एन इडियट।' इसमें उन्होंने बेहद रोचक शैली में निर्वाचित सरकार तथा अफसरशाही के आपसी व्यवहार को चित्रित किया है। श्री नरोन्हा की ख्याति एक बेहद सुलझे हुए ईमानदार, कर्मठ व कुशल अफसर की थी। वे चीफ सेक्रेटरी थे तब लूना या ऐसी किसी मोपेड से अपने घर से वल्लभ भवन आया करते थे। कहना होगा कि अपने समय में ऐसे गुणों वाले वे अकेले अधिकारी नहीं थे। यह बात और है कि वे अपने अनुभवों को लिपिबध्द कर गए।

मध्यप्रदेश में ही उनके बाद एक और मुख्य सचिव हुए श्री सुशीलचंद्र वर्मा। वे 1960 की शुरुआत में रायपुर में कलेक्टर थे। श्री वर्मा ने 1984-85 के आसपास 'एक कलेक्टर की डायरी' शीर्षक से अपने अनुभव लिखे जो उन दिनों देशबन्धु में धारावाहिक रूप से प्रकाशित भी हुए। श्री वर्मा की शैली भी बहुत रोचक और किस्सागोई थी। नरोन्हाजी की ही तरह वर्माजी ने भी रेखांकित किया कि अगर अधिकारी ठान ले तो वह भय अथवा राग से मुक्त होकर कैसे काम कर सकता है, और साथ ही साथ अपने अधीनस्थों को भी स्वच्छ वातावरण में काम करने के लिए प्रेरणा दे सकता है। मैंने और भी बहुत से अधिकारियों की आत्मकथाएं पढ़ी हैं। यूं तो और भी बहुत से बड़े आला अफसरों ने इस तरह पुस्तकें लिखी हैं, लेकिन मुझे उनमें अपने काम की एक ही पुस्तक ध्यान आ रही है, वह है गुजरात कैडर के जाविद चौधरी की जो आगे चलकर केन्द्रीय स्वास्थ्य सचिव के पद से रिटायर हुए।


अभी कुछ दिन पहले भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने अधिकारियों की पोस्टिंग व तबादलों के बारे में तीखी टिप्पणियों के साथ जो दिशानिर्देश दिए हैं उसकी खबर को पढ़कर ये सारे प्रसंग अचानक ही याद आ गए। सर्वोच्च न्यायालय ने एक तो यह निर्दिष्ट किया है कि अधिकारी को एक पद पर एक निश्चित कार्यकाल मिलना चाहिए जो दो साल से कम का न हो। दूसरे उसने कहा है कि सेवाओं के नियमन के लिए एक बोर्ड बनाया जाना चाहिए। तीसरे अदालत ने अधिकारियों को निर्देश दिया है कि वे कोई मौखिक आदेश न मानें और लिखित आदेश पर ही कार्रवाई करें। इन दिनों देखने में आ रहा है कि समाज के सभी वर्गों ने सर्वोच्च न्यायालय पर ही देश की व्यवस्था को सुधारने की जिम्मेदारी डाल रखी है। गोया उनकी अपनी कोई जिम्मेदारी नहीं बनती।  देश की अदालतें भी, कभी-कभी ऐसा लगता है कि, अपने बारे में ऐसा ही कुछ मान बैठी हैं कि उनके अलावा देश को और कोई नहीं बचा सकता। इस क्षणिक उत्तेजना में व्यवहारिक स्थितियां भुला दी गई हैं।


हम जानते हैं कि पुलिस के एक आला अफसर प्रकाश सिंह की जनहित याचिका पर सर्वोच्च न्यायालय ने  हर प्रदेश में पुलिस स्थापना बोर्ड बनाने और व कुछ अन्य निर्देश दिए थे। इन निर्देशों का पालन कम, उल्लंघन यादा हुआ। श्री सिंह अब टीवी पर कई बार चिंता प्रकट करते नजर आते हैं कि राज्य सरकारें सुप्रीम कोर्ट के दिशानिर्देशों का पालन नहीं कर रही हैं। इसी तर्ज पर प्रशासनतंत्र में सुधार लाने की जनहित याचिका पूर्व केबिनेट सचिव टीएसआर सुब्रह्मण्यम ने दायर की थी, जिस पर उपरोक्त निर्देश जारी हुए। उनका पालन होगा या उल्लंघन, यह समझाने की जरूरत नहीं है।


दरअसल इस देश का कुलीन वर्ग हर समय किसी तरह की दैवी शक्ति से अपना मनचाहा हासिल करने की उम्मीद बांधे रहता है। भारत का मध्यवर्ग कुलीनों का अंधानुसरण करता है। आप देख सकते हैं कि कितने ही बड़े अफसर अपने दफ्तर में किसी देवी-देवता की या फिर किसी तथाकथित गुरु की फोटो लगाए रहते हैं। वे तंत्र-मंत्र में भी विश्वास रखते हैं और चमत्कार में भी, इसीलिए बाबाओं के आश्रम इतने फल-फूल रहे हैं। यही वर्ग सारे समय किसी देवदूत के प्रकट होने की प्रतीक्षा करते नजर आता है। टीएन शेषन से लेकर अन्ना हजारे तक यह सिलसिला चला आ रहा है। यही कुलीन वर्ग अब नरेन्द्र मोदी पर दांव लगा रहा है। मजे की बात है कि प्रशासनतंत्र में गिरावट का रोना रोने वाले यही प्रभुता-सम्पन्न लोग अपने बेटों की शादी में करोड़ों का दहेज लेते हैं और अक्सर ऐसे अन्य काम करते हैं जिनकी इजाजत देश का कानून नहीं देता या जो सामाजिक मर्यादाओं के परे हैं।


