Wednesday 23 April 2014

चुनावों में बदजुबानी


 
दुश्मनी लाख सही, खत्म न कीजे रिश्ते
दिल मिले या न मिले, हाथ मिलाते रहिए।
                                -निदा फ़ाज़ली


एक पुरानी कहावत है- बोया पेड़ बबूल का आम कहां से पाएं। यह कहावत हमारे चुने हुए प्रतिनिधियों पर सटीक बैठती है। पिछले कुछ बरसों में हमने देखा है कि निर्वाचित सदनों का कीमती वक्त किस तरह से शोर-शराबे की भेंट चढ़ जाता है तथा लोकमहत्व के मुद्दों पर या तो चर्चा हो ही नहीं पाती और अगर होती है तो उसे आनन-फानन में निपटा लिया जाता है। इसकी वजह क्या यह नहीं है कि हमने ऐसे लोगों को चुनकर लोकसभा और विधानसभा में भेजा जिसके वे सुपात्र नहीं थे? आम चुनावों की प्रक्रिया तेजी से आगे बढ़ रही है तब यह आशंका भी बलवती हो रही है कि क्या सोलहवीं लोकसभा में मर्यादाहीनता के पुराने सारे रिकार्ड टूट जाएंगे? इन दिनों चुनाव अभियान के दौरान जिस तरह से उम्मीदवार एक दूसरे पर कीचड़ उछाल रहे हैं उसे देखकर तो यही लगता है। प्रश्न है कि राजनैतिक व्यवहार में ऐसी गिरावट क्यों आई है? इसके अनेक कारण हैं।

आज अगर विभिन्न दलों के उम्मीदवार शिष्टता की सारी सीमाएं तोड़ रहे हैं तो उसके लिए सबसे बड़े दोषी भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी हैं। इस बारे में बहुत कयास लगाए गए हैं कि स्थापित परंपराओं को त्यागकर एक व्यक्ति को चुनाव पूर्व ही प्रधानमंत्री पद का दावेदार क्यों घोषित किया गया। जो भी हो, ऐसा होने से यह स्थिति बनी कि चुनाव व्यक्ति केंद्रित बना दिया गया। जब कांग्रेस ने प्रत्युतर में अपनी ओर से किसी की उम्मीदवारी घोषित नहीं की तो भाजपा के उकसावे पर मीडिया ने खुद होकर राहुल गांधी को नरेंद्र मोदी का प्रतिस्पर्धी घोषित कर दिया। उधर अरविंद केजरीवाल भी उसी रास्ते का अनुसरण करते हुए मंच पर अवतरित हो गए। इस परिदृश्य में भाजपा और नरेंद्र मोदी दोनों के लिए यह आवश्यक हो गया कि जैसे भी हथकंडे अपनाना पड़ें, श्री मोदी को एक अजेय योद्धा के रूप में प्रस्तुत किया जाए और वही हो रहा है।

नरेंद्र मोदी अपनी सभाओं में बार-बार जिस शब्दावली का प्रयोग कर रहे हैं वह असंसदीय भले न हो, लेकिन यह तो स्पष्ट है कि उससे अनावश्यक कटुता उत्पन्न हो रही है। आज जब भाजपा ने अटल बिहारी वाजपेयी को भुला दिया है तब उसे यह याद दिलाना उचित होगा कि दूसरी लोकसभा में नवनिर्वाचित सदस्य वाजपेयीजी ने जब अपना प्रथम वक्तव्य दिया तो प्रधानमंत्री पंडित नेहरू ने उन्हें स्वयं होकर बधाई व उज्जवल भविष्य की शुभकामनाएं दी थीं। एक क्षण के लिए कल्पना करें कि नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बन गए हैं तो क्या वे इसी तरह राहुल गांधी को उनके भाषण पर बधाई देने में विशाल हृदयता का परिचय दे सकेंगे? जिस तरह से श्री मोदी बार-बार राहुल गांधी और उनके परिवार पर कटाक्ष कर रहे हैं उसे देखकर ऐसी कोई उम्मीद रखना व्यर्थ है।

यदि भारतीय जनता पार्टी के उम्मीदवार अपने विरोधियों पर विष बुझे तीर छोड़ रहे हैं तो कांग्रेस, सपा, बसपा, आप आदि के नुमाइंदे भी अपनी वाणी पर संयम नहीं रख पा रहे हैं। ऐसा लगता है मानो चुनकर संसद में जाने के पहले ही सारा हिसाब-किताब बराबर कर लेंगे। ऐसा नहीं कि प्रत्याशीगण ऐसा आचरण भावावेश में कर रहे हों बल्कि अनुमान होता है कि वे अच्छी तरह से जानबूझकर ही अशिष्ट और अनर्गल भाषा का प्रयोग कर रहे हैं। इसमें उन्हें दो तरह से फायदा दिखाई देता है। एक तो उन्हें लगता है कि इससे मतदाताओं पर अनुकूल प्रभाव पड़ेगा और वे उनकी बहादुरी के कायल हो जाएंगे और दूसरे कि इससे मीडिया में उनका नाम बिना खास मेहनत किए सुर्खियों में आ जाएगा। तीसरे यह भी संभव है कि इसके लिए उन्हें दल के बड़े नेताओं से सराहना मिलती हो।

