Thursday 26 January 2017

तिरुवनंतपुरम : कुछ यात्रा चित्र




 एक समय था जब मनुष्य ने मिट्टी को पकाकर ईंट और खपरैल बनाना नहीं सीखा था। इनका आविष्कार लगभग पन्द्रह सौ -सत्रह सौ साल पहले हुआ होगा। छत्तीसगढ़ के प्राचीन नगर सिरपुर का प्रसिद्ध लक्ष्मण मंदिर कोई पन्द्रह सौ साल पुराना है जो धूप में पकाई गई ईंटों से बना है। क्या उस दौर में भी पर्यावरण की चिंता करने वाले कोई लोग थे? जब मिट्टी, बांस और ताड़पत्र आदि से मकान बनते थे तब ईंट और खपरैल के भवन निर्माण का प्रयोग एक नयी बात ही थी। क्या उस समय के लोगों को भी चिंता हुई होगी कि इस नई सामग्री के प्रयोग से प्राकृतिक सुंदरता नष्ट हो रही है या पर्यावरण को क्षति पहुंच रही है? यह सवाल पिछले सप्ताह केरल की राजधानी तिरुवनंतपुरम  के प्रवास के दौरान अनायास ही मेरे मन में उठा। मुझे फिर सुप्रसिद्ध लेखिका आयन रैंड के उपन्यास ‘‘द फाउंटेनहैड’’ का भी ध्यान आया। इस कथा का नायक एक वास्तुशिल्पी है जो भवन निर्माण में सीमेंट, स्टील और कांच का भरपूर उपयोग करता है। उसका तर्क है कि आखिरकार इन सामग्रियों का आविष्कार इसीलिए तो हुआ है कि इनका उपयोग किया जाए। दूसरे शब्दों में उसने आवश्यकता आविष्कार की जननी है को ही रेखांकित किया।

दरअसल आज से दस साल पहले मैंने जिस त्रिवेन्द्रम अथवा तिरुवनंतपुरम को देखा था और अभी जो देखा उसमें जमीन-आसमान का फर्क था। जो हर स्थिति से समझौता कर लेते हैं उन्हें इससे कोई खास परेशानी नहीं होती। समय बदल गया है, सब कुछ पहले जैसा थोड़े ही रहेगा, कहकर अपने मन को दिलासा दे सकते हैं; किन्तु समय बदला है तो स्थितियां बेहतर होना चाहिए, तब तो प्रगति का कोई अर्थ है! दक्षिण भारत के समुद्र तट पर बसे इस नगर की संरचना अपने आपमें कभी बहुत खूबसूरत थी। पश्चिम में अरब सागर और चारों दिशाओं में बेहद घनी हरियाली, नारियल और सुपारी के ऊंचे-ऊंचे वृक्ष, नगर की ऊंची-नीची सडक़ें और राजधानी होने के बावजूद पुरसुकून जीवन शैली। न  ज्यादा शोर, न कोई हड़बड़ी, शहर को पांच किलोमीटर में उत्तर से दक्षिण  नाप लीजिए, पूर्व से पश्चिम भी लगभग उतना ही विस्तार। मेरे देखे में दक्षिण के ऐसे दो शहर थे- मंगलोर और त्रिवेन्द्रम, जहां पेड़ों की छाया घरों को ढांक लेती थी, नगर के ऊपर मानो पहले हरा आकाश होता था,  नीला उसके ऊपर।

यह पुराना दृश्य तेजी के साथ बदल रहा है। ईंट और कवेलू से बने पुराने एक-दो मंजिला घर टूट रहे हैं, उनकी जगह बहुमंजिला इमारतें खड़ी हो रही हैं। मंगलोरी कवेलू की ढलवॉं छत बरसाती पानी को रुकने नहीं देती थी, घर के भीतर का तापमान भी उससे नियंत्रित रहता था, अब एसी के बिना काम नहीं चलता। हरे वृक्ष के स्थान पर कांक्रीट के वृक्ष खड़े हो रहे हैं। कुछेक इलाकों में तो अब हरियाली बिल्कुल भी नहीं है। स्वाभाविक है कि तापमान अब झुलसाने वाला हो गया है। फिर वाहनों की संख्या भी निरंतर बढ़ रही है, उस पर किसी का वश नहीं है और न आज के सभ्य समाज में उसे रोकने की कोई इच्छा दिखाई देती है। इससे वायु प्रदूषण होना ही था और वह हो रहा है। यातायात को सुचारु बनाने के लिए कुछ फ्लाईओवर बन चुके हैं और कुछ नए बनाने की तैयारी चल रही है। शहर के भीतरी हिस्सों में तो सडक़ों के विस्तार की बहुत गुंजाइश नहीं है, लेकिन बाहरी हिस्से में कुछ सडक़ें फोरलेन की जा चुकी हैं।

तिरुवनंतपुरम इस तरह से भले ही देश के अन्य प्रमुख नगरों से होड़ ले रहा है, वह अभी भी कई  मायनों में एक प्रादेशिक नगर है तथा केरल की जो समतावादी सामाजिक चेतना है वह आज भी बरकरार है। कुछ सप्ताह पहले एक राष्ट्रीय कार्यशाला में भाग लेने के लिए मैं वहां गया था। विधानसभा अध्यक्ष को उसका उद्घाटन करना था। वे अकेले अपने सरकारी वाहन में आए, उनके साथ कोई तामझाम नहीं था, न पायलट कार, न फॉलो गार्ड और न सायरन। वे इतने चुपचाप आए कि पता ही नहीं चला कि कोई वीआईपी आया है। पिछले सप्ताह हम कुछ साथी अखिल भारतीय शांति एवं एकजुटता संगठन के राष्ट्रीय अधिवेशन में भाग लेने के लिए गए। मुख्यमंत्री पिनराई विजयन मुख्य अतिथि थे। वे नियत समय पर आए, उनके साथ सिर्फ एक गाड़ी थी और कोई लाव-लश्कर नहीं। इस सादगी की तुलना केरल के अलावा  अन्य किस राज्य से की जा सकती है?

तिरुवनंतपुरम  में पर्यटकों के लिए दो मुख्य आकर्षक हैं- पद्मनाभस्वामी मंदिर और कोवालम बीच। मैं दोनों जगह नहीं गया। कई वर्ष पूर्व जब मंदिर देखने गया तब वहां प्रवेश के लिए वेशभूषा का जो प्रतिबंध है उस कारण मैं बाहर ही रुक गया था।  फिर दुबारा जाने का मन ही नहीं हुआ। व्यवसायीकरण के चलते कोवालम बीच की जो दुर्गति हुई है मैं पहले देख चुका था, उसके चलते वहां दुबारा जाने का कोई आकर्षण नहीं था। जो साथी गए उन्हें भी कोई आनंद नहीं आया। समुद्रतट की एक लंबी पट्टी बड़े होटलों को दे दी गई है, जनसामान्य के लिए जो थोड़ी जगह बची है वह पथरीली है, रेत वहां लगभग नहीं है और चारों तरफ बाजार की चिल्ल-पों है। इसके बजाय विमानतल के निकट षण्मुगम बीच की तरफ लोगों का आकर्षण बढ़ा है। यहां अभी भी मछुआरों की बस्ती है। रेत में और किनारे पर सैकड़ों नावें बंधी दिखाई देती हैं। चूंकि विमानतल और रक्षा-प्रतिष्ठान निकट हैं इसलिए यह समुद्र तट बचा रहेगा, ऐसी उम्मीद बनती है।

केरल की राजधानी में कुछ अन्य आकर्षण भी हैं- जैसे कुछ पुराने महल और कुछ अन्य मंदिर इत्यादि। यदि समय हो तो इन्हें देखना चाहिए। एक प्रदेश की सांस्कृतिक विरासत को जानने का मौका मिलता है। शहर में मंदिर, मस्जिद और गिरजाघरों की संख्या लगभग बराबर होगी। मंदिर शायद कुछ ज्यादा हों, लेकिन मंदिर के बाजू में मस्जिद अथवा गिरजाघर एक साथ दिख जाए तो इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं। केरल में व्यंजनों की जो विविधता है उससे हम सामान्य तौर पर परिचित नहीं हैं। दोसा, इडली, उत्थपम पर आकर हमारी लिस्ट समाप्त हो जाती है, लेकिन केरल में अवियल, अप्पम, इडिअप्पम आदि व्यंजन भी प्रचलित हैं। इडिअप्पम एक तरह की सेवई है। अप्पम दोसे से कुछ मिलता-जुलता है। इन्हें सामान्यत: अवियल के साथ खाते हैं, जो नारियल के दूध में पकाई गई सब्जी होती है। जिन्हें सामिष व्यंजनों में रुचि है उनके लिए भी कोई कमी नहीं है, लेकिन करी मीन केरल का विशिष्ट लोकप्रिय व्यंजन है। कुछ समय पूर्व प्रदेश में मद्यनिषेध हो गया था लेकिन पूरी तरह नहीं। अब रेस्त्रां या हर किसी होटल में बैठकर सुरापान की सुविधा नहीं है, परन्तु दुकानें खुली हुई हैं। आप बोतल खरीदकर ले आइए और अपने घर या कमरे में बैठकर पी लीजिए। पांच सितारा होटलों को बार के लाइसेंस मिले हुए हैं।