देश की जनता को अपने अफसरों से यह सवाल करना चाहिए कि आप तो लोक सेवक हैं; जो भी सरकारी संस्थाएं हैं वे ठीक से काम करें यह देखना आपकी अपनी जिम्मेदारी है। फिर ऐसा क्यों है कि आप अपने बच्चों को सरकारी स्कूल में पढ़ने नहीं भेजते; आपके घर में कोई बीमार पड़ता है तो आप सरकारी अस्पताल नहीं जाते, आप सार्वजनिक यातायात का कभी उपयोग नहीं करते; फिर अगर ये संस्थाएं ठीक से काम न करें तो इसमें दोष किसका है? सर्वोच्च न्यायालय के दिशानिर्देश के पीछे भावना सही हो सकती है, लेकिन अगर एक अफसर एक ही जगह पर दो साल से तैनात है तो इस बात की क्या गारंटी है कि वह ईमानदारी के साथ अपना काम करेगा। अगर वह भ्रष्ट और अक्षम है तो क्या उसे दो साल तक अपनी गलतियां दोहराते जाने का अवसर दिया जाना चाहिए? दरअसल इस पूरे मामले को एक दूसरे धरातल पर देखने की जरूरत है।


देश की चुनावी राजनीति में अभिजात समाज का दबदबा कम हुआ है और वे साधारण लोग तेजी से सामने आए हैं तो कल तक सिपाही व पटवारी से भी डरते थे। इन्हें प्रशासन का वांछित अनुभव नहीं है, जबकि अधिकारी अभी भी यादातर अभिजात समाज से आते हैं। वे अक्सर अपने चुने हुए नेताओं को नीची निगाह से देखते हैं और उन्हें पथभ्रष्ट करने के उपाय खोजते रहते हैं। लेकिन यह संक्रमण काल है और अधिक दिन नहीं चलेगा। जिस दिन किसान और कारीगर अपनी राजनीतिक ताकत को सही रूप में समझ जाएंगे उस दिन प्रशासनतंत्र भी बिना सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों या अन्य किसी विधि के अपने आप सही रास्ते पर आ जाएगा।


देशबंधु में  7 नवम्बर 2013 को प्रकाशित

Wednesday 30 October 2013

दीपावली पर सिलयारी व कोनी के संदेश

दीपावली के साथ धूम-धड़ाका, चकाचौंध और पूजा-पाठ  जुड़ा है, उसे थोड़ी देर के लिए नजरअंदाज कर दें तो फिर समझ में आता है कि यह त्यौहार भारत के सामाजिक जीवन में भौतिक प्रगति की कामना को, सुख-समृध्दि की आशा को व्यक्त करने का सबसे महत्वपूर्ण अवसर है। जिनके पास सब कुछ या काफी कुछ है, उनकी कोशिश होती है कि लक्ष्मी रूठ कर न जाएं और जिनके पास कुछ नहीं अथवा बहुत कम है वे मनाते हैं कि लक्ष्मी एक बार तो उनकी देहरी लांघ कर भीतर आ जाएं। गरज यह है कि सब अपनी-अपनी सामर्थ्य के अनुसार ऐश्वर्य की देवी को रिझाने में लगे रहते हैं। यह साल का एकमात्र अवसर होता है जब औसत भारतीय उस आडंबर का लबादा उतार देता है कि भारत भौतिकवादी नहीं, बल्कि आध्यात्मवादी समाज है। यह अलग बात है कि वह अपनी भौतिक इच्छा को भी कर्मकांड में लपेट कर पेश करता है।

जो भी हो, भौतिक परिलब्धियों की इच्छा किसे नहीं होती और क्यों नहीं होना चाहिए? बस शर्त इतनी है कि अपनी इच्छा पूरी करने के लिए जो कर्म किए जाएं वे ऐसे न हों जिनसे सामाजिक मर्यादाओं का उल्लंघन होता हो। यदि बिना ज्यादा हाय-हाय किए, बिना चोरी-डकैती किए, लगन, मेहनत व दिमागी ताकत से धनोपार्जन हो सके तो उसमें किसी को क्या आपत्ति होगी! यह हक तो हर व्यक्ति को है कि वह सीधे रास्ते पर चलते हुए अपने व अपने परिवार के लिए सुख-सुविधाएं जुटा सके। कहना होगा कि अधिकांशजन ऐसा ही करते हैं। जो टेढ़े-मेढ़े रास्ते पर चलते हैं, उनकी संख्या कम ही होती है, यद्यपि उनके कारनामे बड़े होते हैं जिसके कारण उनके नाम सुर्खियों में आते हैं। उनके बारे में तो सबेरे-शाम चर्चाएं होती हैं, फिर आज त्यौहार की पूर्व संध्या पर वही बात कर अपना दिमाग खराब क्यों किया जाए?


