Thursday 28 August 2014

योजना आयोग का अंत?




जैसे केन्द्र में योजना आयोग है उसी तरह प्रांतों में लंबे समय से राज्य योजना मंडल चले आ रहे हैं। छत्तीसगढ़ में तीन-चार वर्ष पूर्व इसको दर्जा बढ़ाकर राज्य योजना आयोग में तब्दील कर दिया गया। प्रदेश के सेवानिवृत मुख्य सचिव शिवराज सिंह इस नवगठित आयोग के पहले उपाध्यक्ष बनाए गए, उन्हें कैबिनेट मंत्री का दर्जा भी दिया गया। श्री सिंह का कार्यकाल समाप्त होने के बाद कुछ ही माह पूर्व रिटायर हुए एक अन्य मुख्य सचिव सुनील कुमार कैबिनेट मंत्री के ओहदे के साथ उपाध्यक्ष मनोनीत किए गए। इस आयोग में किशोर रोमांस के लेखक चेतन भगत को भी सदस्य बनाया गया है। वे इस संस्था के कामकाज में क्या योगदान कर पाएंगे, यह संदिग्ध है। इस विवरण से पाठक अनुमान लगा सकते हैं कि छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह प्रदेश स्तर पर योजनाबद्ध तरीके से विकास और निर्माण का कार्य करना चाहते हैं तथा इसके लिए एक सक्षम व अधिकार-सम्पन्न संस्था की आवश्यकता को स्वीकार करते हैं।

आज जब प्रधामंत्री नरेन्द्र मोदी योजना आयोग को समाप्त करने की घोषणा कर चुके हैं, तब इस विरोधाभास पर ध्यान जाए बगैर नहीं रहता कि भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व मंडल में ही इस मुद्दे पर एक राय नहीं बन पाई है। ऐसे में क्या यह बेहतर नहीं होता कि नरेन्द्र मोदी पार्टी के भीतर इस विषय पर लोकतांत्रिक तरीके से बहस का मौका देते और बाकी की न सही, कम से कम अपने मुख्यमंत्रियों की ही राय ले लेते। यदि प्रधानमंत्री को अपने विचार पर ही दृढ़ रहना था तो वे रमन सिंह व पार्टी के अन्य मुख्यमंत्रियों को निर्देश दे सकते थे कि वे भी अपने-अपने राज्य में संचालित योजना मंडल अथवा योजना आयोग को समाप्त करने की कार्रवाई शुरू कर दें। ऐसा नहीं हुआ और इससे यही संदेश जाता है कि राष्ट्रीय महत्व के बड़े मुद्दों पर भी भाजपा में ऊहापोह की स्थिति बनी हुई है। इस धारणा की पुष्टि जीएसटी को लेकर भाजपा में जो मतभेद उभरे हैं उनसे भी होती है।

स्वाधीनता दिवस पर परंपरा चली आ रही है कि लालकिले की प्राचीर से राष्ट्र को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री लोकहित के मुद्दों पर कुछेक महत्वपूर्ण घोषणाएं करते हैं। नरेन्द्र मोदी से भी यही अपेक्षा थी। प्रधानमंत्री जन-धन योजना की घोषणा में इस परंपरा का पालन भी किया गया। यद्यपि इसमें कोई नई बात नहीं थी। आधारकार्ड एवं विशिष्ट पहचान पत्र की पूरी कवायद के पीछे यही भावना थी कि हर नागरिक का बैंक खाता खुलना चाहिए। खैर! प्रधानमंत्री ने जो दूसरी घोषणा योजना आयोग को समाप्त करने के बारे में की, वह पूरी तरह से एक नकारात्मक विचार था, जो एक मायने में परंपरा के विपरीत ही था। यह घोषणा तो प्रधानमंत्री लोकसभा में भी कर सकते थे; खासकर तब जबकि मानसून सत्र चल ही रहा था। योजना आयोग से आम जनता का कोई प्रत्यक्ष लेना-देना नहीं है। इस नाते उसके बारे में की गई घोषणा की जनमानस में कोई व्यापक प्रतिक्रिया नहीं होना थी और न हुई।

नरेन्द्र मोदी के कार्यकाल के सौ दिन अब पूरे होने जा रहे हैं। इस बीच में सरकार का कामकाज जैसा देखने में आया है, उससे यह धारणा प्रबल होती है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में जिस तरह से ''एकचालकानुवर्ती के सिद्धांत पर काम होता है वही परिपाटी श्री मोदी सरकार में भी चलाना चाहते हैं। दूसरे शब्दों में केन्द्र सरकार में निर्णय के लगभग सारे अधिकार उन्होंने अपने पास सुरक्षित रख लिए हैं। उनकी कार्यशैली में वरिष्ठ मंत्रियों के लिए भी जो सम्मान है वह सिर्फ दिखावे के लिए दिखता है। यह स्थिति जनतंत्र के लिए कितनी अनुकूल है यह तो भाजपा के मंत्रियों और सांसदों को ही सोचना है। श्री मोदी जो भी निर्णय लेते हों, यह तो तय है कि वे निर्णय लेने के पूर्व कुछ विश्वासपात्रों से परामर्श करते होंगे। ऐसा सुनने में भी आता है कि उन्होंने मंत्रिमंडल के समानांतर सलाहकारों की एक अलग टीम बना रखी है! यह हम नहीं जानते कि यह बात कितनी सच है।

योजना आयोग को समाप्त करने का निर्णय प्रधानमंत्री ने स्वयं होकर लिया हो या कथित सलाहकारों से मशविरा करने के बाद, इसमें अनावश्यक जल्दबाजी नज़र आती है। शंका होती है कि यह निर्णय श्री मोदी ने अपने कारपोरेट समर्थकों की खुशी के लिए लिया है! यह हम जानते हैं कि देश की आर्थिक नीतियां तय करने में 1991 याने पी.वी. नरसिम्हाराव के काल से कारपोरेट घरानों की दखलंदाजी लगातार चली आई है और समय के साथ बढ़ती गई है। कांग्रेस और यूपीए के सरकारों के दौरान भी ऐसे शक्तिसंपन्न पैनल आदि बनाए गए जिसमें कारपोरेट प्रभुओं को सम्मान के साथ जगह दी गई। मध्यप्रदेश में दिग्विजय सिंह ने राज्य योजना मंडल में अंबानी समूह के किसी डायरेक्टर को मनोनीत किया था, ऐसा मुझे याद आता है। जिस तरह से राज्य सभा में पूंजीपति सदस्यों की संख्या जिस तरह लगातार बढ़ी है, वह भी इस प्रवृत्ति का उदाहरण है।

कहने का आशय यह है कि कारपोरेट घराने नहीं चाहेंगे कि सरकार योजनाएं बनाएं। चूंकि सरकार जनता के वोटों से चुनी जाकर बनती है, इसलिए यह उसकी मजबूरी है कि वह दिखावे के लिए ही सही, जनता के हित व कल्याण की बात करे।  योजना आयोग या योजना मण्डल नीतियां बनाएंगे तो उनमें जनहित के मुद्दों को प्रमुखता के साथ उठाया जाएगा। यही स्थिति कारपोरेट जगत को नागवार गुजर रही है। उसे अपने खेलने के लिए खुला मैदान चाहिए जहां किसी भी तरह का प्रतिबंध न हो। वह जो अकूत कमाई करे उसमें से रिस-रिस कर नीचे तक जितना पहुंच जाए, जनता उतने में खुश रहे और खैर मनाए। योजना आयोग अगर समाप्त हो जाए, तो फिर कहना ही क्या है। न रहेगा बांस, न बजेगी बांसुरी।

प्रधानमंत्री की इस योजना से जो लोग खुश नज़र आ रहे हैं, कहने के लिए उनका तर्क है कि योजना आयोग अपनी उपादेयता और प्रासंगिकता खो चुका है। वे यह भी कहते हैं कि आयोग के कामकाज में बहुत सी खामियां हंै। हमारा इनसे सवाल है कि जीवन में ऐसा क्या है जो बिना योजना के सुचारु सम्पन्न होता हो? क्या कारपोरेट घरानों का कारोबार बिना किसी योजना के चलता है? वे जब अगले पांच-दस व पन्द्रह साल में अपनी कंपनी की प्रगति के संभावित आंकड़े बताते हैं तो उसके लिए उन्हें कोई दैवीय आदेश मिलता है? क्या बड़ी-बड़ी कालोनियां, बहुमंजिलें अपार्टमेंट, हवाई अड्डे, मैट्रो रेल सब बिना योजना के ही बन जाते हैं? जब बैंक वाले कारखानेदारों को ऋण देते हैं, तो अगले दस या पन्द्रह साल की संभावित प्रगति की तालिकाएं क्यों मांगते हैं? जब कोई मध्यवित्त व्यक्ति घर बनाने या कार खरीदने के लिए कर्ज लेता है तो आने वाले सालों में ऋण अदायगी क्या बिना कोई योजना बनाए हो सकती है?

