Wednesday 26 February 2014

छोटे राज्य व अन्य इकाईयां



भारत
के तेलगु भाषा-भाषियों के लिए आंध्रप्रदेश का विभाजन व तेलंगाना का निर्माण स्वाभाविक ही एक बड़ा भावनात्मक मुद्दा है, किन्तु अब जबकि फैसला हो चुका है, अपनी भावनाओं पर नियंत्रण रख इस मुद्दे के व्यवहारिक पक्ष पर ध्यान देना न सिर्फ तेलगु समाज बल्कि पूरे देश के लिए हितकर होगा। 15 अगस्त 1947 को एक स्वतंत्र राष्ट्र की उदय-वेला में भारत की आबादी बत्तीस करोड़ के आसपास थी। गत सड़सठ वर्षों में यह आंकड़ा एक अरब बीस करोड़ के पार चला गया है। ध्यान आता है कि 1956 में राज्य पुनर्गठन के समय मध्यप्रदेश की आबादी मात्र दो करोड़ थी, जबकि सन् 2000 में मध्यप्रदेश के पुनर्गठन के समय सिर्फ छत्तीसगढ क़ी ही आबादी इतनी थी। ऐसे ही आंकड़े अन्य प्रदेशों के होंगे। इसका सीधा मतलब यह हुआ कि देश के लगभग हर प्रांत पर बढ़ती आबादी का दबाव लगातार बढ़ रहा है। यह एक व्यवहारिक तथ्य है जिसके आधार पर हम लंबे समय से छोटे राज्यों की वकालत करते आए हैं।

सन् 2000 में जो तीन नए प्रांत बने उनके पीछे भी कुछ भावनात्मक और कुछ राजनीतिक कारण थे। एनडीए सरकार ने व्यवहारिक आधारों पर नए प्रांतों के गठन का फैसला नहीं लिया था, किन्तु आज तेरह साल से कुछ अधिक समय बीत जाने के बाद यह स्पष्ट है कि तीन राज्यों के विभाजन से किसी भी राज्य  को न कोई नुकसान पहुंचा और न कोई असुविधा हुई, बल्कि पुनर्गठन से जो नए राय बने उनमें बेहतर प्रशासन की संभावनाएं विकसित हुईं। यह अलग विवेचन का विषय है कि ये संभावनाएं फलीभूत हुईं या नहीं। अगर उसमें कोई कमी रही है तो उसके कारण अलग हैं। इस तरह विचार करने से हमें लगता है कि तेलंगाना राज्य गठित करने का निर्णय गलत नहीं था।

आंध्र विभाजन के विरोधी पक्ष को इस बात पर एतराज है कि दो तेलगुभाषी प्रांत बन जाने से भाषावार प्रांतों की रचना का सिध्दांत खंडित होता है। यह तर्क आधारजनित नहीं है। 1956 या उसके पहले ऐसा मानने वालों की कमी नहीं थी जो सारे हिन्दी भाषी क्षेत्र को एक प्रदेश के रूप में आबध्द देखना चाहते थे। इनमें डॉ. रामविलास शर्मा जैसे प्रकाण्ड बुध्दिजीवी भी शामिल थे। इस तर्क को उस समय भी स्वीकार नहीं किया गया। 1956 में देश में कुल चार हिन्दी भाषी प्रदेश थे - उत्तरप्रदेश, बिहार, मध्यप्रदेश व राजस्थान। आज यह संख्या बढ़कर नौ हो गई है। जो नए पांच प्रांत जुड़े हैं वे हैं- हरियाणा, हिमाचल, उत्तराखंड, छत्तीसगढ़ और झारखण्ड। अगर आजादी के समय से ही हिन्दीभाषी प्रांतों की संख्या एक से ज्यादा रही है तो अन्य भाषा-भाषी प्रांतों की संख्या भी एकाधिक होने में कौन सी बुराई है?

आंध्र और तेलंगाना के सिलसिले में एक ऐतिहासिक तथ्य का स्मरण कर लेना चाहिए। 1953 तक तेलंगाना एक अलग प्रदेश ही था, जबकि शेष आंध्र तत्कालीन मद्रास प्रांत का हिस्सा था। पृथक तेलगुभाषी प्रांत की उग्र मांग उठने पर 1953 में आंध्रप्रदेश का गठन किया गया, जिसमें तेलंगाना को जोड़ दिया गया। यह संभव है कि इस तेलगुभाषी प्रांत का अस्तित्व बने रहता ठीक वैसे ही जैसे नए मध्यप्रदेश के एक सुगठित प्रांत के रूप में बने रहने की कल्पना की गई थी। ऐसा नहीं हुआ और नए प्रांत बनने की नौबत इसलिए आई क्योंकि आंध्र में तेलंगाना, बिहार में झारखंड या कि मध्यप्रदेश में छत्तीसगढ क़ी इन प्रदेशों के वर्चस्ववादी व राजनीतिक दृष्टि से मजबूत समूहों ने लगातार उपेक्षा ही नहीं बल्कि उनका तिरस्कार भी किया।