कहने की आवश्यकता नहीं कि किसी भी समाज में किसान और मजदूर ही आर्थिक प्रगति की रीढ़ होते हैं। वे यदि अपने शरीर को तानकर काम न करें तो न तो खेतों में अनाज पैदा होगा और न कारखानों में उत्पादन ही संभव होगा। आज जब हम साल का सबसे बड़ा त्यौहार मनाने जा रहे हैं तब अपनी डयोढ़ी पर एक दिया इस देश के मेहनतकश लोगों के लिए कृतज्ञतापूर्वक जलाना अच्छा ही होगा।  इसके साथ यह याद करना भी मुनासिब होगा कि किसी भी देश की आर्थिक समृध्दि के लिए सही नीतियां बनाने की जरूरत होती है और उन नीतियों को व्यवहारिक धरातल पर उतारने के लिए ऐसे उद्यमियों की जिनमें नई और अनजानी चुनौतियों का सामना करने का माद्दा हो, जिनके दिमाग की खिड़कियां नए विचारों के लिए खुली हों और जो परिश्रम करने से न घबराते हों। इन सबको मिलाकर जो मणि-कांचन योग बनता है उससे ही व्यक्ति, समाज और देश आगे बढ़ने की प्रेरणा पाते हैं।


यह एक संयोग ही था कि पिछले सप्ताह मुझे ऐसे दो प्रकल्प देखने का अवसर मिला जहां कल्पनाशीलता, उद्यमशीलता, श्रमशीलता और संवेदनशीलता के रंग-बिरंगे धागों से देश की आर्थिक समृध्दि का ताना-बाना बुना जा रहा है। ये दोनों प्रकल्प छत्तीसगढ़ में है, दोनों में सरकार व निजी क्षेत्र की भागीदारी है, दोनों की बागडोर उन व्यक्तियों के हाथ में है जो मेरे मित्र हैं। आज उनकी कथा लिखने का मेरा प्रयोजन यही है कि जब हमारे राष्ट्रीय जीवन में निराशा, कुंठा और किसी हद तक झुंझलाहट की भावना बलवती हो रही है तब ये कथाएं हमें थोड़ी देर के लिए सही प्रेरित कर सकती हैं, मन में उत्साह का संचार कर सकती हैं, और उल्लास के साथ दीपावली मनाने का अवसर जुटा सकती हैं।


मैं पहले जिस प्रकल्प की चर्चा करने जा रहा हूं उसके पूरे होने से छत्तीसगढ़ की एक महत्वपूर्ण सड़क पर माल यातायात का बोझ कम हुआ है याने ट्रकों की आवाजाही में कमी आई है। परिवहन में लगने वाले डीजल की खपत में बहुत बड़ी बचत हुई है याने विदेशी मुद्रा की बचत भी हुई है। एक गांव में करीब पांच सौ लोगों को रोजगार के नए अवसर मिले हैं। गांव का आर्थिक स्तर सुधरा है। शिक्षा, स्वास्थ्य व अन्य सामाजिक कामों में भी इस प्रकल्प से आसपास के गांव में भी उल्लेखनीय सेवा हो रही है। आप ही बताइए कि इसकी सराहना किए बिना कैसे रहा जा सकता है! यह प्रकल्प है- रायपुर-भाटापारा रेलमार्ग पर स्थित सिलयारी गांव में भारतीय रेल की सहमति से स्थापित एक निजी मालधक्का याने गुड्स टर्मिनल। ओडिशा की खदानों से लौह अयस्क व कोरबा की खदानों से कोयले का रायपुर के औद्योगिक संकुल के लिए जो परिवहन कुछ समय पूर्व तक सिर्फ ट्रकों से होता था उसका सत्तर प्रतिशत अब मालगाड़ी से होने लगा है। सिलयारी में माल उतार कर ट्रकों से नजदीक स्थित सिलतरा पहुंचा दिया जाता है। हिन्दी के प्रसिध्द कवि-लेखक व रेलवे बोर्ड के पूर्व अतिरिक्त सदस्य महेन्द्र कुमार मिश्र ने रिटायर होने के बारह-तेरह साल बाद 70 वर्ष की आयु में इसकी परिकल्पना की और उसे साकार रूप देने के लिए साधन जुटाए रायपुर के युवा उद्यमी विनय लूनिया ने। सिलयारी के मालधक्के  पर रोज औसतन दो मालगाड़ियां याने एक सौ बीस वैगनें आती हैं, जिनमें लगभग बहत्तर सौ टन माल होता है। पहले जब यह माल सड़क से आता था तब इसके लिए प्रतिदिन साढ़े तीन सौ डम्परों की आवश्यकता पड़ती थीं। अनुमान लगाना कठिन नहीं है कि इस तरह कितनी बड़ी बचत की गई है।


विनय लूनिया की कंपनी विमला इन्फ्राट्रक्चर इंडिया लि. के इस प्रकल्प के बारे में बहुत चर्चा अभी नहीं हुई है क्योंकि वह कोई अलग से दिखने वाला ढांचा नहीं है, लेकिन इसके माध्यम से सिलयारी व आसपास के गांव में बेहतरी के लिए जो बदलाव आया है वह दिखाई देता है। कंपनी ने आसपास के किसानों को अपनी गारंटी पर बैंक ऋण से ट्रक खरीदवाए हैं, जिसका लाभ करीब तीन सौ लोगों ने उठाया है। समाज सेवा के बहुत से छोटे-मोटे कामों के अलावा विनय सिलयारी में एक कॉलेज खोलने जा रहे हैं। इस प्रकल्प से एक तरफ तो ग्रामवासियों के जीवन में परिवर्तन आया है वहीं विदेशी मुद्रा की बचत और सीमित दायरे में पर्यावरण मित्रता का काम भी हुआ है।


दूसरी कथा छत्तीसगढ़ के दूसरे सबसे बड़े नगर बिलासपुर की है। यहां साठ साल पहले कोनी गांव में औद्योगिक प्रशिक्षण संस्थान स्थापित हुआ था। आगे चलकर उसके नजदीक महिला आईटीआई की भी स्थापना की गई थी। जो भी कारण रहे हों, छत्तीसगढ़ सरकार का तकनीकी शिक्षा विभाग अपनी इस महत्वपूर्ण संस्था का सही ढंग से विकास नहीं कर पाया और आईटीआई बंद होने के कगार पर पहुंच गया। इस बीच भारत सरकार ने तय किया कि पीपीपी याने पब्लिक प्रायवेट पार्टनरशिप के तहत देश के आधे आईटीआई निजी क्षेत्र को संचालन हेतु सौंप दिए जाएं। जिस तरह से सरकार अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ शिक्षा व स्वास्थ्य के क्षेत्र में निजी क्षेत्र को बढ़ावा दे रही है, उसमें यह निर्णय स्वाभाविक ही था।