पाठकों को जीवन बीमा निगम का वह विज्ञापन ध्यान होगा, जिसमें एक गृहिणी बेटी को विदा करने के बाद स्वर्गीय पति की तस्वीर को पोंछते हुए कहती है- यह अच्छा हुआ वे अपने सामने ही पूरी व्यवस्था कर गए थे।  एक सामान्य व्यक्ति के जीवन में योजना का जितना महत्व है वैसा ही व्यापार व्यवसाय में भी है और इसलिए जब देश की बात होगी तो योजना बनाने की अनिवार्यता से कैसे इंकार किया जा सकता है? गौर कीजिए कि प्रधानमंत्री ने यद्यपि योजना आयोग को समाप्त करने की घोषणा की है, लेकिन लगे हाथ उन्होंने इसके स्थान पर कोई नई संस्था गठित करने का ऐलान भी कर दिया है। यह बात कुछ विचित्र है कि इस नई संस्था का नाम क्या होगा, नीति क्या होगी, सरकार ने इस बारे में कुछ नहीं कहा है, उल्टे जनता से ही इस संबंध में सुझाव मांगे जा रहे हैं।

प्रधानमंत्री ने घोषणा करने के पूर्व उनके समक्ष जो विकल्प थे उनका अध्ययन संभवत: हड़बड़ी में नहीं किया! योजना आयोग के काम-काज में यदि त्रुटियां हैं तो उन्हें सुधारा जा सकता था। मोदीजी अपनी पसंद के अमेरिका-रिटर्न अर्थशास्त्रियों के साथ-साथ अंबानी, अडानी, टाटा को आयोग का सदस्य बना सकते थे। दूसरे, घोषणा करने के बाद जनता से सुझाव मांगने का क्या औचित्य है? यह काम पहले होना चाहिए था और जनता से वैकल्पिक व्यवस्था पर सुझाव मांगे जाने चाहिए थे। तीसरे, अगर सब कुछ तय कर ही लिया था तो नई संस्था का नाम भी तय कर लेते। अंत में, हमें लगता है कि जवाहरलाल नेहरू द्वारा प्रारंभ परंपरा का निर्वाह करते हुए लालकिले की प्राचीर से भाषण देने का मोह भले ही श्री मोदी न छोड़ पाएं, लेकिन वे नेहरूजी की विरासत को समूल नष्ट कर देना चाहते हैं। शायद इसीलिए उन्होंने अपने भाषण में पंडित नेहरू का नाम लेना उचित नहीं समझा जबकि इसी वर्ष उनकी पचासवीं पुण्यतिथि एवं 125वीं जयंती है।
देशबन्धु में 28 अगस्त 2014 को प्रकाशित

Thursday 21 August 2014

विदेशों में कालाधन?

 



"जब
1977 में केन्द्र में मोरारजी देसाई की सरकार बनी तो उसने ''रॉ'' के तमाम दस्तावेजों की छानबीन इस उम्मीद से करवाई कि इंदिरा-गांधी और संजय गांधी ने इस गुप्तचर संगठन का दुरुपयोग अपने निजी लाभ के लिए किस तरह किया होगा। यूं तो इस जांच से कुछ भी हासिल नहीं हुआ, लेकिन वित्त मंत्रालय व रिजर्व बैंक की फाइलों में एक ऐसा प्रकरण सामने आया जिससे सरकार ने यह समझा कि ''रॉ'', उसके प्रमुख आर.एन. काव, उपप्रमुख शंकरन नायर को कटघरे में खड़ा करना मुमकिन होगा। यह प्रकरण आपातकाल का था जिसमें श्री नायर को जिनेवा के एक बैंक खाते में छह मिलियन डॉलर जमा करने भेजा गया था। मोरारजी देसाई को संदेह हुआ कि हो न हो, यह खाता संजय गांधी का है।

जब छानबीन पूरी हुई तो मामला कुछ और ही निकला। 1974 के पोखरण आण्विक प्रयोग के बाद अमेरिकी सरकार ने भारत को दी जाने वाली सहायता में भारी कटौती कर दी थी। देश में गंभीर आर्थिक संकट था। तब भारत सरकार ने ईरान के शाह से दो सौ पचास मिलियन डॉलर का कर्ज आसान शर्तों पर मांगा था। इसके लिए इंदिरा सरकार ने हिन्दूजा बंधुओं की सेवाएं लीं (जिनके बहुत अच्छे संबंध शाह के साथ थे)। उन्होंने शाह की बहन अशरफ पहलवी के माध्यम से ऋण हेतु आवेदन करवाया और शाह ने भारत को सहायता देना स्वीकार कर लिया। इस राशि का एक हिस्सा कर्नाटक की कुदुर्मुख लौहअयस्क परियोजना में लगना था और दूसरे भाग का उपयोग देश की आवश्यक वस्तुओं की आयात करने के लिए होना था। शाह की बहन अशरफ पहलवी ने इस ऋण पर छह मिलियन डॉलर का कमीशन एक ईरानी नागरिक रशीदयान को देने के लिए कहा। यह व्यक्ति अशरफ का घनिष्ठ मित्र था। हिन्दूजा के माध्यम से भारत सरकार को संदेश मिलने पर रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया ने जिनेवा के एक बैंक को टेलेक्स पर इस राशि का ड्राफ्ट बनाकर श्री नायर को सौंपने का निर्देश दिया। इसके बाद वित्त मंत्रालय ने श्री काव से आग्रह किया कि नायर जिनेवा जाकर बैंक ड्राफ्ट हासिल कर लें और उसे रशीदयान के खाते में जमा कर दें। बात यहां खत्म हो गई।

ये सारे तथ्य प्रकाश में आए तो मोरारजी देसाई ने बात को आगे बढ़ाना उचित नहीं समझा तथा बिना किसी अगली कार्रवाई के फाइल बंद कर दी। हिन्दूजा संजय गांधी के जितने करीब थे उससे कहीं ज्यादा उनकी घनिष्टता मोरारजी देसाई, अटलबिहारी वाजपेयी व लालकृष्ण आडवानी से थी। जब उन्हें समझ में आया कि कमीशन हिन्दूजा की सिफारिश पर दिया गया है। तब फिर स्वाभाविक ही बात आगे बढ़ाने की उन्हें इच्छा नहीं रही।"

यह सुदीर्घ उद्धरण मैंने बी. रामन की पुस्तक ''द काव बॉयज़ ऑफ आर. एण्ड ए.डब्ल्यू: डाउन मेमौरी लेन" से लिया है। पुस्तक 2007 में प्रकाशित हुई थी और मैं इसे प्राप्त नहीं कर सका था।  कुछ दिन पहले अपने मित्र डॉ. परिवेश मिश्र की निजी लाइब्रेरी से पुस्तक मिली तो उसे पढ़ते हुए यह प्रसंग सामने आया। बी. रामन का निधन पिछले साल ही हआ है। वे मध्यप्रदेश कैडर के 1961 बैच के आईपीएस अधिकारी थे तथा 1965-66 में दुर्ग में जिला पुलिस अधीक्षक के पद पर भी कुछ समय रहे थे। वहां कुछ लोगों को शायद अब भी श्री रामन की याद हो! बहरहाल, ऊपर मैंने जिस प्रसंग का वर्णन किया है उसे मैं वर्तमान संदर्भों से जोड़कर पाठकों के सामने रखना चाहता हूं, लेकिन इसके पहले श्री रामन की किताब के पहले अध्याय का एक अंश का ज़िक्र करने की अनुमति कृपया मुझे दें।