मैं दो व्यक्तिगत संस्मरणों के साथ इस वृत्तांत को समाप्त करना चाहूंगा। एक दिन मैं सभास्थल से ऑटो लेकर मसालों की दुकान की तलाश में निकल गया। लौटते समय होटल कहां, किस दिशा में, कितनी दूर है यह किसी से पूछा तो मालूम पड़ा पास है, पैदल जा सकते हैं। एक जगह फिर रुककर पूछने की आवश्यकता पड़ी तो एक सज्जन ने रास्ता बता दिया। मैं आगे चल पड़ा, दो मिनट बाद वे पीछे से अपनी बाइक लेकर आए, साथ बैठने का इशारा किया और अपनी बाइक पर मुझे होटल के दरवाजे तक छोड़ गए। ऐसा दुर्लभ सौजन्य।

दूसरा प्रसंग इसके विपरीत। विमान तल आने के लिए टैक्सी बुक की। टैक्सी आई। बढिय़ा चमचमाती गाड़ी। ड्राइवर ने अपनी सीट पर बैठे-बैठे ही डिक्की खोल दी। मैंने सूटकेस रखा और डिक्की बंद की। एयरपोर्ट पर उतरा, उसने फिर अपनी सीट से हिले बिना डिक्की को खोला। मैंने पूछा कि आप सवारी की मदद नहीं करते सामान रखने उतारने में। उसका उत्तर बढिय़ा था- इसका एक्सट्रा पैसा दोगे क्या? मैंने सूटकेस उतारा और सोचा कि इस बंदे की ट्रेनिंग केरल में नहीं, कहीं और हुई होगी।

देशबंधु में 26 जनवरी 2017 को प्रकाशित 

Wednesday 18 January 2017

प्रधानमंत्री या ब्रांड एम्बेसेडर


प्रधानमंत्री या ब्रांड एम्बेसेडर भारतीय जनता पार्टी ने कहने को तो हरियाणा के वरिष्ठ मंत्री और मुख्यमंत्री पद के दावेदार रहे नेता अनिल विज के विवादास्पद बयान से किनारा कर लिया है, लेकिन उसी के साथ-साथ पार्टी ने जो आधिकारिक वक्तव्य जारी किया है उससे भाजपा के सही इरादे प्रकट हो जाते हैं। इस अधिकृत बयान में साफ तौर पर कहा गया है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को खादी ग्रामोद्योग कमीशन ने अपने 2017 के कैलेण्डर में स्थान देकर कोई गलती नहीं की है। श्री मोदी की लोकप्रियता का लाभ आयोग को मिलेगा और इससे देश-विदेश में खादी को बढ़ावा मिलेगा। यह बयान मोदी सरकार की कार्यप्रणाली के सर्वथा अनुकूल है। भारतीय जनता पार्टी ने उनको अपना ब्रांड एम्बेसेडर बनाकर ही चुनाव जीता था और जिस दिन से श्री मोदी प्रधानमंत्री बने हैं उस दिन से, वाणिज्यिक मुहावरे में, अपनी ब्राण्ड इक्विटी में इजाफा करने का कोई मौका उन्होंने नहीं छोड़ा है। यह अनायास नहीं है कि फिलहाल केन्द्र में जो सरकार है उसे कोई एनडीए सरकार नहीं कहता, भाजपा सरकार भी नहीं कहता बल्कि उसे मोदी सरकार के नाम से ही जाना जाता है।

यूं तो व्यक्ति पूजा हर समाज में किसी न किसी रूप में विद्यमान रहती है, किन्तु नरेन्द्र मोदी ने इस मामले में सबको पीछे छोड़ दिया है। उनकी जो कार्यशैली है उसे देखकर यह शंका भी उभरती है कि क्या श्री मोदी नेतृत्व क्षमता के समयसिद्ध मानदंडों पर खरे उतरते हैं! वे अपने आपको एक महानायक के रूप में देखते हैं और ऐसा लगता है कि अपनी वृहदाकार छवि निर्मित करने के लिए वे लंबे समय तक प्रतीक्षा नहीं करना चाहते। वे जिस तरह से एक के बाद एक ताबड़तोड़ घोषणाएं कर रहे हैं, योजनाएं पेश कर रहे हैं, अपने पूर्ववर्तियों के छवि-ध्वंस में जुटे हुए हैं वे सब इसी ओर इंगित करते हैं। एक नायक अपने तईं वीर, पराक्रमी, बुद्धिमान, साहसी, उद्यमी सब कुछ हो सकता है, किन्तु वह सच्चे अर्थों में नेता तभी माना जाएगा जब उसमें अपने समाज को साथ लेकर चलने की क्षमता हो। वह आगे रहता है, लेकिन साथी बहुत पीछे न छूट जाए, इसकी भी फिक्र करता है। आवश्यकता पडऩे पर उन्हें सहारा भी देता है। धीरज रखता है कि सब मिलकर आगे बढ़ेंगे। श्री मोदी इन बातों की परवाह करते दिखाई नहीं देते।

उन्होंने प्रधानमंत्री बनते साथ अपने शपथ ग्रहण में पड़ोसी देशों के राष्ट्रप्रमुखों को आमंत्रित किया। पहला संदेश गया कि नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में हम पड़ोसियों के साथ बेहतर संबंध बनाना चाहते हैं, लेकिन देखते ही देखते तस्वीर बदल गई। फिर वेे घूमते-घामते नवाज शरीफ से मिलने लाहौर पहुंच गए, उसके तुरंत बाद पठानकोट पर आतंकी हमला हो गया। कुछ समय पहले सर्जिकल स्ट्राइक कर सबक सिखाने की बात कही गई, उसका भी कोई वांछित प्रभाव देखने नहीं मिला। राष्ट्रपति बराक ओबामा भारत आए। प्रधानमंत्री ने शिष्टाचार का उल्लंघन करते हुए उन्हें प्रथम नाम से बार-बार बराक कहकर संबोधित किया, शायद जनता को अपने नायकत्व का एक और प्रमाण देने के लिए, किन्तु जाते-जाते बराक ओबामा उन्हें सार्वजनिक मंच से सहिष्णुता का सबक दे गए।

प्रधानमंत्री ने प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू द्वारा स्थापित योजना आयोग को भंग कर नीति आयोग का गठन कर दिया। लेकिन उससे हुआ क्या? योजना आयोग एक स्वायत्त संस्था थी, जिसकी जिम्मेदारियां सुनिश्चित थीं, परन्तु कोई नहीं जानता कि नीति आयोग क्या कर रहा है। वह एक स्वायत्त संस्था न होकर सरकार द्वारा नियंत्रित एक इकाई बनकर रह गया है। उसी तरह मोदी सरकार में रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया की स्वायत्तता में हस्तक्षेप करने के प्रयत्न भी बार-बार हुए और अंतत: इसमें सफलता मिल गई। प्रमाण विमुद्रीकरण के रूप में सामने है। गवर्नर उर्जित पटेल मुंह छुपाए घूम रहे हैं और रिजर्व बैंक कर्मचारी यूनियन उनसे अपने पद की गरिमा बचाने की अपील कर रही है। आए दिन खबरें सुनने मिलती हैं कि प्रधानमंत्री ने इसकी क्लास ली, उसकी क्लास ली, ऐसे फटकारा, वैसे फटकारा, मंत्री तक उनके सामने जुबान नहीं खोलते, अधिकारी हर समय दहशत में रहते हैं और यह कि प्रधानमंत्री का विश्वस्त अमला मंत्रियों और अधिकारियों पर चौबीस घंटे नजर रख रहा है इत्यादि। यह कैसा नेतृत्व है जिसमें निकट सहयोगियों से भी संवाद न हो? क्या हमारे प्रधानमंत्री अमित शाह और अजित डोभाल के अलावा अन्य किसी पर विश्वास नहीं करते?