यह जो परिस्थिति उत्पन्न हुई है इसकी कुछ जिम्मेदारी चुनाव आयोग को भी स्वीकार करना चाहिए। वह इसलिए कि आम चुनाव की प्रक्रिया बहुत लंबी खिंच गई है। ऐसा पहली बार नहीं हुआ है किंतु व्यक्ति केन्द्रित हो जाने से उसका दुष्प्रभाव कुछ अधिक गहरा गया है। हम जानते हैं कि चुनाव आयोग के सामने तकनीकी सीमाएं हैं। जब मतदाताओं की संख्या लगातार बढ़ रही हो, मतदान का प्रतिशत भी बढ़ रहा हो, चुनाव में घपलेबाजी रोकना हो, नयी तकनीकी का प्रयोग करना हो, मतदाताओं को निष्पक्ष और स्वतंत्र चुनाव के प्रति आश्वस्त करना हो तो इतनी व्यवस्थाएं करने में समय तो लगना ही है, किंतु अब चुनाव आयोग को विचार करना होगा कि  कीचड़ उछालने के इस खेल को कैसे रोका जाए।  कई-कई चरणों में मतदान होने से पार्टियों का अपने विरोधियों पर आक्रमण करने का एक नया अवसर हर दो दिन में मिल जा रहा है, इस पर विराम कैसे लगाया जाए।

आज एक नेता एक जगह भाषण देता है, अगले हफ्ते दूसरी जगह जाकर वह उसी बात को दोहरा देता है इस तरह से मर्यादाहीनता लगातार आगे बढ़ती जाती है। चुनाव आयोग ने शिकायत मिलने पर अपनी तरफ से कार्रवाईयां जरूर कीं, लेकिन वे पर्याप्त सिद्ध नहीं हुईं। अमित शाह का उदाहरण लें। चुनाव आयोग ने उन पर लगी बंदिश क्या सोचकर हटा दी।  हमें लगता है कि ऐसे प्रकरणों में आयोग को और ज्यादा सख्ती दिखाना चाहिए। बयान पर विरोधी पक्ष से शिकायत आए उससे पहले आयोग को स्वयं होकर संज्ञान लेना चाहिए। आखिरकार उसके पर्यवेक्षकों का क्या काम है? और जब एक बार आयोग कोई कार्रवाई करे तो वह चुनावी नतीजे आने तक लागू रहे। अमित शाह, आजम खां, गिरिराज सिंह, इमरान मसूद या कोई और, ये सब आयोग की कठोर कार्रवाई से ही वश में आ सकते हैं।

देश के इलेक्ट्रानिक मीडिया को भी अपना उत्तरदायित्व समझने की बेहद आवश्यकता है। प्रिंट मीडिया याने अखबार में छपी बात तो एक सीमित दायरे में ही फैलती है, लेकिन टीवी पर वही बात दैत्याकार रूप ग्रहण कर लेती है। एक तो चैनलों की संख्या बहुत ज्यादा है। उन सब पर एक ही समय में खबर फूटती है, फिर बार-बार का प्रसारण होने से वह बात चर्चा में लगातार बनी रहती है। कोई अच्छी बात टीवी के माध्यम से दूर-दूर तक पहुंचे तब तो उसका स्वागत है, लेकिन जनता को अभद्र, अश्लील, अनर्गल, अशिष्ट चर्चाएं सुनने के लिए अभिशप्त क्यों किया जाए? इसमें यह बिन्दु भी है कि एक चुनाव क्षेत्र में कही गई बात बचे पांचसौ चालीस क्षेत्रों तक अनावश्यक रूप से पहुंच जाती है, जिनका उससे कोई लेना-देना नहीं होता। मुझे गुरुनानक की बोधकथा का ध्यान आता है कि एक लड़ाई-झगड़े वाले गांव के  सारे लोग उसी गांव में रहे आएं ताकि उनका बुरा आचरण वहीं तक सीमित रहे, जबकि समझदारों के गांव के सारे लोग बिखर जाएं ताकि वे दूर-दूर जाकर  समझदारी फैला सकें।

इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की चर्चा करते हुए उसके एक अन्य रूप याने सोशल मीडिया की अनदेखी नहीं की जा सकती। टीवी में तो फिर भी गुंजाइश है कि उंगली दिखाकर कहा जा सके कि दोषी कौन है, किन्तु फेसबुक व ट्विटर पर सही-गलत खबरें फैलाने वालों की शिनाख्त करना कठिन क्या, असंभव ही है। इन माध्यमों से उम्मीदवारों के बयानों के अलावा दबे-छुपे तरीके से जो दुष्प्रचार किया जा सकता है, किया जा रहा है, उसकी रोकथाम आसान नहीं है। जनता को पिछले दो सालों में बताया गया है कि सोशल मीडिया पर नरेंद्र मोदी सर्वाधिक लोकप्रिय राजनेता हैं और वे ही इसका सबसे बेहतर इस्तेमाल करते हैं। अगर यह बात सही है तो फिर यह अनुमान भी तार्किक रूप से लगाया जा सकता है कि उनके समर्थक-प्रशंसक-कारिंदे ही दुष्प्रचार में भी सबसे आगे होंगे! हम समझते हैं कि चुनाव आयोग को इस पहलू पर भी गौर करना चाहिए कि चुनाव के समय सोशल मीडिया पर ऐसी कोई सामग्री न परोसी जा सके जिससे माहौल प्रदूषित होने का खतरा पैदा होता हो।

जब कभी नेता या प्रत्याशी आपत्तिजनक बातें कहते हैं, तब पार्टी प्रवक्ता यह कहकर बात को उड़ाने की कोशिश करते हैं कि चुनावों के समय ऐसा स्वाभाविक हो जाता है। जनता को यह तर्क स्वीकार नहीं करना चाहिए। जो लोग चुनाव लड़ते हैं, उन्हें देश के संविधान की रक्षा करने के योग्य माना जाता है। अगर वे ही लक्ष्मण रेखा लांघेंगे तो संविधान की महिमा कैसे कायम रख पाएंगे?

देशबन्धु में 24 अप्रैल 2014 को प्रकाशित
 

Wednesday 16 April 2014

नक्सल समस्या : हल क्या है?


