Wednesday 29 April 2015

उसने कहा था : युद्ध के बीच प्रेम की कथा


 पिछले साल जब प्रथम विश्वयुद्ध की शुरुआत के सौ साल पूरे हुए, तब दुनिया के अनेक देशों में इस ऐतिहासिक घटना को याद करते हुए भांति-भांति के कार्यक्रम आयोजित किए गए जिनका सिलसिला अब तक चला आ रहा है। इस अवसर पर युद्ध के दौरान या युद्ध पर आधारित कविताओं का, कहानियों का पुनर्प्रकाशन हुआ। मोर्चे से सैनिकों द्वारा लिखे गए पत्र खोज-खोज कर अखबारों में छपे और सोशल मीडिया पर प्रकाशित हुए। युद्ध पर बनाई गई फिल्में भी प्रदर्शित की गईं। विजयी मित्र देशों ने एक तरफ अपने सैनिकों को श्रद्धांजलि दी तो दूसरी ओर एक सदी पहले हासिल विजय के उपलक्ष्य में सरकारी और गैरसरकारी पार्टियों का आयोजन हुआ।

इस महायुद्ध में भारत की भी भूमिका थी, उसे भी विधिवत स्मरण किया गया। भारतीय सेना के जिन जांबाज सिपाहियों को विक्टोरिया क्रॉस आदि से अलंकृत किया गया था, उनकी तथा उनके वारिसों की नए सिरे से खोज-खबर ली गई। हमें एक बार फिर ध्यान आया कि देश की राजधानी में स्थापित इंडिया गेट जो आज भले ही सैर-सपाटे का केेंद्र हो, उसका निर्माण प्रथम विश्वयुद्ध में मृत भारतीय सैनिकों को श्रद्धांजलि देने के लिए किया गया था। यह एक संयोग है कि इंडिया गेट अब सिर्फ प्रथम महायुद्ध के वीर सैनिकों का स्मारक न होकर गत एक सदी के दौरान अन्य युद्धों में भारतीय सैनिकों द्वारा किए गए बलिदान का प्रतीक बन गया है।

प्रथम विश्वयुद्ध शुरु होने की सौवीं वर्षगांठ का सिलसिला 2014 में जो प्रारंभ हुआ, वह अभी रुका नहीं है। यह युद्ध चार साल चला था। अब जिस तरह से कार्यक्रम आयोजित हो रहे हैं, उन्हें देखकर लगता है कि 2018 तक यह क्रम चलता रहेगा। अगर युद्ध की विभीषिका को याद करने से शांति के पथ पर चलने की प्रेरणा मिलती हो तो ऐसे आयोजनों का स्वागत होना चाहिए। फिलहाल मेरे मन में यह सवाल उठ रहा है कि इस महायुद्ध में भारत की भूमिका की स्मृतियां क्या सैन्य दस्तावेजों के अलावा अन्यत्र कहीं सुरक्षित हैं? यह प्रश्न इसलिए उठा क्योंकि इस साल हिन्दी जगत उस कहानी की जन्म शताब्दी मना रहा है जो प्रथम विश्वयुद्ध की पृष्ठभूमि में रची गई थी। मेरी जानकारी में हिन्दी ही नहीं अन्य किसी भी भारतीय भाषा में और संभवत: अन्य किसी भी लेखक ने प्रथम विश्वयुद्ध पर कोई कविता या कहानी नहीं लिखी। इस नाते अमर मानी जाने वाली यह कहानी कहीं ज्यादा प्रासंगिक हो उठती है तथा जिन सैन्य अधिकारियों ने थोड़ी बहुत भी हिन्दी पढ़ी है उन्हें कम से कम आज इस कहानी को फिर से याद कर लेना चाहिए।

यह एक आश्चर्यजनक सत्य है कि भारतीय भाषाओं में युद्ध से संबंधित साहित्य नहीं के बराबर लिखा गया है। मैं अपने दिमाग पर जोर डालता हूं तो पहले एक उपन्यास याद आता है देवेश दास द्वारा लिखित 'रक्तराग'। यह उपन्यास दूसरे विश्वयुद्ध के बाद लिखा गया था। देवेश दास एक आईसीएस अफसर थे। इस उपन्यास के अलावा उन्होंने अन्य कोई साहित्यिक रचना की हो तो वह मेरी जानकारी में नहीं है। इसके कई साल बाद 1965 के युद्ध पर मनहर चौहान का उपन्यास 'सीमाएं' प्रकाशित हुआ जिसकी बहुत अधिक चर्चा नहीं हो पाई। आगे चलकर जगदीशचंद्र ने सैन्य अधिकारियों के जीवन पर केन्द्रित दो उपन्यास लिखे 'आधा पुल' और 'टुंडा लाट'। आधा पुल में सैनिक छावनी का विवरण है और 1971 के युद्ध की कुछ छवियां भी हैं। इस दुखांत उपन्यास के नायक का एक मार्मिक कथन बार-बार ध्यान आता है- जिस गोली पर मेरा नाम लिखा होगा, वह जब तक नहीं लगेगी, तब तक मैं नहीं मरूंगा। जगदीशचंद्र भारतीय सेना में जनसंपर्क अधिकारी थे, इस नाते उनके ब्यौरों में प्रामाणिकता का पुट मिलता है।

इस तरह इक्का-दुक्का कृतियों को छोड़ दिया जाए तो कहा जा सकता है कि हमारे देश में युद्ध साहित्य का सर्वथा अभाव है। यह तब जबकि प्रथम और द्वितीय विश्वयुद्ध में भाग लेने के अलावा हम पांच लड़ाइयां और लड़ चुके हैं। इसकी क्या वजह हो सकती है? शायद यही कि भारतीय लेखक पारंपरिक विषयों से हटकर लिखने में, उसके लिए सामग्री जुटाने में, आïवश्यक शोध करने के लिए जो कष्ट उठाने की आवश्यकता होती है, उससे बचना चाहता है! इसकी एक और वजह हो सकती है कि युद्ध की छाया हमारे भूगोल के एक छोटे हिस्से पर ही पड़ती है; सरहदी इलाकों से वह आगे नहीं बढ़ पाती और तात्कालिक भावोद्रेक के बाद समाज उस ओर से निर्लिप्त हो जाता है।

इस पृष्ठभूमि में यह तथ्य अपने आप में दिलचस्प है कि आज से सौ साल पहले चंद्रधर शर्मा गुलेरी ने 'उसने कहा था' जैसी कहानी लिखी जो पाठक को युद्ध के मोर्चे तक ले जाती है। पाठकों को पता है कि गुलेरीजी देश के महान कथाकार माने जाते हैं, जबकि उन्होंने कुल तीन कहानियां लिखींऔर उनमें भी 'उसने कहा था' को एक बेजोड़ रचना माना जाता है। पांचवींकक्षा से लेकर हिन्दी साहित्य में एम.ए. करने तक यह कहानी न जाने कितनी बार पाठ्यक्रम में शामिल की जाती है। 'उसने कहा था' की जो व्याख्या कक्षाओं में की जाती है उसके अनुसार यह प्रेम कहानी है जो आत्मोसर्ग की कसौटी पर प्रेम को परखती है। यह तो ठीक है कि कुमारवय के प्रेम से प्रारंभ हुई यह कहानी प्रौढ़ावस्था में किए गए बलिदान पर जाकर समाप्त हो जाती है लेकिन मेरा मानना है कि इस केन्द्रीय कथानक से हटकर भी 'उसने कहा था' का अध्ययन किया जाना चाहिए।

सबसे पहली बात तो यही है कि यह संभवत: हिन्दुस्तानी फौजियों के जीवन पर लिखी गई पहली कहानी है। दूसरी नोट करने लायक बात यह है कि कहानी में मोर्चे का वर्णन है। तीसरा तथ्य यह है कि यह मोर्चा भारत की सरहद पर नहीं बल्कि सुदूर फ्रांस में है। इसे पढ़कर स्वाभाविक रूप से मन में सवाल उठना चाहिए था कि आखिर भारतीय सैनिक सात समंदर पार फ्रांस की भूमि पर लडऩे क्यों गए थे और किसके लिए गए थे? इस सवाल में ही यह जवाब भी निहित है कि भारत एक गुलाम देश था और ये सिपाही ब्रिटिश फौज में सेवाएं दे रहे थे। यहां एक नया प्रश्न भी उठता है कि बीसवींसदी के प्रारंभ में पंजाब में ऐसी कौन सी स्थितियां थीं जिसके कारण उस प्रदेश के नौजवान सेना में न सिर्फ भरती हो रहे थे बल्कि हजारों मील दूर जाकर लड़ भी रहे थे। इन्हें इसके लिए क्या कहकर समझाया गया होगा? उन्हें क्या प्रलोभन दिए गए होंंगे?