प्रधानमंत्री ने पिछले ढाई-पौने तीन साल में अनेक ऐसी योजनाओं का श्रीगणेश किया जिन्हें सरकार का फ्लैगशिप प्रोग्राम याने सर्वप्रमुख कार्यक्रम कहा जाता है। यथा बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ, राष्ट्रीय स्वच्छता मिशन, मेक इन इंडिया, स्किल इंडिया आदि-आदि। बताया तो यह जाता है कि प्रधानमंत्री इन सारे कार्यक्रमों की खुद निगरानी कर रहे हैं। किन्तु यह दावा वास्तविकता से कोसों दूर है। जब इनके आंकड़े मांगे जाते हैं तो सरकार की तरफ से या तो गोलमोल जवाब दिया जाता है या फिर चुप्पी साध ली जाती है। स्वच्छ भारत के लिए स्वयं प्रधानमंत्री झाड़ू लेकर सडक़ पर उतरे थे। नीता अंबानी का झाड़ू लगाते फोटो भी हमने देखा था, लेकिन किसे नहीं पता कि कार्यक्रम को बिल्कुल भी सफलता नहीं मिली है। जिन राज्यों में भाजपा का शासन है वहां भी  ढाक के वही तीन पात की कहावत चरितार्थ हो रही है।

प्रधानमंत्री और उनके समर्थकों द्वारा बार-बार सत्तर साल की दुहाई दी जाती है। यह विडंबना है कि आपने अभी तक खुद तो कुछ उल्लेखनीय किया नहीं है, लेकिन जो पहले हो चुका है उसे एक सिरे से नकार कर जनता के मन में अविश्वास पैदा करने की कोशिश कर रहे हैं। सत्तर साल में क्या हुआ, उसे देखना कठिन नहीं है। हाथ कंगन को आरसी क्या? यही देख लीजिए कि आईआईटी, आईआईएम और एम्स जैसे उच्च शिक्षा संस्थान किसने स्थापित किए। हरित क्रांति का आगाज कब हुआ था, भारत अनाज में बड़ी हद तक आत्मनिर्भर कब बना। भारत में श्वेत क्रांति कब हुई और हमने विश्व के सबसे बड़े दुग्ध उत्पादन देश होने का गौरव कब हासिल किया। भिलाई से लेकर सेलम तक के इस्पात कारखाने किसने स्थापित किए। बाम्बे हाई में तेल उत्पादन कैसे प्रारंभ हुआ। 1947 में देश में औसत आयु सत्ताइस वर्ष थी, वह बढक़र लगभग सत्तर साल कैसे हो गई। इतना सब हुआ, फिर भी कहने से बाज नहीं आते कि कुछ नहीं हुआ। अगर आप में कृतज्ञता का भाव नहीं है तो न सही, झूठ फैलाकर पुरखों की स्मृति के साथ अन्याय तो मत कीजिए।

प्रधानमंत्री और उन्हें ज्ञान देने का दावा करने वाले योग व्यापारी आदि देश से भ्रष्टाचार मिटाने की बहुत बातें करते हैं। स्विस बैंकों में जमा अकूत धन वापिस लाने के बड़े-बड़े दावे किए गए थे, उनका क्या हुआ। नोटबंदी करके कालाधन समाप्त करने की बात की गई थी। दो महीने में उसमें बार-बार नियम बदले गए और नए-नए वायदे किए गए। आम जनता परेशान है, किसान, छोटे दुकानदार, निजी प्रतिष्ठानों के कर्मचारी असंगठित क्षेत्र के मजदूर, औसत गृहणियां सबको कठिनाइयां झेलना पड़ रही हैं, लेकिन मोदी सरकार को इसका कोई मलाल नहीं है। एक झटके में लगभग पूरा देश बेईमान और भ्रष्ट सिद्ध कर दिया गया है। अगर पवित्र और सच्चरित्र कोई है तो मोदी भक्त और इनकम टैक्स अधिकारी जिन्हें इंस्पेक्टर राज चलाने का नया लाइसेंस मिल गया है।

एक बड़ी तस्वीर के ये कुछ चित्र हैं। एक व्यक्ति जो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का वर्षों तक निष्ठावान कार्यकर्ता रहा हो और जिसने एक प्रमुख राज्य के मुख्यमंत्री के तौर पर ग्यारह वर्षों तक शासन चलाया हो उससे उम्मीद की जाती है कि जनता की नब्ज पर उसका हाथ है, और उसे पता है कि देश में सुख-शांति और समृद्धि का माहौल तैयार करने के लिए क्या किया जाना आवश्यक है। यदि एक नया रास्ता बनाना है तो उसके लिए समय और साधना की आवश्यकता तो होती ही है, जनता को भी साथ लेकर चलना होता है। नरेन्द्र मोदी को यह समझना चाहिए कि वे प्रधानमंत्री हैं, ईश्वर के अवतार नहीं। हमारे देश में अवतारी पुरुषों की ही मूर्तियां प्रतिष्ठित होती आई हैं। राष्ट्रपिता की मूर्ति चौक-चौराहों पर भले ही हो, उनके मंदिर नहीं बने हैं। प्रधानमंत्री हर जगह, हर समय अपनी ही छवि स्थापित करने में लगे रहेंगे, निजी कंपनियों के विज्ञापन से लेकर, सार्वजनिक उपक्रम के कैलेण्डर तक अगर उनकी ही तस्वीर दिखेगी तो यह ब्रांडिंग भी हो सकती है और अपनी प्रतिमा पूजन की इच्छा भी। दोनों स्थितियों में यह बात जनता को बहुत देर तक पसंद नहीं आएगी। जो आज आपको चाहते हैं कल वही आपसे दूर हो जाएंगे। अनिल विज और उनके जैसे चाटुकारों, सत्तासीन नेताओं और तोता-रटंत प्रवक्ताओं की बात अलग है।

Saturday 14 January 2017

पिंक : एक उत्तर-आधुनिक फिल्म


 ‘पिंक’ फिल्म आई और चली गई। काफी तारीफ सुन रखी थी, देखने का मन बना लिया था, आज-कल करते-करते समय बीत गया और फिल्म परदे से उतर गई। यह आधुनिक टेक्नालॉजी का कमाल है कि एक फिल्म बनती है, एक शहर में एक साथ कई टॉकीजों में दिखाई जाती है और एक सप्ताह या अधिक से अधिक दो सप्ताह चलकर वापिस चली जाती है। मुझे अब वैसे भी फिल्म देखने का पहले जैसा शौक नहीं रहा और फिर दूरदराज बने मल्टीप्लेक्स जाने में भी कोई खास आनंद नहीं आता। खैर! यह तो आपबीती हुई, पाठकों को इससे क्या मतलब! आप तो यह जानना चाह रहे होंगे कि मैंने फिल्म की चर्चा ही क्यों छेड़ी। हुआ कुछ ऐसा कि कुछ दिन पहले टीवी पर चैनल सर्फिंग करते-करते एकाएक पाया कि ‘पिंक’ दिखाई जा रही है। एक अच्छा मौका मिल गया यह जानने का कि जो तारीफ सुन रखी थी उसमें कितना दम था। फिल्म प्रारंभ हुए पांच या सात मिनट हो चुके थे किन्तु इससे कोई खास फर्क नहीं पड़ा, क्योंकि यह फिल्म धीरे-धीरे करके ही खुलती है।

मुझे ‘पिंक’ का कथानक सबसे अधिक जोरदार लगा। मेरी जितनी समझ है उस हिसाब से तकनीकी दृष्टि से फिल्म में कोई खास बात नहीं थी। एक अनुमान हुआ कि इसे काफी कम लागत में बनाया गया है। इसमें जितने अभिनेता थे, उनमें से अधिकतर के न तो नाम मालूम थे, न अन्य फिल्मों में उनके किरदार की कोई जानकारी थी और न इतनी तफ़सील में जाने में मेरी कोई रुचि थी। फिल्म में सुपर हीरो अमिताभ बच्चन हैं और कथानक को चरमोत्कर्ष पर वे ही ले जाते हैं। लेकिन अपने अभिनय में चाहे जितनी विविधता लाने की कोशिश करें, वे एंग्री यंग मेन की छवि से बाहर नहीं निकल पाते। इससे पहले जो उनकी फिल्म आई थी ‘पीकू’ वही शायद एक अपवाद थी जिसमें वे एक उम्रदराज व्यक्ति का स्वाभाविक रोल निभाते हैं। वह फिल्म भी उनके ऊपर केन्द्रित थी। ‘पिंक’ में इसकी बहुत गुंजाइश नहीं थी यद्यपि सारे समय पर्दे पर वे ही छाए रहे।

इस लेख के शीर्षक में मैंने ‘पिंक’ को एक उत्तर-आधुनिक फिल्म की संज्ञा दी है। उत्तर-आधुनिकता एक समाजशास्त्रीय अवधारणा है, जो विगत चार दशक से चल रही है। इसका उदय पश्चिम में हुआ व इसको लेकर बहुत शास्त्रार्थ हो चुका है। हमारे यहां भी इस अवधारणा को आए बीसेक साल हो चुके हैं। अनेक बुद्धिजीवी इस पर माथा खपाते हैं। वह सब फिलहाल हमारी विवेचना का विषय नहीं है। आज जो है वह आधुनिक है; जो कल होगा यदि उसकी भविष्यवाणी यदि कर सकें, तो फिर उसे उत्तर-आधुनिक कहा जा सकता है। परन्तु जो आने वाले कल में होगा वह उस दिन के लिए आधुनिक हो जाएगा। यहां पहेलियां बुझाने के बजाय कहा जा सकता है कि जो आने वाले कल में संभावित है, किन्तु जिसकी कल्पना आज कर ली गई है वह उत्तर-आधुनिक है। दूसरे शब्दों में हम आज और कल के बीच विद्यमान एक खाई की बात कर रहे हैं।