खैर! अब तेलंगाना देश के उन्तीसवें राज्य  के रूप में नक्शे पर आ ही गया है। क्षेत्रफल व जनसंख्या दोनों आधारों पर एक छोटा राज्य  होने का एक स्वाभाविक असर होगा कि यहां की सरकार व समाज के बीच में जो दूरी है उसमें कमी आएगी। राजनेताओं व प्रशासनिक अधिकारियों के सामने अवसर होगा कि वे त्वरित गति से निर्णय लेते हुए बेहतर प्रशासन दे सकें। यह बात आंध्रप्रदेश पर भी उसी तरह लागू होगी। आंध्रप्रदेश को अब वे सारे केन्द्रीय संस्थान व सुविधाएं मिल जाएंगी, जो तेलंगाना में छूट जाएंगी। विजयवाड़ा, विशाखापट्टनम, तिरुपति, अनंतपुर आदि स्थानों पर आने वाले समय में हाईकोर्ट, एम्स, आईआईटी, एनआईटी, आईआईएम, केन्द्रीय विश्वविद्यालय जैसी तमाम संस्थाएं स्थापित होंगी। इनसे प्रदेश की युवा पीढ़ी को आगे बढ़ने के बेहतर अवसर भी मिलेंगे।

दरअसल, छोटे प्रांतों का गठन वर्तमान समय की एक बड़ी जरूरत है। यदि यूपीए सरकार ने द्वितीय राय पुनर्गठन आयोग स्थापित कर देश में कुछ और नए राज्य निर्मित करने का फैसला लिया होता तो वह कहीं बेहतर होता। एनडीए व यूपीए दोनों ने इस बारे में अपनी कमजोरी प्रकट की है। बसपा की एकमात्र नेता सुश्री मायावती ने उत्तरप्रदेश को चार राज्यों में विभाजित करने का फैसला अपने कार्यकाल में लिया था। उन्होंने इस मांग को फिर दोहराया है। हम उनकी राय से इत्तफाक रखते हैं। देश में आज अगर पचास प्रांत भी बनते हैं तो इसमें कोई बुराई नहीं है। दो या तीन करोड़ की आबादी के प्रदेश का प्रशासन बेहतर तरीके से संभाला जा सकता है। इसी आधार पर कुछ और उपायों पर भी विचार करना उपयुक्त होगा।

छत्तीसगढ़ का उदाहरण हमारे सामने है। आज यहां जिलों की संख्या 16 से बढ़कर 27 हो गई है। तहसीलों को अनुविभाग का दर्जा दिया जा रहा है और विकासखंडों का उन्नयन कर तहसीलें बन रही हैं। यही स्थिति अन्य प्रदेशों में भी है। इसका मकसद एक ही है कि जनता व प्रशासन के बीच की भौगोलिक दूरी को हर संभव कम किया जाए। ऐसा करने से कल्याणकारी योजनाओं का क्रियान्वयन व कानून व्यवस्था का पालन बेहतर तरीके से होगा शायद इसके पीछे यही भावना है। राज्य  सरकारों को इससे आगे बढ़कर जिला पंचायतों व स्थानीय स्वशासी इकाईयों को भी सही अर्थों में स्वायत्तता देना चाहिए। मुख्यमंत्रियों या सत्तारूढ़ दल को इस अहंकार से मुक्त होना चाहिए कि वे जिला पंचायत अध्यक्ष या महापौर को अंगूठे के नीचे दबाकर रखें।

इसी बात को आगे बढाते हुए हमारा ध्यान इस ओर भी जाता है कि देश में निर्वाचित सांसदों और विधायकों के ऊपर भी जनप्रतिनिधि का भार लगातार बढ़ रहा है। किसी समय दस लाख की आबादी पर एक लोकसभा सदस्य और एक लाख की आबादी पर एक विधानसभा सदस्य का चुनाव होता था। आज यह औसत दुगुने से ज्यादा बढ़ गया है। ऐसे में यह लगभग असंभव है कि कोई निर्वाचित प्रतिनिधि अपने निर्वाचन क्षेत्र का पर्याप्त ध्यान दे सके। हमारा सुझाव है कि सभी राजनीतिक दल इस बारे में मिल-बैठकर तय करें कि लोकसभा क्षेत्र में दस लाख व विधानसभा क्षेत्र में एक लाख आबादी की सामान्य सीमा हो। ऐसा होने से सत्ता का विकेंद्रीकरण सही मायनों में हो सकेगा व जनप्रतिनिधियों व मतदाताओं के बीच की दूरी भी कम होगी।
देशबंधु में 27 फरवरी 2014 को प्रकाशित
 

Tuesday 25 February 2014

छत्तीसगढ़ के चार कथाकार





 यह मेरे लिए एक आह्लादकारी अनुभव था, जब 2013 के बीतने और 2014 के लगने के बीच तीन-चार हफ्तों के अंतराल में छत्तीसगढ़ के चार रचनाकारों के नए कहानी संकलन एक के बाद एक प्रकाशित हुए। यह अतिरिक्त प्रसन्नता का विषय था कि ये सभी लेखक मेरे सहचर हैं तथा छत्तीसगढ़ प्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन में मेरे साथ न्यूनाधिक सक्रियता के साथ जुड़े हुए हैं। स्वाभाविक ही इस अंक की प्रस्तावना में इन पुस्तकों को ही मैंने चर्चा के लिए उठाया है। इसे आप पक्षपात की संज्ञा दे सकते हैं, लेकिन मेरा विश्वास है कि अगर आप इन कहानी संकलनों को पढ़ सकें तो पक्षपात का आरोप वापिस ले लेंगे। इन चारों कथाकारों में अगर कोई साम्य है तो वह यह कि चारों छत्तीसगढ़ के निवासी हैं और सभी काफी लम्बे समय से साहित्य जगत में अपनी सक्रियता बनाए हुए हैं। ये चारों अक्षर पर्व के सुपरिचित लेखक भी हैं।

