Thursday 28 February 2013

भारत में आतंकवाद की जड़ कहां है?





सब कुछ अपनी रफ्तार से चलते रहता है, फिर कोई ऐसी घटना घट जाती है, जिससे पूरा देश दहल उठता है। कुछ दिन तक बड़ी-बड़ी बातें होती हैं और फिर जीवन अपनी पटरी पर लौट आता है। देश में आतंकवाद को लेकर कुल मिलाकर दृश्य कुछ इस तरह का है। न तो हम समस्या की गंभीरता को पहचान पा रहे हैं और न उसकी जड़ में जाने की कोई ईमानदार कोशिश ही नजर आती है। अभी पिछले हफ्ते हैदराबाद में बम विस्फोट हुए जिसमें सोलह लोग मारे गए। यह त्रासद वाकया क्यों हुआ, कैसे हुआ, किसने किया, इसके लिए सबके अपने-अपने जवाब हैं। अधिकतर लोग पाकिस्तान को और उसके साथ देश के भीतर मुसलमानों को दोषी ठहराने में एक पल भी जाया नहीं करते। पुलिस की अपनी सोच भी इसी तरह की है। आनन-फानन में कुछ अल्पसंख्यक युवाओं को गिरफ्तार कर अपराधियों को पकड़ने का दावा कर लिया जाता है। (और जैसा कि हैदराबाद में हुआ, एक मृत व्यक्ति को ही आतंकी बता दिया गया) 

काश कि बात इतनी सीधी सरल होती! मुझे हैरत इस पर है कि हाल के वर्षों में देश में आतंकवाद की समस्या को लेकर जो नए तथ्य सामने आए हैं उन पर गौर करने के बजाय पुरानी धारणाओं को ही दोहरा दिया जाता है। दुर्भाग्य की बात है कि अपने पूर्वाग्रहों के चलते पुलिस ने कितने ही निर्दोष अल्पसंख्यक नौजवानों को ऐसी आतंकी घटनाओं का आरोपी बनाकर उन्हें जेल में ठूंस दिया और उनके जीवन के कीमती वर्ष जेल में ही बीत गए। वे अतत: भले ही निर्दोष साबित हुए हों लेकिन ये गुजरे वर्ष उन्हें कौन लौटा सकता है?

इधर एक चिंताजनक प्रवृत्ति और पनप रही है कि निर्धारित कानूनी प्रक्रिया का पालन और उसकी प्रतीक्षा करने का धैर्य चुकते जा रहा है। देश में सौ-पचास लोगों का एक विचित्र समूह तैयार हो गया है, जिसके सदस्य छोटे पर्दे पर स्वयं को रक्षा विशेषज्ञ घोषित करते हुए ऐसी किसी भी घटना पर तुरंत फैसला करने बैठ जाते हैं। यह कतई आवश्यक नहीं है कि एक रिटायर्ड फौजी या एक रिटायर्ड पुलिस अफसर रक्षा विशेषज्ञ भी हो। ठीक वैसे ही जैसे कि कोई शिक्षक शिक्षाविद् हो या साहित्य का कोई अध्यापक अनिवार्य रूप से साहित्यकार हो। इन कथित रक्षा विशेषज्ञों की अपनी राजनीतिक पृष्ठभूमि और अपनी राजनीतिक अथवा आर्थिक स्वार्थ भी हैं जिनका खुलासा करने की ईमानदारी वे शायद ही कभी बरतते हों। शायद इसीलिए कुछ दिन पहले सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश अल्तमस कबीर ने देश में बढ़ रहे मीडिया ट्रायल की प्रवृत्ति पर चिंता जाहिर की है।

देश में आतंकवाद और आतंकी घटनाओं का विश्लेषण करने में पर्याप्त सावधानी और संतुलन बरतना आवश्यक है। एक बुनियादी तथ्य सदैव याद रखना जरूरी है कि पाकिस्तान का निर्माण भले ही धार्मिक आधार पर हुआ हो, लेकिन भारत अपनी स्वतंत्रता के पहले दिन से ही एक धर्मनिरपेक्ष देश रहा है और उस दिन भी ऐसे करोड़ों मुसलमान थे, जिन्होंने अपना वतन छोड़कर पाकिस्तान जाना स्वीकार नहीं किया था। इसके बाद इन पैंसठ सालों में ऐसे इक्के-दुक्के प्रसंग ही होंगे जिनमें किसी भारतीय मुसलमान पर देशद्रोह का आरोप सिध्द हुआ हो!