आज देश में और छत्तीसगढ़ प्रदेश में भी निजी क्षेत्र अनेक आईटीआई का संचालन कर रहा है। यद्यपि उनके हालात आज भी पहले के समान हैं, लेकिन कोनी बिलासपुर की महिला आईटीआई इसका अपवाद है। संस्था की संचालन समिति के अध्यक्ष अपने समय के समाजवादी नेता और बिलासपुर के उद्यमी हरीश केड़िया हैं। कुछ अन्य मित्र भी इसमें उनके साथ हैं। पांच वर्ष पूर्व जब हरीश की समिति ने इस संस्थान को लिया था तब यहां चलने वाले लगभग सारे प्रशिक्षण बंद हो चुके थे। देखते ही देखते तस्वीर बदली और आज नियमित तौर पर यहां तीस-चालीस व्यवसायों में कौशल प्रशिक्षण व कौशल उन्नयन का काम किया जा रहा है। इस वर्ष इस संस्थान से तीन हजार युवतियां प्रशिक्षण प्राप्त कर निकलेंगी।


यहां की प्रशिक्षार्थियों में अधिकतर ग्रामीण पृष्ठभूमि की हैं। वे किसानों और मजदूरों की बेटियां हैं। अनेक कॉलेज की छात्राएं हैं जो अंशकालीन प्रशिक्षण के लिए आती हैं। उनसे कोई फीस नहीं ली जाती। अधिकतर प्रशिक्षिकाएं भी अंशकालीन काम करती हैं। उन्हें प्रति प्रशिक्षार्थी मानदेय दिया जाता है। यहां जो कार्यक्रम चल रहे हैं उनसे प्रशिक्षार्थियों के सामने जीविकोपार्जन के नए अवसर खुले हैं, उनके आत्मविश्वास में भी वृध्दि हुई है। इन्हें भारत सरकार व राय सरकार द्वारा जारी प्रमाण पत्र भी दिए जा रहे हैं। प्रतिदिन करीब हजार लड़कियां अलग-अलग पालियों में आती हैं। उनके लिए आसपास के गांव से बसें भी चलती हैं। संस्थान का वातावरण खुशनुमा है। कुल मिलाकर दिखाई देता है कि लगन के साथ एक अनूठी पहल साकार हो रही है।


सिलयारी, रायपुर व कोनी, बिलासपुर के ये दोनों अलग-अलग तरह के प्रकल्प दिवाली को नए ढंग से मनाने का संदेश देते हैं। 


देशबंधु में 31 अक्टूबर 2013 को प्रकाशित

Friday 25 October 2013

इक्कीसवीं सदी में गांधी की प्रासंगिकता


आज अगर कोई पूछे कि 21वीं सदी में गांधी की क्या प्रासंगिकता है तो सुनने वाले प्रश्नकर्ता की बुध्दि पर तरस ही खाएंगे। एक औसत व्यक्ति की नजर में यह एक अहमकाना सवाल होगा। अधिकतर लोग तो यही मानेंगे कि गांधी और उनके विचारों की कोई समय-सीमा अथवा एक्सपायरी डेट नहीं है और यह कि वे सौ साल या पचहत्तर साल पूर्व जितने प्रासंगिक थे उतने आज भी हैं और आगे भी बने रहेंगे। कुछ विचारवान लोग यह तर्क भी दे सकते हैं कि आज गांधी की प्रासंगिकता पहले से कहीं ज़यादा है। कुछेक का तर्क शायद यह भी हो कि गांधी को भारत की सीमाओं में बांधकर नहीं रखा जा सकता कि उनके विचार तो पूरी दुनिया के लिए मूल्यवान और ग्रहण करने योग्य हैं। इस फौरी प्रतिक्रिया से आगे बढ़कर सोचें तो समझ आता है कि उपरोक्त प्रश्न का उत्तर बहुत कुछ इस पर निर्भर करता है कि कोई व्यक्ति अपने तईं गांधी को किस तरह से देखता-समझता है। आखिरकार गांधी का जीवन उन असाधारण और अभूतपूर्व अवधारणाओं से ढला था जिनकी खोज खुद उन्होंने की थी और जो इन अवधारणाओं पर आधारित नाना प्रयोगों और हस्तक्षेपों से पग-पग पर भरा हुआ था। ऐसे में क्या आश्चर्य कि हर व्यक्ति का गांधी को देखने का नजरिया अपना ही है। 
 
भारत उपमहाद्वीप में बहुसंख्यक जनता के लिए गांधी महात्मा थे और हैं। उनका हर शब्द एक आदेश था और बिना कोई सवाल उठाए उनके हर इंगित का अनुसरण कर  हर व्यक्ति अपने को धन्य समझता था। अपनी मृत्यु के पैंसठ वर्ष बाद गांधी आज एक और ऊंचे आसन पर विराजित हैं तथा उन्हें लगभग भगवान का दर्जा दे दिया गया है। यही नहीं, उनके जीवनकाल में भी दुनिया के अन्य मुल्कों में उनके विचार और कर्म से प्रभावित लोगों की कोई कमी नहीं थी। आज यह संख्या कई गुना बढ़ गई है। रिचर्ड एटनबरो की फिल्म 'गांधी' आने के बाद तो दुनिया का ऐसा कौन सा कोना है जहां गांधी के नए अनुयायी न बने हों! यह भी एक विचित्र तथ्य है कि जिस राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के विचारों में दीक्षित और अनुप्राणित व्यक्ति ने गांधी की हत्या की थी उसी संघ ने गांधी को अपने आराध्यों की सूची में शामिल करने में बहुत देर नहीं लगाई। संघ के विचारों में इस बीच कोई परिवर्तन नहीं हुआ है, तब यह अनुमान लगाना कठिन है कि संघ गांधी के बारे में वास्तव में क्या सोचता है!