 
क्या सब कुछ इसी तरह चलता रहेगा? बस्तर के विकास की बातें होंगी, आदिवासियों को मुख्यधारा में लाने का दावा होगा, उनके प्रगति करने के संदिग्ध प्रतीक नागर समाज के सामने पेश किए जाते रहेंगे, नक्सलवाद को जड़ मूल से उखाड़ फेंकने की बड़ी-बड़ी बातें होंगी, नक्सलियों द्वारा हिंसा का तांडव रुक-रुक कर चलता रहेगा, निर्दोष लोग मारे जाते रहेंगे-ऐसे लोग जिनके पास जीवनयापन के लिए और कोई अवसर नहीं है, कायराना हमलों की निंदा खोखली गूंज वाले बड़े शहरों में होती रहेगी, मरने वालों के परिवारों को मुआवजा मिल जाएगा, रायपुर की शहीद वाटिका में उनके नाम पर कुछ नए पौधे रोप दिए जाएंगे, अखबारों में चीखती हुई सुर्खियां छपती रहेंगी, संपादकगण अपने लेखों में बराए दस्तूर शीघ्र समाधान की वकालत करते रहेंगे, कुछ लोग मृतकों की याद में मोमबत्तियां जला देंगे, कुछ अधपढ़े लोग लेख लिखकर चिंता व्यक्त करेंगे, कुछ संस्थाएं सभा-सेमिनार कर लेंगी, कुछ दिन शांति का भ्रम बना रहेगा और फिर एक दिन धमाकों के साथ कुछ और निरीह लोग नक्सलियों की अविचारित हिंसा का शिकार हो जाएंगे।

पिछले शनिवार को बस्तर में नक्सलियों ने जो दो अलग-अलग सामूहिक हत्याकांड किए वे एकबारगी तो हमें सोचने के लिए मजबूर करते हैं, लेकिन इस तरह की नृशंस वारदातों को भुलाने में हम ज्यादा देर नहीं लगाते। क्या हमारी संवेदनाएं मर चुकी हैं? क्या हमने सरकार को ईश्वर मानकर सब कुछ उसके ही ऊपर छोड़ दिया है? क्या हमारी अपनी जीवन स्थितियां इतनी विकट हो गई हैं कि अब हमें सोचने का वक्त ही नहीं मिलता? क्या हम नियतिवादी हो गए हैं कि अब इस देश में कुछ हो ही नहीं सकता? क्या हमें किसी मसीहा की तलाश है या किसी जादूगर की जो अपनी छड़ी घुमाकर नरक को स्वर्ग में बदल देगा या फिर हमने एक समाज के रूप में विचार करने की, आत्ममंथन करने की, विमर्श की अपनी लंबी परंपरा को पूरी तरह से तिलांजलि दे दी है? लगता तो है कि ऐसा ही है तब फिर इससे बढ़कर दुर्भाग्यपूर्ण बात इस प्रदेश के लिए और कुछ नहीं हो सकती। जिस समाज ने विचारों से नाता तोड़ लिया है उससे ज्यादा गरीब और कौन होगा?

बस्तर में इस बार नक्सलियों ने एक नहीं, बल्कि दो भयानक घटनाओं को एक दिन एक साथ अंजाम दिया। इससे एक तो उन्होंने यह संदेश दिया है कि उनका आतंक कायम है और रहेगा। दूसरे उन्होंने उन सरकारी दावों को एक बार फिर झुठला दिया है कि हमारा सुरक्षातंत्र मजबूत और चौकस है। सवाल उठता है कि ऐसे वीभत्स कांडों से उन्हें क्या हासिल हुआ? यह सच्चाई तो नक्सली भी जानते हैं कि वे बस्तर में अनंतकाल तक अपनी लड़ाई जारी नहीं रख सकते। वे यह भी जानते होंगे कि जिस कथित माओवादी-लेनिनवादी राज्य व्यवस्था के प्रति उनकी प्रतिश्रुति है वह भारत में स्थापित कभी नहीं हो सकती। उनके सामने नेपाल का उदाहरण है जहां एक राजशाही के खिलाफ जीतने में वे सफल हुए, लेकिन अंतत: उन्हें जनतांत्रिक प्रक्रिया में शामिल होना पड़ा।  तो क्या फिर नक्सलवादी कुछ आदर्शवादी लोगों का ऐसा समूह है, जिसकी आंखों में बेहतर दुनिया के सपने पल रहे हैं या फिर वह एक ऐसा गिरोह है जो राजनीतिक शब्दावली की ओट में किन्हीं क्षुद्र स्वार्थों की पूर्ति में निमग्न हैं?
विश्व इतिहास बताता है कि बेहतर व्यवस्था कायम करने के लिए समय-समय पर जनक्रांतियां हुई हैं, लेकिन इनमें निरीह और निर्दोष जनता को जानबूझ कर कब निशाना बनाया गया? अमेरिका की युद्धप्रिय सत्ता ''कोलेटेरल डेमेज" का तर्क आगे बढ़ाए तो यह उसकी रणनीति और चरित्र का हिस्सा है, लेकिन क्या सर्वहारा के लिए लडऩे वाले भी इसी खोखले तर्क का सहारा लेंगे?बात साफ है। नक्सलबाड़ी से 1967 में जो आंदोलन शुरू हुआ था वह तो कब का समाप्त हो चुका उसके नेताओं को भी आगे चलकर समझ आया था कि उन्होंने हिंसा का जो रास्ता चुना था वह ठीक नहीं था। याने आज जो स्वयं को माओवादी कह रहे हैं, वे जनता की लड़ाई नहीं लड़ रहे बल्कि उनके मंसूबे कुछ और ही हैं!