हम यह कैसे भूल सकते हैं कि अक्टूबर 1947 में पाकिस्तानी सेना के सहयोग से जब काश्मीर पर कबाईली हमला हुआ था तब इस देश के लिए अपनी जान देने वाला पहला व्यक्ति काश्मीर का ही एक मुस्लिम नौजवान था- बारामूला का शहीद मकबूल शेरवानी। भारत-पाक के बीच इस पहली लड़ाई में भारतीय सेना के एक जांबाज अफसर की भी शहादत हुई थी जिनका नाम ब्रिगेडियर उस्मानी था। इस तरह के कितने ही दृष्टांत हैं जो हमारे मध्यमवर्गीय समाज में पनप रहे पूर्वाग्रह को दूर करने के लिए जनता के सामने रखे और याद दिलाए जाना चाहिए।  तभी जाहिर होगा कि देश में ऐसी कुछ शक्तियां हैं जिन्हें भारत की धर्मनिरपेक्षता रास नहीं आती और वे सारे प्रकरणों और तर्कों को झुठलाते हुए किसी न किसी तरह पाकिस्तान की ही तर्ज पर भारत को एक धर्म-आधारित राय बना देना चाहती हैं।

यूं तो विश्व के अनेक देशों में इस्लाम, ईसाइयत, बौध्द और यहूदी धर्म को राजकीय मान्यता मिली हुई है, लेकिन इजराइल जैसे अपवाद को छोड़कर बाकी में व्यवहारिक जीवन में धर्मनिरपेक्षता के सिध्दांत का पालन किया जाता है। आज के समय में जब देशों के बीच परस्पर संपर्कों की सघनता और गति बढ़ रही है, तब राजकाज और व्यक्ति के धार्मिक विश्वास के बीच यह अंतर बनाए रखना ही सबके लिए श्रेयस्कर है। देखना कठिन नहीं है कि जिन देशों में ऐसा नहीं हो रहा है, वे फिरकापरस्ती व आंतरिक अशांति के चलते वांछित प्रगति हासिल नहीं कर पा रहे हैं।

पाकिस्तान का ही उदाहरण लें। जिस धार्मिक विश्वास पर इस नए राष्ट्र का गठन हुआ उससे क्या हासिल हुआ? राजनीतिक स्वायत्तता और भाषायी अस्मिता के नाम पर पाकिस्तान टूटा और बंगलादेश बनकर रहा। पाकिस्तान में न सिर्फ अल्पसंख्यक हिन्दुओं और ईसाइयों को प्रताड़नाएं झेलनी पड़ीं, इस्लाम के ही अन्य समुदायों यथा शिया, अहमदिया आदि पर भी लगातार हमले हो रहे हैं। जिस दिन हैदराबाद में बम विस्फोट हुआ, उसके एक-दो दिन पहले ही क्वेटा में शिया समुदाय के कोई सौ लोग ऐसे ही हमले में मारे गए। इस्लाम की ही विभिन्न शाखाओं के बीच यह झगड़ा अनेक अरब देशों में भी देखने मिल रहा है। जाहिर है कि ऐसी अशांति के चलते किसी भी देश का भला नहीं होना है।

बीसवीं सदी में साम्रायवादी शक्तियों की प्रेरणा से धार्मिक आधार पर दो देश बने- एक पाकिस्तान और दूसरा इजरायल। पाकिस्तान का हाल सबके सामने है। इजरायल की पीठ पर अमेरिका की कारपोरेट शक्तियों का हाथ है, इसलिए वह मनमानी करते जा रहा है। भारत ने लंबे समय तक इजराइल के साथ कूटनीतिक संबंध नहीं रखे, बल्कि पश्चिम एशिया में इजरायल देशों की दादागिरी का हमने विरोध ही किया और अरब देशों के साथ दोस्ताना संबंध कायम किए। इसका फायदा हमें अरब देशों से तेल की आपूर्ति और खाड़ी देशों में रोजगार के रूप में मिला। लेकिन हाल के वर्षों में हमने अपनी ही समयसिध्द नीति के प्रति बेरुखी अपना ली। इसका कोई असर हैदराबाद जैसी घटनाओं पर तो नहीं पड़ा, लेकिन यह स्वीकार करने में संकोच नहीं करना चाहिए कि बाबरी मस्जिद विध्वंस के कारण देश के भीतर मुसलमानों के मन में असुरक्षा का भाव पैदा हुआ है और पश्चिम एशिया में मित्र राष्ट्रों के बीच भी हमारी साख में कमी आई है। काश्मीर को लेकर भी अखण्ड भारत का सपना देखने वाली ताकतों ने जो उध्दत रुख लगातार अपनाया है उसके कारण काश्मीर घाटी में स्वयं को दोयम दर्जे का नागरिक माने जाने की पीड़ा व असुरक्षा का भाव पनपा है।  हमारे राजनीतिक दल तात्कालिक लाभ के लिए नीतियां बनाना और बयानबाजी बंद कर इन मसलों पर गंभीर मनन कर समन्वित नीति बनाने राजी हो जाएं, तभी भारत की आंतरिक सुरक्षा सौ फीसदी सुनिश्चित हो सकेगी। अन्यथा हवा में तीर चलाने से कुछ आना-जाना नहीं है।
 