यह कुछ लोगों को आश्चर्यजनक लग सकता है कि अपनी आत्मकथा के पहले पन्ने पर ही श्री रामन ने अमेरिकी विदेश मंत्रालय के प्रति क्रोध और नफरत का इजहार किया है। संक्षेप में इतना कहना पर्याप्त होगा कि अमेरिका किस तरह से भारत की बाँहें मरोडऩे में लगा रहता था इसका ही वर्णन लेखक ने किया है। श्री रामन ने छब्बीस साल ''रॉ" में बिताए। वे देश के एक आला गुप्तचर थे। उन्होंने सेवानिवृत होने के बाद मिले तमाम ऑफरों को ठुकरा दिया था। ऐसे व्यक्ति की बात पर विश्वास न करने का कोई कारण नहीं बनता।

खैर, बी. रामन ने जनता सरकार के समय के जिस किस्से का वर्णन किया है वह भारत में पिछले कुछ समय से काले धन को लेकर चल रही बहस की ओर हमें ले जाता है। देश में कितना काला धन है या वह अर्थव्यवस्था का कितना प्रतिशत है जैसे तकनीकी विवरणों में पैठने की क्षमता मेरे पास नहीं है, किन्तु इतना अवश्य समझ में आता है कि काले धन के बारे में हो रही बड़ी-बड़ी बातें सच्चाई को पूरी तरह से बयान नहीं करती। जो लोग मोदी सरकार बनने के अगले दिन विदेशों में जमा काले धन को वापिस लाने का वायदा कर रहे थे, वे अब पूरी तरह से चुप हैं। इस विषय को जोर-शोर से उठाने वाले बाबा रामदेव न सिर्फ रहस्यमय तरीके से मौन हैं, बल्कि ऐसा लगता है कि वे अंर्तध्यान हो गए हैं! वे मोदीजी के शपथ ग्रहण से लेकर आज तक कहां हैं, यह वेदप्रताप वैदिक आदि  उनके निकट सहयोगियों को ही पता होगा!

हमें एक सीधी बात समझ में आती है कि सरकार चलाने के लिए बहुत से प्रपंच करना पड़ते हैं। इंदिराजी के समय विदेशी मुद्रा की दरकार थी तो ईरान के शाह से उस तरह से सहायता नहीं मांगी जा सकती थी, जैसे कि आप या हम आवश्यकता पडऩे पर किसी दोस्त या रिश्तेदार से पैसे मांग लेते। इसलिए इंदिराजी को हिन्दूजा बंधुओं से बात करना पड़ी, उन्होंने शाह की बहन से बात की जिसने अपने भाई से कहकर काम तो करवा दिया, लेकिन साथ-साथ अपने दोस्त का भी भला कर दिया। जनता पार्टी सरकार आई तो उसे भी अपने दोस्त हिन्दूजा का लिहाज करना पड़ा। मतलब यह कि अंतरराष्ट्रीय संबंधों में बहुत से दरवाजों से गुजरना पड़ता है। उस दौर में विदेश नीति और अर्थनीति के बीच तब भी एक दूरी थी, लेकिन आज तो माहौल पूरी तरह बदल चुका है। आपके वैदेशिक संबंध बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करते हैं कि किसी देश के साथ आपका खरीद बिक्री का क्या रिश्ता है।

जो भी व्यक्ति व्यापार व्यवसाय की थोड़ी सी समझ रखता है वह जानता है कि कोई भी सौदा बिना भाव-ताव के तय नहीं होता। जब सौदे का आकार बड़ा होता है तो कमीशन की रकम भी बढ़ जाती है। निजी कंपनियों में तो यह होता ही है, सरकारी कंपनियों को भी इसके लिए एजेंट नियुक्त करना पड़ते हैं क्योंकि वे सीधे-सीधे कमीशन का लेन-देन नहीं कर सकते। इस दृष्टि से देखें तो पहले या आज जब भी सरकार या सरकारी उपक्रमों ने बड़े-बड़े सौदे किए हैं तो उसमें मध्यस्थों की भूमिका होना ही थी। शायद यही वजह है कि चाहे बोफोर्स का मामला हो, चाहे आगुस्ता वेस्टलैण्ड का, चाहे कुछ और। इस सबमें विपक्ष को हल्ला मचाने के लिए और सत्ता पक्ष पर आक्रमण करने के लिए अवसर जरूर मिल जाता है, लेकिन वे स्वयं जब सत्ता में आते हैं तो चुप रहने में ही भलाई समझते हैं। अमेरिका से लेकर जापान तक सब जगह यही दस्तूर है। भारत में यदि हल्ला मचता है तो वह हमारी राजनीति की अपरिपक्वता को दर्शाता है।

यह तस्वीर का एक पहलू है। ऐसे सौदों के मार्फत यदि कोई राजनीतिक दल पार्टी फंड इकट्ठा करें तो उसे कैसे अपराध माना जाए, मैं नहीं जानता। हां! यदि पार्टी फंड का इस्तेमाल निजी संपत्ति बढ़ाने के लिए किया गया हो तो वह क्षमा योग्य नहीं है। तस्वीर का दूसरा पहलू वह कालाधन है जो निजी क्षेत्र द्वारा टैक्स चोरी आदि से उत्पन्न होता है और विदेश भेजकर मॉरिशस, दुबई या सिंगापुर जैसे रास्तों से वापस आ जाता है। इस तरह का धन संचय जहां अपराधों को बढ़ावा देता है वहीं इससे समाज में गैरबराबरी और असंतोष भी बढ़ता है। जो व्यक्ति इस तरह से पैसा कमाते हैं उनके मन में न तो देशप्रेम का भाव होता है और न देश की जनता के प्रति वे अपनी कोई जवाबदारी महसूस करते हैं। इसके विपरीत वे अपने पैसे के बल पर राजनेताओं को खरीदते हैं तथा उनसे अपने हित में गलत-सलत निर्णय लेने की अपेक्षा करते हैं। यही लोग ''कौआ कान ले गया" की तर्ज पर विदेशों में कालाधन का मुद्दा उठाते हैं ताकि इनके अपने अपराधों पर परदा पड़ा रहे।
देशबन्धु में 21 अगस्त 2014 को प्रकाशित

Wednesday 13 August 2014

शिवराज सिंह अखबार निकालेंगे?


 मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के मन में यह बात आई है कि भारतीय जनता पार्टी को अपना एक दैनिक अखबार निकालना चाहिए। कोई तीन हफ्ते पहले भोपाल में उन्होंने प्रदेश में पार्टी नेताओं के लिए आयोजित एक प्रीतिभोज में यह सुझाव सामने रखा। इस बारे में उनका सोचना है कि पार्टी और सरकार की नीतियों, कार्यक्रमों, सफलताओं व उपलब्धियों को अखबारों में जैसा महत्व मिलना चाहिए वैसा नहीं मिल पाता। जैसे कि शून्य ब्याज दर पर किसानों को कर्ज देने की खबर को मीडिया ने कोई खास तवज्जो नहीं दी। दूसरी तरफ उनको  यह शिकायत है कि सरकार विरोधी खबरों को लपक लेने और उछाल देने में समाचार पत्र बिल्कुल भी समय नहीं गंवाते। ''इंडियन एक्सप्रेस'' के भोपाल संवाददाता का मानना है कि व्यापमं घोटाला जिस तरह से सुर्खियों में आया संभवत् उससे विचलित होकर श्री चौहान यह प्रस्ताव लेकर आए।  फिलहाल बात सिर्फ विचार के स्तर पर है। आगे चलकर इसका क्रियान्वयन होता है या नहीं, यह देखना होगा।

