Wednesday 27 December 2017

यात्रा वृतांत : मणिपुर : दो हजार साल पुराना किला!

                             

 इम्फाल शहर के बीच बाजार में एक चौक पर काले पत्थर की एक प्रतिमा स्थापित है। एक हाथी है और उसे साधने का प्रयत्न करता हुआ महावत है। मैंने आसपास के लोगों से पूछा किसकी प्रतिमा है, किन्तु सभी ने अनभिज्ञता प्रकट की। वहीं एक जन फुग्गे बेच रहा था। चेहरे मोहरे से पूर्वोत्तर का न होकर उत्तर भारतीय। नाम-धाम पूछने पर पुष्टि हुई कि बिहार का है। वह भी प्रतिमा के बारे में मेरी जिज्ञासा का समाधान नहीं कर पाया और न पास ही तैनात यातायात पुलिस का सिपाही। मैंने प्रतिमा की तस्वीर खींची, अपने होटल में तीन-चार लोगों को दिखाई। वे स्थानीय निवासी होने के बावजूद उससे अनभिज्ञ थे। अंतत: डॉ. नारा सिंह ने मुझे बताया कि यह मूर्ति एक बिगड़ैल हाथी और महाराजा भाग्यचंद्र द्वारा उसे साध लेने की कथा को वर्णित करती है। वे 1764 से 1768 तक मणिपुर के राजा थे। मणिपुर में कृष्ण चरित पर आधारित रासलीला प्रारंभ करने का श्रेय भी उन्हें जाता है। वे थे तो महाराजा, किन्तु उन्हें उनके उदात्त चरित्र के कारण राजर्षि की उपाधि मिली हुई थी।
मणिपुर के इतिहास की यह छोटी सी झलक पाकर अच्छा लगा, लेकिन अफसोस भी हुआ कि आज अधिकतर लोग ऐसे गुणी शासक के बारे में जानकारी नहीं रखते। प्रतिमा के नीचे कोई परिचय फलक भी नहीं था। मूर्ति के ठीक बाजू से एक फ्लाईओवर गुजरता है। हर आधुनिक नगर की यह अनिवार्य पहचान बन चुकी है। फ्लाईओवर के उस तरफ बसा है इमा मार्केट। मणिपुरी में मां को इमा कहते हैं। इस बाजार की ख्याति देश-विदेश में है। विशेषता यह है कि पूरा बाजार महिलाओं के हाथों में है। कोई एक हजार दूकानें हैं और उनका संचालन औरतें ही करती हैं। अधिकतर दूकानें साग-सब्जी, फल-फूल, किराना, बांस की टोकरियों आदि याने घर की दैनंदिन जरूरतों की हैं। कुछेक दूकानों पर मणिपुर के प्रसिद्ध ऊनी शाल व अन्य परिधान भी मिलते हैं। बाजार लगभग दस फुट ऊंचे आसन पर स्थित है। ऊपर छत है और आने-जाने के लिए अनेक जगहों पर सीढ़ियां बनी हैं। सारी दूकानें चबूतरों पर हैं जिनके बीच चलने के लिए संकरे गलियारे हैं।
मुझे इस बाजार में सबसे अधिक आकर्षण का केन्द्र वे मूर्तियां लगीं जो मुख्य द्वार से भीतर जाते साथ दाहिनी ओर स्थापित हैं। दो मूर्तियां स्लेटी पत्थर की हैं और कुछ पुरानी। उनकी आकृतियां भी अनगढ़ हैं। इनके बाजू में मणिपुरी वस्त्रों से सुसज्जित सुंदर भावभंगिमा वाली दो छोटी-छोटी मूर्तियां और हैं। इन दोनों मूर्ति युगलों की पूजा होती है और पत्र पुष्प चढ़ाए जाते हैं। आसपास की दूकानदार महिलाओं से जानना चाहा कि ये कौन हैं। उन्होंने मणिपुरी के साथ टूटी-फूटी हिन्दी-अंग्रेजी में जो उत्तर दिया वह पल्ले नहीं पड़ा। बाद में जानकारी मिली कि ये बाजार के रक्षक देवी-देवताओं की मूर्तियां हैं। एक तरह से क्षेत्रपाल। अनगढ़ मूर्तियां पुरानी हैं, लेकिन बाद में किसी कलाकार ने अपनी प्रतिभा का परिचय देते हुए बाजू में आकर्षक मूर्तियां बनाकर स्थापित कर दीं। इस बाजार में सौदा-सुलफ तो हर तरह का था और खरीदारी के साथ पर्यटकों की संख्या भी कम न थी; लेकिन मुझे यहां कोई खास बात प्रतीत नहीं हुई। मणिपुर के अन्य नगरों में व इम्फाल के अन्य बाजारों में भी सब तरफ महिलाएं ही दूकानों पर दिखीं। लेकिन अच्छा है कि मणिपुर ने इस बाजार  की मार्केटिंग भली प्रकार की है जिससे यह पर्यटकों के आकर्षण का केन्द्र बन गया है।
मैं मणिपुर अखिल भारतीय शांति एवं एकजुटता संगठन (एप्सो) की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में भाग लेने गया था। डॉ. नारा सिंह हमारे उपाध्यक्ष हैं। वे सीपीआई के नेता हैं। अनेक बार विधायक, दो बार मंत्री रह चुके हैं। पेशे से डॉक्टर हैं। विमानतल से होटल की ओर जाते हुए एक स्थान पर उन्होंने ध्यान आकृष्ट कराया। एक विशाल सिंहद्वार, उससे लगकर कोई आधा किलोमीटर तक सड़क के साथ चलती हुई चारदीवारी, बाहर पुराने जमाने की एक नहरनुमा खाई। नारा जी ने बताया यह प्राचीन कंगला फोर्ट है। सन् 0038 याने दो हजार साल पहले कंगला राजवंश ने इसे बनाया था। कभी मिट्टी का किला रहा होगा। फिलहाल वहां भीतर एक बगीचा और एक म्यूजियम मात्र है। अंग्रेजों के समय से यह असम राइफल्स के पास था। डॉ. मनमोहन सिंह ने अपने प्रधानमंत्री काल में सेना से इसे वापिस लेकर राज्य सरकार को सौंप दिया है। अब वनविभाग इसकी देखभाल करता है। मेरे लिए यह जानना रोचक था कि देश में मेवाड़ से भी पुराना कोई राजवंश और चित्तौड़ से भी पुराना कोई किला था।
मेरा विमान सात दिसम्बर की सुबह जब इम्फाल हवाई अड्डे पर उतर रहा था, तो यह देखकर सुकून मिला कि आसपास बहुमंजिलें भवन नहीं थे और चारों तरफ पहाड़ियां व हरियाली थी। यह राजधानी से आठ किलोमीटर दूर का नजारा था। शहर में खूब भीड़-भाड़ थी, वाहनों का शोर व धुआं था, बीच बाजार में तो पैदल चलना भी मुश्किल था। दूसरे दिन सुबह मैं होटल से बाहर घूमने निकला। कंगला फोर्ट का पश्चिमी द्वार आधा किलोमीटर से कुछ अधिक दूर था। वहीं एक चौराहा था। सुबह आठ बजे भी खासी गहमागहमी थी। मैं वापिस लौटने लगा तो देखा एक सिरे से बस कंपनियों के काउंटर बने हुए थे। इम्फाल से दीमापुर, कोहिमा, गुवाहाटी जाने के लिए बसें और मिनी बसें खड़ी थीं। इनके बीच खासी स्पर्धा होती होगी। म्यांमार की सीमा पर स्थित मोरे तक जाने के लिए भी बसें उपलब्ध थीं। आसपास चाय-नाश्ते के लिए छोटी-छोटी गुमटियां थीं और राईस होटलों के बोर्ड लगे थे जहां चावल और शोरबा ही मिल सकता था।
यहीं मेरी दृष्टि गन्ना रस के एक ठेले पर पड़ी। ठेलेवाले को देखकर अनुमान लगाया कि वह बिहार का होगा। अनुमान सही था। उमाशंकर बक्सर जिले का है। पिछले बीस साल से यहां रह रहा है। किसी परिचित के साथ आ गया था। पहले किसी दूकान पर नौकरी की मजदूरी भी, फिर किसी स्थानीय मित्र ने मदद की तो ठेला लगा लिया। पत्नी गांव में है, बच्चों को यहां साथ रखकर पढ़ा रहा है, कमाई ठीक-ठाक हो जाती है। मैं वापिस लौटा तो होटल के बाहर ही एक छोटा-मोटा बाजार नजर आया, वहां मुझे गन्ना रस बेचते हुए बिहार के सासाराम जिले के हरेराम मिल गए। वे चालीस साल से यहां हैं। बच्चे भी साथ में हैं। बड़े हो गए हैं, काम करते हैं। एक तो सीमा पर स्थित मोरे से सामान लाकर बेचता है। उसमें अच्छी कमाई हो जाती है। गांव में दो-चार बीघा जमीन भी खरीद ली है। हरेराम ने बताया कि इम्फाल में बिहार के कई हजार लोग काम कर रहे हैं। उन्हें कोई असुविधा नहीं है। अपना देश है, कहीं भी जाकर रोजी-रोटी कमा सकते हैं।
हम होटल इम्फाल में ठहरे थे। पहले यह पर्यटन विभाग का होटल था और ले-देकर चलता था। इसे बाद में निजी हाथों में सौंप दिया गया। यहां बरकत नामक युवा ने कमरे तक मेरा सामान पहुंचाया।  मैंने उसे सामान्य पोर्टर समझा था। बातचीत में मालूम हुआ कि वह राजनीतिशास्त्र में एम.ए. है। सरकारी नौकरी मिलना कठिन है इसलिए जो काम मिल गया, कर रहा है। पिता नहीं है, परिवार को चलाना है। बरकत ने बताया कि मणिपुर में अल्पसंख्यक तेरह-चौदह प्रतिशत हैं और वे स्थानीय निवासी ही हैं और उनका खान-पान व अधिकतर रीति रिवाज वैसे ही हैं जो अन्य जातीय समुदायों के हैं। वैसे मणिपुर में तीन जातीय समुदाय मुख्य हैं- मैतेई, कूकी और नगा। इनके बीच जातीय संघर्ष चलते रहते हैं। मैतेई वैष्णव हैं और मुस्लिम बाकी देश से न्यारे मणिपुरी मुस्लिम कहलाते हैं। वे इम्फाल घाटी में मुख्यत: रहते हैं। कूकी ईसाई हैं, उनका वास चूड़ाचांदपुर (चूड़ाचांद भी एक महाराजा थे) और उसके आसपास के पहाड़ी क्षेत्र में है। नगा भी पहाड़ी क्षेत्र के ही निवासी हैं।
इस समय मणिपुर में सबसे बड़ी राजनीतिक चिंता वर्तमान केन्द्र सरकार द्वारा किए गए गुप्त नगा समझौते को लेकर है। किसी को नहीं पता कि इसमें क्या है। वे चिंतित हैं कि भारत सरकार कहीं नगा समुदाय के सामने झुककर नगालिम याने वृहतर नगालैंड की मांग स्वीकार न कर ले जिसमें मणिपुर से कुछ जिले भी उनको दे दिए जाने का प्रस्ताव है। प्रदेश में जोड़-तोड़ से बनी भाजपा सरकार है और वह नागरिकों को हर तरह से आश्वस्त करने में लगी है कि मणिपुर की क्षेत्रीय अखंडता के साथ कोई समझौता नहीं किया जाएगा। गृह मंत्री राजनाथ सिंह भी ऐसा आश्वासन दे चुके हैं। लेकिन जनता को इन पर विश्वास नहीं हो रहा है।
देशबंधु में 28 दिसंबर 2017 को प्रकाशित 

Wednesday 20 December 2017

यात्रा वृतांत: फ़ाज़िल्का की हवेली

                                             