हिन्दी साहित्य के गंभीर विद्यार्थी जानते हैं कि 'उसने कहा था' के पहले जो कहानियां लिखी जा रही थीं, वे सामान्यत: नीति कथाएं ही थीं। तब ऐसी क्या बात थी जिसने गुलेरी जी को 'उसने कहा था' लिखने के लिए प्रेरित किया। इस कहानी में अमृतसर की गलियों का ऐसा प्रामाणिक विवरण है जो आज भी अमृतसर की पुरानी बसाहट से गुजरते हुए महसूस किया जा सकता है। इस दृश्यविधान को लेकर गुलेरीजी कुछ और भी लिख सकते थे। लहना सिंह और सूबेदारनी की प्रेमकथा के लिए कोई और घटनाचक्र भी रचा जा सकता था। इस कहानी में ही सूबेदारनी कहती है कि तुमने मुझे बचपन में बचाया था। आशय यह कि प्रेम की परीक्षा देने के लिए लहना सिंह को मोर्चे पर जाने की आवश्यकता नहींथी। अगर किसी शोधकर्ता ने गुलेरीजी की रचना प्रक्रिया का अध्ययन करते हुए इस ओर ध्यान दिया हो तो उसे जानने में मेरी रुचि होगी। अभी तो इतना ही कहना उचित होगा कि प्रथम विश्वयुद्ध पर रचे गए अपार साहित्य में हिन्दी की इस कहानी की भी गणना की जानी चाहिए और इसके लिए मैं चाहूंगा कि साहित्य अकादमी के अध्यक्ष विश्वनाथ प्रसाद तिवारी अपनी ओर से कोई पहल करें।
देशबन्धु में 30 अप्रैल 2015 को प्रकाशित

Thursday 23 April 2015

साझा मोर्चे की उम्मीद!


 


भारतीय राजनीति के रंगमंच पर विगत सप्ताह दो प्रमुख घटनाएं घटीं। एक तो छह समाजवादी पार्टियों ने आपस में विलय करने का फैसला कर लिया और दूसरे मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी ने अंतत: सीताराम येचुरी को अपना नया महासचिव चुन लिया। मैं समझता हूं कि इन दोनों घटनाओं का देश की राजनीति पर दूरगामी प्रभाव पड़ेगा और इसीलिए इनका नोटिस लिया जाना चाहिए। जैसा कि हम देख रहे हैं इस समय देश पांच राजनीतिक धाराओं में बंटा हुआ है। सबसे पहले भाजपा है और उसके साथ महाराष्ट्र में शिवसेना व पंजाब में अकालीदल। ये तीनों दल संकीर्ण राष्ट्रवाद व धार्मिक आस्था से पोषित हैं। दूसरी धारा कांग्रेस की है जिसके वर्तमान और भविष्य को लेकर गंभीर चर्चाएं कम और अटकलबाजियां ज्यादा हो रही हैं। क्षेत्रीय दल अपनी सोच में एक समान नहीं है, फिर भी उन्हें सुविधा के लिए तीसरी धारा माना जा सकता है। चौथी और पांचवीं धारा के रूप में समाजवादी और साम्यवादी क्रमश: उपस्थित हैं। इन सबके विश्लेषण से ही बात आगे स्पष्ट होगी।

सबसे पहले भारतीय जनता पार्टी की बात करें। यह तथ्य अपनी जगह पर है कि लोकसभा में भाजपा के पास स्पष्ट बहुमत है और इस नाते मोदी सरकार को अगले चार साल कोई खतरा नहीं है। लेकिन क्या सिर्फ इसी से पार्टी और सरकार को मनमानी का अधिकार मिल जाता है? यह प्रश्न भाजपा के शीर्ष नेतृत्व को अपने आप से पूछना चाहिए। आम जनता महसूस कर रही है कि केन्द्र ही नहीं, प्रदेशों में भी जहां-जहां भाजपा सरकार है वहां उसका अहंकार दिनोंदिन बढ़ता जा रहा है। पार्टी के नेता अब अधिकतर आक्रामक मुद्रा में दिखाई देते हैं और संवाद का स्थान एकालाप ने ले लिया है। ऐसा अनुमान होता है कि भाजपा का गढ़ इस समय तीन रक्षा पंक्तियों के घेरे में है। एक रक्षा पंक्ति कारपोरेट पूंजी की है, दूसरी संघ के कार्यकर्ताओं की और तीसरी मीडिया की। भाजपा के लिए यह उचित होगा कि वह जांच लें कि ये रक्षा पंक्तियां क्या सचमुच अभेद्य हैं?

जहां तक कारपोरेट पूंजी की बात है उसका अति उत्साह अब डगमगाता प्रतीत होता है। वरना रतन टाटा को कारपोरेट भारत से यह कहने की आवश्यकता क्यों पड़ती कि वह मोदी सरकार पर भरोसा रखे! जाहिर है कि उसने नई सरकार से जो उम्मीदें बांध रखी थीं वे पूरी नहीं हो रही हैं। ऐसे में यह रक्षा पंक्ति कभी भी चरमरा सकती है। राष्ट्रीय स्वयंसेवकसंघ के लिए स्वाभाविक है कि वह मोदी सरकार की प्राणपण से रक्षा करें किन्तु संघ के कार्यकर्ता वे चाहे मुख्यमंत्री हों या संसद सदस्य या पार्टी पदाधिकारी, जिस तरह के फैसले ले रहे हैं, जैसी बातें कर रहे हैं उससे देश का जनसामान्य ही अचंभित और भयभीत होने लगा है। वह समझ नहीं पा रहा है कि सुशासन के बुनियादी मुद्दों को छोड़कर पार्टी व सरकार यहां वहां क्यों भटक रही है। दूसरे शब्दों में इस रक्षा पंक्ति को आगे-पीछे देश की बहुसंख्यक जनता के क्रोध का सामना करना पड़ सकता है। रही बात मीडिया की तो यह रक्षा पंक्ति वास्तविक न होकर आभासी है और इसकी विश्वसनीयता में तेजी के साथ गिरावट आई है।

क्षेत्रीय दलों का मामला विचित्र सा है। नवीन पटनायक का बीजू जनता दल कारपोरेट उद्यम को बढ़ावा देने में केन्द्र में भाजपा के साथ है, लेकिन ओडिशा में सांप्रदायिक के मुद्दे पर वह भाजपा से दूर है। आंध्रप्रदेश में चंद्राबाबू के सामने भाजपा का साथ देने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। गोकि अगले चुनाव के पहले वे पलटी मार सकते हैं। तेलंगाना में टी.एस.आर. सुप्रीमो चंद्रशेखर राव पर अब शायद किसी को भी भरोसा नहीं है। असम में प्रफुल्ल महंता पूरी तरह चुक गए हैं। तमिलनाडु में जयललिता का रुख लगभग वही है जो ओडिशा में नवीन पटनायक का है। जम्मू-काश्मीर में पीडीपी-भाजपा दोस्ती कब तक चलेगी कहा नहीं जा सकता। पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी अकेले चलने में  ही विश्वास करती हैं। कुल मिलाकर क्षेत्रीय दलों की राजनीति तात्कालिक और सीमित एजेंडे की है। 

कांग्रेस देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी है और चुनावी हार के बावजूद वह इतनी कमजोर नहीं है कि उसे चुटकी बजाकर खारिज किया जा सके। पार्टी ने लोकसभा चुनाव हारने के बावजूद पिछले एक साल में समय-समय पर संघर्षशीलता का परिचय दिया है। यह भी नोट करने योग्य है कि उसने समय की आवश्यकता को समझते हुए गैर-भाजपाई दलों का सहयोग लेने में कोई संकोच नहीं दिखाया। यह बिल्कुल संभव है कि आने वाले दिनों में वह इन दलों के साथ सहयोग मजबूत करने की दिशा में कदम उठाए। यहां आकर समाजवादी दल और वामपंथी दलों की भूमिका महत्वपूर्ण हो उठती है। एक तरफ भाजपा और दूसरी तरफ गैर-भाजपाई दल, इनके बीच शक्ति परीक्षण का पहला अवसर कुछ माह बाद ही आएगा जब बिहार में विधानसभा चुनाव होंगे। 

आज विभिन्न समाजवादी दलों ने आपस में विलय का जो फैसला किया है उसका स्वागत होना चाहिए। विशेषकर इसलिए कि यह आमधारणा बनी हुई है कि समाजवादी कभी एकजुट नहीं रह सकते। यह एक ऐतिहासिक सच्चाई है और समाजवादियों की वर्तमान पीढ़ी के सामने चुनौती है कि वे कम से कम एक बार इस धारणा को मिथ्या साबित कर दें। बीते वर्षों में समाजवादियों के बीच एका नहीं रहा तो उसकी एक बड़ी वजह नेताओं की निजी महत्वाकांक्षा थी। आज मुलायम सिंह अपने बेटे को मुख्यमंत्री बना चुके हैं; लालू प्रसादजी की संतानों के लिए भी बेहतर अवसर दिख रहे हैं; शरद यादव और नीतीश कुमार के समक्ष ऐसी कोई समस्या नहीं है तब इनकी एकजुटता आसन्न बिहार चुनाव में और उसके आगे भी रंग ला सकती है। मोदी सरकार की साख में जो कमी आई है तथा पड़ोसी झारखंड में विधानसभा के नतीजे भाजपा के मनोनुकूल नहीं आए। ये दोनों बातें भी समाजवादियों को बेहतर भविष्य के प्रति आश्वस्त कर सकती हैं।

मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी ने आखिरकार अपना नया महासचिव चुन लिया। राजनीतिक प्रेक्षकों को उम्मीद थी कि पश्चिम बंगाल में विधानसभा चुनावों में मिली करारी पराजय के बाद अपने ऊपर जिम्मेदारी लेते हुए प्रकाश करात महासचिव पद छोड़ देंगे। किन्तु तब उन्होंने इस अनुमान को झुठला दिया। केरल में भी माकपा की पराजय श्री करात की हठधर्मी से हुई तथा लोकसभा चुनावों में भी उन्होंने दीवार पर लिखी इबारत पढऩे से इंकार कर दिया। इसके बावजूद वे अपने पद पर कायम रहे आए। बहरहाल सीताराम येचुरी के महासचिव बनने के बाद यह उम्मीद की जा सकती है कि वे आज की वास्तविकताओं को समझबूझ कर ही पार्टी को आगे ले जाने की रणनीति तैयार करेंगे। उधर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी में भी सुधाकर रेड्डी दुबारा महासचिव बने हैं। ऐसे में वाम समर्थक आशा कर रहे हैं कि ये दोनों दल नए सिरे से राजनीति के वामपक्ष को मजबूत करने के लिए व्यवहारिक और प्रभावी कदम उठाएंगे।

एक समय था जब डॉ. लोहिया ने गैर-कांग्रेसवाद का नारा दिया था। उस समय कांग्रेस के खिलाफ जो साझा मोर्चा बना था उसमें तत्कालीन जनसंघ के साथ समाजवादी और साम्यवादी भी शामिल थे। वह तब जबकि जनसंघ के साथ इन दलों की कोई सैद्धांतिक मैत्री नहीं थी। बाद में हमने देखा कि जनसंघ ने कैसे इन दलों की कीमत पर अपनी ताकत बढ़ाई। आज स्थिति बदल चुकी है। आज जब भाजपा सत्ता में है तब आवश्यकता इस बात की है कि गैर-भाजपावाद या गैर-संघवाद की रणनीति बनाई जाए। इसमेंं सफलता तभी मिल सकती है जब कांग्रेस, समाजवादी और साम्यवादी तीनों मिलकर साझा मोर्चा बनाएं। यद्यपि कांग्रेस में एक खेमा है जो कारपोरेट पूंजी का पक्षधर है; वह इसमें बाधा उत्पन्न कर सकता है। इस पर कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व को ही विचार करना होगा। इस एक बड़े मुद्दे को छोड़कर कांग्रेस व अन्य गैर-भाजपाई दलों के बीच ऐसे कोई सैद्धांतिक मुद्दे नहीं हैं जिन पर आम राय न बन सके। यह देखना होगा कि बिहार में विधानसभा चुनाव के पहले क्या कोई ऐसा गठजोड़ बन पाएगा?

देशबन्धु में 23 अप्रैल 2015 को प्रकाशित 

Thursday 16 April 2015

शिक्षा: सरकार बनाम समाज

 



एक
सज्जन कुछ दिन पहले मिलने आए। उनका एक बेटा शहर के किसी नामी स्कूल में पढ़ता है। इस साल उन्हें अपने दूसरे बच्चे को स्कूल में दाखिला दिलाना है। उन्होंने सहज ही सोचा कि जहां पहले से एक संतान पढ़ रही है वहीं दूसरी को भी प्रवेश मिल जाएगा। वे जब इस कार्य के लिए प्राचार्य से मिले तो सुनकर हैरान रह गए कि पहली कक्षा के लिए दिसम्बर-जनवरी में ही प्रवेश की प्रक्रिया समाप्त हो चुकी थी। यह इस तरह का इकलौता प्रकरण नहीं है। मां-बाप अपने बच्चों को अपनी जेब के मुताबिक बेहतर से बेहतर शाला में दाखिल करवाना चाहते हैं, लेकिन जिन स्कूलों ने अपनी श्रेष्ठता की छवि गढ़ ली है वहां किसी का भी वश नहीं चलता। यह छवि पैसे, प्रचार और संबंधों के बल पर गढ़ी जाती है तथा संचालक जानते हैं कि उनकी मनमानी रोकने का हौसला किसी में नहीं है।

इन दिनों एक तरफ जब स्कूली परीक्षाएं लगभग खत्म हो चुकी हैं और नतीजे आने लगे हैं तो वहीं दूसरी तरफ नामी स्कूलों में प्रवेश पाने के लिए लंबी कतारें लगी हुई हैं। कहीं बच्चों की परीक्षा ली जा रही है, तो कहीं पालकों की। नियमित फीस तो लगना ही है, इसके अलावा अन्य मदों में भी पैसे की उगाही हो रही है, फिर वह जायज हो या न हो। सवाल उठना लाजिमी है कि अभिभावकगण अपने पाल्यों को इन शालाओं में पढ़ाने के लिए ही इस कदर परेशान क्यों हैं। सामान्य तौर पर उत्तर यही मिलता है कि अच्छे स्कूल में पढ़ेंगे तो बच्चे की जिन्दगी संवर जाएगी। वे यह जानने की कोशिश नहीं करते कि यह वास्तविकता है या उनका भ्रम। मुझे ध्यान नहीं आता अगर किसी संस्था ने यह शोध की हो कि इन स्कूलों से पढ़कर निकले बच्चे क्या सचमुच अपने अभिभावकों के सपनों को साकार करने में कामयाब हो सके और इससे जुड़ा हुआ दूसरा सवाल यह भी है कि आखिरकार कामयाबी का पैमाना क्या है?

प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी के कार्यकाल में जब शिक्षा के अधिकार को मौलिक अधिकारों में शामिल करने की पहल की गई और जब प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के कार्यकाल में इस अधिकार को सुनिश्चित करने के लिए कानून बनाया गया तो मुझ जैसे लोगों को बेहद खुशी हुई थी क्योंकि इसके साथ देश की नई पीढ़ी के लिए विराट संभावनाएं खुलती प्रतीत हो रही थीं। मैंने पांच साल पहले जितनी प्रसन्नता अनुभव की थी आज उतनी ही हताशा महसूस कर रहा हूं। मैं देख रहा हूं कि न सरकार, न समाज, न अध्यापक, न अभिभावक- किसी की भी दिलचस्पी शिक्षा का अधिकार कानून की भावना को समझकर उसे सही तरह से लागू करने में नहीं है। इस कानून की जब भी बात होती है तो सबका ध्यान सिर्फ एक बिन्दु पर जाकर रुक जाता है तथा कानून के बाकी प्रावधान अनछुए रह जाते हैं।

यह बात लगभग सबको पता है कि शिक्षा का अधिकार कानून में निजी स्कूलों में पहली कक्षा से शुरु होकर पच्चीस प्रतिशत स्थान सुविधाहीन परिवारों के बच्चों के लिए आरक्षित किए गए हैं। हो यह रहा है कि हर अभिभावक अपने पाल्य को इस प्रावधान के अंतर्गत किसी निजी स्कूल में येन-केन-प्रकारेण प्रवेश दिलाना चाहते हैं। वे इसके लिए दौड़ धूप करने में कोई कसर बाकी नहीं रखते। सरकार ने नियम तो बनाए हैं कि सरकारी स्कूल के प्राचार्य नोडल अधिकारी होंगे और सुनिश्चित करेंगे कि आस-पास के निजी स्कूलों में पच्चीस प्रतिशत सीटें उन बच्चों को दी जाएं जो फीस नहीं भर सकते।  इससे निजी स्कूल को जो आर्थिक क्षति होगी उसकी भरपाई करने का नियम भी सरकार ने बनाया है, लेकिन इस प्रावधान का लगातार उल्लंघन हो रहा है और छत्तीसगढ़ सरकार ने तो कानून को सिर के बल खड़ा कर दिया है। वह भी तब जबकि शिक्षामंत्री स्वयं एक आदिवासी युवक हैं।

