Thursday 24 September 2020

देशबन्धु: चौथा खंभा बनने से इंकार-16



पाठकों को स्मरण होगा कि मध्यप्रदेश में 1985 के विधानसभा चुनाव संपन्न होते साथ ही मुख्यमंत्री अर्जुनसिंह को पंजाब का राज्यपाल बनाकर चंडीगढ़ भेज दिया गया था। यह अचानक उठाया गया कदम उतना ही कल्पना से परे भी था। अर्जुनसिंह के नेतृत्व में पहली बार कांग्रेस ने लगातार दूसरी जीत हासिल कर इतिहास रच दिया था। इसके पहले लोकसभा चुनाव में भी प्रदेश की चालीस में से चालीस सीटें कांग्रेस की झोली में आईं थीं। इस शानदार दोहरी सफलता के बावजूद अर्जुनसिंह को प्रदेश से हटाने का क्या कारण था? वैसे तो उन्हें एक संवेदनशील राज्य के सर्वोच्च संवैधानिक पद पर भेजा जाना जाहिरा तौर पर पदोन्नति थी, लेकिन हकीकत में उन्हें ''किक अप'' किया गया था। दूसरे शब्दों में मध्यप्रदेश में उनकी उपस्थिति एकाएक असुविधाजनक लगने लगी थी तथा उन्हें सम्मानपूर्वक विदा करने का रास्ता खोजा जा रहा था एवं उसमें बहुत अधिक वक्त नहीं लगा, बल्कि एक तरह से उतावलापन देखने मिला। इस घटनाचक्र का विश्लेषण करते हुए अनेक संभावित कारण सामने आने लगते हैं।

मेरी समझ में सबसे पहला कारण था किसी भी साथी-सहयोगी को एक सीमा से आगे न बढ़ने देने की इंदिरा गांधी के समय से चली आ रही नीति। राजीव गांधी ने इस आत्मघाती नीति को जारी रखा, और इस प्रकरण में तो शुरुआत ही थी। दूसरा कारण स्वयं अर्जुनसिंह की असावधानी या आत्मविश्वास का अतिरेक था। क्या वे नहीं जान रहे थे कि तब भी उनके विरोधी कम नहीं थे, बल्कि उन्हें कहीं और से प्रश्रय भी मिल रहा था? शायद तीसरा कारण भोपाल गैस त्रासदी का दोष उनपर मढ़ते हुए उन्हें हाशिए पर डालना था। इन सब कारणों के पीछे और सबसे बड़ा कारण दिल्ली में राजीव गांधी के प्रथम विश्वस्त और देश के गृहमंत्री के रूप में पी वी नरसिंह राव की उपस्थिति थी। केंद्रीय गृहमंत्री होने के नाते दिल्ली पुलिस उनके मातहत थी। क्या सिखों का नरसंहार होने के लिए वे प्रथमत: अपराधी नहीं थे? फिर भी सारा दोषारोपण राजीव पर मढ़ दिया जाता है। यूनियन कार्बाइड के वारेन एंडरसन को भी क्या उनकी सहमति-अनुमति के बिना भारत आने और सुरक्षित लौटने की गारंटी मिल सकती थी? जबकि इसका ठीकरा आज भी अर्जुनसिंह के माथे फोड़ा जाता है। इसी संदर्भ में मेरा अंतिम तर्क है कि श्री राव प्रधानमंत्री न बन पाने से क्षुब्ध और मर्माहत होकर राजीव गांधी को ही कमजोर करने में लगे थे। दूसरी ओर, मध्यप्रदेश में सिंह विरोधियों का साथ देकर वे अपने कॉलेज जीवन में पं. रविशंकर शुक्ल द्वारा किए उपकार से भी शायद उऋण होना चाहते थे!

अर्जुनसिंह के समक्ष उस समय संभवत: पंजाब जाने के अलावा अन्य कोई विकल्प नहीं था। तीन-चौथाई बहुमत वाले प्रधानमंत्री को मना करते भी तो कैसे? उस स्थिति में महज एक विधायक बन कर रह जाने की आशंका थी। जबकि राज्यपाल पद को एक ओर पदोन्नति और दूसरी ओर प्रधानमंत्री द्वारा खास तौर पर एक चुनौती सौंपे जाने का गौरव प्रचारित करने का वाजिब अवसर था।बहरहाल, श्री सिंह ने उत्तराधिकारी के रूप में अपने विश्वासपात्र प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष मोतीलाल वोरा का नाम आगे बढ़ाया, और उन्हें पदभार सौंप चंडीगढ़ के लिए रवाना हो गए। यह चयन आगे चलकर स्वयं उनके लिए कितना कष्टकारी हुआ, उसकी चर्चा बाद में होगी। अर्जुनसिंह ने बतौर राज्यपाल बमुश्किल तमाम छह माह पंजाब में बिताए, लेकिन इस अवधि में उन्होंने सिद्ध कर दिया कि प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने उन्हें एक भारी चुनौती भरा दायित्व देकर गलती नहीं की थी। उन्होंने वहां दिन-रात मेहनत की। समाज के विभिन्न वर्गों से प्रत्यक्ष व परोक्ष संबंध स्थापित किए। उनका सहयोग हासिल किया और अंतत: राजीव गांधी- संत लोंगोवाल के बीच पंजाब समझौता करवाने जैसे लगभग असंभव काम को अंजाम देने में सफल हुए। इस चमत्कारी उपलब्धि के बाद चंडीगढ़ में उनकी उपस्थिति अब आवश्यक नहीं थी। वे राजनीति की मुख्यधारा यानी मेनस्ट्रीम में लौटने के लिए शायद बेताब भी हो रहे थे।

दिक्कत यह थी कि मध्यप्रदेश का मुख्यमंत्री पद खाली नहीं था, बल्कि वे लौट कर न आ जाएं, इस पर योजनाबद्ध तरीके से काम चल रहा था। ऐसे में यह राजीव गांधी की ही नैतिक जिम्मेदारी बनती थी कि अर्जुनसिंह की योग्यता का सम्मान करते हुए उन्हें कोई महत्वपूर्ण भूमिका सौंपी जाए। इसमें उन्होंने देर नहीं की। श्री सिंह को राजीव की कैबिनेट में बतौर दूरसंचार मंत्री स्थान मिला तथा कुछ ही दिनों बाद दक्षिण दिल्ली क्षेत्र से उपचुनाव जीतकर बाकायदा लोकसभा में भी पहुंच गए। यह सीट डॉ. शंकरदयाल शर्मा के दामाद ललित माकन (साथ ही पुत्री गीतांजलि माकन भी) की आतंकवादियों द्वारा हत्या किए जाने से रिक्त हुई थी। इस जीत से यह संदेश किसी हद तक प्रबल हुआ कि अर्जुनसिंह का राजनीतिक कौशल मध्यप्रदेश तक सीमित नहीं है, बल्कि वे विपरीत तथा नई परिस्थितियों में भी जीतने का दमखम रखते हैं। काश कि वे इस नई-नई अर्जित छवि को ही पुष्ट करने पर ध्यान देते! उनका मन तो मध्यप्रदेश में लगा हुआ था। चंडीगढ़ और दिल्ली तो यात्रा के अनिवार्य और कहा जाए तो लादे गए पड़ाव मात्र थे। कैबिनेट मंत्री के रूप में काम करते हुए उन्होंने भोपाल वापस आने की जोड़-तोड़ प्रारंभ कर दी। संभव है कि मध्यप्रदेश में उनके विरुद्ध लगातार जो वातावरण बनाया जा रहा था, उससे वे विचलित हो रहे हों, लेकिन क्या भोपाल लौटने के अलावा और कोई रास्ता बाकी नहीं था? वे दिल्ली में सत्ता केंद्र के मध्य में थे। क्या वहीं रहकर बेहतर राजनीतिक प्रबंधन नहीं हो सकता था? मैं इस बारे में कुछ भी अनुमान लगाने में असमर्थ हूं। तथापि मेरा सोचना है कि 1988 में दुबारा मुख्यमंत्री बनकर मध्यप्रदेश लौटना और फिर खरसिया क्षेत्र से विधानसभा उपचुनाव लड़ना भविष्य में उनके लिए नुकसानदायक साबित हुआ। उनकी जो राष्ट्रीय स्तर पर इमेज बनी थी, वह तो टूटी ही, प्रदेश में भी उनकी लोकप्रियता व अजेयता को खरसिया ने एक मिथक में बदल दिया। याद रहे कि इस बीच प्रधानमंत्री राजीव गांधी का तिलस्म भी लगभग टूट चुका था व उनकी जगह वी पी सिंह का जादू मतदाता के दिल-दिमाग पर छाने लगा था। अर्जुनसिंह को इस तरह दो तरफ से नुकसान उठाना पड़ा। 

यह सत्य अपनी जगह पर है कि 1988 में तीसरी बार मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने के बाद अर्जुनसिंह ने अपने पुराने सामाजिक-सांस्कृतिक-आर्थिक-राजनीतिक अजेंडा पर ही अधिक जोर-शोर से काम करना प्रारंभ कर दिया था। दूसरे शब्दों में उन्होंने सुविधा की राजनीति के बजाय पहले से अंगीकृत सिद्धांतों की राजनीति पर जमे रहना ही बेहतर समझा। ऐसा करते हुए शायद उनकी निगाह 1990 में निर्धारित विधानसभा चुनावों की ओर रही हो; 1989 के आम चुनाव भी बस सामने ही थे। अगर मध्यप्रदेश में ये दोनों चुनाव उनके नेतृत्व में लड़े जाते तो क्या परिणाम निकलते, आज उसका अनुमान लगाना व्यर्थ है। किंतु इतना तो याद रखना ही होगा कि खरसिया जैसी ''सेेफ सीट'' से अप्रत्याशित रूप से कम वोटों से जीतने को उनकी कमजोरी माना गया। इसी सोच के चलते उन्हें एक बार फिर मुख्यमंत्री की कुर्सी गंवाना पड़ी। मोतीलाल वोरा दुबारा सीएम बने, उनके नेतृत्व में लोकसभा में कांग्रेस को भारी पराजय मिली; फिर अचानक ही श्यामाचरण शुक्ल तीसरी बार अल्प समय के लिए मुख्यमंत्री बने, और इस बार कांग्रेस को विधानसभा चुनाव में भी शिकस्त झेलना पड़ी। (अगले सप्ताह जारी)

