Monday 25 March 2019

आरक्षण क्यों और किनके लिए ?



देश की संसद ने 9 जनवरी को 124वां संविधान संशोधन विधेयक लगभग सर्वसम्मति से पारित कर दिया। विपक्ष में पड़े वोटों की संख्या नगण्य थी। इस संशोधन का उच्च सवर्ण हिन्दुओं व अन्य जातियों के गरीबों के लिए दस प्रतिशत का आरक्षण लागू करना है। यह प्रावधान वर्तमान में जारी पचास प्रतिशत आरक्षण के अतिरिक्त होगा। आश्चर्यजनक है कि कांग्रेस पार्टी ने भी सत्तारुढ़ भाजपा द्वारा हड़बड़ी में लाए गए इस विधेयक पर बहस में विरोध की औपचारिकता पूरी की लेकिन मतदान में सत्तापक्ष का साथ दिया। भारतीय जनता पार्टी ने विधेयक को पारित करवा आरक्षण की अवधारणा को सिर के बल खड़ा कर दिया है। संविधान में आरक्षण के प्रावधान के पीछे कौन सी भावना और क्या कारण थे, उन्हें दरकिनार कर यह बड़ा कदम उठाया गया है। एक बार फिर देश के सर्वोच्च न्यायालय से ही उम्मीद की जा सकती है कि उसके संज्ञान में लाए जाने पर वह इस भयंकर भूल को सुधारने के लिए आवश्यक निर्णय लेगा। (यद्यपि पहली सुनवाई में उसने विधेयक को स्थगित करने से इंकार कर दिया है।)
आरक्षण की अवधारणा ने कब, कैसे जन्म लिया, इसे ठीक से समझ लेना होगा। साहित्यिक साक्ष्य इसमें हमारी सहायता करते हैं। महाकवि वाल्मीकि को भारतीय परंपरा में आदिकवि होने का ओहदा प्राप्त है। उपलब्ध प्रमाणों के अनुसार वाल्मीकि रामायण की रचना लगभग तीन हजार वर्ष पूर्व हुई थी। रामायण के उत्तर कांड में वर्णित है कि वेदपाठी तपस्वी शंबूक नामक शुद्र की हत्या भगवान राम ने की थी। इस प्रसंग से अनुमान लगा सकते हैं कि भारतीय समाज में जातिगत भेदभाव, सवर्ण श्रेष्ठता, दलित उत्पीडऩ आदि प्रवृत्तियों को इतने लम्बे समय से मान्यता हासिल है। महाकवि भवभूति के उत्तर रामचरित में भी शंबूक वध का वर्णन है। मनुस्मृति में वर्णभेद को स्वीकृति दी गई है, जिसके अनुसार किसी अपराध के लिए एक समान दंड न देकर जातीय श्रेष्ठता या निम्नता के अनुसार दंड देने की व्यवस्था प्रस्तावित है। ऋग्वेद के दशम मंडल के अंतर्गत पुरुष सूक्त में भी विभिन्न वर्णों की उत्पत्ति का सिद्धांत इसे विभेदकारी मान्यता की पुष्टि करता है।
भारतीय संस्कृति के अनेकानेक स्वयंभू रक्षक और प्रवक्ता इन तमाम आख्यानों का औचित्य सिद्ध करने का प्रयत्न करते हैं। उदाहरण के लिए एक कथित धर्मरक्षक कहते हैं कि हिन्दुओं में देवता के चरणों का बड़ा महत्व है और पुरुष सूक्त में जिस विराट पुरुष का उल्लेख है, वे तो साक्षात भगवान विष्णु हैं, जिनके चरण कमलों की वंदना की जाती है। इन श्रीचरणों से प्रकट हुए शूद्र भला कैसे निम्न हो सकते हैं? इस व्याख्या को मान लीजिए और अपने भाग्य को सराहिए कि आप शूद्र हैं!! कुछेक अन्य महाशय शंबूक वध को प्रक्षिप्त पाठ मानते हैं, अर्थात् उसे परवर्ती काल में वाल्मीकि रामायण में जोड़ा गया। उनका कहना है कि मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम ऐसा कर ही नहीं सकते थे। यह तो जब भारत-भूमि पर धर्म की हानि होने लगी तब इस तरह की किस्से-कहानियां कहीं से लाकर जोड़ दी गई। याने हमारे सामने दो तरह के तर्क हैं। एक में जातिगत भेदभाव का औचित्य सिद्ध करने की कोशिश है; दूसरे में वास्तविकता को जानते हुए उसे छुपाने का उपक्रम।
हमारी दृष्टि में जातिभेद सिद्धांत की हिमायत करने वाले जन मूढ़ हैं और इनके साथ बहस करना पत्थर पर सिर मारना है। जिन्हें प्रक्षिप्तता का दोष दिखाई देता है, उनसे अवश्य यह पूछा जा सकता है कि वे प्रक्षिप्त अंश कब लिखे गए, क्यों लिखे गए और उन्हें मूल पाठ में जोडऩे के पीछे उनकी मंशा क्या थी। ज़ाहिर है कि इनका उद्देश्य एक वर्चस्ववादी सामाजिक-राजनैतिक व्यवस्था कायम करना था। यदि समाज में एकता और समरसता होगी तो उद्देश्य पूरा नहीं हो सकता। इसके लिए जरूरी है कि जनता को बरगलाकर उसमें फूट डाली जाए। ईश्वरीय सत्ता, देवी-देवताओं के चमत्कार आदि के सहस्रों, मिथक गढ़कर काम साधा गया। इस दुरभिसंधि का प्रारंभ तीन हजार वर्ष पूर्व हुआ या एक हज़ार वर्ष पूर्व, यह महत्वपूर्ण नहीं है। इतना हम कह सकते हैं कि गोस्वामी तुलसीदास ने जब रामचरित मानस की रचना की, अर्थात् चार सौ वर्ष पूर्व, तब तक हमारा समाज बुरी तरह बंट चुका था। उनके पहले हुए कबीरदास ने आडंबर और पाखंड पर जो तीखे आक्रमण किए, वे भी उनके समय में समाज में यह कैंसर फैलने की पुष्टि करते हैं।
