Thursday 26 June 2014

मोदी सरकार : तीस दिन



नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में बनी सरकार को एक माह पूरा हो चुका है। चुनाव के समय जो उनके सहयोगी, समर्थक और प्रशंसक थे उन्हें स्वाभाविक ही पिछले तीस दिनों में सब कुछ अच्छा हुआ है ऐसा लग रहा है। उसी तरह कांग्रेस और अन्य विरोधी दलों के लिए भी सहज है कि वे नयी सरकार की खामियां व गलतियां गिनाने में कोई कसर बाकी न रखें। जो इन दोनों पक्षों से दूर हैं वे भी अपनी-अपनी तरह से सरकार के कामकाज का विश्लेषण कर रहे हैं। यूं तो किसी भी नए निज़ाम को अपनी क्षमता प्रदर्शित करने के लिए उचित अवसर दिया जाना चाहिए। अमेरिका में जैसी कि परंपरा है कि नए राष्ट्रपति के कामकाज पर मीडिया तीन माह तक कोई विपरीत टिप्पणी करने से अमूमन परहेज करता है। इसे वहां ''हन्ड्रेड डे हनीमून'' कहा जाता है। इसी क्रम में हमारा ख्याल था कि नरेन्द्र मोदी को कम से कम सौ दिन तो दिए ही जाना चाहिए, बल्कि दो सौ दिन भी दिए जाएं तो गलत नहीं होगा क्योंकि एक तो वे प्रादेशिक राजनीति से सीधे केंद्र की राजनीति में आए हैं और दूसरे इसलिए कि तीन दशक बाद एक स्पष्ट जनादेश से सरकार बनी है। लेकिन यह तो  ''इंस्टेंट'' का जमाना है। तीस दिन तो क्या, तीन दिन भी लोग सब्र करने के लिए तैयार नहीं होते।

यही कारण है कि एक माह बीतते न बीतते नरेन्द्र मोदी सरकार के बारे में निर्णयात्मक टिप्पणियां की जाने लगी हैं। तटस्थ विवेचन किया जाए जो वैचारिक रुझान और अतीत की स्मृतियों से हटकर ही संभव है तो कहना होगा कि अभी ऐसा कुछ भी नहीं हुआ है जिसके आधार पर इस सरकार के बारे में कोई स्पष्ट राय बनायी जा सके। अब यह देखें कि इन तीस दिनों में सरकार ने क्या कदम उठाया तो एक मिली-जुली तस्वीर सामने आती है। शपथ ग्रहण में सार्क देशों के प्रमुख आए; इसकी तारीफ सबने की, किन्तु उसके बाद विदेश नीति के मोर्चे पर सब कुछ वैसा ही है जो पहले से चला आ रहा है। प्रधानमंत्री की पहली विदेश यात्रा भूटान की हुई तो वहां की संसद में उन्होंने उस अंदाज में भाषण दिया मानो चुनावी सभा में बोल रहे हो। इसमें उनसे वैसी ही चूकें हुईं जैसी हमने उनके चुनाव अभियान में देखी थीं। इसके बाद चीन जाकर उनके पार्टी प्रवक्ता सुब्रह्मण्यम स्वामी ने सार्क में द्विपक्षीय विवादों को उठाने की जो वकालत की वह आश्चर्यजनक ही कही जाएगी।

घरेलू मोर्चे पर गृहमंत्रालय ने हिन्दी का प्रयोग बढ़ाने के बारे में जो परिपत्र जारी किया उसने एक अनावश्यक विवाद को जन्म दिया। इसके पहले उनके मंत्री जनरल वी.के.सिंह, नजमा हैपतुल्ला और डॉ.जितेन्द्र सिंह ने जो बयानबाजी की उनसे भी सरकार के भावी इरादों को लेकर वृहत्तर समाज  में चिंता का वातावरण बना। अभी दो दिन पहले गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने आईपीएस में भर्ती के नियमों को शिथिल करने की वकालत की है  उसका असली उद्देश्य क्या है यह समझ नहीं आया हैं। इसी मंत्रालय में सफाई अभियान के नाम पर डेढ़ लाख पुरानी फाइलें नष्ट कर दी गई। यह खबर चौकाने वाली है। हमारे देश में दस्तावेजीकरण के प्रति अनादिकाल से अवज्ञा भाव रहा है इससे कई मामलों में भ्रम पैदा होता है। आज की व्यवस्था में यह अनुकरणीय नहीं है। सरकार ने यह नहीं बताया  कि कौन सी फाईलें नष्ट की गई हैं और इस तरह पारदर्शिता की अवहेलना हुई है।

इस दौरान एक ओर राज्यपालों को हटाने की कोशिशों पर सरकार विवाद में आयी तो दूसरी ओर गोपाल सुब्रह्मण्यम  को सुप्रीम कोर्ट का जज बनने में अड़ंगा लगाने से भी उसे आलोचना का शिकार बनना पड़ा। श्री मोदी ने चुनाव जीतने के तुरंत बाद आश्वस्त किया था कि वे राजनीति में सबको साथ लेकर चलेंगे, लेकिन उपरोक्त दोनों प्रकरणों से यहीं संकेत मिलता है कि नई सरकार पूरी तरह से ऐसी उदारता अपनाने के लिए तैयार नहीं है। एक गौरतलब बात यह है कि स्वयं प्रधानमंत्री इन दिनों आश्चर्यजनक रूप से खामोश हैं, किन्तु अनेक पार्टी प्रवक्ता पहले से कहीं ज्यादा वाचालता का परिचय दे रहे हैं। डीजल की कीमतों में वृद्धि, रेल किराए में वृद्धि और आंशिक वापसी, शक्कर की कीमतों में बढ़ोतरी जैसे आम जनता से जुड़े मसलों पर भाजपा से जो बयान आ रहे हैं वे हास्यास्पद व गैर-जिम्मेदाराना ही कहे जाएंगे। श्री मोदी ने अपने मंत्रियों को चुप रहने कहा है उसमें किसी हद तक औचित्य है, लेकिन यही बात प्रवक्ताओं पर भी लागू होना चाहिए जिनके बयानों से पार्टी की छवि बनती बिगड़ती हैं। बातें और भी बहुत हैं, लेकिन बेहतर होगा कि एक उचित अंतराल बीत जाने के बाद ही मोदी सरकार के बारे में कोई मुकम्मल राय कायम की जाए।

देशबन्धु में 27 जून 2014 को प्रकाशित


 

Wednesday 25 June 2014

सरकार बनाम सूचना मंत्रालय




 केन्द्रीय मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने मंतव्य प्रकट किया है कि वे जिस सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय को संभाल रहे हैं उसकी जरूरत नहीं है तथा उसे बंद कर देना चाहिए। मैं पिछले सप्ताह इस बारे में संक्षेप में लिख चुका हूं, लेकिन इस बारे में बुद्धिजीवियों के एक वर्ग से जो प्रतिक्रियाएं आ रही हैं उन्हें देखकर लगता है कि इस मुद्दे पर खुलकर बात की जाना चाहिए। श्री जावड़ेकर के वक्तव्य का जो लोग समर्थन कर रहे या पलटकर कहें तो जिन लोगों के विचारों से प्रभावित होकर पूर्व में मनीष तिवारी व वर्तमान में श्री जावड़ेकर ने जो रुख अपनाया है वह मुख्यत: एक संकीर्ण स्थापना पर आधारित है तथा सूचना प्रसारण मंत्रालय के क्रियाकलापों में जो विविधता एवं विस्तार है मेरी समझ में उसका संज्ञान इन लोगों ने नहीं लिया है। इसके साथ ही मंत्रालय को खत्म करने का यह विचार एक अनुदारपंथी आर्थिक सोच से विकसित हुआ है। इसका भी विश्लेषण किया जाना वांछित होगा।