 
गांधी के चरित्र का एक अन्य पहलू यह भी है कि वे एक महान लेखक व महान पत्रकार थे तथा दुनिया के तमाम विषयों पर वे अपने विचार विभिन्न माध्यमों से नियमित रूप से व्यक्त करते थे। उन्होंने जितना कुछ लिखा उतना जवाहरलाल नेहरू को छोड़कर विश्व के किसी अन्य नेता ने शायद नहीं लिखा। इसके चलते एक सुभीता, बहाना और अवसर उन बहुत से टीकाकारों अथवा लेखकों को मिल गया है जो अपने निजी विचारों की पुष्टि में गांधी दर्शन से बिना किसी संदर्भ के सामग्री उठाना चाहते हैं। इसे आप चाहे तो बौध्दिक बेईमानी कहें या बौध्दिक चतुराई। मिसाल के तौर पर ऐसे विचारकों की कमी नहीं है जो हर तरह से प्रमाणित करना चाहते हैं कि 1909 में प्रकाशित 'हिन्द स्वराज' गांधी के विचारों का उत्स व चरमसीमा है, गोया इसके बाद गांधी ने न तो कुछ नया लिखा और न उनके विचारों का ही विकास हुआ। इसी तरह कुछ वर्ष पूर्व मैं एक छोटी सी पुस्तक पाकर हतप्रभ रह गया, जिसमें ईसाईयत पर गांधी के विचारों को मनमाने ढंग से संकलित किया गया था। 1999 में ओडिशा में काम कर रहे आस्ट्रेलियाई पादरी ग्राहम स्टेंस की बर्बर हत्या, उग्र हिन्दूवाद से जुड़े कुछ लोगों ने कर दी थी। उसके कुछ हफ्ते बाद ही इस पुस्तक का प्रकाशन मानो उक्त हत्याकांड को जायज ठहराने का प्रयत्न था। 

 
जैसा कि हम जानते हैं कि महात्मा गांधी का व्यक्तित्व बहुमुखी था: वकील, लेखक, पत्रकार, शिक्षक, सामाजिक कार्यकर्ता, पर्यावरणविद्, नागरिक अधिकार कार्यकर्ता, स्वाधीनता सेनानी,राजनीतिक रणनीतिकार, राजनीतिक चिंतक और न जाने क्या-क्या। इसके अलावा उनकी जीवनशैली बेहद सादी थी, जिसका खूबसूरत चित्रण उस स्कैच में हुआ है, जिसमें सिर्फ चश्मे की फ्रेम और छड़ी देखकर गांधी की तस्वीर उभर आती है। गांधी के इस समृध्द व्यक्तित्व के चलते हर उस व्यक्ति को बड़ी सुविधा हो गई है जो अपने माथे पर गांधीवादी होने का लेबल चस्पा करना चाहता है। मसलन कोई भी व्यक्ति जो कभी-कभार कुष्ठ रोगियों के बीच जाकर थोड़ा समय बिता आता है अथवा वह जो हरिजन सेवक संघ जैसी संस्था का सदस्य बन जाता है, अपने आपको गांधी का सच्चा अनुयायी घोषित कर सकता है। यह अधिकार उस व्यक्ति को भी मिल जाता है जो जब-तब खादी पहन लेता है या अपनी बीमारी में प्राकृतिक चिकित्सा का सहारा लेता है या फिर उसे जो 2 अक्टूबर अथवा 30 जनवरी को अपने नगर की गांधी प्रतिमा के सामने बैठकर रामधुन गाता है। अगर हम राजनीतिक परिदृश्य पर नज़र दौड़ाएं तो वे तमाम लोग भी गांधीवादी हैं जो मानते हैं कि पंडित नेहरू नहीं बल्कि सरदार पटेल, गांधी जी के सच्चे उत्तराधिकारी थे। वे यह जानने की कोशिश नहीं करते कि आखिरकार गांधी ने क्या सोचकर नेहरू को अपना वारिस बनाया। 

 
ऐसे तमाम विचारों से गुजरते हुए सचमुच यह उलझन पैदा होती है कि इक्कीसवीं सदी में गांधी की प्रासंगिकता को कैसे निर्धारित किया जाए। मुझे लगता है कि गांधी के व्यक्तित्व के बहुत से आयामों को छोड़कर हमें उनके राजनीतिक दर्शन पर गौर करना चाहिए। कुछ भी हो, गांधी मुख्यत: एक विचारवान राजनेता थे और उस भूमिका में ही हमें अपने सवाल का संतोषजनक उत्तर मिल सकता है। एक राजनैतिक विचारक और कार्यकर्ता के रूप में गांधी ने हमें दो बुनियादी सिध्दांत दिए हैं- अहिंसा और सत्याग्रह। इन सिध्दांतों पर अमल करने के लिए उन्होंने कुछ औजार या पध्दतियां भी दीं जैसे- सविनय अवज्ञा, निडरता, सादा जीवन इत्यादि। उन्होंने इस पथ पर चलते हुए, अपनी गतिविधियों का परीक्षण करते हुए कुछ कसौटियां निर्धारित की जिनमें से दो का उल्लेख मैं यहां करना चाहूंगा। एक तो उन्होंने कहा कि इस धरती पर प्रत्येक व्यक्ति की जरूरत पूरी करने के लिए पर्याप्त साधन है किन्तु एक व्यक्ति के लालच के लिए सब कुछ अपर्याप्त है। दूसरे- उन्होंने कहा कि हमें हमेशा कतार के अंतिम छोर पर खड़े हुए व्यक्ति के बारे में सोचना चाहिए याने अंत्योदय। मेरा निवेदन है कि यदि हम इन दोनों मंत्रों को हृदयंगम करते हैं और उनके अनुसार काम करने के लिए तैयार हैं; यदि हम अपने डर पर विजय पा लेते हैं व निजी सुख-दुख की परवाह किए बिना बड़े उद्देश्यों के लिए लड़ने तैयार हैं और यदि अहिंसा और सत्याग्रह के प्रति हमारी निष्कंप प्रतिश्रुति है तो गांधी हमारे लिए हर समय प्रासंगिक हैं। 