लम्बे समय से विद्यमान अन्यायकारी सामाजिक व्यवस्था का विरोध करने में कबीर अकेले नहीं थे। इस परंपरा में रैदास, तुकाराम सहित अनेक मनीषियों के नाम जुड़ते हैं। किन्तु हमें किसी संगठित, सुगठित, परिमाणमूलक अभियान के साक्ष्य इस अवधि में नहीं मिलते। दूसरे शब्दों में यथास्थिति कायम रही आती है। मनुवादी आचार संहिता को औपचारिक तौर पर चुनौती मिलती है, जब भारत में औपनिवेशिक सत्ता कायम होती है। यह इतिहास की विडंबना है, लेकिन इसमें अन्तर्निहित सच्चाई से इंकार नहीं किया जा सकता। अंग्रेजी राज के दौरान लॉर्ड मैकाले की अगुवाई में जो भारतीय दंड संहिता सन् 1860 में लागू हुई, कुछेक परिवर्तनों के बावजूद आज भी हमारी दांडिक न्याय प्रणाली उसी के आधार पर चल रही है, जो सामाजिक कोटियों को मान्यता नहीं देती। बेशक, वह 1860 के आगे-पीछे का समय था जब अनेक देशज सुधारवादी आंदोलनों ने जनमानस को बदलने में युगांतरकारी योगदान किया। राजा राममोहन राय, ईश्वरचंद्र विद्यासागर, महादेव गोविंद रानाडे, महात्मा फुले, सावित्री बाई फुले, फातिमा शेख, प्रभृति इन आंदोलनों के प्रणेता थे जिन्होंने सती प्रथा का अंत, स्त्री शिक्षा, छुआछूत उन्मूलन जैसे विविध मिशनों पर जनता को प्रेरित किया।
सामाजिक न्याय, समानता, बंधुत्व, मानवीय गरिमा और बहुलतावाद को प्रतिष्ठित करने वाली इस परंपरा को आगे ले जाने का काम महात्मा गांधी, रवीन्द्रनाथ ठाकुर, जवाहरलाल नेहरू, सुभाषचंद्र बोस, रामास्वामी नायकर और बाबा साहेब आम्बेडकर ने किया, जिसकी परिणति स्वतंत्र भारत के संविधान निर्माण में होती है। यदि हम साहित्य जगत से साक्ष्य लेना चाहें तो स्वामी अछूतानंद व हीरा डोम के नाम बीसवीं सदी के प्रारंभकाल में सामने आते हैं। उन पर इस बीच अनेक मित्रों ने चर्चा की है। आज हमारा अभीष्ट है कि सामाजिक-राजनैतिक ढांचे के भीतर इस उथल-पुथल का संज्ञान लेते हुए मोदी सरकार द्वारा लाए गए संविधान संशोधन विधेयक की मंशा, उसके परिणाम और भविष्य की दिशा के बारे में गौर करें।
बात साफ है। आरक्षण का बुनियादी मकसद आर्थिक सुरक्षा प्रदान करना नहीं, बल्कि मनुष्य मात्र की गरिमा स्थापित करने के लिए आवश्यक नीतिगत उपाय अपनाना है। इस कटु सत्य को स्वीकार करना होगा कि सामाजिक कोटियों के निम्नतम स्तर पर जिन्हें बांधकर रखा गया था अर्थात् दलित और आदिवासी, वे ही आर्थिक दृष्टि से सबसे कमजोर थे; समान अवसर की सर्वाधिक आवश्यकता उनको ही थी; और लोकतांत्रिक प्रक्रिया में उनका समावेश करना एक नैतिक दायित्व था। वंचित समुदायों के लिए आरक्षण के प्रावधान का अर्थ था कि इन्हें जनसंख्या के अनुपात में प्रशासन तंत्र में प्रतिनिधित्व दिया जाए, ताकि उपरोक्त तीन कमियों को दूर करने में मदद मिल सके। आर्थिक आधार पर आरक्षण की मांग उठाने वालों से अपेक्षा की जाती थी कि वे निर्मल चित्त से वस्तुस्थिति को समझें। अफसोस कि वे ऐसा नहीं कर रहे हैं। उनकी जातीय स्मृतियां सत्य को समझने में बाधक बन रही हैं। वे आज भी अपनी सोच के तंग दायरे से बाहर निकलने से इंकार कर रहे हैं।
सवर्ण समाज दलितों व आदिवासियों के साथ कैसा सुलूक करता है, इसके रोज नए दृष्टांत सामने आते हैं। उन्हें अभी गिनाना आवश्यक नहीं है। यहां हम एक अन्य प्रश्न से मुखातिब होते हैं कि ओबीसी या कि अन्य पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षण का औचित्य क्या है। मेरी समझ में इसके दो कारण हैं। एक तो जिन्हें ओबीसी कहा जाता है, वे दरअसल कृषक और कृषि-श्रमिक हैं। अपनी विशिष्ट जीवन स्थितियों के चलते वे सत्ता केन्द्र से दूर रहे हैं। और वे भी लगातार अन्याय, शोषण और तिरस्कार का शिकार होते हैं। शिष्ट समाज ने उन्हें कभी अपने बराबर नहीं माना। दूसरे, विभिन्न कारणों से खेती के भरोसे जीवन यापन करना कठिन से कठिनतर होते जा रहा है। इस वर्ग के नौजवान जाएं तो कहां जाएं? इसीलिए हाल के बरसों में ग्रामीण अर्थव्यवस्था से जुड़ी अपेक्षाकृत संपन्न मानी जाने वाली जातियां भी आरक्षण मांगने के लिए आंदोलन की राह पर चल पड़ी हैं।
बहरहाल आज सबसे गंभीर सवाल है कि यह जो चक्रव्यूह सा बन गया है इससे बाहर निकलने का रास्ता क्या है। एक तरफ आरक्षण का बढ़ता हुआ दायरा, उसके लिए बढ़ती हुई मांग; और दूसरी ओर रोजगार के निरंतर घटते हुए अवसर। इसमें यदि शत-प्रतिशत आरक्षण भी कर दिया जाए तब भी न तो शिक्षा के समान अवसर उपलब्ध होंगे और न दर-दर भटकते युवाओं को रोजगार ही मिल पाएगा। मेरा पहला सुझाव है कि भारत सरकार को तत्काल एक नए आरक्षण आयोग का गठन करना चाहिए, जो ताजा परिस्थितियों का सम्यक अध्ययन कर एक नई आरक्षण नीति प्रस्तावित करे। दूसरा सुझाव है कि निजी क्षेत्र में सर्वत्र आरक्षण लागू किया जाए। तीसरे कुटीर, लघु और मध्यम उद्योगों को बढ़ावा दिया जाए। रोजगार के अवसर वहीं है। चौथे, शिक्षा के अधिकार कानून के तहत समान प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा का प्रावधान किया जाए। हर जाति, वर्ग, समुदाय, पृष्ठभूमि के बच्चे एक साथ पड़ोस के स्कूल में पढ़ाई करें। शिक्षा का अभिजात्य समाप्त करना बेहद जरूरी है। पांचवें, जनसंख्या नियंत्रण पर ध्यान दिया जाए। यह काम तार्किक विधि से हो, न कि भावनाओं की राजनीति से। 
अक्षर पर्व फरवरी 2019 अंक की प्रस्तावना  

Saturday 23 March 2019

अगला प्रधानमंत्री कौन होगा?