देश में स्वतंत्रता के बाद से ही बुद्धिजीवियों का एक ऐसा तबका रहा है, जो मानते आया है कि सरकार को सूचना के स्रोतों अथवा माध्यमों पर किसी तरह का स्वामित्व अथवा नियंत्रण नहीं रखना चाहिए। इस वर्ग का प्रारंभ से कहना रहा है कि सरकार को ऑल इंडिया रेडियो या आकाशवाणी को मुक्त नहीं, तो स्वायत्त जरूर कर देना चाहिए। इसके बाद जब टेलीविजन का आगमन हुआ तो दूरदर्शन को लेकर भी यही राय व्यक्त की गई। इसी के अनुरूप लंबे समय तक एक स्वायत्तशासी निगम गठित कर आकाशवाणी व दूरदर्शन दोनों को उसके हवाले करने पर विचार-विमर्श चलता रहा। जिसकी परिणति अंतत: प्रसार भारती के रूप में सामने आई। इस तरह सरकार ने मीडिया स्वतंत्रता की वकालत करने वालों की बात मान तो ली लेकिन उस पर अमल आधे-अधूरे मन से किया गया तथा स्वायत्तता की जो कल्पना की गई थी वह इन दोनों अभिकरणों को ही नहीं मिली।

मीडिया के अध्येता जानते हैं कि प्रसार भारती की अवधारणा बीबीसी से प्रेरित थी। ब्रिटेन में बीबीसी को पूरी स्वायत्तता है ऐसी आमधारणा है। लेकिन क्या वह शत-प्रतिशत सरकार के नियंत्रण से बाहर है इसकी तफसील में जाने की जरूरत इन बुद्धिजीवियों ने नहीं समझी, बल्कि यह कहना अधिक सही होगा कि इस बारे में जो सच्चाई है इसे स्वीकार करने से वे कतराते रहे। यह हम जानते हैं कि ब्रिटिश सरकार के हितों की जब भी बात आई है बीबीसी ने सरकार का साथ ही दिया है। एक समय इसे हमने ब्रिटेन की भारत संबंधी नीति के संदर्भ में देखा था तो कुछ वर्ष पहले इराक के संदर्भ में। प्रसंगवश उल्लेख कर देना उचित होगा कि लगभग एक साल पहले रूपर्ट मर्डोक के मीडिया साम्राज्य के कारनामे जब खुले तो उसके बाद से ब्रिटेन में मीडिया पर अंकुश लगाने की मांग राजनीतिक दलों और सामाजिक संगठनों से नए सिरे से उठाने लगे।

अपने देश की बात करें तो उपनिवेशवाद से मुक्त हुए देशों में भारत में मीडिया को जितनी स्वतंत्रता हासिल है वह अन्य किसी भी देश को नसीब नहीं है। प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने प्रेस की स्वतंत्रता सुनिश्चित की थी और स्पष्ट कहा था कि प्रेस चाहे जितनी भी गलतियां करें जनतांत्रिक समाज में प्रेस का होना अनिवार्य है। यह बात जब कही गई थी तब भारत में प्रेस दो श्रेणियों में बंटा हुआ था। एक तरफ प्रभावशाली जूट प्रेस था जिसके मालिक बड़े-बड़े उद्योगपति थे और दूसरी तरफ स्वाधीनता संग्राम की पृष्ठभूमि से अंकुरित और विकसित वे अखबार थे जो प्रादेशिक केन्द्रों से निकल रहे थे तथा देश के नवनिर्माण में भूमिका निभाने के लिए तत्पर थे। अब तो माहौल पूरी तरह बदल चुका है। टेक्नालॉजी के विकास और पूंजी निवेश की आवश्यकता के चलते प्रेस का बड़ा हिस्सा अब कारपोरेट घरानों के नियंत्रण में है।

यहां बात सिर्फ प्रिंट मीडिया की नहीं है। रेडियो की बात करें तो फिलहाल समाचार प्रसारण का अधिकार सिर्फ आकाशवाणी के पास है, लेकिन एफएम रेडियो का निरंतर विस्तार हो रहा है एवं उसे भी समाचार प्रसारण का अधिकार शायद जल्दी ही मिल जाएगा। सामुदायिक रेडियो पर भी शायद समाचार आगे-पीछे आने लगे हैं। टेलीविजन को देखें तो वहां समाचारों पर दूरदर्शन का एकाधिकार नहीं है। देश में इस समय कोई एक हजार के आसपास चैनल चल रहे हैं जिनमें से दो सौ से अधिक समाचार चैनल हैं। इनके बाद सोशल मीडिया तो है ही जिस पर नियंत्रण लगाना शायद किसी भी सरकार में संभव नहीं है। छुटपुट कार्रवाईयां भले ही होती हों। कुल मिलाकर स्वायत्ततावादी जो चाहते थे वह हो चुका है, याने समाचार के स्रोत व माध्यम दोनों सरकारी नियंत्रण से लगभग बाहर हैं।

यह एक ठोस सच्चाई है। इसे जानने के बाद सूचना प्रसारण मंत्रालय के बने रहने से इन स्वायत्ततावादी बुद्धिजीवियों को क्यों तकलीफ होना चाहिए? मुझे लगता है कि उनकी जो अनुदारवादी सोच है वह यहां काम कर रही है। सरकार कुछ भी न करे और सब कुछ कारपोरेट क्षेत्र के भरोसे छोड़ दे, इनकी यही मंशा हमें नज़र आती है। इसे रक्षा उत्पादन में सौ प्रतिशत एफडीआई, रेलवे के निजीकरण, वाजपेयी सरकार में अरुण शौरी के मार्गदर्शन में हुए विनिवेश- इन सबसे मिलाकर देखें तो तस्वीर कुछ स्पष्ट हो जाएगी। हमारा कहना है कि शिक्षा और स्वास्थ्य, इन दो महत्वपूर्ण क्षेत्रों से सरकार ने जैसे धीरे-धीरे कर अपना पल्ला झाड़ा है उससे समग्र रूप में देश को नुकसान हो रहा है। उसी तरह सूचना प्रसारण मंत्रालय समाप्त करने से अंतत: जनतांत्रिक सरकार को नुकसान ही होगा।

पिछले तीन सालों में देश के कारपोरेट मीडिया ने कांग्रेस विरोध का कोई मौका नहीं छोड़ा। उसने वामपंथ और समाजवादियों की पूरी तरह अवहेलना ही की तथा भारतीय जनता पार्टी विशेषकर नरेन्द्र मोदी के सपने को साकार करने में भरपूर योगदान किया। इससे वर्तमान सरकार को लग सकता है कि जब मीडिया पूरी तरह से उसके साथ है तो फिर मंत्रालय को खत्म कर देने में क्या हर्ज है! किंतु अगर सरकार ऐसा करती है तो वह अपने हाथ काटने जैसा ही काम करेगी। उसे यह समझना होगा कि कारपोरेट मीडिया वही करेगा जो उसके मालिक चाहेंगे। ऐसी स्थिति आ सकती है जब चुनी हुई सरकार और कारपोरेट घरानों के बीच टकराव पैदा हो। एक जनतांत्रिक सरकार पूंजीपतियों की गुलाम बनकर तो नहीं रह सकती। ऐसी स्थिति में सरकार के पास अपनी बात कहने के लिए कौन सा मंच होगा?

हम इस प्रश्न पर किसी पार्टी के आईने से नहीं, बल्कि व्यापक दृष्टिकोण से देखने की कोशिश कर रहे हैं। यह हमें पता है कि अनेक विकासशील देशों में सरकारी रेडियो ने साक्षरता व शिक्षा के प्रसार में महती भूमिका निभाई है। प्रोफेसर यशपाल के नेतृत्व में ''साइट" प्रोग्राम के अंतर्गत दूरदर्शन का उपयोग लोक शिक्षण के लिए प्रारंभ किया गया था जिसका सबसे पहला लाभ गुजरात में अमूल के दुग्ध उत्पादक किसानों को मिला। आज भी आकाशवाणी और दूरदर्शन ही हैं जिनमें देश की आवश्यकता के अनुसार लोकहित के प्रश्नों पर चर्चाएं होती हैं, वार्ताएं होती हैं, विज्ञापन दिखाए जाते हैं। एक तरफ व्यवसायिक टीवी पर डांस इंडिया डांस जैसे फूहड़ कार्यक्रमों की बौछार है; दूसरी तरफ दूरदर्शन में शास्त्रीय संगीत, शास्त्रीय नृत्य, लोककलाओं की छटाएं, पुस्तक चर्चा, स्वास्थ्य चर्चा। कमोबेश लोकसभा व राज्यसभा टीवी का एजेंडा भी यही है। इसके आधार पर हमारी अपेक्षा यही होगी कि सरकार आर्थिक अनुदारपंथी कथित स्वायत्ततावादियों के झांसे में न आए।
देशबन्धु में 27 जून 2014 को प्रकाशित