 
मैं अपने विचारों को एक विशेष संदर्भ में स्पष्ट करना चाहता हूं। आज समूची दुनिया में आणविक शक्ति एक चुनौतीभरा और जटिल मुद्दा बन गया है। ऐसा कोई भी देश नहीं है जो आणविक क्षमता हासिल नहीं करना चाहता या है तो उसे बढ़ाना नहीं चाहता। इसके पीछे सामरिक उपयोग की भावना भी हो सकती है अथवा शांतिपूर्ण उपयोग का इरादा भी हो सकता है किन्तु आणविक ऊर्जा के जो खतरे हैं उसके बारे में हर देश खुलकर बात करने में कतराता है। अब मान लीजिए कि कोई देश सचमुच अहिंसा में विश्वास रखता है तो वह युध्द की बात तो नहीं ही करेगा बल्कि इसके विपरीत अपनी सुरक्षा के मुद्दों पर शांतिपूर्ण समाधान निकालने का हरसंभव यत्न करेगा। दूसरी तरफ कोई दूसरा देश जो गांधी के आदर्शों पर चलता है तो पहले तो वह देश ऊर्जा के विवेकपूर्ण खपत के बारे में सोचेगा उसके बाद सौर ऊर्जा, जैविक ऊर्जा जैसे उपायों पर विचार करेगा जिससे पर्यावरण को नुकसान न हो। इस दोनों प्रकरणों में राष्ट्रीय संसाधनों की बचत होगी, बहुत सारे अनचाहे खतरे टल जाएंगे और लोगों को जीने के लिए एक सुरक्षित और शांतिपूर्ण माहौल मिल सकेगा। 

 
एक अन्य दृश्य देखिए। हम एक ऐसे समय में जी रहे हैं जहां दुनियाभर में आंतरिक और बाह्य खतरे मंडरा रहे हैं। जहां तक बाह्य खतरों की बात है, देखना कठिन नहीं है कि साम्रायवाद एक नई ताकत के साथ वापिस लौट आया है। अमेरिका के विश्व पर वर्चस्व के सपने की कोई सीमा नहीं है। क्या उस नवसाम्रायवाद को गांधीवादी तरीके से रोका जा सकता है? पहली नज़र में असंभव लगता है, लेकिन फिर यह भी याद रखिए कि इराक, अमरीका के सैन्य बल का मुकाबला नहीं कर सका और उसकी संप्रभुता नष्ट हो गई। कुछ ऐसा ही हाल अफगानिस्तान का और लीबिया का भी हुआ। यही नहीं बहादुर फिलीस्तीनी पिछले साठ साल से तमाम तकलीफें झेलते हुए भी अपना वतन वापिस पाने के संघर्ष में जुटे हुए हैं, फिर भी वे इजराइल के निरंतर हमलों को रोकने में असमर्थ हो रहे हैं। मैं पूछता हूं कि क्या यह वक्त नहीं आ गया है कि जब हम कुछ नए उपायों पर, विकल्पों पर सोचें। क्या गांधी के विचार यहां हमारी मदद कर सकते हैं। सोचकर देखिए!

 
जहां तक आंतरिक संघर्षों का प्रश्न है इसकी मुख्य वजह सत्ताधारी वर्ग की हृदयहीनता और संवेदनहीनता है। जिन देशों में जनतांत्रिक व्यवस्था है वहां भी यही स्थिति है। आप सत्ताधारियों के चेहरों से टपकते हुए लालच को साफ-साफ देख सकते हैं। ऐसे में यदि समाज में अंत्योदय का विचार जीवित हो, यदि कतार के अंत में खड़े व्यक्ति का ध्यान हो तो यह स्थिति बदल सकती है। इसी तरह अनेक समाजों में हम नस्लभेद, रंगभेद व साम्प्रदायिकता को पनपता हुआ देखते हैं। ऐसे संघर्ष बहुधा इसलिए होते हैं कि एक वर्ग अपने रीति-रिवाज, परंपरा व विश्वासों पर गर्व करता है किन्तु अन्य के बारे में वह अज्ञान व पूर्वग्रह से प्रेरित होता है। याद दिलाने की जरूरत नहीं कि महात्मा गांधी ने दो समुदायों के बीच में गहरी खाई को पाटने की राह में ही अपने प्राणों की बलि दी।  समुद्र पार उनका अनुसरण मार्टिन लूथर किंग, अल्बर्ट लुथुली और नेल्सन मंडेला ने और हमारे पड़ोस में आंग-सांग सू ची जैसे महान लोगों ने किया। 