चार लेखकों में एक महिला हैं- श्रीमती संतोष झांझी। उन्होंने सबसे पहले अपनी पहचान कवि सम्मेलन के मंच से बनाई थी। पंजाबी मूल की कोलकाता में पली-बढ़ी संतोष झांझी विवाह के बाद भिलाई आईं और वह उनका घर बनना ही था। अपने शिष्ट शालीन गीतों व सुमधुर कंठ के चलते संतोष जी ने अच्छी खासी लोकप्रियता बटोरी। उन्होंने एक छत्तीसगढ़ फिल्म में अभिनय भी किया, लेकिन कालांतर में वे गद्य लेखन की ओर प्रवृत्त हुई। उन्होंने बहुत प्यारे यात्रा-वृत्तांत लिखे, जिनमें एक सैलानी की सजग दृष्टि दिखाई देती है। उन्होंने इसके पहले दो उपन्यास लिखे और चार कहानी संग्रह जो उनकी गहन अंतर्दृष्टि व सामाजिक सरोकारों का परिचय देते हैं। दूसरे कथाकार विनोद साव पहले व्यंग्य लेखन के लिए जाने जाते थे और यह अपराध मुझ पर साबित है कि विनोद को व्यंग्य लेखन से यात्रा-वृत्तांत एवं कहानी लेखन की ओर मैंने ढकेला। मैंने ऐसा शायद यह सोचकर किया कि आज के जीवन व्यापार में व्यंग्य की धार किसी काम की नहीं है! जो भी हो, विनोद ने इन नई विधाओं में बखूबी लिखना प्रारंभ किया, जिसका एक प्रमाण वर्तमान कहानी संकलन है। यह जिक्र कर दूं कि दुर्ग निवासी विनोद भिलाई इस्पात संयंत्र में प्रशासनिक पद पर हैं।

आयुक्रम में हमारे तीसरे लेखक रामकुमार तिवारी सिविल इंजीनियर हैं। उन्हें अपनी कविताओं के लिए देशव्यापी प्रतिष्ठा मिली है। वे एक लम्बे समय से कहानी लेखन भी कर रहे हैं और इसके लिए एकाधिक बार पुरस्कृत भी हो चुके हैं। बिलासपुर निवासी रामकुमार ने कथादेश के एक कहानी विशेषांक का अतिथि संपादन भी किया था जो संभावनाशील लेखक शरद बिल्लौरे की स्मृति को समर्पित था। रामकुमार ने प्रारंभिक दौर के टीवी सूत्रधार विनोद दुआ को केन्द्र में रखकर व्यापक सामाजिक संदर्भों पर एक गहरी चोट करने वाली कविता लिखी थी, जो आज तक मेरी स्मृति में बनी हुई है। एक तरह से उन्होंने समाचार चैनलों की वर्तमान रीति-नीति का पूर्वाभास उस कविता में दे दिया था। एक शासकीय विद्यालय में गणित के शिक्षक के रूप में कार्यरत रमेश शर्मा भी पिछले दो दशक से कहानियां और कविताएं लिख रहे हैं। दोनों विधाओं में वे समगति से लिखते हैं। रायगढ़ निवासी रमेश शर्मा लगभग चुपचाप और नि:संग रहकर अपना काम करते रहते हैं। मैं उन्हें जितना जानता हूं उससे लगता है कि इस युवा लेखक को रचनाकार के रूप में मान्यता या ख्याति मिल जाने की बहुत ज्यादा परवाह नहीं है। बहरहाल ये चारों लेखक मिलकर एक पूरी पीढ़ी का पुल बनाते हैं। संतोष झांझी से रमेश शर्मा तक आते हुए हम एक नयी पीढ़ी तक पहुंच जाते हैं।

संतोष झांझी के ताजे कहानी संग्रह का शीर्षक है- ''पराए घर का दरवाजा''। इसमें सत्रह कहानियां हैं। कोई भी कहानी बहुत लम्बी नहीं है। संतोष जी की भाषा सरल है। वे रोजमर्रा के जीवन से घटनाएं उठाकर उनके इर्द-गिर्द अपनी कहानी बुनती हैं। उनकी पैनी दृष्टि से समाज का कोई भी वर्ग नहीं छूटता। वे अभिजात वर्ग के संदर्भ को बखूबी पहचानती हैं, मध्य वर्ग के खोखलेपन और आडंबर और निम्न वर्ग की विवशता, निराशा व मुक्ति की छटपटाहट को भी। भारतीय समाज में स्त्री के जो हालात हैं उसे तो उन्होंने निकट से देखा ही है। वे वृध्दावस्था अथवा बढ़ती आयु में उत्पन्न अकेलेपन के अहसास को भी शिद्दत के साथ अनुभव करती हैं। इक्कीसवीं सदी में सामाजिक, आर्थिक संबंधों में जो बदलाव आए और जिसमें टेक्नालॉजी की भी भूमिका है उससे भी वे परिचित हैं। कुल मिलाकर मुझे उनमें एक उदारवादी सामाजिक सोच का परिचय मिलता है। युवा आयोजक जयप्रकाश ने इस कहानी संकलन का ब्लर्ब लिखा है। उसका अखिरी अनुच्छेद मैं उध्दृत कर रहा हूं, जिससे इन कहानियों को समझने में हमें सहायता मिलती है-
''यह भी दिलचस्प है कि इन कहानियों में चित्रित परिवेश स्थिर और इकहरा बिल्कुल नहीं, बल्कि बहुसांस्कृतिक और विविधवर्णी है- बंगाल, पंजाब और छत्तीसगढ़ की सांस्कृतिक त्रिधारा का संगम यहां प्रकट होता है। किसी एक लेखक की रचनाओं का एकाधिक सांस्कृतिक परिवेश का जीवंत चित्रण कम ही संभव हो पाता है। इन कहानियों में लेखिका के विस्तृत सांस्कृतिक-बोध और पर्यवेक्षण-कुशलता का पता चलता है।''

