Sunday 30 November 2014

कांग्रेस का नेहरू को याद करना



भारतीय जनता पार्टी की सरकार यदि जवाहरलाल नेहरू की 125वीं जयंती मनाने के लिए बहुत उत्साहित न हो तो इसमें अचरज करने वाली कोई बात नहीं है। भाजपा का तो जन्म ही नेहरू विरोध से हुआ है। पिछले बासठ-तिरसठ साल से पहले जनसंघ और अब भाजपा के रूप में वह नेहरू द्वारा प्रवर्तित नीतियों का लगातार विरोध करते आई है और अब जाकर उसे अवसर मिला है कि वह खुल कर इन नीतियों को खारिज कर देश को एक वैकल्पिक मार्ग पर ले जा सके। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने पद की शपथ लेने के अगले दिन ही यह स्पष्ट कर दिया था कि नेहरू के बताए रास्ते पर चलना तो दूर, उस ओर झांकना भी वे पसंद नहीं करते। इसीलिए 27 मई को पंडितजी की 125वीं पुण्यतिथि पर उन्होंने शांतिवन जाना अवश्यक नहीं समझा। लगभग पांच माह बाद उन्होंने देश के प्रथम प्रधानमंत्री को याद तो किया, लेकिन चाचा नेहरू के रूप में और उनके जन्मदिन को स्वच्छता अभियान से जोड़ दिया। पार्टी उनकी, सरकार उनकी, नीति और विचार उनके। 

इसी तर्क से भाजपाइयों और भाजपा समर्थकों को भी शिकायत करने का कोई कारण नहीं बनता कि कांग्रेस पार्टी ने नेहरूजी की 125वीं जयंती पर आयोजित अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन में देश के प्रधानमंत्री को न्यौता क्यों नहीं दिया। जब दोनों के रास्ते अलग-अलग हैं तो फिर उलाहना किस बात का? बहुत से विचारवान लोगों का मानना है कि नेहरूजी के नाम पर राजनीति नहीं होना चाहिए। इस विचार में एक भोलापन है जो व्यवहारिक राजनीति की जटिलताओं को जाने या अनजाने देख नहीं पा रहा है। खैर! हमारा अपना सोचना है कि पंडित नेहरू को याद करने के लिए और उनका मूल्यांकन  करने के लिए इस तरह के औपचारिक आयोजन की अगर कोई भूमिका है तो वह सीमित है। क्योंकि हमारे उत्सवप्रिय देश में ऐसे आयोजन आडंबर में तब्दील हो जाते हैं जिसमें विषयवस्तु की गंभीरता गुम हो जाती है।


यूं तो कांग्रेस पार्टी ने 17-18 नवम्बर को दिल्ली में नेहरूजी पर अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन आयोजित किया, लेकिन उससे कुल मिलाकर क्या हासिल हुआ? वहां जो पत्रकार उपस्थित थे उनकी दिलचस्पी इस बात में ज्यादा थी कि कांग्रेस के निमंत्रण पर गैर-भाजपाई दलों के कौन-कौन नेता सम्मेलन में शिरकत करते हैं। वहां ममता बनर्जी का आ जाना बड़ी खबर थी और मुलायम सिंह या लालू प्रसाद का न आना उससे कुछ छोटी खबर। सम्मेलन के अध्यक्ष पद से सोनिया गांधी ने जो भाषण दिया वह काफी सधा हुआ था, किन्तु ज्यादा चर्चा इस पर हुई कि भाषण के राजनीतिक निहितार्थ क्या थे। विदेशों से जो बड़े राजनेता आए, वे क्या कह रहे हैं उसे सुनने में शायद किसी की भी दिलचस्पी नहीं थी और विज्ञान भवन के सभागार में जो हजार लोग इकट्ठे थे उनमें से अधिकांश नेहरू के कारण आए थे या अपना चेहरा दिखाने के लिए, यह अनुमान लगाना कठिन नहीं था।

मैं 17 तारीख को सम्मेलन के उद्घाटन सत्र में उपस्थित था। विदेश से आए विशिष्ट अतिथियों ने पंडित नेहरू को जिस भावुकता के साथ स्मरण किया उससे मैं प्रभावित हुआ। अफगानिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति हामिद करजई ने याद किया कि उनके स्कूल की किताब में नेहरूजी का निबंध था तथा उस पाठ में नेहरूजी ने भारत माता को जिस तरह से परिभाषित किया था उसने उनके मन में एक गहरी छाप छोड़ी थी। नेपाल के पूर्व प्रधानमंत्री व कम्युनिस्ट नेता माधव नेपाल ने नेहरूजी की विश्वमंच पर प्रभावी भूमिका का जिक्र किया और यह भी बताया कि उनके द्वारा गठित योजना आयोग से किस तरह नेपाल को भी प्रेरणा मिली।
अरब लीग के अध्यक्ष और इजिप्त के पूर्व विदेशमंत्री अमरे मूसा ने गुट निरपेक्ष आंदोलन खड़ा करने में पंडित नेहरू की भूमिका का जिक्र किया तथा अरब मुल्कों (विशेष कर इजिप्त) के साथ नेहरू युग के समय विकसित और प्रगाढ़ हुए संबंधों को रेखांकित किया। घाना के पूर्व राष्ट्रपति जॉन कूफोर ने भी अफ्रीकी देशों के स्वाधीनता संग्राम को नेहरूजी से मिले समर्थन व सहयोग का उल्लेख अपने वक्तव्यों में किया। किन्तु इन सबसे ज्यादा प्रभावी व्याख्यान भूटान की राजमाता का था। उन्होंने बताया कि 1954 की गणतंत्र दिवस परेड में भूटान नरेश मुख्य अतिथि के तौर पर आमंत्रित थे और इस तरह दोनों पड़ोसी देशों के बीच प्रगाढ़ संबंधों की नींव पड़ी जो आज तक चली आ रही है। एक छोटे पड़ोसी देश को पंडितजी ने बराबरी का दर्जा दिया, यह भाव भी उनकी बात में था।

भूटान की राजमाता ने बताया कि पंडित नेहरू 1958 में उनके देश आए थे। किसी भी विदेशी राजप्रमुख की यह पहली भूटान यात्रा थी। पंडितजी के साथ इंदिराजी भी थीं। दोनों कठिन और दुर्गम रास्ते पर कई दिनों की यात्रा कर थिम्बू पहुंचे थे। इस रास्ते पर उन्हें याक की सवारी भी करनी पड़ी थी। पंडितजी की उम्र उस समय 67 वर्ष हो चुकी थी, फिर भी उन्होंने यह कष्ट भरी यात्रा करने से संकोच नहीं किया। उन्होंने आगे यह भी बताया कि 1961 में भूटान ने पहली पंचवर्षीय योजना लागू की। इसकी प्रेरणा भी भूटान को भारत से ही मिली। उद्घाटन सत्र के ये सारे व्याख्यान निश्चित रूप से प्रसंग के अनुकूल थे, लेकिन मुझे एक बात तो यह समझ नहीं आई कि पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह मंच पर तो थे, लेकिन उन्होंने सभा को संबोधित नहीं किया। दूसरे, आयोजन समिति के मुख्य कर्ता-धर्ता के रूप में आनंद शर्मा ने आरंभ में मंच संचालन किया, लेकिन सरकार में रहकर नेहरू की नीतियों पर चलने वाले पूर्व मंत्री मणिशंकर अय्यर मंच के दूसरे छोर पर पूरे समय चुपचाप बैठे रहे।

उद्घाटन सत्र के बाद समानांतर विचार सत्र होना थे। उनमें भाग लेने के लिए कुछेक जाने-माने विद्वान आमंत्रित किए गए थे, लेकिन उद्घाटन सत्र में एक तरह का ठंडापन व्याप्त था, जो आगे के कार्यक्रम में शरीक होने के लिए बहुत उत्साहदायक नहीं था। कांग्रेेस के कई बड़े नेता तो उद्घाटन का कार्यक्रम सम्पन्न होने के बाद ही वहां से रवाना हो गए थे। श्रोताओं की भी कोई दिलचस्पी गोष्ठियों में भाग लेने की होगी, ऐसा नहीं लगा। कुल मिलाकर मैं यह समझने में असमर्थ रहा कि कांग्रेस पार्टी ने क्या सोचकर यह आयोजन किया! 
भारतीय राजनीति में रुचि रखने वाले जानते हैं कि इंदिराजी के समय में ही नेहरू के रास्ते से विचलन प्रारंभ हो गया था। पी.वी. नरसिम्हाराव के समय में नेहरू की आर्थिक नीतियों को तिलांजलि दे दी गई थी। इसमें अगर कोई कसर बाकी थी तो वह डॉ. मनमोहन सिंह के दस साल के कार्यकाल में पूरी हो गई। संभव है कि इसके पीछे उनके पास कोई ठोस तर्क रहे हों, लेकिन उनके बारे में जनता को कभी विश्वास में नहीं लिया गया। मैं सोनिया गांधी के जुझारूपन का कायल रहा हूं, लेकिन मुझे लगता है कि उनके पास जो राजनीतिक पूंजी है वह इंदिराजी मात्र से मिली है। नेहरू को उन्होंने कितना पढ़ा और समझा है, यह कह पाना कठिन है। शायद यही कारण है कि आनंद शर्मा आयोजन के कर्णधार थे और मणिशंकर अय्यर हाशिए पर! 