 
मैं जोर देकर कहना चाहूंगा कि जिस अहिंसा का पाठ हमें गांधी ने पढ़ाया वह साहस व वीरता का सर्वोच्च स्वरूप है। अहिंसा का अर्थ किसी गरीब की मदद करना या किसी पशु के प्रति दया दिखलाना या गौमाता की सेवा करना मात्र नहीं है जैसा कि बहुत से लोग समझते हैं। अहिंसा और सत्याग्रह गांधी दर्शन के मूल में हैं। इनका उपयोग उन्होंने सफलतापूर्वक राजनीतिक अस्त्र के रूप में किया और शायद वक्त आ गया है कि हम इनका उपयोग करने के बारे में नए सिरे से सोचें।

(इंदौर में ''गांधी : निशस्त्रीकरण और विकास'' पर 4, 5, 6 अक्टूबर 2013
को संपन्न अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन में प्रस्तुत वक्तव्य)

Wednesday 23 October 2013

एक हाथ से ताली नहीं बजती




एक
पुरानी कहावत है- ''एक हाथ से ताली नहीं बजती।'' आज देश के उद्योग जगत में जो माहौल बना है उसमें यह कहावत सटीक बैठती है। सीबीआई द्वारा उद्योगपति कुमार मंगलम बिड़ला के खिलाफ मुकदमा दर्ज करने के बाद चारों तरफ हाय-तौबा मच गई है। तरह-तरह की आशंकाएं प्रकट की जा रही हैं कि इसका संदेश गलत जाएगा, कि देश की आर्थिक प्रगति रुक जाएगी, कि पूंजी निवेशकों का भरोसा टूट जाएगा। श्री बिड़ला के पक्ष में स्वाभाविक ही उद्योग जगत एकजुट होकर खड़ा हो गया है। जनता को याद दिलाया जा रहा है कि बिड़ला घराने को देश की सेवा करते सौ साल से ज्यादा बीत गए हैं, कि कुमार मंगलम स्वयं उज्जवल चरित्र के धनी हैं, कि उनके ऊपर उंगली उठाना सरासर नाइंसाफी है। ये सारे तर्क अपनी जगह ठीक हो सकते हैं लेकिन इसका दूसरा पक्ष भी है।

हम मानते हैं कि यह सरकार की जिम्मेदारी है कि वह अन्य कामों के अलावा देश में उद्योग-व्यापार की प्रगति के लिए भी अनुकूल वातावरण मुहैया करवाए, जिसमें नियम-कायदे से चलने वाले उद्यमी निर्भय और निशंक होकर काम कर सकें। लेकिन यही बात राजनीति पर भी तो लागू होती है। यह देश में सभी वर्गों की जिम्मेदारी है कि एक ऐसी राजनीतिक व्यवस्था व वातावरण बने, जिसमें जिन्हें सरकार चलाने के लिए चुना गया है, वे भी निर्भयतापूर्वक देश की प्रगति के लिए आवश्यक कदम ले सकें। उन पर विश्वास किया जाए कि अगर निर्णय लेने में अनजाने में कोई भूल हो तो उसे अपराध न माना जाए। और जब तक कोई ठोस प्रमाण न हो राजनीतिक नेतृत्व को कटघरे में खड़ा न किया जाए। लेकिन आज तो हालत यह है कि कुछ न्यस्त स्वार्थों ने मिलकर राजनीति को काजल की कोठरी सिध्द करने में कोई कसर बाकी नहीं रखी है। 

हमें भारतीय जनता पार्टी का दु:ख समझ में आता है। जब अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में एनडीए की सरकार बनी तब भाजपा को लगा कि उसने दिल्ली फतह कर ली है और उसे कोई चुनौती देने वाला नहीं है। दुर्भाग्य से 2004 में भाजपा का सपना टूट गया। 2009 में उसे दुबारा झटका लगा। अडवानीजी सहित बहुत से नेताओं की प्रधानमंत्री बनने की चाहत अधूरी रह गई। संघ परिवार का भी भारत को हिन्दू राष्ट्र बनाने का सपना पूरा नहीं हो सका। भाजपा को विश्वास था कि 2009 में वह निश्चित रूप से सत्ता में वापिस लौटेगी, लेकिन जब यूपीए की लकीर एनडीए से लंबी खिंच गई तो भाजपा ने समझा कि अपनी लकीर बड़ी सिध्द करने का बेहतर उपाय यही है कि सामने वाले की लकीर किसी न किसी तरह छोटी कर दी जाए और इस तरह यूपीए नेतृत्व पर राजनीतिक ही नहीं, व्यक्तिगत आरोप लगाने का सिलसिला शुरू हो गया।

भाजपा कुछ भी हो देश की दूसरी सबसे बड़ी पार्टी है और उसके पास व्यूह रचने वालों की कमी नहीं है। इसलिए यूपीए-2 का एक साल बीतते न बीतते भाजपा ने एक नई रणनीति पर काम करना शुरू कर दिया। एक ओर जहां उन्होंने कांग्रेस व मनमोहन सरकार पर आरोप लगाना जारी रखा, वहीं दूसरी ओर देशी कारपोरेट घरानों व एनआरआई के साधनों से मदद लेकर नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में दिल्ली पर कब्जा करने की योजना पर काम शुरू कर दिया गया। भाजपा के पास यद्यपि राष्ट्रीय स्तर पर अनुभव प्राप्त वरिष्ठ नेताओं की कमी नहीं थी, लेकिन नरेन्द्र मोदी पर दांव इसलिए लगाया गया कि कारपोरेट घरानों का सहयोग उनके नाम पर ही सबसे यादा मिल सकता था। यह सब जानते हैं कि उद्योगपति या व्यापारी का पूरा ध्यान मुनाफा कमाने पर रहता है, उसे इसके अलावा और किसी बात से मतलब नहीं रहता। इसलिए वे देश के नेता के रूप में हमेशा ऐसे व्यक्ति को चाहते हैं जो नीति-अनीति की अधिक परवाह किए बिना फौरी निर्णय ले सके। 