यह पिछले हफ्ते का वाकया है। मैं ओला टैक्सी लेकर कहीं जा रहा था। चुनावों के समय सामान्यत: हम पत्रकार ही विभिन्न वर्गों के प्रतिनिधियों से चर्चा कर हवा का रुख भांपने का प्रयत्न करते हैं। इनमें टैक्सी ड्राइवरों से बात करना तो एक तरह से अनिवार्य होता है। उसकी वजह भी है। टैक्सी हो, रिक्शा हो, आटो हो, हर सवारी की अपनी अलग पृष्ठभूमि और अलग कहानी होती है। सवारियों के बीच या उनके साथ हुई चर्चा से ड्राइवर काफी-कुछ अनुमान लगा लेते हैं। इसलिए उन्हें विश्वसनीय स्रोत मान लिया जाता है। गो कि अब पहले जैसा भरोसा नहीं रह गया है। टैक्सी ड्राइवर कई बार सवाल पूछने वाले के इरादे समझकर उसके मनोनुकूल राय दे देते हैं। फिर ऐसे ड्राइवर भी हैं जो स्वयं राजनीतिक रूप से सक्रिय हैं और वे अपनी प्रतिबद्धता के मुताबिक जानकारी देते हैं। खैर, तो हुआ यह कि इस वाकये में सवाल पूछने की शुरुआत मैंने नहीं, बल्कि टैक्सी ड्राइवर ने की। सुविधा के लिए हम उसका नाम विकास रख लेते हैं।
मैं किन्हीं अन्य ख्यालों में खोया था, जब मुझे लगभग चौंकाते हुए विकास ने अपना पहला सवाल मेरी उछाला। मैं कोई पंद्रह मिनट चले संवाद को अविकल पेश करने की कोशिश नीचे कर रहा हूं।
विकास- सर! आपको क्या लगता है, मोदीजी फिर से प्रधानमंत्री बन पाएंगे?
मैं- मालूम नहीं भाई, लेकिन मुझे इस बारे में शंका है।
वि. - मोदीजी नहीं तो फिर कौन बनेगा? उनके सामने कौन टिकेगा?
मैं- कौन बनेगा, यह मैं अभी नहीं कह सकता, लेकिन मोदीजी नहीं बनेंगे।
वि.- आप ऐसा क्यों कह रहे हैं?
मैं- इसलिए कि मेरा वोट उनको नहीं जाएगा।
वि.- लेकिन मैं तो मोदीजी को ही वोट दूंगा।
मैं- ठीक है। आप अपनी पसंद से वोट कीजिए, मैं अपनी पसंद से।
वि.- पर आप उनको वोट क्यों नहीं देंगे?
मैं- मेरी बात छोड़ो। अपनी बताओ कि तुम उन्हें वोट क्यों दोगे?
वि.- वाह, उन्होंने इतना सारा काम किया है। बताइए, आज तक किसी और प्रधानमंत्री ने इतना काम किया है?
मैं- अच्छा! उन्होंने ऐसा कौन सा बड़ा काम किया है जो आपको पसंद आया हो।
वि.- उन्होंने स्वच्छता अभियान चलाया। अपने शहर में ही देखिए। कितना साफ-सुथरा हो गया है। पहले सब तरफ गंदगी, कूड़े के ढेर दिखाई देते थे।
मैं- विकास! मैं आपसे सहमत नहीं हूं। शहर तो आज भी पहले की तरह गंदगी से अटा पड़ा है। बस, कहीं-कहीं सफाई दिख जाती है।
वि.- नहीं सर! आपने फिर ठीक से देखा नहीं है। या आप मोदीजी के विरोधी हैं, इसलिए ऐसा कह रहे हैं।
मैं- चलिए, आपकी बात मान भी लें तो शहर की सफाई में मोदीजी का क्या योगदान है?
वि.- उनका नहीं तो किसका है?
मैं- भाई! शहर की सफाई का जिम्मा तो नगर निगम का है। मेयर का है। वार्ड पार्षद का है। फिर सबसे बढ़कर स्वयं नागरिकों का है। शहर की गंदगी साफ करना प्रधानमंत्री का काम नहीं है।
वि.- तो सर, आप ही बताइए, प्रधानमंत्री का काम क्या है?
मैं- विकास! आज देश में जो हालात हैं,उसमें प्रधानमंत्री को सबसे पहिले नौजवानों पर ध्यान देने की जरूरत है। जिस तरह से बेरोजगारी बढ़ रही है, उसे कैसे रोका जाए, युवाओं को काम कैसे मिले, यह सोचना उनका काम है। प्रधानमंत्री और देश की सरकार को खेती-किसानी पर भी अपना ध्यान लगाना चाहिए। किसान खुशहाल रहेगा तो सबको बरकत होगी।
वि.- खेती-किसानी की बात तो आपने ठीक की, लेकिन मैं नहीं मानता कि देश में बेरोजगारी कोई समस्या है।
मैं- आपको बेरेाजेगारी समस्या मालूम नहीं देती?
वि.- बिल्कुल नहीं सर! आपके छत्तीसगढ़ में देखिए, काम की कहां कमी है। छत्तीसगढ़िया काम करना ही नहीं चाहते।
मैं- आप छत्तीसगढ़ के नहीं हैं? कहीं बाहर से आए हैं?
वि.- नहीं सर, मैं तो पैदाइशी छत्तीसगढ़िया हूं। मेरे कहने का मतलब है कि यहां लोग-बाग काम करने से जी चुराते हैं। मुझको देखिए, नौकरी नहीं मिली तो ओला टैक्सी चलाकर चार पैसे कमा रहा हूं।
मैं- विकास! मैं आपकी तारीफ करता हूं कि आप एक मेहनतकश इंसान हैं और पसीना बहाकर अपना घर-बार चला रहे हैं। लेकिन आप ऐसा कैसे कहते हैं कि हमारे लोग काम से जी चुराते हैं?
वि.- आप ही सोचिए। इतने कारखाने खुल गए हैं। और भी कितने सारे अवसर हैं। लेकिन सब जगह यू.पी., बिहार के लोग आकर मेहनत-मजूरी कर रहे हैं। अगर हमारे लोग काम करते तो ये बाहर से मजदूर क्यों लाते?
मैं- आप जितना देख पा रहे हैं, उसके हिसाब से शायद आपकी बात ठीक है। लेकिन यह पूरी सच्चाई नहीं है।
वि.- तब तो आप बताइए सच्चाई क्या है?
मैं- सच्चाई यह है कि छत्तीसगढ़ के मेहनती लोग डेढ़ सौ साल से देश के कोने-कोने में रोजगार की तलाश में जाते रहे हैं। टाटानगर का इस्पात कारखाना, कलकत्ता की जूट मिलें, असम के चाय-बागान, जम्मू-कश्मीर का नेशनल हाईवे, मेरठ के ईंट भट्टे, सब तरफ छत्तीसगढ़िया मजदूरी करते आए हैं।
वि.- माफ कीजिए सर! यह बात मुझे मालूम नहीं थी। लेकिन जब वे इतने मेहनती हैं तो अपने घर में रहकर काम क्यों नहीं करते?