पिछले पांच साल से पूरे देश से लगातार खबरें आ रही हैं कि निजी स्कूल गरीब बच्चों को अपने यहां प्रवेश नहीं देते। इन शालाओं की फीस पचास-साठ हजार साल से लेकर पांच लाख रुपए साल तक की होती है। कानून का पालन करने में उन्हें घाटा ही घाटा न•ार आता है। अर्थहानि तो खैर है ही, क्योंकि सरकार उनकी फीस का कुछ हिस्सा ही वापिस लौटाती है; किन्तु इससे बढ़कर उनका डर है कि गरीबों के बच्चे अगर इनके स्कूलों में पढ़ेंगे तो दूसरे बच्चे बिगड़ जाएगे। स्कूल का प्रबंधन और शिक्षक तो ऐसा मानते ही हैं, सम्पन्न अभिभावकों के मन में भी यही भावना होती है। इन सबके मन में दुराग्रह है कि गरीबों के बच्चे अनिवार्यत: बिगड़े  हुए होते हैं। भारतीय समाज में आदिवासी, दलित, किसान, मजदूर- इन सबके प्रति जो घृणा का भाव कथित सभ्य समाज में है यह उसका ज्वलंत उदाहरण है।  इसके अलावा अपने बच्चों को महंगे, निजी, विशिष्ट स्कूलों में पढ़ाने और गरीब बच्चों को उनसे दूर रखने के पीछे यह प्रयोजन भी है कि उनके अभिजात्य की दीवार न टूटने पाए।

यह सचमुच एक दु:खद स्थिति है, खासकर तब जब यही अभिजात समाज इस गर्व से इठला रहा है कि एक चाय बेचने वाला आज देश का प्रधानमंत्री है। हम नहीं सोचते कि प्रधानमंत्री ने अपनी भांति-भांति की व्यस्तताओं के बीच इस ओर कभी ध्यान दिया होगा, लेकिन अगर वे अब भी इस बारे में विचार करने के लिए कुछ समय निकाल सकते तो अच्छा होता। भारत रत्न अटल बिहारी वाजपेयी के प्रति भाजपा द्वारा सच्चा सम्मान भी तभी व्यक्त होगा जब उनकी भावना के अनुरूप देश के हर बच्चे को बिना किसी भेदभाव के अनिवार्य और नि:शुल्क शिक्षा प्राप्त होगी। प्रधानमंत्री मेक इन इंडिया का नारा बुलंद किए हुए है किंतु भारत की नई पीढ़ी का एक बहुत बड़ा भाग सही ढंग से शिक्षित नहीं होगा तब तक उनका यह नारा भी कार्यरूप में परिणित नहीं हो पाएगा। हम यह भी याद दिला दें कि अमेरिका में तो राष्ट्रपति के बच्चे भी सरकारी स्कूल में पढ़ते हैं, चाहे क्लिंटन हो या ओबामा।

दरअसल शिक्षा और शिक्षा का अधिकार कानून को लेकर समाज में भी कुछ गलत धारणाएं व्याप्त हैं और कुछ अपने उत्तरदायित्व को सरकार पर मढ़ देने की प्रवृत्ति भी है। यह तथ्य स्मरणीय है कि देश के नब्बे प्रतिशत स्कूल सरकारी क्षेत्र में है।  याने निजी शालाओं का आंकड़ा दस प्रतिशत के आस-पास है। यदि हर अभिभावक अपने बच्चे को निजी शाला में ही दाखिला कराना चाहेगा, तो यह असंभव स्थिति होगी। निजी स्कूल पालकों की इस भावना का शोषण करने से बाज नहीं आते। इस सच्चाई को समझकर पालकों को भी अपने विचारों में परिवर्तन करने की आवश्यकता है। अपने बच्चों को किसी निजी शाला में ले जाने से पहले उन्हें यह पूछताछ भी कर लेना चाहिए कि उस स्कूल से पढ़ कर निकले बच्चों ने आगे चलकर क्या उपलब्धियां हासिल कीं। सिर्फ गलत अंग्रेजी बोलने और टाई लगाने से बच्चे काबिल नहीं बन जाते।

शिक्षा के क्षेत्र में जो सिविल सोसायटी संगठन काम कर रहे हैं जैसे आरटीई फोरम (राइट टु एजुकेशन फोरम) इत्यादि। उन्हें भी इस बारे में नए सिरे से सोचने और नई रणनीति तैयार करने की सलाह मैं दूंगा। यह नहीं भूलना चाहिए कि कार्पोरेट के दबाव में सरकार शिक्षा के निजीकरण की ओर कदम बढ़ा रही है। पिछले दो-तीन साल से किसी संस्था द्वारा जारी 'असर' नामक रिपोर्ट भी प्रकारांतर से निजीकरण की वकालत करती है। अगर शिक्षा का अधिकार कानून को सही तरीके से लागू करना हो तो उसके लिए जो सबसे बड़ा कदम उठाया जा सकता है वह है कि सरकारी स्कूलों की दशा सुधारी जाए। इसके लिए हर गांव और हर मुहल्ले के नागरिकों को आपस में बैठकर तय करना होगा कि वे अपने पुरा-पड़ोस के स्कूल को बेहतर बनाने के लिए क्या कर सकते हैं।

मेरा मानना है कि सरकार की मंशा चाहे जो हो, कार्पोरेट चाहे जो चाहे, उत्तम शिक्षा की चाबी तो समाज के हाथों में है। अगर निजी स्वार्थ से उठकर नागरिक अपने नजदीकी स्कूल की उन्नति करने का बीड़ा उठा लें, तो उन्हें सफलता निश्चित ही मिलेगी। इसमें उन्हें शिक्षकों का भी योगदान मिलेगा और उन नागरिकों का भी जिनके बच्चे वहां नहीं पढ़ते। जनप्रतिनिधियों को अगर वोट चाहिए तो उन्हें भी विवश होकर ऐसे प्रयोगों में सहयोग देना होगा।

देशबंधु में 16 अप्रैल 2015 को प्रकाशित

Wednesday 8 April 2015

चाय का स्वाद


 



कहा
जाता है कि अखबार पढऩे का आनंद सुबह चाय की चुस्कियों के साथ ही मिलता है। हो सकता है कि इस समय जब आप इस लेख को पढ़ रहे हैं, चाय का प्याला बाजू में तिपाई पर रखा हो। यूं  तो चाय को भारत में आए सौ साल ही हुए हैं लेकिन वह इस कदर हमारी दिनचर्या का हिस्सा बन गई है कि उसके बिना दिन अधूरा लगता है। वे जन जो आए दिन उपवास करते हैं,  उन्हें भी चाय से सामान्यत: परहेज नहीं होता। घर आए मेहमान को चाय ऑफर करना आज का सामान्य शिष्टाचार है। इसका पालन नहीं किया तो पीठ पीछे बुराई होती है- एक कप चाय के लिए भी नहीं पूछा। अहमदाबाद और पुणे जैसे नगरों में चाय पिलाने को लेकर जो चुटकुले प्रचलित हैं वे आप किसी गुजराती या पुणेरी मित्र से जान सकते हैं।

जैसा कि हम जानते हैं चाय भारत में चीन से आई है, लेकिन जैसी चाय हम पीते हैं वह चीन वालों को रास नहीं आएगी। वे या तो हरी चाय याने ग्रीन टी पीते हैं जिसमें न दूध होता  है न शक्कर। बस पत्ती का कड़वा कसैला स्वाद ही मुख में आता है। इसका दूसरा पहलू है कि पर्यटकों के लिए चीन ने टी सेरिमनी की अपनी परिपाटी विकसित कर ली है जिसमें आपको गुलाब, बेला, चमेली, जवा कुसुम आदि फूलों की खुशबू और स्वाद वाली चाय परोसी जाती है। चीन से ही चाय जापान भी गई होगी। वहां जो टी सेरिमनी होती है उसके बारे में लेख तो क्या पुस्तकें लिखी जा चुकी हैं। जापान की सुरुचि-सम्पन्नता और कलाप्रियता, सुघड़ता और नज़ाकत जैसे कितने ही गुणों का परिचय उस सुदीर्घ चाय पार्टी से मिल जाता है। चीन और जापान से ही प्रेरणा लेकर हमारे यहां भी विभिन्न फ्लेवरों वाली चाय मिलने लगी है। सेहत के लिए फिक्रमंद लोग अब ग्रीन टी की खूबियों का बखान करते भी आपको मिल जाएंगे।

सात समंदर पार अंग्रेजों ने भी चाय पीने की आदत चीन से ही सीखी है। अभिजात ब्रिटिश घरों में शाम को चार बजे ''टी" का आयोजन उनकी विशिष्ट जीवन शैली का हिस्सा है। भारत तो खैर चाय का दीवाना है ही लेकिन चाय पीने का सलीका सीखना हो तो मौलाना अबुल कलाम आजाद से बेहतर कोई नहीं बता सकता। उन्होंने चालीस-पचास के दशक में अपने एक ललित निबंध में बताया था कि चाय किस न फासत के साथ पी जाना चाहिए। वे दूध, पानी, चाय, शक्कर एक साथ डालकर उबालने के हिमायती न होकर सेपरेट चाय की खूबियां गिनाते हैं। वे कहते हैं कि जब प्याला होठों से लगाया जाए तो चीनी मिट्टी का स्वाद बीच में बाधा नहीं बनना चाहिए। छत्तीसगढ़ के पाठकों के लिए यह जानना दिलचस्प हो सकता है कि पूर्व मुख्यमंत्री श्यामाचरण शुक्ल कुछ इसी अंदाज में चाय पीते थे।