सोनियाजी ने उद्घाटन सत्र में अध्यक्षीय वक्तव्य तो अच्छा दिया, लेकिन वह अधूरा था। जब पंडित नेहरू की 125वीं जयंती मन रही है तो इतना काफी नहीं है कि आप उन्हें श्रद्धासुमन अर्पित करें और संस्मरण साझा करें। इस अवसर पर यह बात भी होना चाहिए थी कि नेहरू की वैचारिक विरासत को कायम रखने के लिए उनके बताए रास्ते पर आगे बढऩे के लिए आप क्या करने जा रहे हैं। ऐसे कितने कांग्रेसी हैं जिन्होंने नेहरूजी द्वारा लिखी पुस्तकों में से एक पुस्तक भी पढ़ी है? क्या किसी कांग्रेसी नेता के बैठकखाने में ये पुस्तकेंआपको देखने मिलती हैं? राहुल गांधी, युवक कांग्रेस, और छात्र कांग्रेस की सदस्यता खोलते हैं उनमें चुनाव करवाते हैं, लेकिन क्या कहीं ऐसी व्यवस्था है कि ये नौजवान कांग्रेसी नेहरू के विचार से परिचित हो सकें?

मैं इस आयोजन की सार्थकता तब समझता जब कांग्रेस अध्यक्ष अपने उद्बोधन में पार्टीजनों को नेहरू साहित्य पढऩे के लिए पे्ररित करतीं, नेहरू के विचारों को समझने और आत्मसात करने के लिए कार्यशालाओं, शिविरों और विचार गोष्ठियों का कोई दीर्घकालीन कार्यक्रम प्रस्तावित करतीं और इस भव्य आयोजन में भी उन लोगों को बुलातीं जो नेहरू के योगदान का सम्यक मूल्यांकन करने में सक्षम हैं। मसलन नेहरूजी की भांजी और विजयलक्ष्मी पंडित की बेटी नयनतारा सहगल। उन्होंने ''सिविलाइजिंग अ सेवे
वर्ल्ड" शीर्षक पुस्तक में तर्कों और प्रमाणों के साथ नेहरू की नीतियों का विश्लेषण व उनके आलोचकों को उत्तर दिया है। अगर यही एक पुस्तक कांग्रेसी पढ़ लें तो अपना भला कर सकते हैं। सोनिया गांधी को हमारी बिन मांगी सलाह है कि ऐसी पुस्तकों का हिंदी अनुवाद करवाएं व कांग्रेसजनों को पढ़वाएं। इससे बेहतर कोई श्रद्धांजलि पंडित नेहरू को नहीं हो सकती।

देशबन्धु में 27 नवंबर 2014 को प्रकाशित 

Wednesday 19 November 2014

रायपुर में रंगशाला?




रायपुर
के रंगकर्मी लंबे समय से एक सर्वसुविधायुक्त आधुनिक प्रेक्षागृह की मांग उठा रहे हैं। अपने आप में यह मांग उचित है। जिस देश में आज से कोई दो हजार वर्ष पूर्व भरतमुनि ने नाट्यशास्त्र लिख दिया हो और जो प्रदेश विश्व की सबसे प्राचीन रंगशाला अपने यहां होने का दावा करता हो वहां राजधानी बन गए एक नगर में, जो हबीब तनवीर की जन्मस्थली भी हो, कलापे्रमियों को एक अच्छा प्रेक्षागृह उपलब्ध न हो तो यह उस नगर के साथ अन्याय ही कहा जाएगा। मैं इसलिए सैद्धांतिक तौर पर छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में एक रंगशाला, प्रेक्षागृह या ऑडिटोरियम स्थापित करने के प्रस्ताव का समर्थन करता हूं, लेकिन साथ ही साथ मेरा मानना है कि इस मुद्दे को रायपुर के नागरिक जीवन के अन्य आयामों से काटकर नहीं देखा जा सकता। अपितु उस विशाल संदर्भ में ही तलाश करना होगा कि इस मांग पर आज तक कोई सकारात्मक विचार प्रदेश सरकार या नगर निगम ने क्यों नहीं किया और यह भी कि इसे राजधानी की जनता का समर्थन क्यों नहीं मिला?

यह कहना गलत नहीं होगा कि सभ्यता के विकासक्रम में शहरीकरण एक महत्वपूर्ण और अनिवार्य चरण है। जिस दिन मनुष्य जाति ने घूमंतु जीवन त्यागकर स्थायी आश्रय निर्मित करने की ठानी और जिसके चलते बस्तियों का निर्माण प्रारंभ हुआ उसके तुरंत बाद ही मनुष्य को शहरों की जरूरत आन पड़ी। शहर याने सभ्यता का केन्द्र। एक ऐसी जगह जहां वे सारी सुविधाएं उपलब्ध हों जो दूरदराज तक फैली छोटी-छोटी रिहायशी बस्तियों में उपलब्ध होना संभव नहीं थीं जैसे बाजार, पाठशालाएं चिकित्सालय, मनोरंजनगृह, सत्तापीठ, कारखाने इत्यादि। शायद पहली जरूरत तो बाजार की ही थी। पुराने समय में गांव-गांव में साप्ताहिक बाजार लगते थे और यह परंपरा आज भी चली आ रही है, लेकिन शायद इनका होना पर्याप्त नहीं था। इसीलिए स्थायी बाजार बनना शुरू हुए। बाजार चलते-फिरते रहे हों या एक जगह पर स्थापित, मनोरंजन शालाएं भी उसका एक स्थायी अंग रही है। पुराने समय के बहुरूपिये, नट, मदारी, जादूगर से लेकर सर्कस, टूरिंग टॉकीज और आज के सिनेमा, थिएटर तक इसे देखा जा सकता है।

एक तरह से गांव यदि कृषि उत्पादन का केन्द्र थे, तो नगर व्यवसाय और विपणन के केन्द्र के रूप में उभरे। गांव में रहकर उत्पादन करने वाले की आवश्यकताएं सीमित थीं, लेकिन नागर श्रेष्ठि वर्ग की स्थिति ठीक इसके विपरीत थी। उसे अधिकतम सुविधाएं चाहिए थीं। वही स्थिति आज भी है। इस तरह से नगर एक चुंबक में तब्दील हो गए जिसकी चकाचौंध दूर-पास के ग्रामवासियों को अपनी तरफ खींचने लगी। भव्य अट्टालिकाएं, राज-प्रासाद, सुन्दर उपवन और इनके साथ-साथ बेहतर स्कूल, बेहतर चिकित्सा सुविधाएं और ऐसी अन्य व्यवस्थाएं जो ग्रामीण समाज के लिए आकाश-कुसुम ही रही आईं।
रायपुर नगर को इस सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि में देखना आवश्यक है। एक समय यहां छत्तीसगढ़ के गांवों से विद्यार्थी पढ़ाई करने के लिए आते थे, वहीं सिनेमा, रथयात्रा और गणेशोत्सव की झांकियां देखने के लिए आए ग्रामवासियों का आना भी एक नियम की ही तरह था। उस दौर में नगर के जो समर्थ लोग थे वे अपने बच्चों को पढऩे के लिए जबलपुर, नागपुर, सागर और इलाहाबाद तक भेजते थे।
 