मैं- विकास! इसके पीछे जबरदस्त षड़यंत्र है। पूंजीपति, कारखानेदार, ठेकेदार, स्थानीय लोगों को नौकरी देना पसंद नहीं करते। बाहर से मजदूर आता है तो वह हाड़-तोड़ मेहनत करता है। वह छुट्टियां नहीं लेता। बारह-चौदह घंटे काम में लगा रहता है। उसे एक तरह से बंधक या गुलाम बना दिया जाता है। स्थानीय व्यक्ति गुलामी बर्दाश्त नहीं करेगा। वह वक्त-जरूरत छुट्टी भी लेगा। जबकि इजारेदार कम मजदूरी अधिक मुनाफे के सिद्धांत पर चलता है। अब जैसे आप ही हैं। आपकी जब मर्जी होगी, गाड़ी बंद कर घर जाकर सो जाएंगे।
वि.- आप जो कह रहे हैं, वह ठीक तो लगता है, फिर भी मेरा कहना है सर! रोजगार की कोई समस्या नहीं है।
मैं- ठीक है। आप मेरी बात मत मानिए। यह बताइए कि आपके बच्चे कितने हैं?
वि.- सर! एक बेटा है, कॉलेज में पढ़ रहा है।
मैं- आपने कभी उससे या उसके दोस्तों से पूछा कि वे पढ़ाई खत्म होने के बाद क्या करेंगे?
वि.- अभी तक तो नहीं पूछा।
मैं- तो अब पूछकर देखिए। यह जरूर पूछिए कि वह आपकी तरह दिन-रात टैक्सी चलाना पसंद करेगा या उसे किसी और नौकरी की तलाश होगी? आप उसके संगी-साथियों से भी पूछिए कि वे अपने भविष्य को लेकर चिंतित हैं या नहीं?
वि.- आपने सलाह दी है तो अवश्य पूछूंगा। बस एक आखिरी सवाल है। आपको जहां जाना था, वहां तक हम आ ही चुके हैं। तो इतना बताइए कि नरेंद्र मोदी नहीं तो प्रधानमंत्री कौन बनेगा?
मैं- भाई! सीधी सी बात है। जिस पार्टी को ज्यादा वोट मिलेंगे, ज्यादा सीटें मिलेंगी, उसी का कोई नेता प्रधानमंत्री बनेगा। हम जनतंत्र में रहते हैं। हमें अपनी याने मतदाता की ताकत को पहिचानना चाहिए। प्रधानमंत्री कोई भी बने, वह सही मायने में जनता की सेवा करे, जुमलेबाजी नहीं। बाकी आपका जो भी निर्णय हो।
#देशबंधु में 21 मार्च 2019 को प्रकाशित

Monday 18 March 2019

सत्रहवीं लोकसभा की ओर


23 मई की तारीख पहली नजर में बहुत दूर लग रही है। लेकिन आम चुनावों की घोषणा के बाद आज चार दिन तो बीत ही चुके हैं। एक-एक कर बाकी दिन भी बीत जाएंगे। चुनाव आयोग ने जो टाइम टेबल बनाया है उसे लेकर कहीं शंका व्यक्त की जा रही है, तो कहीं आपत्ति दर्ज कराई जा रही है। जो तय हो चुका है उसमें बदलाव शायद ही हो पाए। एक मुख्य आपत्ति जो वाजिब प्रतीत होती है वह जम्मू-कश्मीर में विधानसभा चुनाव फिलहाल न करवाए जाने को लेकर है। इस बारे में निर्वाचन आयोग ने जो तर्क प्रस्तुत किए हैं वे संतोषजनक नहीं हैं। सामान्य समझ कहती है कि राज्य में लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ सम्पन्न हो सकते थे। इस मुद्दे को लेकर आयोग की निष्पक्षता पर भी सवाल उठे हैं। कहा जा रहा है कि यह निर्णय भाजपा को लाभ पहुंचाने के लिए लिया गया है। सत्तारूढ़ मोदी सरकार ने जिस तरह लोकतांत्रिक संस्थाओं की स्वायत्तता को नष्ट किया है उसे देखते हुए यह असंभव नहीं लगता। वैसे चुनाव आयोग पर आरोप लगना कोई नई बात नहीं है। लेकिन जब नतीजे सामने आते हैं तो सारे आरोप एक किनारे धरे रह जाते हैं। अत: मेरा सोचना है कि इस माथापच्ची के बजाय जो अधिक महत्वपूर्ण मुुद्दे हैं उन पर चर्चा करें।
मैं सबसे पहले मीडिया के रोल की ओर ध्यान आकर्षित करना चाहूंगा। यह बात छुपी हुई नहीं है कि मीडिया का बहुत बड़ा हिस्सा कारपोरेट घरानों के नियंत्रण में है; उसके साथ तरह-तरह के व्यवसायिक हित जुड़े हुए हैं; वह किसी हद तक संघ से अनुप्राणित और पोषित भी है। वर्तमान केन्द्र सरकार के जिन पूंजीपतियों के साथ 'क्रोनी कैपिटलिज्म' के रिश्ते हैं, उन्होंने अखबारों और चैनलों में बेशुमार पूंजी निवेश किया हुआ है। चुनावों की घोषणा होने के दिन तक भारत सरकार के विज्ञापन जिस बड़ी तादाद में इन्हें मिल रहे थे उसे देखकर आम जनता हैरत में थी और सोशल मीडिया में उस पर आलोचना भी हो रही थी। यह 2004 के शाइनिंग इंडिया कैम्पेन का कई गुना बड़ा रूप था। विडंबना यह है कि कांग्रेस के भी कई नेताओं की इन मीडिया घरानों के साथ सांठ-गांठ बनी हुई है। बहरहाल मुुद्दा यह है कि क्या मतदाताओं को मीडिया में प्रसारित आम चुनावों से संबंधित सामग्री पर एतबार करना चाहिए या नहीं। मैं कहूंगा कि बिना सोचे-समझे किसी पर भी भरोसा न करें। मुझ पर भी नहीं। हमें उनसे खतरा है जो जाहिरा तौर पर निष्पक्ष होने का दावा करते हैं, लेकिन वास्तविकता में जिन्होंने अपनी आत्मा व कलम सत्ता प्रतिष्ठान के पास गिरवी रख दी है।
इस संदर्भ में दो-एक उदाहरणों का जिक्र करना उचित होगा। चुनाव आयोग ने 10 तारीख की शाम आम चुनाव की तिथियां घोषित की ही थीं कि देखते ही देखते चैनलों पर मोदी, भाजपा और एनडीए की जीत की भविष्यवाणी होने लगी। सबने जैसे यह पहले से तय कर रखा था। एक चैनल ने तो अतिउत्साह में एनडीए को कुल 545 सीटों की जगह 566 सीटों पर विजय दिला दी। अगर यह पेड न्यूज़ और प्रायोजित पत्रकारिता नहीं थी तो क्या थी? दूसरे, सोमवार की शाम अनेक चैनल एक साथ राहुल गांधी पर हमलावर हो उठे कि उन्होंने आतंकी मसूद अजहर को जी प्रत्यय लगाकर संबोधित किया। राहुल के बयान में जो व्यंग्य था उसे उन्होंने जानबूझ कर नकार दिया। जब रविशंकर प्रसाद द्वारा आतंकी हाफिज सईद को जी कहने और मुरली मनोहर जोशी द्वारा उसके नाम के आगे श्री लगाने का वीडियो वायरल हुआ तो फिर ये भक्तगण सोशल मीडिया में कुतर्क पर उतर आए।
यह बताने की आवश्यकता नहीं है कि लोकतंत्र को पुष्ट या नष्ट करने में आम चुनावों की कितनी अहम भूमिका होती है। इसलिए आज हमें सबसे पहले यह तय करने की आवश्यकता है कि आसन्न चुनाव किन बड़े मुद्दों पर लड़े जाएंगे। अगर मीडिया की मानें तो देश की सुरक्षा सबसे बड़ा मुद्दा है। भाजपा की मंशा भी यही है कि मतदाताओं को इसी मुद्दे के आसपास भरमा कर रखा जाए। ऐसा करने से ही उनका हित साधन हो सकता है। जनसंघ और भाजपा प्रारंभ से ही चुनावों के समय इसी नीति पर चलते आए हैं। लेकिन आज हमें नरेन्द्र मोदी से पूछना चाहिए कि 2014 में तो आप भ्रष्टाचार को सबसे बड़ा मुद्दा बनाकर जीते थे उसका क्या हुआ? क्या देश से भ्रष्टाचार सचमुच समाप्त हो गया है? प्रतिरक्षा और भ्रष्टाचार- इन दो मुद्दों को आजू-बाजू रखकर देखें तो यह बात भी उठती है कि राफेल के मुद्दे पर आपने संयुक्त संसदीय समिति याने जेपीसी गठित क्यों नहीं होने दी? आखिर संसद ही तो हमारी सर्वोपरि संस्था है। वहां बहस नहीं होगी तो कहां होगी?