#देशबंधु में 24 सितंबर 2020 को प्रकाशित

Wednesday 16 September 2020

देशबन्धु: चौथा खंभा बनने से इंकार- 15

 


मुख्यमंत्री अर्जुनसिंह की राजनीति से इतर एक छवि कला, साहित्य, संस्कृति के संरक्षक के रूप में भी विकसित हुई। उन्होंने इस ओर सायास ध्यान दिया व नवाचार तथा अभिनव योजनाओं को प्रोत्साहित किया। गौर किया जाए तो उनके व्यक्तित्व के इस पहलू की पक्की नींव शायद तभी पड़ चुकी थी, जब वे प्रकाशचंद्र सेठी की सरकार में शिक्षामंत्री थे। उन दिनों संस्कृति विभाग अलग न होकर शिक्षा विभाग का ही एक अंग था। एक युवा कवि और संस्कृतिकर्मी के नाते राष्ट्रीय स्तर पर पहचान कायम कर चुके अशोक वाजपेयी संभवत: विभाग के उपसचिव थे। तभी 'उत्सव-73' नाम से एक महत्वाकांक्षी विशाल कार्यक्रम का आयोजन राजधानी भोपाल में किया गया। इसमें पूरे प्रदेश से लगभग बिना भेदभाव के बड़ी संख्या में लेखक तथा कलाकार बतौर शासकीय मेहमान आमंत्रित किए गए। आयोजकों की अपनी पसंद-नापसंद थोड़ी-बहुत रही हो तो उसकी जानकारी मुझे नहीं है। इस भव्य आयोजन में सारे देश से अनेक गुणीजनों ने भी शिरकत की थी।

भोपाल का यह मजमा आज भी याद आता है। सुबह से देर रात तक कार्यक्रम चलते थे। कोई किसी स्कूल के सभागार में, तो कोई खुले मैदान में। कहीं कविता पाठ चल रहा है तो कहीं सरोद वादन हो रहा है। जिसे जहां मन हो, वहां आनंद उठाए। दिलचस्प तथ्य यह है कि तीन-चार दिन के इस समागम पर मुख्यमंत्री और शिक्षामंत्री की छाया कहीं नहीं थी। अशोक वाजपेयी ही सर्वत्र दौड़धूप करते दिखाई देते थे। उनके अलावा शासन साहित्य परिषद के सचिव सुप्रसिद्ध कहानीकार शानी और शायद कवि आग्नेय को मैंने सक्रिय भूमिका निभाते देखा। यह कहना अतिशयोक्ति न होगी कि इस आयोजन से ही भोपाल के देश की सांस्कृतिक राजधानी बनने की आधारशिला रखी गई, जिसका उत्कर्ष  'कलाओं के घर' भारत भवन के लोकार्पण के साथ देखने मिला। अर्जुनसिंह के इसी कार्यकाल में शासन साहित्य परिषद का एक तरह से लोकतंत्रीकरण हुआ जब नाम में से शासन शब्द विलोपित कर दिया गया व प्रबंधन में लेखकों की भूमिका में वृद्धि की गई। निस्संदेह इन सारे उपक्रमों में अशोक वाजपेयी ने महती भूमिका निभाई, लेकिन मुख्यमंत्री की रुचि और संरक्षण के बिना बात कैसे बनती!

इधर रायपुर के पं रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय में पहली बार एक सृजनपीठ स्थापित की गई जिसे पंडित सुंदरलाल शर्मा का नाम दिया गया। 1984 में बिलासपुर में छत्तीसगढ़ के तीसरे विश्वविद्यालय की स्थापना संत गुरु घासीदास के नाम पर हुई। उसे सामान्य विश्वविद्यालय से हटकर एक विशिष्ट पहचान देने के लिए अकादमिक तौर पर भी कुछ नए प्रयोग किए गए तथा छत्तीसगढ़ के ही प्रखर बुद्धिजीवी अधिकारी शरदचंद्र बेहार संस्थापक कुलपति बनाए गए। जबलपुर में प्रगतिशील लेखक संघ का पहला राष्ट्रीय अधिवेशन हुआ तो अर्जुनसिंह उसमें स्वागताध्यक्ष के रूप में शरीक हुए और शोषण व अन्याय के खिलाफ़ लेखकों के संघर्ष की सराहना करते हुए उनके साथ एकजुटता प्रकट की। रिकार्ड के लिए कहना होगा कि प्रलेस के कार्यक्रम में उनकी यह भूमिका अप्रत्याशित ही तय हुई थी तथा उनके प्रगल्भ व्याख्यान के बावजूद संगठन में इसे लेकर आगे विवादों की नौबत भी आई। खैर, यह हमारे अपने बीच की बात थी, जिसका मुख्यमंत्री से कोई लेना-देना नहीं था।

अर्जुनसिंह अन्य किसी भी दूरदर्शी और महत्वाकांक्षी राजनेता की भांति अपनी सार्वजनिक छवि के प्रति सजग थे। इस काम को उन्होंने व्यवस्थित ढंग से अंजाम दिया। प्रसिद्ध लेखक-पत्रकार डॉम मॉरेस को उन्होंने देश के सबसे बड़े प्रदेश का भ्रमण कर अपने अनुभवों व अपनी शर्तों पर ग्रंथ लिखने के लिए आमंत्रित किया। दिल्ली ही नहीं, अन्य महानगरों और हिंदी-अंग्रेजी के अलावा अन्य भाषाओं के पत्रकारों की प्रदेश में आवाजाही एकाएक बढ़ गई। उन दिनों परंपरा थी कि राज्य के जनसंपर्क संचालक पदभार लेने के बाद प्रमुख प्रकाशन स्थलों की यात्रा कर संपादकों तथा वरिष्ठ पत्रकारों से मिलकर प्रशासन आदि पर उनके विचारों से स्वयं को अवगत करते थे। इस नियमित फीडबैक की उपयोगिता असंदिग्ध थी। श्री सिंह के समय यह परंपरा बदस्तूर जारी रही, लेकिन वे सिर्फ इतने पर नहीं रुके। उन्होंने विशेष अवसरों पर सीधे संपादकों से बात करने की परिपाटी प्रारंभ की। जब कभी कोई मुद्दा महत्वपूर्ण जान पड़ता था, मसलन सरकार की ओर से कोई विधेयक पेश किया गया जिसे वे आवश्यक समझते हों, तो वे स्वयं फोन कर संपादकों के सामने अपना पक्ष रखते थे। यद्यपि इसमें उन्होंने कभी भी कोई अतिरिक्त आग्रह या दुराग्रह नहीं रखा। उनकी शैली थी- आज ऐसा ऐसा हुआ है। आप इसे एक बार देख लेंगे तो अच्छा होगा। बस, अपने मितभाषी स्वभाव के अनुरूप इतनी सी बात। लेकिन जब सीएम खुद फोन करें तो कोई भी संपादक उसकी उपेक्षा क्यों करेगा?

प्रसंगवश यह नोट करना चाहिए कि न सिर्फ अर्जुनसिंह, बल्कि उनके पहले भी जनसंपर्क विभाग का ध्यान मुख्यत: सरकार के छवि निर्माण पर होता था। शासन की कल्याणकारी योजनाओं का उचित प्रचार-प्रसार हो, विभाग के अधिकारियों की यही अपेक्षा होती थी। पं. रविशंकर शुक्ल के समय रायपुर के ईश्वरसिंह परिहार जनसंपर्क संचालक थे, जिन्हें इसका श्रेय दिया जाना चाहिए। विभाग में ऐसे अनेक अधिकारी थे जो पत्रकारिता छोड़ शासकीय सेवा में आए थे। वे विभाग की अपेक्षाओं और अखबार की सीमाओं के बीच संतुलन स्थापित करना बखूबी जानते थे। मेरी अपनी राय में परिहार साहब के बाद हनुमान प्रसाद तिवारी दूसरे संचालक थे जो इस प्रोफेशनल क्वालिटी यानी व्यवसायिक गुण के धनी थे, गो कि बाकी भी कुछ कम नहीं थे। ये अधिकारी खुद को नेपथ्य में रखते थे, जबकि आज का चलन बिलकुल पलट गया है। बहरहाल, अर्जुनसिंह के समय अशोक वाजपेयी तथा सुदीप बनर्जी की जोड़ी ने जनसंपर्क विभाग का जो कायाकल्प किया, वह अद्भुत था। कितने ही सुयोग्य अधिकारियों को पदोन्नति के अवसर तथा स्वतंत्र निर्णय लेने के अधिकार मिले;  मध्यप्रदेश माध्यम जैसी आनुषंगिक एजेंसी का गठन किया गया; रोजगार व निर्माण जैसी पत्रिका निकली आदि।  

उन दिनों टीवी तो था नहीं। जो कुछ थे, अखबार ही थे। हर अखबार की अपनी अलग नीति, सरकार से अपनी-अपनी अपेक्षा। अधिकतर के दूसरे व्यापार समानांतर चलते थे, जैसे कि आज भी चल रहे हैं। कोई पीएचई में पाइप सप्लाई कर रहा है, किसी का साबुन कारखाना है, किसी को महापौर बनने की इच्छा है तो कोई नगर विकास प्राधिकरण की अध्यक्षता चाहता है, किसी को और कुछ चाहिए। अर्जुनसिंह ने इन सबकी आकांक्षाओं को समझा तथा जिसके लिए जो कर सकते थे, भरसक कर दिया। देशबन्धु अकेला पत्र था जिसकी एकमात्र मांग एक सुसंगत विज्ञापन नीति निर्धारण की थी ताकि किसी भी समाचारपत्र के साथ मनमाना व्यवहार न हो। मैं समझता हूं कि उनके कार्यकाल में देशबन्धु को सम्मान मिलने का एक बड़ा कारण यह भी था कि हम उनके पास अपने किसी निजी स्वार्थ से नहीं गए। लेकिन हां, ऐसे मौके अनेक बार आए जब दूसरों की मदद के लिए उनके पास जाना पड़ा। वे अगर मदद कर सकते थे तो फिर अंग्रेजी में एक वाक्य में उत्तर- कंसिडर इट डन। यानी आपका काम हो गया समझिए। नहीं कर पाएं तो विनम्र भाव से- ललितजी, इसे अभी रहने दें? जी, ठीक है। बात यहां समाप्त। लेकिन बातें अभी बहुत बाकी हैं। (अगले सप्ताह जारी)