पाठकगण! आप के मन में यह सवाल उठ रहा होगा कि मैं आज यह विषय क्यों ले बैठा। सो पहले तो यह स्पष्ट कर दूं कि प्रधानमंत्री की चाय की चर्चा से इसका कोई ताल्लुक नहीं है। दरअसल कुछ दिन पहले सुबह चाय के प्याले के साथ-साथ कोई पत्र-पत्रिका पढ़ते हुए मेरी निगाह एक समाचार पर जाकर ठिठक गई। वह समाचार चाय पर ही था और उसने मुझे चाय के बारे में मन भटकाने के लिए एक बड़ा विस्तार दे दिया। खबर अच्छी है और यह है कि गुवाहाटी के किसी शिक्षण संस्थान ने एक ऐसी डलिया का निर्माण किया है जो चाय बागानों में पत्तियां तोडऩे वाली मजदूर औरतों के लिए ज्यादा आरामदायक है। उससे उनकी पीठ पर और रीढ़ की हड्डी पर कम वजन पड़ेगा। जबकि दूसरी ओर वे डलिया में लगभग ड्योढ़ी मात्रा में पत्तियां संचित कर सकेंगी। यह आविष्कार सुनने में छोटा लगता है लेकिन लाखों मेहनतकश स्त्रियों को इसका जो लाभ होगा, वह बड़ी खुशी की बात है।

मैंने जब इस आविष्कार की खबर पढ़ी तो विचार आया कि चाय बागानों में काम करने वाले मजदूरों का जीवन कितना दूभर होता है। असम और बंगाल में इन मजदूरों को टी गार्डन ट्राइबल या चाय बागान आदिवासी की संज्ञा से जाना जाता है। इनमें से अधिकतर मजदूरों के पुरखे छत्तीसगढ़ और झारखंड से ले जाए गए थे। हमारी मिनीमाता के पुरखे भी उन्हीं में से थे। इन लोगों ने बागान मालिकों और मैनेजरों के हर तरह के अत्याचार बर्दाश्त किए। मेहनत का जितना मुआवजा मिल जाए उसी को गनीमत जानो। लेकिन आज जनतांत्रिक व्यवस्था में इन्हें जिस तरह संदेह की दृष्टि से देखा जाता है और आज भी जब उन पर अत्याचार होता है तो मन को क्लेश पहुंचता ही है। हम सुबह, दोपहर, शाम जब कभी भी चाय का प्याला हाथ में लेते हैं, उसकी खूशबू से मगन होते हैं, एक घूंट पीकर ताजगी का अहसास करते हैं तब शायद कभी भी यह ध्यान नहीं आता कि यह चाय हम तक पहुंची कैसे?

मुल्कराज आनन्द ने 1937 में लिखे अपने उपन्यास 'दो पत्ती और एक कली' में चाय बागानों के मजदूरों की दारुण दशा का वर्णन किया है। इस उपन्यास पर  ही पंद्रह साल बाद ख्वाजा अहमद अब्बास ने 'राही' फिल्म बनाई जिसके नायक देवानन्द थे। उस समय चाय बागानों के मालिक अंग्रेज थे और आज हिंदुस्तानी हैं, लेकिन परिस्थितियों में कोई बहुत फर्क नहीं आया है। हो सकता है कि आज मजदूरी की शर्तों में कुछ सुधार हुआ हो, लेकिन यह जितना हाड़ तोड़ देने वाला काम है वह सच्चाई तो अपनी जगह कायम है। ये जहां रह रहे हैं वहां इन्हें दूसरे दर्जे का नागरिक माना जाता है यह बात भी कम दर्दनाक नहीं है। ऐसे में यदि एक छोटा सा आविष्कार इन श्रमशील महिलाओं को यदि थोड़ी राहत दे पाता है तो मैं समझता हूं कि हमारी चाय कुछ ज्यादा स्वादिष्ट हो सकेगी।

चाय के बारे में सोचते-सोचते मेरा ध्यान नर्मदा कछार की ओर चला गया। जबलपुर से लेकर नरसिंहपुर, गाडरवारा, होशंगाबाद तक नर्मदा के किनारे ठंड के दिनों में मटर की खेती होती है। दिसम्बर-जनवरी में उस तरफ निकले तो खेतिहर महिलाएं साथ में टोकरी रखे मटर तोड़ते नज़र आ जाएंगी। मीलों तक यही दृश्य चला आता है। मन ललचाता है कि खेत में उतरकर मटर की कच्ची मीठी फलियां तोड़कर खाई जाएं, लेकिन हम यह कहां जानने की कोशिश करते हैं कि दिनभर खेत में मटर की फली तोडऩे का काम करते हुए इन महिलाओं की पीठ किस तरह दुखती होंगी। यह सच्चाई सतपुड़ा के जंगलों में साल और महुआ बीनने वाले आदिवासियों पर भी तो लागू होती है। मैं कभी विद्यार्थियों से बात करता हूं तो उन्हें कहता हूं, यह मत भूलना कि तुम जिस चाकलेट को पंसद करते हो, उसमें साल बीज का तेल है और ये साल बीज बस्तर या सरगुजा के जंगल में किसी आदिवासी ने बड़ी मेहनत से इकट्ठे किए हैं।

साल बीज के तेल से बनी चॉकलेट, डिब्बाबंद मटर और चायपत्ती इनके चित्ताकर्षक विज्ञापन टीवी पर देखने मिलते हैं। चॉकलेट का विज्ञापन युवा पीढ़ी को भरमाता है कि उन्हें यदि प्रेम में सफल होना है तो फलानी चॉकलेट को माध्यम बनाना चाहिए। इसी तरह अमिताभ बच्चन त्यौहार पर देसी मिठाई के बजाय चॉकलेट उपहार में देने की वकालत करते हैं। मटर के विज्ञापन में उसके सूप के सेहतकारी गुण बताए जाते हैं। चायपत्ती के एक विज्ञापन में ट्रेन के ड्रायवर और गार्ड भी ट्रेन को भूलकर चाय पीने के लिए रुक जाते हैं, तो दूसरे विज्ञापन में उस्ताद जाकिर हुसैन अपनी पसंदीदा चाय का गुणगान करते हैं। नवपूंजीवाद ने बाजार का रूप जिस तरह से बदला है, उसमें यह सब होना ही था। उसकी बात करने का अभी कोई अर्थ नहीं है। किंतु फिलहाल हम इतना तो कर ही सकते हैं कि गुवाहाटी के उन युवा आविष्कारकों को बधाई दें जिनकी खोजी निगाह चाय बागान के मजदूरों पर जा टिकी और जिन्होंने उनके प्रति संवेदना अनुभव करते हुए अपने ज्ञान का इस्तेमाल इस सुंदर और उपयोगी आविष्कार के लिए किया।
देशबन्धु में 09 अप्रैल 2015 को प्रकाशित

Tuesday 7 April 2015

सेंसरशिप: प्लेटो से अब तक


 विश्व में सर्जनात्मक विधाओं या कलारूपों का इतिहास जितना पुराना है, सेंसरशिप की अवधारणा भी शायद उतनी ही पुरानी है। जैसा कि हम जानते हैं प्लेटो ने 'द रिपब्लिक' में महाकवि होमर के ग्रंथों पर प्रतिबंध लगाने की वकालत की थी। उनके अनुसार इन कृतियों को पढ़कर एथेंस की युवा पीढ़ी दिग्भ्रमित हो सकती थी। प्लेटो ने स्पष्ट लिखा है कि होमर ने अपनी रचनाओं में जैसे चित्र-विचित्र पात्र गढ़े हैं और जिन अविश्वसनीय प्रतीत होती घटनाओं का अंकन किया है, उनका कोमल मनों पर दुष्प्रभाव पडऩे की आशंका है। उन्हें पढऩे से अवयस्क मानस जीवन की वास्तविकताओं से हटकर कल्पनाजीवी बन सकता है। आज से ढाई हजार वर्ष पूर्व प्रतिपादित इस धारणा का एक बहुत छोटा रूप आज के उन टीवी विज्ञापनों में देखा जा सकता है जहां स्टंट के दृश्यांकन के साथ छोटे-छोटे अक्षरों में चेतावनी प्रसारित की जाती है कि दर्शक इनकी नकल करने का खतरा मोल न लें। फिल्मों में सिगरेट-शराब के दृश्यों के साथ दी जाने वाली चेतावनी भी इसी मनोभाव की ओर इंगित करती है कि कला-प्रस्तुति में सब कुछ ग्राह्य नहीं है। और जो अग्राह्य है, उस पर किसी न किसी सीमा तक रोक लगाना वांछित है। प्रश्न उठता है कि यह फैसला कौन करे कि अग्राह्य क्या है एवं उस पर रोक लगाने का तंत्र कैसा हो।