कालांतर में नगर का विकास हुआ और एक दिन यहां राजधानी भी बन गई। चौड़ी-चौड़ी सड़कें, चौराहों पर विद्युत सिग्नल, भव्य अस्पताल, पांच सितारा होटल, चमकते-दमकते शो रूम, मॉल और मल्टीप्लेक्स, अंग्रेजी मीडियम स्कूलों की वातानुकूलित इमारतें, सड़कों पर दौड़तीं मंत्रियों, अफसरों और नवधनाढ्यों की गाडिय़ां- क्या नहीं है इस शहर में? शायद सिर्फ एक प्रेक्षागृह जहां देश-विदेश की नाटक मंडलियां आकर अपना प्रदर्शन कर सकें और उन्हें देख कर अभिजात समाज स्वयं को सुरुचि-सम्पन्न होने का प्रमाण पत्र दे सके! लेकिन क्या बात सिर्फ इतनी ही है? राजधानी में स्वाभाविक ही प्रदेश का पहला मेडिकल कॉलेज और सबसे बड़ा सरकारी अस्पताल है, किन्तु जिन्हें नाटक देखने के लिए प्रेक्षागृह चाहिए क्या वे उस अस्पताल में जाकर इलाज करने की हिम्मत जुटा पाते हैं? प्रदेश का सबसे पुराना विश्वविद्यालय भी यहीं है और अब तो पांच-छह विश्वविद्यालय हो गए हंै, किन्तु क्या किसी ने पूछा कि इन्हें कितनी स्वायत्तता प्राप्त है? इनका काम-काज कैसा चल रहा है? इनकी कौन सी आवश्यकताएं हैं जिनकी ओर सरकार ध्यान न देना ही मुनासिब समझती है? यहां जो बाग-बगीचे बनाए गए थे उनके क्या हाल-चाल है? इस बात में क्या बुद्धिमानी थी कि अनुपम उद्यान और सौरभ उद्यान के नाम बदलकर धर्मगुरुओं के नाम पर रख दिए जाएं?

मैं कहना चाहता हूं कि जब प्रेक्षागृह की मांग हो रही है, तो इसका सीधा सरोकार हमारी सांस्कृतिक परंपरा से है। तथापि इस शहर की सांस्कृतिक धरोहर को बचाने के लिए हमने आज तक क्या किया है? और क्या उत्साही रंगकर्मियों ने इस ओर ध्यान देने की आवश्यकता कभी समझी है? मिसाल के तौर पर रायपुर में शासकीय विज्ञान महाविद्यालय, शासकीय संस्कृत महाविद्यालय, सवा सौ साल पुराने गवर्मेंट हाईस्कूल और उससे कुछ कम पुराने माधवराव सप्रे विद्यालय के अपने-अपने विस्तृत परिसर थे। ये सारे परिसर एक के बाद एक नवनिर्माण के नाम पर तहस-नहस कर दिए गए। इसी शहर में लगभग दो सौ साल पुराने कंपनी गार्डन या मोतीबाग है। आज उसका तीन चौथाई हिस्सा बाजार या अन्य कामों की भेंट चढ़ गया है। इसी उद्यान में रवीन्द्रनाथ की जन्मशताब्दी पर जो रवीन्द्र नाट्य मंच बना वह आज कहां है? रंगमंच की मांग का समर्थन तो शहर के प्रेस क्लब के सदस्य भी करते हैं, लेकिन क्या उन्हें इस बात की ग्लानि है कि वे ही रवीन्द्र नाट्य मंच को हड़पने के दोषी हैं?

इस रायपुर में एक से एक पुराने भवन हैं। जयस्तंभ से लगा हुआ कैसर-ए-हिन्द दरवाजा है, जो मलिका विक्टोरिया ने हम पर अपनी हुकूमत की याद दिलाने के लिए तामीर करवाया था। इस ऐतिहासिक द्वार को रवि भवन ने खा लिया। कोई दो सौ-ढाई सौ साल पुराना गोलबाजार उसी सड़क पर आगे है। हमने तो उसे सहेजने के लिए भी कुछ नहीं किया। भारत के प्राचीनतम संग्रहालयों में एक घासीदास म्यूजियम को बने भी सवा सौ साल हो चुके हैं। आज उसका पुराना भवन एक स्थानीय संस्था के हाथों में है। ऐसी तमाम इमारतें हमें अपने इतिहास से जोड़ती हैं, अतीत से सबक लेने के लिए प्रेरित करती हैं, किन्तु उन्हें ठीक-ठिकाने से रखा जाए, यह समझने में हमारी कोई दिलचस्पी नहीं है।

राजधानी में गांधी मैदान पर रंगमंदिर नाम की एक जगह हुआ करती है या थी। गांधी मैदान अब पार्किंग के काम आ रहा है और केन्द्र सरकार के अनुदान से बना रंगमंदिर कानूनी उलझनों में फंसा है क्योंकि कुछ लालची तत्व वहां मॉल बनाना चाहते हैं। बड़े-छोटे लालची लोगों ने ही इस शहर के तालाब पाट दिए। जगह-जगह पर चाट भंडार खुल गए। बूढ़ातालाब का नाम बदलकर विवेकानन्द सरोवर करने में हमें न जाने क्या सुख मिलता है, यह भूलकर कि यह नया नाम प्राचीन इतिहास से हमारा संबंध तोड़ता है। हमने शहर में स्टेडियम भी बनाए, लेकिन किसी ने उनमें खेलों का आयोजन होते कितनी बार देखा है? यह इल्जाम इस नगर के संस्कृतिकर्मियों पर भी है कि शहीद-ए-आजम भगतसिंह की टोपधारी प्रतिमा का सिर काट दिया जाता है और बंद सभागारों में प्रयाण गीत गाने वाले क्रांतिकारी चुप बैठे रह जाते हैं।

मित्रो! प्रेक्षागृह की मांग जरूर कीजिए परन्तु यह भी तो सोचिए कि उसमें नाटकों का मंचन कितने दिन होगा और कितने दिन फूहड़ फिल्मी अंदाज के कार्यक्रम होंगे? नाटक खेलने के लिए जो बड़ी-बड़ी मंडलियां आएंगी उनको देने के लिए लाखों रुपया कहां से लाएंगे? सरकार के आगे हाथ पसारेंगे या उन व्यापारियों अथवा अफसरों के आगे जिनकी सांस्कृतिक समझ के बारे में कुछ न कहना ही बेहतर है। और जब उन्हें आप कार्यक्रम में मुख्य अतिथि, विशिष्ट अतिथि का सम्मान दे कर बुलाएंगे तो उनके सामने आपकी हैसियत क्या रह जाएगी?
 
देशबन्धु में 20 नवंबर 2014 को प्रकाशित

Wednesday 12 November 2014

यह तो पहिला फेरबदल है


 प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने बीते रविवार अपने मंत्रिमंडल का विस्तार कर पांच माह से रुका हुआ एक जरूरी काम पूरा कर लिया है। छोटा मंत्रिमंडल, सीमित सरकार, लैस गवर्मेंट, जैसे नारे कर्णप्रिय हो सकते हैं लेकिन सरकार चलाना है तो व्यवहारिक आधार पर निर्णय लेना ही पड़ते हैं। इस नाते कहना होगा कि मंत्रिमंडल का विस्तार उचित ही हुआ है। हमारा ख्याल है कि यह पहला फेरबदल अंतिम नहीं है और निकट भविष्य में ही कुछ और परिवर्तनों की संभावना बनी हुई है। प्रधानमंत्री ने अपने सबसे विश्वस्त सहयोगी अरुण जेटली को यद्यपि रक्षामंत्री के प्रभार से मुक्त कर दिया है, लेकिन इसके स्थान पर उन्हें दो अन्य विभाग दे दिए गए हैं- कारपोरेट मामले तथा सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय। वित्त मंत्रालय का अपना काम इतना विस्तृत है कि वित्तमंत्री को दूसरे विभागों के लिए पर्याप्त समय निकालना संभव नहीं होगा। श्री जेटली वैसे चाहे जितने मेहनती हों, उन्हें अपने स्वास्थ्य का ध्यान भी रखना होगा। यूं तो भारत का तीन चौथाई मीडिया इस वक्त कारपोरेट के शिकंजे में है, लेकिन सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय का कार्य अखबारों व चैनलों पर नियंत्रण रखने से कहीं आगे का है।