Thursday 19 June 2014

आई बी और आई बी





  आई बी याने इंटेलिजेंस ब्यूरो और आई बी याने मिनिस्ट्री ऑफ इंफर्मेशन एण्ड ब्राडकॉस्टिंग अर्थात् सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय। इन दोनों के बीच कोई आपसी संबंध नहीं है, लेकिन बीते सप्ताह भारत सरकार के ये दोनों अभिकरण अलग-अलग कारणों से चर्चा में आए इसलिए इनकी चर्चा करना गैरमुनासिब न होगा। कुछ दिन पहले आई बी याने भारत के गुप्तचर ब्यूरो की रिपोर्ट प्रकाश में आई। इसमें भारत में काम करने वाले अनेक स्वैच्छिक अथवा गैर-सरकारी संगठनों (एनजीओ) पर आरोप लगाए गए कि वे आर्थिक मोर्चे पर देशविरोधी काम कर रहे हैं और इसके पीछे विदेशों से मिली इमदाद का हाथ है। इसमें इन संस्थाओं पर मलेशिया आदि से आयातित पॉम ऑयल पर रोक लगाने की मांग, परमाणु ऊर्जा संयंत्रों का विरोध, बड़े बांधों का विरोध- ऐसे बहुत से कारण गिनाए गए हैं। उल्लेखनीय तथ्य यह है कि आई बी की यह रिपोर्ट अधिकारिक तौर पर जारी न होकर लीक की गई है। फिलहाल इस मामले में आई बी चुप है लेकिन एनजीओ और मोदी सरकार के घोषित-अघोषित प्रवक्ताओं के बीच वाक्युद्ध चल रहा है।

भारत में विदेशी सहायता से संचालित हो रहे एनजीओ की गतिविधियों पर पहले भी प्रश्न उठते रहे हैं। इनमें विदेशी संगठन भी हैं और अंतरराष्ट्रीय संगठनों की भारत में चल रही शाखाएं भी। एमनेस्टी इंटरनेशनल जैसी संस्था जो कि मानवाधिकारों की रक्षा के लिए काम करती है उस पर इंदिरा गांधी के समय में भी आरोप लगते थे। अभी भी इन्टरनेशनल रेडक्रॉस व मेडिकल सान्स फ्रंटियर्स जैसे अंतरराष्ट्रीय संगठनों की गतिविधियों पर सरकारी हल्कों में शंकाएं उठाई जाती हैं। इस बारे में एक सीधा सवाल यह उठता है कि भारत या किसी भी देश में सामाजिक कार्य करने के लिए विदेशी संस्था अथवा विदेशी सहायता की आवश्यकता ही क्या है।  जिन देशों से आर्थिक सहायता आती है वहां भी हाल के वर्षों में यह पूछा जाने लगा है कि भारत तो अब विकसित देशों की श्रेणी में आ गया है उसे दी जाने वाली सहायता बंद क्यों न की जाए? यूं यह एक पेचीदा मुद्दा है तथा इससे अनेक सैद्धांतिक बिन्दु जुड़े हैं, लेकिन उपरोक्त सवाल का एक जवाब तो भारत में कार्यरत एनजीओ ही देते हैं। उनका कहना है कि जब विदेशों से धार्मिक प्रयोजनों व व्यापारिक कारणों से धन आ सकता है तो सामाजिक कार्यों के लिए क्यों नहीं? वे प्रश्न उठाते हैं कि वल्र्ड बैंक, एडीबी, आईएमएफ जैसे संगठन राष्ट्रों को सहायता देते समय तमाम शर्तें लादते हैं और उनको स्वीकार किया जाता है तो समाजसेवा अथवा सामाजिक आंदोलनों के लिए समान विचारों के विदेशी मित्रों से छोटी-मोटी धनराशि प्राप्त होती है तो उसका विरोध क्यों? वे जोर देकर यह भी कहते हैं कि विदेशों से सहायता मिलना सीधे-सीधे नहीं हो जाता। इसके लिए एफसीआरए जैसे कानून हैं तथा गृह मंत्रालय की अनुमति, छानबीन व निगरानी के बाद ही कोई संस्था विदेशों से सहायता स्वीकार कर सकती है। ऐसे में कोई देशविरोधी कार्य करने की आशंका हो ही नहीं सकती।

आईबी से यह रिपोर्ट क्यों लीक हुई इसे लेकर तरह-तरह के अनुमान लगाए जा रहे हैं। ऐसा बहुत लोगों का सोचना है कि मोदी सरकार आने के बाद जो कारपोरेट घराने ताकतवर हो गए हैं वे अब अपना विरोध करने वालों पर इस बहाने निशाना साध रहे हैं। जैसे एक घराना है जो कई सालों से पॉम ऑयल का आयात कर रहा है। एनजीओ पर्यावरण संबंधी कारणों से उसका विरोध करते आए हैं। अब पर्यावरण कोई भारत अकेले का मुद्दा तो नहीं है। इस पर जो भी आंदोलन होगा उसका वैश्विक स्तर पर होना स्वाभाविक है। इसी तरह के और भी बहुत से मुद्दे हैं जहां सामाजिक संगठन और कारपोरेट घराना एक-दूसरे से मुठभेड़ें कर चुके हैं। इस पूरे संदर्भ में मुझे एक प्रसंग ध्यान आता है- आज सीएनडीपी नामक जनांदोलन पर परमाणु संयंत्रों के विरोध का आरोप लग रहा है। उसके द्वारा संचालित मुहिम में स्वयं वी.के. सिंह शिरकत कर चुके हैं जो आज इस सरकार में मंत्री हैं। यही नहीं, सुप्रीम कोर्ट में जनरल सिंह के पक्ष में जनहित याचिका दायर करने वाले एडमिरल एल. रामदास एक सम्मानित सेनाधिकारी रहे हैं और संयोग है कि उनकी पत्नी ललिता रामदास ग्रीनपीस की अध्यक्ष थीं। यह जानना दिलचस्प होगा कि जनरल सिंह इस बारे में क्या कहते हैं!

एक आई बी की चर्चा हम यहां स्थगित करते हैं। इस पर आगे फिर कभी दुबारा बातचीत का मौका आएगा। दूसरे आई बी याने सूचना व प्रसारण मंत्रालय की बात कुछ देर कर लें। इस विभाग के मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने पिछले दिनों कहा कि सरकार में सूचना व प्रसारण मंत्रालय जैसे विभाग की कोई आवश्यकता नहीं है और वे इसे समेट लेने पर गंभीरतापूर्वक विचार कर रहे हैं। यह आश्चर्य की बात है कि सद्य:निवृत्त और नवनियुक्त विभागीय मंत्री दोनों की सोच इस बारे में एक जैसी है। पाठकों को शायद याद हो कि चुनाव से मुंह मोडऩे वाले कांग्रेस के सूचना प्रसारण मंत्री मनीष तिवारी ने चुनाव अभियान के बीच यह कहा था कि इस विभाग की अब कोई उपादेयता नहीं है और इसे समाप्त कर देना चाहिए। सबसे पहले तो हमें इसी पर आश्चर्य है कि कांग्रेस व भाजपा दोनों की इस मुद्दे पर एक समान राय क्यों है? फिर सरकार में ऐसे बहुत विभाग हैं जिनके बिना शायद काम चल सकता है किन्तु मंत्रीद्वय की ऐसी कृपा सूचना प्रसारण मंत्रालय पर ही क्यों है? मजे की बात है कि दोनों ने इसके कारणों का कोई खुलासा अब तक नहीं किया है।