हर समाज आज की तारीख में कुछेक परंपराओं, प्रथाओं और रीतियों से संचालित हो रहा है। यहां आज से आशय एक दिन से नहीं बल्कि एक कालखंड से है, जिसमें समाज अपरिवर्तनशील रहता है। ध्यान रखें कि परिवर्तन की रफ्तार लगातार बढ़ रही है। ‘पिंक’ फिल्म की व्याख्या करें तो स्पष्ट समझ आता है कि भारतीय समाज में वर्तमान में जो रीतियां और प्रथाएं विद्यमान हैं यह फिल्म उनको चुनौती देती है, तोड़ती है, परिवर्तन का आह्वान करती है और एक नई सोच को जन्म देती है। इस फिल्म का अंत जिस बिन्दु पर होता है वह आज के भारतीय समाज को स्वीकार नहीं है। इसमें परिवर्तन की जो आहट है वह आज की सामान्य बुद्धि और सामूहिक कल्पना से परे है। आज के समाज में औरत की जो दुर्दशा है वह किसी से छिपी हुई नहीं है। उसे कदम-कदम पर निंदा, प्रताडऩा और धिक्कार का सामना करना पड़ रहा है। उसे पुरुष के सामने झुक जाना चाहिए, अगर नहीं तो सजा भुगतने के लिए तैयार रहना चाहिए। उस पर जो अनकथ अत्याचार जो हो रहे हैं उनके बारे में कुछ कहूं तो दोहराना ही होगा।

इस स्त्रीविरोधी समय में ‘पिंक’ की औरत बराबरी की बात करती है, अपनी देह पर पूरा अधिकार रखती है, पिता, भाई, अथवा पुत्र के संरक्षण में रहने की हिदायत को खारिज करती है। ‘पिंक’ की नायिका भारत की वह स्त्री है जो पुरुष प्रधान समाज में वर्चस्ववादी सोच को ठुकराते हुए साहसपूर्वक अपने लिए समान अधिकार मांगती है। एक वकील की भूमिका निभा रहे अमिताभ बच्चन इसमें स्त्री अधिकारों के पैरोकार बनकर सामने आते हैं। अमिताभ के रूप में एक ऐसा पात्र है, जो किंचित कौतूहल के साथ बदलते हुए समय को समझने की कोशिश कर रहा है। वह अलसुबह पार्क में अकेले जागिंग करती लडक़ी को विस्फारित  नेत्रों से लंबी देर तक देखता है। वह शायद समझना चाहता है कि समय किस तरह बदल रहा है। वह उनके साथ कुछ हिचकिचाहट के साथ सहानुभूति भी रखता है, यह तब पता चलता है जब वह मुसीबत में पड़ी लड़कियों के फ्लैट में जाकर उन्हें बिन मांगी कानूनी सलाह दे आता है।

इन दोनों दृश्यों में निर्देशक ने बहुत खूबसूरती के साथ मितभाषिता से काम लिया है। वकील साहब यहीं नहीं रुकते जब अन्य वकील "इन बिगड़ी हुई लड़कियों" का केस लडऩे से इंकार कर देते हैं। हमें फिर यह भी पता चलता है कि वकील साहब की पत्नी भी उनकी ही तरह विचारवान हैं। वे मृत्युशैया पर हैं, लेकिन अपने पति को लड़कियों की पैरवी करने के लिए प्रेरित करती हैं। यहां तक कि अस्पताल में उन्हें बुलाकर अपना आशीर्वाद भी देती हैं। इस तरह से ये पति-पत्नी आधुनिक समाज के वे प्रतिनिधि हैं जो कूपमंडूक न होकर खुले विचारों के हैं, जिन्हें आने-वाले समय का अहसास है, जो अपनी वृद्धावस्था में भी नए विचारों का स्वागत करने का साहस रखते हैं। अदालत में पैरवी करते हुए अमिताभ वकील की भूमिका में विस्तारपूर्वक तर्क करते हैं और विद्वान न्यायाधीश उनसे सहमत होते हुए उन लड़कियों के पक्ष में फैसला देते हैं, जो आज की नहीं, बल्कि आने वाली कल की लड़कियां हैं।

भारत में या बॉलीवुड में बनी यह पहली उत्तर-आधुनिक फिल्म नहीं है। भारतीय सिनेमा के सौ साल के इतिहास पर नज़र दौड़ाई जाए तो पता चलता है कि पहले भी ऐसी फिल्में बनी हैं जो ‘पिंक’ की ही तरह अपने समय से आगे की बातें थीं। अशोक कुमार-देविका रानी की फिल्म ‘अछूत कन्या’ सन् 1939 में बनी थी। उसमें सवर्ण और दलित के प्रेम का वर्णन था। ‘दुनिया न माने’ एक अन्य फिल्म थी जिसमें बूढ़ा व्यक्ति स्वयं ही बेमेल विवाह को खारिज कर देता है। तपन सिन्हा की बांग्ला फिल्म ‘अदालत उ एकटु मेये’ याने (अदालत और एक लडक़ी) में बलात्कार पीडि़त स्त्री है। शर्म से डूबने के बजाय अपने सम्मान की रक्षा के लिए अदालत का सहारा लेती है, जिसमें पुलिस इंस्पेक्टर उसका साथ देता है और अंतत: दुष्चरित्र युवकों को सजा मिलती है। विमल राय की ‘सुजाता’ का विषय भी विमल राय की सवर्ण युवक और दलित युवती का प्रेम है। इन सारी फिल्मों को आदर्शवादी कहा जा सकता है, लेकिन यह भी मानना होगा कि इनमें भविष्य में समाज का प्रतिबिंब दिखाई देते हैं।

ये फिल्में सिने जगत के बंधे-बंधाए ढांचे को तोड़ती हैं। ये कलात्मक दृष्टि से अथवा तकनीकी रूप से कितनी बेहतर हैं यह बात गौण हो जाती है जब कथानक सामने हो; किन्तु ऐसी फिल्में सिर्फ मनोरंजन के लिए नहीं बनाई जातीं। फिल्म एक रचनात्मक विधा है, अन्य विधाओं की तरह फिल्मों का भी एक सामाजिक मकसद हो सकता है और होना चाहिए। यह पर्याप्त नहीं है कि सामाजिक संदेश देने वाली फिल्म घिसी-पिटी लीक पर ही बने। क्योंकि ऐसी फिल्में बदलाव के भ्रम में यथास्थिति को कायम रखने से अधिक कुछ नहीं करतीं। आदर्श परिवार, आज्ञाकारी पुत्र, गृहलक्ष्मी, स्नेहिल, माता-पिता, दुष्ट सास-ननद इन सबको भारतीय दर्शक पिछले सौ साल से देखते आए हैं। फिल्मों में कलात्मक प्रयोग भी हुए हैं, लेकिन वह रचना का निर्माण पक्ष है। इस रचना की असली ताकत तो तब है जब वह आपके मन में उथल-पुथल मचा दे और जड़ मानसिकता को तोडक़र परिवर्तन के लिए आपको तैयार करे। ‘पिंक’ कुछ ऐसी ही आशा जगाती है। जिन्होंने इस फिल्म को देखा है वे शायद मेरी बात से सहमत होंगे।
देशबंधु अवकाश अंक में 15 जनवरी 2017 को प्रकाशित 