श्री चौहान को यदि अखबारों से शिकायत है तो इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है। दुनिया में ऐसा कौन सा राजनेता है जो अखबारों को पसंद करता हो? फर्क इतना है कि कुछ नेता आलोचना को सहज भाव से स्वीकार कर लेते हैं, कुछ मन ही मन कुढ़ते रहते हैं और कुछ अपनी नाराजगी खुलकर जाहिर कर देते हैं। मध्यप्रदेश और भाजपा के ही पूर्व मुख्यमंत्रियों की बात करूं तो कैलाश जोशी अखबार में छपी आलोचना से कभी विचलित नहीं होते थे। वीरेन्द्र कुमार सखलेचा को अपनी सरकार के विरुद्ध एक शब्द भी लिखा जाना नागवार गुजरता था। सुन्दरलाल पटवा इसकी कोई परवाह ही नहीं करते थे कि क्या छप रहा है। वे कहते थे- मैं अपना काम कर रहा हूं और अखबार वाले अपना। मध्यप्रदेश में ही कांगे्रस के मुख्यमंत्रियों के इस बारे में अपने-अपने विचार हैं। द्वारिकाप्रसाद मिश्र सामान्य तौर पर आलोचना सहन कर लेते थे, लेकिन एक समय एक अखबार के विज्ञापनों पर उन्होंने कुछ दिन के लिए रोक लगा दी थी। श्यामाचरण शुक्ल संपादकों को सीधे फोन पर नाराजगी जतलाते थे और फिर तुरंत सहज हो जाते थे। अर्जुन सिंह पत्रकारों का कद नापकर तदनुरूप व्यवहार करते थे। दिग्विजय सिंह सखलेचाजी की ही तरह असहिष्णु थे।

ऐसा नहीं कि राजनेताओं को ही अखबारों से शिकायत रहती है। दरअसल, समाचार पत्र एक अनिवार्य और शायद किसी हद तक अवांछित इकाई के रूप में समाज में मौजूद हैं। जो समाज अपने संस्कारों में जितना अधिक जनतांत्रिक है वहां अखबार की उपस्थिति उतनी ही अधिक स्वीकार्य है। एक संकीर्ण और असहिष्णु समाज को अखबार की शायद जरूरत ही नहीं है! एक तरफ कोई मजबूर, मजलूम न्याय की आस लिए राष्ट्रपति से गुहार लगाता है तो उसकी आखिरी प्रतिलिपि अखबार के संपादक को भेजी जाती है; दूसरी तरफ समाज में ऐसे अनेक व्यक्ति और समूह हैं जो अखबार पर येन-केन-प्रकारेण दबाव डालते हैं कि उनके बारे में हमेशा अच्छी-अच्छी बात ही छपें और अगर वे बड़े से बड़ा अपराध भी कर दें तो उसके बारे में एक पंक्ति भी न लिखी जाए। ऐसा हो जाए तो  वे अखबार खरीदना बंद कर देते हैं, उसकी होली जलाते हैं, पत्रकारों पर हमले करते हैं और यह सब करने के पहले पत्र और पत्रकारों को खरीदने की कोशिश करते हैं। आजकल इस दिशा में उन्हें काफी सफलता मिल रही है।

पाठक परिचित ही हैं कि अभी हाल में देश के सबसे बड़े धनपति मुकेश अंबानी ने बहुत सारे अखबारों और टीवी चैनलों को खरीद लिया है। यह कोई नई बात नहीं है, उद्योगपति और व्यापारी पहले भी अखबार चलाते रहे हैं। अब जमीन के सौदागर, पी.डब्ल्यू.डी. के ठेकेदार, चिटफंड कंपनियों के ठग, ये सब भी अपने-अपने अखबार निकाल रहे हैं और उनमें ऊंची तनख्वाह देकर संपादकों को रखते हैं। दोनों के मजे हैं, जब तक मन मिला रहे! इन लोगों के समान ही राजनेताओं ने भी समय-समय पर अपने अखबार निकाले हैं। पंडित रविशंकर शुक्ल ने ''नागपुर टाइम्स" को प्रायोजित किया था। आगे चलकर ''महाकौशल" की स्थापना भी उन्होंने की थी।  उनके अलावा और भी बहुत से नेताओं ने अपने अखबार निकाले या फिर अखबारों को अपने साथ ले लिया, भले ही इसके लिए राज्यसभा की सदस्यता का झुनझुना देना पड़ा हो।

राजनेताओं द्वारा अखबार निकालने के सबसे बढिय़ा उदाहरण शायद उड़ीसा में है। वहां हरेकृष्ण मेहताब ने अपना अखबार निकाला, नंदनी सत्पथी ने अपना और जे.बी. पटनायक ने अपना। ये सब आगे-पीछे प्रदेश के मुख्यमंत्री बने। राधानाथ रथ मुख्यमंत्री तो नहीं बने लेकिन राज्यसभा में अवश्य गए। तमिलनाडु में डीएमके और अन्ना डीएमके ने भी बहुसंस्करण वाले अखबार प्रकाशित किए। कर्नाटक, केरल, आंध्र में भी ऐसे अनेक उदाहरण हैं और पूर्व में असम और पश्चिम में राजस्थान में भी। महाराष्ट्र में बाल ठाकरे ने अपना अखबार निकाला ''सामना" तो शरद पवार ने पुणे के ''सकाल" पत्र समूह को हस्तगत कर लिया। गोपाल कृष्ण गोखले की सर्वेन्ट्स ऑफ इंडिया सोसायटी द्वारा स्थापित ''हितवाद" भी आगे चलकर राजनेताओं के हाथ में आ गया।  गरज ये है कि शिवराज सिंह चौहान ने कोई नई और चौंकाने वाली बात नहीं की है। अब तक जो होता आया है, वे वहीं से विचार ग्रहण कर रहे हैं।

यह संभव है कि श्री चौहान को अपनी ही पार्टी के अतीत के उदाहरणों से प्रेरणा मिली हो। भाजपा की पितृसंस्था अर्थात् राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ द्वारा हिन्दी में ''पांचजन्य" व अंग्रेजी में ''ऑर्गनाइजर" का प्रकाशन पिछले छह दशक से हो रहा है। संघ द्वारा ''राष्ट्रधर्म" का भी प्रकाशन किया गया था तथा ''हिन्दुस्तान समाचार" नामक समाचार अभिकरण की स्थापना भी संघ ने की थी। वाजपेयीजी और अडवानीजी जैसे बड़े नेताओं ने इनमें लंबे समय तक काम भी किया था। इसके अलावा संघ संचालित संस्थाओं के माध्यम से अनेक स्थानों से दैनिक समाचार पत्रों का प्रकाशन भी प्रारंभ किया गया था। मराठी का ''तरुण भारत" नागपुर और पुणे से निकलता था व हिन्दी ''युगधर्म नागपुर, जबलपुर और रायपुर से। ग्वालियर व भोपाल से ''स्वदेश" भी पार्टी से जुड़े लोगों ने ही निकाला। देश की राजधानी से ''मदरलैंड" नामक दैनिक का  प्रकाशन भी संघ ने शुरू किया था। आज भी दिल्ली का ''पायोनियर" भाजपा का ही अखबार माना जाता है।

इस सारे इतिहास को देखते हुए अगर मध्यप्रदेश से भाजपा का अपना एक दैनिक पत्र प्रारंभ होता है तो वह एक सहज घटना होगी। यह प्रस्ताव लाने वाले शिवराज सिंह चौहान एक लोकप्रिय नेता हैं और उनके खाते में अनेक उपलब्धियां दर्ज हैं। इसलिए उनके संरक्षण में अखबार भी ठीक से चल जाएगा, इसमें कोई शंका नहीं दिखती। सवाल सिर्फ इतना है कि किसी राजनीतिक दल द्वारा घोषित तौर पर निकाले गए अखबार की विश्वसनीयता कितनी होगी! समाचार पत्र का पाठक सहज बुद्धि का धनी होता है। वह जो कुछ टीवी पर देखता है उसका प्रमाण अगली सुबह के अखबार में ढूंढता है। इसी तर्ज पर पार्टी या सरकार के दैनिक पत्र में छपी खबर पर वह एकाएक विश्वास नहीं करेगा। श्री चौहान थोड़े से परिश्रम से पता कर सकते हैं कि कांग्रेस, भाजपा या कम्युनिस्ट पार्टी के अखबारों की बिक्री कम क्यों होती है और वे लंबे समय तक क्यों नहीं चल पाते!