विश्व के अन्य जनतांत्रिक देशों में सूचना प्रसारण के लिए अलग से कोई मंत्रालय है या नहीं इसकी जानकारी हासिल करने की कोई कोशिश हमने नहीं की है लेकिन इतना तो तय है कि कोई भी सरकार हो उसे अपने कामकाज के बारे में जनता को अवगत कराने के लिए एक तंत्र तो विकसित करना ही होता है। अमेरिका में जहां राष्ट्रपति शासन प्रणाली है वहां व्हाइट हाउस का प्रेस अधिकारी दिन में कम से कम एक बार तो मीडिया से बात करता ही है। जो भी हो, अन्य देशों से भारत की तुलना नहीं करना चाहिए। हमारी परिस्थितियां भिन्न हैं और परंपराएं अलग ढंग से विकसित हुई हैं। मैं तो व्यक्तिगत तौर पर प्रसार भारती जैसे किसी स्वायत्त संस्था के भी खिलाफ हूं। एक तरफ जब सूचना के उपकरणों पर पूंजी का शिकंजा मजबूत होते जा रहा है तब सरकार को अपनी बात कहना है तो उसके लिए मंच कहां है? आज यदि आकाशवाणी और दूरदर्शन के समाचार बुलेटिन न हों तो हमें पता भी न चले कि देश-दुनिया में क्या हो रहा है। समाचार चैनलों की झूठी और नकली बहसों में ही पूरा समय बीत जाए।

इससे एक अनुमान लगाया जा सकता है कि कांग्रेस हो या भाजपा, राजनेताओं की वर्तमान पीढ़ी देश के सूचनातंत्र पर कारपोरेट को कब्जा करने के लिए मैदान खुला छोड़ देना चाहती हैै। अगर मुझे सही याद है तो श्री जावड़ेकर ने सोशल मीडिया का अधिकतम लाभ उठाने की बात कही है। हमारा कहना है कि सोशल मीडिया फिलहाल एक संदिग्ध माध्यम है और उस पर पूरी तरह आश्रित होना देश के लिए नुकसानदायक हो सकता है। इस पर कितना फर्जीवाड़ा हुआ है उसके उदाहरण हमारे सामने है। इसके चलते लोगों के व्यक्तिगत जीवन नष्ट हो गए हैं यह भी सबको पता है। बात यह है कि सोशल मीडिया में जिम्मेदारी तय करना एक कठिन काम है। खैर! यह तो तस्वीर का एक पहलू है। सूचना प्रसारण मंत्रालय के जिम्मे बहुत सारे काम हैं, जिनमें आकाशवाणी, दूरदर्शन, समाचारपत्रों के पंजीयक, डीएवीपी, फिल्म निदेशालय आदि कितने ही उपक्रम शामिल हैं। इन सबके जो अपने-अपने काम है उनमें से हरेक महत्वपूर्ण हैं। हमारे भारतीय सूचना सेवा  के अधिकारी विभिन्न मंत्रालयों से सम्बद्ध होते हैं और अपने-अपने विभाग की नीतियों व कार्यक्रमों के बारे में जनता तक सूचनाएं पहुंचाते हैं। कल अगर पत्र सूचना कार्यालय न रहे तो यह काम कौन करेगा? सरकार द्वारा लोकहित में जो योजनाएं बनाई जाती हैं उनका प्रचार-प्रसार डीएवीपी के जिम्मे होता है। बात चाहे उपभोक्ताओं को जगाने की हो, चाहे आयकरदाताओं को चेताने की, चाहे लड़कियों की शिक्षा की या फिर शौचालयों की जरूरतों की या उन्नत बीज अथवा फसल बीमा की, कल इन अभियानों का क्या होगा?

श्री जावड़ेकर से हम अनुरोध करेंगे कि वे जल्दबाजी में कोई निर्णय न लें। इस विषय से जुड़े सारे पहलुओं का अध्ययन कर लें और ऐसी स्थिति न आने दें जिसमें चुनी हुई सरकार को अपनी बात जनता तक पहुंचाने के लिए कारपोरेट मीडिया का मोहताज होना पड़े।
देशबन्धु में 19 जून 2014 को प्रकाशित

Monday 16 June 2014

शेक्सपियर


 नई सदी के इन चौदह सालों में हमने अपने बहुत से वरेण्य साहित्यकारों की जन्मशतियां मनायी हैं तथा कवि गुरु रविन्द्रनाथ ठाकुर की सार्द्धशती भी। मुझे ध्यान आता है कि 1999 में रूसी महाकवि अलेक्सांद्र पुश्किन की दो सौंवी जयंती मनायी गयी थी, उसके कुछ ही साल बाद जूल वर्न की तथा इसी के आसपास महान स्पेनी लेखक सर्वांतीस की चार सौवीं जयंती। इस साल एक बड़ा मौका है जब सारी दुनिया महान लेखक विलियम शेक्सपियर की चार सौ पचासवीं जयंती मना रही है। यूं 450वीं जयंती सुनना अटपटा लग सकता है, लेकिन हम जैसे लोगों के लिए जो 500वीं जयंती तक नहीं रहेंगे यह एक समयोचित अवसर है। विश्व की तमाम भाषाओं में शेक्सपियर से महान कोई दूसरा लेखक हुआ है या नहीं, इस पर बहस की गुंजाइश हो सकती है, किन्तु उसमें उलझने की कोई तुक नहीं है। शेक्सपियर ने जो लिखा वह लिखे जाने के चार सौ साल बाद भी उतना ही प्रासंगिक है उतनी ही रुचि से पढ़ा जाता है, उतनी ही गंभीरता से उस पर शोध और चर्चाएं होती हैं, उनके नाटकों का बार-बार नए-नए रूप में मंचन होता है, विश्व की कोई भाषा ऐसी नहीं है, जिसमें इन रचनाओं के अनुवाद न हुए हों, इतना जानना ही हमारे लिए काफी है। क्लासिक की परिभाषा भला और क्या है?

यूं तो रामायण और महाभारत, इलियड और ओडेसी जैसे महान ग्रंथ ढाई-तीन हजार साल पहले याने शेक्सपियर के बहुत पहले लिखे गए थे तथा उनकी समयसिद्धता आज भी बनी हुई है, किन्तु शेक्सपियर के साहित्य में सामाजिक जीवन की गहरी पड़ताल, मानवीय मनोभावों का सूक्ष्म विश्लेषण, कल्पना के अनेकानेक रंग और कलम की जो छटाएं हैं, वे अद्भुत और अनुपम हैं। हम इस बात पर गौर कर सकते हैं कि गोस्वामी तुलसीदास शेक्सपियर के लगभग समकालीन थे तथा रामचरित मानस एक ऐसा ग्रंथ है, जो क्लासिक रचना की तमाम कसौटियों पर खरा उतरता है, लेकिन यहां भी किसी तरह की तुलना करने की आवश्यकता नहीं है। तुलसी के मानस की भावभूमि अलग थी एवं कालांतर में उसे एक श्रेष्ठ साहित्यिक कृति के बजाय धर्मग्रंथ की श्रेणी में जिस तरह से बांध दिया गया उसके चलते मानस का जो विस्तार-प्रसार वांछनीय था उसमें कहीं न कहीं कमी रह गयी, ऐसा मुझे अनुभव होता है।

मैंने पहले भी लिखा है कि एक बार परसाई जी ने मुझसे कहा था कि अंग्रेजी, हिन्दी और उर्दू में क्रमश: शेक्सपियर, तुलसीदास और मिर्जा गालिब ये तीनों महान लेखक हैं, क्योंकि इनकी रचनाओं में जैसा जीवन विवेक है वैसा अन्यत्र नहीं है। परसाई जी की यह बात मुझे समय-समय पर याद आ जाती है। आज जबकि दुनिया बहुत बदल चुकी है, फिर भी ऐसे मौके बारंबार हमारे सामने आते हैं जब इन तीनों लेखकों की कोई न कोई उक्ति सहसा मानस पटल पर कौंध जाती है कि अरे, ऐसा तो उन्होंने कहा था। मसलन जब बाजारवाद की बात चलती है जो कि आजकल अक्सर होती है, तो गालिब का शेर याद आ ही जाता है- ''बाजार से निकला हूं खरीदार नहीं हूं" इसी तरह कभी तुलसी, तो कभी शेक्सपियर हमारी विचारयात्रा में साथ आ जाते हैं बल्कि यह कहना सही होगा कि वे हरदम हमारे संग चलते हैं।