यदि अरुण जेटली को आगे-पीछे वित्त मंत्रालय के अलावा अन्य प्रभार छोडऩे की नौबत आई तो उसके पहले प्रश्नचिन्ह लगा हुआ है कि डॉ. हर्षवर्द्धन केन्द्रीय मंत्रिमंडल में कब तक बने रहेंगे।  राष्ट्रपति भवन से जारी सूची में कैबिनेट मंत्रियों में उनका नाम सबसे नीचे रखा गया है, जबकि वे पार्टी के वरिष्ठ नेता हैं। ऐसी चर्चा है कि गुजरात की तम्बाखू लॉबी के दबाव में उनसे स्वास्थ्य मंत्रालय छीना गया है। डॉ. हर्षवर्द्धन एक लोकप्रिय जननेता हैं, उनकी छवि साफ-सुथरी है तथा दिल्ली प्रदेश में उन्होंने स्वास्थ्य मंत्री के रूप में वर्षों पूर्व कुशलतापूर्वक कार्य किया था। गत वर्ष विधानसभा चुनाव के समय श्री मोदी के पसंदीदा उम्मीदवार विजय गोयल का नाम भाजपा की तरफ से मुख्यमंत्री पद के लिए उछाला गया था, लेकिन हर्षवर्द्धन को संघ की पसंद होने की वजह से आगे किया गया था। संभव है कि ये बात श्री मोदी को नागवार गुजरी हो! इसका दूसरा पक्ष यह है कि अगर दिल्ली के आसन्न चुनावों में भाजपा जीतती है तो उन्हें मुख्यमंत्री पद के लिए मुक्त कर दिया जाए।

श्री मोदी ने मनोहर पार्रिकर एवं सुरेश प्रभु का चयन कर सही संदेश दिया है। ये दोनों मंत्री सुयोग्य, कर्मठ एवं अपेक्षाकृत युवा हैं। श्री पार्रिकर ने मुख्यमंंत्री रहते हुए और श्री प्रभु ने वाजपेयी सरकार के मंत्री के रूप में पर्याप्त प्रशंसा अर्जित की थी। वर्तमान सरकार का काफी जोर अधोसंरचना विकास पर है एवं भारतीय रेलवे का उसमें अच्छा खासा योगदान होगा। इसी तरह प्रतिरक्षा के मामले में भी बदलती वैश्विक परिस्थितियों के अनुरूप नीतियां बनाने और उन्हें त्वरित गति से लागू करने की आवश्यकता पड़ेगी। इन दोनों विभागों में वर्तमान सरकार का जोर निजीकरण एवं विदेशी निवेश पर भी है। प्रधानमंत्री संभवत: उम्मीद रखते हैं कि उनके ये दोनों ऊर्जावान सहयोगी इस दिशा में उनकी सोच के अनुसार तत्परतापूर्वक कार्य करेंगे।

मंत्रिमंडल पुनर्गठन के पहले यह अफवाह चल रही थी कि कैबिनेट की सबसे उम्रदराज सदस्य नजमा हेपतुल्ला को हटा दिया जाएगा, लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। एक ध्यान देने योग्य फेरबदल रविशंकर प्रसाद का है। उनसे विधि विभाग एवं स्वतंत्र प्रभार वाले राज्यमंत्री प्रकाश जावड़ेकर से सूचना प्रसारण मंत्रालय वापिस ले लिया गया है। श्री प्रसाद एनडीए-एक में विधि मंत्री रह चुके थे। उनको इस प्रभार से क्यों हटाया गया समझ नहीं आया। जे.पी. नड्डा पहले हिमाचल में स्वास्थ्य मंत्री थे शायद इसलिए उन्हें केन्द्र का स्वास्थ्य मंत्री बना दिया गया। केबिनेट में अभी एक मंत्री का भविष्य अनिश्चित है।  वे हैं शिवसेना के अनंत गीते। शिवसेना अध्यक्ष ने उन्हें अभी तक इस्तीफा देने क्यों नहीं कहा, यह भी फिलहाल एक पहेली है।

जनरल वी.के. सिंह ने दूसरे क्रम पर सर्वोच्च मतों से जीत दर्ज की थी। उन्हें अपेक्षानुरूप कैबिनेट स्तर न देकर राज्यमंत्री स्वतंत्र प्रभार बनाया गया था। यह पूर्व सेनाध्यक्ष का एक तरह से अवमूल्यन ही था। वे अभी अपनी श्रेणी में प्रथम क्रम पर ही हैं, लेकिन उनसे पूर्वोत्तर विकास का प्रभार वापिस ले लिया गया। यह उनका दूसरी बार अवमूल्यन हुआ है। इसके अलावा स्वतंत्र प्रभार के राज्यमंत्रियों के स्तर पर कोई विशेष फेरबदल नहीं हुआ है। दिलचस्प तथ्य यह है कि मंत्रिमंडल में तीन डॉक्टर हैं, लेकिन स्वास्थ्य विभाग की जिम्मेदारी एक गैर-डॉक्टर को दी गई है। इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है, क्योंकि कोई विषय विशेषज्ञ अपने ही विषय का मंत्री बन जाए तो उसके पूर्वाग्रह कामकाज पर हावी होने की आशंका बनी रहती है।

यह स्पष्ट दिखाई दे रहा है कि प्रधानमंत्री ने इस पुनर्गठन में बिहार और झारखंड में आसन्न विधान सभा चुनावों को ध्यान में रखा है। बिहार में यद्यपि चुनाव होने में कुछ माह बाकी हैं, लेकिन वह राजनीतिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण प्रदेश है। रविशंकर प्रसाद और राधामोहन सिंह तो पहले से ही मंत्री थे, अब एक तरफ राजीव प्रताप रूडी जैसे अभिजात छवि के युवा और दूसरी तरफ गिरिराज सिंह जैसे दबंग छवि के नेता प्रदेश के चुनावी समीकरणों को भाजपा के पक्ष में किस तरह से कर पाएंगे, यह भविष्य ही बताएगा। श्री मोदी ने झारखंड से जयंत सिन्हा को मंत्री बनाकर एक तरह से यशवंत सिन्हा को संतुष्ट किया है, वहीं उनके कारपोरेट ज्ञान का उपयोग करने की बात भी शायद सोची हो! श्री सिन्हा के मंत्री बनने से शायद सबसे ज्यादा तकलीफ वसुंधरा राजे को हुई होगी, जिनके पुत्र दुष्यंत सिंह राजस्थान से सबसे वरिष्ठ सांसद होने के बावजूद मंत्री पद से वंचित रह गए हैं।

एक तरफ बिहार और झारखंड पर प्रधानमंत्री की निगाह है, तो दूसरी तरफ असंदिग्ध विजय से उपजा आत्मविश्वास उन्हें एनडीए के घटक दलों से किनाराकशी करने के लिए संभवत: प्रेरित कर रहा है। उनसे और शिवसेना के बीच तो संबंध विच्छेद हो ही चुका है, अब अगली बारी शायद अकाली दल की हो सकती है। होशियारपुर के दलित सांसद विजय सांपला को मंत्री बनाने से यही संकेत मिलता है। वे इसके पूर्व हरियाणा के विधानसभा चुनावों में डेरा सच्चा सौदा के गुरु का साथ ले ही चुके हैं, जिनका शिरोमणि अकाली दल से बैर सर्वविदित है। भाजपा संविद के दिनों से ही धीरे-धीरे कर गठबंधन सहयोगियों को खत्म करते आई है। इसलिए कल को यदि वह अकाली दल से भी नाता तोड़ लें तो आश्चर्य नहीं होगा।