प्लेटो के समय में सामाजिक वातावरण उतना जटिल नहीं रहा होगा जैसा कि आधुनिक दौर में है। उस वक्त न तो जनसंख्या ही अधिक थी, न ही विभिन्न समाजों के बीच आदान-प्रदान के लिए आज की भांति द्रुतगामी साधन थे। तकनालॉजी भी अपनी प्रारंभिक अवस्था में थी और राजनैतिक व्यवस्था का भी कोई सुनिर्धारित सैद्धांतिक ढांचा नहीं था। एथेंस यद्यपि गणराज्य था, जैसे भारत में लिच्छवी गणराज्य, लेकिन ये नगरीय शासन व्यवस्थाएं ही थीं और कहा जा सकता है कि राजनैतिक चिंतन की बस शुरूआत ही हुई थी। उस अपेक्षाकृत सरल सामाजिक परिदृश्य में यदि सेंसरशिप की अवधारणा को जन्म मिला तो मान लेना होगा कि आज यह विचार कई गुना अधिक जटिल रूप में हमारे समाज में विद्यमान है। जहां राजनैतिक व्यवस्था अधिनायकवादी या एकछत्रवादी है, वहां तो जो सत्ताधीश कहे वही सर्वमान्य है, किन्तु जहां जनतंत्र है वहां यह जटिलता विविध प्रश्न खड़े करती है। भारत जैसे समाज में मामला और भी पेचीदा हो उठता है, जहां सांस्कृतिक बहुलता एवं विविधता के कारण किसी भी मसले पर त्वरित व एकसार निर्णय लेना मुश्किल हो जाता है। यह याद रखने योग्य है कि भारत के संघीय गणराज्य होने के बावजूद राज्यों को न्याय-व्यवस्था के मामलों में उस तरह स्वायत्तता हासिल नहीं है, जैसी कि संयुक्त राज्य अमेरिका में है। अमेरिका में जैसे कुछ राज्यों में मृत्युदंड का प्रावधान है तो कुछ में नहीं है। मतलब यही कि भारत में सेंसरशिप जैसे संवेदनशील प्रश्न पर चर्चा करते हुए अनेकानेक बिंदुओं को संज्ञान में लेना आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य हो जाता है।

जब हम सेंसरशिप की बात करते हैं तो सामान्यत: हमारा आशय उन कानूनी प्रावधानों से होता है, जिनका प्रयोग समय-समय पर सरकार किसी कलात्मक अभिव्यक्ति या सर्जनात्मक गतिविधि को प्रतिबंधित करने के लिए करती है। अर्थात् सेंसरशिप की कल्पना राजसत्ता के बिना नहीं की जा सकती, जिसमें कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका सभी यथा अवसर अपनी भूमिका निभाती है। यह आवश्यक नहीं है कि इसमें तीनों अंगों की सदैव सहमति हो। इसके परे एक और व्यवस्था है जिसे हम सामाजिक नियंत्रण और/ अथवा आत्मनियमन की संज्ञा दे सकते हैं। इसके अंतर्गत सर्जक (व्यक्ति या समूह) अपने उत्तरदायित्व को स्वीकार करता है एवं उसके प्रति सजगता दर्शाता है। यहां समूह से मेरा आशय उन कलात्मक प्रस्तुतियों की ओर है, जिनका निर्माण एक अकेला व्यक्ति नहीं कर सकता, मसलन टीवी कार्यक्रम या सिनेमा। इस व्यवस्था में समाज और सर्जक दोनों बिना किसी मध्यस्थ के, बिना राज्य को बीच में लाए परस्पर बातचीत के द्वारा विवादों का हल निकालते हैं। इन दोनों के अलावा एक पक्ष और भी है जिसका परिचय अक्सर उग्र व हिंसक आंदोलन के रूप में देखने मिलता है। इसमें न तो राजसत्ता द्वारा किए गए विधानों का सम्मान होता है और न सर्जक के साथ बातचीत की सूरत ही निकलती है।

यह कहना एक स्थापित सत्य को दोहराना ही होगा कि जनतंत्र की पहिली शर्त अभिव्यक्ति की आजादी है। एक जनतांत्रिक समाज में ही नाना विचारों का प्रस्फुटन और असहमति का आदर संभव है। ऐसे में जब कोई एक समूह या समुदाय किसी कलात्मक अभिव्यक्ति के प्रति अपना विरोध दर्ज करने के लिए सड़कों पर उतर आता है तो वह सीधे-सीधे जनतंत्र की मूल भावना पर ही आक्रमण करता है। इसके अनेक उदाहरण हमारे सामने हैं। पुस्तकों को जलाना, लाइब्रेरी में तोडफ़ोड़ करना, लेखक-विचारक-शिल्पी के खिलाफ फतवा जारी करना, उसके साथ मारपीट, यहां तक कि उसकी हत्या करना, मूर्तियों को खंडित करना, मस्जिद को ढहाना, नाटक का प्रदर्शन बीच में रोक देना, सिनेमाघर में फिल्म न चलने देना, प्रकाशकों-आयोजकों को व्यापार करने से रोकना, कलाकारों को देश छोडऩे पर मजबूर करना, सामान्य कानूनी कार्रवाई करने के बजाय परेशान करने के लिए मुकदमेबाजी करना जैसी घटनाएं भारत में आम हो गई हैं। इनके चलते जनतंत्र, भेड़तंत्र, भीड़तंत्र अथवा जंगलतंत्र में तब्दील हो जाता है। यह विडंबना है कि ऐसी कार्रवाईयों में जिन्हें आगे बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते दिखाया जाता है, वे स्वयं अक्सर अनभिज्ञ होते हैं कि मामला क्या है। वे या तो एक समर्पित कार्यकर्ता के रूप में या फिर एक दिन की मजदूरी मिलने के चक्कर में इन प्रदर्शनों में भाग लेने आ जाते हैं, जबकि उनके प्रायोजक अपने सुरक्षित ठिकानों में बैठकर संचालन करते रहते हैं।

यह प्रवृत्ति भारतीय समाज में बढ़ रही असहिष्णुता की ओर संकेत करती है। इससे यदा-कदा एक हताशा का भाव भी उत्पन्न होता है कि क्या हमारा देश जनतंत्र के लिए सचमुच योग्य है! एक सर्वमान्य सोच है कि मीडिया जनतंत्र को मजबूत करने में महती भूमिका निभाता है। लेकिन अब उस मीडिया पर भी प्रश्न खड़े हो रहे हैं कि वह अपनी अबाधित स्वतंत्रता का उपयोग जनतंत्र को मजबूत करने के लिए कर रहा है या अपने पूंजीगत हितों के लिए निहित स्वार्थों के हाथों खेलने लगा है। अभी हाल में एक बड़बोले मीडिया चैनल ने एक प्रतिस्पर्द्धी चैनल के किसी प्रसारण को लेकर उस पर कानूनी कार्रवाई करने की मांग उठा दी। इसके उत्तर में उस दूसरे चैनल ने अगले दिन एक घंटे के लिए अपना प्रसारण यह कहकर रोक दिया कि हमारा मौन ही हमारी अभिव्यक्ति है। टीवी चैनलों का संचालन एक व्यावसायिक उपक्रम है और उसमें प्रतिस्पद्र्धा होना स्वाभाविक है, किन्तु एक चैनल दूसरे को कानूनी कार्रवाई की धमकी देकर डराने की कोशिश करे और खुद के लिए वाहवाही लूटना चाहे तो इससे मीडिया की नैतिकता पर भी सवाल उठते हैं और उसे प्राप्त स्वतंत्रता पर भी। ऐसी परिस्थिति उत्पन्न होने पर नागरिक क्या करे?