 यह कल्पना करना कठिन नहीं है कि 1966 में और फिर 1968 में जब मैं दुबारा वहां गया तब फ़ाज़िल्का एक बड़े कस्बे जैसी जगह रही होगी। विगत पचास वर्षों में देश के हर शहर और हर गांव का नक्शा बदला है, तो पश्चिमी सीमा पर बसा यह नगर भी उस बदलाव से अछूता कैसे रहता! प्रसंगवश मुझे ध्यान आता है कि मध्यप्रदेश के होशंगाबाद जिले में पिपरिया के पास बनखेड़ी एक साधारण गांव था। दो-तीन साल पहले वहां से गुजरा तो देखा रेल लाइन के पास नई बनखेड़ी के नाम से एक समानांतर बसाहट कायम हो गई है। इसी तरह कुछ वर्ष पूर्व कवर्धा से राजनांदगांव के लिए देर शाम निकला तो रास्ते में सहसपुर लोहारा की जगमगाहट देखकर आश्चर्य में पड़ गया। जो गांव पहले सड़क से काफी भीतर हुआ करते थे अब वे सड़क किनारे आ गए हैं और सड़क किनारे के खेतों की जगह बड़े-छोटे मकान तन गए हैं। यह बदलाव हम रायपुर में भी तो देख रहे हैं जहां क्रमश: रायपुर, पुरानी बस्ती, बूढ़ापारा से शंकरनगर, अनुपम नगर होते हुए अब एक नए शहर के रूप में नया रायपुर विकसित हो रहा है।
फ़ाज़िल्का पिछली दो बार की तरह इस बार भी हम एक वैवाहिक कार्यक्रम में शरीक होने ही गए थे। आत्मीय परिजन रमेश जिनके बेटे का विवाह था, उन्होंने हम कुछ लोगों के ठहरने की व्यवस्था हाल-हाल में खुले एक नए होटल में की थी। यह होटल एक नई सड़क पर था जिसका नाम भी न्यू अबोहर रोड था। उस पर एक फ्लाईओवर भी बन गया था। इस रोड पर हमारे होटल के आगे कोई आधा दर्जन नई शैली के विवाह मंडप बन गए थे। उनकी भव्यता चकित करने वाली थी। इनमें सौ-सौ गाड़ियां खड़ी हो जाएं, इतनी बड़ी पार्किंग व्यवस्था थी। ठंड के दिन हैं तो हाल में भोजन व्यवस्था और वह भी ऐसी कि एक बार में चार-पांच सौ लोग साथ-साथ खड़खाना (बूफे को यह नाम मराठी के प्रसिद्ध व्यंग्य लेखक गंगाधर गाडगिल का दिया हुआ है) का आनंद ले सकें। रायपुर जैसे बड़े शहर में ऐसी व्यवस्था हो तो किसी को आश्चर्य नहीं होगा। पंजाब के सीमावर्ती नगर में भी अगर ऐसा ही सरंजाम था तो शायद इसका श्रेय पंजाबी समाज की उत्सवप्रियता को दिया जा सकता है। सामान्यत: विवाह में भोजन शाकाहारी ही होता है, लेकिन यदि विवाह मंडप में मद्यपान की व्यवस्था भी हो तो इसे उनकी उत्सव मनाने की परंपरा का अंग मानना चाहिए।
एक तरफ विकसित होता हुआ नया इलाका और दूसरी ओर नगर की पुरानी बसाहट। फ़ाज़िल्का और आसपास का क्षेत्र कपास उत्पादन के लिए प्रसिद्ध रहा है। यहां के कपास की बिक्री मुख्यत: लगभग पचास किलोमीटर दूर अबोहर में होती थी इसलिए आज भी अबोहर के साथ मंडी प्रत्यय जुड़ा हुआ है। जबकि फ़ाज़िल्का को स्थानीय लोग आपस में नगर कहकर पुकारते हैं। यह पर्यायवाची कैसे प्रचलित हुआ मैं नहीं जान पाया, लेकिन अनुमान लगाता हूं कि कपास नकदी फसल है, यहां के किसान पहले से ही समृद्ध रहे हैं, उसके अनुरूप यहां नागरिक सुविधाएं विकसित हुई होंगी और नगर का विशेषण इसीलिए मिल गया होगा। मेरा यह अनुमान दो-ढाई दिन के प्रवास में पुष्ट हुआ। जब हम पहुंचे तो भाई रमेश ने कुछ अफसोस जताते हुए कहा कि मैं तो आपको हवेली में ठहराना चाहता था, लेकिन आप वहां अकेले न पड़ जाएं इसलिए होटल में आपकी व्यवस्था की है। मैं यह सुनकर ही चौंक गया कि यहां ऐसी कौन सी हवेली है! 
शहर के पुराने हिस्से में बीच बाजार एक संकरी गली में जब हवेली देखी तो आश्चर्य के साथ-साथ प्रसन्नता भी बहुत हुई। मुझे तो जैसे एक नायाब खजाना हाथ लग गया। इतिहास, पुरातत्व, विरासत स्थल इन सब में मुझे गहरी रुचि है इसलिए यह प्रसन्नता हुई। यह हवेली सन् 1845 में बनी थी याने आज से लगभग पौने दो सौ साल पहले। राजस्थान में बीकानेर के पास किसी छोटे गांव से निकलकर सूरतगढ़, श्रीगंगानगर होते हुए माहेश्वरी समाज से संबंधित एक पेड़ीवाल परिवार सन् 1841 में यहां व्यापार के सिलसिले में आकर बसा था। चार साल के भीतर उन्होंने अपने रहने के लिए यह हवेली बनवाई थी। इसमें कालांतर में परिवर्तन भी हुए, कुछ नया निर्माण भी हुआ और परिवार बढ़ने के साथ-साथ आगे चलकर विभाजन भी हुआ। हवेली का जो भाग हमने देखा उससे लगे हुए उसी परिवार के दो अन्य रिहायशी भवन भी हैं इन्हें देखते हुए मुझे जबलपुर में राजा गोकुलदास महल, जिसे बखरी के नाम से जाना जाता है, का ध्यान आ गया। यह हवेली उस बखरी का एक लघुरूप ही मुझे प्रतीत हुई।
सुशील पेड़ीवाल हवेली के वर्तमान मालिक हैं। उन्होंने अपने दादा रायसाहब शोपतराय पेड़ीवाल की स्मृति में इसका नामकरण किया है। पेड़ीवाल परिवार का पिछले डेढ़ सौ साल से व्यापार जगत में नाम है ही, उन्होंने जिस जगह आकर भौतिक समृद्धि अर्जित की, उस मिट्टी के प्रति अपना कर्ज उतारने के भी उपक्रम किए। सौ साल से अधिक पुराने सिविल अस्पताल का जनाना वार्ड इसी परिवार ने बनवाया, जलप्रदाय व्यवस्था भी की और बाजार चौक में घंटाघर का निर्माण भी करवाया। इनकी तीन-चार पीढ़ियां भी स्थानीय नगरपालिका में अध्यक्ष पद पर काबिज रहीं। घंटाघर हवेली से कोई आधा फर्लांग की दूरी पर है। उसका रख-रखाव आज भी सुशील पेड़ीवाल के सहयोग से होता है। इसका निर्माण हुए भी सौ साल से ऊपर हो गए हैं और इस नाते इसकी गणना भी विरासत स्थल के रूप में होने योग्य है।
बहरहाल हवेली की बात करें। यह एक खूबसूरत आवासीय भवन है, जिससे हमें आज से दो सौ साल पहले की अपने देश की भवन निर्माण कला और कौशल का परिचय मिलता है। इसमें दरवाजों पर की गई नक्काशी बेहद खूबसूरत है। पुराने चित्र और भित्तिचित्र हैं। वे उस दौर के कलाकारों की प्रतिभा को दर्शाते हैं। भवन के बीच में खुला आंगन है जैसे कि पहले के अधिकतर मकान हुआ करते थे। खुले आंगन के कारण तापमान को संतुलित करने में मदद मिलती है। एक रोचक बिन्दु ध्यान में आया कि भूतल पर सीढ़ी के बाजू में एक चार फुट ऊंची और एक बड़ी टेबल के आकार की मोटी सी लोहे की तिजोरी है, लेकिन सुशीलजी ने बताया कि यह सिर्फ तिजोरी का दरवाजा है। इसका ढक्कन खोलने पर नीचे जाने के लिए सीढ़ियां हैं। नीचे उस तलघर में कभी वजन से तौलकर थैली  में बांधकर चांदी के सिक्के जमा कर दिए जाते थे। कुछ अन्य कमरों में भी तिजोरियां रखी हुई हैं वे भी इंग्लैंड की बनी। इन पर भारी-भरकम ताले लगे हुए हैं जिन्हें छोटा-मोटा चोर तो नहीं खोल सकता।
सुशीलजी ने हवेली का थोड़ा कायाकल्प किया है। हाल के वर्षों में अनेक पूर्व राजाओं ने अपने महलों को हैरिटेज होटल में तब्दील कर दिया है। हवेली को होटल तो नहीं बनाया गया है, लेकिन इतनी व्यवस्था अवश्य है कि विदेशी पर्यटक या खास मेहमान आएं तो उन्हें यहां आराम के साथ ठहराया जा सके। सुशील पेड़ीवाल कलात्मक रुचि सम्पन्न हैं। उन्होंने हवेली की शोभा बढ़ाने के लिए देश के अनेक स्थानों से हस्तशिल्प लाकर इस स्थान को अलंकृत कर दिया है। यहां भित्तिचित्र, नक्काशी, पेटिंग्स और अन्य कलाकृतियों को अगर इत्मीनान के साथ देखना चाहें तो एक पूरा दिन तो लग ही जाएगा। बहरहाल मुझे अच्छा लगा कि सुशीलजी न सिर्फ अपने पूर्वजों द्वारा छोड़ी गई संपत्ति की देखभाल कर रहे हैं बल्कि वे देश की लगभग दो सदी पुरानी कलाकारी और कारीगरी का भी संरक्षण कर रहे हैं। 
वे हमें हवेली दिखा रहे थे। बातचीत में मालूम हुआ कि पास के किसी गांव में उनका कृषि फार्म भी है। वे हमें वहां भी ले गए। जहां हमने आधुनिक तकनीक से खेती और बागवानी होते देखी। जिस पॉली हाउस पद्घति को सामान्य तौर पर किसानों के लिए घाटे का सौदा माना जाता है, वहीं सुशील पेड़ीवाल पॉली हाउस में टमाटर और अन्य सब्जियों की फसलें ले रहे हैं। उन्होंने एक सिरे से जामुन के सौ-दो सौ पेड़ लगाए हैं जिससे भी वे संतोषजनक आमदनी कर लेते हैं। कीनू के ग्यारह सौ पेड़ उन्होंने लगाए हैं, जिनकी बल्कि पूरे फार्म की मॉनीटरिंग सीसी टीवी से होती हैं। इस तरह एक ओर हमने फ़ाज़िल्का की विरासत से परिचय पाया, वहीं दूसरी ओर आधुनिक और उन्नत कृषि का भी एक मॉडल देखा। इस वृतांत को समाप्त करने से पहले दो-एक छोटी-छोटी बातें और। हरियाणा में सारे साइन बोर्ड देवनागरी में, पंजाब में सिर्फ गुरुमुखी में।
फ़ाज़िल्का के पुराने बाजार में ही हिन्दी के साइन बोर्ड दिखे। चार सौ किलोमीटर के रास्ते में जो भी अच्छे-बुरे ढाबे थे वे सब के सब 'शाकाहारी वैष्णो ढाबा' थे। कुछ गांवों के नाम दिलचस्प थे जैसे बहू अकबरपुर और अबुल खुराना। आखिरी बात, आप कभी इस रास्ते पर जाएं तो हिसार के पास हांसी के पेड़े और दूध की दूसरी मिठाइयों का स्वाद लेना न भूलें।
देशबंधु में 21 दिसंबर 2016 को प्रकाशित 

Wednesday 13 December 2017

यात्रा वृतांत : पश्चिमी सीमांत की ओर


 पूर्वी दिल्ली में यमुनापार बेटी तिथि के घर से निकलकर रोहतक रोड पर पीरागढ़ी चौक तक पहुंचने में ही एक घंटा लग गया। इसके बाद आधा घंटा बहादुरगढ़ चौक तक पहुंचने में लगा जहां से हमें देश की पश्चिमी सीमा तक जाने वाले राष्ट्रीय राजमार्ग पर चलना था। गूगल का नक्शा बता रहा था कि घर से फ़ाज़िल्का पहुंचने में आठ घंटे लगेंगे। हमने सोचा था नाश्ता करके आराम से नौ बजे निकलेंगे और पांच बजे गंतव्य तक पहुंच जाएंगे। अगर वैसा करते तो दिल्ली पार करने में ही ढाई-तीन घंटे निकल जाते। अजय की सलाह मानकर साढ़े सात बजे निकले तो सड़कों पर यातायात का दबाव अपेक्षाकृत कम था और हम आठ-साढ़े आठ घंटे में सफर तय कर सके। लौटते समय अवश्य मुसीबत हुई। दिल्ली में प्रवेश करते हुए पांच बज चुके थे और कम टै्रफिक वाले एक लंबे रास्ते पर चलकर घर पहुंचने में दो घंटे से अधिक वक्त लग गया। इतनी मैट्रो, इतनी बसें, इतने फ्लाईओवर, फिर भी दिल्ली में यातायात के हाल बेहाल हैं और उसके चलते जो प्रदूषण बढ़ रहा है उससे भी दिल्लीवासी त्रस्त हैं।
बहरहाल हम जा रहे थे फ़ाज़िल्का। इक्यावन साल पहले पहली बार इस सीमांत नगर में आने का मौका मिला था। बुआजी के बेटे अनुपम भैया की बारात में। यह अप्रैल 1966 की बात है। 1965 के भारत-पाक युद्ध को बीते बमुश्किल छह माह ही हुए थे। सारे बाराती नगर से लगभग तेरह किलोमीटर दूर बार्डर तक गए थे। न कांटेदार तार और न कोई दीवार। बस इस पार और उस पार साधारण सी चेकपोस्ट बनी थीं। पाकिस्तानी सिपाहियों ने भी हम लोगों का अभिवादन किया था कि आप हमारे गांव की बेटी लेने आए हैं। इन पांच दशकों में बहुत कुछ बदल गया है। अब जैसे वाघा बार्डर पर शाम की परेड होती है उसी का लघु संस्करण फ़ाज़िल्का बार्डर पर भी देखने मिलता है। दोनों तरफ दर्शक दीर्घा भी बन गई हैं। इसी तरह का एक दृश्य तीन एक साल पहले फिरोजपुर के पास हुसैनीवाला बार्डर पर देखा था। वाघा चूंकि अमृतसर के निकट है इसलिए वहां काफी गहमागहमी रहती है। हुसैनीवाला और फ़ाज़िल्का में हम जैसे भूले-भटके  पर्यटक परेड का नजारा देखने आ जाते हैं।
दिल्ली से फ़ाज़िल्का के कुछ पहले मलौट नगर तक राष्ट्रीय राजमार्ग-9 चलता है। इसे अगर मैं वीवीआईपी राजमार्ग की संज्ञा दूं तो अतिशयोक्ति न होगी। बहादुरगढ़ चौक पार करने के बाद महम पड़ता है। यह आधुनिक हरियाणा के निर्माता बंशीलाल का नगर है। बंशीलाल ही थे जिन्होंने हरियाणा को देश में सबसे पहले पूर्ण विद्युतीकृत राज्य बनाने का काम किया था। यही बंशीलाल थे जो आगे चलकर आपातकाल की ज्यादतियों के लिए अपयश के भागीदार बने थे। महम से आगे बढ़ो तो हिसार आता है। यह भजनलाल का चुनाव क्षेत्र है। ओ.पी. जिंदल और उनके बेटे यहीं से आगे बढ़े हैं। सावित्री देवी जिंदल भारत की सबसे धनी महिला मानी जाती हैं। भजनलाल और जिंदल को पीछे छोड़ते हुए थोड़ी देर बाद हम अग्रोहा से गुजरते हैं जो अग्रवाल समाज के लिए एक तीर्थ का रूप ले चुका है। इसके बाद आता है सिरसा। पाठकों को ध्यान होगा कि गुरमत रामरहीम के कारण यह नगर हाल के दिनों में सुर्खियों में आ चुका है। हरियाणा के एक और पूर्व मुख्यमंत्री जिन्हें देश का उपप्रधानमंत्री बनने का सौभाग्य मिला, उन चौधरी देवीलाल का गांव चौटाला सिरसा से बहुत दूर नहीं है। ताऊ के पुत्र ओमप्रकाश चौटाला भी मुख्यमंत्री रह चुके हैं।
अभी तक हम हरियाणा में हैं। कुछ किलोमीटर आगे मंडी डबवाली है। यहां बीस वर्ष पूर्व 23 दिसम्बर 1996 को भीषण अग्निकांड में कई लोगों की मौत हो गई थी। इस नगर की खासियत है कि आधा शहर हरियाणा में और आधा पंजाब में पड़ता है। रेलवे स्टेशन शायद पंजाब में है। पंजाब के बुजुर्ग नेता और पांच बार मुख्यमंत्री रहे प्रकाशसिंह बादल का गांव बादल  तथा विधानसभा क्षेत्र लांबी भी इसी सड़क पर है। इस तरह लगभग तीन सौ किलोमीटर के भीतर हम एक उपप्रधानमंत्री, आधा दर्जन मुख्यमंत्री और लगभग उतने ही सांसदों के गांवों से गुजरते हैं। इन सबने भारत की राजनीति-वाणिज्य, व्यापार और धर्म-आध्यात्म को अपनी-अपनी तरह से प्रभावित किया है। ... तो हुआ न यह वीवीआईपी रोड !
फ़ाज़िल्का की ओर जाते समय बहादुरगढ़ के पास एक बेहतरीन ढाबा मिल गया था। सोचा था कि दोपहर का भोजन आगे चलकर ऐसे ही किसी अच्छी जगह पर कर लेंगे। पंजाब-हरियाणा की सड़कें तो अच्छी हैं ही, वहां रास्ते में ढाबे भी बहुत अच्छे हैं, यह हमने सुन रखा था। लेकिन आश्चर्य की बात कि पूरे रास्ते हमें कहीं भी भोजनालय तो क्या, चाय की दूकान भी ठीक-ठाक नहीं मिली। गनीमत थी कि साथ में रोटी-सब्जी लेकर चले थे। मंडी डबवाली में टैक्सी को पंजाब का रोड टैक्स पटाना था, चौकी पर तैनात कर्मचारी कहीं गया हुआ था; उसके इंतजार में गाड़ी में वहीं बैठे-बैठे हमने टिफिन खोलकर भोजन कर लिया। इस बीच मोबाइल पर एसएमएस आया- पंजाब में आपका स्वागत है। कोई दिक्कत हो तो डिप्टी चीफ मिनिस्टर से फलाने नंबर पर बात कीजिए। मैं फोन लगाने ही वाला था कि आरटीओ का कर्मचारी लौट आया और शिकायत करने की नौबत नहीं आई। 
हरियाणा-पंजाब दोनों में पहले गेहूं बहुत होता था, बाद में बड़े पैमाने पर धान की फसल किसान लेने लगे। रास्ते के दोनों तरफ खेतों में धान कट चुकी थी। अनेक स्थानों पर गन्ने की फसल लहलहाती हुई मिली। दो-तीन जगह शक्कर कारखाने भी नज़र आए। अनेक स्थानों पर नहर से आबपाशी की सुविधा है, लेकिन अधिकतर खेतों में ट्यूबवेल लगे हुए देखे। सड़क के दोनों किनारों पर कांस की ऊंची-ऊंची झाड़ियां यहां से वहां तक देखने मिलीं, और साथ-साथ बबूल और महारुख के पेड़। आम के वृक्ष कहीं-कहीं ही दिखे। रोहतक बहादुरगढ़ के बीच कुछेक अमरूद याने बिही के बगीचे थे और सड़क किनारे अमरूद की ढेरियां बिक्री के लिए लगी हुई थीं। उधर लांबी के आसपास कीनू के उद्यान भी कहीं-कहीं दिखे। कीनू एक तरह का संतरा ही है जो इधर लोकप्रिय होने लगा है। हरियाणा और पंजाब का मैदानी इलाका इस तरह एक अलग ही दृश्यावली प्रस्तुत करता है। दूर-दूर तक फैले खेत, उनके बीच में कीकर याने बबूल के वृक्ष, फसल कट जाए तो मिट्टी का धूसर रंग, लेकिन उसी में जब सरसों फूलने लगे तो एक नई तरह की छटा।
मैं यह सोच-सोच कर परेशान था कि इस रास्ते पर खाना छोड़, चाय तक क्यों नहीं मिल रही है। सिरसा बस्ती में कुछ अच्छे रेस्तरां हैं, ऐसा गूगल पर आ रहा था, लेकिन हम बायपास से गुजर रहे थे और वहां कुछ भी नहीं था। मंडी डबवाली भी खासी बड़ी बस्ती है, लेकिन वहां हमें सिर्फ मोटर पार्ट्स की दूकानें और मोटर गैरेज ही दिखाई दे रहे थे। कुछेक स्थानों पर बड़े-बड़े मैरिज गार्डन और मैरिज पैलेस दिखाई दिए, लेकिन वहां भी चाय मिलने की कोई उम्मीद नहीं थी। हिसार में विश्वविद्यालय है, कृषि और पशुपालन से संबंधित केन्द्र सरकार के संस्थान हैं लेकिन वहां भी बायपास पर कुछ नहीं था। लौटते समय सिरसा के पास एक छोटे से होटल में रुके तो उस होटल के मालिक ने मेरी शंका का समाधान किया। यह सड़क बार्डर तक जाती है। यहां टूरिस्टों का कोई खास आना-जाना नहीं है इसलिए यहां होटल-ढाबे नहीं चलते। बाकी जो स्थानीय लोग हैं वे घंटे-दो घंटे में अपने ठिकाने पहुंच ही जाते हैं। उन्हें रास्ते में रुकने की जरूरत ही नहीं।
हम जब दिल्ली से रवाना हुए थे तो महानगर के पश्चिमी छोर पर एक स्थान पड़ा हिरणकूदनी। श्रीमतीजी ने उस ओर ध्यान  आकृष्ट किया। मन में विचार उठा कि यह नाम इसीलिए पड़ा होगा कि कभी यहां हिरणों का वास रहा होगा! आज भी दिल्ली-गुड़गांव के बीच कहीं-कहीं मोर देखने मिल जाते हैं। इधर हिरण रहते होगें, लेकिन दिल्ली के विस्तार ने सबको लील लिया है।  दिल्ली में जब मेट्रो प्रारंभ हुई, तो पश्चिमी दिशा में मुंडका उसका आखिरी स्टेशन था, वहां दिल्ली मेट्रो कार्पोरेशन का बहुत बड़ा कई एकड़ में फैला यार्ड है; लेकिन अब हरियाणा में बहादुरगढ़ तक मेट्रो बिछ रही है और वहां भी एक बड़ा मेट्रो यार्ड बन रहा है। हिरणों का कूदना अब सिर्फ स्मृतियों में बचा रहेगा। 
देशबंधु में 14 दिसंबर 2017 को प्रकाशित 