क्लासिक साहित्य में सबसे बड़ी खूबी यही है कि वह देशकाल की सीमाओं का अतिक्रमण करता है और हर युग में हर पीढ़ी के पाठक के साथ उसका एक अटूट रिश्ता बना रहता है। शेक्सपियर ने कोई तीन दर्जन नाटक लिखे और डेढ़ सौ से ज्यादा सॉनेट। उनमें से कुछ रचनाएं ऐसी हैं जिनका जिक्र ज्यादा नहीं होता, लेकिन अधिकतर रचनाएं तो पीढ़ी-दर-पीढ़ी हमारे साथ बनी हुई हैं। इन्हें हम विश्व समाज की सांस्कृतिक धरोहर का नाम दे सकते हैं लेकिन मुझे लगता है कि इन रचनाओं में वैश्विक संस्कृति के जीन विद्यमान हैं, जिनका क्षरण कभी नहीं होगा। अगर ऐसा कहा जाए तो गलत नहीं होगा कि आज के मनुष्य के पास जो सांस्कृतिक वैभव है, उसमें शेक्सपियर की रचनाओं का महती योगदान है।

मैं यह बात इस आधार पर कर रहा हूं कि शेक्सपियर ने भले ही अपनी मातृभाषा याने अंग्रेजी में लिखा हो, लेकिन दुनिया का ऐसा कोई कोना नहीं है जहां उनकी रचनाएं न पढ़ी जाती हों। अन्य भाषाओं में भी जो बड़े लेखक परवर्ती काल में हुए हैं उन्होंने भी शेक्सपियर को पढ़ा तथा उनसे प्रभावित हुए। शेक्सपियर का एक नाटक है ''मिडसमर नाइट्स ड्रीम। इसका छत्तीसगढ़ी रूपांतर हबीब तनवीर ने ''कामदेव का अपना बसंत ऋतु का आगमन" शीर्षक से किया तथा छत्तीसगढ़ के विभिन्न शहरों में इसका मंचन हुआ। यदि एक नाटक छत्तीसगढ़ तक उसकी जनपदीय भाषा में पहुंचा तो कल्पना की जा सकती है कि अन्यान्य देशों-प्रदेशों में भी शेक्सपियर किसी न किसी रूप में पहुंचे ही होंगे।

शेक्सपियर की रचनाओं को जो लोकप्रियता मिली उसका एक बड़ा और स्पष्ट कारण यह भी है कि उन्होंने नाटक लिखे और वे भी उस देश में जहां रंगमंच की पुष्ट परंपरा पहले से चली आ रही थी। हम जानते हैं कि तुलसीदास के रामचरित मानस को जन-जन तक पहुंचाने के लिए एक नए रंगमंच याने रामलीला का आविष्कार करने की आवश्यकता आन पड़ी थी। शेक्सपियर के सामने शायद इस तरह की कोई समस्या नहीं थी। उनके समय में इंग्लैंड में छपाई मशीन भी आ चुकी थी व किताबें छपने लगी थीं। इसका भी लाभ उन्हें मिला होगा। इसी सिलसिले में एक और तथ्य उल्लेखनीय है कि शेक्सपियर स्वयं अभिनय भी करते थे। इसके बावजूद यह मानना ही होगा कि नाटक तो उनके बाद भी बहुतों ने लिखे, किंतु शेक्सपियर को जो जनमान्यता मिली वह उनकी लेखनी की आंतरिक शक्ति के कारण।

मुझे यह तथ्य भी रेखांकित करना चाहिए कि इंग्लैंड में अध्ययन- मनन की जो गंभीर परिपाटी है वह भी शेक्सपियर के साहित्य को मान्यता मिलने में सहायक सिद्ध हुई होगी। आक्सफोर्ड और कैम्ब्रिज जैसे लगभग एक हजार साल पुराने विश्वविद्यालय तो वहां हैं ही, जहां साहित्य हो या अन्य कोई विषय उनका शोध व अध्ययन हमारे विश्वविद्यालय की तरह चलताऊ तरीके से नहीं किया जाता। इनके अलावा वहां शेक्सपियर सोसायटी जैसी संस्थाएं भी हैं जो इस महान लेखक की रचनाओं पर विधिवत अध्ययन करती हैं। शेक्सपियर के  साहित्य पर केंद्रित पत्रिकाएं भी वहां प्रकाशित होती हैं। मुझे धुंधली सी याद है कि सन् 1961-62 में जबलपुर के मेरे कॉलेज में 'शेक्सपियर जर्नल" या ऐसी ही नाम वाली कोई त्रैमासिक पत्रिका आया करती थी। जब इस तरह से कोई परंपरा बनती है तो उसका लाभ निश्चित रूप से मिलना ही है। यद्यपि विषयांतर हो जाएगा, फिर भी हमारे लिए विचारणीय है कि भारत में जो मानस भवन, तुलसी शोधपीठ, तुलसीदल जैसी पत्रिकाएं आदि सरंजाम हुए उनकी परिणिति किस रूप में सामने आयी !

मैं जब शेक्सपियर के रचे विपुल साहित्य को देखता हूं तो उनके नाटकों की कथावस्तु से अधिक जो बात मुझे प्रभावित करती है वह है उनके पात्रों के द्वारा बोले गए संवाद, जो समय बीतने के साथ-साथ मुहावरों में बदलते चले गए हैं। इन मुहावरों में जिस तरह से जीवन सत्य उद्घाटित हुए हैं वह विस्मयकारी है। लेखकों और पत्रकारों ने तो इन मुहावरों का इस्तेमाल बेधड़क किया ही है, प्रबुद्ध समाज में पत्राचार या वार्तालाप में भी ये मुहावरे बार-बार काम आते हैं। अंग्रेजी में ही नहीं, अनेकानेक मुहावरे हिन्दी सहित अन्य भाषाओं में भी खूब प्रचलित हो चुके हैं। मिसाल के तौर पर ''प्यार अंधा होता है" यह शेक्सपियर का ही संवाद है। ''नाम में क्या रखा है, गुलाब को किसी भी नाम से पुकारो वह गुलाब ही रहेगा" यह भी शेक्सपियर ने ही कहा था। ''हर चीज जो चमकती है सोना नहीं होती", ''जो सिर मुकुट धारण करता है उसे चैन नसीब नहीं है" जैसे मुहावरे भी शेक्सपियर के नाटकों से ही हमें मिले।

उनकी एक प्रसिद्ध उक्ति है- ''महानता से डरने की जरूरत नहीं है, कुछ लोग जन्मना महान होते हैं, कुछ महानता हासिल करते हैं और कुछ पर महानता थोप दी जाती है"- कितनी सटीक और खरी है यह टिप्पणी। अभी 16 वीं लोकसभा के चुनावों के दौरान इसका प्रयोग व्यक्ति विशेष के संदर्भ में किया गया। शेक्सपियर ने ही कहा था कि- ''कायर मौत आने के पहले कई बार मरते हैं, लेकिन वीर मृत्यु का वरण एक बार ही करते हैं"।  इसी से मिलता जुलता एक और मुहावरा है- कि एक मनुष्य एक बार ही मरता है। आप सहमत होंगे कि इन छोटे-छोटे वाक्यों में किस तरह से कूट-कूटकर अर्थ भरे हैं। कुछ और मुहावरों का आस्वाद हम ले सकते हैं जैसे- ''यह विश्व एक रंगमंच है तथा सारे स्त्री एवं पुरुष महज अभिनेता हैं।" इसे पढ़कर जयशंकर प्रसाद के स्कंदगुप्त का संवाद ध्यान आ जाता है- ''हम सब नियति नटी के हाथों में खेल रहे कंदुक की भांति हैं।" खैर, शेक्सपियर ने ही कहा था- ''ऐसा नहीं कि मैं सीज़र को कम प्यार करता था, किन्तु मैं रोम को ज्यादा प्यार करता हूं।" जूलियस सीज़र का यह संवाद राजनीतिक धरातल पर कितना सटीक बैठता है, कहने की आवश्यकता नहीं। इसी नाटक में मित्र द्वारा किए गए विश्वासघात पर दो शब्दों का यह अमर संवाद भी है- ''ब्रूटस तुम भी"- इसे सुनकर भला विभीषण की याद क्यों न आए।