बहरहाल, मेरा मानना है कि यदि बस्तर में नक्सली हिंसा समाप्त कर शांति स्थापना करना है तो उसके लिए नए सिरे से विचार करने की जरूरत होगी। अब घिसी-पिटी बातों और उपायों से काम नहीं बनेगा। इसमें नि:संदेह शासन की भूमिका महत्वपूर्ण होगी, लेकिन इसके साथ-साथ राजनैतिक दलों और अकादमिक संस्थाओं याने विश्वविद्यालयों आदि को भी आगे आना होगा। मुझे ध्यान आता है कि कुछ वर्ष पूर्व छत्तीसगढ़ विधानसभा में बंद दरवाजों के भीतर नक्सलवाद पर विचार किया गया था। इसमें पत्रकारों तक को आने की मनाही थी इसलिए कोई नहीं जानता कि ऐसे महत्वपूर्ण सत्र में क्या निर्णय लिए गए थे। शासकीय स्तर पर यदा-कदा सेमिनार भी हुए हैं, लेकिन वे भी एक तरह से बंद कमरे के भीतर ही। मुख्यमंत्री ने कई बार यह कहकर अपने सदाशय का परिचय दिया है कि वे नक्सलियों के साथ बातचीत के लिए तैयार हैं, लेकिन यह बात कभी आगे नहीं बढ़ पाई।

मेरा मानना है कि प्रदेश के मुखिया होने के नाते मुख्यमंत्री को भी अपनी तरफ से अलग तरीके से एक उदार पहल करना चाहिए। अगर वे प्रदेश के सभी बड़े-छोटे राजनीतिक दलों के प्रतिनिधियों के साथ बैठकर मुक्तभाव से चर्चा करें तो इससे ऐसे सूत्र शायद मिलें जिनको पकड़कर आगे बढ़ा जा सके। दरअसल, मुख्यमंत्री की ओर से इस मुद्दे पर विचार-विमर्श की एक पूरी शृंखला आयोजित होनी चाहिए। वे हमारे इस सुझाव पर गौर करें कि प्रदेश के दो विश्वविद्यालयों- रायपुर और बस्तर में राष्ट्रीय स्तर पर दो-तीन दिन की संगोष्ठियां आयोजित हों जिनमें इस विषय से संबंध रखने वाले सभी अनुशासनों के जानकार लोग शामिल हों। इनमें प्रोफेसर, पत्रकार, पुलिस अधिकारी, प्रशासनिक अधिकारी, आदिवासी, बुद्धिजीवी सभी हो सकते हैं।

इसी तरह उद्घाटन और समापन की व्यर्थ औपचारिकताओं को दरकिनार कर दिल्ली या रायपुर में भी ऐसा कोई सेमिनार हो सकता है जहां मुख्यमंत्री उन लोगों के साथ बैठें, जिनके पास बस्तर में शांति स्थापना के लिए प्रस्ताव और सुझाव हों। इस तरह की चर्चाओं के लाभ स्पष्ट हैं। सरकार के काम करने का अपना एक तौर-तरीका होता है। उसमें पूर्वाग्रह विकसित होने का डर हमेशा बना रहता है। तब एक ऐसा मोड़ आता है जब सत्तातंत्र के लिए अपनी ही बनाई दीवारों को तोड़कर आगे बढऩा लगभग रुक जाता है। जब खुली चर्चाएं होंगी तो नई बातें उठेंगी, और नए सिरे से समाधान ढूंढने की पहल होगी। प्रबंधशास्त्र में एक मुहावरा आजकल काफी प्रचलित है-''थिकिंग आउट ऑफ बॉक्सÓÓ याने बंधे-बंधाए दायरे से बाहर निकल कर सोचना। चूंकि यह मुद्दा सरकार से ताल्लुक रखता है इसलिए दायरे को तोडऩे की पहल सरकार के मुखिया को ही करना पड़ेगी। उनके मातहत इस काम के लिए उपयुक्त नहीं हैं।

अगर ऐसा हो तो अच्छा ही होगा। इस बीच सरकार को कुछ बातों पर फौरी महत्व देना चाहिए। कलेक्टर अलेक्स पॉल मेनन की रिहाई के बाद नक्सली होने के नाम पर जेल में बंद लोगों की प्रकरणों की समीक्षा के लिए सरकार ने एक उच्च स्तरीय समिति बनाई थी। इस समिति के काम की क्या प्रगति है? छत्तीसगढ़ के जेलों में नक्सली होने के आरोप में कितने लोग कैद थे, उनमें से कितनों की रिहाई हुई है? हमें याद नहीं आता कि सरकार ने इस बारे में अब तक कोई रिपोर्ट जारी की हो। जबकि दूसरी ओर आए दिन नक्सली होने के नाम पर निर्दोष आदिवासियों को पकड़े जाने की खबरें आती रहती हैं। इस सिलसिले में सोनी सोढ़ी प्रकरण का जिक्र किया जा सकता है।

कुछ साल पहले एस्सार कंपनी द्वारा नक्सलियों को गुप्त तरीके से करोड़ों रुपया भेजने की खबर सामने आई थी। इसमें जिन लोगों के नाम सामने आए उनमें से कुछ गिरफ्तार हुए, कुछ को जमानत मिली और कुछ पर हाथ डाला ही नहीं गया। इसी मामले में सोनी सोढ़ी और उसके भतीजे लिंगाराम कोड़ापी को गिरफ्तार किया गया। सोनी सोढ़ी पर पुलिस ने क्या अत्याचार किए उसकी एक अलग कहानी है, लेकिन इस आदिवासी महिला को पति की मृत्यु हो जाने पर भी पैरोल पर नहीं छोड़ा गया, उसे उच्च न्यायालय तक से जमानत नहीं मिल पाई और अंतत: सुप्रीम कोर्ट ने उसे राहत दी। क्या उसकी यह कथा हमारी व्यवस्था के बारे में कोई सवाल खड़े नहीं करती?