Monday 11 December 2017

डॉ. रमन के चौदह साल

                                        
छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह ने अपने कार्यकाल के चौदह वर्ष पूरे कर लिए हैं। अविभाजित मध्यप्रदेश के राजनैतिक इतिहास में इस तरह उन्होंने एक रिकार्ड अपने नाम कर लिया है। 1985 में जब अर्जुन सिंह के नेतृत्व में कांग्रेस ने लगातार दूसरा चुनाव जीता तो वह इस तरह का पहला रिकार्ड था। दूसरा रिकार्ड कायम किया दिग्विजय सिंह ने जो 1993 से 2003 तक लगातार  दस साल मुख्यमंत्री रहे। मध्यप्रदेश में उमा भारती और बाबूलाल गौर के बाद शिवराज सिंह चौहान मुख्यमंत्री बने, उन्होंने ग्यारह वर्ष से अधिक समय तक पद पर रहकर दिग्विजय सिंह का रिकार्ड तोड़ दिया। वैसे पुराने मध्यप्रदेश में, जिसे सीपी और बरार के नाम से जाना जाता था, पंडित रविशंकर शुक्ल 1947 से 1956 तक लगातार मुख्यमंत्री रहे थे। यह तो हुई प्रदेश की बात। राष्ट्रीय परिदृश्य पर नज़र दौड़ाएं तो पाते हैं कि सिक्किम के मुख्यमंत्री पवन कुमार चामलिंग सर्वाधिक लंबी अवधि तक रहने वाले मुख्यमंत्री बन गए हैं। देश में सबसे पहले मोहनलाल सुखाडिय़ा ने राजस्थान के मुख्यमंत्री के रूप में सत्रह साल लंबी पारी खेलने का रिकार्ड बनाया था। पश्चिम बंगाल में ज्योति बसु ने उस रिकार्ड को तोड़ा। वे तेईस साल मुख्यमंत्री रहे। सिक्किम के चामलिंग अपनी पांचवी पारी के आखिरी चरण में हैं। उड़ीसा में नवीन पटनायक  चौथी पारी के अठारह साल पूरे कर चुके हैं। इस तरह वर्तमान समय में डॉ. रमन सिंह कीर्तिमान बनाने की दृष्टि से तीसरे क्रम पर हैं।
छत्तीसगढ़ में अगले साल विधानसभा चुनाव होंगे तब तक डॉ. रमन सिंह के कार्यकाल को पन्द्रह वर्ष पूरे हो जाएंगे। यह देखना दिलचस्प है कि उनको पद से हटाए जाने की अफवाहें लगातार उड़ाई जाती हैं जो अंतत: झूठी सिद्ध होती हैं, फिर भी यह सिलसिला रुकता नहीं है। इसलिए स्वाभाविक ही यह अनुमान लगाया जा सकता है कि भाजपा 2018 के चुनाव भी डॉ. रमन सिंह के नेतृत्व में लड़ेगी। दूसरे शब्दों में पार्टी के भीतर जो उनके विरोधी हैं उनकी डॉ. रमन सिंह को केन्द्र में भिजवाने या मुख्यमंत्री पद से हटाने की कोशिशें फलीभूत होने की कोई संभावना फिलहाल नज़र नहीं आती। आज राजनीति के क्षेत्र में जिस तरह का घमासान मचा हुआ है उसे देखते हुए यह प्रश्न मन में उठता है कि डॉ. रमन सिंह इतने लंबे समय तक कैसे अपनी कुर्सी को संभालकर रख पाए! अपनी सीमित जानकारी के आधार पर मैं कुछ अनुमान लगाता हूं। डॉ. रमन सिंह केन्द्र में राज्यमंत्री थे। अपना काम भलीभांति कर रहे थे। लालकृष्ण आडवाणी के निर्देश पर मंत्री पद की सुख-सुविधा छोड़कर वे पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष का काम संभालने रायपुर आ गए। ऐसा करके उन्होंने पार्टी के प्रति निष्ठा का परिचय दिया जिससे निश्चय ही भाजपा और संघ के कर्णधारों के बीच वे सराहना और विश्वास के पात्र बने। फिर जिस छत्तीसगढ़ को कांग्रेस का गढ़ माना जाता था उसको उन्होंने एक साल के भीतर ही ध्वस्त कर 2003 के आम चुनावों में आशातीत सफलता प्राप्त की जिसके कारण उनकी संगठन क्षमता और नेतृत्व क्षमता की धाक भी पार्टी व संघ के भीतर जमी होगी। यह तथ्य भी रेखांकित करने योग्य है कि 2004 से 2014 के बीच केन्द्र सरकार के जितने भी मंत्री छत्तीसगढ़ आए वे सब डॉ. रमन की सराहना करके ही लौटे। यह अपने आप में आश्चर्य की बात थी। भाजपा के जो बड़े नेता, प्रदेश प्रभारी आदि भी जब-जब यहां आए तो रमन सिंह से प्रसन्न होकर ही लौटे। अर्थात रमन सिंह मित्रों और विरोधियों दोनों को संतुष्ट रखने की कला मेें निष्णात हैं।
मैंने डॉ. रमन सिंह को जितना देखा है उसमें एक-दो बातें उल्लेख करने योग्य लगती हैं। एक तो उन्हें अगर पर्याप्त समय मिले तो वे किसी भी विषय पर पूरी तैयारी करके ही निष्कर्ष पर पहुंचते हैं अथवा निर्णय लेते हैं। वे जब केन्द्र में मंत्री थे तब अपने वरिष्ठ मंत्री मुरासोली मारन की बीमारी के चलते उन्हें लोकसभा में अपने विभाग के बारे में जवाब देना पड़ते थे। वे पूरी तैयारी करके प्रभावशाली तथा संतोषजनक रूप से उत्तर देते थे। मेरा कयास है कि मुख्यमंत्री बनने के बाद उनके पास इतना समय नहीं होता कि वे हर विषय पर पूरी तैयारी कर पाएं। मैंने यह भी अक्सर नोट किया है कि वे सुनते अधिक और बोलते कम हैं। यह गुण अर्जुन सिंह में भरपूर था। डॉ. रमन अपने विरोधियों पर उनका नाम लिए बिना उन पर कटाक्ष करना या आलोचना करना बखूबी जानते हैं। यद्यपि इधर साल-दो साल से वे इस ओर कुछ असावधान हो गए प्रतीत होते हैं। रमन सिंह मेहनत भी बहुत करते हैं। अप्रैल-मई की चिलचिलाती धूप में गांव-गांव घूमना, उनके ही बस की बात है। मैं यह भी कहना चाहूंगा कि उनके सामने कोई भी आए, वे उसे अपने व्यवहार से पल-दो पल में जीत लेते हैं। इसीलिए उनके विरोधी भी निजी तौर पर उनकी आलोचना करने का अवसर मुश्किल से ही खोज पाते हैं।
एक लंबे समय तक मुख्यमंत्री बने रहने का कीर्तिमान बनाना एक बात है, लेकिन उसके साथ यह सवाल तो उठता ही है कि इस लंबे कार्यकाल की उपलब्धियां क्या हैं? डॉ. रमन सिंह को कुछ बातों का श्रेय अवश्य देना होगा। मेरी याददाश्त में वे देश में पहले मुख्यमंत्री थे जिसने किसानों के लिए ऋण पर ब्याज दर बारह प्रतिशत से घटाकर छह प्रतिशत और बाद में शायद तीन प्रतिशत कर दी। इसके अलावा उन्होंने तमिलनाडु के उदाहरण से प्रेरणा लेते हुए एक रुपया किलो चावल की योजना प्रारंभ की। वह भी एक महत्वपूर्ण निर्णय था। उन्होंने महेन्द्र कर्मा को सामने रख सलवा जुड़ूम की शुरूआत की थी। यदि वह नक्सलियों के विरुद्ध आदिवासियों की अपनी पहल बन पाती तो शायद उसके कुछ अच्छे परिणाम सामने आते! लेकिन हम जानते हैं कि सलवा जुड़ूम का अंतत: क्या हुआ। रमन सरकार के एक और सही निर्णय का मुझे ध्यान आता है जब उसने वन अधिकार कानून के अंतर्गत हजारों आदिवासियों पर चल रहे मुकदमे खत्म करने की घोषणा की थी। प्रदेश में स्कूली शिक्षा के लिए नियुक्त शिक्षाकर्मियों का पदनाम बदलकर पंचायत शिक्षक करने और उन्हें किसी हद तक सम्मानजनक वेतन देने की पहल भी स्वागत योग्य थी। इनके अलावा और बहुत से कार्यक्रम और योजनाएं हैं जिनका श्रेय सरकार लेती है। इनमें से अनेक योजनाएं केन्द्र प्रवर्तित हैं जिसके लिए धनराशि केन्द्र से आती हैं।  दूसरे सरकार की आमदनी में भी साल दर साल इजाफा हो रहा है, उसके कारण भी बहुत से विकास कार्य होते दिखाई दे रहे हैं। किसी भी कल्याणकारी राज्य में सड़क, बिजली, पानी के काम तो स्वाभाविक गति से तो होना ही चाहिए।
मैं मानता हूं कि डॉ. रमन सिंह की दृष्टि विकासपरक  है। वे समाज के सभी वर्गों को साथ लेकर चलना चाहते हैं। उन्हें अटल बिहारी वाजपेयी की परंपरा का नेता भी माना जाता रहा है। लेकिन ऐसे कुछ बिन्दु हैं जिस पर उनसे अगले एक साल के भीतर याने बचे हुए कार्यकाल में निर्णय एवं क्रियान्वयन की अपेक्षा हम करते हैं। छत्तीसगढ़ खनिज और वन संपदा का धनी प्रदेश है। इन बीते वर्षों में इस संपदा का दोहन करने के लिए यहां बेशुमार मात्रा में उद्योगों की स्थापना हुई है। इनसे जो राजस्व मिला है उसके चलते प्रदेश का सालाना बजट तीन हजार करोड़ से बढ़कर अस्सी हजार करोड़ तक पहुंच गया है। लेकिन इस प्राकृतिक संपदा पर जिनका पहला हक है याने आदिवासी- उनकी स्थितियों में कोई बड़ा सुधार हो गया हो ऐसा मानना कठिन है। सलवा जुड़ूम पूरी तरह से असफल हुआ। नक्सल गतिविधियां धीमी जरूर पड़ी हैं, लेकिन इसकी वजह नक्सल आंदोलन के अपने अंतर्विरोधों में अधिक है। बस्तर में अद्र्धसैनिक बलों की भीषण उपस्थिति से स्थिति नियंत्रण में आई हो ऐसा मुझे नहीं लगता। एस.आर.पी. कल्लूरी जैसे अधिकारी को खुली छूट देकर तथा सिविल सोसायटी को प्रताडि़त करने से सरकार की छबि को लाभ नहीं, नुकसान ही पहुंचा है।
कारखानेदारों को पानी पर पहला हक देने और भूमि अधिग्रहण से किसानों में बेचैनी है। रायगढ़, जांजगीर-चांपा आदि इलाकों में इसे स्पष्ट देखा जा सकता है। प्रदेश के विकास के लिए सबसे पहली आवश्यकता शिक्षा और स्वास्थ्य तंत्र को सुधारने की है। इस ओर शासन का ध्यान सिर्फ इमारतें खड़ी कर देने पर है, आवश्यक सुविधाएं मुहैया कराने पर नहीं। विश्वविद्यालयों की स्वायत्तता का लगातार हनन हो रहा है। प्राथमिक शाला से लेकर इंजीनियरिंग कॉलेजों तक शिक्षकों के नियमित पदों पर भर्तियां बंद हैं। स्वास्थ्य सेवाएं निजी अस्पतालों और बीमा कंपनियों के हाथों सौंप दी गई हैं। अधिकतर सरकारी अस्पताल बेहाल हैं। जब सरकार अपनी उपलब्धियों को गिनाएं तो उसे अपनी कमियां भी देख लेना चाहिए। मैं जगह-जगह घूमता हूं, छत्तीसगढ़ के बारे में लोग मुझसे सवाल करते हैं मेरा जवाब यही होता है कि डॉ. रमन सिंह की निजी छवि के बल पर प्रदेश चल रहा है। बाकी तो मंत्री और अफसर अपनी मनमर्जी कर रहे हैं। डॉ. रमन सिंह को शुभकामनाएं देते हुए मैं उम्मीद करना चाहूंगा कि इन विसंगतियों को दूर करने की दिशा में वे अविलंब कदम उठाएंगे।
देशबंधु में 12 दिसंबर 2017 को प्रकाशित विशेष संपादकीय 