श्री मोदी के मंत्रिमंडल में अधिकतर लोग नए और अनुभवहीन हैं। कुछेक मंत्री आवश्यकता से अधिक वाचाल भी हैं। कुछेक बड़े छोटे आरोपों के घेरे में भी हैं। अनुभवहीनता पर परिश्रम और लगन से विजय पाई जा सकती है। कुल मिलाकर इस मंत्रिमंडल में ऐसा कुछ नहीं है जिसे लेकर कोई बड़ा प्रवाद खड़ा किया जा सके। कांग्रेस प्रवक्ता अजय माकन ने जो आरोप लगाए हैं, उसमें परिपक्व सोच का परिचय नहीं मिला। कांग्रेस के लिए यह उचित है कि सरकार के कामकाज पर निगाह रखे और जहां गड़बड़ी दिखे उसकी आलोचना करे, लेकिन बिना सही अवसर के विवादों में उलझना स्वयं कांग्रेस के हित में नहीं है। एक और बात, कुछ ही दिनों में भाजपा संगठन में भी फेरबदल होने की अपेक्षा रखनी चाहिए। जो पार्टी पदाधिकारी मंत्री बन गए उनके रिक्त स्थानों पर भाजपा को नए लोगों को लाना ही होगा।

अंत में, छत्तीसगढ़ निवासी होने के कारण मुझे दु:ख है कि सात बार चुनाव जीतने के बाद भी रमेश बैस को मंत्री पद नहीं मिल सका।
 देशबन्धु में 13 नवंबर 2014 को प्रकाशित 

Sunday 9 November 2014

छत्तीसगढ़: वर्तमान सांस्कृतिक परिदृश्य



छत्तीसगढ़ के सांस्कृतिक परिदृश्य की चर्चा करते हुए कुछ बिन्दु स्पष्टता के साथ उभरते हैं-
 
1. यह प्रदेश एक लंबे समय से संस्कृति की विभिन्न विधाओं का धनी रहा है। विगत अनेक शताब्दियों के दौरान समय-समय पर यहां रचनाशीलता का जैसा उन्मेष हुआ और जिसकी परंपरा आज तक चली आ रही है, वह किसी भी अन्य प्रदेश से कम नहीं है।
2. इस सांस्कृतिक वैभव की जो पहचान राष्ट्रीय स्तर पर बनना चाहिए थी, वह नहीं बन पाई है।
3. प्रदेश में इस संबंध में जिस व्यवस्थित तरीके से अध्ययन, शोध व प्रसार होना चाहिए था, वह भी नहीं हो सका है।
4. मध्यप्रदेश से पृथक हो एक स्वतंत्र इकाई बन जाने के बाद प्रदेश की रचनाशीलता पर एक तरफ शासकीय संरक्षण की अभिलाषा व दूसरी ओर उपभोक्ता संस्कृति का प्रभाव- इस तरह राहू-केतु की छाया पड़ गई है। अगले अनुच्छेदों में हम इन बिन्दुओं की विस्तार से व्याख्या करने का प्रयत्न करेंगे।

छत्तीसगढ़ का चालीस प्रतिशत से अधिक भूभाग यद्यपि वनों से आच्छादित है, किन्तु यहां विकसित नागर सभ्यता होने के चिन्ह लगभग दो हजार वर्ष पूर्व से मिलते हैं। सर्वविदित है कि मल्हार में प्राप्त विष्णु प्रतिमा लगभग इतनी ही पुरानी है। इसके बाद सिरपुर, रतनपुर, बारसूर आदि स्थान हैं, जो छत्तीसगढ़ के प्राचीन सांस्कृतिक वैभव के साक्ष्य हैं। यहां हम सिर्फ उदाहरण के लिए कुछ नाम दे रहे हैं ताकि पाठकों के सामने एक रूपरेखा रखी जा सके। ये प्राचीन मंदिर किस राजा ने बनवाए थे, इनके स्थपति कौन थे, इन मूर्तियों को किन्होंने गढ़ा था, यह सब विशद विवेचन का विषय है। फिलहाल इतना जान लेना रोचक है कि दो हजार वर्ष से छत्तीसगढ़ में सभ्यता का विकास व प्रकृति का संरक्षण समानांतर होते आया है। इस मायने में छत्तीसगढ़ की स्थिति अन्य प्रदेशों से भिन्न कही जा सकती है।
यह अनुभव अपने आप में मुग्ध कर देने वाला है कि आप प्रदेश के उत्तरी भाग में याने सरगुजा अंचल में घने जंगलों के बीच किसी निर्जन सी सड़क पर प्रकृति की शोभा निहारते चले जा रहे हैं और अचानक आपके सामने कहीं महेशपुर तो कहीं डीपाडीह के ध्वंसावशेष सामने आ गए हैं। ऐसा अनुभव आपको बस्तर में भी हो सकता है या कवर्धा, राजनांदगांव, महासमुंद, सारंगढ़, धमतरी या गरियाबंद में भी। फिंगेश्वर के प्राचीन फणेश्वर महादेव मंदिर को देखकर मेरे मित्र त्रिभुवन पांडेय ने अनुमान लगाया था कि प्राचीन समय में मंदिर शिल्पियों का कोई बड़ा कुनबा रहा होगा, जिसने देशाटन करते हुए राजाओं के आदेश-अनुग्रह से इन मंदिरों का निर्माण किया होगा। बड़े राजा के यहां बड़ा मंदिर, छोटे राजा के यहां छोटा। भाई त्रिभुवन के अनुसार ये उस समय के मंदिर ''कांट्रेक्टर" रहे होंगे। है न बात विचार करने योग्य!

जाहिर है कि यह सांस्कृतिक वैभव सिर्फ मंदिर निर्माण तक सीमित नहीं रहा होगा। उसके साथ-साथ रचनाशीलता के नए आयामों को प्रस्फुटित होने का अवसर मिला ही होगा। यह भी मानना चाहिए कि जैसे-जैसे यात्राएं सुगम हुई होंगी, विभिन्न प्रदेशों के बीच संपर्कों में भी वृद्धि हुई होगी तथा आज छत्तीसगढ़ के जिन कलारूपों को हम देख रहे हैं वे बाह्य प्रभाव से मुक्त नहीं रहे होंगे। इसी तरह छत्तीसगढ़ की रचनाशीलता ने अन्य प्रदेशों को भी प्रभावित किया होगा। मुझे लगता है कि छत्तीसगढ़ के कथागीत इसका प्रमाण हैं। मसलन, गुजरात में ''जसमा-ओढन" की कथा व छत्तीसगढ़ में ''दसमत-कैना" की कथा में अद्भुत साम्य है। डॉ. रमाकांत श्रीवास्तव ने छत्तीसगढ़ के कथागीतों पर जो गंभीर शोध कार्य किया है वह इस बारे में अधिक जानकारी के लिए पठनीय है। शास्त्रीय नृत्य में कत्थक के रायगढ़ घराने से भी कलावंत परिचित हैं। ऐसे सांस्कृतिक विनिमय को विजयदान देथा की राजस्थानी लोककथा तथा हबीब तनवीर की नाट्यकृति ''चरणदास चोर" में भी देखा जा सकता है।

मैं दाऊ रामचंद्र देशमुख की रंगमंचीय प्रस्तुति ''चंदैनी गोंदा" का विशेष रूप से जिक्र करना चाहूंगा। 1970 के दशक में लोकमंच पर प्रस्तुत इस कृति ने समूचे छत्तीसगढ़ को एक तरह से झकझोर दिया था। उस दौर में जब डॉ. खूबचंद बघेल के छत्तीसगढ़ भ्रातृसंघ के माध्यम से प्रदेश की स्वतंत्र राजनीतिक पहचान अंकित करने का प्रयत्न हो रहा था उस समय चंदैनी गोंदा ने स्थानीय समाज को अपनी जीवन परिस्थितियों का पुनरावलोकन करने के लिए उत्तेजित किया था। चंदैनी गोंदा से प्रेरित होकर आगे और भी मंचीय उपक्रम हुए लेकिन दाऊ जी अपनी एकांतिक निष्ठा के बल पर जो जादू जगा सके थे वैसा वे दूसरे लोग नहीं कर पाए, जिनके लिए लोकमंच निजी ख्याति मात्र पाने का माध्यम था।