Wednesday 11 January 2017

मीडिया : साख का सवाल


 पाठकों के लिए तीन सलाहें: 
1. घटनाओं की वृहत्तर तस्वीर पाने के लिए सीमित समाचार स्रोतों पर आश्रित न रहें बल्कि व्यापक स्रोतों तक जाएं।
2. जब तब किसी समाचार की प्रामाणिकता के बारे में पूरी तरह से आश्वस्त न हों तब तक उसे शेयर न करें। ऐसा करने से अपुष्ट, भ्रामक समाचार फैलाने में हम सहभागी बन जाते हैं।
3. किसी समाचार के छपने के पीछे क्या कारण अथवा प्रयोजन है उसे जानने-समझने का प्रयत्न करें। हमें समाचारों की संतुलित खुराक की आवश्यकता है और इसके लिए उसका स्रोत क्या है यह समझना बेहद महत्वपूर्ण है।
उपरोक्त तीनों सलाहें मार्टिना चैपमैन ने दी हैं। वे बीबीसी में विभिन्न पदों पर दो दशकों से अधिक समय तक काम कर चुकी हैं और फिलहाल उत्तरी आयरलैंड में स्वतंत्र मीडिया परामर्शदाता के रूप में सेवाएं दे रही हैं। उनका एक साक्षात्कार कुछ दिन पूर्व एक अंग्रेजी समाचार पत्र में प्रकाशित हुआ। जहां से मैंने यह सोचकर इसे उठाया है कि वर्तमान में यह परामर्श आवश्यक है।
मैं इसी सिलसिले में पाठकों का ध्यान साध्वी खोसला की ओर दिलाना चाहता हूं। पत्रकार स्वाति चतुर्वेदी की अभी हाल में एक पुस्तक आई है जिसकी बहुत चर्चा हो रही है। इस पुस्तक का शीर्षक ही है- आई एम ए ट्रॉल: इनसाइट बीजेपी'ज़ सीक्रेट डिजिटल आर्मी।जैसा कि शीर्षक से स्पष्ट है पुस्तक में बीजेपी द्वारा सोशल मीडिया या डिजिटल मीडिया का उपयोग या दुरूपयोग कैसे किया जा रहा है, इसकी चर्चा की गई है। इसमें स्वाति चतुर्वेदी ने सुषमा स्वराज व मेनका गांधी जैसे मंत्रियों की प्रशंसा भी की है, अर्थात स्वाति कट्टर बीजेपी-विरोधी नहीं हैं, किन्तु पुस्तक मुख्य रूप से चर्चा में जिस कारण से आई वह है साध्वी खोसला का लेख। सुश्री खोसला ने रहस्योद्घाटन किया है कि भारतीय जनता पार्टी के सोशल मीडिया प्रभाग में किस तरह से विरोधियों पर सही-गलत आरोप लगाने व उनकी छवि धूमिल करने की योजनाएं बनाई जाती हैं। उनके लेख से खलबली तो मची लेकिन मीडिया में इसे शायद जानबूझ कर ही कोई खास तवज्जो नहीं दी गई।
साध्वी खोसला कहती हैं कि वे नरेन्द्र मोदी से प्रभावित थीं और इसीलिए दिसंबर 2013 में मोदी जी के 272 प्लस अभियान से जुड़ गई थीं। उनके काम को देखकर उन्हें दो महीने बाद फरवरी 2014 में बीजेपी के गूगल हैंगआउट ग्रुप में शामिल कर लिया गया था। अब भाजपा उनके पार्टी से किसी भी तरह से जुड़े रहने की बात से इंकार करती हैं, लेकिन साध्वी के अनुसार उन्होंने स्वयं ही 2015 की शुरूआत में भाजपा से मोह भंग होने के बाद रिश्ता तोड़ लिया था। उन्हें इस बात पर घोर आपत्ति थी कि शाहरुख खान और आमिर खान जैसे नेताओं को मुसलमान के रूप में प्रदर्शित कर उन पर आक्रमण किए जाएं, जबकि अब तक देश उन्हें जाति-धर्म से परे लोकप्रिय अभिनेता के रूप में देखते आया था। साध्वी का कहना है कि कांग्रेस और आप भी सोशल मीडिया का उपयोग करते हैं, किन्तु इस मामले में भाजपा उनसे आगे है। ट्विटर और फेसबुक दोनों पर भाजपा का वर्चस्व है जबकि कांग्रेस इस मामले में कमजोर है और गाली-गलौज वाली पोस्टें अधिकतर भाजपा के लोग ही करते हैं।

यह भी देख लीजिए कि चेतन भगत इस बारे में क्या कहते हैं। जैसा कि हम जानते हैं चेतन भगत हिन्दुस्तानी-अंग्रेजी के गुलशन नंदा हैं। किशोर मानसिकता के युवा ही मुख्यत: उनके पाठक रहे हैं। वे भाजपा समर्थक होने के साथ, नरेन्द्र मोदी के अनन्य प्रशंसक भी हैं। विगत दो वर्षों से वे लगातार मोदी जी के पक्ष में लेख लिखते रहे हैं। लेकिन अब उन्हें भी डर सता रहा है कि मोदीजी के अंधभक्त न सिर्फ उनकी छवि को नुकसान पहुंचा रहे हैं बल्कि भारत के जनतांत्रिक ढांचे को भी तार-तार कर रहे हैं। चेतन भगत ने ट्विटर पर एक सर्वे किया था कि भ्रष्टाचार समाप्त करने के लिए अगर मोदी आपातकाल लगाएं तो क्या लोग उसका समर्थन करेंगे? करीब दस हजार लोगों ने जवाब दिए व सत्तावन प्रतिशत लोगों का उत्तर हाँ में था। मुझ जैसे लोगों ने तो ऐसा सर्वे किए जाने पर ही प्रश्न उठाए थे, लेकिन सर्वे का नतीजा आने पर चेतन भगत कह रहे हैं कि मोदी चाटुकारों और मुसाहिबों से घिर गए हैं और यह खतरनाक बात है।
मेरा प्रयोजन इस समय नरेन्द्र मोदी या मोदी सरकार के कामों की विवेचना करना नहीं है, बल्कि मैं पाठकों का ध्यान मीडिया के वृहत्तर परिदृश्य की ओर ले जाना चाहता हूं। ऐसा नहीं है कि मीडिया में कभी कोई स्वर्णयुग था। ‘हमारे जमाने में ऐसा होता था’ जैसे उद्गार सिर्फ अपने मन को दिलासा देने के लिए व्यक्त किए जाते हैं। उदाहरण के लिए यह सच है कि अंग्रेजीराज के दौरान बहुत से अखबारों ने निर्भीकता के साथ माध्यम का उपयोग किया तथा इसके लिए जो भी कीमत चुकाना पड़ी वे उससे पीछे नहीं हटे, किन्तु उस दौर में भी उपनिवेशवादी सरकार की सरपरस्ती में बहुत से अखबार प्रकाशित होते थे। कलकत्ता का द स्टेट्समेन तो अंग्रेजों का ही था। लखनऊ से प्रकाशित पायोनियर के मालिक अवध के धनी जमींदार और तालुकेदार थे। इस परंपरा में और भी बहुत से पत्र थे। आज़ादी के बाद भी दो तरह के अखबार स्थापित हुए। एक जिनका व्यवसायिक हित सर्वोपरि था और दूसरे वे जो राष्ट्र निर्माण में भागीदार निभाने के इच्छुक थे।
आज जो स्थिति सामने है वह मुख्यत: इसलिए है कि मीडिया का कल्पनातीत विस्तार और विकास हुआ है। अखबार तो थे ही, अब रेडियो, टीवी और डिजिटल मीडिया भी हैं। पहले कुछेक चुने हुए केन्द्रों से समाचार पत्र निकलते थे, अब तहसील मुख्यालयों से भी निकल रहे हैं। डिजिटल मीडिया को किसी स्थान विशेष के आधार की आवश्यकता ही नहीं है। दूसरी बात यह हुई है कि अखबार में संपादक मंडल के पास समाचार सामग्री को संपादित करने का पर्याप्त अवसर होता था; दूसरी ओर अखबार पढऩे के बाद पाठक को भी प्रतिक्रिया व्यक्त करने के पहले सोच-विचार का समय मिल जाता था। आज टीवी और डिजिटल मीडिया दोनों में समय का यह आवश्यक और वांछित अंतराल पूरी तरह समाप्त हो गया है। त्वरित समाचार और त्वरित प्रतिक्रिया यह वर्तमान नियम है। तीसरे, अखबार व टीवी मेें संपादक नाम का प्राणी आज भी होता है, लेकिन डिजिटल मीडिया में जिसके मन में जो आए लिख सकता है।
यह इस समय की सबसे बड़ी समस्या है। हमने साध्वी खोसला व चेतन भगत के अनुभवों से जाना कि डिजिटल मीडिया में राजनीतिक पार्टियां किस तरह हस्तक्षेप कर सकती हैं। और सिर्फ राजनीतिक पार्टियां ही क्यों? निहित स्वार्थों वाली कोई भी शक्ति डिजिटल मीडिया के प्लेटफार्म पर आकर अपनी इच्छानुसार सामग्री पोस्ट कर सकती हैं, फिर वह सच हो या झूठ, या आगे चलकर उसका परिणाम चाहे जो क्यों न हो। दिलचस्प बात यह है कि इसे मीडिया का जनतंत्रीकरण कहा जा रहा है। सूचनाओं का अंबार घास के ढेर की तरह लगा है और उसमें से सत्य की सुई को खोज पाना लगभग असंभव हो चला है। ऐसा जनतंत्रीकरण किस काम का? इसे कहा जाए कि बंदर के हाथ में उस्तरा दे दिया गया है तो गलत नहीं होगा।
अपने देश की जनता मीडिया पर बहुत विश्वास करती है। यह समझ उसमें  स्वाधीनता संग्राम के दौरान तिलक, गांधी, लाजपत राय, नेहरू इत्यादि द्वारा स्थापित अखबारों को देख-पढक़र विकसित हुई होगी। वह परंपरा चली आ रही है।  लोग अखबारों के अलावा टीवी, फेसबुक, ट्विटर व्हाट्सएप आदि पर प्रसारित संदेशों पर भी उसी भोलेपन के साथ विश्वास कर लेते हैं। जनता के इस विश्वास का बड़े पैमाने पर पहला दुरुपयोग बीस वर्ष पूर्व गणेशजी को कथित तौर पर दूध पीने की घटना में किया गया था। मेरे विचार में यह दुरुपयोग नहीं दुरभिसंधि का प्रयोग था। उसी की परिणति आज जनसंचार माध्यमों में देखने मिल रही है। अगर समाज परिपक्व बुद्धि से काम नहीं लेगा, तो वह इस षडय़ंत्र को नहीं समझ पाएगा। मैं अंत में यही कहूंगा कि मार्टिना चैपमैन ने जो सलाह दी है जनता उस पर ध्यान दे।
देशबंधु में 12 जनवरी 2017 को प्रकाशित 

Thursday 5 January 2017

जीवनी विधा में एक अनूठी किताब



 यह विचार सहसा मन में उठा कि नए साल की शुरूआत ऐसी किसी पुस्तक पर चर्चा के साथ क्यों न की जाए जो मुझे कई तरह से अनूठी लगी हो!