Sunday 10 December 2017

छुईमुई बन गया बरगद का वृक्ष



 यह संभव है कि इस कॉलम के छपने के पूर्व ही फिल्म पद्मावती प्रदर्शित हो जाए। यह भी उतना ही संभव है कि 1 दिसंबर की घोषित तिथि और आगे बढ़ा दी जाए। अनुमान होता है कि गुजरात के विधानसभा चुनाव सम्पन्न होने तक फिल्म को लेकर उठा विवाद किसी न किसी रूप में जारी रहेगा। मैंने दोनों अलग-अलग संभावनाएं इसलिए व्यक्त कीं क्योंकि इस कॉलम के लिखने और छपने के बीच लगभग दो सप्ताह का अंतराल होगा। मेरा मुख्य उद्देश्य फिल्म की कथावस्तु पर चर्चा करना नहीं था बल्कि मैं इस विवाद से जुड़े कुछ बुनियादी प्रश्नों पर अपने विचार पाठकों के साथ साझा करना चाहता हूं इसलिए मुझे लगता है कि प्रवास पर रवाना होने के पहले लिखे गए लेख की प्रासंगिकता उसके छपने तक बनी रहेगी। बल्कि प्रकाशन के बाद उन मुद्दों पर चर्चा करने का गंभीर अवसर भी आपके और हमारे सामने होगा।
यह सवाल सबसे पहले उठता है कि हम आजकल इतने जल्दी आपा क्यों खोने लगे? इतनी अधीरता हमारे सामूहिक चिंतन में घर कैसे कर गई? हम बात-बात पर एक-दूसरे से लड़ने-मरने के लिए क्यों तैयार हो जाते हैं? क्या हम हमेशा से ऐसे ही थे या फिर यह कोई नई बात है? यह भी शायद सोचने की बात है कि अगर भारतीय समाज में धीरज की कमी पहले से थी तो क्या उसमें हाल के समय में इजाफा हुआ है? क्या हम चीजों को आई-गई करना भूल गए? क्या हमारी विनोद वृत्ति समाप्त या क्षीण हो चुकी है? आज जो भी स्थितियां दिखाई दे रही हैं उसका दोष हम किसे दें? यह भी एक मौजूं प्रश्न है। इन तमाम मुद्दों पर विचार करना मुझे इसलिए जरूरी लगता है कि बात सिर्फ एक फिल्म, एक किताब, एक नाटक, एक कलाकृति तक सीमित नहीं है क्योंकि ऐसे प्रसंग लगातार घटित हो रहे हैं। मकबूल फ़िदा हुसैन को जलावतन होना पड़ता है, तस्लीमा नसरीन को मार्क्सवादी सरकारें भी आश्रय नहीं देतीं, नाटक बीच में बंद करवा दिए जाते हैं, वैंडी डोनिगर की पुस्तक पर प्रतिबंध लगाने की मांग होती है, पद्मावती इस शृंखला की ताजा कड़ी है।
हमने अपना चरित्र लाजवंती के पौधा सा क्यों बना लिया है? जरा सा छुओ और पत्तियां अपने को समेट लेती हैं। आम बोलचाल में इसे छुईमुई का पौधा कहते हैं। यह कैसी विडंबना है कि जिस समाज को वटवृक्ष बनना चाहिए वह स्वयं को छुईमुई का पौधा बना रहा है। क्या इसकी वजह यह है कि देश को जो राजनीतिक और बौद्धिक नेतृत्व मिलना चाहिए था वह सत्ता की दुरभिसंधियों के चलते धीरे-धीरे कर लुप्त हो गया है! मुझे भरतमुनि के नाट्यशास्त्र में वर्णित धीरोदात्त नायक की अवधारणा का अक्सर ख्याल आता है। इसके साथ ही प्लेटो ने द रिपब्लिक में फिलासफर किंग याने दार्शनिक शासक की अवधारणा प्रस्तुत की है वह भी ध्यान आती है। अपने पुराने लेखों में मैंने कहीं इनका उल्लेख भी किया है। एक जवाहर लाल नेहरू ही थे जो इस अवधारणा पर खरे उतरते थे। मेरा मानना है कि उनके जाने के बाद से राजनीति में मूल्यों का पराभव प्रारंभ हो गया था।
आजादी मिलने के बाद हमने नवनिर्माण की दिशा में कदम आगे बढ़ाए थे। भिलाई स्टील प्लांट बना तो उसे मिनी भारत की संज्ञा मिली। देश के तमाम हिस्सों से लोग यहां आकर बसे। उन्होंने मिलजुल कर काम किया। कुछ समय के लिए लगा कि धर्म, जाति, भाषा, प्रांत ये सारी दूरियां तिरोहित हो जाएंगी। मोहन सहगल की फिल्म नई दिल्ली में इसी का संदेश था। उसी समय आईआईएम, आईआईटी और एम्स की स्थापना हुई। आईआईएम अहमदाबाद में पंडित नेहरू ने मात्र चालीस वर्ष की आयु के रवि मथाई को पहला डायरेक्टर बनाकर भेजा।  रवि मथाई ने जो नींव डाली उसका प्रतिफल हम आज देख रहे हैं। डॉ. वर्गीज कुरियन ने अमूल डेयरी के माध्यम से श्वेत क्रांति को फलीभूत किया। डॉ. राधाकृष्णन और डॉ. जाकिर हुसैन जैसे परम विद्वानों को संवैधानिक पदों पर सुशोभित किया गया। सी.वी. रमन, महर्षि धोंडो केशव कर्वे, डॉ. भगवानदास और एम. विश्वैश्वरैया जैसी विभूतियों को भारत रत्न से अलंकृत किया गया। क्या यह सब कुछ एक सपना तो न था?
भारत आज नौजवानों का देश है। हमारी आबादी में युवजनों का प्रतिशत लगातार बढ़ रहा है। अर्थशास्त्री और योजनाकार इसे डेमोग्राफिक डिवीडेंड की संज्ञा देते हैं याने यह युवा आबादी देश के लिए वरदान है। किसी भी समाज में युवाओं का होना वरदान ही माना जाना चाहिए, लेकिन अपने दिल पर हाथ रखकर पूछिए कि क्या हम इस डिवीडेंड का सही ढंग से उपयोग कर पा रहे हैं! एक बच्चे के जन्म लेने से युवावस्था में पहुंचने तक उसे क्या-क्या चाहिए- सुरक्षित प्रसव, स्वस्थ शैशव, स्वस्थ बालपन, पोषण आहार, उत्तम शिक्षा, उपयुक्त खेल और मनोरंजन, स्वास्थ्यदायक रिहाइश और जलवायु, बड़े होने पर क्षमता के अनुसार रोजगार। इनमें से कौन सा मानक है जिस पर भारत खरा उतर रहा है? योजनाएं तो सब अच्छी बनी हैं, लेकिन उनके क्रियान्वयन में ईमानदारी और तत्परता का अभाव किसी से छुपा नहीं है।
हमारे आज के नेता बातें बड़ी-बड़ी करते हैं, लंबे-चौड़े वादे करते हैं, वक्त के साथ सब भूल जाते हैं।  वायदे को जुमला कहकर अपनी जिम्मेदारी से बच निकलते हैं। ऐसे में युवा पीढ़ी की परवरिश सही ढंग से नहीं होगी यह स्वयंसिद्ध है। करेले पर नीम चढ़ा इस तरह कि बच्चों में बचपन से ही भेदभाव पैदा किया जा रहा है। सबके लिए एक समान शिक्षा व्यवस्था होने के बजाय हैसियत के मुताबिक शिक्षा का प्रबंध है। एक अपार्टमेंट परिसर में रहने वाले बच्चे भी एक-दूसरे के घर जाकर पानी भी नहीं पीते। कालोनियां, धर्म और जाति के आधार पर बनने लगी हैं। कहीं सिर्फ ब्राह्मणों की कालोनी है, तो कहीं सिर्फ वैश्यों की। सबने अपने-अपने द्वीप बना लिए हैं और उस संकीर्णता में आत्ममुग्ध होकर जी रहे हैं। रहन-सहन, खानपान, सामाजिक मेलजोल इन सब में पोंगापंथी, जड़वादी सोच प्रभुवर्ग ने अपना ली है जिसकी कीमत नौजवान पीढ़ी को चुकाना पड़ रही है।
देश के नौजवानों में किसी कदर गुस्सा है। उन्हें पढ़ाई-लिखाई के सही अवसर नहीं मिले। उन्हें रोजगार के अवसर भी नहीं मिल रहे हैं। उनका आत्मविश्वास दरक रहा है, उनका स्वाभिमान स्खलित हो रहा है। उनकी इस बुझी हुई मानसिकता में उनकी शक्ति का दुरुपयोग वे चालाक शक्तियां कर रही हैं जो देश की राजनीतिक दशा-दिशा का निर्धारण करती हैं। उन्हें यह मुफीद आता है कि आम जनता वर्तमान के प्रश्नों से हटकर अतीत की गलियों में भटकती रहे और गैरजरूरी मसलों पर अपनी शक्ति जाया करती रहे। इस काम के लिए उन्हें फुट सोल्जर्स अर्थात प्यादों की जरूरत होती है। इसके लिए बेरोजगार नौजवानों से बेहतर पात्र और कोई नहीं होता। उनसे आप नारे लगवा लीजिए, गाली-गलौज करवा लीजिए, पत्थर फेंकवा लीजिए, मारकाट करवा लीजिए। वे खाली बैठे हैं, इनके पास जीवन का कोई मकसद नहीं है। उनकी दमित आकांक्षाओं का क्षरण इन विध्वंसकारी गतिविधियों में होता है तो वही सही।
दुर्भाग्य की बात यह है कि जनतांत्रिक  राजनीति में जनता का जो राजनैतिक प्रशिक्षण होना चाहिए उस बेहद जरूरी दायित्व से सबने मुंह मोड़ लिया है। भाजपा, शिवसेना की बात छोड़िए, कांग्रेस के युवा और छात्र संगठनों का वैचारिक धरातल कितना मजबूत है? सीपीआईएम ने तीस साल के लंबे शासनकाल में पश्चिम बंगाल में जनता खासकर नौजवानों को अपने राजनैतिक सिद्धांतों में कितना दीक्षित किया? सीपीआई में युवजन कहां हैं? समाजवादियों के युवा नेतृत्व की राजनीति समझ कितनी पुष्ट है? अगर इस तरफ ध्यान दिया गया होता तो पुरोगामी ताकतों को यह अवसर ही नहीं मिलता कि वे जनभावनाओं के साथ खिलवाड़ कर उसे गलत दिशा में ले जा पातीं।
देशबंधु में 7 दिसंबर 2017 को प्रकाशित 

Friday 1 December 2017

खुशफहमियों का अंबार

स्वामीनाथन एस. अंकलेसरिया अय्यर ख्यातिप्राप्त पत्रकार हैं। वे आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ हैं। पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के घनघोर समर्थक हैं। अपने एक ताजा लेख में उन्होंने मोदी सरकार की तीन साल की आर्थिक उपलब्धियां संक्षेप में गिनाई हैं। 2009-10 में मौद्रिक घाटा जीडीपी का छह दशमलव सात प्रतिशत था। वह गिर कर तीन दशमलव दो प्रतिशत पर आ गया है। चालू खाते का घाटा 2013-14 में चार प्रतिशत से घटकर 2016-17 में जीरो दशमलव सात प्रतिशत पर आ गया है। उनके अनुसार मोदी एक झटके में नहीं, बल्कि धीरे-धीरे कर अर्थव्यवस्था में सुधार ला रहे हैं। इसमें वे आधार के माध्यम से सीधे मुद्रा हस्तांतरण को भी गिनते हैं। बिजली, सड़क और ब्राडबैंड का भी उल्लेख उन्होंने किया है। वे यह भी कहते हैं कि रिजर्व बैंक अब सरकार के नियंत्रण से दूर एक स्वायत्त संस्था है जो अपने निर्णय खुद लेने में सक्षम है।  इस आखिरी दावे को स्वीकार करना आसान नहीं है। बाकी के बारे में भी आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ बेहतर बता सकेंगे।
श्री अय्यर को मैंने खास वजह से उद्धृत किया है। एक तरफ वे मोदी सरकार की प्रशंसा करते हैं; दूसरी तरफ यह भी कहते हैं कि मोदी ने भारत की रेटिंग में जो सुधार किया है वह एक छोटी-मोटी घटना है, उसका मतदाताओं से कोई लेना-देना नहीं है और मोदीजी को उससे चुनाव जीतने में कोई मदद नहीं मिलेगी। वे फिर गिनाते हैं कि इन तीन वर्षों में आर्थिक क्षेत्र में क्या-क्या प्रतिकूल स्थितियां बनीं। एक सामान्य पाठक भी इनमें से अनेक तथ्यों से परिचित है। यह हम जानते हैं कि मोदीजी ने हर साल रोजगार के दो करोड़ नए अवसर सृजित करने की बात की थी। अब तक सात करोड़़ युवाओं को रोजगार मिल जाना चाहिए थालेकिन वास्तविक उपलब्धि मात्र दस प्रतिशत के आसपास है। पहले कहा कि नौकरी नहीं, रोजगार के अवसर देने की बात का वायदा किया गया था। दोनों में से कुछ भी नहीं हुआ। अब रविशंकर प्रसाद बेरोजगार नौजवानों का अपमान करते हुए कह रहे हैं कि जो कुशल या दक्ष थे उन्हें रोजगार मिल गया, बाकी को नहीं मिला।
सरकार के वरिष्ठ मंत्री की इस बात को मान लें तो फिर उन्हें बताना चाहिए कि कौशल विकास के लिए जो स्किल इंडिया कार्यक्रम शुरू किया था वह किस स्थिति में है। यदि देश के शैक्षणिक संस्थानतकनीकी संस्थाएं व कौशल विकास के नाम पर खुली दुकानें अपना काम ठीक से नहीं कर रही हैं तो यह किसकी जिम्मेदारी है। यह शायद पहली बार हुआ है कि देश के नामी-गिरामी संस्थानों में बरसों से संस्था प्रमुख के पद खाली पड़े हैं। अगर नियुक्तियां हो भी रही हैं तो संघ का अनुमोदन होना उसकी पहली शर्त है। जो संस्थान व्यवसायिक और तकनीकी पढ़ाई के लिए खोले गए हैं, उनमें संघ अजेंडा पर संगोष्ठियां होती रहती हैं। छत्तीसगढ़ के एक पुलिस अधिकारी जो नकली मुठभेड़ों, नकली आत्मसमर्पण और अत्याचार दमन के लिए ख्याति पा गए हैं उन्हें राष्ट्रीय सुरक्षा पर विभिन्न संस्थानों में भाषण देने के लिए क्यों बुलाया जाता है?
मूडी ने जिन भी मानदंडों पर भारत की रेटिंग में सुधार किया हो, वह अर्थव्यवस्था की सामान्य सोच से मेल नहीं खाता। बड़े-बड़े इजारेदारों को अगर कम ब्याज दर पर ऋण मिल रहा है तो क्या इसके बाद देश के कारखाने पहले से अधिक गति से चल रहे हैं?  उनके उत्पादन के तुलनात्मक आंकड़े क्या हैं? क्या उनसे रोजगार के नए अवसर बने? मूडी के आकलन के बाद उम्मीद की जाती है कि विदेशी कारपोरेट घरानों को भारत में निवेश के लिए बेहतर वातावरण मिलेगा। लेकिन क्या सचमुच निकट भविष्य में ऐसा हो पाएगा? अगर औद्योगिक क्षेत्र की स्थिति में सुधार हुआ है तो फिर देश के तमाम मजदूर संगठनों को एकजुट होकर दिल्ली में संसद मार्ग पर महापड़ाव डालने की आवश्यकता क्यों आन पड़ी? गौर कीजिए कि संघ से उत्पन्न और भाजपा से पोषित भारतीय मजदूर संघ भी इसमें पीछे नहीं रहा गो कि उसने अलग से प्रदर्शन किया। इस सच्चाई के बरक्स क्या विदेशी कारखानेदार सचमुच भारत में उद्योग लगाने के लिए उत्साहित हैं?
यह तो सबको दिख रहा है कि मूडी की घोषणा के बाद मोदीजी और उनकी पूरी सरकार का मूड सुधर गया है। वित्त मंत्री अरुण जेटली ने तो आनन-फानन पत्रवार्ता बुलाकर सगर्व ऐसे घोषणा की मानो विश्व-विजय करके आ गए हों। सरकार का मूड सुधारने के लिए इसके पहले दो खबरें और आईं थीं। पहली जिसमें बताया गया कि भारत में व्यापार करना पहले की अपेक्षा सुगम हो गया है। ईज़ ऑफ डूईंग बिजनेस में एक सौ तीसवें नंबर से लंबी छलांग लगाकर देश सौवें स्थान पर पहुंच गया है। खुश होकर सरकार ने यह खबर जनता को दी थी। इसके कुछ समय बाद प्यू रिसर्च सेंटर द्वारा किया गया एक सर्वेक्षण सामने आया। इससे हमें पता चला कि कि देश के नब्बे प्रतिशत लोगों की पहली पसंद नरेन्द्र मोदी हैं अर्थात उनके नेतृत्व में जनता का विश्वास लगातार कायम है। मोदीजी के नेतृत्व में 2014 में मात्र इकतीस प्रतिशत वोट पाकर भाजपा की सरकार बनी थी। आज यदि नब्बे प्रतिशत लोग उन्हें पसंद कर रहे हैं तो निश्चित ही यह एक बड़ी खबर है।
नरेन्द्र मोदी देश के प्रधानमंत्री हैं। उनके कार्यकाल को अभी डेढ़ साल बाकी है। उन्हें यदि जनता का विश्वास हासिल है तो यह प्रसन्नता का विषय होना चाहिए। यहां हमारा ध्यान दूसरी दिशा में जाता है। वर्ल्ड बैंक की रैकिंग, प्यू रिसर्च सेंटर का सर्वेक्षण, मूडी का रेटिंग सुधार- इन सबमें एक सामान्य सूत्र है। ये तीनों संस्थाएं अमेरिका में स्थित हैं। अमेरिका के सैन्य-पूंजी गठजोड़ के इशारे पर चलती है। यह कोई नई बात नहीं है। इसके सैकड़ों उदाहरण मिल जाएंगे। अमेरिका विगत कई वर्षों से भारत के साथ संबंध सुधारने में लगा है। इसमें मनमोहन सिंह की भी अपने समय में भूमिका रही है। कारण स्पष्ट है। चीन एक महाशक्ति बन चुका है। अमेरिका विश्व के इस भूभाग में शक्ति संतुलन बनाए रखना चाहता है। वह चीन के बढ़ते प्रभाव को तभी रोक सकता है जब भारत उसका विश्वस्त सहयोगी बन जाए। एक समय अमेरिका ने पाकिस्तान पर भरोसा किया था, लेकिन समीकरण बदल गए हैं।
चीन के बढ़ते प्रभाव को रोकने के लिए भारत को भी एक शक्तिशाली मित्र की आवश्यकता है। कल तक सोवियत संघ उसका साथी था। आज उसे अमेरिका दिखाई दे रहा है। भारत और अमेरिका के बीच दोस्ती हो यह अच्छी बात है, लेकिन हमें अपने दीर्घकालीन हितों को देखकर ही संबंधों की सीमा तय करना चाहिए। कल तक जिसे एशिया-पैसेफिक क्षेत्र कहा जाता था उसे डोनाल्ड ट्रंप ने इंडिया-पैसेफिक कह दिया तो इससे फूल कर कुप्पा होने में अपना ही नुकसान है। फारस की खाड़ी को अरब की खाड़ी कहकर पुकारना चाहें तो भी वह ऐतिहासिक और भौगोलिक कारणों से फारस की खाड़ी ही रहेगी। एशिया-पैसेफिक क्षेत्र में पूर्वी और दक्षिण पूर्वी एशिया के तमाम देश आ जाते हैं। इंडिया-पैसेफिक कहेंगे तो जापान, फिलीपीन्स, वियतनाम कहां जाएंगे? अमेरिका जानता है कि भारत एक भावना-प्रधान देश है। वह लच्छेदार बातें करके हमें भरमाता है। यह हमारे नेतृत्व के विवेक पर निर्भर करता है कि लच्छेदार बातों में न आए और वास्तविकता की कठोर धरती पर रिश्तों का आकलन करे।
गौरतलब है कि द्धितीय विश्वयुद्ध के समाप्त होने के बाद से ही नवसाम्राज्यवादी ताकतें तीसरी दुनिया के मुल्कों पर अपना प्रभाव कायम करने के लिए भांति-भांति के हथकंडे अपनाती रही हैं। सीआईए ने अमेरिका को नापसंद सरकारों को अपदस्थ करने के लिए जो षड़यंत्र रचे उसकी सूची बहुत लंबी है। सांस्कृतिक मोर्चे पर भी उनके प्रयत्न चलते रहते हैं। हमारे फिल्मकार ऑस्कर पाने के लिए जिस तरह लालायित रहते हैं वह इसका प्रमाण है। मिस वर्ल्ड और मिस यूनिवर्स जैसी प्रतियोगिताएं भी तीसरी दुनिया के सांस्कृतिक मूल्यों को विनष्ट करने में भूमिका निभाती हैं। आर्थिक क्षेत्र में भारत को जो तीन प्रमाणपत्र हाल में मिले हैं जिनका उल्लेख हम ऊपर कर आए हैं के साथ-साथ एक भारतीय लड़की को मिस वर्ल्ड-2017 का खिताब मिलना भी इसी महायोजना का एक अंग है। इसका जिक्र मैं 2 नवंबर के अपने लेख में कर आया हूं। लब्बो लुआब यह कि हमें खुशफहमियों में नहीं जीना चाहिए।
 देशबंधु में 30 नवंबर 2017 को प्रकाशित 

