भारत जैसे विशाल, विविधवर्णी, संघीय गणराज्य का राजकाज चलाना कोई आसान काम नहीं है। देश में जैसे-जैसे राजनीतिक चेतना का विकास हो रहा है, यह काम और भी कठिन होते जा रहा है। जितनी अपेक्षाएं हैं उतनी ही परेशानियां भी हैं और सरकार में जो भी रहे उसे एक अद्भुत संतुलन विकसित करने की आवश्यकता होती ही है। हमारे संविधान निर्माताओं ने बहुत आगे की सोचकर ऐसे प्रावधान किए थे, जिनके सही ढंग से पालन होने पर काफी कुछ ठीक-ठीक चल सकता है। इसके उपरांत भी समय-समय पर संविधान में नए-नए प्रावधान किए जाते रहे हैं ताकि सुशासन कायम करने में मदद मिल सके। देश में जनतंत्र के अनुरूप तीन बुनियादी संस्थाएं हैं जिनका काम संविधान की अपेक्षा के अनुसार राजकाज चलाना है। इस व्यवस्था के अंतर्गत ही अनेक अन्य सहायक संस्थाओं या अभिकरणों की स्थापना की गई है जो अलग-अलग विषयों के कार्य संपादन के लिए जिम्मेदार हैं।
विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका- इन तीनों बुनियादी अंगों की स्वतंत्र एवं स्वायत्त सहायक संस्था या अभिकरण के रूप में चुनाव आयोग, सीएजी, केन्द्रीय सतर्कता आयोग, आईबी, सीबीआई, प्रेस परिषद, अल्पसंख्यक आयोग, मानवाधिकार आयोग जैसी कितनी ही संस्थाएं कार्य कर रही हैं। ऐसा माना जाता है कि शासनतंत्र का अंग होने के बावजूद ये तमाम अभिकरण उससे अलग हैं तथा इनके कामकाज में भय या राग (फीयर ऑर फेवर) का कोई स्थान नहीं होता। ऐसा भी मानकर चला जाता है कि ये राजनीतिक आग्रहों से मुक्त होकर अपना कार्य संपादित करते हैं। यह तो हुई आदर्श स्थिति। परंतु देश की राजनीति में पिछले बीस साल में जो अस्थिरता आई है उसके चलते इन अभिकरणों की विश्वसनीयता अथवा उपयोगिता पर भी प्रश्नचिन्ह लगने लगे हैं।
देश में एक सीमित समय तक या चुनाव अवधि के बीचएक राजनीतिक दल का वर्चस्व रहे, कम से कम लोकसभा में उसके पास पूर्ण बहुमत हो, तो राजनीति में अनावश्यक बवाल उठने की गुंजाइश कम होती है। बहुमत से एक निर्णय ले लिया सो ले लिया, फिर भले ही कोई निजी तौर पर उससे असहमति क्यों न रखता हो। किंतु 1989 के बाद दृश्य पूरी तरह परिवर्तित हो चुका है। इस नए माहौल में जनतंत्र के तीनों आधार स्तंभों के क्रियाकलाप भी आलोचना से नहीं बच पा रहे हैं और इनके जो सहायक अभिकरण हैं उन पर आरोप मढ़ देना तो जैसे बच्चों का खेल हो गया है। यह कहना गलत नहीं होगा कि देश की लगभग सभी संवैधानिक संस्थाओं की विश्वसनीयता और वैधानिकता पर प्रश्न खड़े करने का जो राजनीतिक तमाशा इन दिनों चला हुआ है वह किसी के लिए भी श्रेयस्कर नहीं है।
कुछ माह पूर्व सर्वोच्च न्यायालय ने गुजरात के रायपाल द्वारा मनोनीत लोकायुक्त की नियुक्ति को जब वैध ठहराते हुए इस प्रदेश के उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की राय को जो वजन दिया तब उसे भाजपा के वरिष्ठ नेता अरुण जेटली ने उचित नहीं माना था। एक अन्य प्रसंग में थोड़े समय बाद सुप्रीम कोर्ट की यह टिप्पणी भी आई कि राज्य का मुख्य सूचना आयुक्त कोई सेवानिवृत्त जज ही होना चाहिए। इसके पहले चुनाव आयुक्त नवीन चावला की नियुक्ति पर सवाल उठाए गए तो प्रेस परिषद के अध्यक्ष मार्कण्डेय काटजू के बारे में लगातार असंतुलित टिप्पणियां की जा रही हैं। सीएजी विनोद राय तो विवादों में हैं ही। पूर्व में सेवानिवृत्त सीएजी टी.एन. चतुर्वेदी को यदि भाजपा ने रायसभा में भेज दिया तो कांग्रेस ने भी पूर्व मुख्य निर्वाचन आयुक्त एम.एस. गिल को मंत्री बनाने से संकोच नहीं किया।
ऐसे तमाम प्रसंगों से क्या सिध्द होता है? अव्वल तो यही कि राजनीतिक दल इन संवैधानिक अभिकरणों की विश्वसनीयता को दांव पर लगाकर अपनी राजनीति चमकाना चाहते हैं। उन्हें स्वस्थ परंपराएं स्थापित करने का कोई ख्याल नहीं है। दूसरे यह कि इन पदों पर बैठे हुए लोग भी निजी लाभ-लोभ की भावना को छोड़ नहीं पा रहे हैं या जैसा कि जस्टिस काटजू के बारे में हमें लगता है कि वे हर समय वाद-विवाद प्रतियोगिता में प्रथम आने की धुन में लगे रहते हैं। अभिकरणों के बारे में रोज-रोज सवाल खड़े किए जाएंगे तो इनको स्थापित करने का मकसद कैसे पूरा होगा?