दरअसल, इस समय देश के सामने सबसे बड़ी चुनौती बेरोजगारी को दूर करने की है। इस बार मतदाता सूची में नौ करोड़ नए मतदाता जुड़े हैं। इनमें से अधिकतर वे हैं जो नई सदी प्रारंभ होने के बाद जन्मे हैं। इन नौजवानों के सामने क्या भविष्य है? सरकार बार-बार देश की जीडीपी बढ़ने के दावे करती है; मेक इन इंडिया और स्किल इंडिया जैसे कार्यक्रम चलाती है; रोजगार के नए अवसर उत्पन्न होने का दावा भी करती है। और तो और कुछेक बड़े नेता तो यहां तक कह चुके हैं कि देश में बेरोजगारी है ही नहीं, लेकिन सब जानते हैं कि हकीकत क्या है और वह चिंताजनक और दुखदायी है। एक अरब तीस करोड़ की आबादी वाले देश में हर हाथ को काम तभी मिल सकता है जब कुटीर, लघु और मध्यम उद्योगों की स्थापना की जाए, उन्हें प्रोत्साहित किया जाए। अंबानी, अडानी, टाटा या ऐसे चंद उद्योगपतियों के भरोसे रहेंगे तो युवाओं को रोजगार कहां से मिलेगा? नरेन्द्र मोदी और उनकी पार्टी को इस पर जवाब देना ही होगा।
इस दौर का दूसरा उतना ही बड़ा सवाल खेती-किसानी और कृषि आधारित उद्यमों की स्थिति को लेकर है। बड़ी-बड़ी परियोजनाओं के नाम पर किसानों की जमीनें छीनी जा रही हैं। नागपुर से मुंबई तक सुपर एक्सप्रेस-वे बन रहा है। उसके लिए जिस किसान की जमीन छीनी गई है वह तो सड़क पर कभी चलेगा भी नहीं। लेकिन पूरे देश में इसी तरह से किसानों की जमीन हथिया कर आप कैसा देश बनाना चाहते हैं? पंजाब से लेकर नासिक और नीचे केरल तक के किसान अगर सरकार से खफा हैं तो इसके पीछे ठोस कारण हैं। पूंजी और सत्ता के गठजोड़ में जो मदहोश हैं वे इस वास्तविकता से आंखें चुरा रहे हैं। याद कीजिए कि छत्तीसगढ़ में कांग्रेस को प्रचंड विजय किसानों की सरकार बनने के भरोसे ही मिली है। लोकसभा चुनावों में भी हमारी समझ में एक बार फिर सबसे बड़ा मुद्दा यही बनेगा।
किसान और नौजवान- चुनाव के ये दो प्रमुख मुद्दे रहेंगे। देश की सुरक्षा व अखंडता के नाम पर भावनाएं उभाड़ने की कोशिशें दक्षिणपंथी दल अवश्य करेंगे, किंतु जनता अब सच्चाई को भलीभांति जान रही है। उसे अपनी प्राथमिकताएं भी मालूम हैं। हां, चुनावों में विभिन्न दल प्रत्याशियों का चयन कैसे करते हैं, चुनाव-पूर्व समीकरण क्या बनते हैं, इनकी ओर भी थोड़ा ध्यान तो देना होगा। मसलन, दिल्ली में कांग्रेस और आप का गठबंधन न होने से अनेक चुनावी पंडित हताश प्रतीत होते हैं। कुछ अन्य राज्यों में भी ऐसी ही स्थिति बनी है। हम समझते हैं कि कांग्रेस यदि अपने बूते चुनाव मैदान में उतर रही है तो यह उसके लिए श्रेयस्कर है। उसे अपना खोया जनाधार वापिस लाना है और सभी तरफ कार्यकर्ताओं को बांधे रखना है। इसलिए जहां आपसी समझदारी से गठबंधन हो जाए तो ठीक है जैसे महाराष्ट्र में हुआ, अन्यथा चुनाव के बाद भी तो हाथ मिलाने की गुंजाइश बनी रहेगी। कांग्रेस का शायद आकलन है कि भाजपा 2014 का प्रदर्शन दोहरा नहीं पाएगी और शायद इसलिए वह किसी हद तक आश्वस्त भी नजर आ रही है। लेकिन ऐसा सोचकर गाफिल हो जाना नुकसानदायक हो सकता है।
#देशबंधु में 14 मार्च 2019 को प्रकाशित

Wednesday 6 March 2019

युद्ध नहीं, शांति चाहिए


एक अकेले व्यक्ति की जान भी कितनी कीमती हो सकती है इसका क्षणिक अहसास भारत की जनता ने कुछ दिन पहले किया। जी हां, मैं भारतीय वायुसेना के विंग कमांडर अभिनंदन वर्धमान का ही जिक्र कर रहा हूं। हमें जैसे ही मालूम पड़ा कि पाकिस्तान ने हमारे एक जांबाज पायलट को पकड़ लिया है वैसे ही पूरे देश में चिंता की लहर फैल गई। अभिनंदन के खून से सने चेहरे का जो फोटो वायरल हुआ उसने हमको भीतर तक बेचैन कर दिया। देश में जगह-जगह लोग अभिनंदन की सलामती के लिए दुआएं करने लगे, पूजास्थलों में हवन-पूजन होने लगे और हमें यकायक समझ में आया कि युद्ध कोई सस्ता सौदा नहीं है। अगले दिन जब पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान ने अपनी संसद में अभिनंदन को बतौर सद्भावना नि:शर्त रिहा करने घोषणा की तो भारवासियों ने राहत की सांस ली और सबके चेहरे खुशी से खिल उठे। लेकिन अभी पटाक्षेप होना बाकी था।