हिन्दी साहित्य का आधुनिक काल माने जाने वाले समय में भी छत्तीसगढ़ का जो योगदान है वह इतिहास में दर्ज है। मुकुटधर पांडेय की कविता ''कुररी के प्रति" को छायावाद की पहली कविता माना जाता है। इस नाते पांडेय जी को छायावाद का प्रणेता भी कहा गया है। यद्यपि पांडेय जी स्वयं श्रेय न लेते हुए महाकवि जयशंकर प्रसाद को इसका अधिकारी मानते हैं। ठाकुर जगमोहन सिंह की कृति ''श्यामा स्वप्न"  को राज्य बनने के बाद हिन्दी का पहला उपन्यास सिद्घ करने के स्वार्थ-प्रेरित किन्तु असफल प्रयत्न हुए। इसी तरह माधवराव सप्रे की  ''टोकरी भर मिट्टी" को एक बड़े तबके में हिन्दी की पहली कहानी मान लिया गया है यद्यपि वह एक लोककथा है। जो भी हो, ये दोनों रचनाएं आधुनिक हिन्दी के प्रारंभकाल में छत्तीसगढ़ की उपस्थिति को दर्ज कराती हैं। एक स्मरणीय तथ्य यह भी है कि पदुमलाल-पुन्नालाल बख्शी को ''सरस्वती" का संपादन करने का सम्मान मिला। माखनलाल चतुर्वेदी ने ''पुष्प की अभिलाषा" जैसी अमर कविता बिलासपुर जेल की कोठरी में बैठकर लिखी व गजानन माधव मुक्तिबोध के अंतिम वर्ष यहीं बीते।

भारतीय रंगमंच को जिन प्रतिभाओं ने समृद्ध किया, उनमें से दो प्रमुख नाम हबीब तनवीर व सत्यदेव दुबे छत्तीसगढ़ के हैं ही। इसके अलावा अन्य विधाओं में भी देवदास बंजारे, तीजन बाई, झाड़ूराम देवांगन, जयदेव बघेल, गोविंदराम झारा, सोनाबाई जैसे कितने ही नाम उल्लेखनीय हैं। लेखकों की तो एक सुदीर्घ सूची है ही जिससे पाठकगण परिचित हैं। भारतीय सिनेमा में भी छत्तीसगढ़ का महत्वपूर्ण योगदान है। सुप्रसिद्ध फिल्म निदेशक एवं अभिनेता किशोर साहू इसी प्रदेश के थे। आगे चलकर रायपुर के कांतिलाल पटेल ने अपनी गुजराती में बनी फिल्म "कंकू" के लिए वर्ष की सर्वश्रेष्ठ फिल्म का पुरस्कार हासिल किया। उन्होंने "परिणय" आदि अन्य स्मरणीय फिल्में भी बनाईं। इसी तरह रायपुर के दयाराम चावड़ा ने फोटोग्राफी के क्षेत्र में महारत हासिल की। छत्तीसगढ़ की संस्कृति की चर्चा के संदर्भ में ये सारे तथ्य ध्यान रखने योग्य है।

यह स्मरण कराने की आवश्यकता नहीं कि किसी भी समाज की संस्कृति शून्य में विकसित नहीं होती। भूगोल, इतिहास, अर्थशास्त्र, पर्यावरण, सामाजिक परंपराएं इत्यादि का प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष प्रभाव कला सर्जना पर पड़ता है। इस प्रभाव से ही प्रारंभ में लोक संस्कृति का निर्माण होता है एवं कालांतर में उसका ही एक अंश शास्त्रीय रूप में ढल जाता है। यहां मैं विशेषकर छत्तीसगढ़ की एक सामाजिक परंपरा की ओर ध्यान आकर्षित करना चाहता हूं। छत्तीसगढ़ को यदि तालाबों का प्रदेश कहा जाए तो किंचित भी अतिशयोक्ति नहीं होगी। आज भी प्रदेश में ऐसे तालाब विद्यमान हैं जिनकी आयु हजार-आठ सौ वर्ष की है। ये तालाब, इनकी पार पर लगे आम, अर्जुन, गूलर आदि वृक्षों की छाया में ही यहां संस्कृति का बीजारोपण हुआ होगा। ध्यान रहे कि ये तालाब हमारे सयानों ने बनवाए थे इसलिए जिस विषय पर आज हम चर्चा कर रहे हैं इसमें इस तथ्य को नहीं भुलाना चाहिए।
  

यह कटु सत्य है कि इतना सब कुछ होने के बावजूद देश के सांस्कृतिक नक्शे पर छत्तीसगढ़ की विशिष्ट छवि आज तक नहीं बन पाई है। इसका एक प्रबल कारण तो शायद यह है कि प्रदेश के बाहर का समाज हमेशा से छत्तीसगढ़ को एक पिछड़ा प्रदेश मानते आया है। 1956 में जब छत्तीसगढ़ नए मध्यप्रदेश का हिस्सा बना शायद तब से यह स्थिति चली आ रही है। मैं समझता हूं कि 1956 से पहले के सीपी एंड बरार राज्य की ऐसी स्थिति नहीं थी। उस समय छत्तीसगढ़, विदर्भ और महाकौशल इन तीनों में कोई बड़ा-छोटा नहीं था और न किसी तरह का भेदभाव होता था। नए मध्यप्रदेश के निर्माण के ठीक दो माह बाद 31 दिसंबर 1956 को प्रथम मुख्यमंत्री व कद्दावर नेता पंडित रविशंकर शुक्ल के निधन के साथ एक नया माहौल बनना शुरू हुआ, जिसमें महाकौशल, बुंदेलखंड व बघेलखंड के साथ-साथ छत्तीसगढ़ को भी हाशिए पर डाल दिया गया। छत्तीसगढ़ के साथ दूसरी विडंबना यह हुई कि नए प्रदेश के सत्ता केंद्र भोपाल से उसकी भौगोलिक दूरी भी काफी थी। इसमें करेला और नीम चढ़ा की कहावत तब चरितार्थ हुई जब छत्तीसगढ़ के प्रभावी राजनेताओं ने भी इस प्रदेश को अपना प्राप्य दिलवाने में जबानी जमाखर्च से ज्यादा दिलचस्पी नहीं दिखलाई। जब 1 नवंबर 2000 को नया छत्तीसगढ़ प्रदेश बना तब मोमबत्ती की लौ की तरह क्षणिक आशा जगी कि अब छत्तीसगढ़ की सही पहचान बन पाएगी लेकिन ऐसा नहीं हो सका। जो सत्ता में बैठे थे उनकी प्राथमिकताएं कुछ और थीं। कला, साहित्य व संस्कृति से उनका कोई खास लेना-देना नहीं था और न इस बारे में पिछले डेढ़ दशक में कोई सुविचारित पहल ही की गई। हमारे कलाकार और हुनरकार बीच-बीच में दिल्ली वगैरह बुलाए जाते हैं वे वहां जाकर कुछ फुलझडिय़ां बिखेर कर वापस अपने अंधेरे में लौट आते हैं।

मैं यह मानता हूं कि जनतांत्रिक व्यवस्था में जनकल्याणकारी राज्य का दायित्व है कि वह कला-साहित्य का संवर्धन व संरक्षण करें। इसके लिए अव्वल तो दृष्टि की जरूरत होती है, फिर राजनीतिक इच्छाशक्ति की। अगर छत्तीसगढ़ में इन बुनियादी शर्तों की ही पूर्ति होते दिखाई नहीं देती तो इसके लिए हम स्वयं को दोष दे सकते हैं। रचनाशीलता को लोक, आदिवासी, नागर आदि खांचों में न बांटकर समग्रता में देखते हुए यह जरूरी है कि राज्य में ऐसा वातावरण, ऐसी संस्थाएं व ऐसा विधान हो, जिसमें हर विधा, हर शैली में सृजनात्मकता का विकास होने के लिए अनुकूल वातावरण हो। छत्तीसगढ़ जैसे नए राज्य के लिए तो यह और भी ज्यादा जरूरी है, जबकि इस प्रदेश की छवि आंतरिक अशांति याने नक्सलवादी खून-खराबे से घायल स्थान की बन गई हो। दिल्ली में गणतंत्र दिवस की परेड में छत्तीसगढ़ की एकाध झांकी शामिल हो जाए, पुरस्कृत हो जाए, उस पर सत्ताधीश गर्व भी कर लें, लेकिन साल में तीन सौ चौसठ दिन तो दिल्ली में बात छत्तीसढ़ में नक्सल समस्या की ही होती है।