अब बात उठती है सेंसरशिप की याने देश की चुनी हुई सरकार और उसके अभिकरणों द्वारा रचनात्मक अभिव्यक्ति पर लगाए गए प्रतिबंधों की। भारत में इसके प्रथम दो उदाहरण अठारहवीं व उन्नीसवीं सदी में मिलते हैं। पहिला जब देश के पहिले अखबार 'बंगाल गजट" के संपादक जेम्स ऑगस्टस हिकी को वायसराय वारेन हैस्टिंग्ज ने जेल में डाल दिया था और दूसरा जब भाषायी अखबारों की आवाज  कुचलने के लिए वर्नाक्युलर प्रेस एक्ट लागू कर दिया गया था। यह तो ब्रिटिश राज की बात हो गई। स्वतंत्र देश में भी ''लेडी चैटरलीज लवर" नामक पुस्तक प्रतिबंधित कर दी गई तो न्यायमूर्ति छागला ने उसे खारिज किया था। तत्कालीन बंबई प्रदेश में मोरारजी देसाई की सरकार ने इप्टा पर प्रतिबंध लगाया था और कितने ही कम्युनिस्ट लेखक- कलाकार जेल में डाल दिए गए थे। आज भी केन्द्र हो या प्रदेश- सरकार सेंसरशिप लगाने के लिए मानो उतावली बैठी रहती है। उसे अपनी शक्ति का प्रयोग करने में आनंद की प्राप्ति होती है। अखबारों व टीवी पर सेंसरशिप लगाने के दो तरीके हैं- या तो सीधे-सीधे धमका कर या फिर उन्हें खरीदकर। ऐसा अगर संभव हो पा रहा है तो इसलिए कि जनता किसी हद तक निरपेक्ष व उदासीन हो गई है। यह भी समझ आता है कि किसी फिल्म, नाटक या पुस्तक पर प्रतिबंध इसलिए लग पाता है क्योंकि जो चुने जाकर सरकार में बैठे हैं स्वयं उनकी आस्था जनतांत्रिक मूल्यों के प्रति गहरी नहीं है। इसीलिए वे कभी स्वेच्छा से, तो कभी दबाव में आकर घुटने टेक देते हैं। हम यहां तक कहेंगे कि अदालतों में जो न्याय की आसंदी पर बैठे हैं वे भी अक्सर उस संवेदनशील मसले को समझने में असमर्थ होते हैं।

एक सभ्य समाज में सच कहा जाए तो न तो सड़कों पर आकर प्रदर्शन करने की आवश्यकता पडऩी चाहिए और न आए दिन सेंसरशिप के कानूनी प्रावधानों को लागू करने की। एक आदर्श स्थिति तो वही होगी जहां आमने-सामने बैठकर बातचीत से विवादों के हल निकाले जाएं। एक मौजूं उदाहरण अखबारी जगत में देखा जा सकता है। पत्र-पत्रिकाओं में संपादक के नाम पत्र के लिए नियमित रूप से स्थान रहता है। किसी पाठक को छपी हुई सामग्री में कोई बात आपत्तिजनक प्रतीत हो तो वह संपादक को पत्र लिखकर अपना पक्ष सामने रख सकता है और यदि संपादकीय त्रुटि है तो वह अखबार से खेदप्रकाश या क्षमायाचना की अपेक्षा भी कर सकता है। यहां बात खत्म हो जाती है। यह दो पक्षों के बीच का सभ्यतापूर्ण व्यवहार है और इसमें समय, श्रम  व धन तीनों की बचत है।

पाठकों की जानकारी के लिए दो बढिय़ा दृष्टांत दिए जा सकते हैं। ''नेशनल जियोग्राफिक" मासिक व ''द इकॉनामिस्ट" साप्ताहिक दो ऐसे पत्र हैं जिनमें पाठक कभी त्रुटियों की ओर इशारा करें तो संपादक की ओर से उसका बाकायदा जवाब दिया जाता है व सौ में निन्यानबे बार यह सिद्ध होता है कि संपादक की जानकारी अद्यतन है, जबकि पाठक स्वयं गलती करते हैं। ऐसे सजग संपादक भारत में दुर्लभ हैं। अखबारों के संदर्भ में ही एक व्यवस्था ओम्बुड्समैन याने लोकपाल की है। पाठक यदि संपादक के उत्तर से संतुष्ट नहीं है तो वह लोकपाल को अपील कर सकता है। भारत में एकाध ही अखबार ने इस व्यवस्था को अपनाया है। एक अन्य उदाहरण एक ऐसी संस्था के बारे में है जिसके बारे में जनसामान्य को कम जानकारी है। यदि अखबार अथवा टीवी पर प्रसारित विज्ञापन आपत्तिजनक, अविश्वसनीय, स्तरहीन या कुरुचिपूर्ण प्रतीत हो तो कोई भी व्यक्ति एडवरटाइजिंग स्टैंडर्ड्स कौंसिल ऑफ इंडिया को शिकायत कर सकता है। यह संस्था विज्ञापनदाताओं और विज्ञापन एजेंसियों ने मिलकर बनाई है। अगर शिकायत में दम है तो संस्था उस विज्ञापन को हटा लेने का निर्देश दे देती है। ऐसे कई दृष्टांत हैं जब कौंसिल ने नागरिकों की शिकायत पर अपने सदस्य विज्ञापनदाताओं के खिलाफ निर्णय दिए हैं। यूं तो टीवी चैनलों ने भी इंडियन ब्राडकास्टिंग एसोसिएशन की स्थापना की है। प्राय: हर चैनल पर प्रतिदिन सूचना प्रसारित होती है कि अगर कोई सामग्री आपत्तिजनक लगे तो दर्शक इस संस्था को शिकायत भेज सकते हैं। लेकिन हमें लगता है कि यह एक निष्प्रभावी संस्था है। चैनलों के कर्ताधर्ता अपने व्यावसायिक हितों की चिंता में ही डूबे रहते हैं। वे दर्शकों की परवाह नहीं करते। अब तो ऐसी ही स्थिति भारतीय प्रेस परिषद की हो गई है जो कि अद्र्धवैधानिक संस्था है। शायद ही कोई भी समाचार पत्र उसकी परवाह करता हो।

बहरहाल हमारा मानना है कि यह जो तीसरा उपाय है वही सबसे अच्छा है। किसी लेखक, कलाकार या विचारक को जेल भेज देना या उसकी हत्या कर देना, किसी पुस्तक को जला देना या उस पर प्रतिबंध लगाना, किसी नाटक या फिल्म को बीच में रोक देना अथवा मजिस्ट्रेट के आदेश से उसे हटा लेना- इन सबसे विजय का क्षणिक एवं मिथ्या अभिमान भले ही कोई कर ले इसमें अंतत: हार समाज की होती है। रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने प्रार्थना की थी कि विचारों की सरिता मरुस्थल में जाकर विलीन न हो जाए। यह भी हमें पता है कि सरस्वती इस तरह सचमुच रेगिस्तान में जाकर सूख गई थी। इसलिए यही श्रेयस्कर है कि यदि किसी कृति से हमारा विरोध है तो उसे संयमपूर्ण भाषा में व्यक्त करें और अपनी ओर से बात को वही छोड़ दें। यह सोचकर देखिए कि यदि एथेंसवासियों ने प्लेटो के विचारों पर अमल किया होता तो फिर होमर के ''इलियड" और ''औडेसी" जैसे महाकाव्यों का क्या होता?
अक्षर पर्व अप्रैल 2015 अंक की प्रस्तावना

Wednesday 1 April 2015

एक छोटी यात्रा के छोटे-छोटे अनुभव


 आज का लेख कहां से शुरू किया जाए कुछ समझ नहीं पड़ रहा है। जब तक पहली पंक्ति ठीक से न लिखी जाए तब तक बात को आगे बढ़ाना मुश्किल ही होता है। मैं आज एक संक्षिप्त प्रवास से लौटा हूं और उससे जुड़े कुछ प्रसंग पाठकों के साथ साझा करने का मन हो रहा है। किन्तु दिक्कत वही है कि प्रारंभ कहां से हो। फिर भी चलिए, कोशिश करके देखते हैं।

इस लेख की एक शुरूआत कुछ इस तरह से हो सकती है- उस  इको टूरिज्म सेंटर में अपनी कॉटेज तक पहुंचे ही थे कि एक मादक गंध नथुनों में भर गई। यह एक जानी- पहचानी गंध थी और मन ने हुलस कर कहा, अरे! यहां तो महुआ फल रहा है। इतने में हवा का एक तेज झोंका आया और महुए के लगभग पत्रहीन वृक्ष से महुए के अनगिनत फल टूट कर झरे और चारों तरफ बिखर गए। मोतियों जैसे सफेद महुए के फल, जिन्हें झरते देखकर कभी कविवर बच्चन ने लिखा था- ''महुए के नीचे मोती झरे जाएं।"

एक दूसरी शुरूआत कुछ इस तरह से हो सकती है-
हम कुछ ही साल पहले बनी उस नई सड़क पर पहली बार यात्रा कर रहे थे। एक गांव सामने आया बेलमुंडी। उससे कुछ आगे बढ़े ही थे कि दाहिने हाथ पर एक विशाल जलाशय प्रकट हुआ। ऐसा लगा कि जलाशय कई मील तक लंबा चला गया है मानो कोई नदी ही बह रही हो। चारों तरफ धान के खेत थे, जहां जल का स्तर कम था वहां पेड़ों के ठूंठ नज़र आ रहे थे, बगुले तो यहां-वहां बैठे ही थे, किन्तु कुछ और पक्षी भी दृष्टिगोचर हो रहे थे। मन में सवाल उठा कि क्या शीतकाल में यहां प्रवासी पक्षी आते होंगे? वैसे ही जैसे छत्तीसगढ़ के अनेक स्थलों पर दिखाई देते हैं।