सरकार को यह आकलन करने की भी आवश्यकता है कि बस्तर में पांचवी अनुसूची और पेसा कानून का क्रियान्वयन किस रूप में व किस सीमा तक हो रहा है। प्रदेश में यूं तो पंचायती राज व्यवस्था लागू है, लेकिन उसमें प्रशासन व सांसद-विधायकों का जो हस्तक्षेप है, वह किसी से छुपा नहीं है। बस्तर के विकास के लिए एक विशेष प्राधिकरण अलग से बना हुआ है, लेकिन जब पांचवी अनुसूची लागू है तो प्रदेश सरकार के सीधे नियंत्रण में ऐसे अभिकरण की जरूरत क्या सचमुच है? ऐसे और भी प्रश्न हैं। नक्सल समस्या के बारे में सरकार की भी कोई नीतिगत सोच अवश्य होगी, लेकिन उसके बारे में आदिवासी समाज कितना क्या जानता है? कुल मिलाकर हमारा आशय यही है कि नक्सल समस्या का हल तभी होगा जब समाज के सभी वर्गों को साथ लेकर एक सुस्पष्ट नीति बनेगी और उस पर पारदर्शी तरीके से अमल होगा।

देशबन्धु में 17 अप्रैल 2014 को प्रकाशित


 

Wednesday 9 April 2014

आम चुनाव और एन.जी.ओ.


यह
हर कोई जानता है कि जनतंत्र के तीन स्तंभ होते हैं-विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका। इन तीनों की अपनी-अपनी स्वायत्त भूमिकाएं हैं और इनके बीच इस तरह से शक्ति संतुलन होने की अपेक्षा की जाती है कि जनतंत्र की इमारत में दरार न पड़ने पाए। इस व्यवस्था में एक नया आयाम पत्रकारिता के विकास के साथ आ जुड़ा और मीडिया को जनता के बीच चौथे स्तंभ के रूप में मान्यता मिल गई। ऐसी सामान्य धारणा बन गई कि व्यवस्था के औपचारिक ढांचे में अगर कहीं कोई कमजोरी आएगी तो मीडिया एक सजग प्रहरी के तौर पर उसकी ओर ध्यान आकर्षित करेगा ताकि यथासमय उस कमजोरी को दूर किया जा सके। मैं समझता हूं कि पूरी दुनिया में एक दौर में अखबारों ने इस रोल को पूरी गंभीरता के साथ स्वीकार किया, आज की वास्तविकता भले ही कुछ और हो। यह याद रखना चाहिए कि औपचारिक रूप से स्थापित स्तंभों और जनमान्यता वाले चौथे स्तंभ के बीच कभी बहुत मधुर संबंध या नैकटय नहीं रहा और जब ऐसा होने लगा तो उसकी साख में कमी आने लगी।

इधर हमने देखा है कि इस संरचना में सिविल सोसायटी के नाम से एक पांचवां स्तंभ खड़ा हो गया है। इस नए स्तंभ के निर्माण के पीछे दो मुख्य कारण दिखाई देते हैं। एक तो जनतांत्रिक व्यवस्था की आधारभूत तासीर ही ऐसी है कि उसमें असहमति व मतवैभिन्न्य की गुंजाइश सदा बनी रहती है। दूसरे जनतंत्र का लक्ष्य लोककल्याण होता है और उसके लक्ष्यों को पाने के लिए प्रशासन की औपचारिक सरणियां कभी पर्याप्त नहीं होतीं याने कार्यक्रम लागू करने के लिए एक बंधे-बंधाएं ढांचे से बाहर निकलकर समाज के विभिन्न वर्गों का सहयोग लेना होता है। इस तरह सिविल सोसायटी में एक तरफ वे संस्थाएं हैं जो नीतियों और मुद्दों पर प्रश्न उठाती हैं, जनतांत्रिक सरकार को कटघरे में खडा करती हैं व उससे जवाबदेही की मांग करती हैं। दूसरी तरफ वे संस्थाएं हैं, जो कल्याणकारी कार्यक्रमों को लागू करने में व्यवस्था के साथ सहयोग करती हैं। इन दोनों श्रेणियों के बीच कोई अनिवार्य विरोधाभास नहीं है बल्कि ऐसी अनेक संस्थाएं हैं जो दोनों मोर्चों पर समान रूप से काम करती हैं।

यूं तो सिविल सोसायटी संज्ञा का दायरा बहुत बड़ा है। उसमें छात्रसंघ, ट्रेड यूनियन, चेम्बर ऑफ कामर्स, महिला मंडल- सब आ जाते हैं, लेकिन अभी हम सिविल सोसायटी के उस बड़े और प्रमुख अंग की बात करने जा रहे हैं जिसे एन.जी.ओ. (गैर सरकारी संगठन) कहा जाता है। इसका रूप इतना वृहद हो चुका है कि अब उसे सेक्टर कहा जाने लगा है। संयुक्त राष्ट्र संघ से लेकर विभिन्न देशों की सरकारें इस क्षेत्र को मान्यता देती हैं व उनके साथ संवाद करती हैं। ऐसा माना जाता है कि ये गैर सरकारी संगठन जमीनी स्तर पर काम करते हैं, और उनके साथ सलाह-मशविरा करते रहने से लोकहितैषी नीतियों व कार्यक्रमों को बेहतर तरीके से लागू करने में मदद मिल सकती है। कुल मिला कर एन.जी.ओ. सेक्टर को जनतंत्र के पांचवां स्तंभ के रूप में मान्यता मिल गई है।

भारत जैसे देश में जहां अभी समग्र व समावेशी विकास के लिए बहुत कुछ किया जाना बाकी है स्वाभाविक रूप से एन.जी.ओ. सेक्टर व्यापक स्तर पर अपनी भूमिका निभा रहा है। यह दिलचस्प तथ्य है कि देश के अनेकानेक राजनेताओं ने, भले ही वे किसी भी पार्टी से संबंध रखते हाें, अपनी पहल पर ऐसे कई संगठन स्थापित कर लिए हैं।  इस मामले में सरकारी अधिकारी भी पीछे नहीं हैं। इसका एक कारण तो यह हो सकता है कि अपने एन.जी.ओ. के माध्यम से ये लोग ''इस हाथ दे उस हाथ ले'' की उक्ति को चरितार्थ कर रहे हों। हम ऐसे कई फर्जी एन.जी.ओ. के बारे में जानते हैं जो सत्ताधीशों द्वारा स्थापित किए गए हैं और  सरकार से किसी न किसी कार्यक्रम के नाम पर भरपूर मदद ले लेते हैं। यह एक अलग किस्सा है। अभी तो हमारी दिलचस्पी यह जानने में है कि व्यवस्था के औपचारिक ढांचे से बाहर पांचवें खंभे के रूप में अपनी पहचान बनाने वाले एन.जी.ओ. कार्यकर्ता एकाएक पहला खंभा बनने के लिए बेताब क्यों हो उठे हैं याने वे चुनावी मैदान में क्यों कूद पड़े हैं?