देशबंधु में 2 फरवरी 2013  को प्रकाशित 

Wednesday 20 February 2013

रक्षा सौदों का सच




इन
 दिनों भारत में भ्रष्टाचार को लेकर खबरों और बहसों का एक अंतहीन सिलसिला चल रहा है। हमने मानो ठान ली है कि अपने देश को दुनिया का सबसे भ्रष्ट देश सिध्द करने के बाद ही दम लेंगे। संभवत: आशीष नंदी जैसा कोई परम विद्वान समाज मनोविज्ञानी ही इस प्रश्न का उत्तर दे सकता है कि हम इस तरह आत्मनिंदा और आत्मधिक्कार करने में कौन सा सुख पा रहे हैं! अपने इस शगल में हमें न तो सत्य का संधान करने का धीरज है, और न अपनी अभिव्यक्ति में वाणी और लेखनी का संयम। स्थिति यह है कि जिसकी जो मर्जी आए वैसी बात कर रहा है। और समाज है  कि कौआ कान ले उड़ा की तर्ज पर हर आरोप को साबित होने के पहले ही सच मानने लगता है। यह स्थिति किसी भी तरह से सुखद नहीं कही जा सकती। इसमें एक बड़ा खतरा भी सन्निहित है कि राज्य की सभी संस्थाएं यदि जनता का विश्वास खो बैठती हैं तो फिर देश में जंगल राज कायम होने में कितना वक्त लगेगा!

यह माहौल इसलिए भी चिंतनीय है कि राजनीतिक दल भी उनसे अपेक्षित मर्यादाओं का पालन करने के बजाय भीड़ की मनोवृत्ति के अनुरूप चल रहे हैं। ऐसा करते हुए वे भूल जाते हैं कि जो आज सत्ता में है वह कल विपक्ष में हो सकता है और जो आज विपक्ष में है कल वह सत्तासीन हो सकता है। राजनीतिक दलों से प्राथमिकत: उम्मीद की जाती है कि वे अपनी नीतियां और सिध्दांत लेकर जनता के बीच में जाएंगे, लेकिन फिलहाल जो मंजर दिखाई दे रहा है उसमें इस प्राथमिक दायित्व को मानो कूड़ेदान में डाल दिया गया है। भ्रष्टाचार के राग अलापने के अलावा और कोई मुद्दा जैसे बात करने के लिए बचा ही नहीं है। इस नए माहौल में एक अन्य प्रकट सच्चाई की ओर जनता का ध्यान ठीक से नहीं जा रहा है। भ्रष्टाचार को दस क्या, सौ सिर वाला रावण बनाकर पेश कर दिया गया है और उससे लड़ने के नाम पर राम के नए-नए अवतार भी हर-दूसरे चौथे दिन प्रकट हो रहे हैं, लेकिन क्या किसी ने पलभर के लिए सोचा कि अंतत: इनका क्या हश्र होता है। सब देख रहे हैं कि अन्ना हजारे हों या बाबा रामदेव, किरण बेदी हो या अरविन्द केजरीवाल- एक के बाद एक सब दीवाली के पटाखों की तरह थोड़ी देर के लिए चमक पैदाकर बुझ जा रहे हैं; फिर भी यह जानने की ईमानदार कोशिश कहीं भी दिखाई नहीं देती कि ऐसे तमाम लोगों ने पृथक या संयुक्त रूप से जो भी आन्दोलन चलाए उनका असली मकसद क्या था।

अभी फिर इटली की सरकारी कंपनी फिनमैकानिका से हेलीकाप्टर खरीदने को लेकर भ्रष्टाचार की एक नई कहानी सामने आई है। फर्क सिर्फ इतना है कि भ्रष्टाचार के इस कथित प्रकरण का रहस्योद्धाटन और उस पर कानूनी कार्रवाई इटली में शुरु हुई न कि भारत में। अब उसे लेकर अपने देश में चर्चाओं का बाजार गर्म हो गया है और तरह-तरह की बातें कही जा रही हैं। भारतीय जनता पार्टी ने कांग्रेस पर उंगली उठाने में जरा भी वक्त नहीं गंवाया और लगे हाथ कांग्रेस अध्यक्ष की ओर भी संदेह की सुई घुमा दी।  दूसरी ओर कांग्रेस ने वाजपेयी सरकार को कटघरे में लाकर खड़ा कर दिया है कि अगर कहीं कोई गड़बड़ी हुई भी है तो वह एनडीए के कार्यकाल में हुई थी। यूपीए सरकार ने अपनी ओर से त्वरित कार्रवाई करते हुए सौदे पर जांच चलने तक रोक लगा दी है और सीबीआई को जांच भी सौंप दी है।