'तालाबों ने उन्हें हंसना सिखाया' विनोद साव का नया कहानी संकलन है। इसी शीर्षक की कहानी अक्षर पर्व के अंक में छप चुकी है। संयोग से इस संकलन में भी सत्रह कहानियां है और प्रत्येक पांच-छह पेज से यादा की नहीं है। विनोद की कहानियां एकदम अलग मिजाज की हैं। पहले तो इनकी भाषा की बात करूं तो उसमें एक खिलंदड़ापन नज़र आता है।  विनोद के भीतर का जो व्यंग्यकार है वह मानो उन्हें रह-रहकर उकसाता रहता है। मिसाल के लिए 'औरत की जात' कहानी के ये वाक्य लीजिए-
''... औरत को थोड़ी सी ओट भी पसंद है... पति भी हर औरत के लिए एक ओट का काम करता है।'' या फिर यह वाक्य ''आजकल नौकरी देते समय रूपरंग को भी देखते हैं, उसने ऐसे कहा जैसे नौकरी में भर्ती का यह कोई तकनीकी पक्ष हो।''
विनोद की इन कहानियों को शायद दो वर्गों में बांटा जा सकता है। एक तो वे हैं जिनमें छत्तीसगढ़ के गांव, तालाब, बाजार, रिश्ते, गरज यह कि लोक के बहुत से पक्ष जैसे चलते-चलते सामने आ जाते हों- ''तुम उर्मिला के बेटे हो'', ''तालाबों ने उन्हें हंसना सिखाया'', ''मुट्ठी भर रेत'' आदि कुछ ऐसी ही कहानियां हैं। दूसरे वर्ग में प्रेम कहानियां हैं- ''चालीस साल की लड़की'', ''घूमती हुई छतरी के नीचे'', ''मोबाइल में चांद'', ''मैं दूसरी नहीं होना चाहती'' आदि। इन प्रेम कहानियों की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इनमें स्त्री-पुरुष संबंधों को लेकर न तो कोई दार्शनिक राग आलापा गया है और न इनमें कोई कुंठा है। सच कहें तो विनोद की लोक जीवन की कहानियां भी सहज कुंठामुक्त भाव से लिखी गई हैं। वे अपनी रचनाओं में किसी तरह का पांडित्य प्रदर्शित नहीं करते, लेकिन वे जिन घटनाओं और प्रसंगों को उठाते हैं उनमें अपने आप एक तस्वीर बनने लगती है और समाज की कोई न कोई सच्चाई बहुत सहजता के साथ प्रगट हो जाती है। जैसे इस वाक्य को देखें- ''बच्चों की अंतिम और थकी-थकी आवाज गूंजी थी। चहुंदिशा छायी पीपल की छांव बनाएंगे हम सपनों का गांव।'' बच्चों की आवाज थकी होने का संकेत देने मात्र से सपनों की गांव की सच्चाई उजागर हो जाती है। एक और उदाहरण देखें- ''आपका नाम क्या है?'' मैंने डोंगी वाले से पूछा। मैं उसे तुम भी कह सकता था लेकिन मैंने उसे आप कहा। यह अतिशय सौजन्य अंग्रेजी महारानी की देन थी।
''हम लोग केंवट हैं!''
''ओफ्फ़... निषादराज!'' यह एक ऐतिहासिक महत्व का शब्द था जिससे जुड़े व्यक्ति ने कृपासिंधु को पार लगाया था।''

या फिर यह- ''झरने की गर्जना और बस की घरघराहट के बीच एक महीन स्वर उसे अब भी बार-बार सुनाई दे रहा था ''मैं दूसरी नहीं होना चाहती विनय।''