एन.जी.ओ. के साथी भी इस देश के ही नागरिक हैं और उन्हें वही सारे अधिकार उपलब्ध हैं जो आपको-हमको हैं, इसलिए उनके निर्णय पर प्रश्नचिन्ह तो नहीं लगा सकते लेकिन यह जिज्ञासा मन में अवश्य उठती है कि इनकी सोच में ऐसा क्रांतिकारी परिवर्तन क्यों आ गया है! एन.जी.ओ. सेक्टर के एक प्रमुख अभिनेता अरविंद केजरीवाल तो अब पूरी तरह से राजनेता बन ही चुके हैं, लेकिन उनके समानांतर चलने वाले या उनका अनुसरण करने वाले एन.जी.ओ. नेताओं की अब कोई कमी नहीं दिखाई देती। उदाहरण के लिए एक नाम है- जयप्रकाश नारायण का। आंध्रनिवासी श्री नारायण पूर्व आई.ए.एस. अधिकारी हैं। स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति लेकर वे पिछले कई वर्षों से एक सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में काम कर रहे थे। उन्होंने लोकसत्ता नाम से एक संस्था बनाई जिसके मंच से वे चुनाव सुधाराें की वकालत करते रहे हैं।

श्री नारायण ने अब लोकसत्ता को एक राजनैतिक पार्टी में तब्दील कर दिया है। वे पहिले तो  भाजपा के साथ गठजोड़ करने की जुगत भिड़ाते रहे। बात नहीं बनी तो अब अकेले अपने दम पर चुनाव लड़ रहे हैं। मेधा पाटकर का जिक्र मैंने पिछले हफ्ते किया ही था। उनके साथ 'नर्मदा बचाओ आंदोलन' में बहुत से जुझारू कार्यकर्ता भी विभिन्न स्थानों से चुनाव लड़ रहे हैं। इस तरह एन.जी.ओ. क्षेत्र में काम करने वाले ऐसे अनेक जन हैं जो राजनीति के औपचारिक मंच पर अपनी भूमिका तलाश रहे हैं।  इनमें से किसे कितनी सफलता मिलती है यह तो आगे चलकर पता लगेगा, लेकिन यह बात कम से कम मेरी समझ में नहीं आती कि इनका राजनीति में आने का मकसद क्या है।

एक सरल उत्तर शायद यह हो सकता है कि वे जिन मूल्यों और आदर्शों के लिए अब तक संघर्षरत रहे उन्हें प्रभावी ढंग से अमल में लाने के लिए लोकसभा में बैठना जरूरी है। अगर ऐसा है तो मैं कहूंगा कि उन्होंने अपने जीवन का एक लम्बा समय यूं ही जाया किया।  मेधा पाटकर, अरविंद केजरीवाल, जयप्रकाश नारायण- ये सब नेतृत्व क्षमता के धनी लोग हैं बल्कि इनमें नेतृत्व करने की नैसर्गिक प्रतिभा है। ये अगर बीस या पच्चीस साल पहले चुनाव लड़कर लोकसभा में आए होते तो बड़े बांधों का विरोध, सूचना का अधिकार, चुनाव सुधार जैसे मुद्दाें पर अपने तर्क प्रभावी ढंग से सदन में रख सकते थे और उससे शायद कुछ निश्चित नतीजे भी मिलते। लेकिन हो सकता है कि यह मेरी खामख्याली हो!

मेरे मन में एक और प्रश्न उठता है कि आज देश का जो राजनैतिक वातावरण है उसमें ये कहां हैं? आम चुनावों के बाद जिस भी पार्टी की सरकार बनेगी या जो पार्टी किसी संभावित गठजोड़ में सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरेगी वह अपनी घोषित नीतियों और कार्यक्रमों के अनुसार सरकार चलाना चाहेगी। स्पष्ट है कि कांग्रेस और भाजपा दोनों के आर्थिक कार्यक्रम लगभग एक जैसे हैं। यह उम्मीद फिलहाल दोनों से नहीं करना चाहिए कि वे वैश्विक पूंजीवाद के एजेंडे से हटकर काम कर पाएंगे। इन दोनों पार्टियों में अगर कोई फर्क है तो यह कि कांग्रेस बहुलतावाद में अनिवार्य रूप से विश्वास रखती है जबकि भाजपा बहुसंख्यकतावाद में। लेकिन क्या एन.जी.ओ. से जीतकर आने वालों की संख्या इतनी होगी कि वे अपने बलबूते सरकार बना सकें या गठबंधन को प्रभावित कर सकें? अगर ऐसा न हुआ तो क्या वे दो बड़ी पार्टियों के बीच कोई नया रास्ता निकालेंगे या फिर किसी एक तरफ झुक जाएंगे? उसका दीर्घकालीन परिणाम देश की राजनीति में किस रूप में सामने आएगा?
देशबंधु में 10 अप्रैल  2014 को प्रकाशित
 

Wednesday 2 April 2014

'आप' की पॉलिटिक्स क्या है?