यह निश्चित है कि आरोप-प्रत्यारोप का यह सिलसिला जल्दी नहीं रुकेगा और आने वाले दिनों में इस प्रकरण को लेकर हमें नई-नई कहानियां सुनने को मिलेंगी। आम जनता को उन किस्सों को पढ़ने में चाहे जितना रस मिले और चर्चा करने के लिए चाहे जितना मसाला, लेकिन एक बार फिर कोई नहीं पूछेगा कि इसमें सच क्या है और झूठ क्या है, और न इस बुनियादी मुद्दे की ओर किसी का ध्यान जाएगा कि अपुष्ट और अप्रामाणिक चर्चाओं के कारण देश के प्रशासनतंत्र में किस तरह से अनचाही शिथिलता और गिरावट घर कर सकती है, और न इस बात पर कि इस तरह से निर्दोष व्यक्तियों का भी चरित्र हनन और जीवन नष्ट हो सकता है।

इस बात को हमें समझना चाहिए कि सैन्य उपकरणों की खरीदारी एक समयसाध्य, व्ययसाध्य एवं अत्यंत जटिल प्रक्रिया है। इसमें अरबों-खरबों के सौदे होते हैं और एक-एक सौदा पूरा करने में दस-दस साल लग जाते हैं। इसका मतलब है कि सैन्य साजो-सामान की खरीद-फरोख्त अथवा उत्पादन के लिए एक दीर्घकालीन प्रक्रिया अपनाने की जरूरत होती है। उसमें अगर बीच में कोई बाधा आ जाए तो जो समय और साधन लगे वे तो गए ही गए; नए सिरे से फिर उतना समय व साधन लगाने की जरूरत होती है। दूसरे शब्दों में देश अपनी प्रतिरक्षा की तैयारियों में पांच-दस साल पीछे ढकेल दिया जाता है। ऐसा होने देने में किसकी रुचि हो सकती है यह सवाल उठाना लाजिमी है। एक तो हमारे दुश्मन कभी नहीं चाहेंगे कि भारत की प्रतिरक्षा अभेद्य हो, दूसरे इसमें उन लोगों की भी रुचि हो सकती है, जो भारत को अपना मुवक्किल राय बनाना चाहते हैं।

इस बारे में यह भी याद कर लेना ठीक होगा कि रक्षा सौदों में कमीशन दिए जाने का चलन दुनिया के हर देश में है। इसकी वैधता या अवैधता, नैतिकता या अनैतिकता की चर्चा करने का अधिकारी वही हो सकता है, जो प्रतिरक्षा मामलों की जटिलताओं को बखूबी जानता हो। हम इतना कह सकते हैं कि अगर अरबों-खरबों के इन सौदों में राजनीतिक दलों अथवा व्यक्तियों को चंदा दिया जा रहा है तो वह विश्व के हर देश की राजनीतिक प्रणाली का एक अनिवार्य अंग है तथा भारत भी उससे अलग नहीं है। राजतंत्र अथवा सैन्यतंत्र में ऐसा चंदा या घूस सीधे एक व्यक्ति के खाते में जमा होती है, लेकिन लोकतंत्र में इस तरह से लिया गया पैसा चुनाव लड़ने के समय काम आता है। गठबंधन की राजनीति को चलाने में इसकी जरूरत कुछ ज्यादा ही पड़ती है! यह अटल सत्य है कि कोई भी राजनीतिक दल इससे मुक्त नहीं है। 

यह भी समझना आवश्यक है कि रक्षा सौदों में भ्रष्टाचार के मामले कब, क्यों और कैसे उजागर होते हैं। इतना तो तय है कि न तो रिश्वत देने वाला इस बारे में अपनी जबान खोलेगा और न लेने वाला। अपवाद स्वरूप कोई एकाध व्यक्ति ऐसा हो सकता है, जिसे इस तरह का लेनदेन नागवार गुजरता है, लेकिन जिस ऊंचे स्तर पर यह प्रक्रिया चलती है वहां बैठे हुए साधु प्रवृत्ति के लोग भी यह जानते ही हैं कि चुप रहने में समझदारी है। तब फिर कौन है जो इन सौदों को उजागर करता है? जाहिर है कि सैन्य सामग्री बनाने वाली जिन कम्पनियों के टेंडर अस्वीकार हो जाते हैं, जिनका भारी मुनाफा कमाने का अवसर हाथ से निकल जाता है, वे ही जमीन-आसमान एक कर सबूत जुटाती हैं और फिर सुर्खियों के लिए बेताब मीडिया को यह सामग्री परोस देती हैं। याने सवाल इस बात का नहीं है कि भ्रष्टाचार हुआ या नहीं, बल्कि इस बात का है कि एक कंपनी को मौका मिल गया और दूसरी को नहीं। यह एक आदर्श स्थिति तो नहीं है लेकिन एक व्यवहारिक सच्चाई है एवं इसे वस्तुगत रूप से समझने की आवश्यकता है