भारत का पाठक अपने अखबार में बहुत सी कुछ चीजें एक साथ देखना चाहता है। कुछ-कुछ मसाला पान में जैसे सौंफ, इलायची, गुलकंद, चमन बहार और  लौंग के साथ। उसकी रुचि शुष्क शासकीय विज्ञप्ति में नहीं होती।  एकपक्षीय अखबार में यह खतरा भी है कि नेता जमीनी सच्चाईयों को कभी न जान पाए और खुद अपनी तस्वीरें देखकर मुग्ध होता रह जाए। हाल के बरसों में लगभग निरपवाद हर मुख्यमंत्री ने अखबारों पर किसी न किसी तरह से नियंत्रण स्थापित करने की कोशिश की है, चाहे राज्यसभा की सदस्यता देकर, चाहे विज्ञापन बढ़ाकर, चाहे विज्ञापन काटकर, चाहे फैक्ट्री का लायसेंस या जमीन का पट्टा देकर; इससे अखबारों का जो भी नुकसान हुआ हो, मुख्यमंत्रियों को कम नुकसान नहीं हुआ। वे एक नहीं, तीन बार चुनाव जीत जाएं लेकिन जनता से उनकी दूरी बढ़ती जा रही है और कुल मिलाकर इससे जनतंत्र कमजोर हो रहा है।


देशबन्धु में 14 अगस्त 2014 को प्रकाशित 

#MadhyaPradesh #ShivrajSinghChauhan #Newspapers 

Thursday 7 August 2014

मुक्तिबोध और परसाई



मेरे  सामने कुछ किताबें रखी हैं। इनमें से एक है ''महागुरु मुक्तिबोध : जुम्मा टैंक की सीढिय़ों पर"। इसी वर्ष प्रकाशित इस पुस्तक के लेखक कांतिकुमार जैन हैं जो संस्मरण विधा को नई ऊंचाइयों तक ले गए हैं। उनकी आत्मकथात्मक पुस्तक- ''बैकुण्ठपुर में बचपन" पर मैं अक्षर पर्व में पूर्व में चर्चा कर चुका हूं। दूसरी पुस्तक है- ''दर्पण देखे मांज के (परसाई : जीवन और चिंतन)"।  डॉ. रामशंकर मिश्र इस पुस्तक के लेखक हैं। जबलपुर निवासी मिश्र जी आत्मप्रचार से दूर भागते हैं। उन्हें खामोशी के साथ अपना काम करना भाता है, यद्यपि वे एक संवेदनशील कवि, उपन्यासकार व अनुवादक होने के साथ-साथ सही मायनों में सुधी समीक्षक भी हैं। मिश्र जी की हाल में दो और पुस्तकें आई हैं- ''युग की पीड़ा का सामना (परसाई : साहित्य-समीक्षा)" तथा ''त्रासदी का सौंदर्यशास्त्र और परसाई"। ये सारी पुस्तकें परसाई जी को समझने के लिए मूल्यवान संदर्भ हैं। 

पाठकों को स्मरण होगा कि कांतिकुमार जैन ने भी ''तुम्हारा परसाई" शीर्षक से परसाई जी की जीवनी लिखी है। इसके अलावा उन्होंने ''भारतीय साहित्य" पत्रिका के परसाई विशेषांक का भी संपादन किया था। यह सारा उल्लेख मैंने प्रसंगवश किया है, लेकिन मुख्यत: मेरी बात पहली दो पुस्तकों पर केन्द्रित होगी। मुक्तिबोध पर लिखने वाले कांतिकुमार पहले व्यक्ति नहीं हैं। मुक्तिबोध स्कूल के ही वरिष्ठ कवि मलय ने भी उन पर शोध प्रबंध लिखा था और हास्य कवि के रूप में बेहतर चर्चित अशोक चक्रधर ने भी। मुक्तिबोध के कृतित्व पर मेरी समझ में सबसे अच्छा काम अगर किसी ने किया है तो प्रतिष्ठित कवि चंद्रकांत देवताले ने। उन्होंने मुक्तिबोध की रचनाओं की जो पड़ताल की है उसमें विस्तार और गहराई दोनों है। जो हिन्दी अध्यापक मुक्तिबोध के कठिन होने या उन्हें न समझ पाने की शिकायत करते हैं वे अगर देवताले जी की पुस्तक पढ़ लें तो अपना उद्धार कर सकेंगे। इन कामों के अलावा भी मुक्तिबोध जी पर बहुतों ने लिखा होगा जो मेरी जानकारी में नहीं है। 

बहरहाल कांतिकुमार जैन तथा रामशंकर मिश्र इन दोनों मित्रों की अपने दो वरिष्ठ मित्रों पर लिखी गई पुस्तकों को लगभग एक ही समय में पढ़ पाना मेरे लिए एक अद्भुत संयोग ही नहीं बल्कि आनंद का विषय भी सिद्ध हुआ। मैं स्वयं मुक्तिबोध जी को थोड़ा बहुत जानने का दावा रखता हूं तथा परसाई जी को एक लंबी अवधि तक निकट से जानने का सौभाग्य भी मुझे मिला है। मैं ही नहीं, मुझ जैसे अनगिन लोग हैं जिन्होंने मुक्तिबोध और परसाई से विचारों की पूंजी हासिल की है। पाठक चाहे मुक्तिबोध को पढ़ें या परसाई को, पढऩे के बाद वह एक ही बिन्दु पर पहुंचता है। भले ही इसका भान उसे न हो पाता हो। हम पाते हैं कि दोनों के व्यक्तित्व और विचारों में कैसी अभिन्नता है। हम इन दोनों को शायद विचारों के सहोदर कह सकते हैं। इस दृष्टि से ''महागुरु मुक्तिबोध" और ''दर्पण देखे मांज के" इन दोनों पुस्तकों को पढऩा याने एक दुर्लभ नक्शा प्राप्त कर लेना है जो हमें किसी पुराने खजाने तक पहुंचने का रास्ता बताता हो। 

रामशंकर मिश्र ने अपनी पुस्तक में परसाई के हवाले से मुक्तिबोध के विचारों को एक जगह इन शब्दों में प्रकट किया है- 'एक विचित्र विरोधाभास था उनकी प्रकृति में। वे पैसे-पैसे के मोहताज थे, पर अच्छा पारिश्रमिक देने वाली, प्रचार-प्रसारवाली पत्रिकाओं में नहीं लिखते थे। मैं आग्रह भी करता कि इन पत्रिकाओं में लिखिए। आपकी रचनाएं और आपके विचार लाखों लोगों तक पहुंचेंगे और पैसे मिलेगा तो कुछ आर्थिक कष्ट कम होगा। वे जवाब देते ''पार्टनर, ये पत्रिकाएं किनकी हैं, आप जानते हैं। इनसे अपनी पटरी नहीं बैठेगी। अपन उस खेमे में नहीं जाएंगे।" उनकी कुछ जड़ीभूत मान्यताएं थीं। पत्रिकाओं का प्रकाशन, मुख्यत: व्यावसायिक मामला है। उन्हें अच्छी सामग्री चाहिए, जो बाजार में चले। लेखक को प्रकाशन और पैसा चाहिए। यह सीधा सौदा है। यह भी सही है कि इन पत्रिकाओं की विचारधारा दक्षिणपंथी है। पर वामपंथी लेखक को छापना उनकी मजबूरी भी है। उन्हें बाजार में अच्छा माल लाना है। मगर मुक्तिबोध यह समझौता नहीं करते थे।'