मैं जब इन उक्तियों को याद करता हूं तो समझ में आता है कि क्लासिक साहित्य का अध्ययन अपने जीवन को समृद्ध बनाने के लिए कितना आवश्यक है। मैं उन लोगों के बारे में सोचता हूं जो, कभी डेल कार्नेगी और स्वेट मार्टेन की किताबें पढ़ते हैं, कभी शिव खेड़ा जैसे कथित गुरुओं के व्याख्यान सुनने जाते हैं, कभी चेतन भगत के दोयम दर्जे के उपन्यासों में सिर गड़ाते हैं तो कभी अखबारों में छपे अमर वचनों की कतरनें सहेज कर रखते हैं। इन सबको पढऩे से कुछ नहीं होना जाना। आज शेक्सपियर पर बात चली है तो कहूंगा कि उनकी किताबें पढि़ए, लेकिन उनके अलावा अंग्रेजी, हिन्दी और दीगर भाषाओं में जो क्लासिक साहित्य रचा गया है उसका साक्षात्कार कीजिए। एक जो पुरानी कहावत है कि ''पुस्तकें मनुष्य की सच्ची दोस्त हैं" वह इन महान कृतियों पर ही लागू होती है, फुटपाथी साहित्य पर नहीं।
प्रिय पाठक मेरा आपसे अनुरोध है कि आप अगर थोड़ा वक्त निकाल सकें तो  निकालिए। शेक्सपियर की रचनाएं हिन्दी में भी उपलब्ध हैं। बच्चन जी जैसे बड़े लेखकों ने उनके अनुवाद किए हैं। आप जितना संभव हो उतना पढि़ए। इन रचनाओं का आनंद लीजिए और अपने जीवन को थोड़ा और सुंदर बनाइए।
अक्षर पर्व जून 2014 में प्रकाशित

Wednesday 11 June 2014

मोदी, हिन्दी और संस्कृत




  इस स्तंभ के एक नियमित पाठक अंकुर पाण्डेय ने अपेक्षा की है कि मैं प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा हिन्दी का प्रयोग करने की पहल के बारे में लिखूं। अपने युवा पाठक की भावना का सम्मान करते हुए मैं इस बारे में विचार रख रहा हूं, यद्यपि इस बात की पूरी आशंका है कि अंकुर मेरे विचारों से सहमत नहीं होंगे। आज की चर्चा में मैं नए प्रधानमंत्री द्वारा हिन्दी प्रयोग को प्राथमिकता दिए जाने के अलावा कुछेक नवनिर्वाचित सदस्यों द्वारा संस्कृत में शपथ लेने तथा इन दोनों प्रसंगों पर आई कुछ टिप्पणियों का भी जिक्र करना चाहूंगा। मुझे सबसे पहले तो यही कहना है कि न तो हिन्दी में वार्तालाप करना गलत है और न संस्कृत में शपथ लेना। हम कह सकते हैं कि इस तरह हमारी दो देशज भाषाओं के प्रति प्रतीकात्मक ही सही सम्मान व्यक्त किया गया है। किन्तु सिर्फ इतने से खुश होना काफी नहीं है। असली सवाल तो यह है कि संस्कृत, हिन्दी या अन्य भारतीय भाषाओं के प्रति क्या कोई दीर्घकालीन, ठोस और कारगर नीति आने वाले दिनों में बनाई जाएगी?

देश में अगर कोई नई भाषा नीति बनना है या चली आ रही नीति अथवा परंपरा में कोई बदलाव लाना है तो उससे जुड़े व्यवहारिक पहलुओं को देखना लाजिमी होगा। इस सिलसिले में हमें संविधान सभा के दस्तावेजों का तथा उसके बाद के घटनाचक्र का सम्यक अध्ययन करने की आवश्यकता पड़ेगी। अगर इसके और बहुत पहले जाकर इतिहास के पन्ने खोलकर देखें तो मसला कुछ और स्पष्ट हो सकेगा। यह तो स्पष्ट है कि भाषा किसी भी संस्कृति का अविच्छिन्न अंग होती है किन्तु इसके साथ-साथ यह भी उतना ही स्पष्ट है कि संस्कृति के अन्य उपकरणों की तरह भाषा में भी समयानुसार बदलाव आते हैं। इन बदलावों की उपेक्षा कर कोई भी समाज सुदूर अतीत में लौटकर नहीं जी सकता। एक समय संस्कृत इस देश के एक बड़े हिस्से और समाज के एक प्रमुख वर्ग की भाषा थी, किन्तु वह भी परिवर्तनों के दौर से गुजरी और हम जानते हैं कि प्राचीन संस्कृत से आज की संस्कृत से कितनी अधिक भिन्न है।

भाषाविज्ञान के विद्यार्थियों को पढ़ाया जाता है कि जो वैदिक संस्कृत थी आगे चलकर उसका स्थान लौकिक संस्कृत ने ले लिया, फिर उसकी जगह पर प्राकृत आ गई तथा इस तरह धीरे-धीरे विभिन्न कारणों से संस्कृत का प्रचलन कम होते चला गया। यह सच है कि संस्कृत में अनुपम साहित्य रचना हुई, लेकिन क्या यह भी उतना सच नहीं है कि अवधी व ब्रजभाषा में ऐसे क्लासिक ग्रंथ रचे गए जिनकी लोकप्रियता पांच सौ साल बाद भी बरकरार है, भले ही विद्वान इन दोनों को भाषा का दर्जा न देकर हिन्दी की बोली के रूप में शुमार करते हैं और यह जो हिन्दी है इसका प्रारंभिक रूप तो हमें सात सौ साल पहले अमीर खुसरो की रचनाओं में मिलता है। अब इन सारे तथ्यों को जोड़कर देखें तो समझ में आता है कि अन्य समाजों की तरह हमारे यहां भी भाषा निरंतर परिवर्तित और विकसित होते गई है। इसके पीछे आर्थिक, सामाजिक, व राजनैतिक ये सभी कारण रहे। इस तरह हमें एक ऐसी भाषा मिली जिसका बीज भले ही संस्कृत में रहा हो, लेकिन जिसे पुष्ट करने का काम फारसी व सीमित रूप में अरबी, तुर्की व अन्य ज़बानों  ने भी किया। इस खड़ी बोली हिन्दी की वकालत महात्मा गांधी व जवाहरलाल नेहरू ने की थी और वे इसे हिन्दुस्तानी कहना पसंद करते थे, जिससे एक समग्रता का बोध होता था।

हमारी संविधान सभा में हिन्दी को राजभाषा बनाने का प्रस्ताव सिर्फ एक वोट के अंतर से पारित हुआ था। विशेषकर दक्षिण भारत के राज्य हिन्दी के पक्ष में नहीं थे। उनका भय था कि बहुसंख्यकों की भाषा का वर्चस्व हो जाने से भाषायी अल्पसंख्यकों के हितों पर कुठाराघात होगा। इस भय की जड़ें गहरी थीं इसीलिए जब डॉ. राममनोहर लोहिया ने अंग्रेजी हटाओ आंदोलन शुरू किया तो दक्षिण भारत में उसके विरुद्ध हिंसक आंदोलन हुए। यही कारण था कि भारत सरकार ने एक तरफ हिन्दी का प्रचलन और स्वीकार्यता बढ़ाने के लिए अनेक कार्यक्रम हाथ में लिए; तो दूसरी तरफ गैर-हिन्दी भाषियों की भावनाएं आहत न हों, इस बात का भी बराबर ख्याल रखा।

आज हम देख सकते हैं कि हिन्दी धीरे-धीरे सब तरफ फैलती जा रही है। जिस तमिलनाडु में हिन्दी का उग्र विरोध होता था वहां भी लोग अपने आप हिन्दी सीख रहे हैं। अरुणाचल और मिजोरम में भी हिन्दी ही बोली जाती है। इस तथ्य पर भी गौर कीजिए कि देश में जहां उर्दू का चलन है वह भी हिन्दी से कहां अलग है। दरअसल भाषा का प्रश्न रोजगार के साथ गहराई से जुड़ा हुआ है। किसी जमाने में फारसी जानने से नौकरी मिलती थी तो लोग फारसी सीखने लगे। अंग्रेजी भी लोगों ने इसीलिए सीखना शुरू किया और आज भी अंग्रेजी पर इसलिए बल दिया जा रहा है कि उससे देश के भीतर नहीं बल्कि अमेरिका तक जाकर नौकरी मिलने की संभावना बढ़ती है और जहां हिन्दी के कारण रोजगार मिलता हो वहां लोग-बाग हिन्दी सीख ही लेते हैं। कन्याकुमारी हो या कश्मीर, गुवाहाटी हो या गोवा- पंडे, पुजारी, टैक्सी ड्राइवर, टूरिस्ट गाइड सब तो हिन्दी बोलते हैं। आशय यह कि भाषा कोई भी हो उसके पनपने के लिए विशेष वातावरण की जरूरत पड़ती है। जेठ के महीने में पैंतालीस डिग्री तापमान में लगाए गए बीज के अंकुरण की संभावना लगभग शून्य ही होगी।