#देशबंधु में 17 सितंबर 2020 को प्रकाशित

Thursday 10 September 2020

कविता: मुक्तिबोध के अवसान पर

 


11 सितंबर 1964 की शाम लिखी यह कविता 12 सितंबर के देशबंधु (तब नई दुनिया रायपुर) में प्रकाशित हुई थी। इसका यदि कोई महत्व है तो इसलिए कि मुक्तिबोधजी के निधन पर लिखी गई यह शायद पहली कविता है।

रात भर
बारिश होती रही थी,
सुबह की झील पर
कोहरा ढँका था,
सौम्य नील वक्ष पर
मृत्यु का स्पंदन,
यवनिका पतन।


देशबन्धु : चौथा खंभा बनने से इंकार-14

 


अर्जुन सिंह मुख्यमंत्री तो बन गए थे, लेकिन अपने पूर्ववर्तियों के मुकाबले प्रारंभ में उनकी राह आसान नहीं थी। कदम-कदम पर कांटे बिछे थे। प्रदेश की नौकरशाही में सर्वोच्च पदों पर बैठे कुछ अफसरों तक की निष्ठा मुख्यमंत्री पद के साथ न होकर अपने दीर्घकालीन संरक्षकों के साथ थी। जिस प्रदेश में कोई मुख्यमंत्री अब तक पांच साल का कार्यकाल पूरा न कर पाया हो, उसमें श्री सिंह के भविष्य को लेकर कुछ अधिक ही अटकलबाजियां थीं। इसे एक आश्चर्य ही माना जाएगा कि उन्होंने न सिर्फ पहला कार्यकाल सफलतापूर्वक पूरा किया, बल्कि 1985 में प्रदेश के इतिहास में लगातार दूसरी बार जीतने का रिकॉर्ड कायम किया। मैंने कुछ साल पहले लिखा था कि अर्जुनसिंह कम बोलते हैं व उनके कहे का अर्थ निकालना कठिन होता है। दूसरी ओर दिग्विजय सिंह अधिक बोलते हैं और उनके कहे का अर्थ निकालना भी कठिन होता है। दिग्विजय सिंह की चर्चा यथासमय होगी। फिलहाल अर्जुनसिंह के बारे में कहा जा सकता है कि इस गुण ने उन्हें खूब साथ दिया।

श्री सिंह के बारे में उनके पद सम्हालते साथ तरह-तरह की ईर्ष्याप्रेरित टीकाएं होने लगी थीं। इनमें सर्वाधिक प्रचलित थी कि अर्जुनसिंह का दिमाग इतना टेढ़ा है कि सीधा खीला घुसाओ तो स्क्रू ड्राइवर बनकर बाहर निकलता है। उन्होंने धैर्यपूर्वक इस विपरीत माहौल का सामना किया। मुझे याद आता है कि जब वे विधानसभा में विपक्ष के नेता थे तब रायपुर प्रवास पर एक होटल में भोजन करते समय भी उनके साथ अभद्र बर्ताव कांग्रेस के ही कुछ उभरते युवा नेताओं ने किया था। मुख्यमंत्री बनने के पश्चात धमतरी में उनकी शोभायात्रा में भी बाधा पहुंचाने की हरकत की गई थी। सरकार का मुखिया अपनी छवि धूमिल होने की कीमत पर कब तक यह सब चलने देता? उस समय बी के दुबे प्रदेश के मुख्य सचिव थे। मुख्यमंत्री ने उन्हें छह माह बीतते न बीतते निलंबित कर दिया। कहना न होगा यह अपने आप में बड़ी कार्रवाई थी, जिसका वांछित संदेश नौकरशाही पर ही नहीं, राजनीतिक हलकों में भी पहुंचते देर न लगी।

एक और मज़ाक उन दिनों चल निकला था कि मुख्यमंत्री को कोई फैसला लेना होता है तो वे फाइल पर लिख देते हैं कि समस्त नियमों को शिथिल करते हुए यह कार्य किया जाए। इस बात में काफी सच्चाई थी, जिसकी व्याख्या की गई कि मुख्यमंत्री मनमाने फैसले लेते हैं। लेकिन इसके दूसरे पहलू को जानबूझकर नहीं समझा गया। अर्जुनसिंह ने अपने अधिकारियों पर कभी भी फाइलों पर मुंहदेखी टीप लिखने का दबाव नहीं डाला। आपको जो राय देना है अपनी स्वतंत्र बुद्धि से दीजिए। मुझे जो निर्णय लेना होगा, लूंगा, लेकिन उसकी जिम्मेदारी आपके ऊपर नहीं डालूंगा जिससे आपको आगे चलकर कोई परेशानी आए। एक उत्तरदायी सरकार के मुखिया से यही अपेक्षा हर समय की जाना चाहिए। मैंने यह भी नोटिस किया कि श्री सिंह ने अपनी ओर से किसी प्रतिद्वंद्वी पर पहला वार नहीं किया, लेकिन जब कभी उन पर हमला हुआ तो फिर पलटवार करने में उन्होंने कमी नहीं की। इसके बावजूद अपने राजनीतिक विरोधियों के काम भी उन्होंने किए व उन्हें अपने पक्ष में लाने की हरसंभव कोशिश भी की।

बहरहाल, मुख्यमंत्री अर्जुनसिंह ने पदभार लेने के तुरंत बाद ही अपूर्व सक्रियता के साथ राजनीतिक और प्रशासनिक नवाचारी निर्णय लेना शुरू कर दिया था। उनका एक महत्वपूर्ण कदम था कि सभी संभागों व अनेक जिलों में अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जनजाति के अधिकारी आयुक्त, डीआईजी, जिलाधीश व एसपी के रूप में पदस्थ किए गए। संदेश स्पष्ट था कि नई सरकार की सामाजिक नीति क्या होगी। छत्तीसगढ़ में उन्होंने प्रदेश (तब अंचल) की अस्मिता के प्रतीक तीन महापुरुषों को शासकीय स्तर पर प्रतिष्ठा प्रदान की।  ये थे- गुरु घासीदास, वीर नारायण सिंह और पं सुंदर लाल शर्मा। इसी बीच शायद 1981 में भिलाई में एक वृहत कार्यक्रम नेहरू सभागार में हुआ। उसमें उन्होंने भिलाई इस्पात संयंत्र की स्थापना व छत्तीसगढ़ में विकास के प्रणेता के नाते पं रविशंकर शुक्ल का श्रद्धापूर्वक नामोल्लेख किया तो सभागार में मानों आश्चर्य की एक लहर सी दौड़ गई। इस एक वाक्य ने विरोधी स्वर को किसी हद तक शांत कर दिया और श्री सिंह आम जनता के लिए प्रशंसा पात्र बन गए।

लगभग इसी समय अर्जुनसिंह ने एक ऐसा राजनीतिक दांव खेला, जिसकी कल्पना शायद ही किसी ने की होगी। संत-कवि-राजनेता पवन दीवान भावनात्मक रूप से पृथक छत्तीसगढ़ आंदोलन से 1967 के आसपास से जुड़कर उसमें सक्रिय भागीदारी निभा रहे थे। 1977 में वे जनता पार्टी से विधानसभा चुनाव जीते और जेल मंत्री भी बने। वे शुक्ल बंधुओं के कट्टर विरोधी गिने जाते थे। श्री सिंह ने उनसे गुप्त संवाद स्थापित किया। मुझे बताया गया कि वे रायपुर आकर आधी रात के बाद गुपचुप तरीके से उनसे मिलने किरवई (राजिम) आश्रम मिलने गए। उनकी आशा-अपेक्षा को समझा, पक्का आश्वासन दिया और लौट आए। इसके तुरंत बाद छत्तीसगढ़ विकास प्राधिकरण स्थापित करने की आधिकारिक घोषणा हुई।  स्वयं मुख्यमंत्री अध्यक्ष, राज्य योजना मंडल के उपाध्यक्ष रामचंद्र सिंहदेव उपाध्यक्ष, सदस्यों में मंत्री झुमुकलाल भेंडिया आदि के अलावा प्रमुख तौर पर नवप्रवेशी कांग्रेसी पवन दीवान। मुझे भी मेरी बिना जानकारी या सहमति के इस प्राधिकरण का सदस्य मनोनीत किया गया। भाई पवन पुराने साहित्यिक मित्र थे। उनकी ऊर्जा का रचनात्मक उपयोग होगा, यह संभावना सुखद थी। सिंहदेवजी से यहां जो मित्रता हुई, वह अंत तक बनी रही।