यह स्मरणीय है कि हरिशंकर परसाई ने जबलपुर से अपने मित्रों रामेश्वर गुरु और श्रीबाल पाण्डेय के साथ मिलकर वसुधा का प्रकाशन प्रारंभ किया था। थोड़े ही समय में इस पत्रिका ने जो धाक जमाई थी वह साहित्य के इतिहास में दर्ज है। परसाई जी के आग्रह पर मुक्तिबोध जी ने वसुधा में ''एक साहित्यिक की डायरी" शीर्षक से नियमित स्तंभ लिखना चालू किया था। इसी सिलसिले में परसाई जी ने उपरोक्त बात लिखी थी। रामशंकर मिश्र कहते हैं कि ''नए साहित्य शास्त्रीय मूल्यों के निर्धारण की दिशा में एक साहित्यिक की डायरी का अतुलनीय योगदान रहा है।" इसके साथ वे ये टिप्पणी भी करते हैं कि ''वसुधा की निर्धनता के साथ उन्होंने उत्साह के साथ समझौता कर लिया था।" यह एक दिलचस्प लेकिन मर्मस्पर्शी टिप्पणी है। न तो परसाई पैसे के धनी थे और न मुक्तिबोध। पत्रिका इसलिए निकाली कि अपने विचारों को जितना बने उतना फैलाया जाए और उसमें लिखना है तो भी उद्देश्य वही था। ऐसी प्रतिबद्धता और ऐसी ईमानदारी भला और कहां देखने मिलती है? 

कांतिकुमार जैन और रामशंकर मिश्र दोनों के नायक अलग-अलग हैं, लेकिन यह बात मजेदार है कि कांतिकुमार जी जब मुक्तिबोध पर लिख रहे हैं तो उसमें परसाई बार-बार आकर झांक जाते हैं। इसी तरह जब मिश्र जी परसाई पर लिखते हैं तो उसमें मुक्तिबोध बीच-बीच में आकर जुड़ जाते हैं। दोनों एक राह के मुसाफिर और दोनों के मित्र भी वही जिन्हें हम ''कॉमन फ्रैंड्स" कहते हैं। कांतिकुमार जी ने मुक्तिबोध मंडल या मंडली की परिकल्पना की है और उन्हें इस मंडली के महागुरु के उपाधि से विभूषित किया है। इसके काफी पहले वे मुक्तिबोध स्कूल की अवधारणा भी दे चुके हैं। इस बारे में उन्होंने अपनी पुस्तक के पहले अध्याय में कुछ विस्तार से लिखा है जिसका सार इन शब्दों में व्यक्त है- ''उनकी यह मंडली बौद्धिकता के संसार में विचरण करने वाले मित्रों की मंडली थी, जिसके सदस्य मिलते थे, उन सारी समस्याओं पर विचार करने के लिए जो आज के मनुष्य की नियति को नियंत्रित एवं अनुशासित करती है।"

इस मंडली का जिक्र हम आगे करेंगे। अभी यह देखें कि कांतिकुमार इस मंडली में साहित्य की सोद्देश्यता का जो लक्ष्य देख रहे हैं कुछ वैसा ही रामशंकर मिश्र भी परसाई में पाते हैं। वे कहते हैं- ''परसाई का व्यक्तित्व एक सचेत रचनाकार का व्यक्तित्व था। वे राजनीतिक परिस्थितियों में और राजनीतिज्ञों के नैतिक अवमूल्यन को देखकर उससे विमुख नहीं रह सकते थे। यह उनके प्रतिबद्ध लेखन की बाध्यता थी कि वे उन असंगतियों की शव परीक्षा करें।" यहां सीधे-सीधे राजनीति की बात की गई है जबकि कांतिकुमार का कथन वृहत्तर संदर्भ में प्रतीत होता है। लेकिन यह नहीं भूला जा सकता कि जनतांत्रिक समाज में राजनीति मनुष्य की नियति को नियंत्रित करती है। इस तरह एक ही मंडली के दोनों सदस्यों की वैचारिक सहमति स्पष्ट हो जाती है। पूछा जा सकता है कि मुक्तिबोध मंडली के महागुरु कैसे? एक तो उम्र में बाकी सबसे बड़े होने के कारण और दूसरे शायद यह उपाधि मंडली के सदस्यों द्वारा ही दी गई थी। 

मुक्तिबोध जबलपुर-नागपुर होते हुए राजनांदगांव पहुंचे। परसाई का पूरा जीवन ही जबलपुर में कटा। दोनों का प्रथम परिचय नागपुर में हुआ और मुक्तिबोध मंडली की स्थापना भी नागपुर में ही हुई। 1956 में नया मध्यप्रदेश बन जाने के बाद अधिकतर लोग भोपाल, जबलपुर या अन्य स्थानों पर आ गए। स्वयं मुक्तिबोध भी उसके बाद डेढ़-दो साल ही नागपुर में रहे। वहां जो रह गए उनमें एक थे भाऊ समर्थ- सुप्रसिद्ध चित्रकार और दूसरे शैलेन्द्र कुमार, पत्रकार-कथाकार। एक अन्य सदस्य रामकृष्ण श्रीवास्तव विदर्भ के अकोला में निवासरत थे और वे वहीं बने रहे। यह मंडली कोई रोज अड्डा जमानेवालों का समूह नहीं था। इनमें से हरेक प्रखर कलम का धनी लेखक था तथा लगभग सभी ने अपनी समाजधर्मिता को अंत तक निभाया। अब इनमें से कोई भी जीवित नहीं है। 

कांतिकुमार ने अपनी पुस्तक में मुक्तिबोध मंडली के बारह सदस्यों को लिया है। पुस्तक का शीर्षक चुनने में उन्होंने कविसुलभ औदार्य का परिचय दिया है- ''जुम्मा टैंक की सीढिय़ों पर बैठकर तालाब की काली स्याह लहरों में दीप्त होने वाली बल्बों और ट्यूब लाइटों की चमक उन्हें भावी बेहतर जीवन के प्रति आश्वस्त करती है।" लेखक ने इन सबके बहाने ''नागपुर के दिनों के बौद्धिक और रचनात्मक परिवेश" का आख्यान करने का प्रयास किया है। दूसरी तरफ रामशंकर मिश्र जबलपुर में हरिशंकर परसाई के करीबी लोगों में रहे। किन्तु उन्होंने अपनी पुस्तक में कोई प्रस्तावना नहीं दी है। फिर भी पहले अध्याय की अंतिम पंक्ति हम ले सकते हैं- ''यह एक जिम्मेदार व्यक्ति और लेखक की महायात्रा रही है।" दिलचस्प तथ्य यह है कि कांतिकुमार की मुक्तिबोध मंडली के बारह सदस्यों में से अधिकतर इस महायात्रा के भी साक्षी के रूप में हमारे सामने आते हैं।

महागुरु मुक्तिबोध पुस्तक का गठन इस मायने में बेहतर है कि उसमें हरेक पात्र के लिए एक पृथक अध्याय है एवं नामकरण पर टिप्पणी और भूमिका के अलावा एक आनुषांगिक अंतिम अध्याय भी है। जबकि ''दर्पण देखे ..."  गोया एक ही प्रवाह में लिख दी गई है। अध्याय तो उसमें भी हैं, लेकिन वे सांचे में बंधे हुए नहीं हैं। यात्रा चल रही है, उसमें व्यक्ति, दृश्य, घटनाएं आ-जा रहे हैं। कभी-कभी पीछे मुड़कर भी देख लेते हैं जैसे पिछले स्टेशन पर सामान छूट गया हो और उसे लेने वापिस आए हों। दोनों पुस्तकों को मिलाकर एक पूरा युग पाठक के सामने सजीव हो उठता है। इसमें जो लोग आए इनमें से कुछ हिन्दी जगत के बड़े नाम हैं, कुछ उतने बड़े नहीं है, कुछ हैं जिनकी यात्रा बीच में ही टूट जाती है। इसके अलावा बहुत से सामान्य लोग भी हैं जिनके बिना किसी भी व्यक्ति की जीवन कथा मुक्कमल तौर पर नहीं लिखी जा सकती। कांतिकुमार ने अंग्रेजी परंपरा के हवाले से औचित्य सिद्ध किया है कि ''अंग्रेजी में माइनर पोएट को इतना हेय या अस्मरणीय नहीं माना जाता।"