मेरा कहना है कि जो लोग संस्कृत पर मुग्ध हैं अथवा जो हिन्दी का वर्चस्व चाहते हैं उन्हें सांकेतिकता से आगे बढ़कर कुछ बिन्दुओं पर विचार करना चाहिए। पहले संस्कृत की ही बात लें। मैंने जैसा कि ऊपर कहा- संस्कृत में अनुपम साहित्य रचना हुई, लेकिन उससे कितने लोग परिचित हैं। क्या यह सच नहीं है कि संस्कृत को हमने एक संकीर्ण धार्मिक दायरे में बांधकर रख दिया है? हम समझते हैं कि किसी भी अनुष्ठान में संस्कृत में मांगलिक श्लोक पढऩे से संस्कृत का पुर्नरुद्धार हो जाएगा, लेकिन इसके बरक्स यह देखें कि हमारे देश में संस्कृत की पढ़ाई का क्या हाल है! जो विद्यार्थी संस्कृत विषय लेते हैं वे हिन्दी में प्रश्न पत्र हल करने की मांग करते हैं याने हमारे शिक्षातंत्र में संस्कृत पढ़ाने की कोई मुकम्मल व्यवस्था नहीं है। गिनती के दस श्लोक रट लेने को ही तो संस्कृत ज्ञान नहीं माना जा सकता। यदि सुषमा स्वराज, डॉ. हर्षवर्धन और हमारे पत्रकार बंधु तरुण विजय की संस्कृत के प्रति ऐसी निष्ठा है तो उन्हें स्मृति ईरानी से कहकर सबसे पहले संस्कृत की पढ़ाई सुचारु हो सके इसका प्रबंध करना चाहिए।

यह अच्छी बात है कि नरेंद्र मोदी ने सार्क देशों के मेहमानों के साथ हिन्दी में बात की। वे आगे भी यह सिलसिला जारी रखना चाहते हैं। इसमें कोई अड़चन नहीं है। लगभग हर देश में दुभाषियों का इस्तेमाल करके भाषा की बाधा को पार कर लिया जाता है, किंतु इस तथ्य का उल्लेख जरूरी होगा कि पंडित नेहरू से लेकर डॉ. मनमोहन सिंह तक हरेक प्रधानमंत्री ने यथा अवसर हिन्दी का प्रयोग किया। याद कीजिए कि कन्नड़भाषी देवेगौड़ा ने भी लालकिले की प्राचीर से हिन्दी में ही राष्ट्र को संबोधित किया था। मैं तो यह कहूंगा कि अपने राजनेताओं से हिन्दी में बात करने का आग्रह करने के पहले हमें बॉलीवुड के सितारों से मांग करना चाहिए कि वे फिल्मों में दूसरों से संवाद डब करवाने के बजाय स्वयं हिन्दी में संवाद बोलें और सार्वजनिक कार्यक्रमों में भी हिन्दी में भाषण देना सीखें। आखिरकार वे तो सीधे-सीधे हिन्दी की ही कमाई खा रहे हैं। और जहां तक राजनेताओं की बात है हमारी अपेक्षा उनसे सिर्फ हिन्दी बोलने को लेकर नहीं, बल्कि व्यापक स्तर पर है।

प्रधानमंत्रीजी! अब यह आपकी जिम्मेदारी है कि आप देखें कि देश की शिक्षा व्यवस्था में हिन्दी अध्ययन अध्यापन का हाल कैसा है? ऐसा क्यों है कि पांचवी कक्षा पास विद्यार्थी हिन्दी में अपना नाम भी ठीक से नहीं लिख पाता? ऐसा क्यों है कि हिन्दी में एम.ए. की उपाधि हासिल करने वालों से भी हिन्दी में एक पैराग्राफ शुद्ध नहीं लिखा जाता? ऐसा क्यों है कि हमारे विश्वविद्यालयों में सबसे निम्न स्तर का शोध हिन्दी विषय में ही होता है और उसमें भी कितनी चोरियां होती हैं कहना मुश्किल है। ऐसा क्यों है कि तमाम राज्य सरकारें पहली कक्षा से अंग्रेजी पढ़ाने की व्यवस्था कर रहीं हैं, लेकिन हिन्दी की तरफ किसी का ध्यान नहीं है? ऐसा क्यों है कि सिवाय सरकारी खरीद के हिन्दी पुस्तकों का कोई बाजार नहीं है? अगर आप हिन्दी को विश्व स्तर पर प्रतिष्ठित करने के लिए सचमुच इतने व्यग्र हैं तो हिन्दी की दुर्दशा की जड़ कहां है, पहले उसे खोजिए।
देशबन्धु में 12 जून 2014 को प्रकाशित

Wednesday 4 June 2014

दिल्ली में गुजरात !


 
एक समय की बंबई (आज की मुंबई) में चर्चगेट स्टेशन के पास 'पुरोहित' नामक एक रेस्तोरां बेहद लोकप्रिय था। पहली बार मुंबई आने वालों को स्थानीय मित्र इस जगह भोजन करवाने अवश्य ले जाते थे। महाराष्ट्र विधानसभा नजदीक ही थी सो विधायकों के अलावा नेतागण व उनसे मिलने आने वाले भी पुरोहित में आया करते थे। यह एक गुजराती भोजनालय था जिसमें 1969-70 में तीन रुपए में सादी थाली और पांच रुपए में चांदी की थाली में भोजन परोसा जाता था। उन्हीं दिनों मैरीन लाइन्स रेलवे स्टेशन के पीछे ठाकर नामक एक और गुजराती भोजनालय था, जिसमें भोजन करना शान की बात मानी जाती थी। मुंबई में गुजरातीभाषियों की अच्छी खासी आबादी शुरू से रही है इसलिए वहां गुजराती भोजनालय होने में कोई आश्चर्य नहीं था। चूंकि मुंबई एक विविधवर्णी महानगर रहा है इसलिए वहां अन्य भांति के रेस्तोरांओं की भी कमी नहीं थी।

यूं देखा जाए तो गुजराती भोजनालय भारत के कोने-कोने में मिल जाएंगे। देश में जो प्रमुख पर्यटन स्थल हैं, खासकर तीर्थस्थान, वहां गुजराती भोजनालय होना मानों अनिवार्य ही है। मुझे याद है कि बरसों पहिले 1987 में पहलगाम में एक समय का भोजन हमने एक गुजराती भोजनालय में ही किया था। इसका कारण शायद यही है कि गुजराती लोग पर्यटनप्रिय तो हैं, लेकिन खानपान में वे प्रयोग पसंद नहीं करते। इसीलिए इधर कुछ बरसों से भारतीयों में विदेश भ्रमण के प्रति बढ़ती रुझान के साथ-साथ गुजराती शाकाहारी अथवा जैन शाकाहारी भोजन की गारंटी भी टूर आपरेटर देने लगे हैं।  बहरहाल, गुजराती भोजनालय का मुद्दा इसलिए उठा क्योंकि दो दिन पूर्व टीवी के जाने-माने पत्रकार राजदीप सरदेसाई ने ट्विटर पर लिखा कि दिल्ली में कोई अच्छा गुजराती भोजनालय क्यों नहीं है? श्री सरदेसाई लंबे समय से दिल्ली में निवासरत हैं और अनुमान लगाया जा सकता है कि नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद उन्हें चिंता हुई होगी कि आने वाले दिनों में दिल्ली आने वाले गुजराती भाई-बहनों को भोजन में किसी तरह की असुविधा न हो!