छत्तीसगढ़ विकास प्राधिकरण की पहली दो-तीन बैठकें भोपाल में संपन्न हुईं। वरिष्ठ आईएएस अधिकारी जगतस्वरूप इसके सदस्य सचिव पदस्थ किए गए। पहली बैठक में ही अनेक सदस्यों ने अपनी ओर से अंचल के विकास हेतु अनेक व्यवहारिक सुझाव पूर्वलिखित पेश किए थे जिन पर विस्तारपूर्वक चर्चा हुई। मुख्यमंत्री ने कुछेक के प्रति अपनी ओर से अनुमोदन भी किया। मेरा एक प्रस्ताव था कि छत्तीसगढ़ में एक भी पशुचिकित्सा महाविद्यालय नहीं है। इसकी स्थापना हेतु मैंने बिलासपुर में संचालित कामधेनु योजना व हरा चारा केंद्र के विस्तृत परिसर का सह-उपयोग करने का सुझाव भी दिया था, जिसे मान लिया गया था। छत्तीसगढ़ विकास प्राधिकरण की स्थापना तथा ऐसे ही अन्य कदम उठाकर अर्जुनसिंह ने कुल मिलाकर सारे मध्यप्रदेश में अपनी सियासी जमीन मजबूत कर ली थी। छत्तीसगढ़ अंचल में शुक्ल बंधुओं के करीबी समझे जाने वाले अनेक प्रभावशाली राजनेता भी उनके साथ आ गए थे, जिन्हें श्री सिंह ने उचित सम्मान व प्रश्रय दिया। केयूरभूषण पहले ही लोकसभा का टिकट पा चुके थे। डॉ. टुम्मनलाल, झुमुकलाल भेंडिया आदि को उन्होंने महत्वपूर्ण दायित्व सौंपे। एक तरफ उन्होंने राजनीतिक समीकरण साधे तो दूसरी ओर सामाजिक धरातल पर भी उन्होंने वंचित-शोषित समाज के प्रति अपनी एकजुटता प्रदर्शित की जो उनके पहले इस मुखरता के साथ किसी और ने न की थी। (अगले सप्ताह जारी)


#देशबंधु में 10 सितंबर 2020 को प्रकाशित

Sunday 6 September 2020

कविता: सरोवर हमारी धरोहर

 



दो तिहाई पृथ्वी
डूबी है जल में
इतना सारा पानी किसे
और क्यों कर चाहिये?

संदेशा भेजो वरुण को
समेट ले अपनी
सत्ता की सीमाएं
सौंप दे मनुष्य को
घोंघे, सीप, कछुए, मछलियाँ
शैवाल और प्रवाल
बढ़ रहा है आदमी का वंश
कई गुना तृष्णा उसकी
(यहाँ एक पंक्ति गायब है- लेखक)
उसे अपने लिए चाहिए

उसे चाहिए बिकिनी का द्वीप
और प्रशांत महासागर की गहराईयाँ
ताकि कर सके परमाणु परीक्षण
परख सके अपनी संहारक क्षमता

उसे चाहिए दक्षिण ध्रुव
और दक्षिण गंगोत्री के ठिकाने
ताकि कर सके वह
मौसम को अपने अनुकूल
और पेंग्विनों से
छीन सके उनका भोजन

उसे चाहिए बंगाल की खाड़ी में
बलियापाल और चांदीपुर
देश  की सुरक्षा का सवाल है
जरूरी है अग्रि का प्रक्षेपण
इसके बाद फिर आकाश का

उसे सातों समुद्रों में जगह चाहिए
पैर रखने के लिए
सैनिक ठिकाने बनाने और
दुश्मन पर निगाह रखने के लिये
दुश्मन जो उसके ही भाई हैं

वह चाहता है नरीमन पाइंट
वरली सी-फेस और मैनहट्टन
बनाएगा वहाँ ऊँची-ऊँची इमारतें
सूरज जिनकी छाया में छिप जाए
आसमान चार हाथ दूर रह जाए

इच्छा होने से
रहेगा वह हाउस बोट में
दलेगा डल झील की छाती
बनाएगा वह क्वीन एलिजाबेथ-टू
और शाही याट नेबुला
करना है उसे ऐश्वर्य का प्रदर्शन
थोड़े से दिनों की बात है
वह बसाएगा समद्र में बस्तियाँ

उसे चाहिये
रजबंधा, लेंडीतालाब और मढ़ाताल
व्यापार बढ़ गया है कितना
ज़रूरी है बनें शहर में
शाँपिंग काम्प्लेक्स और प्लाज़़ा
उसे पानी नहीं पैसा चाहिये

वह झरनों के सैट लगाएगा
तारिकाएं करेंगी जलकेलियाँ
नीबुओं की सनसनाती ताज़गी पर
बनेगी उम्दा महकती फिल्म
वह दर्शकों से तालियाँ पिटवाएगाा

उसे बनाने हैं बांध
और लगाने हैं कारखाने
नदियों के किनारे,
उसे त्रिवेणी संगम भी चाहिये
नर्मदा सागर और सरदार सरोवर से
पहँुचाएगा वह कच्छ तक पानी
ज़मीन मीन छीनेगा जिनकी, उन्हें
मुआवजा देकर खुश कर देगा
मिलों का मैल ढोएंगी नदियाँ
गाँगा सिर्फ पुरखों की
अस्थियाँ बहाने के लिये चाहिए

बुला ली हैं उसने रिग मशीनें
प्यास लगने पर बोर करवाएगा
नलकूप से खींचेगा पानी
खेतों में सिंचाई करेगा, फिर
सारा अन्न भंडार में भरवाएगा

वह चाहता है दुनिया में बचे
सिन्टेक्स की टंकी भर पानी
उसके घर की छत पर
जिसका वह खुद उपयोग करे
समुद्र, नदियाँ, सरोवर
रहें उसकी मुट्ठी में
जब जैसे चाहे प्रयोग करे

अलास्का से अंडमान तक
समुद्र में उसने लगा दी है आग
नए युग के भागीरथ ने
सुखा दी हैै सारी नदियाँ
ताल दफ्न हो गए हैं
अट्टालिकाओं के नीचे
और तब
बचाकर रखे जा रहे हैं
बहुत से पुरावशेषों की तरह
कुछ अदद जलाशय भी
राष्टीय संग्रहालयों में,
ऐलान किया गया है कि
बचाया जाएगा
बूढ़ातालाब, रानीसागर को
ये धरोहर हैं हमारी

संरक्षित स्मारक ये हमारे
बचाएंगे इनको
हर किस्म की ज्यादती से
मछलियों से कहेगे
ढूंढ़ लें कोई और घर
बचाएंगे सरोवरों को प्रदूषण से
मछुआरे  अपना जाल समेट
जी चाहे जहाँ जाएं
और धोबी हक छोड़ दें
घाट के पत्थरों पर

सुबह के धुंधलके में
खुद से शार्मिन्दा होते  हुए
न आए कोई तालाब के किनारे
पति के दफ्तर और
बच्चों के स्कूल जाने के बाद
न आएं महिलाएं
भरी दोपहर नहाने के लिये
नंग-धडंग बच्चों और
जलकुंभी को भी अब
हटाया जाएगा बार-बार

अब होगा तालाब के भीतर
विकसित एक टापू और
उसमें क्यारियाँ  फूलों की
चारों तरफ बनेगी
चौड़ी चमकती सड़क
रायपुर में होगी जैसे
बम्बई की मैरीन ड्राइव
राजनांदगांव में चौपाटी
निसर्ग की शोभा का
आनंद लेगे, मुफलिस
और श्रेष्ठिजन एक साथ,
वे अपनी कार से उतरकर
चाट और गोलगप्पे खाते हुए
ये फूलों की गंध पीकर
सिर्फ हवा खाते हुए

शाम को जल उठेंगे
मद्विम पीली रोशनी फै़लाते
सोडियम वैपर लैम्प और
चमकेंगे प्रतिष्ठानों के नियोन साइन,
घूमेंगे वहां पुलिस वाले
मालिश वाले और
कान साफ करने वाले
फुग्गे और खिलौने लेकर
आवाज़ लगाते घूमेगे फेरीवाले
सेहत सुधारते नजऱ आएंगे
कमज़ोर दिल, मोट पेट वाले
नज़रों से छुप कर सबकी
बैठेगे कहीं प्रेमी युगल
दुनिया से बेखबर
होगे और भी लोग
तरह-तरह के, किसिम-किसिम के
लेकिन इनमे से किसे पता
होगा धरोहर का महत्व
किसे होगी चिन्ता, पानी के
साफ व पारदर्शी रहने की?
ये सब आएंगे और
रात बढऩे के साथ
अपने घर लौट जाएंगे
फिर सरोवर रह जाएंगे एकाकी
जलहीन होती पृथ्वी पर
जल होने के बचे हुए सुबूत
अपने आप में डरे हुए
कल उन्हें भी
बेच दिया जायगा
पाँच पैसा गिलास एक रुपया बाल्टी
सौ रुपया टैंकर के हिसाब से

ऐसी किसी रात के
अंधेरे में सक्रिय होगा
शताब्दियों से सहमा वरूण
दसों दिशाओं में
भेजी जायेंगी पोशीदा खबरें
होगी जवाबी हमले की तैयारी
पाताल में कछुए कसमसाएंगे
और आकाश में तड़पेंगी बिजलियाँ
टूट के बरसेंगे बादल
और सूखी हुई सरिताओं में
एकाएक आएंगे उफान
झीलें तोड़ देंगी अपनी हदें
और समुद्रों में उठेंगी लहरें
सीयर्स टावर्स से ऊँची,
एक बार फिर होगा महाप्रलय

तब क्या करेगा मनुष्य
कहाँ जाएगा वह
क्या काम आएंगे अस्त्र और शस्त्र
परमाणु बम और मिसाइलें
किसी ढहती इमारत की
एक सौ बीसवीं मंजि़ल पर
खड़ा होगा जब वह
जिंदा रहने की फिराक में
तब क्या होगा उसके पास
एक अदद नौका भी
खुद को बचाने के लिये?