यह ऐसा बिन्दु है जिस पर सत्तापक्ष, विपक्ष और इन संस्थाओं के पीठासीन अधिकारी- सभी को विचार मंथन करने की तत्काल आवश्यकता है। आज के राजनीतिक परिदृश्य में शायद यह पुनर्विचार करने का वक्त है कि इन संस्थाओं में नियुक्ति अथवा मनोनयन के आधार और प्रक्रिया क्या हाें। यह बात केन्द्रीय संस्थाओं पर भी लागू होती है और राज्य की संस्थाओं पर भी। अभी केंद्र स्तर पर नियुक्ति की जो प्रक्रिया है उसमें प्रधानमंत्री, विपक्ष का नेता, संबंधित विभाग का मंत्री, लोकसभा के अध्यक्ष अथवा सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश ऐसे कुछ शीर्षस्थ व्यक्तियों में से तीन या चार की चयन समिति बनाकर किसी को चुन लिया जाता है। इसी तरह के प्रावधान प्रदेश स्तर पर भी हैं। जाहिर तौर पर इस समिति में बहुमत सत्तापक्ष का ही होता है, उसका प्रस्तावित प्रत्याशी मनोनीत हो जाता है, जिसके चलते विपक्ष को बाद में आक्रमण करने का अवसर भी मिल जाता है। विनोद राय संभवत: एकमात्र ऐसे अपवाद हैं जिनका समर्थन विपक्ष ही कर रहा है।
यह तो तय है कि जब भी कोई नियुक्ति होगी उसकी पहल केन्द्र या राज्य में सत्तारूढ़ दल की ओर से याने प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री की ओर से ही होगी। लेकिन इसके बाद प्रक्रिया को यादा व्यापक और यादा पारदर्शी बनाया जा सकता है। सत्ता पक्ष जिसे भी मनोनीत करना चाहे करे; इसके लिए संसद अथवा विधानसभा के स्तर पर एक चयन समिति गठित की जा सकती है, जिसमें सभी राजनीतिक दलों के निर्वाचित सदस्यों का समावेश हो। सत्तापक्ष जिस भी व्यक्ति को चुनाव आयोग इत्यादि के लिए मनोनीत करे वह इस चयन समिति के सामने पेश हो और खुले परीक्षण-प्रतिपरीक्षण के बाद बहुमत से उसकी नियुक्ति हो। ऐसी व्यवस्था अमेरिका में है। एक अच्छी बात उनसे ले लें तो इसमें क्या हर्ज है। ऐसे व्यक्ति से फिर अपेक्षा की जा सकती है कि वह भय अथवा राग से मुक्त होकर अपना काम कर सकेगा। इसमें अगर बंदिश रहे कि ऐसे व्यक्ति को दुबारा कोई शासकीय पद नहीं मिलेगा तो इसके लिए भी वह व्यक्ति मानसिक रूप से तैयार हो।
हम समझते हैं कि अनावश्यक आरोप-प्रत्यारोपों से बचने और इन संवैधानिक संस्थाओं की विश्वसनीयता बनाए रखने के लिए इस तरह के नए उपायों पर विचार किया जाना चाहिए।
देशबंधु में 7 मार्च 2013 को प्रकाशित
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