इसके साथ एक अन्य घटना भी  हुई। देश के बहुत सारे टीवी चैनल और अखबारों में कारपोरेट घरानों ने बड़ी मात्रा में पूंजी निवेश किया और उनका नियंत्रण हासिल कर लिया। यहां ''करेला, वह भी नीम चढ़ा'' की कहावत चरितार्थ हो गई। कारपोरेट भारत को अपनी मुनाफे की मशीन चलाने के लिए भाजपा के रूप में एक बड़ा राजनीतिक दल मिल गया, नरेन्द्र मोदी के रूप में भावी नेता और मीडिया पर अपना मनचाहा प्रोपेगंडा करने की सुविधा भी उसने हासिल कर ली। यहां कहा जा सकता है कि कांग्रेस पार्टी इस रणनीति को यथासमय समझने में असफल रही। हम देख रहे हैं कि पिछले दो साल से भाजपा द्वारा और किसी हद तक उसके विश्वस्त प्रवक्ता के रूप में मीडिया द्वारा यूपीए-2 पर ताबड़तोड़ हमले किए जा रहे हैं। पहले राष्ट्रमंडल खेलों का मामला उठा, फिर 2 जी का, कोयला खदानों का तथा ऐसे ही और अन्य प्रकरण। इन सबका धुंआधार प्रचार कर जनता को यह विश्वास दिलाने की कोशिश की जा रही है कि यूपीए-2 से ज्यादा नाकारा सरकार आज तक कोई नहीं है। अंग्रेजी में जैसा कि कहा जाता है- 'एट द ड्राप ऑफ द हैट', इस अंदाज में सुबह-शाम प्रधानमंत्री से इस्तीफा मांगा जा रहा है। बीच में एक मौका तो ऐसा आया जब गुस्से में फनफनाए रतन टाटा ने भारत को 'बनाना रिपब्लिक' की उपमा दे डाली।

अगर एक पल के लिए मान लें कि भाजपा के आरोप व कारपोरेट भारत की चिंताएं वाजिब हैं तब दूसरे सवाल उठते हैं। अगर वर्तमान सत्ताधीशों ने कारपोरेट घरानों से कोई रियायत, कोई सुविधा देने के लिए रिश्वत ली, भ्रष्टाचार किया, अनियमितता की तो इसका अंतत: लाभ किसे होगा? कोयला खदानों के आबंटन का मामला हो अथवा 2-जी स्पैक्ट्रम का, इसमें आखिरकार फायदा तो टाटा, बिड़ला या अंबानी जैसों को ही होना है। क्या यह सरल सी सच्चाई किसी से छिपी हुई है? अभी उद्योग-जगत ने वोडाफोन पर किए गए करारोपण को लेकर कुशंका जाहिर की, लेकिन यह आज-कल की ही खबर है कि भारत में टवेरा गाड़ी बनाने वाली अमेरिका की बहुराष्ट्रीय कंपनी जनरल मोटर्स ने बड़े पैमाने पर हेराफेरी की। तो क्या इन सबका कहीं कोई दोष नहीं बनता?

किसी भी देश के विकास में उद्योगों का अपना महत्व है। उनके बिना आर्थिक तरक्की की कल्पना नहीं की जा सकती, लेकिन हर देश में कुछ नियम कानून भी होते हैं, जिनका पालन अनिवार्य रूप से करना होता है। अमेरिका में एनरॉन कंपनी ने कानून तोड़े तो कंपनी तो बंद हुई ही, उसके प्रवर्तकों को जेल भी जाना पड़ा। अमेरिका के अलावा अन्य पूंजीवादी देशों में भी कानून तोड़ने वाले उद्योगों के खिलाफ यथासमय कार्रवाई होती है, फिर भारत को ही इसका अपवाद क्यों बनाया जाए? हम तो समझते हैं कि फिक्की, एसोचेम, सीआईआई जैसे व्यापारिक संघों की यह जिम्मेदारी बनती है कि वे अपने सदस्य प्रतिष्ठानों को देश के कानूनों का पालन करने प्रेरित करें और वे अगर कानून तोड़ें तो उनकी सदस्यता खत्म कर दें। हम यह न भूलें कि सरकार जब नियम और नीतियां बनाती हैं तो बहुत कुछ तो उद्योग-जगत से पूछकर ही तय किया जाता है।

आज जब कारपोरेट भारत कुमार मंगलम बिड़ला पर संभावित कार्रवाई को लेकर इतना चिंतित है तब उसे यह भी याद रखना चाहिए कि अपने चैनलों और अखबारों के माध्यम से उसने कांग्रेस व यूपीए नेताओं पर राजनैतिक ही नहीं, व्यक्तिगत तौर पर भी कितने बेबुनियाद आरोप लगाए हैं और राजनेताओं की छवि धूमिल करने का उपक्रम किया है। प्रधानमंत्री ने तो बिड़ला प्रकरण में अपने ऊपर जिम्मेदारी ले ली है और एक तरह से श्री बिड़ला को आरोप से बरी कर दिया है। क्या कारपोरेट इंडिया में यह साहस है कि वह प्रधानमंत्री से कहे कि आपके ऊपर हमने जो निराधार आरोप लगाए वे हम वापिस लेते हैं?


देशबंधु में 24 अक्टूबर 2013 को प्रकाशित