Wednesday 22 November 2017

इंदिरा गांधी की जन्मशती

                                           

 श्रीमती इंदिरा गांधी की जन्मशती आई और चली गई। आधुनिक भारत के इतिहास की एक महान नायिका की सौंवी जयंती पर उन्हें स्मरण करने के लिए कोई खास यत्न दिखाई नहीं दिए। सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी इंदिरा गांधी की उपेक्षा करे तो इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है, लेकिन कांग्रेस को क्या हो गया है?  जवाहर लाल नेहरू की एक सौ पच्चीसवीं जयंती पड़ी तब अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी ने औपचारिकता निभाने के लिए दिल्ली के विज्ञान भवन में एक अंतरराष्ट्रीय स्तर का कार्यक्रम आयोजित किया था, किन्तु उसमें भी उत्साह का अभाव साफ-साफ परिलक्षित हो रहा था (देखिए देशबन्धु में मेरा कॉलम 27 नवंबर 2014- 'कांग्रेस का नेहरू को याद करना')। मैंने तब अपने आपको यह सोचकर दिलासा दी थी कि कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी की राजनीतिक समझ शायद इंदिराजी के पहले नहीं जाती, लेकिन आज यदि इंदिरा शताब्दी का स्वरूप भी फीका हो तो किसे क्या कहा जाए!
मुझे आश्चर्य है कि तथाकथित राष्ट्रीय कहे जाने वाले अखबारों में भी इस अवसर पर कोई विशेष सामग्री नहीं आई। इंदिरा गांधी की राजनीति से सहमति रखना या न रखना अलग मुद्दा है, लेकिन उनके पन्द्रह वर्ष के सुदीर्घ कार्यकाल में देश ने क्या पाया या खोया इस पर सुचिंतित बहस होने की अपेक्षा स्वाभाविक थी। टी.वी. चैनल तो पूरी तरह से सस्ते फूहड़ मनोरंजन और फर्जी बहसों में लगे हैं इसलिए उनसे तो कोई उम्मीद थी नहीं। मैं जहां रहता हूं उस रायपुर के अखबारों ने भी इंदिरा गांधी को किसी भी रूप में स्मरण करना मुनासिब नहीं समझा। यह जानना दिलचस्प है कि एक तरफ उसी दिन संघ परिवार ने रानी लक्ष्मी बाई की जयंती जोर-शोर से मनाई और दूसरी ओर अखबारों के पहले पन्ने पर मिस वर्ल्ड-2017 मानुषी छिल्लर छाई रहीं। मुझ जैसे कुछ सिरफिरों ने ही सोशल मीडिया पर 19 नवंबर को इंदिरा गांधी को याद किया, कुछ ने पोस्ट देखकर नमन कर छुट्टी पा ली, कुछ ने पोस्ट शेयर भी की। 
मेरी चिंता इसलिए नहीं है कि इंदिरा गांधी की जन्म शताब्दी अपेक्षा के अनुरूप नहीं मनाई गई, चिंता इस बात को लेकर है कि एक तरफ पुरोगामी शक्तियां इतिहास की मनमानी व्याख्या करते हुए उसका पुनर्लेखन कर रही हैं, एक पूरी तरह से गढ़े गए इतिहास को जबरन जनता के गले उतारा जा रहा है; दूसरी तरफ देश के स्वाधीनता संग्राम और देश के नवनिर्माण में जिनकी असंदिग्ध प्रभावशाली और निर्णयकारी भूमिका रही उसे किसी न किसी उपाय से भुलाने की कोशिश होती रही है। इसका यह अर्थ होता है कि अपने इतिहास से सबक लेने के अवसर जानबूझ कर मिटाए जा रहे हैं। ऐसे में ये खतरा विद्यमान है कि भारत नवसाम्राज्यवादी शक्तियों का गुलाम फिर से न बन जाए। विगत सौ वर्षों में तेल समृद्ध पश्चिम एशिया और उत्तर अफ्रीका के देशों में इतिहास की विस्मृति के चलते जो दुर्दशा हुई है उसे हमने देखा है। इन षड़यंत्रकारियों से लड़ने के लिए जिनसे प्रेरणा मिल सकती है, वे नायक ही लुप्त हो जाएंगे तो प्रेरणा के नए स्रोत कहां से मिलेंगे?
मेरी समझ में इंदिरा गांधी की जन्मशती एक ऐसा महत्वपूर्ण अवसर था जब भारत की आंतरिक नीति, विदेश नीति, वैश्विक संबंध, सामरिक नीति, आर्थिक नीति इन सबका वस्तुपरक विश्लेषण किया जा सकता था। इंदिरा गांधी की आलोचना करने के लिए अनेक बिन्दु हैं जैसे 1959 में केरल की कम्युनिस्ट सरकार की बर्खास्तगी, 1967 में रुपए का अवमूल्यन, आपातकाल, ऑपरेशन ब्लू स्टार इत्यादि। दूसरी तरफ उनकी सराहना करने के लिए भी बहुत कुछ है- हरित क्रांति, प्रिवीपर्स का खात्मा, बैंकों का राष्ट्रीयकरण, बंगलादेश का उदय, 1974 का आणविक परीक्षण, गुटनिरपेक्ष आंदोलन, प्रोजेक्ट टाइगर, वन संरक्षण इत्यादि। इनमें से लगभग हर विषय पर बहुत लोगों ने अपने विचार प्रकट किए हैं, पुस्तकें भी आई हैं, लेकिन आज यह मौका है कि जब इंदिराजी को हमारे बीच से गए तैंतीस वर्ष हो चुके हैं तब समय के इस लंबे अंतराल का लाभ लेकर इन सभी मुद्दों पर तटस्थ भाव से चर्चा की जा सके। इस मौके को गंवा कर हम अपना नुकसान कर रहे हैं। 
मेरा अनुमान है कि गांधी, नेहरू और राष्ट्रपति केनेडी को छोड़कर विश्व के किसी भी राजनेता पर उतनी किताबें नहीं लिखी गईं जितनी इंदिरा गांधी पर। बंगलादेश के मुक्ति संग्राम को लेकर दर्जनों किताबें हैं और उनमें इंदिरा गांधी का रोल स्वाभाविक रूप से चित्रित हुआ है। इसी तरह आपातकाल को लेकर भी शताधिक पुस्तकें  प्रकाशित हुईं हैं। इंदिराजी पर लिखी गई पुस्तकों की लंबी सूची इस बात का प्रमाण है कि उन्होंने विश्व रंगमंच पर एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। यहां मैं उन कुछ पुस्तकों का उल्लेख करना चाहूंगा जो इंदिरा गांधी के व्यक्तित्व के निर्माण और विकास को सही परिप्रेक्ष्य में समझने में हमारी मदद कर सकती थीं। सबसे पहले तो पिता-पुत्री के बीच जो पत्राचार हुआ है वह अत्यन्त रोचक और पठनीय है। सोनिया गांधी ने 'टू अलोन, टू  टूगेदर' अर्थात 'दो अकेले, दो साथ-साथ' शीर्षक से दो खंडों में इसका संपादन किया है।
यह पुस्तक काफी बाद में आई, किन्तु इंदिराजी पर लिखी पहली पुस्तक जो ध्यान में आती है वह उनकी छोटी बुआ कृष्णा हथीसिंह द्वारा लिखित संस्मरणात्मक पुस्तक है- 'डियर टू बिहोल्ड'।  इसका हिन्दी अनुवाद कई बरस पूर्व हो चुका है। इलाहाबाद के पत्रकार पी.डी. टंडन की पुस्तक में भी रोचक संस्मरण हैं। इनके अलावा इंदिराजी की सामाजिक संबंध सचिव उषा भगत द्वारा लिखित 'इंदिरा : थ्रू माइ आइज' से भी उनके जीवन की अंतरंग झलकियां मिलती हैं।  इंदिरा गांधी के राजनैतिक व्यक्तित्व का काफी तटस्थ भाव से चित्रण वरिष्ठ पत्रकार इंदर मल्होत्रा ने 'इंदिरा[ शीर्षक से लिखी वृहदाकार जीवनी में किया है। मेरी राय में इंदिराजी के राजनैतिक निर्णयों को समझने में यह पुस्तक अत्यन्त उपयोगी है। एक अन्य किताब जो हाल में प्रकाशित हुई है वह है जयराम रमेश की 'इंदिरा गांधी : अ लाइफ इन नेचर[। यह पुस्तक इंदिराजी की जन्म शताब्दी पर ही छपी है।
इंदिरा गांधी के कुछ निर्णयों की चर्चा मैंने संक्षेप में ऊपर की है। माना जाता है कि इंदिराजी के कहने पर ही केरल की नम्बूदरीपाद सरकार को अपदस्थ किया था। इसे गैरजनतांत्रिक कदम माना गया था। उस समय के दस्तावेज बताते हैं कि भारत-चीन संबंधों में जो खटास 1949-1950 में ही आना शुरू हो गई थी, उसे देखते हुए स्वयं पंडित नेहरू भारतीय कम्युनिस्टों के इरादों से सशंकित थे; खासकर तब जबकि पी.सी. जोशी जैसे उदारवादी को हटाकर बी.टी. रणदेवे और ई.एम.एस. जैसे रूढ़िवादी पार्टी पर काबिज हो गए थे इसलिए यह गैरलोकतांत्रिक, लेकिन कठोर निर्णय लेना पड़ा।  बहरहाल इंदिरा तब प्रधानमंत्री नहीं थीं। उन्होंने 1967 में रुपए का अवमूल्यन किया वह भी अंतरराष्ट्रीय दबावों के चलते जिसमें कांग्रेस के दक्षिणपंथी तत्वों का भी साथ था। इंदिरा जी ने इसके बाद कभी अमेरिका पर विश्वास नहीं किया। 
मेरी दृष्टि में इंदिरा गांधी के जीवन में परीक्षा का सबसे बड़ा क्षण इलाहाबाद हाईकोर्ट के निर्णय के समय आया था। इंदिरा के खिलाफ यह फैसला एक बहुत छोटे तकनीकी आधार पर दिया गया था। निर्णय सही था या गलत यह अलग बात थी, लेकिन मुझे लगता है कि 12 जून 1975 को इंदिरा गांधी ने अपनी सहजात बुद्धि को छोड़कर शायद सलाहकारों पर भरोसा कर प्रधानमंत्री बने रहने का गलत निर्णय ले लिया। वे यदि उस दिन त्यागपत्र दे देतीं और अपने काबिल सहयोगी जगजीवन राम को उत्तराधिकारी घोषित कर देतीं तो देश का इतिहास कुछ और ही होता। बंगलादेश मुक्ति संग्राम की एक बड़ी कीमत भारत को चुकानी पड़ी थी। युद्ध के भार से देश की आर्थिक स्थिति कमजोर हो गई थी इसका लाभ घोर दक्षिणपंथी राजनैतिक ताकतों ने उठाया। जयप्रकाश नारायण इंदिरा-विरोधी आंदोलन में भावुकतावश शामिल हो गए और फिर उसकी परिणति आपातकाल लगने में हुई जिसका इतिहास हमारे सामने है।
इस कॉलम का सीमित स्थान मुझे यहीं रुकने का संकेत दे रहा है, लेकिन इस सब पर आगे बात होना चाहिए।
देशबंधु में 23 नवंबर 2017 को प्रकाशित 