देशबंधु में 21 फरवरी 2013 को प्रकाशित 

Thursday 14 February 2013

अफजल गुरु को फांसी के निहितार्थ






13
 दिसम्बर 2001 को भारत की संसद पर आतंकवादी हमला हुआ। यह देश की सार्वभौमिकता और संविधान को चुनौती देने वाला  एक कल्पनातीत दुस्साहस और भीषणतम अपराध था। जिन्होंने यह साजिश रची और अपराध को अंजाम दिया उन्हें कठोरतम सजा मिलना ही चाहिए थी। अदालती कार्रवाई के हर चरण पर इस अपराध की गंभीरता का संज्ञान लिया गया और उसी के अनुसार फैसला भी सुनाया गया। राष्ट्रपति द्वारा अफजल गुरु की प्राणदान की याचिका को खारिज करना न्यायिक प्रक्रिया का अंतिम बिन्दु था। जो सुरक्षाकर्मी इस आतंकी हमले के दौरान शहीद हुए उनके परिजन अफजल गुरु को फांसी दिए जाने से इसलिए संतुष्ट हैं कि उनके पिता या पति की शहादत का सम्मान हुआ है। हमले में तीन आतंकियों को मार गिराने वाले सुरक्षाकर्मी संतोष कुमार का मानना है कि इससे सुरक्षा बलों का मनोबल कायम रहेगा।

देश में अधिकतर लोगों ने फांसी दिए जाने पर स्वागत किया है। काश्मीर घाटी में अभी (कॉलम लिखे जाने तक) कर्फ्यू और सेंसर लागू है इसलिए वहां जनसामान्य में जो प्रतिक्रिया हुई है वह सामने नहीं आई है, लेकिन देश के बाकी हिस्सों में सामान्य तौर पर संतोष ही प्रकट किया गया है।  नोट करने लायक है कि आम जनता ने फांसी दिए जाने को इस निर्विकार भाव से ही लिया है कि अंतत: पटाक्षेप हो गया। जो शक्तियां राजनीतिक लाभ उठाने की दृष्टि से फांसी देने की मांग चिल्ला-चिल्लाकर कर रही थीं उन्हें जनता की संयत प्रक्रिया से शायद कुछ निराशा ही हुई हो। एक अल्पमत उनका है जो मानते हैं कि अफजल गुरु के प्रकरण में न्याय प्रक्रिया के पालन में कमी थी और उसे सुनवाई का एक अंतिम मौका और मिलना चाहिए था।

उल्लेखनीय है कि राजीव गांधी हत्या प्रकरण में जिन तीन लोगों को फांसी की सजा सुनाई गई वे राष्ट्रपति से याचिका खारिज होने के बाद फिर अदालत में गए और मद्रास उच्च न्यायालय ने इस तर्क के आधार पर उनकी फांसी पर रोक लगा दी कि फांसी सुनाए जाने के इतने लंबे अरसे बाद याचिका खारिज करना न्यायोचित नहीं था। जब यह तर्क 1991 के आरोपियों के लिए लागू हो सकता है तो 2001 के आरोपी को भी अपने प्राण बचाने के लिए यह अवसर दिया जाना संभवत: न्यायोचित ही होता! इस बारे में दूसरा तर्क यह भी दिया गया कि पंजाब के मुख्यमंत्री बेअंत सिंह की हत्या के आरोपी सिख आतंकवादियों की प्राणदान याचिका पर अब तक विचार क्यों नहीं किया गया।

अफजल गुरु को फांसी देने पर इस तरह कुछेक न्यायविदों ने अपनी असहमति न्याय संहिता से दृष्टांत देते हुए व्यक्त की। इनके अलावा एक खासी संख्या में उन व्यक्तियों की भी है जो सैध्दांतिक आधार पर एक लंबे समय से मृत्युदंड का प्रावधान ही खत्म करने की मुहिम चलाए हुए हैं। विश्व के अनेक देशों में सजा-ए-मौत को कानून की किताब से हटा दिया गया है। यह उम्मीद की जाती थी कि भारत भी जल्द ऐसा करेगा, लेकिन फिलहाल भारत ने इस उम्मीद पर पानी फेर दिया है। तीन-चार महीने के अंतराल में दो फांसियां दी जा चुकी हैं और इसी तरह के भीषण अपराधों के अनेक दोषी काल-कोठरी में अपनी बारी आने का इंतजार कर रहे हैं। राजीव गांधी हत्याकांड के अपराधी हों या पंजाब के भुल्लर या रजौना। इनकी जिंदगी बचने की अब कोई उम्मीद नहीं लगती याने आने वाले दिनों में देश को कुछ और लोगों को फांसी पर लटकाए जाने की घटनाओं से रूबरू  होना पड़ सकता है। भारतीय समाज पर इसका क्या मनोवैज्ञानिक असर पड़ेगा एवं विश्व समाज में भारत की क्या छवि बनेगी, यह कल्पना करने से ही डर लगता है।