अगले दिन सुबह से टीवी चैनलों की टीमें वाघा बार्डर पर जाकर डट गई थी। अलसुबह से लेकर रात साढ़े नौ बजे तक सस्पेंस का वातावरण बना रहा। किसी को समझ में नहीं आ रहा था कि अभिनंदन की घर वापसी कब होगी। शाम होते-होते तरह-तरह के कयास लगाए जाने लगे। टीवी स्टूडियो में भांति-भांति के कथित विशेषज्ञ आकर बैठ गए। पाकिस्तानी इरादों पर फिर से शक किया जाने लगा। अंतत: जब अभिनंदन को भारतीय सीमा की ओर आते दिखाया गया तो कहीं यह बात होने लगी कि साथ में महिला कौन है; कहीं बहादुर सैनिक की बॉडी लैंग्वेज (देह भाषा) पढ़ी जाने लगी; कहीं उसकी बहन द्वारा कथित तौर पर लिखी गई कविता का पाठ हो रहा था; तो कहीं हवाई जहाज में दिल्ली आ रहे उसके माता-पिता की तस्वीरें दिखाई जा रही थीं। याने कुल मिलाकर जो युद्ध और शांति के बारे में विचार मंथन का एक अवसर हो सकता था उसे हल्की-फुल्की चर्चाओं और दृश्यों में उड़ा दिया गया।
आज भी स्थिति लगभग वही है। युद्ध की क्या कीमत चुकाना पड़ती है, इस बारे में बात करने से हम कतरा रहे हैं। भारत उपमहाद्वीप में स्थायी शांति कैसे स्थापित हो सकती है, इस पर बात करने में हमारी कोई दिलचस्पी दिखाई नहीं देती। दोनों प्रमुख राजनीतिक दल आरोप-प्रत्यारोप में अपनी शक्ति जाया कर रहे हैं। नरेन्द्र मोदी और अमित शाह के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी पुलवामा और बालाकोट की घटनाओं का हर तरह से राजनीतिक लाभ उठाना चाहती है, तो दूसरी ओर कांग्रेस की कोशिश है कि ऐसा न होने दिया जाए। इस बीच अधिकतर राजनीतिक दल अपनी-अपनी सुविधा से इस पूरे घटनाचक्र पर टिप्पणियाँ कर रहे हैं। स्वाभाविक रूप से प्रधानमंत्री सबसे ज्यादा गरज रहे हैं। उन्होंने अभिनंदन की रिहाई की घोषणा के तुरंत बाद जो टीका की वह वांछित नहीं थी। उन्होंने कहा कि यह तो पायलट प्रोजेक्ट है, असली खेल तो इसके बाद होगा।
यह कहकर नरेन्द्र मोदी क्या सिद्ध करना चाहते थे? क्या युद्धक विमान उड़ाने वाला फाइटर पायलट अभिनंदन वर्धमान एक प्रयोग मात्र था? और सवाल यह भी है कि आगे आप क्या करना चाहते हैं? सोमवार को श्री मोदी ने अहमदाबाद में कहा कि हम घर में घुसकर बदला लेंगे। जब एक तरफ सिर्फ एक सैनिक की गिरफ्तारी से उपजे भय और रिहाई की घोषणा से मिली राहत है, तब दूसरी तरफ आक्रामक मुद्रा अपनाकर हम क्या हासिल करना चाहते हैं? क्या भारत और पाकिस्तान के बीच आर-पार की लड़ाई संभव है? अगर है तो उसके अंतिम नतीजे क्या होंगे? अपनी स्मृति में हमने जो लड़ाइयां देखी हैं उनके परिणाम आखिरकार क्या निकले? हमें भारत-चीन और भारत-पाक ही नहीं, कोरिया, वियतनाम, कांगो, ईरान, इराक, यमन, सीरिया, इजराइल, श्रीलंका, कंबोडिया आदि में क्या हुआ वह भी याद कर लेना चाहिए।
मेरे सामने सामरिक और रणनीति विशेषज्ञ अजय साहनी का हाल ही में इंडिया टुडे में प्रकाशित लेख है। इसमें उन्होंने पुलवामा की त्रासदी को केन्द्र में रखकर आंकड़े दिए हैं कि छत्तीसगढ़ के चिंतलनार में 2010 में माओवादियों ने 76 सैनिकों को मार दिया। 2008 में गुवाहाटी में एक आतंकीे हमले में 87 जन मारे गए। 2010 में ही माओवादियों द्वारा ज्ञानेश्वरी एक्सप्रेस को पटरी से उखाड़ दिए जाने से 148 जनों की मृत्यु हुई। 2008 के मुंबई आतंकवादी हमलों में 175 लोग मारे गए। जबकि 2006 के मुंबई के रेल धमाके में 200 से अधिक लोग मारे गए। इस तरह हिंसक वारदातों की एक लंबी शृंखला बनती है जिसमें ताजा घटना पुलवामा की है जिसमें इसी 14 फरवरी को 42 जवान शहीद हुए। आशय यह कि एक घटना घटती है, हम कुछ समय के लिए उद्वेलित हो जाते हैं, प्रतिशोध लेने की बात करने लगते हैं और कुछ दिन बाद सब भूल जाते हैं।
मैं यहां पुलवामा में जवानों की शहादत और बालाकोट के बाद अभिनंदन की रिहाई- दोनों को आमने-सामने रखकर देखता हूं। हम जिस तरह अपने जवानों और निर्दोषजनों की मौत को भी कुछ दिन में भूल जाते हैं उसी तरह एक नागरिक या एक सैनिक की वास्तविक अथवा संभावित रिहाई को भी अधिक देर तक याद नहीं रखते। क्या हमें पायलट नचिकेता की याद है? क्या सरबजीत का प्रकरण हमारी स्मृति में है? जिंदगी और मौत की दहलीज पर खड़े कुलभूषण जाधव पर भी हमारा ध्यान कब जाता है? एक कटु सत्य है कि भारत ने युद्ध की विभीषिका का बहुत सीमित अनुभव किया है। बातें हम भले ही बड़ी-बड़ी कर लें। अभी दिल्ली में राष्ट्रीय युद्ध स्मारक का उद्घाटन हुआ। राष्ट्रपति देश के सशस्त्र बलों के सर्वोच्च सेनापति हैं, लेकिन एक ऐतिहासिक कार्यक्रम उनकी अनुपस्थिति में सम्पन्न हो गया। प्रधानमंत्री हमारे सुप्रीम लीडर जो ठहरे!