अब एक तीसरी शुरूआत भी देख लेते हैं-
वह भारत का एक औसत गांव ही था जहां वर्तमान समय के प्रतीक यहां-वहां दिख रहे थे। गांव के छोर पर पुरानी लगभग जर्जर इमारतों वाला परिसर था, जहां काफी गहमागहमी नज़र आ रही थी।  तीन-चार सौ लोग तो रहे ही होंगे। प्रवेश द्वार से लोगों की आवाजाही लगी थी। बाहर सड़क के दोनों किनारों पर कुछ गुमटीनुमा दुकानें और ठेले थे। दोनों दिशाओं से बीच-बीच में गाडिय़ां आकर रुक रही थीं और सवारियां उतर रही थीं। समझ आया कि यह तो अस्पताल है। एक अनजाने से गांव के एक छोर पर बसा यह अस्पताल कैसा है? मन में जिज्ञासा उठना स्वाभाविक थी।

अगर ये तीनों प्रारंभिक पंक्तियां न जम रही हों तो एक चौथा प्रयत्न और करते हैं-
अभी दिन ढलने में समय बाकी था, सूर्यास्त के पहले हम लोग घूमकर वापिस लौट सकेंगे यह आश्वस्ति हुई। हम उस जंगल में धंस पड़े। साल के ऐसे घने जंगल बहुत समय बाद देखने मिले। लेकिन वहां सिर्फ साल ही नहीं मिश्रित जंगल का भी क्षेत्र था जिसमें बांस के झुरमुटों के अलावा सतपुड़ा के जंगल में पाए जाने वाले न जाने कितने प्रजातियों के पेड़ व झाडिय़ां थीं, जिनके बीच सफेद मोजे पहने जैसे गौर, चित्तियों वाले हिरण याने चीतल, सांभर, जंगली सुअर, जंगली मुर्गियां और मोर इत्यादि निर्भय विचरण कर रहे थे। झाडिय़ों-झुरमुटों में छिपे प्राणियों को तुरंत देख पाना हमारी अनभ्यस्त आंखों के लिए संभव नहीं था, लेकिन हमारे वाहन चालक द्वारिका को तो आस-पास से आ रही हल्की आहट से ही पता लग जाता था कि यहां कहीं वन्यप्राणी छिपे हैं। हम उन्हें देख रहे थे या वे हमें, कहना मुश्किल है।

इस अंतिम इंट्रो पर भी गौर कर लीजिए-
शहर से कुछ दूर एक संकीर्ण पथ पर बिना आबादी वाले क्षेत्र में वह परिसर स्थित था। भीतर प्रवेश पथ पर सूरजमुखी के पीले और कनेर के लाल फूल कड़ी धूप में भी खिल रहे थे। यह प्रदेश में उच्च शिक्षा का एक केन्द्र था जिसने उसी दिन अपनी यात्रा का एक महत्वपूर्ण मोड़ पार किया था। आपने पांच अनुभवों पर पांच प्रारंभिक टिप्पणियां देख ली हैं। अब इनके बारे में शायद कुछ विस्तार से बात की जा सकती है।

29 और 30 मार्च 2015। कुल दो दिनों में ये अनुभव हासिल हुए।  बिलासपुर से अमरकंटक के रास्ते पर अचानकमार का प्रसिद्ध वनक्षेत्र है जो अब बाघ अभयारण्य घोषित कर दिया गया है। यह क्षेत्र अमरकंटक जैव-विविधता क्षेत्र के अंतर्गत भी शामिल है। यहां जंगल के भीतर सौ-सौ साल पुराने डाक बंगले थे जहां कभी सैलानी ठहरा करते थे। वे अब बंद कर दिए गए हैं। पर्यटकों के लिए अभयारण्य प्रारंभ होने के पहले शिवतराई नामक गांव में एक पर्यटक विश्रामगृह कुछ समय पहले स्थापित किया गया है। हम यहां एक रात ठहरे। अभयारण्य से बाहर होकर भी यह स्थान जंगल से बाहर है ऐसा नहीं कहा जा सकता। चारों तरफ विशाल वृक्ष हैं- महुआ, बीजा, साजा, हल्दू, पलाश और कुसुम इत्यादि के जिनकी छाया में आवश्यक सुविधायुक्त पर्यटक कुटीरें बनाई गई हैं। यदि आप प्रकृति प्रेमी हैं और निसर्ग से कुछ सीखना चाहते हैं तो यह एक मनोरम स्थान है। जंगल की ताजी हवा अपने फेफड़ों में भरते हुए आप आंतरिक शांति के कुछ बहुमूल्य पल यहां बिता सकते हैं।

मैं अचानकमार पहले भी आया था। एक बार तो राज्य वन्य प्राणी संरक्षण मंडल के सदस्य के रूप में। बाघ अभयारण्य के बीच बसे गांवों को हटाया जाना था। इसकी प्रक्रिया का अध्ययन करने के लिए। अभी पता चला कि कुछ गांव हट गए हैं, कुछ यथावत हैं। शिवतराई के विश्रामगृह में जो पर्यटक कुटीरें बनी हैं उनके नाम इन्हीं विस्थापित गांवों पर रखे गए हैं जैसे- बल्दाकछार या जल्दा इत्यादि। उन गांवों की स्मृतियां अब इस रूप में जीवित रहेंगी! अभयारण्य में एक स्थान है जिसका नाम है मैकूमठ। बताया गया कि मैकू नामक एक आदिवासी को बरसों पहले यहीं एक शेर ने मार डाला था और रात भर उसके शव के पास बैठा रहा था। बाद में एक वन अधिकारी ने उस शेर को मारा था। बिलासपुर-मुंगेली की एक प्रमुख नदी मनियारी यहीं सिहावल सागर नामक जगह से निकलती है। वहां हाथियों के लिए एक लघु अभ्यारण्य जैसा बनाया गया है, जिसमें फिलहाल चार हाथी हैं।

ऊपर जिस अस्पताल की बात की वह गनियारी ग्राम में स्थित जन स्वास्थ्य सहयोग नामक संस्था द्वारा संचालित है। इस अस्पताल की ख्याति देश और देश के बाहर है। फल बेचने वाले युवक घनश्याम ने कहा कि रायपुर-बिलासपुर में जिस इलाज में लाख-दो लाख लगते हैं वह यहां दस-पन्द्रह हजार में हो जाता है। इस अस्पताल के सभी डॉक्टर उच्च शिक्षित हैं, अनुभवी हैं और उनका सेवाभाव उन्हें यहां तक खींचकर ले आया। दल्लीराजहरा का शहीद अस्पताल और गनियारी का जन स्वास्थ्य सहयोग हमारे प्रदेश में सुलभ चिकित्सा सेवा के दो आदर्श एवं अनुपम उदाहरण हैं। इस विडंबना को क्या कहें कि इनकी प्रशंसा तो सब करते हैं, लेकिन इनसे प्रेरणा लेने के बारे में कोई इक्का-दुक्का ही सोचता है। डॉ. रमन (मुख्यमंत्री नहीं) और उनके साथियों की जितनी सराहना की जाए कम है।

इधर कुछ साल पहले बिलासपुर में हाईकोर्ट के पहले एक बायपास रोड बन गया है जिससे पहली बार गुजरने का मौका मिला। यह रास्ता आगे जाकर एक ओर कोटा-अमरकंटक और दूसरी ओर कटघोरा-कोरबा की तरफ चला जाता है। दूरी की बचत तो खास नहीं, लेकिन बिलासपुर शहर के सघन यातायात से अवश्य राहत मिल जाती है। इसी सड़क से दक्षिण-पश्चिम दिशा में घोंघा नदी पर कोपरा जलाशय का निर्माण किया गया है। बिलासपुर न जाने कितनी बार जाना हुआ होगा। लेकिन बायपास से न गुजरते तो इस जलाशय को न देख पाते। मेरा ख्याल है कि बिलासपुर के नगरवासी भी इस स्थान से अधिक परिचित नहीं हैं।

29 मार्च को बिलासपुर में पंडित सुन्दरलाल शर्मा मुक्तविश्वविद्यालय का ग्यारहवां स्थापना दिवस था। छत्तीसगढ़ प्रदेश की अस्मिता के एक प्रबल प्रतीक, स्वाधीनता सेनानी लेखक व समाज सुधारक के नाम पर स्थापित यह विश्वविद्यालय जैसा कि नाम से जाहिर है छत्तीसगढ़ में दूरस्थ शिक्षा की प्रमुख संस्था है। यह एक सुखद संयोग था कि वि.वि. के ग्यारहवें स्थापना समारोह में सम्मिलित करने का अवसर मुझे मिला। मुक्त वि.वि. की अवधारणा अन्य वि.वि. से भिन्न हैं। यहां वे व्यक्ति उच्च शिक्षा ग्रहण करते हैं जो किसी न किसी कारणवश संस्थागत शिक्षा से वंचित हो गए हों। इनमें प्रदेश के दूरदराज के इलाकों के युवा भी हो सकते हैं और ऐसे कामकाजी लोग भी जो आगे पढ़ाई करना चाहते हैं। उम्मीद करना चाहिए कि वि.वि. अपने उद्देश्य को पाने के लिए निरंतर प्रयत्नशील रहेगा।
देशबन्धु में 02 अप्रैल 2015 को प्रकाशित