यह तथ्य ध्यान में रखना जरूरी है कि फांसी की सजा को आजन्म कारावास में बदल देने का अर्थ यह नहीं होता कि कैदी चौदह साल या बीस साल बाद जेल से छोड़ दिया जाएगा। इसके विपरीत उसे आखिरी सांस तक एक-एक पल काल कोठरी में बिताना होगा याने उसने जो जघन्य अपराध किया है उसका अहसास उसे पल-पल होते रहेगा। दूसरे न्याय प्रणाली में यह छोटी सी गुंजाइश हमेशा बनी रहती है कि किसी को गलत तरीके से सजा दे दी गई हो। अगर मृत्युदंड का अपराधी आगे चलकर कभी निर्दोष साबित हुआ तो उसके प्राण कैसे लौटाए जाएंगे? इसीलिए पिछले साल जुलाई में 14 सेवानिवृत्त जजों ने उदाहरण देते हुए अपील जारी की थी कि मृत्युदंड क्यों समाप्त कर देना चाहिए। इस अपील की अनदेखी कर दी गई। हमारा समाज आज भी मृत्युदंड समाप्त करने के पक्ष में नजर नहीं आता; फिर भी चूंकि मनुष्य जीवन से बहुमूल्य दुनिया में कुछ भी नहीं है इसलिए इस बारे में समाज को आज नहीं तो कल गंभीरतापूर्वक विचार करना ही पड़ेगा।

अफजल गुरु को फांसी देने के राजनीतिक निहितार्थ खोजे जा रहे हैं। कोई यह कह रहा है कि बजट सत्र ठीक से चल जाए इसलिए यह किया गया, तो कोई भाजपा की हवा निकलने की बात कह रहा है, तो तीसरा कोई इसे सुशील कुमार शिन्दे की छवि सुधारने के रूप में देख रहा है। कुछेक ने तो भविष्यवाणी ही कर दी कि कांग्रेस समय पूर्व लोकसभा चुनाव करवाने जा रही है। राजनीति के गलियारों में ऐसी सच्ची-झूठी बातें उड़ाना कोई नई बात नहीं है, लेकिन यदि मान भी लें कि कांग्रेस ने राजनीतिक लाभ उठाने की दृष्टि से फांसी देने के लिए यह वक्त चुना तो व्यवहारिक राजनीति के धरातल पर इसमें गलत क्या है? आखिरकार भाजपा उठते-बैठते अफजल गुरु को फांसी देने की मांग कांग्रेस को असुविधा में डालने और खुद को देशभक्त सिध्द करने के लिए ही न कर रही थी! इसीलिए तो नेशनल कांफ्रेंस के सांसद महबूब बेग ने सीधे-सीधे सवाल उठाया कि भाजपा ने पंजाब व तमिलनाडु के आतंकी हत्यारों को फांसी देने की मांग क्यों नहीं उठाई। प्रश्न यह भी उठता है कि भाजपा अकाली दल के साथ गठबंधन से बाहर क्यों नहीं आ जाती। जाहिर है कि तत्काल लाभ लेने में भाजपा कांग्रेस से आगे ही है।

देश में आम चुनाव समय पूर्व होंगे या समय पर कांग्रेस को इसका क्या लाभ मिलेगा  इत्यादि प्रश्नों का उत्तर तो समय आने पर मिल जाएगा, लेकिन भाजपा और हिन्दुत्व के ठेकेदारों को खासकर इस बारे में गंभीरतापूर्वक आत्मचिंतन करने की जरूरत है कि शेख अब्दुल्ला के नेतृत्व में महाराजा हरिसिंह की इच्छा के विपरीत काश्मीर की जिस जनता ने भारत में विलय स्वीकार किया था आज वही काश्मीर भारत से इतना दूर क्यों चला गया है? प्रजा परिषद के जमाने से चली आ रही साम्प्रदायिक राजनीति क्या इसके लिए जिम्मेदार नहीं है? अगर आप समझते हैं कि काश्मीर भारत का अभिन्न अंग है तो वहां की जनता के साथ धर्म के आधार पर बना दोयम दर्जे का बर्ताव करना कहां तक उचित है और यदि आपको उन पर भरोसा नहीं है तो सैन्य बल से आप उनको कब तक दबाकर रख पाएंगे? क्या आप इस कड़वे सच को सुनने के लिए तैयार हैं?