इस युद्ध स्मारक में 1947 से अभी हाल तक मारे गए छब्बीस हजार सैनिकों के नाम उत्कीर्ण हैं। एक दृष्टि में लग सकता है कि देश की अखंडता और सार्वभौमिकता की रक्षा के लिए इतनी बड़ी संख्या में सैनिकों ने प्राणोत्सर्ग किया है। लेकिन जब हम विश्व के कुछ अन्य देशों को देखते हैं तो एक नई तस्वीर उभरती है। अमेरिका ने वियतनाम युद्ध में कोई एक लाख सैनिक खोए होंगे। कोरिया में चीन और अमेरिका ने बहुत बड़ी संख्या में सैनिकों की बलि दी। खाड़ी युद्ध में मरने वालों की संख्या भी एक लाख के आस-पास ही है। और क्या आज कोई विश्वास करेगा कि द्वितीय विश्वयुद्ध में अकेले सोवियत संघ ने अपने दो करोड़ सैनिकों को खोया था। इन आंकड़ों को पेश करने का मकसद यह बतलाना है कि युद्ध किस तरह से किसी भी देश में तबाही ला सकता है। यह आंकड़े प्रकारांतर से यही दर्शाते हैं कि भारत अब तक इस मामले में सौभाग्यशाली रहा है कि हमें अब तक किसी लंबी चलने वाली लड़ाई का सामना नहीं करना पड़ा और लड़ाई का भूगोल भी सीमित रहा आया।
मैं कुल मिलाकर यह तर्क सामने रखना चाहता हूं कि युद्ध किसी भी समस्या का हल नहीं है। जहां कहीं भी विवाद या समस्या है उसका समाधान आमने-सामने बैठकर बातचीत से ही निकाला जा सकता है। आज हमारी सबसे बड़ी समस्या कश्मीर प्रतीत होती है। इस बारे में भाजपा के पक्षधर और मोदी के मुरीद लार्ड मेघनाद देसाई तक कहते हैं कि- कश्मीर को स्वायत्तता देने में ही समस्या का हल है। इस 'राष्ट्रभक्त' की टिप्पणी पर आप क्या कहेंगे? मेरा अपने पाठकों से निवेदन है कि हमारे देश में जो उग्रवादी ताकतें कारपोरेट मीडिया का इस्तेमाल कर युद्ध का वातावरण बना रही हैं उनसे सतर्क रहें। दूसरी ओर यह जानने की कोशिश करें कि देश के भीतर या सीमापार से जो आतंकवादी गतिविधियां संचालित हो रही हैंं उनके असली सूत्रधार कौन हैं? इस विमर्श से ही शांति का मार्ग खोलने के संकेत मिल पाएंगे।
#देशबंधु में 07 मार्च 2019 को प्रकाशित

Friday 1 March 2019

भारत की शिक्षा नीति : अतीत, वर्तमान एवं भविष्य-2


प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने अपने कार्यकाल के दौरान सितंबर 1985 में एक नई और कल्पनाशील पहल की थी, जब शिक्षा मंत्रालय के कार्यक्षेत्र का विस्तार कर उसे मानव संसाधन विकास मंत्रालय का रूप दिया गया। नए स्वरूप में चिकित्सा क्षेत्र को छोड़कर बाकी सारे अध्ययन क्षेत्रों यथा प्राथमिक, उच्चतर, तकनीकी, प्रबंधन, साक्षरता, शिक्षक प्रशिक्षण, तकनीकी शिक्षक प्रशिक्षण को एक छतरी के नीचे लाया गया। संस्कृति व रोजगार नियोजन को भी इसमें जोड़ा गया। उद्देश्य था कि युवा पीढ़ी की आशा-आकांक्षा के अनुरूप ऐसा शिक्षा तंत्र विकसित हो जिसमें नीति और निर्णयों में निरन्तरता बनी रहे और कहीं भी भ्रम का वातावरण न बने। इस अभिनव पहल का स्वागत हुआ और आज भी मंत्रालय लगभग उसी रूप में विद्यमान है (यद्यपि 2004 में संस्कृति व रोजगार नियोजन को इस मंत्रालय से अलग कर दिया गया)। स्वाभाविक अपेक्षा थी कि केन्द्र सरकार के कदम का अनुकरण राज्य सरकारें भी करेंगी, लेकिन ऐसा नहीं हो सका। राज्यों में तो स्कूली शिक्षा और उच्चतर शिक्षा को भी अलग-अलग विभागों में बांट दिया गया है, जबकि पूर्व में ऐसा नहीं था। मध्यप्रदेश में शंकरदयाल शर्मा, अर्जुन सिंह इत्यादि शिक्षा मंत्रियों के समय संपूर्ण महकमा उनके प्रभार में होता था।
सन् 2000 में अन्तरराष्ट्रीय पटल पर एक ऐतिहासिक घटना घटित हुई जब संयुक्त राष्ट्र संघ ने सहस्राब्दी घोषणापत्र को अंगीकार किया; और आठ लक्ष्यों (एमडीजी) के प्रति वचनबद्धता प्रकट की। इस घोषणापत्र के हस्ताक्षरकर्ताओं में भारत एक प्रमुख देश था। एमडीजी में एक प्रमुख लक्ष्य हर बालक को न्यूनतम प्राथमिक शिक्षा सुनिश्चित कराना था। इसी पृष्ठभूमि में अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्री काल में 86वां संविधान संशोधन कर शिक्षा के अधिकार को मौलिक अधिकारों की सूची में शामिल किया गया। एमडीजी में एक अपेक्षा की गई थी कि सरकारें सकल राष्ट्रीय आय का न्यूनतम छह प्रतिशत शिक्षा पर व्यय करेंगी। तभी तो शिक्षा को सर्वसुलभ बनाया जा सकता था। विडंबना यह हुई कि शिक्षा को मौलिक अधिकार तो मान लिया गया किंतु उसके लिए न तो बजट प्रावधानों में समुचित वृद्धि हुई; और न ही अधिकार-संपन्नता के लिए जिस प्रभावी कानून की आवश्यकता थी, उसे मूर्तरूप दिया गया। यह जिम्मेदारी अगली सरकार पर आन पड़ी और मानव संसाधन विकास मंत्री अर्जुन सिंह के मार्गदर्शन में शिक्षा का अधिकार कानून बनने की शुरूआत 2005 में हुई जो संसद से वर्तमान रूप में अप्रैल 2010 में पारित हुआ।