इन दोनों किताबों को मिलाकर नरेश मेहता, श्रीकांत वर्मा, प्रमोद वर्मा, भाऊ समर्थ जैसे सुप्रसिद्ध रचनाकारों के मुक्तिबोध और परसाई से कैसे आत्मीय संबंध रहे, यह हमें पता चलता है। इनके अलावा केशव पाठक, इन्द्रबहादुर खरे, प्रभात तिवारी, सतीश चौबे की काव्य-प्रतिभा से एक बार फिर परिचय पाते हैं। ये वो लोग थे जिनसे हिन्दी जगत को बहुत अपेक्षाएं थीं, जिन्हें मृत्यु असमय छीनकर ले गई। केशव पाठक के बारे में जिक्र करना उचित होगा कि उन्होंने उमर खय्याम की रुबाइयों का हिन्दी अनुवाद किया था। इनके अलावा हम उन लेखकों से भी परिचय पाते हैं जो अपने दौर के चर्चित और प्रतिष्ठित लेखक थे, लेकिन जिन्हें समय बीतते न बीतते भुला दिया गया और अफसोस की बात कि उनके कृतित्व के मूल्यांकन की कोई व्यवस्थित कोशिश नहीं की गई। 

मुझे महागुरु मुक्तिबोध में यह देखकर आत्मिक सुख मिला कि स्वामी कृष्णानंद सोख्ता, जीवनलाल वर्मा विद्रोही, रामकृष्ण श्रीवास्तव जैसे समर्थ रचनाकारों की संभवत: पहली बार किसी ने सुध ली। पाठक याद करें कि सोख्ता जी नागपुर से ''नया खून" शीर्षक विद्रोही तेवरों वाला साप्ताहिक प्रकाशित करते थे जिसमें मुक्तिबोध उनके सहयोगी थे। सोख्ता जी की कविताओं का एक संकलन ''कलामे सोख्ता के नाम से प्रकाशित भी हुआ था। उनके जैसे अक्खड़ शैली में बात करने वाले कवि कम ही होंगे। मुझे यह कहने में संकोच नहीं कि सोख्ताजी व अन्य पर लिखकर कांतिकुमार जैन ने हिन्दी भाषा के इतिहास की एक बड़ी कमी पूरी की है और इस तरह भाषा का कर्ज चुकाया है। एक अध्याय मशरिकीजी पर भी है। उनकी मुक्तिबोध जी से कितनी घनिष्ठता थी, इस बारे में मैं पूरी तरह आश्वस्त नहीं हूं। रामशंकर मिश्र ने यह काम सीधे-सीधे तो नहीं किया लेकिन वे भी रामानुजलाल श्रीवास्तव,पन्नालाल श्रीवास्तव 'नूर', भवानी प्रसाद तिवारी आदि के कृतित्व से पाठकों का परिचय करवाने का महत्वपूर्ण काम करते हैं।

कांतिकुमार जी और रामशंकर जी दोनों ने मुक्तिबोध जी और परसाई जी के निजी जीवन के ब्यौरे भी अपनी-अपनी पुस्तक में प्रस्तुत किए हैं। ऐसा करने में कहीं-कहीं संभवत: स्मृतिभ्रम से ही, छोटी-मोटी चूकें हुई हैं, लेकिन कुल मिलाकर अपने इन प्रिय लेखकों के बारे में हमें प्रामाणिक जानकारियां उपलब्ध होती हैं। दोनों लेखकों ने अपने-अपने नायक के साथ गहरे आत्मीय संबंध होने के बावजूद अपनी वस्तुनिष्ठता सिद्ध की है। इस साल जब मुक्तिबोध जी के निधन को पचास साल पूरे होने आए हैं और परसाई जी की उन्नीसवीं पुण्यतिथि भी इसी माह पड़ रही है तब ये दोनों पुस्तकें हमारे लिए कुछ और ज्यादा मूल्यवान हो जाएंगी। 

अक्षर पर्व अगस्त 2014 में प्रकाशित


 

Wednesday 6 August 2014

न्यायमूर्ति दवे के उद्गार


 सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति ए.आर. दवे ने पिछले हफ्ते एक सार्वजनिक कार्यक्रम में कहा कि वे अगर तानाशाह होते तो पहली कक्षा से रामायण, महाभारत, गीता का अध्ययन अनिवार्य कर देते। हो सकता है कि यह बात उन्होंने भावावेश में कह दी हो। किन्तु इससे अनुमान होता है कि न्यायमूर्ति दवे भारतीय संस्कृति की व्याख्या एक खास नजरिए से करते हैं। उनका यह बयान काफी चौंकाने वाला है; अब देश में जनता को ऐसे उद्गार सुनने का अभ्यास कर लेना चाहिए। हमारे यहां ऊंचे स्थानों पर बैठे बड़े लोग कब कौन सी बात कर जाएं इसका कोई ठिकाना नहीं है। न्यायधीशों के बारे में जनता आमतौर पर मानती है कि वे अपनी भावनाओं पर नियंत्रण रखना जानते हैं, किन्तु यह जनमान्यता भी धीरे-धीरे झूठी साबित हो रही है। न्यायमूर्ति मार्कण्डेय काटजू को तो जैसे विवाद खड़े करने में आनंद ही आता है जैसा कि अभी हमने हाल में देखा। मज़े की बात है कि काटजू  साहब ने जस्टिस दवे के उक्त विचार का विरोध किया है।

बहरहाल, श्री दवे के विचारों को आसानी से नहीं झुठलाया जा सकता। उन्होंने जो बात कही है वह दो-तीन दृष्टियों से बेचैन करने वाली है। जैसे कि उन्होंने खुद के तानाशाह होने की एक असंभव कल्पना प्रस्तुत की। सवाल उठता है कि एक ऐसे देश में जहां गत सड़सठ वर्षों में जनतांत्रिक व्यवस्था को बार-बार कसौटी पर कसा जा चुका है जिम्मेदारी के पद पर बैठे एक शीर्ष व्यक्ति के मन में तानाशाही का विचार आना ही क्यों चाहिए था? क्या श्री दवे उन लोगों से सहमत हैं जो कहते हैं कि इससे तो अंग्रेजों का राज ही अच्छा था या फिर उनसे जिन्हें गत सड़सठ वर्षों में हुई हर बात गलत ही प्रतीत होती है? श्री दवे का जन्म तो देश को आज़ादी मिलने के बाद हुआ है, तब भी उन्होंने भारत के राजनीतिक इतिहास का अध्ययन तो किया ही होगा और वे अवश्य जानते होंगे कि स्वतंत्रता के क्या मायने हैं, कि तानाशाही में मनुष्य की स्वतंत्रता एक दूभर कल्पना ही है। न्यायमूर्ति दवे को यह भी अवश्य पता होगा कि हिटलर, मुसोलिनी, फ्रांको, सालाजार जैसे तानाशाहों का हश्र क्या हुआ।

श्री दवे पहली कक्षा से ही बच्चों को गीता और रामायण पढ़ा देना चाहते हैं। यह विचार भी कुछ अटपटा लगता है। मात्र पांच-छह वर्ष की आयु में किसी बालक या बालिका को क्या पढऩा चाहिए, इस गंभीर बिन्दु पर शायद उन्होंने विचार नहीं किया। गो कि शिक्षा के बारे में इतने ऊपरी ढंग से सोचने वाले वे पहले न्यायवेत्ता नहीं हैं। हमारे नीति-निर्माता एवं निर्णयकर्ता समाज की सारी विसंगतियों का दोष शिक्षा व्यवस्था पर मढ़कर खुद को अपराधमुक्त कर लेते हैं। वे नहीं सोचते कि यह शिक्षा व्यवस्था भी उनके द्वारा बनाई गई नीतियों का ही परिणाम है। वे बेहद शुष्क और मशीनी तरीके से नौनिहालों के मस्तिष्क में  वेद-पुराण से लेकर पर्यावरण, सड़क सुरक्षा, लैगिंक समानता जैसे तमाम विषय ठूंस देना चाहते हैं। उन्हें इस बात का ख्याल नहीं होता कि इन नन्हे-मुन्ने बच्चों को पढ़ाना एक अलग तरह का अनुशासन है जो सिर्फ प्रशिक्षित अध्यापक ही समझ सकते हैं। दुर्भाग्य से भारत के कुलीनतंत्र में शिक्षकों का जो अपमान हो रहा है श्री दवे उससे अनभिज्ञ नज़र आते हैं।