रामकुमार तिवारी के संकलन ''कुतुब एक्सप्रेस'' में यूं तो सिर्फ दस कहानियां हैं, लेकिन इनमें से कुछ कहानियां सुदीर्घ हैं। छोटे टाइप का इस्तेमाल होने के कारण पृष्ठ संख्या एक सौ छब्बीस पर सिमट गई है, जबकि कायदे से यह संख्या एक सौ साठ के आसपास होती। खैर! यह जिक्र प्रसंगवश आ गया। रामकुमार गहन, गंभीर व्यक्तित्व के धनी हैं और इन कहानियों में भी उनकी यह प्रकृति उभरकर आती है। मैं रामकुमार को एक ऐसे मित्र के रूप में जानता हूं जिसकी वर्तमान घटनाचक्र पर सजग दृष्टि है जिसका एक संकेत मैं ऊपर उनकी कविता के संदर्भ में दे आया हूं, लेकिन इन कहानियों की जहां तक बात है ऐसा लगता है ये निविड एकांत में रची गई हैं। मैं नहीं जानता कि रामकुमार निर्मल वर्मा से कितने प्रभावित हैं, लेकिन कहीं-कहीं उनकी कहानियों के साथ इनकी तुलना करने का मन होता है। मैं अगर इस बात को दूसरी तरह से कहना चाहूं तो मुझे लगता है कि लेखक के हृदय में छुपा कवि उस पर बार-बार हावी होने की कोशिश करता है। उदाहरण के लिए ये दो पैराग्राफ देखे जा सकते हैं।  ''एकाएक दूर अंधेरे से स्त्रियों का सामूहिक रुदन सुनाई दिया। कैसा हृदय विदारक रुदन था, जिसने अंधेरे को चीरकर समय को दुख की ऐसी घड़ी में पहुंचा दिया, जहां सिर्फ दुख ही सत्य होता है। स्त्रियों का रुदन हमें कैसी वेदना में ले जाता है, जैसे उसे सहना ही जीवन की कथा हो और हम निरुपाय अपने होने से विस्मृत होते जाएं।''
''कितना अलौकिक है कि कुछ ही पलों के लिए उन समस्त छायाओं से मुक्त हो जाऊं जो मुझे घेरे हैं। विस्मय, रहस्य और रोमांच से भरा किलक उठूं। अजन्मे स्वर अंदर जन्म लें, एक ऐसी भाषा की संभावना में, जिसमें मेरा शोर धरती के मौन में समा जाए, मेरा बहरापन दूर हो जाए, मुझे किसी संचार व्यवस्था की जरूरत न रहे। हर जगह से हर एक को सुन सकूं, हर एक को आवाज दे सकूं। यही सोचते-सोचते जहां हूं, वहीं से छलांग लगा देता हूं।''
एक कहानी में काव्यात्मकता हो, गीतात्मकता हो, इसमें किसी को क्या उज्र होने चला? लेकिन कविता और कहानी दोनों स्वतंत्र विधाएं हैं और मेरा मानना है कि दोनों का आविष्कार अलग-अलग जरूरतों को पूरा करने के लिए हुआ है। कविता का आस्वाद लेने के लिए एक खास किस्म के मानसिक अवकाश की जरूरत होती है, जबकि कहानी सामान्य तौर पर आपके संग-संग चलती है। बहरहाल रामकुमार के सामाजिक सरोकारों में किसी तरह का द्वंद्व नहीं है। यह इन कहानियों से स्पष्ट होता है। पहली ही कहानी ''पत्ते की तरह'' में नायक अपने पुराने जिए कस्बे में बरसों बाद लौटता है और उसे बस स्टैण्ड के होटल में कभी काम करने वाले नेपाली लड़के की बेसाख्ता याद आती है। एक अन्य कहानी में रोजी-रोटी के लिए पलायन पर मजबूर किसान के मजदूर बनते जीवन की व्यथा मार्मिकता के साथ उभरी है। यहां लेखक कहता है- ''मैं नाटक के शो में एक  पात्र का अभिनय करता हुआ-सा ट्रेन से उतर जाता हूं। जीवन के शो में अपने पीपे और गट्ठर के साथ सुमारू उतर जाता है।''
जिस कहानी के नाम से पुस्तक का शीर्षक रखा गया है याने ''कुतुब एक्सप्रेस'', उसमें गांव से कस्बा बनने और नई महत्वाकांक्षाओं के जागने व उससे उत्पन्न त्रासदी का दारुण वर्णन है। कुछ वही बात ''रात अंधेरे में'' कहानी में भी है। इस कथा के अंत में लेखक ने एक टिप्पणी जोड़ी है जो उसकी चिंता को दर्शाती है- ''पुनश्च: यह कहानी उस दौर की है, जब समाज में परंपरागत कार्य कौशल, खासकर खेती में कोई मान-सम्मान नहीं बचा था। उसे जानने, करने वाले जितनी हीनभावना से ग्रसित होते जा रहे थे, उसकी तुलना में पढ़े-लिखे, नौकरीपेशा लोग कई गुना यादा उपेक्षा और तिरस्कार से उन्हें देख रहे थे। हां, उस समय किसानों की आत्महत्या का दौर शुरू नहीं हुआ था।''
इस संकलन की आखरी कहानी ''ईजा फिर आऊंगा '' खासी लंबी कहानी है। इसमें एक उपन्यास बनने की संभावना छुपी हुई है। संभव है कि रामकुमार स्वयं इस दिशा में सोच रहे हों!