हिन्दी
साहित्य में जिनकी थोड़ी बहुत भी रुचि है वे जानते हैं कि मुक्तिबोधजी अपने से पहली बार मिलने वाले हर व्यक्ति से पूछते थे- ''पार्टनर, आपकी पॉलिटिक्स क्या है?'' आज यही सवाल अरविंद केजरीवाल और उनकी बनाई आम आदमी पार्टी से पूछने का मन हो रहा है। हम जानते हैं कि कांग्रेस, भाजपा, भाकपा, माकपा, बसपा इत्यादि दलों की पॉलिटिक्स क्या है। हमें यह भी पता है कि इस चुनावी मौसम में जो लोग अभूतपूर्व तेजी के साथ दलबदल में लगे हैं उनके लिए राजनीति क्या मायने रखती है। कांग्रेस और भाजपा अपनी किन नीतियों पर दृढ़ हैं और किन पर समझौता अथवा समर्पण कर चुके हैं यह भी अध्येता जान-समझ रहे हैं। क्षेत्रीय दलों की राजनीतिक धरती क्या है व उनकी महत्वाकांक्षाओं का विस्तार कहां तक है यह किसी से छिपा हुआ नहीं है। हमें चेतन भगत, एम.जे. अकबर और रामचंद्र गुहा जैसे चर्चित बुध्दिजीवियों की राजनीति के बारे में भी कुछ अनुमान तो है ही, लेकिन इस प्रश्न का समुचित उत्तर अभी ढूंढा ही जा रहा है कि अरविंद केजरीवाल की राजनीतिक दिशा क्या है!

'आप' ने दिल्ली की सात सीटों में से एक (पूर्वी दिल्ली) पर राजमोहन गांधी को अपना उम्मीदवार बनाया है। श्री गांधी को हम देश के अग्रणी बुध्दिजीवी के रूप में जानते हैं। यह सबको पता है वे महात्मा गांधी के पौत्र हैं। उन्होंने अपने दादा पर ''मोहनदास'' शीर्षक से जो जीवनी लिखी वह एक अनुपम कृति है। इसे लिखने में श्री गांधी ने जिस वस्तुपरकता व तटस्थता का परिचय दिया है उसकी कोई मिसाल मुझे तो याद नहीं आती। उनकी अन्य पुस्तकें भी भारत और उपमहाद्वीप के राजनैतिक इतिहास को समझने के लिए जैसे अनिवार्य है। राजमोहनजी की राजनीति में दिलचस्पी प्रारंभ से रही है। वे एक बार जबलपुर और फिर रायबरेली से लोकसभा चुनाव हार भी चुके हैं। इसके बाद वे लगभग पूरा समय पुस्तक लेखन को ही देते रहे। वे 78 वर्ष की परिपक्व आयु में चुनावी राजनीति में लौटेंगे इसकी कल्पना शायद ही किसी ने की होगी, लेकिन वे मैदान में हैं  यह एक सच्चाई है।  मैं समझना चाहता हूं कि 'आप'  के एजेंडा में ऐसी कौन सी बात थी जिसने उन्हें इस हद तक आकर्षित किया!

उधर मुंबई उत्तर-पूर्व से मेधा पाटकर 'आप' की ओर से मैदान में हैं। मेधाजी ने अपना पूरा जीवन जनसंघर्षों में बिता दिया। 'नर्मदा बचाओ आंदोलन' में उन्होंने जो भूमिका निभाई उसने इस देश में अनगिन लोगों को अन्याय व शोषण के खिलाफ लड़ने के लिए प्रेरित किया। उन्होंने बड़े बांधों के खिलाफ लड़ाई लड़ी, विस्थापितों के हक के लिए बरसों बरस तकलीफें उठाईं, कितनी बार धरनों पर बैठीं, कितनी बार जेल गईं- इसका कोई हिसाब ही नहीं। वे नर्मदा पर बनने वाले बड़े बांधों को तो नहीं रोक सकीं, लेकिन यह संदेश तो उन्होंने जन-जन तक पहुंचाया ही कि बिना लड़ाई के हक नहीं मिला करते। कहने का आशय यह कि स्थापित राजनीति से हटकर उन्होंने समानान्तर राजनीति की और उसकी बदौलत जनता का, विशेषकर वंचित समाजों का प्यार और विश्वास हासिल किया। इसके बाद ऐसी क्या वजह थी जिसके चलते वे चुनाव के मैदान में उतरीं? इसके पहले पश्चिम बंगाल में ममता बैनर्जी की राजनीति को समर्थन देने का परिणाम क्या निकला, इस पर गौर करने का मौका शायद उन्हें नहीं मिला!

आप कहेंगे कि अगर ऐसे अच्छे लोग राजनीति में आते हैं तो इसमें गलत क्या है। मेरा कहना है कि गलत कुछ नहीं है, लेकिन यदि राजमोहनजी और मेधाजी किन्हीं आदर्शों को पूरा करने की इच्छा लेकर चुनावी राजनीति में आए हैं तो आगे चलकर उन्हें कहीं निराशा न हो! एक तरफ ऐसे लोग हैं तो दूसरी तरफ मीरा सान्याल व कुमार विश्वास जैसे भी  'आप' के परचम तले चुनावी मैदान में अपनी किस्मत आजमा रहे हैं। मीरा सान्याल ने मुंबई दक्षिण से ही 2009 में चुनाव लड़ा था और वे हार गई थीं। वे जिस रॉयल बैंक ऑफ स्कॉटलैंड की भारत में मुख्य अधिकारी थीं, वह बैंक उन दिनों विवादों के घेरे में था। जो विश्वव्यापी मंदी आई थी उसमें इस बैंक की भी भूमिका बताई गई थी। सुश्री सान्याल चुनाव लड़ें उसमें हमें क्या आपत्ति होने चली, लेकिन यह शंका तो मन में उठती ही है कि मेधा पाटकर और मीरा सान्याल दोनों एक मंच पर क्यों और कैसे हैं, जबकि उनका राजनीतिक दर्शन जुदा-जुदा है।