इस बीच स्कूली शिक्षा से संबंधित अनेक आयामों पर नवाचार की पहल हुई, जिसमें राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान व प्रशिक्षण परिषद (एनसीईआरटी), केन्द्रीय शिक्षा सलाहकार मंडल (सीएबीई), राष्ट्रीय शिक्षक प्रशिक्षण परिषद (एनसीटीई) आदि ने भागीदारी की; तथा शिक्षण विधि, पाठ्य पुस्तकों का निर्माण, परीक्षा पद्धति, शिक्षकों का प्रशिक्षण आदि विषयों पर ध्यान दिया गया। कुछ ही समय बाद हमने देखा कि निजी क्षेत्र के शिक्षा व्यापारी, कोचिंग के नाम पर करोड़ों की कमाई कर रहा शिक्षा माफिया और ऐसे ही अन्य निहित स्वार्थों व रूढ़िवादी सोच ने नवाचार को विफल करने के लिए हर संभव प्रयत्न किए। इसी के समानांतर उच्च शिक्षा के वर्तमान स्वरूप में बुनियादी परिवर्तन लाने की मुहिम भी अनेक स्तरों पर चलाई गई। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के स्थान पर एक बहुआयामी शिक्षा आयोग बनाया जाए व एआईसीटीई, एनसीटीई जैसे निकायों को उसमें समाहित कर दिया जाए; यूजीसी से अनुदान देने का अधिकार वापिस लिया जाए; इत्यादि प्रश्नों पर अनेक स्थानों से आवाज उठने लगीं। निजी विश्वविद्यालयों की स्थापना में भी इसी समय गति पकड़ी। विहंगम दृष्टि डालें तो अनुमान होता है कि नवपूंजीवाद सोच से अनुप्राणित होकर भारत में शिक्षा का काम बड़े पैमाने पर निजी कारपोरेट क्षेत्र को सौंपने की मानसिकता बनने लगी थी। यह ऐसी दुरभिसंधि थी, जिसे अब तक ठीक से नहीं समझा गया है।
यहां एक विरोधाभासी स्थिति प्रकट होती है। एक ओर एमडीजी (जिसका स्थान आगे चलकर एसडीजी ने ले लिया) के तहत किए संकल्प और दूसरी तरफ शिक्षा का कारपोरेटीकरण। यक्ष प्रश्न उपस्थित होता है कि इनमें से किसे स्वीकार किया जाए। यदि हम सरकार के बुनियादी कर्तव्यों में शिक्षा की गणना करते हैं तो दूसरा प्रश्न उठता है कि कारपोरेट जगत को प्रवेश से कैसे रोका जाएगा। यह तो तभी होगा एक तो जब समाज अपनी रूढ़िवादी सोच त्यागकर नवाचार के लिए मानसिक रूप से तैयार होगा और दूसरे जब सामान्य नागरिक व शिक्षक दोनों मिलकर नवपूंजीवादी ताकतों के विरोध करने की ताकत जुटा पाएंगे।
विख्यात शिक्षाशास्त्री अनिल सद्गोपाल ने शिक्षा के अधिकार कानून की आलोचना की थी कि इसके प्रावधान अपर्याप्त हैं। मेरा तब कहना था कि जो मिला है, पहले उसे लागू करें, और आगे सुधार के लिए आवाज उठाना जारी रखें। लेकिन अब तो स्थिति पूरी तरह पलट गई है। 2010 के कानून में जो मिला, उसी को समाप्त करने का खेल हो रहा है। मैं फिर जोर देकर कहना चाहूंगा कि समाज को रूढ़िवादी सोच से बाहर निकलना होगा। हमने जो वर्तमान परीक्षा प्रणाली को बुद्धिमता की कसौटी मान लिया है, यह सोच खोटी है तथा बच्चों के साथ अन्याय करती है। उनके अंतर्निहित गुणों का, उनकी विशिष्ट परिस्थितियों का तिरस्कार करती है। यहां महात्मा गांधी के जीवन का एक दृष्टांत देना शायद उपयुक्त होगा। वे दक्षिण अफ्रीका में फीनिक्स फार्म पर हर माह बच्चों की परीक्षा लेते थे। उनकी पद्धति में उस बच्चे को प्रथम स्थान मिलता था जिसने पिछले माह के मुकाबले इस माह अपने स्तर में सबसे अधिक सुधार किया हो। ऐसा नहीं कि जो सबसे जहीन है, वही माह-दर-माह प्रथम स्थान पाता रहे। कहना होगा कि गांधीजी की यह पद्धति सतत मूल्यांकन की अवधारणा पर आधारित थी, जिसमें हर बच्चे को आगे बढ़ने की प्रेरणा मिलती थी।
हमारे शिक्षा तंत्र में और भी बहुत से परिवर्तनों की आवश्यकता है। अनेक बच्चे औपचारिक पढ़ाई में रुचि नहीं लेते, लेकिन वे किसी अन्य क्षेत्र में हुनरमंद होते हैं। हम अपने बच्चों को संगीतकार, कलाकार, खिलाड़ी, मूर्तिकार या ऐसे किसी अन्य क्षेत्र में आगे पढ़ने के लिए प्रेरणा क्यों नहीं दे सकते? इन विषयों को औपचारिक शिक्षा प्रणाली में विधिवत शामिल करने में ऐसी क्या अड़चन है? बहुत से विद्यार्थी विपरीत परिस्थितियों के कारण पढ़ाई अधूरी छोड़ देते हैं। आगे चलकर अगर वे काम के साथ पढ़ाई करने के इच्छुक हों तो स्कूल कॉलेज में पढ़ाई के घंटों में लचीलापन क्यों न हो? जो दिन की पाली में काम कर रहा है वो शाम को पढ़ाई कर ले।
किसी शारीरिक अक्षमता के कारण भी अनेक बच्चे औपचारिक शिक्षा में रुचि नहीं ले पाते। तारे जमीन पर फिल्म में इसी बात को रेखांकित किया गया है। इन बच्चों के लिए विशेष व्यवस्था और समझदार शिक्षकों की आवश्यकता है। फिर हमारे यहां विज्ञान, वाणिज्य, कला आदि संकायों का एक नकली विभेद वर्तमान में प्रचलित है। अगर कोई विद्यार्थी गणित के साथ इतिहास पढ़ना चाहता है तो यह व्यवस्था क्यों नहीं हो सकती? एक अहम मुद्दा यह भी है कि मां-बाप अपने बच्चों को डॉक्टर, इंजीनियर, सीए ही क्यों बनाना चाहते हैं। कायदे से तो उनकी नैसर्गिक रुझान देखकर पढ़ाई होना चाहिए।
इस चक्कर मे देश में न जाने कितने कोचिंग संस्थान प्रारंभ हो गए हैं। इनके चक्कर में बच्चे मशीन बनते जा रहे हैं। उनकी भावनाओं के सजल स्त्रोत सूख रहे हैं। और यह भयावह सच्चाई है कि कोटा (राजस्थान) में हर साल दर्जनों विद्यार्थी खुदकुशी कर रहे हैं। हमारा समाज अपने बच्चों के प्रति कितना निर्दयी है उसका यह भयंकर प्रमाण है।
यह वर्तमान का खाका है। इसका हम गंभीरतापूर्वक विश्लेषण करने के लिए तैयार हों तो फिर भविष्य के लिए नीति बनाना कोई कठिन काम नहीं होगा। आपने मुझे आमंत्रित किया। अपने विचार रखने का मौका दिया। एक बार फिर मैं धन्यवाद ज्ञापित करता हूं।
(अवधेश प्रताप सिंह विवि रीवां में अर्जुन सिंह स्मृति व्याख्यानमाला के अंतर्गत ''भारत की शिक्षा नीति : अतीत, वर्तमान एवं भविष्य'' विषय पर15 फरवरी 2019 को मुख्य अतिथि का व्याख्यान)
#देशबंधु में 22 फरवरी 2019 को प्रकाशित