रमेश शर्मा का संभवत: यह पहला कहानी संग्रह है। ''मुक्ति'' में चौदह कहानियां है। इनको भी दो हिस्सों में बांटा जा सकता है। कुछ कथाएं ऐसी हैं जो रामकुमार तिवारी की ही तरह एकाकीपन और निजी अवसाद की कहानियां हैं। दूसरी श्रेणी में वे हैं जो सामाजिक जीवन की कठोर वास्तविकता से साक्षात्कार करवाती हैं। पहली कहानी- ''डर'' को ही लें। इसमें एक उम्रदराज अकेले पुरुष और अकेले स्त्री के बीच प्रेम की संभावना को लेकर रची गई है। चूंकि कई बार सत्य कल्पना से अधिक विचित्र होता है इसलिए संभव है कि यह कथा किसी वास्तविक प्रसंग पर आधारित हो, किन्तु सामान्य पाठक को यह रचना अविश्वसनीय ही लगेगी। ''सजा'', और ''मुझे माफ करना नीलोत्पल'' में भी जो दृश्य विधान खड़ा किया गया है वह बहुत विश्वसनीय नहीं लगता। जीवन में अकेलेपन और नैराश्य को लेकर लेखक कुछ ज्यादा ही चिंतित नजर आता है, जिसका साक्ष्य ऐसे उध्दरणों में मिलता है- ''मां कहा करती थी हमें... ''अपूर्णता ही तो जीवन है, कम-से-कम पूर्णता की लालसा में गतिशील तो रहते हैं हम! हर चीज अगर सुलभ हो जाए तब जीवन तो जड़वत हो जाएगा न बच्चों!''
''जानबूझकर कभी जिस अकेलेपन को उसने अपने जीवन में सूरज की रोशनी की तरह उतारा, इन दिनों उसी अकेलेपन से बचने के रास्ते ढूंढता फिर रहा है वह!''

''वह पेड़ जो गिरने को है'' कहानी तो मुझे अतार्किक ही प्रतीत हुई। दूसरी तरफ अन्य कहानियों में लेखक की सामाजिक चिंताएं उभरकर सामने आती हैं। ''शायद तुम उसे चाहने लगे थे'', ''खाली जगह'', ''तस्वीर पर बैठी उदास चिड़िया'' आदि इस तरह की कहानियां हैं। शायद तुम उसे... कहानी तो एकबारगी मुझे ''कनफेशन ऑफ एन इकानॉमिक हिटमेन'' की याद दिलाती है कि नवउदारवाद कैसे-कैसे षडयंत्र रचता है। संकलन में ''छेरछेरा'' शीर्षक से भी एक कहानी है। संयोग है कि इस प्रस्तावना के लिखने के दो दिन पहले ही छेरछेरा पर्व बीता है। यह छत्तीसगढ़ का अनूठा लोकोत्सव है, जिसमें पौष पूर्णिमा में घर-घर जाकर मुट्ठी-मुट्ठी धान संकलित किया जाता है, जो कभी अकाल-दुकाल में सबके काम आ सके। रचना तो अच्छी है, लेकिन इसे ललित निबंध की श्रेणी में रखना बेहतर होता। बहरहाल अपने इन चारों मित्रों को बधाई एवं उनकी रचनाशीलता के लिए शुभकामनाएं। 
अक्षर पर्व फरवरी 2014 अंक में प्रकाशित

Friday 21 February 2014

इतिहास बनाम डॉ. सिंह




प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने कुछ सप्ताह पूर्व अपनी पत्रकार वार्ता (संभवत: अंतिम) में कहा था कि आज उनकी चाहे जितनी आलोचना की जाए उन्हें विश्वास है कि इतिहास उनका बेहतर मूल्यांकन करेगा।  प्रधानमंत्री की यही भावना सोमवार को वित्तमंत्री पी. चिदम्बरम के अंतरिम बजट भाषण में प्रतिध्वनित हुई जब उन्होंने कहा कि यूपीए के कामकाज का निर्णय इतिहास करेगा। उनकी सोच अपनी जगह पर सही है। यूपीए ने डॉ. मनमोहन सिंह के नेतृत्व में दस वर्ष इस देश का शासन संभाला है। एक जनतांत्रिक व्यवस्था में इतना समय कम नहीं होता। अमेरिका में तो एफडीआर के राष्ट्रपतिकाल में ही यह नियम बन गया था कि उनके बाद किसी भी राष्ट्रपति को दो से ज्यादा मौके नहीं मिलेंगे याने कुल मिलाकर आठ वर्ष। इंग्लैण्ड में मार्गरेट थैचर ने ग्यारह साल तक सरकार चलाई। उनके बाद इतना लंबा अवसर और किसी को नहीं मिला। अभी शायद जर्मनी की एंजेला मर्केल ही एकमात्र अपवाद हैं। उस पृष्ठभूमि में देखें तो संभावना बनती है कि जनतांत्रिक राजनीति के वर्तमान दौर के अंतर्गत भारत में यूपीए के दससाला शासन का मूल्यांकन इतिहास अवश्य करेगा।

डॉ. सिंह और श्री चिदम्बरम का आत्मविश्वास उनके अपने आकलन से उपजा है, किन्तु हमें लगता है कि मौजूदा हालात में जबकि विश्व के राजनीतिक पटल पर अनवरत परिवर्तन हो रहे हैं तब इतिहास में बेहतर स्थान दर्ज कराने की आशा शायद समय-सम्मत नहीं है। हम जितना कुछ इतिहास जानते हैं उस पर एक नज़र दौड़ाने से ज्ञात होता है कि उसमें या तो महान नायकों का वर्णन होता है, या फिर अभूतपूर्व घटनाचक्रों का। उसमें सामान्यजनों तथा सामान्य घटनाओं के लिए अमूमन स्थान नहीं होता। घटनाओं और नायकों के इस संचयन में कई बार चूक भी होती है और ऐसे तथ्य चुनने से छूट जाते हैं, जिनकी एक अंतर्भूत भू्मिका इतिहास को बनाने में होती है। पिछले कुछ दशकों से सबल्टर्न (सतह के नीचे) का इतिहास लिखने की एक धारा चल निकली है जिसका उद्देश्य ही ऐसी कथित भूलों को सुधारना है। अब देखना यह है कि  यूपीए का शासनकाल इतिहास की इन दो धाराओं में से किसी एक में भी विवेचनाधीन होता है या नहीं!