Friday 17 November 2017

मुक्तिबोध का अखबारी लेखन


 गजानन माधव मुक्तिबोध का नाम लेते साथ अनायास ही चाँद का मुंह टेढ़ा है और अंधेरे में  जैसे उनकी कविताओं के शीर्षक आंखों के सामने आ जाते हैं। हम उन्हें प्रथमत: कवि के रूप में ही स्मरण करते हैं। फिर कामायनी: एक पुनर्विचारएक साहित्यिक की डायरी आदि के माध्यम से साहित्यिक आलोचना में उनके अप्रतिम योगदान का ध्यान आता है। वे अपने ढंग के एक अनूठे कथाशिल्पी थे, यह परिचय विपात्रब्रह्मराक्षस का शिष्यक्लाड ईथरली आदि रचनाओं से प्राप्त होता है। बीसवीं सदी का यह बहुविधा निष्णात लेखक एक सजग, सतर्क, विचारसम्पन्न पत्रकार भी था, इस तथ्य को अक्सर बिसरा दिया जाता है। वे नागपुर में नया खून नामक साप्ताहिक अखबार से जुड़े थे, इतना तो हमें शायद पता होता है, किंतु उनका अखबारी लेखन कैसा था, एक पत्रकार के रूप में उनका क्या अवदान था, इस पर जितनी चर्चा होना चाहिए थी, संयोगवश नहीं हो सकी है। यह सन्तोष का विषय है कि आज जब मुक्तिबोध जन्मशती मनाई जा रही है, तब कतिपय गंभीर अध्येताओं का ध्यान उनके व्यक्तित्व व कृतित्व के इस पक्ष की ओर भी गया है।
मुक्तिबोध रचनावली के छठवें व अंतिम खंड में राजनैतिक व अन्य लेखन इस मुख्य शीर्षक के अन्तर्गत मुक्तिबोधजी के जो लेख संकलित हैं, मुख्यत: वही उनका अखबारी लेखन है। इस संकलन पर एक सरसरी निगाह दौड़ाने से कुछ तथ्य स्पष्ट होते हैं। एक तो यह पता चलता है कि मुक्तिबोध जी की आयु जब पूरे बीस साल भी नहीं थी, तब से उनके लेखों का प्रकाशन हिंदी की प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में होने लगा था। खंडवा से प्रकाशित कर्मवीर के 9 से 16 जनवरी 1937 के अंकों में अतीत  शीर्षक से दो किश्तों में लेख छपा। उन्हें तब उन्नीस साल पूरे किए तीन माह भी नहीं बीते थे। उल्लेखनीय है कि मूर्धन्य कवि माखनलाल चतुर्वेदी कर्मवीर के संपादक थे। इस पहले लेख के अध्ययन से ही भाषा पर उनकी मजबूत पकड़ व उनकी अद्भुत अध्ययनशीलता का परिचय तो मिलता ही है, यह भी हम देख पाते हैं कि देश, समाज, राजनीति को लेकर उनके विचारों में इस तरुणाई में ही वह प्रगल्भता व दिशाबोध आ गए थे, जो जीवन भर उनके साथ  रहे। 
दूसरा रोचक तथ्य यह प्रकट होता है कि मुक्तिबोधजी  के अनेक लेख या तो उनके नामोल्लेख बिना छपे या उन्होंने छद्मनामों का प्रयोग किया। इसकी आवश्यकता शायद इसलिए पड़ी कि वे आकाशवाणी में सेवारत थे और असली नाम से लिखने पर शासन के कोपभाजन बन सकते थे। उन्होंने यौगन्धरायण व अवंतीलाल गुप्त इन दो छद्मनामों को अपनाया था। अवंतीलाल गुप्त संभवत् इसलिए कि अवंती या कि उज्जैन से उनका गहरा नाता था और गुप्त का आशय तो स्पष्ट ही है। यौगन्धरायण नाम भी उन्होंने शायद इसीलिए लिया कि भास रचित संस्कृत महाकाव्यों प्रतिज्ञा यौगन्धरायण तथा स्वप्नवासवदत्ता में वह उज्जयिनी के राजा उदयन का महामंत्री है जिसमें विद्वता, विवेकशीलता, साहस व स्वामीभक्ति जैसे गुण कूट-कूटकर भरे हैं। मुक्तिबोध अपने मात्र सैंतालीस वर्ष के जीवन में अनेक स्थानों पर रहे, लेकिन हम अनुमान लगा सकते हैं कि उज्जैन को वे सदा साथ लेकर चलते रहे। नागपुर में रहकर उज्जैन का परिचय देने वाले छद्मनामों से लिखने का विचार उनके मन में अन्यथा क्यों आया होगा!
मुक्तिबोध के अखबारी लेखन की बात उठने पर सबसे पहले नया खून की ही याद आती है, लेकिन पं. द्वारिकाप्रसाद मिश्र द्वारा स्थापित सारथी के लिए भी उन्होंने कई बरसों तक लिखा। दरअसल, नया खून और उसके संस्थापक-संपादक स्वामी कृष्णानंद सोख्ता के साथ उनके प्रगाढ़ संबंध थे। नया खून में काम करते हुए ही उन्होंने अनेक युवा लेखक-पत्रकारों का मार्गदर्शन किया। मुझे इनमें से तीन नाम विशेषकर ख्याल आते हैं- लज्जाशंकर हरदेनिया, जो भोपाल में रहते हुए आज 85 वर्ष की आयु में भी निरंतर सजग भाव से पत्रकारिता कर रहे हैं; दूसरे शरद कोठारी जिन्होंने नागपुर से अपने गृहनगर राजनांदगांव लौटने के बाद सबेरा (बाद में सबेरा संकेत दैनिक) नामक साप्ताहिक पत्र स्थापित किया और दो व्यंग्य उपन्यासिकाओं की रचना की; तीसरे रमेश याज्ञिक जिन्होंने समर्थ कथाकार, यात्रा वृत्तांत व संस्मरण लेखक तथा अनुवादक के रूप में पर्याप्त ख्याति अर्जित की। 
यहां स्वामी कृष्णानंद सोख्ता का उल्लेख करना भी आवश्यक होगा। स्वामीजी अपनी पदवी के अनुरूप एक धर्मगुरु ही थे, लेकिन इस बाने को उन्होंने जल्दी ही उतार फेंका होगा। स्वामी सहजानंद सरस्वती, राहुल सांकृत्यायन, स्वामी सत्यभक्त की परंपरा में उनकी गणना करना शायद गलत नहीं होगा। विराट व्यक्तित्व व ओजस्वी वाणी के धनी सोख्ताजी पुराने मध्यप्रदेश की एक जानी-मानी हस्ती थे। वे कांग्रेस के नेता थे और नागपुर में तो खैर उनका दबदबा ही था। उन्होंने नया खून प्रारंभ कर उसे एक निर्भीक साप्ताहिक पत्र के रूप में स्थापित किया। वे स्वयं एक अच्छे कवि थे तथा कलामे सोख्ता के नाम से उनके मुक्तकों का संग्रह भी प्रकाशित हुआ था, जिसका व्यंग्य चुटीला एवं मारक था। उनका निधन हुआ तब तक मुक्तिबोध राजनांदगांव आ चुके थे। 1960 में प्रकाशित नया खून के श्रृद्धांजलि अंक में आत्मीयता के अखंड स्रोत : स्वामीजी शीर्षक से मुक्तिबोधजी ने उन्हें श्रृद्धांजलि अर्पित की जिसमें उन्होंने स्वामीजी को बंधनहीन मानवतावादी निरूपित किया।  उन्होंने लिखा- स्वामीजी एक अजीब आदमी थे- एकदम फक्कड़, बहुत दिलदार, पूरे इंसान और ताकतवर।
रचनावली में संकलित पहले लेख अतीत (1937) से लेकर इस अंतिम लेख (1960) तक का अनुशीलन करने से स्पष्ट होता है कि मुक्तिबोध के अखबारी लेखन का फलक अत्यन्त व्यापक था। इसमें यदि वसुधा, कल्पना इत्यादि में प्रकाशित स्तंभ व लेखों को भी शामिल कर लें तो व्यापकता और बढ़ जाती है। यही नहीं, वे जिस विषय पर लिखते हैं, उसका निर्वाह अधिकारपूर्वक और प्रामाणिकता के साथ करते हैं। सोख्ताजी को दी गई श्रृद्धाजंलि एक अनुपम व्यक्ति-चित्र है। इसमें स्वामीजी की चारित्रिक विशेषताओं का बेहद बारीकी और सूझबूझ के साथ अंकन हुआ है। उन्होंने स्वामीजी और अपने पारस्परिक संबंधों को भी अकुंठ सादगी के साथ उकेरा है। दूसरी ओर 1958-59 सत्र में दिग्विजय महाविद्यालय, राजनांदगांव की वार्षिक पत्रिका में प्रकाशित लेख है। कॉलेज की पत्रिका में छपे लेख को अखबारी लेखन तो नहीं माना जाएगा, लेकिन अचरज की बात है कि विद्यार्थियों के हित में उन्होंने अंतरिक्ष यात्रा पर एक विस्तृत लेख लिखा, जबकि वे हिंदी के अध्यापक थे। जिस रॉकेट साइंस की जटिलता आज एक अंग्रेजी मुहावरा बन गई है, उसी विषय पर उन्होंने सरल और बोधगम्य भाषा में एक लंबा लेख लिख दिया। यह काम वही व्यक्ति कर सकता था जो खुद अपार अध्ययनशील हो और जिसने पढ़े हुए को गुना भी हो।
अपने पहले लेख याने अतीत में मुक्तिबोध एक दार्शनिक जिज्ञासा में तैरते दिखाई देते हैं। 19 वर्षीय  लेखक का आत्मविश्वास यहां स्पष्ट झलकता है मानों उसके पास सब प्रश्नों के उत्तर हैं। वह लिखता है- अतीत हमारी समालोचना है, वर्तमान हमारा गतिमान काव्य है; और भविष्य हमारी आशा है । इस लेख में लोकप्रिय मराठी मासिक किर्लोस्कर में प्रकाशित एक लेख का संदर्भ है, जो मुक्तिबोधजी की किशोरवय में ही विकसित अध्ययन वृत्ति को सूचित करती है। वे आगे वर्ड्सवर्थ  की कविता ओड ऑन इम्मॉर्टेलिटी  का भी उल्लेख करते हैं। मैं अनुमान लगाता हूं कि कॉलेज के शिक्षक रमाशंकर शुक्ल इत्यादि उनकी इस रुचि को बढ़ाने में प्रेरक हुए होंगे। 1938-39 में ही तो मुक्तिबोधजी ने शुक्लजी के निधन पर भावभीनी श्रृद्धांजलि दी थी (देखें अक्षर पर्व मुक्तिबोध विशेषांक जून 2017)। इसकी अंतिम पंक्ति में इलैक्ट्रॉन, प्रोटॉन  के आसपास विद्युत बरसने का जिक्र है। गोया 1938-39 से लेकर जीवन के अंतिम समय तक मुक्तिबोध विज्ञान के सूक्ष्म रहस्यों व मानव चेतना पर उनके प्रभावों का अध्ययन करने में जिज्ञासु भाव से जुटे हुए थे। कहना न होगा कि वे वैज्ञानिक चेतना के प्रसार के लिए सदैव चिंतित और व्याकुल रहे, जैसा कि ये लेख दर्शाते हैं।
मुक्तिबोध की कविताओं में एक तरफ साम्राज्यवाद, पूंजीवाद, सांप्रदायिकता, युद्ध का विरोध एवं दूसरी ओर विश्व शांति, शांतिपूर्ण सहअस्तित्व, नवस्वतंत्र देशों तथा तीसरी दुनिया के देशों के बीच मैत्री, अन्याय, अत्याचार, शोषण का खात्मा होने की उत्कट अभिलाषा व्यक्त होती है। इसके विस्तार में जाना यहां आवश्यक नहीं है। जैसा कि स्वाभाविक है कविता में उनका जीवन दर्शन बिंबों और प्रतीकों के सहारे प्रकट हुआ है। इसके बरक्स वे अपने राजनैतिक लेखों में सुदृढ़ तर्कों और पूरी स्पष्टता के साथ सीधी सपाट भाषा में अपने विचार सामने रखते हैं। वे देश-विदेश के घटनाचक्र पर सामयिक हस्तक्षेप करने को एक लेखक का नागरिक दायित्व मानते हैं। कर्मवीर में अप्रैल 39 में प्रकाशित एक अन्य लेख में वे कहते हैं-
मैं सच कहता हूं कि दिन-दिन मैं अपने व्यक्तित्व में विस्तार लाना चाहता हूं। हम एक व्यक्ति को प्यार कर संसार से अलग क्यों हटें, हमें अपना अनुराग दुखी संसार पर बिखेर देना चाहिए। इसी लेख की अंतिम पंक्ति विशेषकर ध्यान देने योग्य है इसलिए कि मात्र इक्कीस साल के तरुण से सामान्यत: ऐसी  सोच की अपेक्षा नहीं की जाती और न इसे वयसुलभ रूमान कहकर खारिज किया जा सकता, क्योंकि मुक्तिबोध का भावी जीवन (थोड़ा ही सही) कार्य (बहुत) करने में बीता- जीवन थोड़ा है, कार्य बहुत है और शक्ति अत्यन्त कम है, और चारों ओर अंधकार ही अंधकार है
नौजवान का रास्ता  व  जिंदगी के नए तकाजे और सामाजिक त्यौहार  जैसे लेखों में दुखी संसार पर अनुराग बिखेरने की भावना के सूत्र खुलते हैं। उन्हें यह देखकर पीड़ा होती है कि नौजवानों के सामने विकास के लक्ष्य गुम हैं, इसलिए वह अपनी खाली जेब, भूख की यंत्रणा, दुर्भाग्य को चवन्नी-छाप एक्ट्रेसों की सूरत देखकर दो मिनिट के लिए भुलाना चाहता है। लेकिन वे इसके आगे चेतावनी देते हैं कि उसे गलत न समझा जाए। हमारा नौजवान बेहद सच्चा है। और बेहद अच्छा है।  उसमें बड़ी आग है और बहुत मिठास है। (नौजवान का रास्ता)। नागपुर में उत्सवों का भौंडापन देखकर भी उन्हें क्लेश होता है, लेकिन फिर वे उसका विश्लेषण करते हैं कि यह गरीबों की संस्कृति है। ये उनके सांस्कृतिक कार्यक्रम हैं। उनकी अंधेरी के ये सर्वोच्च क्षण हैं। आगे वे कहते हैं कि उनके सांस्कृतिक कार्यक्रमों में सुधार होना चाहिए। उनके पास उत्तम मानसिक खाद्य पहुंचाने की जरूरत है।  परंतु केवल सांस्कृतिक कार्यक्रमों से वह बात नहीं बनती जो जिंदगी की परिस्थितियां बदल देने से होती है। यह क्या होगा, इसके लिए वे मध्यवर्ग का आह्वान करते हैं कि वह नवीन सामाजिक-सांस्कृतिक आंदोलन चलाए। ( ज़िन्दगी के नए तकाजे और सामाजिक त्यौहार)
स्पष्टत: मुक्तिबोधजी लोकशिक्षण को एक अनिवार्य कर्म मानते हैं। वे वैश्विक घटनाचक्र पर लिखने के लिए कलम उठाते हैं तब भी उनके मन में यही भावना होती है। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद शीतयुद्ध का लंबा दौर प्रारंभ हुआ, इसके आर्थिक, सामरिक, कारकों को वे बखूबी पहचानते हैं। हिंदचीन  (वियतनाम, लाओस, कंबोडिया) में अपना प्रभुत्व बनाए रखने के लिए साम्राज्यवादी ताकतें कैसे षड़यंत्र रच रही थीं,  इनका खुलासा करने के लिए वे अनेक लेख लिखते हैं। भारत में विदेशी पूंजी निवेश पर चिंता करते हुए भी उन्होंने कई लेख लिखे। इजाप्त में स्वेज नहर पर आधिपत्य व मध्यपूर्व (पश्चिम एशिया) के तेल भंडारों पर कब्जा बनाए रखने के लिए अमेरिका-यूरोप ही नवसाम्राज्यवादी देशों ने कैसे-कैसे खेल रचे, मुक्तिबोध सजग दृष्टि से उसका भी अवलोकन कर रहे थे। वे नेहरू-नासिर-टीटो की त्रिमूर्ति के नेतृत्व में उभरे गुटनिरपेक्ष आंदोलन को प्रशंसा भाव से देखते और उसे अपना समर्थन देते हैं। दूसरी ओर वे स्टालिन के दौर में विश्व साम्यवाद की जो हानि हुई, उसका भी संज्ञान लेते हैं। विशेष उल्लेखनीय है कि 1956 में ही उन्होंने सोवियत संघ को चेतावनी दी थी कि अन्तरराष्ट्रीय मोर्चे पर दृढ़ हो जाने के बाद उसे अपने और अन्य साम्यवादी देशों में जनतंत्र मजबूत करने के लिए वैचारिक युद्ध में कूदना पड़ेगा। 
इन राजनैतिक लेखों के अध्ययन से यह भी समझ आता है कि मुक्तिबोध यद्यपि देश में कांग्रेस सरकार की आर्थिक-सामाजिक नीतियों से संतुष्ट नहीं थे, लेकिन पंडित नेहरू के प्रति उनके मन में अगाध विश्वास था। गुटनिरपेक्ष आंदोलन की भूमिका को वे विश्व इतिहास की नई रेखा निरूपित करते हैं। स्वेज नहर के मसले पर उनका मानना था कि केवल तटस्थ राष्ट्र याने गुटनिरपेक्ष आंदोलन ही इजाप्त को आसन्न संकट से उबार सकता है। इसे वे आंदोलन को अपना पैर जमाने, अपना प्रभाव बढ़ाने के लिए एक जबर्दस्त नया मौका भी मानते हैं। पंडित नेहरू 1956 में पश्चिम जर्मनी की यात्रा पर जाते हैं। वहां उनका भव्य स्वागत होता है। तत्कालीन राजधानी बॉन में एक प्रमुख सड़क का नाम महात्मा गांधी पर रखा जाता है, इसे वे भारत का सम्मान बढ़ना कहते हैं। इस सबको मुक्तिबोध प्रशंसा भाव से देखते हैं। दून घाटी में नेहरू  यह लेख विशेष रूप से पठनीय है। अप्रैल 1957 में नेहरूजी एक सप्ताह की छुट्टियां बिताने देहरादून जा रहे थे। मुक्तिबोध लेख में नेहरूजी की भूरी-भूरी प्रशंसा करते हुए कहते हैं कि वे जिस जिम्मेदारी के काम पर हैं, उसमें आराम करना भी एक कर्तव्य है, ताकि वे लंबे समय तक हमारे बीच रह सकें। 
मुक्तिबोधजी ने दीपमालिका शीर्षक से संपादकीय लिखते हुए कामना की कि भारत को स्वर्गलोक बनाने के लिए शोषण और अत्याचार के पहाड़ों को चीरकर अपार श्रम से नई प्राणधारा बहाना होगी। वे हुएन-सांग की डायरी शीर्षक से एक रूपक रचते हैं जो काव्यमय भाषा में है। हुएन-सांग मुग्ध मन से चर्चा करता है कि नालंदा के वातावरण में कला, साहित्य, दर्शन और तर्कशास्त्र की चर्चाओं से दिन-रात गूंजता है। उसे छोड़कर जाने का मन नहीं है, लेकिन अंत में वह कहता है- पर मुझे चीन तो लौटना ही है।  यह लेख 1958 में छपा था। रायपुर के पास सिरपुर का उत्खनन तब तक प्रारंभ हो चुका था, लेकिन वहां के बौद्ध विहार तब तक प्रकाश में नहीं आए थे। अन्यथा कौन जाने कि मुक्तिबोध हुएन-सांग की सिरपुर यात्रा पर भी लिखते!
मुक्तिबोधजी ने भाषा नीति पर भी कुछ लेख लिखे हैं। वे हिंदी के महत्व को रेखांकित करते हैं किंतु वे कदम-ब-कदम और मंज़िल-दर-मंज़िल आगे बढ़ने पर जोर देते हैं। वे इस पदावली को दोहराते भी हैं। उनके बेहद रोचक लेख साहित्य के काठमांडू का नया राजा  का उल्लेख किए बिना मेरा लेख अधूरा रहेगा।
अविभाजित मध्यप्रदेश (मध्यप्रांत और बरार) के गोंदिया नगर में 1955 में म.प्र. हिंदी साहित्य सम्मेलन का अधिवेशन हुआ था। इसमें पं. रविशंकर शुक्ल की सरकार में वित्तमंत्री विदर्भ केसरी बृजलाल बियाणी सम्मेलन के नए अध्यक्ष चुने गए थे। उन्होंने गीतांजली के अनुगायक, सुप्रसिद्ध गीतकार एवं लब्धप्रतिष्ठित साहित्यकार, जबलपुर के महापौर पं. भवानीप्रसाद तिवारी को पराजित किया था। मुक्तिबोध बियाणीजी की खुलकर आलोचना करते हुए तल्खी से पूछते हैं कि लेखक के रूप में आपने क्या साहित्य सेवा की है। इस लेख के अंतिम पैराग्राफ को पूरा का पूरा उद्धृत करने का लोभ मैं संवरण नहीं कर पा रहा हूं। 
कहने दीजिए कि हि.सा.स. का जनता से कोई ताल्लुक नहीं। भारतीय संस्कृति और हिन्दी साहित्य के नाम पर चलनेवाली वह एक नकली साहित्य संस्था है। हम दुर्ग, रायगढ़, मुंगेली, अकलतरा, राजनांदगांव, रायपुर, नरसिंहपुर, छिन्दवाड़ा, खण्डवा, बुरहानपुर, आदि-आदि छोटी-छोटी जगहों के अन्याय-पीड़ित जीवन बितानेवाले वर्गों के साहित्यिक नौजवानों को यह आह्वान करते हैं कि वे 'जनता के लिए साहित्य' का आंदोलन उठाएं और म्युनिसिपल कन्दील के नीचे, बरगद के तले, और जहां-जहां उन्हें जगह मिल सके, वे आपस में मिलें और यह तय करें कि उन्हें जनता का जीवन चित्रण करना है। कहानी, नाटक, उपन्यास, लोक-गीत, मुक्तक-गीत, खण्डकाव्य, लेख, निबन्ध, रिपोर्ताज, स्केच, आदि लिखें और सुनायें और इस प्रक्रिया के दौरान में जनता के लिए अपनी कलात्मक अभिव्यक्ति को सुधारें, संवारें और निखारें, तथा नेमाड़ी, बुंदेली, छत्तीसगढ़ी आदि मध्यप्रदेशीय लोक भाषाओं के पुनरुत्थान के लिए दिन-रात कोशिश करते रहे। कवि-सम्मलेनों में जनता की वाणी में जनता की चीखें गूंज उठें। साथ ही, शीघ्र ही किसी प्रकार सारे प्रान्त के जन-सेवी जन-द्रष्टा लेखकों की एक छोटी-सी परिषद बुलाई जाय, जिसमें निर्णयात्मक रूप से मध्यप्रदेश साहित्यिक आन्दोलन की दिशा को मोड़ दी जा सके।
कुल मिलाकर हम देखते हैं कि मुक्तिबोध के समूचे साहित्य में लोक शिक्षण और लोकहित ही सर्वोपरि है और उनका यह लोक भारत में नहीं बल्कि जापान से अमेरिका तक फैला हुआ है।             
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जनसंस्कृति मंच द्वारा भिलाई में 3-4 नवंबर को आयोजित राष्ट्रीय संगोष्ठी में प्रस्तुत व  देशबंधु अवकाश अंक 12 नवंबर में प्रकाशित 