इसी तरह राजमोहन गांधी के साथ-साथ कुमार विश्वास को देखकर कुछ अचरज होता है। यह मेरा सौभाग्य या दुर्भाग्य था कि रायपुर के एक कार्यक्रम में कुछ माह पूर्व मुझे श्री विश्वास का प्रवचन व तथाकथित कविताएं सुनने मिलीं। मुझे उनके विचारों में गंभीरता नहीं, बल्कि उथलापन नज़र आया। उन्होंने जो चुटकुलेबाजी की उससे पता चला कि यह व्यक्ति नस्लवादी, पुरुषसत्तावादी, किसी हद तक यथास्थितिवादी होने के साथ स्त्री-विरोधी है और अहिंसा में विश्वास नहीं रखता। अब इस विरोधाभास का समाधान क्या है कि एक तरफ राजमोहन गांधी हैं, जो ताउम्र अहिंसा और समन्वय की बात करते रहे तथा दूसरी तरफ कुमार विश्वास हैं जो पड़ोसी देश को हथियारों का डर दिखा रहे हैं। सवाल उठता है कि श्री केजरीवाल व उनकी पार्टी के अन्य कर्णधार इस तरह के समीकरण कुछ सोच-समझकर बैठा रहे हैं, क्या इसके पीछे कोई रणनीति है या फिर सब कुछ अनजाने में होता चल रहा है? क्या भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई ही इनका एकमात्र मकसद है या ये इसके परे कुछ और हासिल करना चाहते हैं?

अन्ना हजारे और अरविंद केजरीवाल ने मिलकर तीन साल पहले भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम छेड़ी थी। उन्होंने दावा किया था कि यदि उनके बताए अनुसार जनलोकपाल नामक संस्था का ढांचा खड़ा दिया जाए तो देश से भ्रष्टाचार जड़मूल से समाप्त हो जाएगा। उस समय मीडिया ने इनके आंदोलन को 24x7 कवरेज दिया था और बड़ी संख्या में जनसमर्थन मिला था। इसमें नौजवान ज्यादा थे। लेकिन फिर क्या हुआ? आज अन्ना हजारे के बारे में स्पष्ट दिखाई दे रहा है कि वे भाजपा का एजेंडा बढ़ाने का काम कर रहे हैं। उधर केजरीवाल एक ऐसे सिध्दहस्त कलाकार के रूप में आए जो कभी आंदोलनकारी की भूमिका निभाता है, तो कभी राजनेता की। बल्कि ये दोनों भूमिकाएं इस तरह गड्ड-मड्ड हो गई हैं कि समझना कठिन हो जाता है कि श्री केजरीवाल आखिरकार किस रास्ते पर चल रहे हैं। वे जब भ्रष्टाचार के खिलाफ बात करते हैं, अंबानी-अडानी पर सीधे-सीधे आरोप लगाते हैं, तो सुनकर अच्छा लगता है, लेकिन इन पर अंकुश लगाने के लिए उनके पास क्या योजना है इसका कोई जवाब नहीं मिलता।

यदि आम आदमी पार्टी के रूप में भारतीय राजनीति में एक तीसरी शक्ति का उदय होता है अथवा वैकल्पिक राजनीति का नया मंच बनता है, तो यह अच्छा ही होगा। लेकिन इसके लिए अरविंद केजरीवाल को अपनी नीतियों का खुलासा तो करना ही होगा। सिर्फ भ्रष्टाचार-विरोधी जुमले उछालने से दूर तक राजनीति नहीं की जा सकती, ऐसा हमारा मानना है। श्री केजरीवाल यदि विभिन्न मतों के प्रबुध्दजनों को एक मंच पर ला सकते हैं तो हम इसका भी स्वागत करेंगे, किन्तु क्या ये सब मिलकर देश को आगे ले जाने के लिए कोई नक्शा दे सकते हैं? दूसरे शब्दों में कहें तो विभिन्न विचारधाराओं का प्रतिनिधित्व करने वाले इन गुणीजनों के पास क्या  कोई न्यूनतम साझा कार्यक्रम है या ये भी नरेन्द्र मोदी और भारतीय जनता पार्टी की तर्ज पर सिर्फ भावनाएं उभारने का खेल खेल रहे हैं?

श्री केजरीवाल को दिल्ली में एक मौका मिला था कि वे अपने घोषित संकल्पों के अनुरूप स्वच्छ व पारदर्शी सरकार चला सकें, लेकिन उन्होंने स्वयं ऐसी परिस्थितियां निर्मित कीं कि वे इस जिम्मेदारी से पलायन कर सकें। हम उसके विस्तार में फिलहाल नहीं जाना चाहते, लेकिन श्री केजरीवाल से यह अवश्य पूछना चाहते हैं कि यदि हम 'आप' का समर्थन करें तो किस बिना पर? कोई भी सरकार हो, भ्रष्टाचार रोकना उसके अनेक कामों में से एक काम हो सकता है पर मुद्दे इसके अलावा और भी बहुत से हैं- आपकी आर्थिक नीति क्या होगी, विदेश नीति क्या होगी, रक्षा नीति क्या होगी, लैंगिक नीति क्या होगी, शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में आप क्या करेंगे इत्यादि। ढेरों प्रश्नों पर क्या आप अपने बीच एक राय कायम कर सकेंगे? जब मीरा सान्याल बड़े बांधों के लिए ऋण देंगी और मेधा पाटकर उसका विरोध करेंगी तब क्या होगा? जब कुमार विश्वास पाकिस्तान पर आक्रमण करने की वकालत करेंगे और राजमोहन गांधी पड़ोसी मुल्क के साथ मैत्री की बात करेंगे तब क्या होगा? हम समझते हैं कि 'आप' के समर्थकों को अपनी पार्टी से इन सवालों के जवाब मांगना चाहिए।

'आप' की पॉलिटिक्स का जहां तक सवाल है, मेरा अनुमान है कि यह उन लोगों का मंच है जो नेहरूवादी नीतियों के घोर विरोधी हैं, और अपने-अपने कारणों से साथ आ गए हैं, ऊपरी तौर पर भले ही वे कुछ भी दावा करें।

 
देशबंधु में 03 अप्रैल 2014 को प्रकाशित