इसी क्रम में यह ध्यान आता है कि इतिहास में व्याख्या तो जब होगी तब होगी, फिलहाल तो मीडिया में लगभग हर घंटे ही, जो भी सरकार हो उसके कामकाज की विवेचना हो रही है; भले कोई उससे सहमत हो, न हो। मीडिया द्वारा विवेचना और टिप्पणी के नैतिक आधार क्या हैं, इसे एक पल के लिए भूल जाएं और यह देखें कि मीडिया किस तरह अतिउत्साहित व अतिसक्रिय होकर सरकार के कामकाज की समीक्षा कर रहा है।  इसलिए इतिहास से प्रमाणपत्र हासिल करने के पहले इस चुनौती का सामना कैसे किया जाए, यह किसी भी सरकार के लिए ज्यादा अहम् प्रश्न होना चाहिए। इसी के साथ उन्हें यह सोचना भी आवश्यक है कि एक निश्चित अंतराल पर मतदाता भी उनके कामकाज का मूल्यांकन करता है तथा अपनी राजनीतिक सार्थकता सिध्द करने के लिए इस कसौटी पर खरा उतरने की चुनौती भी उनके सामने होती है।

भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ प्रवक्ता रविशंकर प्रसाद ने श्री चिदम्बरम के वक्तव्य पर चुटकी लेते हुए यह ठीक ही कहा कि इतिहास छोड़िए, उसके  पहले  तो यूपीए को कुछ ही दिनों में मतदाताओं के फैसले का सामना करना पड़ेगा। दरअसल ऐसी टिप्पणी करने वाले श्री प्रसाद अकेले व्यक्ति नहीं हैं। यह भी नहीं कि कांग्रेस के विरोधी ही ऐसी बात कर रहे हैं। कांग्रेस पार्टी के भीतर भी इस बारे में गहरा आत्ममंथन चल रहा है कि 2014 के आम चुनावों में मतदाताओं का विश्वास हासिल करने के लिए कांग्रेस की रीति-नीति क्या होगी? डॉ. मनमोहन सिंह तो अवकाश लेने की घोषणा तो कर ही चुके हैं। उन्हें शायद इस बात का भी इत्मीनान होगा कि उन्होंने अपनी निजी छवि को कलंकित होने नहीं दिया। उनके सामने न तो खुद अगला चुनाव लड़ने की चिंता है और न शायद अपनी पार्टी को चुनाव जिताने की! इसलिए वे निर्द्वन्द्व व निश्चिंत होकर राजनीति से विदा ले सकते हैं कि वे इतिहास में अपनी जगह सुरक्षित कर चुके हैं।

समस्या तो कांग्रेस अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी और उपाध्यक्ष राहुल गांधी के सामने है। हम यहां स्मरण करना चाहेंगे कि श्रीमती गांधी ने सात साल लंबा समय बीत जाने के बाद और भारी अनिच्छा से कांग्रेस की राजनीति में सक्रिय होने का फैसला लिया था। जो लोग कांग्रेस में वंशवाद होने की आलोचना करते हैं, वे भूल जाते हैं कि 1991 और 1998 के बीच सोनिया गांधी राजनीति से कोसों दूर थीं तथा 1998 से 2004 तक उन्होंने विपक्ष की राजनीति की थी। वंशवाद तो तब होता जब 1991 में प्रधानमंत्री बनी होतीं। खैर! यह आश्चर्य की बात है कि 2004 में उन्होंने डॉ. मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री पद क्यों सौंपा? वे स्वयं अनिच्छुक थीं यहां तक तो ठीक है लेकिन प्रणब मुखर्जी व अर्जुन सिंह ऐसे दो अनुभवी राजनेता उनके साथ थे, जिन्हें प्रधानमंत्री बनाया जा सकता था। संभव है कि श्रीमती गांधी को डॉ. सिंह पर सबसे यादा एतबार रहा हो। शायद इसलिए कि वे प्रचलित अर्थ में राजनेता नहीं थे! जो भी कारण रहे हों, इतना स्पष्ट है कि यूपीए के पहले कार्यकाल में सोनिया गांधी का यह निर्णय सही सिध्द हुआ तथा बड़ी हद तक इसी बिना पर यूपीए पर मतदाताओं ने 2009 में दोबारा विश्वास जताया।

ऐसा फिर क्या हुआ कि डॉ. सिंह दूसरे कार्यकाल में अपनी सरकार की साख बचाने में असफल हो गए? हमें लगता है कि इसके बीज यूपीए-1 के समय ही पड़ना शुरु हो गए थे। 2004 में कांग्रेस ने वाममोर्चा और तेलंगाना राज्य समिति जैसे सहयोगियों को लेकर चुनाव जीते थे। तेलंगाना बनाने का वायदा कांग्रेस के घोषणा पत्र में था, लेकिन उस पर कांग्रेस ने अमल नहीं किया और दस साल निकाल दिए। इसी तरह वाममोर्चे और अन्य घटक दलों के साथ मिलकर जो न्यूनतम साझा कार्यक्रम बना था, डॉ. सिंह ने प्रारंभ से ही उसकी अनदेखी करना शुरू कर दी। 2005 में तो वाममोर्चे के शुभचिंतक कहने लगे थे कि उसे सरकार से समर्थन वापिस ले लेना चाहिए। अगर ऐसा होता तो सरकार उसी समय गिर गई होती। 2008 में सरकार ने न्यूनतम साझा कार्यक्रम की बड़ी अवहेलना करते हुए अमेरिका के साथ आण्विक समझौता किया जिसके चलते वाममोर्चे ने अंतत: समर्थन वापिस ले लिया।