1990







Saturday 5 September 2020

पत्रकारिता की मिशनरी परंपरा और पतन

 


(नोट: सुपरिचित रचनाकार अखिलेश विगत कई वर्षों से "तद्भव" का संपादन- प्रकाशन कर रहे हैं। कुछ ही समय पहले इसका पत्रकारिता विशेषांक प्रकाशित हुआ है। इसका संपादन युवा पत्रकार अटल तिवारी ने किया है व विशेष सहयोग दूसरे युवा पत्रकार अभिषेक श्रीवास्तव का रहा है। यह विशेषांक हर सजग पत्रकार के लिए विशेष पठनीय व संग्रहणीय है। प्रस्तुत यह लेख इसी विशेषांक के परंपरा खंड से साभार उद्धृत एवं पुनर्प्रकाशित है- ललित सुरजन)

भारतीय पत्रकारिता के लगभग ढाई सौ वर्षों के इतिहास में यदि कोई मिशनरी परंपरा थी तो वह अटूट और अविच्छिन्न न होकर किसी हद तक बिखरी हुई थी। उसके पुरोधाओं के लिए पत्रकारिता अपने आप में साध्य न होकर एक निश्चित उद्देश्य की पूर्ति के लिए एक फौरी साधन मात्र थी। निस्संदेह भारत के पहले समाचार पत्र ''द बंगाल गजट" ने वाइसराय वारेन हैस्टिंग्ज़ के भ्रष्टाचार आदि कारनामों को उजागर किया, जिसके चलते संस्थापक संपादक जेम्स आगस्टस हिकी को पहले कारावास और फिर भारत से निष्कासन का दंड भोगना पड़ा लेकिन हिकी के इस अनुकरणीय उदाहरण से कोई परंपरा स्थापित नहीं हुई। मोतीलाल घोष ने वर्नाक्युलर प्रेस एक्ट को धता बताते हुए आनंद बाजार पत्रिका का बांग्ला के बजाय अंग्रेजी में प्रकाशन प्रारंभ कर दिया, लेकिन ऐसा कल्पनाशील कदम उठाने वाले वे अकेले ही थे। तिलक, लाजपत राय, गांधी, नेहरु, आज़ाद प्रभृत्ति महानायकों ने स्वाधीनता के वृहत्तर लक्ष्य को सामने रखकर अखबार प्रकाशित किए, लेकिन उनकी बात निराली थी। ये तमाम दृष्टांत प्रेरणादायक हैं, इतिहास लेखन की दृष्टि से महत्वपूर्ण भी हैं, किंतु इन्हें नियम न मानकर अपवाद मानना ही उचित होगा। बी.जी. हार्निमन, सैय्यद अब्दुल्ला बरेलवी, गणेश शंकर विद्यार्थी, एस. सदानंद जैसे कृती पत्रकार आदर्श के रूप में हमारे सामने आते हैं, लेकिन ये मिशनरी पत्रकारिता की कोई ठोस परंपरा स्थापित कर गए हों, यह निश्चित रूप से कहना मुश्किल है।

दरअसल, मिशनरी परंपरा की बात करते हुए हम इस सच्चाई को अनदेखा कर देते हैं कि पत्रकारिता अन्तत: एक व्यवसाय है। किसी अन्य व्यवसाय की भांति इसमें भी पूंजी और श्रम के अलावा अनेक स्तरों पर तालमेल तथा समझौता करने की आवश्यकता होती है। आजादी के ठीक बाद के दौर में यह सच्चाई पूरी स्पष्टता के साथ प्रकट नहीं हो पाई थी जिसके दो-तीन कारण थे। एक तो स्वाधीनता प्राप्ति का मिशन हासिल कर लेने के बाद देश के नवनिर्माण का मिशन प्रारंभ हो गया था, याने पत्रकारिता के सामने तब भी एक वृहत्तर लक्ष्य मौजूद था। दूसरे, जवाहरलाल नेहरु जैसे उदात्त, लोकतांत्रिक नेता हमारे प्रधानमंत्री थे जो पत्रकारिता की लोककल्याणकारी भूमिका को प्रोत्साहित करने के पक्षधर थे। तीसरे, तब पत्रकारों की वह पीढ़ी भी थाी जिसने या तो आज़ादी की लड़ाई में सीधे भागीदारी की थी या जो गांधी-नेहरु के आदर्शों से अनुप्राणित हो एक सार्थक भूमिका निभाने के लिए प्रतिश्रुत थी। चौथे, तब अखबार ही पत्रकारिता का एकमात्र माध्यम था और बिना भारी-भरकम पूंजी निवेश के अखबार निकालना संभव था। यह वह समय था जब बाबूराव विष्णु पराड़कर व बनारसी दास चतुर्वेदी जैसे पत्रकार प्रेस पर पूंजी के हावी होने की आशंका प्रकट कर रहे थे, फिर भी पत्रकारिता के मूल्यों व पूंजीगत हितों के बीच एक संतुलन स्थापित करने की भावना किसी सीमा तक कायम थी। दूसरे शब्दों में पत्रकारिता जनाकांक्षाओं व पाठकों के प्रति काफी कुछ सजग व उत्तरदायी थी, पूरी तरह तटस्थ या उदासीन नहीं। उत्तर - नेहरु युग में इस और दुर्लक्ष्य होना प्रारंभ हुआ, जिसका रूप 1990-91 के पश्चात निरन्तर विकराल होते चला गया।

ऐसा नहीं कि नेहरु युग में सब अच्छा ही अच्छा था। यही दौर तो था जब पूंजीपतियों द्वारा संचालित अखबारों ने जिसे तब जूट प्रेस कहा जाता था, प्रथम प्रेस आयोग की सिफारिशों को सर्वोच्च न्यायालय तक जाकर चुनौती दी थी और अपने पक्ष में फैसला करवाने में सफलता पाई थी। प्रकारांतर से पूंजीवादी प्रेस ने स्वतंत्र पत्रकारिता की राह में रोड़े अटका दिये थे। इसी समय में अखबार मालिकों तथा पत्रकारों की राजनैतिक महत्वाकांक्षाएं भी जागृत होने लगी थीं। यदि प्रेस के संचालक राजनीति में घुसपैठ कर अपने अन्यान्य व्यवसायिक हितों का संरक्षण अथवा संवर्धन करने का इरादा रखते थे तो संपादकों की इच्छा वह रुतबा और सुख-सुविधाएं हासिल करने की थी जो रुखी-सूखी पत्रकारिता से संभव नहीं थी। मुझे एक ऐसे संचालक-संपादक का ध्यान आता है जिन्होंने अपने पत्र में भिन्न-भिन्न दलों से संबंध रखने वाले चार-पाँच पत्रकार नियुक्त कर रखे थे, जो उन्हें राज्यसभा में भेजने के लिए अपनी-अपनी पार्टी में उनका नाम चला सकें यानी लॉबीइंग कर सकें। प्रेस स्वाधीनता के लिए ख्यातिनाम एक पत्र संचालक छठे-छमासे संपादकों को को निकालने के लिए प्रसिद्धि हासिल कर चुके थे। अनेक राजनेताओं ने नेहरु युग में ही खुद के अखबार स्थापित कर लिए थे। अखबार की प्रिंट लाइन में प्रधान संपादक के रुप में अपना नाम छपा देखकर उन्हें अतिरिक्त गर्व का अनुभव होता होगा! यह सब होने के बावजूद अधिकतर अखबारों के संपादक व पत्रकार तथ्यों के साथ छेड़छाड़ करने से परहेज करते थे। भले ही संपादकीय आलेख में संचालन की नीति का अनुमोदन होता हो।

अनेक मीडिया अध्येता पत्रकारिता के स्तर में आई गिरावट के लिए इंदिरा गांधी और आपातकाल के दौरान सेंसरशिप व पत्रकारों पर हुए दमनचक्र को दोषी मानते हैं। वे लालकृष्ण आडवाणी का कथन उद्धृत करते हैं कि प्रेस को घुटने टेकने कहा गया था लेकिन वह रेंगने लगा। यह धारणा प्रथम दृष्टि में सही प्रतीत होती है, लेकिन यह विश्लेषण मेरी राय में अधूरा है। आपातकाल लागू होने के पहले पत्रकारिता का परिदृश्य कैसा था, कौन से कारक उसे प्रभावित कर रहे थे तथा जनता पार्टी का शासन आ जाने के बाद पत्रकारिता ने किस प्रभाव में, क्या दिशा पकड़ी, इसका अध्ययन अभी होना बाकी है। मुझे दो मुख्य कारण समझ में आते हैं जिन्होंने 1975 के आसपास, शायद कुछ पहले से, पत्रकारिता को प्रभावित करना प्रारंभ किया। एक तो मुद्रण तकनीकी में हो रहे विकास के चलते अखबारों की पूंजीगत लागत व आवश्यकता निरंतर बढऩे लगी थी जिसने छोटे और मझोले अखबारों पर प्रतिकूल प्रभाव डाला। दूसरे, इसी दरम्यान नवपूंजीवादी ताकतें मजबूत होने लगीं थीं, बहुराष्ट्रीय कंपनियों का दबदबा कायम होने लगा था, और वे विभिन्न देशों की आंतरिक राजनीति में अधिक खुलकर हस्तक्षेप करने लगी थीं। अमेरिका का सैन्य-औद्यौगिक गठजोड़ बांग्लादेश निर्माण के समय से इंदिरा गांधी से क्षुब्ध था और भारत में उनका साथ देने पूंजीवादी शक्तियाँ भी आगे आ गई थीं। करेले पर नीम चढऩे की कहावत यहाँ चरितार्थ हुई। कल तक जिसे हम जूट प्रेस के नाम से जानते थे, वह अब कारपोरेट मीडिया में कायाकल्प होने की ओर बढऩे लगा था।