Wednesday 15 November 2017

नेहरू बनाम पटेल

जैसा कि हमने पिछले तीन वर्षों में देखा है प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी चौबीस घंटे सातों दिन चुनाव की मुद्रा में रहते हैं। उनका हर बयान, हर भाषण, देश में हो या विदेश में, मतदाताओं को ध्यान में रखकर ही दिया जाता है। उनके भाषणों में संचारी भाव तो अनेक हैं, लेकिन स्थायी भाव एक ही है और वह है नेहरू विरोध। देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू और उनके वंशजों को दिन में कम से कम एक बार कोसे बिना उन्हें चैन नहीं मिलती। वे नेहरू पर वार करने के लिए नए-नए मुद्दों की तलाश में रहते हैं, फिर बात चाहे सच हो या झूठ, इससे उन्हें फर्क नहीं पड़ता। वे बार-बार सरदार पटेल का कद पंडित नेहरू से ऊंचा करने की कोशिश करते हैं। इस काम को पिछले तीन साल से वे बिना थके करते आ रहे हैं। चाहे वह सरदार सरोवर में सरदार पटेल की विश्व में सबसे ऊंची प्रतिमा लगाने की बात हो या फिर आसन्न चुनाव। उनकी यह टेर बनी रहती है। 
हम इस विषय का वस्तुगत विश्लेषण करने का प्रयत्न करेंगे, लेकिन उससे पहले मोदीजी और उनकी पूरी फौज से दो-तीन प्रश्नों के जवाब मांगना चाहेंगे। हमारा पहला प्रश्न है कि अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में गृहमंत्री रहे लालकृष्ण अडवानी को उनके दौर में दूसरे लौहपुरुष की संज्ञा दी गई थी। दूसरे शब्दों में उन्हें सरदार पटेल के समकक्ष खड़ा किया गया था। श्री मोदी के राज में अडवानी जी कहां हैं? यह प्रश्न इसलिए भी उठता है कि गुजरात नरसंहार के बाद जब वाजपेयीजी ने मोदीजी को राजधर्म का पालन करने का निर्देश दिया था तब श्री अडवानी ही थे जिन्होंने मोदी जी की वकालत की थी और उनका मुख्यमंत्री पद बचाने में मदद की थी। हम यह भी देख रहे हैं कि देश में वाजपेयी जी के नाम पर अनेक राष्ट्रीय संस्थान स्थापित हो गए हैं। उनके नाम पर योजनाएं भी चल रही हैं, लेकिन अडवानी जी के नाम को चिरस्थायी बनाने के लिए कहीं कोई प्रयत्न नहीं दिखाई दिए।
यह स्पष्ट है कि नरेन्द्र मोदी की जो राजनैतिक महत्वाकांक्षा है उसमें लालकृष्ण अडवानी के लिए कोई जगह नहीं है। वे कभी वाजपेयी जी के अनन्य सहयोगी रहे होंगे, आज उनकी उपयोगिता शून्य है। मुरली मनोहर जोशी और शांताकुमार जैसे वरिष्ठ नेता भी हाशिए पर हैं। इसी तरह एक ओर दीनदयाल उपाध्याय के नाम पर तमाम योजनाएं चल रही हैं, लेकिन नानाजी देशमुख को शायद ही याद किया जाता हो, जबकि जनसंघ और भाजपा को खड़ा करने में उनका सैद्धांतिक, राजनैतिक और रचनात्मक योगदान महत्वपूर्ण रहा है। हम समझते हैं कि पंडित नेहरू और सरदार पटेल के संबंधों की बात करने से पहले भारतीय जनता पार्टी के लोगों को कुछ आत्मावलोकन भी कर लेना चाहिए। वे जो बार-बार सरदार पटेल की दुहाई देकर पंडित नेहरू को कोसते हैं बहुत से तथ्यों की जानबूझ कर अनदेखी कर देते हैं। नहीं करेंगे तो उनका केस खारिज हो जाएगा।
सबसे पहले इस तथ्य को ध्यान में रखना होगा कि सरदार पटेल महात्मा गांधी से मात्र छह वर्ष छोटे थे और पंडित नेहरू से चौदह वर्ष बड़े थे। देश को आजादी मिलने के समय उनकी आयु बहत्तर वर्ष हो चुकी थी, जो कि उस वक्त के पैमानों पर परिपक्व आयु थी। याद रखें कि 1947 में भारत में व्यक्ति की औसत आयु मात्र सत्ताइस वर्ष थी और पचास वर्ष का व्यक्ति वृद्ध कहलाने लगता था। यही नहीं, सरदार पटेल का स्वास्थ्य भी उम्र के चलते उनका साथ नहीं दे रहा था। आज जिस पार्टी में पचहत्तर वर्ष की आयु के स्वस्थ व्यक्ति को पद न देने का सिद्धांत लागू कर दिया हो, वह पार्टी 1947 में एक विरोधी पार्टी के बहत्तर वर्षीय वृद्ध को प्रधानमंत्री न बनाने पर आपत्तियां करें तो यह तर्क विचित्र लगता है और स्वीकार नहीं किया जा सकता। भाजपा के लोग ही बताएं कि उन्होंने अडवानी जी के बदले मोदीजी को प्रधानमंत्री पद के लिए 2013 में उम्मीदवार क्यों घोषित किया था।
यह स्मरणीय है कि पंडित नेहरू महात्मा गांधी के संपर्क में सन् 1915 में ही आकर स्वतंत्रता संग्राम में जुड़ गए थे। जब 1917 में गांधीजी चंपारण गए तब नेहरू जी ने बिहार के अपने मित्रों को गांधी जी की मदद के लिए प्रेरित किया था, जबकि सरदार पटेल दो वर्ष बाद 1917-18 में ही गांधीजी के संपर्क में आए थे। खैर! यह कोई बहुत बड़ा अंतर नहीं था, लेकिन हम पाते हैं कि बाद के वर्षों में नेहरू और पटेल दोनों गांधीजी के प्रिय शिष्य बनकर किसानों और आम जनता के बीच में लगातार काम करते रहे। पंडित नेहरू 1929 में कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गए तो अगले वर्ष सरदार पटेल को इस पद से देशसेवा का अवसर मिला। किन्तु यह तथ्य गौरतलब है कि नेहरू 1929 तक देश में युवा हृदय सम्राट के रूप में स्थापित हो चुके थे और उनकी अपील देशव्यापी थी।
हम यह भी देखते हैं कि नेहरू जहां आम जनता के बीच में लोकप्रिय थे वहीं पटेल की छवि संगठनकर्ता के रूप में बनी थी। नेहरू में एक तरह का उतावलापन था और वे कई बार बारीकियों में नहीं जाते थे, खासकर संगठन के स्तर पर होने वाली उठापटक में उनकी दिलचस्पी बिल्कुल भी नहीं थी। दूसरी ओर पटेल संगठन के कामों में गहरी दिलचस्पी लेते थे। कांग्रेस पार्टी के भीतर उनकी गहरी पकड़ थी। यह एक बिन्दु था जिसको लेकर नेहरू और पटेल के बीच टकराव होने का अंदेशा उन्हें जानने वालों के मन में बना रहता था। लेकिन कहना होगा कि सरदार पटेल अपने स्वभाव की गंभीरता के अनुरूप टकराव को टालने का रास्ता निकाल लेते थे और विघ्न संतोषियों के मंसूबे पूरे नहीं होने देते थे। यह ध्यान रखना भी उचित होगा कि नेहरू एक विराट वैश्विक दृष्टि के धनी थे, जबकि सरदार इस दिशा में बहुत रुचि नहीं लेते थे।
यह श्रेय सरदार पटेल को उचित ही दिया जाता है कि देशी राज्यों के निजीकरण और भारत के संघीय ढांचे को पुष्ट करने में उन्होंने ऐतिहासिक भूमिका निभाई। यह उनकी दृढ़ता थी कि बड़े-बड़े राजे-महाराजे उनके सामने नतमस्तक हो गए। यहां फिर हमें पंडित नेहरू की भूमिका को भी साथ-साथ देखने की आवश्यकता है। ध्यातव्य है कि देशी रियासतों में राजाओं के खिलाफ वातावरण बन रहा था। जैसे ब्रिटिश इंडिया में जनता स्वतंत्रता की आकांक्षी थी, वैसे ही इन रियासतों के प्रजाजन भी राजशाही से मुक्ति चाहते थे। इस उद्देश्य से कांग्रेस के ही मार्गदर्शन में अखिल भारतीय प्रजामंडल या कि ऑल इंडिया स्टेट पीपुल्स कांफ्रेस का गठन हुआ। पंडित नेहरू 1939 में इसके अध्यक्ष बने और देशी रियासतों में जनता को प्रेरित करने में उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। एक तरह से पंडित नेहरू और सरदार पटेल इस कार्य में एक-दूसरे के पूरक बने।
यह आरोप द्वेषवश लगाया जाता है कि पंडित नेहरू अथवा उनके वंशजों ने सरदार पटेल की उपेक्षा की। सबसे पहले तो यह समझ लें कि नेहरू प्रधानमंत्री थे और सत्रह साल इस पद पर रहे, जबकि सरदार उपप्रधानमंत्री थे और उन्हें मात्र तीन वर्ष का समय मिला इसलिए दोनों के बीच कोई भी तुलना करना असंगत है। यह कहना भी गलत है कि कांग्रेस ने सरदार पटेल का नाम भुला दिया। पूरे देश में कांग्रेस द्वारा सरदार के नाम पर स्थापित संस्थान एवं भवन इसके ज्वलंत प्रमाण हैं। सच्चाई यह है कि दक्षिणपंथी ताकतें 1945-46 से पंडित नेहरू के विरुद्ध वातावरण बनाते आ रही है। जो लोग भारत को एकचालकानुवर्ती हिन्दू राष्ट्र और पेशवाई शासन में देखना चाहते हैं वे भला कैसे नेहरू को स्वीकार करें। इसीलिए कभी नेताजी, कभी सरदार, कभी लोहिया को पंडित नेहरू के बरक्स खड़ा करने की कोशिश करते हैं। ऐसा करके वे स्वयं को छल रहे हैं।
देशबंधु में 16 नवंबर 2017 को प्रकाशित 

 

Friday 10 November 2017

इंदिरा गाँधी:एक प्रकृतिमय जीवन



1978 या 79 की गर्मियों का वाकया है। इंदिरा गांधी (वे उस वक्त प्रधानमंत्री नहीं थीं) और पी.वी. नरसिंह राव बंगलौर से मैसूर जा रहे थे। उनके साथ एक पूर्व परिचित अमेरिकी राजनैतिक विश्लेषक भी थे। उनके मन में शायद इंदिरा जी से तत्कालीन राजनीति पर बात करने की इच्छा रही होगी! इंदिरा जी तीन घंटे की यात्रा के दौरान दोनों सहयात्रियों को रास्ते के पेड़-पौधों के बारे में जानकारी देती रहीं। सफर खत्म हुआ तो श्री राव ने अमेरिकी सज्जन से कहा- इन्हें तो राजनीति में जाने के बजाय वनस्पति शास्त्र का प्रोफेसर होना चाहिए था। 

इसके कुछ समय बाद का एक अन्य प्रसंग है। आर. राजामणि प्रधानमंत्री कार्यालय में अधिकारी थे। वे इंदिराजी के साथ एक यात्रा पर गए थे। उन्होंने अपने संस्मरणों में लिखा- हम छोटे से डाक बंगले से बाहर निकले तो क्यारी में लगे एक फूल वाले पौधे के बारे में इंदिरा जी ने मुझसे पूछा- इस पौधे का नाम जानते हो? मैंने उत्तर दिया- हमारे यहां इसे श्मशान फूल कहा जाता है। इस पर इंदिरा जी ने जानकारी दी कि यह औषधीय गुण वाला पैरीविंकल (सदा सुहागन) है जिसके रसायन से कैंसर की दवा भी बनती है। उन्होंने पौधे का वानस्पतिक नाम भी मुझे बतलाया। 

मैंने उपरोक्त दोनों प्रसंग जयराम रमेश की इसी वर्ष प्रकाशित पुस्तक इंदिरा गांधी : अ लाइफ इन नेचर से लिए हैं। श्री रमेश का परिचय देने की यहां कोई आवश्यकता नहीं है। इंदिरा जी के जन्मशती वर्ष में यह पुस्तक प्रकाशित कर उन्होंने एक अत्यंत महत्वपूर्ण काम किया है। जैसा कि पुस्तक के शीर्षक से ही पता चलता है कि यह इंदिरा गांधी के प्रकृति प्रेम पर केन्द्रित है। पुस्तक में इंदिरा गांधी के राजनीतिक व्यक्तित्व की चर्चा लगभग नहीं के बराबर की गई है और जो की गई है वह प्रसंगोचित है। ऊपर जो उद्धरण दिए हैं उनसे इंदिरा गांधी का पेड़-पौधों के प्रति अनुराग प्रकट होता है, लेकिन पुस्तक सिर्फ यहीं तक सीमित नहीं है, इंदिरा जी का प्रकृति प्रेम उसके पूरे आयामों के साथ प्रकट हुआ है। पर्यावरण के प्रति उनकी गहरी प्रतिबद्धता और चिंता इसमें दस्तावेजों के साथ उभरकर सामने आई है। उन्हें प्राकृतिक विरासत के अलावा मानव निर्मित विरासत के संरक्षण की भी उतनी ही चिंता थी, यह भी हम जान पाते हैं। अपनी इस प्रतिबद्धता के कारण भारत ही नहीं, सारी दुनिया के पर्यावरणविदों से उन्हें जो सम्मान मिला और वे कैसे एक पर्यावरण प्रेमी विश्वनेता मानी गईं, पुस्तक यह सब भी हमें बताती है। जयराम रमेश ने लेखकीय तटस्थता का भरपूर परिचय दिया है। राजनैतिक कारणों से इंदिरा जी को जब अपनी ही नीतियों के विपरीत जाकर झुकना पड़ा तो उसका वर्णन भी वे करते हैं। 