पुस्तक का परिचय थोड़ी देर में अपने आप आपके सामने आ जाएगा, लेकिन उसमें अनूठा क्या है? इसका खुलासा पहले करना बेहतर होगा। इस स्तंभ के नियमित पाठक जानते हैं कि जीवनी साहित्य से मेरा कुछ अतिरिक्त लगाव है। सो जिस पुस्तक की चर्चा यहां हो रही है उसे शायद तकनीकी दृष्टि से जीवनी साहित्य के अंतर्गत रखा जा सकता है। इस शायद में ही पुस्तक का अनूठापन छुपा हुआ है। सामान्य तौर पर आत्मकथा अथवा किसी अन्य के द्वारा लिखे गए जीवन चरित को इस विधा के अंतर्गत माना जाता है। परिभाषा का विस्तार करें तो स्फुट संस्मरण, यात्रा वृत्तांत, साक्षात्कार, डायरी व अभिनंदन ग्रंथ की गणना इस कोटि में हो सकती है। इस विधा की कई पुस्तकों ने मुझे लुभाया है; उनमें से कुछ की चर्चा मैंने यथासमय की भी है। सुधा अमृतराय द्वारा अपने माता-पिता सुभद्राकुमारी चौहान व लक्ष्मण सिंह चौहान की जीवनी मिला तेज से तेज  ने मुझे इतना प्रभावित किया था कि आज चालीस साल बाद भी वह प्रभाव मन पर बना हुआ है। सीधी-सरल भाषा और सच्ची पारदर्शी छवियां, यह उस पुस्तक की खासियत थी। उसके कुछ पहले ही हरिवंश राय बच्चन की आत्मकथा का पहला भाग क्या भूलूँ क्या याद करूं  प्रकाशित हुआ था उसकी खूब चर्चा हुई थी। पुस्तक को आत्मस्वीकृतियों से भरपूर, हिन्दी साहित्य में दुर्लभ, एक साहसिक प्रयोग माना गया था।  पुस्तक रोचक थी, बेहद पठनीय, किन्तु मुझे उसमें आत्मस्वीकृति के बजाय आत्मश्लाघा के दर्शन हुए थे। खैर! एक अन्य आत्मकथा जिसमें विषय का निर्वाह नएपन के साथ था और पढऩे में रोचकता भी उतनी ही, वह कांतिकुमार कुमार की पुस्तक बैकुण्ठपुर में बचपन थी। इस पर मैं अक्षर पर्व में लिख भी चुका हूं। इसके लगभग साथ-साथ विश्वनाथ त्रिपाठी की आत्मकथा नंगातलाई का गांव  प्रकाशित हुई थी। लेखक की भाषा, शैली व विषय निर्वाह इन दृष्टियों से मुझे यह पुस्तक अनूठी प्रतीत हुई।

मैं यहां यह भी कहना चाहता हूं कि कांतिकुमार जी के पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित छिटपुट संस्मरण व त्रिपाठी जी की हजारी प्रसाद द्विवेदी पर गुरुदक्षिणा में लिखी गई व्योमकेश दरवेश ये दोनों मुझे ज्यादा नहीं बांध सके, यद्यपि साहित्य जगत में इनकी सराहना बहुत हुई। मैं मान लेता हूं कि शायद मेरी अपनी समझ ही कुछ कम है! बहरहाल जिस पुस्तक की चर्चा यहां अभीष्ट है वह न जीवनी है, न आत्मकथा, वह एक सुदीर्घ साक्षात्कार है, लेकिन मैंने जितने साक्षात्कार लेखकों या अन्य विभूतियों के पढ़े हैं यह उनसे बिल्कुल अलग है। सामान्य तौर पर एक साक्षात्कार की अवधि एक या दो घंटे की होती है। बहुत हुआ तो एक अथवा दो दिन में की गई तीन-चार बैठकों में बात पूरी हो जाती है। हमारे बीच ऐसे चर्चित नाम हैं जिनका साक्षात्कार हर कोई लेना चाहता है। इसके पीछे एक भावना देवता को प्रसन्न करने की होती है तो दूसरी ओर किसी पत्रिका में छप जाने की सहूलियत का भी ध्यान होता है। कुछ लोगों के साक्षात्कार तो इतनी बार छपते हैं कि न उनके पास नया कुछ कहने के लिए होता है और न पढऩे वालों के लिए। इन सबमें इस वक्त मुझे सिर्फ एक साक्षात्कार याद आ रहा है जो मेरे मित्र दिवंगत पंकज सिंह के साथ प्रगतिशील वसुधा के लिए किसी ने लिया था। उनका नाम मैं भूल गया हूं। यह एक लंबा साक्षात्कार था और पंकज ने बहुत बेबाकी के साथ अपने जीवन और जीवन मूल्यों की चर्चा इसमें की थी। फिर भी अभी जो पुस्तक सामने है, उसमें एक-दो घंटे नहीं, एक- दो दिन में नहीं, एक-दो सप्ताह नहीं, कई महीनों तक किश्तों में की गई बातचीत है। पुस्तक में चर्चा का कोई सारांश नहीं बल्कि पूरी त$फसील के साथ वर्णन है। इसमें साक्षात्कार देने वाले का कमाल भी है और लेने वाले का भी। अलीगढ़ के प्रोफेसर प्रेमकुमार द्वारा लिखित बातों मुलाकातों में : काजी अब्दुल सत्तार  में पहला अनूठापन यही है कि एक सुदीर्घ चर्चा के माध्यम से लेखक का जीवन उकेरा गया है।
 
प्रेमकुमार के साथ मेरा परिचय फोन पर कभी-कभार बातचीत तक सीमित है। वे अक्षर पर्व के एक सुधी पाठक हैं और एक अच्छे कहानीकार हैं। मैं उनके बारे में इससे अधिक और कुछ नहीं जानता था। जब उन्होंने मुझे पुस्तक भेजी तो प्रारंभ में मैं उसे पढऩे के लिए बहुत उत्सुक नहीं था। मेरे सामने इतनी किताबें होती हैं कि उनके साथ न्याय करना लगभग असंभव होता है। लेकिन जब पुस्तक हाथ में उठाई तो उसने शुरू से ही मुझे बांध लिया। गो कि मैं उसे धीरे-धीरे कर किश्तों में ही पढ़ पाया। इसके फ्लैप पर लेखक के परिचय से ज्ञात हुआ कि वे इस तरह का प्रयोग पहले भी कर चुके हैं। किन्तु मेरे लिए इस पुस्तक को पढऩा पहला और एक अनूठा अनुभव था। इस किताब में जो दूसरा अनूठापन है उसका अनुमान आपने शायद शीर्षक से ही लगा लिया होगा। यह रेखांकित करने लायक है कि हिन्दी में किसी उर्दू लेखक पर इतनी मुक्कमल किताब आई है। काजी साहब का नाम जाना-पहचाना है, उनकी कुछेक रचनाएं हिन्दी में प्रकाशित हुई हैं, लेकिन वे मुख्यत: उर्दू के ही लेखक हैं। जैसे उनके समकालीनों में कुर्रतुल एन हैदर या बशीर बद्र या निदा फाजली के नाम से हिन्दी पाठक सुपरिचित हैं, वैसा काजी साहब के बारे में नहीं कहा जा सकता। इसका एक कारण शायद यह हो कि हिन्दी में उनकी कृतियों के अनुवाद पर्याप्त प्रमाण में नहीं हुए हैं। कुर्रतुल एन हैदर का उपन्यास आग का दरिया  ने जो लोकप्रियता पाई वह एक अपवाद है। मैंने शायरों के नाम लिए हैं किन्तु उनकी ख्याति में मंच का बहुत बड़ा हाथ रहा है। इस पृष्ठभूमि में उर्दू के ही नहीं, भारतीय साहित्य के एक समादृत लेखक पर केन्द्रित पुस्तक लिखकर प्रेमकुमार ने न सिर्फ हिन्दी और उर्दू को पास लाने का महत्वपूर्ण उपक्रम किया है, उन्होंने भारत की गंगा-जमुनी तहजीब को आज के कठिन समय में बचाए रखने की दिशा में भी अपनी भूमिका निभाई है।