यदि किसी को उम्मीद थी कि आपातकाल समाप्त होने के बाद प्रेस नए सिरे से प्राप्त स्वतंत्रता और सम्मान का उपयोग बेहतर ढंग से करेगा तो यह आशा निष्फल सिद्ध हुई। 1977 के बाद प्रेस के कम से कम एक हिस्से में स्वतंत्रता का स्थान अराजकता ने ले लिया। पहले की पत्रकारिता यदि किन्हीं सिद्धांतों एवं आदर्शों से प्रेरित थी तो नए माहौल में उन्हें तिलांजलि देने का क्रम शुरु हो गया। 1982 में एशियाई खेलों के आयोजन के साथ-साथ दूरदर्शन की मार्फत टीवी एक नए और आकर्षक माध्यम के रूप में सामने आया, जिसने आम जनता के अलावा अखबारों की रीति-नीति, कलेवर, साज-सज्जा इन सबको भी प्रभावित किया। समाचारपत्रों में गंभीर वैचारिक सामग्री के लिए स्थान सिकुडऩे लगा, उसकी जगह हल्की मनोरंजक सामग्री ने ले ली। इसी बीच नई तकनीकी के आगमन ने अखबारों की साज-सज्जा को भी अधिक चमकीला बनाने की प्रेरणा दी। कुल मिलाकर बाह्य कलेवर महत्वपूर्ण और आंतरिक तत्व गौण हो गया। दूरदर्शन पर शुरू में जो सामाजिक संदेश वाले धारावाहिक आते थे, वे भी एक दिन फीके पड़ गए। सामुदायिक एवं संस्थागत स्तर पर एफ एम रेडियो स्टेशन स्थापित करने की नीति लोकशिक्षण के लिए बनाई गई, लेकिन वास्तव में उनका उपयोग व्यापारिक हित संवर्धन के लिए ही किया गया। इस तरह पारंपरिक मीडिया के तीनों अंग अखबार, रेडियो व टीवी पूंजी हितों की सेवा में समर्पित कर दिये गये।  इस पृष्ठभूमि को देखते हुए मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचने के लिए विवश होता हँू कि भारत में पत्रकारिता का कोई स्वर्णयुग नहीं था। हम तो नेहरु युग के लोकतांत्रिक परिवेश में पत्रकारिता व्यवसाय को मिले सम्मान को भी सुरक्षित नहीं रख सके। इस दौरान श्रेष्ठ पत्रकारिता के जो भी उदाहरण सामने आए हैं उन्हें अपवाद मानना सच्चाई को स्वीकार करना होगा।

जब हम पत्रकारिता की वर्तमान स्थिति पर अफसोस जताते हैं, तब मुझे ध्यान आता है कि इंदिरा गांधी के पहले कार्यकाल में एक सुनहरा मौका स्वतंत्र पत्रकारिता के विकास के लिए मिला था, जिसे गंवा दिया गया। तब नंदिनी सत्पथी केन्द्रीय सूचना एवं प्रसारण मंत्री थी और यह सुझाव शायद उनके ही माध्यम से आया था कि अखबारों के स्वामित्व का विकेन्द्रीकरण (डिवाल्यूशन ऑफ ओनरशिप) किया जाए। इसके अंतर्गत समाचार पत्रों पर पूंजी का नियंत्रण समाप्त हो जाता या घट जाता और कलमजीवी पत्रकारों को संस्थान के संचालन में भागीदारी मिल जाती। लेकिन पत्रकारों के अपने संगठनों ने भी इस प्रस्ताव में कोई खास रुचि नहीं दिखाई। पूंजीपति मालिकों द्वारा इसे स्वीकार करने का तो खैर सवाल ही नहीं था। यह एक विडंबनापूर्ण स्थिति थी कि एक ओर पत्रकार वेतन आयोग आदि मंचों से बेहतर सुविधाएं मांग रहे थे, लेकिन दूसरी ओर अपनी कलम का मालिकाना हक अपने पास सुरक्षित रखने की ओर उनका ध्यान नहीं था। इसका परिणाम यही हुआ कि पत्रकारिता में पूंजी का वर्चस्व बढ़ते चला गया और कलम की ताकत व इज्ज़त उसी अनुपात में घटते गई। एल.पी.जी. (उदारीकरण, निजीकरण, वैश्वीकरण) के आगाज़ के साथ तो मीडिया संस्थानों में पत्रकारों की हैसियत दोयम दर्जे की कर दी गई। पत्रकारों के अधिकारों के लिए लडऩे वाले संगठन छिन्न-भिन्न हो गए। उन पर न्यस्त स्वार्थों का कब्जा हो गया। एक के बाद एक नए संगठन बनने लगे, लेकिन उनका प्रयोजन पत्रकारिता के मूल्यों की रक्षा करने के बजाय अपना वर्चस्व कायम करने तक सीमित रहा। इस माहौल में यह तय करना भी मुश्किल हो गया है कि कौन पत्रकार है और कौन नहीं।

इस बीच सोशल मीडिया ने इतनी गुंजाइश अवश्य पैदा की है कि आप अपना मनोगत उस पर सार्वजनिक रुप से व्यक्त कर सकें, लेकिन क्या उसे पत्रकारिता माना जा सकता है? यह माध्यम तो हर व्यक्ति के लिए खुला हुआ है और उसका इस्तेमाल करने के लिए संपादकीय प्रशिक्षण, संपादकीय नियंत्रण और संपादकीय विवेक की आवश्यकता नहीं है। ट्विटर, फेसबुक, वाट्सएप, इंटरनेट आदि का जो भयंकर दुरुपयोग हो रहा है, उससे हम अवगत हैं। हालांकि डिजिटल मीडिया का एक स्वागत योग्य पक्ष भी इस हाल-हाल में प्रकट हुआ है। देश के कुछेक जाने-माने पत्रकारों ने ऑनलाइन अखबार या चैनल प्रारंभ किए हैं, जिन्होंने पारंपरिक पत्रकारिता के नियमों एवं नैतिकता का पालन करते हुए एक नया पाठक वर्ग या दर्शक वर्ग बनाने में सफलता हासिल की है। द वायर, द प्रिंट, स्क्राॅल जैसे नाम यहाँ ध्यान आते हैं। समाचारपत्रों एवं टीवी चैनलों के ऑनलाइन संस्करण भी स्थापित हो गए हैं, जो उनकी पहुँच का दायरा बढ़ाने में सहायक हुए हैं। डिजिटल मीडिया पर आज दुनिया के हम देश और हर भाषा के अखबार उपलब्ध हैं। शर्त इतनी है कि आप उस भाषा से परिचित हों।

मेरा एक लेख ''वागर्थ" पत्रिका में कुछ वर्ष पूर्व प्रकाशित हुआ था। इसमें मैंने सुझाव दिया था कि पत्रकारों को अमूल या इंडियन कॉफी वर्कर्स को-ऑपरेटिव सोसायटी की तर्ज पर अपना सहकारी संगठन खड़ा करना चाहिए। अगर हमारी दिलचस्पी स्वस्थ और स्वतंत्र पत्रकारिता में है तो वह तभी संभव है जब पत्रकार स्वयं अपने मालिक बनें। आज मैं उसी सुझाव को दोहरा रहा हूं। इसके लिए हमें हिम्मत जुटाना होगी, खतरे मोल लेना होंगे, अपने बीच में एकजुटता लाना होगी। अन्यथा जो चल रहा है, वह चलता रहेगा और हम पत्रकारिता के पतन पर अरण्य रोदन करते रहेंगे। 



Thursday 3 September 2020

कविता: रामनगर से ऐशबाग तक

 



खत्म जहाँ हुआ रायपुर का रामनगर
शुरू वहीं हुआ ऐशबाग़ भोपाल का
पता नहीं रेल की रफ़्तार थी
या रफ़्तार जिंदगी की कि
बरसों से कदमताल देते आये
जो खड़े-खड़े एक मुकाम पर
खिसक कर एक-दूसरे के इतने करीब आये

बीते कितने बरस उनके
रेल लाईन के इस किनारे
जो कभी कोयला बनने के काम आयी
तो कभी जेब काटने के लिये
कभी कट गये धोखे से तो
कभी जानबूझकर मर जाने के लिये
लेकिन नहीं पहुंच पाये दुबारा वे
रेल लाइन के उस किनारे
जहां कभी खेत थे, खलिहान  थे
जहाँ आज चावल मिलें हैं, ऐशबाग़ है

उठी एक दर्जन चावल मिलें
रामनगर की छाती पर
दूर से आती नज़र उनमें सबसे भव्य
किसानों की सहकारी राइस मिल
जिसके अहाते में अध्यक्ष का सजा कमरा
सुन्दर सा रेस्टहाऊस भी
उठती है मिलों की चिमनियों से
काले धुंए के संग-संग
पकते धान की दूधिया गंध और
भात की ललचाती खुशबू
उठती है और ऊपर
और ऊपर उठती चली जाती है
सीमेंट के साइलों में कैद
रहा आता है टनों चावल
बिकने या फिर सड़ने के लिये

बना है रेल लाइन के नजदीक ही
देश के भावी कर्णधारों का
गर्वोन्नत इंजीनियरिंग कॉलेज भी
जहाँ आते हैं पढ़ने लाड़ले सपूत
देश के प्रदेश के कोने-कोने से
लेकिन खाली रही आती हैं
जिनकी सुरक्षित सीटें
वे पार नहीं कर पाते, रेल लाइन के
उस किनारे से सिर्फ दो पाँतों की दूरी

पढ़ाई शुरू कर भिक्षावृत्ति के स्कूल से
उन्होने जेबकटी के काँलेज से स्नातक होकर
थामा एक आधा ब्लेड
कैलिपर थामने का सपना देखते-देखते,
ज्यादा हुआ तो उठाया हाथों में
उन्होने बूट-पॉलिश का बक्सा,
या सड़क पर बीनने लगे वे
काँच के टुकड़े, अखबारों की रद्दी,

सामने, एकदम सामने, रेल लाइन के पार
दीखते हैं अखबारों के दफ़्तर,
द्रवित बहुत हैं संपादकगण
रद्दी बटोरते बच्चों की दारूण गाथा से,
भेजे उन्होने रिपोर्टर
भेजे गये फोटोग्राफर भी,
लिखी मर्मस्पर्शी शब्दों मे उनकी व्यथा
लिख कर लंबे समय तक भूल जाने के लिए
लेकिन हुए रामनगर के वासी आभारी
अखबारों के, रद्दी अखबारों के लिए
तुफानी रफ़्तार से दौड़ती ज़़िंदगी की
रेल ने कहाँ से कहाँ पहुँचाया
सोचते-सोचते यही सब
छूटा रायपुर, भोपाल आया