छत्तीसगढ़ में प्रदेश सरकार द्वारा स्थापित दस विश्वविद्यालय हैं। इनमें 1954 में स्थापित कला व संगीत विश्वविद्यालय भी है, लेकिन इनमें से एक में भी छत्तीसगढ़ की संस्कृति को लेकर कोई गंभीर काम नहीं होता। यह ऐसा प्रदेश है जहां छुटभैये नेता अपने ऊपर पीएचडी करवा लेते हैं। यहां के लेखक और कलाकार पद्मश्री पाने के लिए खुद होकर आवेदन करते हैं और सिफारिशी चिट्ठियां लिखवाते इस-उस की ड्योढ़ी पर माथा टेकते हैं। यहां साल के प्रत्येक दिन कोई न कोई उत्सव, कोई न कोई सांस्कृतिक आयोजन होते रहता है, लेकिन जब तक मंत्री न आ जाएं कार्यक्रम शुरू नहीं होता। उनके आने से आयोजक धन्य होते हैं। कार्यक्रम के बीच में उठकर चले जाएं तो भी कोई बुरा नहीं मानता।

यह मजे की बात है कि 1964 में रायपुर में रविशंकर वि.वि. स्थापित हुआ। इसमें हिन्दी विभाग नहीं है। ललित कलाओं के लिए भी कोई विभाग नहीं है। यहां अपने पैसे से दो-चार किताबें छपवा लेने वाले अधकचरे साहित्यकार भी अपने ऊपर शोध कार्य करवा लेते हैं। इनकी गुणवत्ता का परीक्षण करने की कोई व्यवस्था नहीं है। एक तरफ अंग्रेजी माध्यम स्कूलों की संख्या लगातार बढ़ रही है, दूसरी ओर सरकारी गैर-सरकारी स्कूलों में ऐसे अध्यापक नहीं हैं जो बच्चों को शुद्ध हिन्दी लिखना सिखा सकें। नतीजतन जो हिन्दी में एम.ए., पी.एच.डी. कर लेते हैं उन्हें भी अच्छी हिन्दी लिखना नहीं आता। प्रदेश के संस्कृति विभाग के हाल बेढब हैं। विगत तेरह वर्षों में इस विभाग का ठीक से ढांचा नहीं बन पाया और विभाग की दिशा क्या होगी यह भी आज तक नहीं पता। इसीलिए बख्शीजी और मुक्तिबोध के नाम पर साहित्य के लिए नहीं, बल्कि शिक्षक पुरस्कार दिए जाते हैं।

प्रदेश में फिलहाल जो सांस्कृतिक परिदृश्य बना हुआ है, उसमें एक तो संस्कृति कर्मियों की लंबी कतार दिखाई देती है। इनमें से प्रत्येक को या तो कोई पुरस्कार चाहिए या पुस्तक प्रकाशन के लिए आर्थिक सहायता या फिर अपनी बनाई किसी जेबी संस्था के लिए सरकारी अनुदान। यह शायद इस प्रदेश में ही होता है कि सरकारी स्तर पर आयोजित कवि सम्मेलन में अपना नाम जुड़वाने के लिए कविगण आयोजक अधिकारी को पत्र-पुष्प देने के लिए तैयार रहते हैं। इसके चलते किसी महोत्सव में आप मंच पर सौ-सौ कवियों को बैठा देख सकते हैं। प्रदेश में जो सृजनपीठ हैं अथवा जो साहित्य अकादमी जैसी संस्था में प्रदेश का प्रतिनिधित्व करते हैं उनके नाम-काम मन में किसी प्रकार का उत्साह नहीं जगाते।

बात यहां समाप्त नहीं होती। प्रदेश तीजन बाई जैसे कलाकारों पर उचित ही गर्व करता है वहीं छत्तीसगढ़ की संस्कृति के नाम पर अब जो फूहड़पन परोसा जा रहा है वह असहनीय है। कुछ व्यापारी लोक कलाओं के स्वयंभू संरक्षक बन गए हैं। लोक गीतों के नाम पर अब अश्लील गीतों के कैसेट बाजार में बिक रहे हैं, भक्ति गीतों के नाम पर बहरा कर देने वाला शोर-शराबा है, सुआगीत आदि के नाम पर सिर्फ एक नकलीपन है, छत्तीसगढ़ी में बनने वाली फिल्मों में छत्तीसगढ़ कहीं नहीं है, आदिवासी कलाकारों के शिल्प से मौलिकता और उनके अपने जीवन अनुभव लगभग लुप्त हो चुके हैं। छत्तीसगढ़ में जो लोग साहित्य व कला में सक्रिय हैं, आज उनकी चिंता यही है कि कैसे अपनी सहज प्रेरणा को बचा कर रखें, कैसे अपनी कल्पनाशीलता को मरने से बचाएं और कैसे लोभ-लालच के इस वातावरण में अपने आपको सुरक्षित रख सकें। 
अक्षर पर्व नवंबर 2014 अंक की प्रस्तावना

नोट-प्रस्तुत आलेख कुछ माह पूर्व बिलासपुर से प्रकाशित वार्षिक पत्रिका मड़ई के लिए लिखा गया था एवं मड़ई अंक-2013 में ''छत्तीसगढ़ : वर्तमान सांस्कृतिक परिदृश्य'' शीर्षक से संकलित है। अक्षर पर्व के लोकसंस्कृति पर केन्द्रित उत्सव अंक के लिए अलग से प्रस्तावना न लिखकर यही लेख प्रसंगानुकूल समझकर पुनप्र्रकाशित किया जा रहा है।



Wednesday 5 November 2014

नेहरू बनाम पटेल क्यों?


 प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 31 अक्टूबर को सरदार पटेल की जयंती पर कहा कि महात्मा गांधी सरदार पटेल के बिना अधूरे थे। इस वक्तव्य का निहितार्थ समझना कठिन नहीं है। श्री मोदी प्रधानमंत्री बनने के पहले से सरदार पटेल का पुनराविष्कार और पुनप्र्रतिष्ठा स्थापित करने के अभियान में लगे हुए हैं। गोया कि ऐसा करने की कोई आवश्यकता थी! वे सरदार सरोवर के बीच लौहपुरुष की लौह प्रतिमा लगवाने जा रहे हैं जो विश्व की सबसे ऊंची प्रतिमा होगी। उन्होंने 31 अक्टूबर को राष्ट्रीय एकता दिवस भी घोषित कर दिया है और जिस तरह गांधी जयंती पर प्रधानमंत्री के आह्वान पर देशवासी झाड़ू लेकर सड़क पर निकल आए थे उसी तरह 31 अक्टूबर को वे राष्ट्रीय एकता हेतु दौडऩे के लिए एक बार फिर सड़कों पर उतर आए। इसके अलावा नागरिकों ने राष्ट्रीय एकता कायम करने के लिए शपथ भी ली। अगर इस तरह दौडऩे और शपथ लेने मात्र से कोई उद्देश्य पूरा हो सकता हो तो फिर कहना ही क्या है। हमें ध्यान आता है कि राजीव गांधी की जयंती पर भी सरकारी कर्मचारी शपथ लेते हैं और दौडऩे का आयोजन तो साल भर बदस्तूर कहीं न कहीं चलते रहता है। कभी-कभी लगता है कि सरकारी ईवेन्ट मैनेजरों की कल्पनाशक्ति चुक गई है।

खैर! प्रधानमंत्री का यह भावातिरेक गौरतलब है कि गांधीजी सरदार के बिना अधूरे थे। दूसरे शब्दों में सरदार पटेल महात्मा गांधी के पूरक थे। हमारी समझ में यह सोच तो स्वयं सरदार की कभी नहीं रही होगी। हम जितना जानते हैं उसके अनुसार वे गांधीजी के प्रिय और विश्वस्त साथी बल्कि शिष्य थे। लेकिन क्या यही बात पंडित नेहरू पर लागू नहीं होती? महात्मा गांधी ने आज़ादी  की लड़ाई में हिस्सा लेने के लिए यूं तो करोड़ों लोगों को प्रेरित किया था, लेकिन उनका जो हरावल दस्ता था उसमें नेहरू, पटेल, राजाजी, मौलाना आज़ाद, सुभाषचंद्र बोस, डॉ. राजेन्द्र प्रसाद व विनोबा भावे जैसे कुछ नाम प्रमुखता के साथ लिए जा सकते हैं। इस अग्रिम पंक्ति में से एक नेताजी थे जिन्होंने कतिपय कारणों से अपना अलग रास्ता चुन लिया था, लेकिन बाकी सब तो बापू के साथ अंत तक रहे और जिसको जैसी जिम्मेदारी मिली उसका निर्वाह उसने किया।