जो भी हो, श्री सरदेसाई ने फिजूल की माथापच्ची करने के लिए एक रोचक मुद्दा छेड़ दिया है। इस पर पत्रकारों के बीच या दिल्लीवासियों के बीच क्या प्रतिक्रिया होती है यह देखना बाकी है। मैंने उनकी टिप्पणी को पढ़ा तो मेरा ध्यान भी इस बात पर गया कि दिल्ली में कहीं कायदे का गुजराती भोजन मिलता है या नहीं? देश की राजधानी में भोजनालयों और जलपानगृहों की वैसे तो कोई कमी है नहीं। दुनिया का ऐसा कौन सा देश है, जिसके पकवान दिल्ली में न मिलते हों! वहां के बड़े-बड़े होटल बीच-बीच में भोजन महोत्सवों का आयोजन करते हैं, जिनमें  कोरिया और मंगोलिया से लेकर चिली और ब्राजील तक के व्यंजन मिल सकते हैं। भारत के विभिन्न प्रदेशों के व्यंजनों के लिए तो वहां के अनेक रेस्तोरां विशेष रूप से प्रसिद्ध हो ही चुके हैं। लेकिन हां, ऐसा एक भी होटल नहीं है, जिसके बारे में कहा जा सके कि यहां गुजराती भोजन मिलता है। बहुत से जानकार लोग आंध्र भवन में दक्षिण भारतीय व्यंजनों का स्वाद लेने जाते हैं, लेकिन मैंने कभी किसी को गुजरात भवन जाते देखा, न सुना।

इसकी क्या वजह हो सकती है? मेरा ख्याल है कि दिल्ली की जो अपनी पारंपरिक शाकाहारी भोजन संस्कृति हैं उसमें और गुजरात की भोजन संस्कृति में अंतर तो है, लेकिन इतना नहीं कि दिल्ली आने वाला हर गुजराती घर जैसा भोजन न मिले तो बेचैनी अनुभव करने लगे। अलावा इसके कुछ गुजराती व्यंजन ऐसे भी हैं जो देश के सारे हिस्सों में लोकप्रिय हो चुके हैं। अब ढोकला उसी तरह से अखिल भारतीय व्यंजन है, जिस तरह से दोसा, समोसा या रसगुल्ला। मुझे दिल्ली और गुजरात की भोजन व्यवस्था में जो मुख्य अंतर दिखाई देता है वह शायद सजावट को लेकर है। गुजराती थाली में आधा दर्जन छोटी कटोरियों में खाद्य सामग्री परोसी जाती है, लेकिन शायद यह फर्क भी खत्म होने लगा है। फिर भी राजदीप सरदेसाई ने चर्चा छेड़ दी है तो उम्मीद करना चाहिए कि जल्दी ही देश की राजधानी में विशिष्ट गुजराती भोजन का निमंत्रण देने वाले भोजनालय खुल जाएंगे।

इस डर से कि पाठकों को गुजराती भोजन की  चर्चा ज्यादा लंबी न लगे, मैं अपनी बात को दूसरी तरफ मोड़ता हूं। आप जानते हैं कि गुजरात के सांस्कृतिक परिदृश्य का एक दिलचस्प नज़ारा मकर संक्रांति के समय देखने मिलता है जब इस पश्चिमी प्रदेश में पतंगें उड़ाई जाती हैं। पाठकों को याद होगा कि इस साल 14 जनवरी को गुजरात के पतंग महोत्सव में भाग लेने अभिनेता सलमान खान भी पहुंचे थे। यह भी रोचक तथ्य है कि पतंग उड़ाने का खेल दिल्ली के आस-पास के इलाकों जैसे मेरठ आदि में बहुत उत्साह के साथ खेला जाता है। वैसे तो राजनीति में भी पतंगबाजी का खासा प्रचलन है। लेकिन नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद केन्द्र की राजनीति में जिस कौशल के साथ पतंगें उड़ाई जा रही हैं वह काबिले-तारीफ है।

मोदी मंत्रिमंडल के शपथ लेने भर की देर थी कि उनके मंत्रियों ने एक के बाद एक पतंगें उड़ाना शुरू कर दिया। सबसे पहले राज्यमंत्री जितेन्द्र सिंह ने संविधान की धारा-370 को खत्म करने की पतंग उड़ाई। उनके बाद अनुभवी न•ामा हेपतुल्ला ने दूसरी पतंग उड़ाई कि मुसलमान अल्पसंख्यक नहीं हैं, फिर नई -नवेली खिलाड़ी निर्मला सीतारमण के वाणिज्य मंत्रालय से नोट जारी हुआ कि रक्षा उत्पादन में सौ फीसदी एफडीआई को अनुमति दी जाए। प्रकाश जावड़ेकर भी पीछे नहीं रहे। उनका बयान आया कि मीडिया में सौ फीसदी एफडीआई पर विचार किया जाएगा। इनके अलावा टीडीपी के नागरिक उड्डयन मंत्री गजपति राजू ने राबर्ट्र वाड्रा का एसपीजी कवच हटाने की बात भी कह डाली। जाहिर है कि आसमान में जब इतनी सारी पतंगें उड़ रहीं हों तो दर्शकों का ध्यान उस ओर जाना ही था। आनन-फानन में वे खिलाड़ी भी मैदान में आ गए जो अभी तक घर बैठे अपने जख्मों को सहला रहे थे। इनमें प्रियंका गांधी ने एसपीजी को पत्र लिखकर जो पतंग उड़ाई उसका मांझा इतना मजबूत था कि गजपतिजी की पतंग कट गई। गृह राज्यमंत्री किरण रिजूजी का बयान आ गया कि एसपीजी कवच वापिस नहीं लिया जाएगा।

भारतीय जनता पार्टी की नवनिर्वाचित केन्द्र सरकार ने एक साथ इतनी पतंगें क्यों छोड़ीं, यह कुछ समझ में नहीं आया। मोदीजी ने अभी दस दिन पहले शपथ ली है। उनका पहला दिन तो अपने विदेशी मेहमानों को ढोकला, श्रीखंड खिलाने में ही बीत गया। उन्होंने जो व्यंजन जनता की थाली में परोसने का वायदा कर चुनाव जीता था उसकी शुरूआत भी नहीं हुई है। अभी तो मोदीजी ने रसोईयों को आर्डर भर दिया है कि बाजार से क्या-क्या सामग्री लेकर आना है जिससे उनके वायदे के व्यंजन बनाए जा सकें। ऐसा लगता है कि सरकार अथवा पार्टी या दोनों ही कुछ जल्दबाजी में शायद इसलिए हैं कि उन्हें अपनी रसोई पकाने का स्पष्ट अधिकार मिल गया है, लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि आपकी जो मर्जी हो उसे क्षुधीजनों पर थोप दें। अगर दिल्लीवासी अपने छोले-भटूरे या पालक-पनीर में खुश हैं तो उन्हें आप जबरदस्ती गुजराती फरसाण क्यों परोसेंगे?    
    
भारतीय जनता पार्टी और संघ परिवार की यह इच्छा हो सकती है कि अतीत में स्पष्ट बहुमत न होने के कारण जिन मुुद्दों को दरकिनार करना पड़ा था उन्हें अब वापिस मुख्य एजेंडे में ले आया जाए। अगर देश की जनता इस बात पर उनका साथ दे व संविधान अनुमति दे तो उन्हें अपने एजेंडे को लागू करने से कौन रोक सकता है, लेकिन इस अति उत्साह में उन्हें मैदानी हकीकतों को नहीं भूलना चाहिए। इस संदर्भ में अमेरिका और यूरोप के जनतांत्रिक देशों की स्थापित परंपराएं उनके काम आ सकती हैं। नरेंद्र मोदी को एक अभूतपूर्व ऐतिहासिक अवसर प्राप्त हुआ है। उन्हें जनता ने भ्रष्टाचार दूर करने, बेरोजगारी दूर करने, महंगाई कम करने और त्वरित गति से निर्णय लेकर देश का सर्वांगीण विकास करने की उम्मीद से चुना है और उनका कार्यकाल अभी शुरू ही हुआ है। इस समय पतंगबाजी करना नई सरकार के लिए नुकसानदायक हो सकता है। यह बात भाजपा के शीर्ष नेतृत्व को और झंडेवालान में बैठे चाणक्यों को समझना चाहिए।

देशबन्धु में 5 जून 2014 को प्रकाशित