पुस्तक का तीसरा अनूठापन इसकी भाषा में है। लिखने वाला हिन्दी का, बताने वाला उर्दू का, बात कैसे बने ! काजी अब्दुल सत्तार के कहे हुए को तो उनकी भाषा में ही रखना उचित होता। अगर लेखक यहां तत्सम हिन्दी के प्रयोग पर बल देता तो बातचीत का  रस सूख जाता। मजे की बात यह है कि ढाई सौ पृष्ठों की यह पुस्तक हिन्दी और उर्दू दोनों को साथ लेकर चली है। वह गांधी जी की हिन्दुस्तानी तो नहीं है, लेकिन पढऩे वाले को कहीं पर भी बोझिलता का अनुभव नहीं होता। यह श्रेय प्रेमकुमार को ही जाता है कि उन्होंने भाषा को इतना सुन्दर साधा है। अनूठेपन का चौथा आयाम इसमें है कि पुस्तक में सिर्फ साहित्य चर्चा नहीं है, और न वह सिर्फ जीवनी है। एक लंबे समय तक चली बातचीत में काजी साहब के माध्यम से बहुत सारी तस्वीरें और बहुत सारे रंग उभर कर आए हैं। इस बात को स्वयं लेखक ने पुस्तक की भूमिका में बड़े खूबसूरत अंदाज में बयां किया है। यह जो पुस्तक है  शीर्षक से लिखी गई भूमिका को संपूर्ण रूप से में उद्धृत करना संभव नहीं है, लेकिन निम्नलिखित पंक्तियों से बात स्पष्ट हो जाएगी :-
यह कृति ! औपन्यासिक-सी एक ऐसी अभिव्यक्ति-जिसका कथा-नायक खुद सजीव-प्रामाणिक रूप में इसमें आद्यांत व्याप्त-उपस्थित है। वह उर्दू का अग्रगण्य रचनाकार है। ऐतिहासिक उपन्यासों के लेखन की दृष्टि से उसका स्थान, स्तर और महत्व अन्य रचनाकारों से कहीं अधिक बड़ा अलग और अनूठा है। भाषा के लिहाज से वह शब्दों का नामी-गिरामी जादूगर कहा-माना जाता है। ऐसे एक व्यक्ति की  फ़नकार की... उसकी अपनी, उसके निज की, उसके अनुभव ज्ञान व साहित्य सम्बन्धी मूल्यों-मान्यताओं, संघर्षों की अधिकतम प्रामाणिक व्यथा-कथा और जीवन-गाथा भी कहा जा सकता है। दीर्घ संवाद की प्रस्तुति की इस कोशिश को ! इसके अलावा और इस सबसे अधिक काजी साहब के उम्रभर के लेखन, समग्र विकास और इतिहास की एक रोचक यात्रा भी है यह रचना। एक लेखक की सृजन-प्रक्रिया के कुछ सत्यों-स्वीकारों का, उसकी कल्पना की उड़ानों का मनोरम एक चित्र और जीवंत एक दस्तावेज भी कहा जा सकता है इस रचना को।

अलीगढ़ के काजी अब्दुल सत्तार और अलीगढ़ के ही प्रेमकुमार। यह लंबी बातचीत काजी साहब के घर पर कई-कई बैठकों में हुई है। इसमें वे अपने बचपन की बात करते हैं, परिवार के बारे में बतलाते हैं। लिखने की प्रेरणा कहां- किनसे मिली, उनकी चर्चा होती है। अपनी पुस्तकें उन्होंने कैसे लिखी, इन पर क्या पुरस्कार व सम्मान मिले; किन आला दरजे के लोगों से परिचय हुआ और सम्मान मिले, हिन्दी-उर्दू में लेखक कौन-कौन दोस्त हुए, अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में अध्यापकों के बीच राजनीति कैसे होती है- ऐसे तमाम ब्यौरे हमारे सामने आते हैं। लेकिन उनका अनुभव फलक बहुत विस्तृत है, वे दुनिया जहान की बातें करते हैं, विचारों से प्रगतिशील हैं, प्रलेस, जलेस से उनका संबंध रहा है, खुद को कम्युनिस्ट मानते हैं और प्रेमचंद ओर जोश मलीहाबादी को आदर्श के रूप में सामने रखते हैं। अंग्रेजों द्वारा लिखे गए साम्प्रदायिकता पैदा करने वाले इतिहास की आलोचना करते हैं। गांधी और नेहरू का अपने जीवन पर प्रभाव का उल्लेख करते हैं। इस सबके अलावा अवध के जागीरदारों के ऐश्वर्य, शान-शौकत, अवध के जनजीवन और परंपराओं के रोचक विवरण तथा इस्लाम को शिया-सुन्नी में न देखकर उसकी उदारवादी व्याख्या भी इस पुस्तक से मिलती है। वे पाकिस्तान का एक प्रसंग बयां करते हुए अपने इलाके के रईस खानदानों की परिपाटियों का जो धाराप्रवाह वर्णन करते हैं- कितने तरह की मिठाईयां, कितने तरह के जेवर और जवाहरात, कितने-कितने वस्त्राभूषण- इसे पढक़र चकित हुए बिना नहीं रह सकते। इसी तरह वे कहीं ईद का वर्णन करते हैं तो कहीं मोहर्रम का, कहीं होली का तो कहीं दीवाली का, कहीं दावतों का तो कहीं शिकारों का और हां, अपने प्रेम संबंधों का वर्णन तो वे करते ही हैं, एक गुजरे वक्त के सामाजिक-पारिवारिक संबंधों का भी परिचय भी उनकी बातों से मिलता है।

तो कहने को तो यह साक्षात्कार को आधार बनाकर लिखी गई जीवनी है लेकिन इसमें रस उपन्यास का है। बहुत कुछ इसमें सच होगा, लेकिन स्वयं प्रेमकुमार जी महसूस करते हैं कि काजी साहब ने कुछ बातें रच-बस कर कहीं। मैं अनुमान लगता हूं कि इस पुस्तक को लिखना आसान काम नहीं रहा होगा। बुजुर्गवार का मन हुआ तो बात की, न हुआ तो न की, कभी थक गए तो बात वहीं रुक गई। प्रेमकुमार ने श्रोता के रूप में अपूर्व धैर्य का परिचय दिया है। ऐसा श्रोता जो पुस्तक के नायक को उसी तरह उकसाता रहता है जैसे कोई दिए की बाती को बार-बार ऊंचा उठाता रहे ताकि लौ मद्धम न पड़े। पुस्तक का अंत काजी अब्दुल सत्तार के ही एक उदाहरण से जिसे पुस्तक के अंतिम पृष्ठ से उठाया है-

यह जिन्दगी क्या है? एक तरह से कर्बला है। हम सब छोटे-छोटे ताजिए हैं। अपने-अपने घरों के चौक पर हर सुबह रखे जाते हैं। सबीलें होती हैं। लंगर होते हैं। नोहे पढ़े जाते हैं। मातम होते हैं। फिर जुलूस उठता है। बड़े-बड़े नारे लगते हैं। रौशनियों के फाँरक लगते हैं। रौशन चौकियां रखी जाती हैं। बाजे बजते हैं- और ऐसा मालूम होता है कि जैसे सारा जहां हमारे साथ है। हम अपने ग़म में तन्हा नहीं हैं। पूरी एक दुनिया है जो हमारे साथ आगे-पीछे एक जुलूस की तरह चल रही है- और हम सब चलते-चलते अपने-अपने वक्त पर अपनी-अपनी कब्रों में खुद दफ़न हो जाते हैं। यही इंसान की तक़दीर है- यही वक्त की तक़दीर है...।

अक्षर पर्व जनवरी 2017 अंक की  प्रस्तावना 

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पुस्तक : बातों-मुलाकातों में : काजी अब्दुल सत्तार
लेखक : प्रेम कुमार
प्रकाशक : अमन प्रकाशन
104-ए/80 सी, रामबाग
कानपुर-208012 (उप्र)
मूल्य : रुपए 495/- मात्र 

Wednesday 4 January 2017

अखिलेश से उप्र को उम्मीद



यह पिछले अक्टूबर की ही तो बात है जब उत्तर प्रदेश के सत्तारूढ़ समाजवादी दल के भीतर खासी उठापटक देखने मिली थी। उस समय दो-तीन हफ्तों के भीतर मामला शांत हो गया था। नेताजी याने मुलायम सिंह यादव पुत्र- मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के अपनी मर्जी अनुसार काम करने से आहत ही नहीं, क्रोधित भी थे। उन्हें पसंद नहीं आया था कि अखिलेश उनके चहेते मंत्रियों को पदमुक्त कर दें। ये मंत्री भले ही दागदार रहे हों, मुलायम सिंह उन्हें वापिस पद दिलवाकर ही माने थे। इसके पहले अखिलेश यादव ने अपने कुछ युवा साथियों को विधान परिषद में मनोनीत किया था तब भी नेताजी क्षुब्ध हुए थे। इन युवा नेताओं को पार्टी से निकाल दिया गया था जिस पर अखिलेश अड़ गए थे और निष्कासन रद्द करवाकर ही माने थे। अनेक कारणों से चर्चित अमर सिंह को राज्यसभा में भेजना भी अखिलेश को रास नहीं आया था तथापि वे पिता की इच्छा के आगे झुक गए थे।

उस समय जो नाटकीय घटनाक्रम हुआ उसमें दो यादव बंधु अलग-अलग भूमिकाओं में नज़र आए थे। मुलायम सिंह के सगे छोटे भाई शिवपाल यादव नेताजी के विश्वस्त हैं तथा वे उत्तर प्रदेश की सत्ता पर नियंत्रण रखना चाहते हैं, यह समझ आ रहा था। नाम मुलायम सिंह का काम शिवपाल का, जिसमें अखिलेश यादव की भूमिका कठपुतली से कुछ बेहतर ही रहना थी। इसमें शक नहीं कि अखिलेश यादव ने साढ़े चार साल तक काफी कुछ काम अपने पिता की इच्छा को ध्यान में रखकर ही किए। इसमें कहीं-कहीं उनकी अपनी प्रतिष्ठा को चोट पहुंची तो उसे भी बर्दाश्त कर गए। इस शालीनता को शिवपाल ने अखिलेश की दुर्बलता मानने की गलती की। जहां अखिलेश साफ-सुथरी छवि वाले युवा नेता के रूप में राजनीति करना चाहते थे, वहीं उन्हें गायत्री प्रजापति और अतीक अहमद जैसे व्यक्तियों को साथ लेकर चलने कहा गया, जिनकी सार्वजनिक जीवन में कोई अच्छी छवि नहीं है। आखिरकार अखिलेश इस दबाव को कब तक बर्दाश्त करते?