पंडित नेहरू व सरदार पटेल के आपसी संबंधों तथा राजनीतिक कौशल अथवा क्षमताओं को लेकर कुछ भ्रांत धारणाएं जनमानस में फैलाने की कोशिश लंबे समय से की जा रही है। जो लोग इस उपक्रम में लगे हैं उनसे सबसे पहले तो यही पूछा जाना चाहिए कि महात्मा गांधी ने सरदार पटेल को अपना उत्तराधिकारी घोषित क्यों नहीं किया? या उन्हें प्रथम प्रधानमंत्री क्यों नहीं बनाया? यह सवाल भी उठता है कि यदि पंडित नेहरू और सरदार पटेल के बीच ऐसे गहरे मतभेद थे, तो फिर दोनों ने सरकार में साथ-साथ काम क्यों किया? यह ठीक है कि इन दोनों महान नेताओं के बीच राजकाज को लेकर विचार-वैभिन्न्य होता होगा, लेकिन यह भी देखना चाहिए कि नवस्वतंत्र देश के सामने उपस्थित बड़े मसलों पर दोनों ने एकराय होकर निर्णय लिए और उन्हें लागू किया।

सरदार पटेल को उचित ही श्रेय दिया जाता है कि उन्होंने देशी रियासतों के विलीनीकरण में दृढ़ भूमिका निभाई जिसके चलते ही उन्हें लौहपुरुष के विशेषण से सम्मानित करते हैं। इसकी पृष्ठभूमि में दो कारकों का उल्लेख करना उचित होगा। एक तो यह कि सरदार पटेल स्वतंत्र भारत की सरकार के प्रतिनिधि के रूप में इस प्रक्रिया को अंजाम दे रहे थे याने शासन की शक्ति उनके पास थी। दूसरे, देशी रियासतों में लंबे समय से प्रजामंडल आंदोलन चल रहा था, जिसके अधिकतर कार्यकर्ता कम्युनिस्ट थे। रियासत में रहते हुए इन लोगों ने जो संघर्ष किया उससे भी राजे-रजवाड़े हिल चुके थे। आशय यह कि उनके सामने भारत संघ में विलय करने के अलावा और कोई चारा नहीं बचा था।

यह आरोप भी लगाया जाता है कि नेहरू जी के कारण कश्मीर का मामला उलझ गया। जिन्हें इतिहास की जानकारी नहीं है वे ही ऐसा कह सकते हैं। कश्मीर में राजा हिन्दू, बहुसंख्यक प्रजा मुस्लिम; इसके विपरीत हैदराबाद में निजाम याने राजा मुसलमान और प्रजा हिन्दू। यदि राजा द्वारा विलय पत्र पर हस्ताक्षर को पूर्ण मान्यता दी जाती तो निजाम को पाकिस्तान के साथ मिलने से कैसे रोका जाता? यदि हैदराबाद की हिन्दू प्रजा भारत में मिलने की इच्छुक थी तो कश्मीर की मुस्लिम आबादी को पाकिस्तान के साथ जाने से कैसे रोका जाता? इसके अलावा एक और उल्लेखनीय तथ्य है कि आज जिसे हम पाक अधिकृत कश्मीर कहते हैं उसे राजा हरिसिंह ने चंद बरस पहिले 1938-39 में खरीदा था। याने उस इलाके की जनता का इधर के कश्मीर के साथ या भारत के साथ कोई भावनात्मक रिश्ता नहीं था। पंडित नेहरू और सरदार पटेल दोनों इन सारे तथ्यों को जानते थे। उन्हें यह भी पता था कि उस तरफ के हिस्से को अगर सैन्य बल से जीत भी लेते तो उसे ज्यादा दिन साथ नहीं रख सकते थे। याद कीजिए कि 1971 में भारतीय सेनाएं लाहौर के दरवाजे तक पहुंच चुकी थीं, फिर भी उसे लौटना पड़ा।

एक अन्य आरोप बार-बार लगाया जाता है कि नेहरू-गांधी परिवार के शासनकाल में सरदार पटेल और नेताजी जैसे शीर्ष नेताओं की जानबूझ कर उपेक्षा की गई क्योंकि वे नेहरूजी के राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी थे। यह भी एक अनर्गल आरोप है। नेताजी ने तो गांधीजी से नाराज होकर कांग्रेस से अपना नाता तोड़ लिया था। फिर वे भारत की आज़ादी में सहयोग लेने के लिए जर्मनी में हिटलर और जापान में जनरल तोजो के पास भी चले गए थे। 1945 में विमान दुर्घटना में उनका निधन हो गया था। इन तथ्यों की रोशनी में पंडित नेहरू के साथ उनकी प्रतिद्वंद्विता का कोई प्रश्न ही नहीं था। सरदार पटेल और नेहरूजी के संबंधों की चर्चा हम ऊपर कर आए हैं। यहां एक स्मरणीय तथ्य है कि सरदार पटेल की सेवाएं स्वतंत्र देश को मात्र तीन वर्ष तक ही मिल सकीं। 1950 में तो उनका निधन ही हो गया। फिर भी सरदार पटेल हों या नेताजी, मैं नहीं समझता कि इन दोनों का सम्मान करने में देश की जनता ने या जनता के द्वारा चुनी सरकार ने कोई कोताही बरती हो। इसका सबसे बड़ा प्रमाण यही है कि कांग्रेस ने सरदार पटेल की सुपुत्री मणिबेन एवं सुपुत्र डाह्या भाई पटेल दोनों को पहिले लोकसभा में फिर राज्यसभा में भेजा। मणिबेन तो गुजरात प्रदेश कांग्रेस की उपाध्यक्ष भी रहीं। आज से पैंसठ साल पहले मैं जब स्कूल का विद्यार्थी था तब भी इन दोनों महापुरुषों की जीवनी सरकारी स्कूल की पाठ्य पुस्तकों में शामिल थीं और जहां तक मेरी जानकारी है आज भी वही स्थिति है।

इन दोनों का उल्लेख सिर्फ पाठ्य पुस्तकों में होता हो यह भी नहीं है। स्कूल, कॉलेज, सरकारी दफ्तर इत्यादि अनेक सार्वजनिक स्थानों पर गांधीजी के साथ नेहरू, पटेल और सुभाष- इन तीनों की मढ़ी हुई तस्वीरें पहले भी देखने मिल जाती थीं और आज भी। इनके अलावा भगत सिंह और विवेकानन्द के चित्र भी देखने मिलते हैं। इनकी प्रतिमाएं भी देश के कोने-कोने में स्थापित की गई हैं। रायपुर में तो गांधीजी के पहले सुभाष बाबू की प्रतिमा लग चुकी थी, जबकि नेहरूजी की प्रतिमा बहुत बाद में लगी। याद कीजिए, कि मध्यप्रदेश में सचिवालय का नया परिसर निर्मित हुआ तो उसका नाम वल्लभ भवन रखा गया। राष्ट्रीय पुलिस अकादमी का नामकरण भी उनकी स्मृति में किया गया है। गुजरात में वल्लभ विद्यानगर बसाया गया है। कुल मिलाकर इनके योगदान को भुलाने के लिए, इन्हें जनस्मृतियों से विलोपित करने के लिए कोई षडय़ंत्र किया गया हो, ऐसा मुझे नहीं लगता। फिर भी मैं माननीय प्रधानमंत्रीजी का आभार मानना चाहता हूं कि उनके कारण मुझे इन प्रात: स्मरणीय नेताओं के बारे में एक बार फिर विचार करने का अवसर मिला।
देशबन्धु में 06 नवंबर 2014 को प्रकाशित