इंदिरा गांधी का प्रकृति और पर्यावरण के प्रति प्रेम बचपन में ही प्रारंभ हो गया था। पंडित नेहरू ने पिता के पत्र पुत्री के नाम से उन्हें जो तेरह पत्र लिखे उनमें से पहले पांच धरती माता और प्रकृति को लेकर ही हैं। वे खुद लिखती हैं- इन पत्रों से मुझे मनुष्य जाति और विश्व के बारे में सोचने की प्रेरणा मिली। इन पत्रों ने मुझे सिखाया कि प्रकृति को भी पुस्तक की तरह ध्यान से पढ़ा जाना चाहिए। मैंने पेड़, पौधे, पत्थरों, कीड़े-मकोड़ों और तारों को देखने-समझने में अनगिन घंटे लगाए होंगे। 

मॉरीस मैटरलिंक बेल्जियन लेखक थे जिन्हें 1911 में साहित्य के लिए नोबल पुरस्कार मिला था। उनकी किताब है- द लाइफ ऑफ द बी  याने मधुमक्खी का जीवन। यह पुस्तक नेहरूजी ने नैनी जेल के कारावास के दिन बिताते हुए दिसंबर 1930 में इंदिरा जी को भेजी थी जब वे मात्र तेरह वर्ष की थीं। इस पुस्तक का उनके ऊपर गहरा असर पड़ा। उन्होंने मैटरलिंक की अन्य किताबें भी पढ़ीं; फिर पेड़-पौधों, पशु-पक्षियों के बारे में उन्होंने अपने पिता की सलाह पर एक के बाद एक किताबें पढऩा शुरू किया। 1932 में एक साल के दौरान मात्र पन्द्रह वर्ष की आयु में उन्होंने प्रकृति से संबंधित कोई साठ किताबें पढ़ डाली थीं। याने हर हफ्ते एक किताब से भी अधिक। जयराम रमेश इंदिरा जी के इस प्रकृति प्रेम का अध्ययन करते हुए कुछ उल्लेखनीय तथ्य सामने रखते हैं। 

मसलन 1972 में स्वीडन की राजधानी स्टाकहोम में मानवीय पर्यावरण पर संयुक्त राष्ट्र का पहला अधिवेशन आयोजित हुआ। इसमें मेजबान देश के अलावा सिर्फ इंदिरा गांधी को ही मंच से बोलने का अवसर दिया गया। उनके व्याख्यान की दूर-दूर तक बहुत चर्चा हुई उनके व्याख्यान का एक महत्वपूर्ण अंश इस प्रकार है- सबसे जरूरी और बुनियादी सवाल विश्व शांति का है। आधुनिक युद्ध कौशल से अधिक गैरजरूरी और कुछ नहीं है। जो हथियार बन रहे हैं वे न सिर्फ मारते हैं बल्कि जिंदगियों को अपाहिज कर देते हैं, उनको भी जो गर्भस्थ हैं, इनसे बढ़कर विनाशकारी और कुछ नहीं है। ये धरती में जहर घोलते हैं, चारों तरफ कुरूपता, विध्वंस और हताशा फैलाते हैं। क्या पर्यावरण से संबंधित कोई भी परियोजना युद्ध के माहौल में बच सकती है?

इसी भाषण में उन्होंने यह भी कहा कि जब तक गरीबी दूर करने और आम जरूरतों को पूरा करने के लिए प्रभावी कदम नहीं उठाए जाएंगे तब तक पर्यावरण दूषित होता रहेगा। मैंने यहां शब्दश: अनुवाद न कर इंदिरा जी के मनोभावों को अपने शब्दों में रखने की कोशिश की है। हम देख सकते हैं कि इंदिरा गांधी पर्यावरण के प्रश्न को एक सीमित दायरे में नहीं बल्कि उसके व्यापक परिप्रेक्ष्य में देख रही थीं। कुल जमा छह महीने पहले ही तो एक भारी कीमत चुकाकर बंगलादेश को आज़ादी मिली थी, जबकि अमेरिका और चीन पाकिस्तान की मध्यस्थता में एक-दूसरे से दोस्ताना संबंध कायम कर रहे थे। वियतनाम पर अमेरिकी हमला भी तब जारी था। ऐसे में भारत की प्रधानमंत्री ने सामयिक और सटीक बात करते हुए विश्व का ध्यान आकृष्ट किया कि एक बेहतर पर्यावरण शांति के माहौल में ही संभव है और उसके लिए विश्व के सारे देशों को मिलजुलकर कदम उठाने पड़ेंगे। उनकी यह व्यवहारिक सोच प्रधानमंत्री के रूप में लिए गए अनेक निर्णयों में दिखाई देती है। यद्यपि इससे कभी-कभी उनके पर्यावरणविद मित्रों को निराशा भी हुई, जो एकांगी दृष्टिकोण से पर्यावरण रक्षा की बात सोचते थे। 

जयराम रमेश ने अपनी पुस्तक पूरी तरह से आधिकारिक दस्तावेजों और पत्राचार पर केन्द्रित की है जिससे पुस्तक की प्रामाणिकता स्वयंसिद्ध होती है। इसके अलावा उन्होंने पुस्तक को कालक्रम के अनुसार लिखा है जिससे पाठक इंदिरा जी के बचपन से लेकर अंत तक एक पर्यावरण हितैषी या प्रकृति प्रेमी के रूप में उनकी जीवनयात्रा को देख सकते हैं। जयराम रमेश ने स्टाकहोम सम्मेलन के अलावा पाठकों का ध्यान इस ओर भी आकर्षित किया है कि भारत में बाघों की संरक्षण की योजना प्रोजेक्ट टाइगर उन्हीं की रुचि से प्रारंभ हो सकी। यही नहीं गिर के सिंह, कश्मीर के हांगुल हिरण, प्रवासी सारस, राजस्थान के ग्रेट इंडियन बस्टर्ड, और तमिलनाडु के मगरमच्छ जैसे विनाश के कगार पर खड़े प्राणियों के संरक्षण के लिए भी उन्होंने प्रभावकारी कदम उठाए। वन्यजीव संरक्षण और वन संरक्षण के लिए बने दो महत्वपूर्ण कानून भी उनकी ही देन हैं। यह भी संयोग है कि भारतीय वन सेवा को स्थापित करने का निर्णय उनके ही कार्यकाल में लागू हुआ। इन सब तथ्यों को देखते हुए जयराम रमेश आग्रह करते हैं कि इंदिरा जी के व्यक्तित्व के अन्य पहलुओं को कुछ देर के लिए बाजू में रखकर उनके व्यक्तित्व को एक 'हरे चश्मे’ से भी देखना चाहिए।
 
जिम कॉर्बेट, गिर, सरिस्का जैसे नेशनल पार्क, भरतपुर का केवलादेव घना पक्षी अभयारण इत्यादि पर्यावरण हितैषी उपक्रम इंदिरा जी के कार्यकाल में ही मूर्तरूप ले सके। उन्हें पूरे देश की खबर रहती थी कि पर्यावरण का विकास या विनाश कहां किस तरह से हो रहा है। सलीम अली, डिलैन रिप्ले, होरेस अलेक्जेंडर, धर्मकुमार सिंहजी, जफर फतेहअली, बिली अर्जुनसिंह, एम. कृष्णन जैसे उत्कृष्ट पर्यावरणविद उनके निजी मित्र थे। इनकी राय और सलाह वे ध्यानपूर्वक सुनती थीं। उनके कहने पर आवश्यक कदम उठाती थीं। दूसरी तरफ मौनी मल्होत्रा, एम.के. रणजीतसिंह, समर सिंह, आर. राजामणि, सलमान हैदर और माधव गाडगिल जैसे पर्यावरण से गहरा लगाव रखने वाले अधिकारी समय-समय पर उनके पास रहे जिन पर वे भरोसा कर काम सौंप सकती थीं। इंदिरा जी ने ही पर्यावरण मंत्रालय की स्थापना की और उसके पहले तीन सचिव क्रमश: एम.जी.के. मेनन, एस.जेड कासिम तथा टी.एन. खुशू अपने-अपने क्षेत्र के ख्यातिप्राप्त वैज्ञानिक थे। इन सबके यथासमय आवश्यक सहयोग से वे पर्यावरण सुधार व पर्यावरण संरक्षण के अनेक कार्यक्रमों को प्रारंभ व संचालित कर सकीं। उल्लेखनीय है कि इन योजनाओं में उन्हें कई बार भारी विरोध भी झेलना पड़ा। इसमें कभी न्यस्त स्वार्थों से प्रेरित विरोध था, तो कभी केन्द्र और राज्य के नेताओं की अपनी सीमित समझ और कभी स्थानीय राजनीति के दबाव। इनसे संबंधित कुछ ऐसे प्रसंगों का जिक्र जयराम रमेश ने किया है जो पाठकों को रुचिकर लग सकते हैं।
 
भारत में एक समय वन्यप्राणियों का शिकार वर्जित नहीं था। इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्री बनने के कुछ साल बाद तक भी यह कारोबार चल रहा था। कुछ लाइसेंसशुदा शिकार कंपनियां थीं जो विदेशी शिकारियों की सेवा करती थीं। इंदिरा गांधी ने मध्यप्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री श्यामाचरण शुक्ल को लिखा कि आपके यहां बाघों का शिकार हो रहा है, इसे बंद कर देना चाहिए। उल्लेखनीय है कि उस समय तक वन और वन्यप्राणी पूरी तरह से राज्य सरकार के विषय थे। श्री शुक्ल ने इस सलाह पर कोई कार्रवाई नहीं की तब इंदिरा जी ने नाराजगी जाहिर करते हुए उन्हें दूसरा पत्र लिखा। श्री शुक्ल को इसके बाद प्रधानमंत्री की बात अनिच्छा से माननी पड़ी। कुछ साल बाद इंदिरा गांधी को बाघ, तेंदुआ आदि की खालें निर्यात किए जाने की खबर मिली। ये खालें मध्यप्रदेश के सतना से दिल्ली लाई गई थीं। इंदिरा गांधी ने तब के मुख्यमंत्री प्रकाशचंद सेठी से दरयाफ्त किया कि आपके राज्य में अवैध शिकार कैसे हो रहा है। इस पत्र में उन्होंने यह भी लिखा कि श्यामाचरण शुक्ल के भाई विद्याचरण तो शिकार कंपनी चलाते थे, इसलिए उनकी रुचि शिकार रोकने में नहीं थी, लेकिन अब भी वैसा क्यों हो रहा है। 

मध्यप्रदेश का एक और प्रसंग है। बस्तर में सालवन काटकर चीड़ याने पाइन के वृक्षारोपण की एक महती परियोजना हाथ में ली गई। यह योजना वल्र्ड बैंक के सहयोग से लागू की जानी थी। इसका मुख्य उद्देश्य पेपर मिलों को लुगदी उपलब्ध कराना था। इस योजना का बस्तर में भी विरोध हुआ और राष्ट्रीय स्तर तक इसकी चर्चा हुई। (प्रसंगवश लिख दूं कि देशबन्धु ने इस प्रकरण को उजागर करने में अहम् भूमिका निभाई थी।) इंदिरा जी ने तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह को लिखा कि योजना रद्द की जाए। मुख्यमंत्री ने इस पर अपनी कोई सफाई भेजी वह इंदिरा जी ने स्वीकार नहीं की। अंतत: यह योजना रद्द कर दी गई। 

केरल की साइलेंट वैली, उड़ीसा की चिल्का झील पर नौसैनिक प्रशिक्षण केन्द्र की स्थापना, आगरा-मथुरा के बीच मथुरा रिफाइनरी का निर्माण, बंबई का बेकबेरिक्लेमेशन इत्यादि अनेक योजनाएं थीं जिनमें इंदिरा जी कभी पूरी तरह अपनी बात नहीं मनवा सकीं। अक्सर कोई न कोई राजनीतिक या प्रशासनिक विवशता आड़े आ जाती थी। फिर भी उन्होंने जितना सोचा और किया वह आज एक दुर्लभ बात मानी जाएगी। इंदिरा गांधी निर्मित विरासत के संरक्षण के लिए भी बराबर प्रयत्नशील थीं। बंबई के निकट एलीफेंटा के विश्व प्रसिद्ध मंदिर को बचाने के लिए उनके प्रयत्नों से ही एलीफेंटा द्वीप संरक्षित इलाका घोषित किया गया। जैसलमेर के किले में हो रहे क्षरण के प्रति भी वे चिंतित थीं। भारतीय पुरातत्व संरक्षण के गैरजिम्मेदाराना रवैये पर उन्होंने कई बार खुलकर आलोचना की। 

भारत के पर्वतीय स्थानों में अपने पुरखों का प्रदेश कश्मीर उन्हें अतिप्रिय था। इसके बाद मनाली से उन्हें बेहद लगाव था। वे चाहती थीं कि शिमला, नैनीताल, दार्जिलिंग जैसे नगर जिस तरह से व्यावसायिकता की भेंट चढ़ चुके हैं वैसा मनाली के साथ न हो और उसकी प्राकृतिक सुषमा बरकरार रही आए। दुर्भाग्य से उनकी यह इच्छा पूरी नहीं हो सकी। व्यावसायिक हितों ने मनाली की भी बलि ले ली। दरअसल वे हिमालय से अभिभूत थीं। भारतीय पर्वतारोहण संस्थान के दशाब्दी समारोह में उन्होंने कहा- हिमालय ने हमारे इतिहास का निर्माण किया है, उसने हमारे दर्शन को रूपाकार प्रदान किया है, हमारे संतों और कवियों को प्रेरणा दी है, हमारा मौसम उससे प्रभावित होता है। एक समय हिमालय हमारा रक्षक था, आज आवश्यकता है कि हम हिमालय की रक्षा करें। 
पंडित नेहरू को सितंबर 1958 में तिब्बत यात्रा करना थी। किसी कारणवश यह यात्रा स्थगित हो गई। विदेश मंत्रालय के तत्कालीन उपसचिव जगत मेहता के सुझाव पर भूटान यात्रा का कार्यक्रम बना। नेहरू जी ने तय किया कि वे भूटान यात्रा बर्फीले, पथरीले पहाड़ी रास्तों पर ट्रेकिंग करते हुए पूरी करेंगे। उनकी आयु तब उनसठ वर्ष थी। इंदिरा जी साथ में थीं। वे भी इकतालीस वर्ष की हो चली थीं। पिता-पुत्री दोनों को पहाड़ों से प्रेम था और बर्फ का उन्हें कोई खौफ नहीं था। प्रधानमंत्री का काफिला बागडोगरा तक हवाई जहाज से गया। वहां से गंगटोक मोटर कार से। फिर अगले दस दिन में एक सौ पांच किलोमीटर की यात्रा पैदल चलकर की जिसमें बारह हजार फीट, चौदह हजार फीट और पन्द्रह हजार फीट तक की चढ़ाई उन्हें तय करना पड़ी। यह एक अविस्मरणीय यात्रा थी। भूटान के साथ हमारे विश्वास और सहयोग के संबंध इस यात्रा से सुदृढ़ हुए। 
जयराम रमेश ने अपनी पुस्तक में इस प्रसंग का भी विस्तार से उल्लेख किया है। कुल मिलाकर यह बेहद रोचक, पठनीय, ज्ञानवद्र्धक और प्रेरक पुस्तक है। इंदिरा गांधी की जन्मशती पर इससे बढ़कर श्रद्धांजलि और कुछ नहीं हो सकती थी। हमें संतोष है कि इस पुस्तक की चर्चा के बहाने हम भी इंदिरा गांधी के अप्रतिम योगदान का स्मरण कर सके।

अक्षर पर्व 2017 अंक की प्रस्तावना 

पुस्तक का नाम- इंदिरा गांधी : अ लाइफ इन नेचर
लेखक- जयराम रमेश
प्रकाशक- साइमन एंड शूस्टर इंडिया, नई दिल्ली
मूल्य- 799 रुपए
प्रकाशन वर्ष- 2017