देशबंधु में 14 फरवरी 2013 को प्रकाशित 

Thursday 7 February 2013

वेलेंटाइन डे के लिए कुछ विचार





आज
 जब यह कॉलम छपेगा तब वेलेंटाइन डे लिए ठीक एक सप्ताह बाकी बचेगा। यह रोचक संयोग है कि  इस वर्ष वेलेंटाइन डे  और बसंत पंचमी दोनो पर्व एक साथ पड़ रहे हैं। जो ''भारत कुमार'' मानते हैं कि पूरब और पश्चिम का कभी मेल नहीं हो सकता, उन्हें कुछ तकलीफ हो सकती है कि बसंत पंचमी को इसी दिन क्यों पड़ना था? वैसे उनके लिए तसल्ली की बात यह हो सकती है कि इस दिन बहुत से नौजवान या तो किसी बारात की  तैयारी कर रहे होंगे या फिर किसी बारात की अगवानी के इंतजाम में व्यस्त होंगे। याने ऐसे बहुत से युवा जिन्हें वेलेन्टाइन डे प्रिय है, कम से कम इस साल वे तो इस आयातित पर्व से बचे रहेंगे। 
 
वेलेन्टाइन डे की उत्पत्ति क्यों और कैसे हुई, इस दिन मित्रों या सखियों को गुलाब का फूल भेंट करने का तरीका किसने ईजाद किया, यह दिन भारतीय संस्कारों के अनूकूल है या प्रतिकूल- ऐसे तमाम सवाल खडे क़रने वाले अनेक लोग हैं, लेकिन जिन्हें यह पर्व मनाना है, वे इन सवालों की परवाह नहीं करते। सच तो यह है कि इस दिन का भारतीयकरण प्रारंभ हो चुका है। इस मामले में भारतवासियों का कोई मुकाबला नहीं हैं। मदर्स डे, फादर्स डे इत्यादि कितने ही पश्चिमी पर्व हमारे देश में मनाए जाने लगे हैं और वही इस दिन के साथ भी हो रहा है। हिन्दी अखबारों में वेलेन्टाइन डे पर जो संदेश छपते हैं जरूरी नहीं कि वे किसी प्रेमी या प्रेमिका को ही संबोधित हों, बल्कि उनमें माता-पिता, भाई-बहन, शिक्षक, मित्र, पति-पत्नी सब आ जाते हैं। यह एक  सच्चाई हैं, जिसे जानकर धर्म के रक्षकों को संतोष हासिल करना चाहिए।  वे यदि ऐसा नहीं करते हैं तो उनके जड़बुध्दि होने में कोई संदेह बाकी नहीं रहता।

भारत में अंग्रेजीदां बुध्दिजीवियों का एक अच्छा खासा वर्ग है जो वेलेन्टाइन डे के बारे में उठाई गई आपत्तियों को अपनी तरह से खारिज करने की कोशिश करता है। इस वर्ग के प्रवक्ता भारत के क्लासिक साहित्य, चित्रकला, मंदिर-शिल्प आदि से उदाहारण खोज कर लाते हैं और सिध्द करने का प्रयत्न करते हैं कि प्रेम का यह पर्व भारतीय परंपरा के विरुध्द नहीं है। वे नाहक अपने दिमाग को तकलीफ देते हैं। प्रेम किसी भी रूप में हो समयसिध्द है एवं उसके लिए बौध्दिक बहसों की इतनी जरूरत नहीं पड़ना चाहिए, किन्तु हमारे मन में यहां एक शंका उपजती है। यूं तो  मनुष्य की जीवनचर्या में  बाजार का स्थान आरंभ  से ही रहा है, लेकिन इधर सौ साल में यह दखल कुछ ज्यादा ही बढ़ गया है। इसलिए लगता है कि वेलेन्टाइन डे को स्थापित करने के तर्कों  के पीछे कहीं न कहीं बाजार की शक्तियां काम कर रही हैं!

यह कोई नई बात नहीं है। क्रिसमस पर सांताक्लाज का रोल भी कोकाकोला कंपनी की ईजाद है। इसी तरह हम जिन त्यौहारों को भारतीय परंपरा का अंग मानते हैं उनमें भी बाजार का कुछ न कुछ हस्तक्षेप रहा ही है। हमारे प्रमुख त्योहारों का सीधा संबंध फसल कट कर बिकने के बाद किसानों के हाथ में आई रकम से है। बाजार ताकते रहता है कि इधर घर में पैसा आए और उधर वह धावा बोले। दीपावली इसका सबसे बड़ा उदाहारण है। यहीं नहीं, जितने तीर्थ हैं वे भी बाजार के भरोसे चलते हैं और ऐसा कौन सा मेला है जिसमें दुकानें न सजती हों! प्रेमचंद की कहानी ईदगाह याद कीजिए। जिन बच्चों के पास पैसे हैं वे मेले में मनचाहे खिलौने खरीद रहे हैं और उनके सामने गरीब दादी की आंख का तारा हमीद है जो हाथ में महज तीन पैसे लिए हमजोलियों की खरीदारी को हसरत भरी निगाह से देखता रहता है। 