हमने इस स्तंभ में 27 अक्टूबर को ही अखिलेश यादव को मुख्यमंत्री पद छोडऩे की सलाह दी थी। लेकिन अखिलेश शायद बेहतर जानते थे। वे सही समय की धीरज के साथ प्रतीक्षा कर रहे थे। यहां उनकी रणनीति में साथ देने के लिए मुलायम सिंह के चचेरे भाई प्रोफेसर रामगोपाल यादव आगे आए। प्रोफेसर यादव राज्यसभा में पार्टी के नेता हैं और उन्हें एक शिष्ट, शालीन व तर्कबुद्धि का इस्तेमाल करने वाले राजनेता के रूप में जाना जाता है। इस तरह परिवार आधारित समाजवादी पार्टी में दो खेमे साफ-साफ दिखाई देते हैं। एक तरफ नेताजी, शिवपाल, अमर सिंह, नेताजी की दूसरी पत्नी साधना गुप्ता, उनकी अन्य विश्वासपात्र अनिता सिंह इत्यादि। दूसरी ओर अखिलेश, रामगोपाल और अनेक युवा कार्यकर्ता। जैसे चुनाव नजदीक आ रहे हैं, वैसे-वैसे राजनीतिक सरगर्मियां बढ़ रही हैं और वह मोड़ आ चुका है जहां इस पार या उस पार का फैसला लिया जाना है।

फैसला लेने की शुरूआत मुलायम सिंह के खेमे से ही हुई। पहले तो अतीक अहमद की पार्टी का समाजवादी पार्टी में विलय करवा लिया गया। तिस पर भी अखिलेश ने धीरज रखा और अपनी ओर से कोई जवाबी कार्रवाई तुरंत नहीं की। किंतु इसके बाद जब मुलायम सिंह की ओर से पार्टी उम्मीदवारों की पहली लंबी फेहरिस्त जारी की गई तब अखिलेश के लिए जवाबी कदम उठाना अनिवार्य हो गया। मुलायम सिंह ने इसके पहले अखिलेश को प्रदेश अध्यक्ष के पद से हटाकर शिवपाल को यह दायित्व सौंप दिया था, जिसका व्यवहारिक अर्थ यह था कि समाजवादी पार्टी के उम्मीदवारों को चुनाव चिन्ह का वितरण शिवपाल करेंगे, अखिलेश नहीं। उम्मीदवारों के चयन में अखिलेश से कोई सलाह नहीं की गई, उल्टे उनके कुछ निकट सहयोगियों के ही टिकट काट दिए गए। इसमें यही संदेश निहित था कि अखिलेश को कठपुतली ही बनकर रहना होगा।

मुलायम-शिवपाल के इस निर्णय के विरोध में मुख्यमंत्री ने पहला सांकेतिक कदम उठाया, शिवपाल के दो करीबी लोगों को उनके पदों से हटाकर। फिर अखिलेश ने अपनी ओर से प्रत्याशियों की पहली सूची भी जारी कर दी। इसके बाद जो कुछ हुआ है, वह पाठक जानते ही हैं उसके विस्तार में जाने की आवश्यकता नहीं है। अब सवाल यह है कि आगे क्या होगा? हमें यह कहने में संकोच नहीं है कि मुलायम सिंह यादव वर्तमान राजनीति में अप्रासंगिक हो गए हैं। 1980 के उत्तरार्द्ध में उत्तर प्रदेश की सत्ता संभालने वाले युवा समाजवादी मुलायम सिंह की एक अलग ही छवि थी जिसे स्वयं उन्होंने विद्रूप कर दिया है। इसके लिए और कोई नहीं, स्वयं उनकी महत्वाकांक्षा दोषी है। मुलायम सिंह एक जुझारू नेता थे। वे साम्प्रदायिक शक्तियों से डटकर मुकाबला करने के लिए जाने जाते थे। लेकिन वे इस प्रतिष्ठा को बचाकर नहीं रख पाए। इसमें सत्ता का मोह था ही, परिवारवाद से भी वे स्वयं को मुक्त नहीं रख पाए तथा परिवार के कुछ सदस्यों के निजी स्वार्थसाधन के लिए उन्होंने स्वयं को मोहरा बन जाने दिया।

मुलायम सिंह ने जिन भी कारणों से युवा अखिलेश को मुख्यमंत्री पद की कमान सौंपी हो, वह एक निर्णय ही उनकी प्रतिष्ठा बचाने में काम आ सकता है, ऐसा हमारा अनुमान है। बशर्ते मुलायम सिंह अब कोई और ड्रामा न करें तथा साफ मन से अखिलेश के हाथों में समाजवादी पार्टी की कमान सौंप दें। अखिलेश यादव के लिए परीक्षा का समय दरअसल अब प्रारंभ होता है। वे पांच वर्ष तक दुधारी तलवार पर चलते रहे हैं। एक तरफ पिता का सम्मान और उनकी इच्छाओं का पालन, दूसरी तरफ उत्तर प्रदेश में सुशासन की स्थापना। उन्हें पता है कि स्वयं उनका राजनीतिक भविष्य इस दूसरी बात पर निर्भर करता है। याने कि क्या वे उत्तर प्रदेश को सामंती मानसिकता से निकालकर विकास के आधुनिक मार्ग पर सफलतापूर्वक ले जा सकते हैं! प्रदेश में पिछले पांच वर्षों में विकास के बहुत से काम तो हुए हैं लेकिन अपराध व भ्रष्टाचार से निजात नहीं मिल पाई है।

उत्तर प्रदेश में आम जनता के बीच में अखिलेश लोकप्रिय हैं। उनकी छवि भी स्वच्छ है। लोगों का मानना है कि अगर वे पिता और चाचा की छाया से मुक्त होकर स्वतंत्र रूप से काम कर सकें तो एक बेहतर प्रदेश बनाने के सपने में रंग भरे जा सकते हैं। अभी जो कुछ चल रहा है उसमें भी अखिलेश ने नेता जी के प्रति अशिष्टता न बरत निरंतर जो सम्मान का भाव व्यक्त किया है उससे  जनमानस में अच्छा संदेश गया है। इसके बावजूद अखिलेश यादव सिर्फ अपने बलबूते शायद आसन्न चुनाव में पूर्ण बहुमत न ला सकें। पिछले चुनाव में उनकी सीधी लड़ाई बहुजन समाज पार्टी के साथ थी। कांग्रेस और भाजपा दोनों हाशिए पर रहकर चुनाव लड़ रहे थे। इस बार स्थिति अलग है। बसपा तो अपनी जगह पर है ही, भारतीय जनता पार्टी भी लोकसभा में मिली अभूतपूर्व सफलता व साधनसंपन्नता के कारण विश्वास और उत्साह से भरी हुई है। कांग्रेस ने भी अपना दमखम दिखाने के आधे-अधूरे प्रयत्न किए ही हैं और यह खतरा भी विद्यमान है कि अमर सिंह और शिवपाल यादव मिलकर पार्टी का विघटन करने के साथ-साथ भाजपा से हाथ मिला सकते हैं।

इस स्थिति में अखिलेश यादव के सामने एक कारगर विकल्प है कि राहुल गांधी के नेतृत्व में उभर रही युवतर कांग्रेस के साथ उनका गठबंधन हो जाए। इसमें अजीत सिंह के सुपुत्र जयंत चौधरी भी अपनी पार्टी को साथ ला सकते हैं, राजद, जदयू तथा दोनों साम्यवादी दल भी हाशिए पर आकर मिल सकते हैं।  कुछ सप्ताह पूर्व अखिलेश यादव ने कहा था कि अगर कांग्रेस साथ हो तो वे तीन सौ सीटें जीत सकते हैं। हमें इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं लगती। अगर उपरोक्त सभी दल मिलकर समझदारी दिखाएं तो बिहार जैसी जीत कल्पना से परे नहीं है। जो भी हो, नववर्ष में हम युवा अखिलेश यादव को उज्ज्वल भविष्य की शुभकामनाएं देते हैं।

देशबंधु में 05 जनवरी 2017 को प्रकाशित