शान क्या है  भोपाल के ऐशबाग की                        
रेल लाइन के पार तनकर खड़ा
रौबीला स्टेडियम
पहुंचते हैं जहाँ नामी-गिरामी खिलाड़ी
और दर्शक एक-से बढ़कर एक,
स्पर्धाओं के स्वर्णकप जिनके
व्यक्तित्व के सामने पड़ जाते फीके
लेकिन बने जिनके हाथों वे क्रीड़ांगण
वे कहां से लायें निमंत्रण,खरीदें टिकिट
उनके बच्चों को खेलने के लिये
मिला बाहर की दुनिया का खुला आंगन

ऐशबाग, नाम कितना सुन्दर सटीक
राजधानी के गौरवशाली प्रतीक को
जहाँ साल के तीन सौ पैंसठ दिन
चलते हैं खेल तरह-तरह के
खेल जिनके निमंत्रण नहीं बंटते,
खेल जिनके टिकिट भी बेचे नहीं जाते,
हो जान-पहिचान का गर कोई खिलाड़ी
शाायद मिल पाये दर्शक दीर्घा का प्रवेश-पत्र
हैं अगर कुछ खुशनसीब तो
शायद बैठ पायें अध्यक्ष की दीर्घा में
वरना खुलते हैं दरवाज़े ऐशबाग के
सिर्फ 15 अगस्त और 26 जनवरी को
साल में सिर्फ दो दिन
बाकी दिन पड़े नहीं खेल में बाधा-
रेल लाइन के इस पार  से
भेजा गया खेलने जिन्हें, सो
निर्विध्न खेलने के लिये शर्त यही थी उनकी,
खिलाड़ी हैं जब वे आपके
चुनी गई है जब टीमें देख-परख कर
तब शोर न करें, भरोसा रखें
खेल पर नहीं होना चाहिए नुक्ताचीनी
बर्दश्त नहीं करेंगे कैसी भी छींटाकशी

शर्त थी बहुत वाजिब
माना उसे बहुत दिनों तक सबने,
लेकिन जागी ये कैसी बेचैनी
कसमसाने क्यों लगे
रेल लाईन के इस पार खड़े लोग,
स्टेडियम के बाहर खड़े लोग,
पड़ रही है खेल में बाधा,
शिकायत है खिलाड़ियों को और
सहमत हैं अध्यक्ष उनसे,
शोरगुल बहुत हो रहा प्रशाल के बाहर,
खेल हो या नाटक या
लता मंगेशकर का गायन,
स्टेडियम में निर्विध्न होता नहीं अब कोई काम,
बहुत सोचा है अध्यक्ष ने इस पर और
सोचकर निकाली है तरकीब,
सड़क को स्टेडियम से जरा ले जायें दूर
बीच में बने एक बागीचा खूबसूरत
शोर करने वाले भी रुकें जरा, मुग्ध हों वे
उद्यान की मनोहारी शोभा पर
भूल जायेें, क्षण भर को, जीवन भर को
रेल लाइन के किनारे,  डबरों के किनारे
अपनी ज़िंदगी की आदिम बसाहट
शोर ऐसे ही कम होगा, शायद बंद ही हो जाये
शान्त सौम्य वातावरण में चलते रहें
स्टेडियम के भीतर कार्यक्रम सारे
लेकिन काम नहीं आती तदबीर यह,
फूलों के भरम में नहीं आते वे,
टीम जिन्होने भेजी चुनकर पूछते हैं वे
कब तक आखिर कब तक
खड़े रहें वे सरहद के पार,
कहते हैं वे
जल्दी ही एक दिन
रेलगाड़ी पर सवार हम आयेगे
रामनगर से ऐशबाग तक सबको लायेंगे
कदमताल मिलाते सारे जन आयेंगे भीतर
बंद कर देंगे खेल का नाटक
और शुरू होगा तब
मेहनत की ज़िंदगी के स्टेडियम में
एक सीधा सच्चा खेल जिसमें
पसीने की बूंदों से
लबालब भरा होगा स्वर्णकप
जीत ले जायेंगे जिस
सबसे काबिल खिलाड़ी।

1988-89










देशबन्धु : चौथा खंभा बनने से इंकार- 13

 


ऐसे चार मौके आए, 1990 के दशक में तीन और 2000 के दशक में एक, जब अविभाजित मध्यप्रदेश का कोई राजनेता देश का प्रधानमंत्री बन सकता था। पहला अवसर 1991 में आया, जब कांग्रेस पार्टी ने अपने वरिष्ठ नेता और तत्कालीन उपराष्ट्रपति डॉ. शंकरदयाल शर्मा से आग्रह किया कि वे प्रधानमंत्री पद सम्हाल लें। वे इस पद के लिए हर दृष्टि से योग्य थे, लेकिन उन्होंने आयु एवं स्वास्थ्य का हवाला देकर इंकार कर दिया। यद्यपि उपराष्ट्रपति पद पर अपना कार्यकाल पूरा करने के बाद वे सर्वोच्च संवैधानिक पद याने राष्ट्रपति पद के लिए चुने गए और वहां भी उन्होंने पांच साल का कार्यकाल पूरा किया। नवनिर्वाचित लोकसभा में कांग्रेस के पास बहुमत से मात्र आठ सीटें कम थीं और डॉ. शर्मा जैसे अनुभवी और सम्मानित नेता के लिए यह शायद कोई बड़ी चुनौती नहीं थी। इस दसवीं लोकसभा में पार्टी ने मध्यप्रदेश के ही अर्जुनसिंह को सदन का नेता चुना था। डॉ. शर्मा की मनाही के बाद यदि पार्टी उन्हें प्रधानमंत्री पद के लिए चुनती तो यह एक स्वाभाविक और उचित निर्णय माना जाता।

सबको पता है कि पी वी नरसिंह राव ने 1991 में न सिर्फ लोकसभा चुनाव लड़ने से मना कर दिया था, बल्कि वे अपना साजो-सामान समेट कर आंध्र प्रदेश वापस लौट चुके थे। यह अभी तक रहस्य के आवरण में है कि वे क्यों कर दिल्ली लौटे? कांग्रेस के सामने ऐसी क्या मजबूरी थी कि राजनीति से सन्यास ले चुके वयोवृद्ध नेता को प्रधानमंत्री पद पर आसीन किया? इसके अलावा डॉ. मनमोहन सिंह क्यों वित्तमंत्री के पद पर लाए गए? और सिर्फ इतना ही नहीं हुआ। सदन के नेता अर्जुनसिंह को प्रथम पंक्ति से हटा दूसरी पंक्ति में भेज एक तरह से अपमानित किया गया। इसके बाद कांग्रेस वर्किंग कमेटी में सर्वाधिक मतों से जीतकर आए तीन नेताओं अर्जुनसिंह, शरद पवार व ए के अंथोनी के इस्तीफे लेकर उन्हें मनोनीत सदस्यों की श्रेणी में डाल दिया गया।अर्जुनसिंह ने यह पहला मौका खोया। उनके हाथ से दूसरा मौका तब फिसला जब बाबरी मस्जिद प्रकरण में श्री राव की संदिग्ध भूमिका के बाद श्री सिंह ने उनके खिलाफ बगावत की ठानी, लेकिन अपने ही दो विश्वस्त युवा शिष्यों द्वारा साथ न देने के कारण वे अलग-थलग पड़ गए और नौबत यहां तक आई कि उन्हें पार्टी छोड़ना पड़ी।

श्री राव का प्रधानमंत्री बनना जितना आश्चर्यजनक था, 2004 में मनमोहन सिंह का इस पद पर काबिज होना उससे कम अचरज की बात नहीं थी। तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. कलाम अपने संस्मरणों में स्पष्ट लिख चुके हैं कि उन्हें श्रीमती सोनिया गांधी को प्रधानमंत्री पद पर आमंत्रित करने में कोई बाधा नहीं थी, किंतु श्रीमती गांधी ने स्वयं डॉ. मनमोहन सिंह का नाम आगे किया। यह तीसरा और अंतिम अवसर था जब अर्जुन सिंह प्रधानमंत्री बन सकते थे। वे ऐसे नेता थे जो कांग्रेस पार्टी के मूल सिद्धांतों की लगातार पैरवी कर रहे थे, नेहरूवादी नीतियों के लिए पार्टी के भीतर और बाहर संघर्ष कर रहे थे, राजीव गांधी की हत्या से जुड़ी शंकाओं को लेकर लगातार सवाल उठा रहे थे, तथा सोनिया गांधी का हर तरह से साथ दे रहे थे। डॉ. सिंह ने उन्हें अपने मंत्रिमंडल में पहली बार तो शामिल किया, लेकिन 2009 में उन्हें बाहर रख अपनी नीतिगत रुझान खुले तौर पर जाहिर कर दी। 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या से लेकर 2009-10 तक का घटनाक्रम ऐसी बहुत सी शंकाओं को जन्म देता है जिनके तार विदेशी एजेंसियों से जुड़ते हैं। इन पर अलग से चर्चा की आवश्यकता है।

अर्जुनसिंह 1957 में स्वतंत्र उम्मीदवार के रूप में चुनाव जीत विधानसभा में पहुंचे थे, लेकिन शीघ्र ही वे कांग्रेस में आ गए थे। 1963 में डी पी मिश्र ने उन्हें अपने मंत्रिमंडल में शामिल किया। इसके बाद उनका सितारा लगातार बुलंद होते गया। उनसे मेरा परिचय काफी बाद में हुआ, लेकिन जब वे सेठी मंत्रिमंडल में शिक्षामंत्री थे, तब दो-एक मौकों पर मैंने उनकी खुलकर आलोचना की थी।वे 1973 में मध्यप्रदेश एकीकृत विश्वविद्यालय अधिनियम लेकर आए जो मुझे पसंद नहीं आया। इस कानून के माध्यम से विश्वविद्यालयों की स्वायत्तता का हनन हुआ, उनकी अपनी विशिष्ट पहचान निर्मित करने के अवसर समाप्त हुए, तथा वि वि के प्रशासन व उन्नयन में समाज की भूमिका सीमित कर दी गई। गो कि आगे चलकर श्री सिंह की इस सोच में परिवर्तन देखने मिला। 1973-74 में ही शिक्षामंत्री श्री सिंह रायपुर आए तो गवर्नमेंट हायर सेकेंडरी स्कूल के एक अध्यापक के सी दास ने उनकी शान में लच्छेदार भाषा में एक अभिनंदन पत्र लिखा जिसका किसी सरकारी कार्यक्रम में बाकायदा वाचन कर उन्हें भेंट किया गया। एक मंत्री की यह चापलूसी हमें नागवार गुजरी। हमने इसके खिलाफ संपादकीय लिखा और साथी प्रभाकर चौबे ने इस पर एक व्यंग्य लेख भी लिखा।