अब बात आती है नई पीढ़ी को गीता, रामायण, महाभारत पढ़ाने की। कौन नहीं जानता कि ये हमारे क्लासिक ग्रंथ हैं और इस नाते इन्हेंं पढऩा याने बौद्धिक तृप्ति हासिल करना है, किन्तु इस ग्रंथों का पठन अनिवार्य क्यों होना चाहिए? यह तो हर व्यक्ति की अपनी रुचि का मसला है कि वह क्या पढ़े और क्या न पढ़े। हां, हम इतना जरूर जानते हैं कि इन तीनों ग्रंथों को देशव्यापी मान्यता मिली हुई है इसलिए इनको पढऩे के लिए कोई आदेश देना जरूरी नहीं है। न्यायमूर्ति दवे को स्मरण होगा कि तीस साल पहले जब दूरदर्शन पर रामायण और महाभारत के सीरियल प्रसारित हुए तो उन्हें देखने के लिए मानो पूरा देश थम जाता था। मुझे याद है कि कटनी से बिलासपुर आते हुए एक रविवार के दिन उत्कल एक्सपे्रस न्यू कटनी जंक्शन के आगे इसलिए रुक गई थी क्योंकि ड्राइवर और गार्ड को महाभारत देखने जाना था।

भारत को अपनी प्राचीन सभ्यता पर बहुत गर्व है। इसमें यह नहीं भूलना चाहिए कि दुनिया में और देश भी हैं जिनकी सभ्यता हमारी जितनी या उससे भी ज्यादा पुरानी हैं। इन देशों में भी महाकाव्य और महागाथाएं रची गई हैं। प्रबुद्धजन अपने इन क्लासिक ग्रंथों का पाठ उसी तरह करते हैं जैसे कि हम अपने ग्रंथों का।  ये क्लासिक ग्रंथ इसलिए ही हैं क्योंकि इनमें गहरा जीवन दर्शन छिपा हुआ है। होमर के इलियड और ओडेसी जैसे महाकाव्य भी तीन हजार साल पुराने हैं और उन्हें अनमोल साहित्यिक कृति के रूप में पूरी दुनिया में पढ़ा जाता है। यह हमारा दुर्भाग्य है कि हमने अपने महान ग्रंथों को संकीर्ण हदों में बांध कर रख दिया है। हम इनको पढ़े भले ही न, लेकिन माथे पर पोथी धारण कर जुलूस निकालने में हमें मुक्ति का मार्ग दिखाई देता है। श्री दवे का आशय अगर यह था कि आडंबर छोड़कर इन ग्रंथों के मर्म तक पहुंचा जाए तो फिर मैं उनसे सहमत हूं!

मैं एक बार फिर यहां जस्टिस काटजू का उल्लेख करना चाहता हूं। उन्होंने नौजवानों के पढऩे योग्य किताबों की एक सूची जारी की है। श्री दवे भी इन तीन किताबों के अलावा कुछ और पठनीय ग्रंथों की सिफारिश करते तो बात बन जाती। उन्हें ऐसी सूची धार्मिक आग्रहों से अलग हटकर बनाना चाहिए थी। अगर इन तीन ग्रंथों से बच्चों का चरित्र विकास होता है तो क्या ऐसे और ग्रंथ नहीं हैं।  वे अगर रवीन्द्रनाथ ठाकुर, प्रेमचंद और सुब्रह्मण्यम भारती का नाम लेते तो कितना अच्छा होता।  वे दक्षिण के तिरूवल्लुवर, असम के शंकरदेव, कश्मीर की ललदेद, पंजाब के गुरुनानक देव, गुजरात के नरसिंह मेहता, महाराष्ट्र के ज्ञानेश्वर और तुकाराम, राजस्थान की मीरा, उत्तर भारत के कबीर और रैदास, और नजीर अकबराबादी, दिल्ली के अमीर खुसरो और मिर्जा गालिब जैसे नाम जोड़ लेते तो भारतीय संस्कृति की एक मुकम्मल तस्वीर समाज के सामने आ जाती जो कहीं से भी अधूरी और संकीर्ण न लगती।

श्री दवे अगर मानते हैं कि उनके सुझाए तीन ग्रंथ ही पर्याप्त हैं तो मैं उनके ध्यान में एक तथ्य तो यह लाना चाहता हूं कि हमारे परंपरावादी समाज में महाभारत की प्रति घर में रखने की मनाही है। ऐसा माना जाता है कि जिस घर में महाभारत की पोथी होगी वहां कलह मचेगी। देश की दीवानी अदालतों में पचास-पचास साल तक भाई-भाई के बीच जो मुकदमे चलते हैं वह कहीं इसलिए तो नहीं कि उन घरों में महाभारत विराजमान है! खैर! यह तो यूं ही मन में आ गई बात थी, लेकिन श्री दवे का ध्यान मैं बहुचर्चित अर्थशास्त्री और राजनैतिक विश्लेषक लॉर्ड मेघनाद देसाई की हाल में प्रकाशित पुस्तक ''हू रोट द श्रीमदभागवत" की ओर दिलाना चाहता हूं। इसमें विद्वान लेखक ने बड़ी बेबाकी के साथ स्थापना की है कि 'गीता आज की जनतांत्रिक व्यवस्था के अनुकूल नहीं है। हम देखना चाहेंगे कि श्री दवे श्री देसाई के तर्कों को किस तरह काटते हैं।

रामायण और महाभारत में भी जो कथाएं और अन्तर्कथाएं हैं वे भी बहुत सारे ऐसे प्रश्न खड़े करती हैं जो आधुनिक समाज की न्याय की अवधारणा से टकराते हैं। ऐसे कुछ सवाल हम बिना किसी प्राथमिकता क्रम के सामने रख रहे हैं:-
1.     युधिष्ठिर को धर्मराज की पदवी दी गई है, लेकिन क्या द्यूत क्रीड़ा धर्मसम्मत है और अगर है तो कौरव सभा में द्रौपदी को दांव पर लगाना धर्म है या अधर्म?
2.     इसी तरह युद्ध क्षेत्र में युधिष्ठिर ने द्रोणाचार्य को मारने के लिए असत्य का आश्रय क्यों लिया?
3.     द्रौपदी के चीरहरण के समय भीष्म पितामह सहित किसी भी सभासद ने विरोध क्यों नहीं किया?
4.     रामायण में शूर्पणखा के साथ परिहास कहां तक उचित था?
5.     बालीवध को कैसे न्यायोचित ठहराया जा सकता है?
6.     सीता की अग्निपरीक्षा और बाद में सीता का परित्याग आज की स्थितियों में क्या न्यायपूर्ण माना जाएगा?
7.     शंबूक वध का औचित्य कैसे सिद्ध किया जा सकता है?

ऐसे बहुत से उदाहरण ढूंढे जा सकते हैं। संभव है कि विद्वतजनों के पास इनका कोई तात्विक समाधान हो, लेकिन औसत पाठक इतने गहरे नहीं जा सकता। हम श्री दवे के कथन पर वापिस लौटते हुए कहना चाहते हैं कि उनकी मंशा तो निश्चित ही ठीक रही होगी, लेकिन बिना तानाशाह बने भी अच्छी किताब पढऩे के लिए वातावरण बनाया जा सकता है। उसके लिए सरकार को प्राथमिक शिक्षा पर वांछित ध्यान देना चाहिए और गांव-गांव में सार्वजनिक पुस्तकालय खोलना चाहिए।
देशबन्धु में 07 अगस्त 2014 को प्रकाशित