यह भी देखिए कि त्यौहार मनाने में बाजार ने ग्रीटिंग्स कार्ड के माध्यम से क्या भूमिका निभाई है। दीवाली और नववर्ष पर तो ग्रीटिंग्स कार्ड भेजने का चलन लंबे समय से चला आ रहा है। इसके अलावा और भी बहुत से अवसर हैं जैसे जन्मदिन, विवाह की वर्षगांठ आदि जब ये शुभकामना पत्र भेजे जाते हैं। इसमें आर्ची और हॉलमार्क जैसे कार्ड निर्माताओं की भूमिका प्रेरक की रही है। वेलेन्टाइन डे को लोकप्रिय बनाने का प्रथम श्रेय भी इन्हीं को दिया जाना चाहिए, लेकिन समय बदला तो कार्डों का चलन कम हो गया  उनकी जगह एसएमएस ने ले ली। इससे डाकघर को भले ही नुकसान हुआ हो, मोबाइल फोन कंपनियों की तो चांदी हो गई। जो एसएमएस पर शुभकामनाएं भेजते हैं वे भले ही इससे आनंदित होते हैं, लेकिन इन संदेशों को पढ़ना और उनका उत्तर देना खासी मशक्कत का काम हो जाता है। 

इस तरह देखें तो वेलेन्टाइन डे मनाना न तो कोई अनहोनी है और न अवांछित। अगर युवा जगत अपने मनोभावों को व्यक्त करने के लिए उन्मुक्ति के कुछ क्षण पा लेते हैं तो इसमें इतनी हाय तौबा मचाने की कोई जरूरत नहीं होना चाहिए थी। लेकिन मुश्किल यह है कि भारतीय समाज न तो पुरानी रूढ़ियों को पूरी तरह तोड़ पा रहा है और न जमाने के साथ कदम मिलाकर चलने के लिए पूरी तरह साहस जुटा पा रहा है। इसे यूं भी कहा जा सक ता है कि हमारा समाज विगलित सामंती मानसिकता से प्राप्त विशेषाधिकारों का त्याग किए बिना पूंजीवादी औद्योगिक व्यवस्था के सारे लाभ हथिया लेना चाहता है याने दोनों हाथ चाशनी में और सिर कढ़ाही में। यहां समाज से हमारा आशय उस प्रभुत्वशाली वर्ग से है, जो समाज के बाकी अंगों को लंबे समय से दबाकर रखते आया है। इसकी मानसिकता लगभग निरपवाद ही पुरुषवादी है और इसके सदस्य वही हैं जो हर तरह से अधिकार सम्पन्न हैं।

वेलेन्टाइन डे का विरोध, नववर्ष का विरोध; इसके बरक्स सड़ी-गली मान्यताओं को पुनर्जीवित करने के उपक्रम- ये सभी काम स्वस्फूर्त नहीं, बल्कि किसी सोची-समझी योजना के अंतर्गत होते हैं। इन्हें डर लगता है कि जनतांत्रिक, समतापूर्ण, खुले वातावरण में इनकी दादागिरी समाप्त हो जाएगी। इसी भय से संचालित होकर ये अपनी योजनाएं गढ़ते हैं। इस मानसिकता को मजबूत करने में धर्म का पाखंड काफी काम आता है। ये जो नए-नए अवतारी पुरुष एक के बाद एक प्रकट हो रहे हैं वे इस योजना की ही उपज हैं। इनके प्रवचन पहली बार में तो लुभाते हैं, लेकिन तह में एकाध इंच भी भीतर जाएं तो पता चलता है कि ये वर्चस्ववाद को ही पुख्ता करने का काम कर रहे हैं। इसीलिए आसाराम बापू जैसे लोग सामने आते हैं जो अपने एक बयान से मचे बवाल के बाद भी अपनी भाषा पर संयम नहीं रख पाते और कुछ ही दिन बाद जबलपुर में अपने दूसरे प्रवचन में सवाल उठाने वाली युवतियों को 'मनचली' की संज्ञा दे देते हैं। ऐसे ही उद्गार अन्य कथित साधु-संतों से सुनने मिलते हैं।

राजसत्ता व संगठित धर्म का यह जो गठजोड़ है वह जानता है कि सिर्फ प्रचवनों से बात नहीं बनती इसलिए वह लुम्पेन युवाओं के दस्ते तैयार करता है और उन्हें सड़कों पर निकलकर उत्पात मचाने के लिए छोड़ देता है। यह आज के भारत की एक बड़ी विडम्बना है कि जिनका अपना आचरण अनैतिक है वे ही पोंगापंथी नैतिकता का पालन करवाने के लिए बाहुबल  का प्रयोग करने में भी नहीं हिचकते।  लेकिन जैसा कि हम समझते हैं देश की युवा पीढ़ी इस पाखंड को खूब समझती है और जरूरत पड़ने पर वही इसका माकूल उत्तर देगी।

देशबंधु में 7 फरवरी 2013 को प्रकाशित