बहरहाल, शिक्षामंत्री रहते हुए अर्जुनसिंह ने शिक्षकों के हित में कुछ दूरगामी निर्णय भी लिए, जिनमें शायद सबसे अहम था अनुदान प्राप्त शालाओं के शिक्षकों को राजकीय ट्रेजरी से वेतन भुगतान। लेकिन संभवत: इस निर्णय का क्रियान्वयन उनके मुख्यमंत्री बनने के बाद ही हो सका। किसी अध्यापक मित्र को शायद सही जानकारी हो! सेठीजी के दिल्ली लौट जाने के बाद एक बार फिर श्यामाचरण शुक्ल मुख्यमंत्री बने और जैसा कि विदित है श्री सिंह को उन्होंने अपने मंत्रिमंडल में नहीं लिया। हम नहीं जानते कि इन दोनों कद्दावर नेताओं के बीच यह प्रतिद्वंद्विता की भावना कब पनपी, लेकिन यह आखिर तक कायम रही आई। 1977 में शुक्लजी चुनाव हार गए जबकि श्री सिंह को विधानसभा में विपक्ष के नेता की जिम्मेदारी सम्हालने का मौका मिला। इस भूमिका का उन्होंने बखूबी निर्वाह किया, जिसका प्रतिफल 1980 में मिला जब वे मुख्यमंत्री निर्वाचित हुए। इसमें काफी उठापटक देखने मिली। कांग्रेस हाईकमान का वरदहस्त श्री सिंह पर था, जिसकी शुक्ल बंधुओं ने देखकर भी अनदेखी कर दी। कमलनाथ  के खाते में आए बत्तीस वोट अर्जुन सिंह को हस्तांतरित कर उन्हें विजयी घोषित कर दिया गया। 

मुख्यमंत्री की कुर्सी सम्हालने के कुछ दिन बाद ही श्री सिंह ने प्रदेश के कुछ संपादकों व पत्रकारों को भोपाल निमंत्रित किया। मेरी उनके साथ यह पहली रू-ब-रू भेंट थी। वे हम लोगों से प्रदेश के विकास पर चर्चा करने उत्सुक थे, जिसका संकेत निमंत्रण पत्र में था। अधिकतर पत्रकारों ने या तो अपने निजी व्यापार से संबंधित कठिनाइयों का उल्लेख किया तो कुछ ने विज्ञापन आदि के बारे में बात की। जबलपुर के एक संपादक ने तो लघु उद्योग के अंतर्गत साबुन बनाने में कच्चा माल न मिलने की शिकायत की। वे स्वयं साबुन कारखाना चलाते थे। सी एम ने सबकी बातें बहुत गौर से सुनीं व अधिकारियों को निर्देश भी दिए। मैं प्रदेश, खासकर छत्तीसगढ़ के विकास से संबंधित कुछ सुझाव लिखकर ले गया था। वह पत्र उन्हें सौंप दिया। मेरी उनसे कोई खास बात नहीं हुई। रायपुर लौटने के कुछ समय बाद ही आईएएस श्रीमती माला श्रीवास्तव के हस्ताक्षर से एक शासकीय पत्र मिला कि मुझे पचमढ़ी में स्थापित होने वाले युवा कल्याण संस्थान का सदस्य मनोनीत किया गया है। यह उस संस्था का पहला और आखिरी पत्र था। (अगले सप्ताह जारी)

#देशबंधु में 3 सितंबर 2020 को प्रकाशित

Wednesday 2 September 2020

कविता: ब्रम्हांड जीतने की तैयारी





घोड़े की पीठ पर सवार
वह जीप की फटकी पर बैठा
एक पाँव बाहर किए
एक पाँव अंदर दिए
बाहर के पाँव सेे उसने
बासन्ती हवा को छुआ
दिसंबर की सर्दी को छुआ
एक पग से उसने मापी
रायपुर से आरंग-
महासमुंद-बागबाहरा की दूरी
एक डग से एक लोक मापा

एक पाँव भीतर रख सम्हल-सम्हल
मुश्किल से खोजी पांव भर जगह
दुनिया में टिक जाने के लिए
दोनों हाथों से कस कर पकड़ी
जीप की फटकी इस तरह
अपनी जिंदगी की लगाम थामी
कोशिश एक पूरी उम्र
ज़िंंदा रहने के लिये
छोटी-सी ज़िंदगी का हर दिन
हर पल जी लेने के लिए

कोशिश वक़्त से
काम पर पहुँचने की
कोशिश वक़्त पर
काम से घर लौटने की
थोड़ी-सी देर: ढेर सी चिंंता
पिटारा फिक्र का खुलता
समाया सागर जिसमें
अनचाही शंकाओं का
अनकही व्याकुलता जिसमें
घर के हर जन की,
उठती लहरें ऊँची-ऊँची
लौटती उसके घर 
लौटने पर
करते सब उसका इन्तज़ार
मुमकिन नहीं वह सहे इंतज़ार
किसी फुरसतिया बस का!

फुरसत नहीं उसे बिलकुल भी
दुखते पैरों का दु:ख देखे
थकी हथेलियाँ सहलाए
जिंदगी की दौड़ में शामिल
करे आराम भी 
तो कैसे
जिसने सिर्फ चलना ही सीखा
कहीं रुक पाए तो कैसे
आज सोचता वह बस यही-

दो पैरों से नापी उसने
हज़ार-हज़़ार सालों की दूरी
इतिहास की किसी डाल से उतर
बनाया कहीं कंदरा में घर
चलकर फिर वहाँ से, पहुंचा
आज की सड़क तक

कभी दो हाथ हवा में उछाल
चीखा था वह आल्हाद से
फर्क समझ कर मनुष्य होने का
मनुष्य बनकर

दो हाथों से साधा
उसने 
बेकाबू घोड़े को
तराश कर पेड़, बनाया पहिया
पहिए को लाया वह
हवाई जहाज, जीपगाड़ी तक

दो पैरों से तीन डग चल
वह कहलाया त्रैलोक्य विजेता
दो हाथों से उतारकर वह
जमीन पर ले आया गंगा
हाथ की उंगली पर साधकर
चक्र सुदर्शन वह बना त्राता

लेकिन था भोलापन  या
उसकी भलमनसाहत
दोस्ती का स्वांग रच
जो बन बैठे मालिक
उन्हें वह पहिचान न पाया
मित्रता का दम भरते
उन्होने माँगी मदद
सलाह लेने-देने का ढोंग किया
निभाई मित्रता उसने तो
दिया निश्छल मन से
पास था जो कुछ भी
घर, जमीन, खेती
पर कब पड़ी पैरों में बेड़ी
कैसे हाथों में हथकड़ी
रह गया बेखबर
कुछ जान न पाया

उठ नहीं पाया किस दिन तीसरा पग
रुक गई कब हाथों की थिरकन
बँध गयीं कब क्यों सीमाएं
वह कुछ समझ न पाया

बनाए थे कभी खुद जिसने रास्ते
बन गया वह कोल्हू का बैल
डलवा कर नकेल,
बँधवा कर आँखों पर पट्टी
बेबस चलने लगा वह
औरों की बतायी राह पर
आका ने हुक्म दिया
गुलाम उसे बजा लाया

हाँ, गुलाम ही रहा अब तक वह
अब टूटा रही है धीरे-धीरे
बहुत दिनों की बेहो
शी
आँखों में दर्ज
हो रही है सच्चाई
कोशिश कर देख रहा है
चौकन्ना होकर सारा कारोबार

दिन प्रतिदिन, चाहे 
वह
चलता हो पैदल, बैठा हो
टपरा बस में, ठेले ट्रेक्टर में
या लटका हो जीप टैक्सी से
समझ रहा है

वक़्त बहुत कम है
अपने लिये शायद बिलकुल नहीं
शायद थोड़ा-सा
आने वालों के लिये
इसलिये अब वह जल्दी में है
काम बहुत बाकी है
कितना कुछ करना है
इसलिये अब कोशिश यही उसकी
वक़्त से काम पर पहुंचने की
वक़्त पर काम से घर लौटने की

पीठ पर उठाए
दुनिया का बोझ वह
बन गया था कच्छप अवतार
अब लेकिन मंजूर नहीं
उसे कछुआ बनना
मंजूर नहीं खोल में
सिमट कर रह जाना
मेहनत बहुत की उसने
चींटी की तरह
अब लेकिन मंजूर नहीं
उसे चींटी बनना
मंजूर नहीं उसे
पैरों तले मसले जाना
चींटी की रफ्तार जीते जाना
जीप पर बैठकर आज
सोचता वह-

बैठा है घोड़े की पीठ पर
इच्छा उसकी : दिन दौड़ें
सरपट घोड़े की भाँति
वक़्त बहुत कम : जल्दी-जल्दी
पूरे हो जाएं काम सारे

चाह यही उसकी, चले
खुद वह सूरज के रथ के आगे
और सपने सैर करें
चंदा की बग्घी में

वह जो अपने हाथों से
पृथ्वी रचकर हार गया
जीप की फटकी पर बैठा
ब्रम्हांड जीत लेना चाहता है
अपने बच्चों के लिए


1989