कहा जा सकता है कि कांग्रेस ने साझेदारी का धर्म नहीं निभाया।  2009 में कांग्रेस कुछ और मजबूत होकर सत्ता में लौटी तो इसके बाद उसके अहंकार की जैसे कोई सीमा ही नहीं रही। नटवर सिंह, मणिशंकर अय्यर व अर्जुनसिंह जैसे पुराने, नेहरूवादी नेता एक-एक कर हटा दिए गए थे। वाममोर्चा अलग हो ही चुका था। ऐसे में कांग्रेस का वैचारिक आधार बुरी तरह से क्षीण हो चुका था। सोनिया गांधी जिस राष्ट्रीय सलाहकार परिषद की अध्यक्ष हैं उसमें मुख्यरूप से कुछ पूर्व नौकरशाहों का बोलबाला रहा। उन्होंने जनहितैषी कार्यक्रम तो तजवीज़ किए किन्तु उन्हें लागू करने के लिए जिस राजनीतिक आधार की जरूरत थी उसमें कोई मदद करने की क्षमता उनमें नहीं थी। ऐसे ही कुछ नौकरशाहों ने सूचना का अधिकार कानून लागू करवाया जिसकी कि हमारी राय में कोई जरूरत नहीं थी।  मैंने इसका उस समय भी विरोध किया था।

मेरे विचार में श्रीमती गांधी इस बात को नहीं समझ पाईं कि सिर्फ लोक-लुभावन कार्यक्रमों से राजनीति नहीं चलती। नीतियों और कार्यक्रमों को जनता के बीच पहुंचाने के लिए कांग्रेस पार्टी को निष्ठावान व समर्पित कार्यकर्ताओं की बेहद जरूरत थी।  इस ओर बिल्कुल ध्यान नहीं दिया गया। ऐसे में जब भ्रष्टाचार के आरोप लगना शुरू हुए तो कांग्रेस अपना बचाव भी ठीक से नहीं कर पाई। कांग्रेस अध्यक्ष को चाहिए था कि 2011 में एक के बाद एक घोटालों की खबर आने के बाद वे डॉ. मनमोहन सिंह से इस्तीफा देने का अनुरोध करतीं और उनके स्थान पर ए.के. एंटोनी या प्रणब मुखर्जी को प्रधानमंत्री बनाया जाता। डॉ. सिंह को भी दीवार पर लिखी इबारत पढ़ना चाहिए थी। वे खुद इस्तीफे की पेशकश करते तो इससे बेहतर कुछ नहीं होता। लेकिन वे तो जैसे कसम खाकर बैठे थे कि पांच साल पूरा करके ही हटेंगे। सत्ता का या इतिहास बनाने का ऐसा मोह कोई नई बात नहीं है, लेकिन यह जनतांत्रिक परंपराओं के विपरीत है।

कांग्रेस ने अपने लंबे इतिहास में कई बार गलतियां की हैं, लेकिन उन्हें समय रहते सुधार भी लिया है। इस बार समय रहते गलती सुधारी क्यों नहीं गई? क्या इसीलिए कि सोनिया गांधी स्वास्थ्य संबंधी कारणों से राजनीति से विमुख हो गई हैं? क्या इसीलिए कि राहुल गांधी की दिलचस्पी सत्तामोह की राजनीति में नहीं है? क्या इसीलिए कि कांग्रेस के भीतर ही कांग्रेस को समाप्त करने का कोई षड़यंत्र चल रहा है? इन सवालों का जवाब मिले तभी पता चलेगा कि इतिहास यूपीए का आकलन किस तरह करता है।

देशबंधु में 20 फरवरी 2014 को प्रकाशित



Wednesday 12 February 2014

मीडिया चौराहे पर



आज
देश में मीडिया की जो स्थिति है उसे देखकर कुछ उपमाएं सूझ रही हैं। मैं अगर कहूं कि मीडिया इस समय चौराहे पर खड़ा है, तो शायद बहुत गलत नहीं होगा। एक बहुत पुरानी फिल्म 'शिकस्त' का वह लोकप्रिय गाना फिर याद आ रहा है-''चौरस्ते पे जैसे मुसाफिर पथ पूछे घबराए, कौन देश किस ओर जाऊं मैं, मन मेरा समझ न पाए।'' इसी बात को कुछ अलग ढंग से इस तरह भी कहा जा सकता है कि मीडिया एक भंवरजाल में फंस गया है। उसकी हाथ-पैर मारने की शक्ति भी खत्म हो चली है। डूबते-उतराते पता नहीं वह किस तरह इससे निकल पाएगा! हो सकता है कि मीडिया के मेरे मित्रों को मेरा ऐसा कहना अतिशयोक्ति लगे। हो सकता है कि कोई-कोई इसका बुरा भी मानें, लेकिन मैं जो देख रहा हूं वह एक निराशाजनक तस्वीर है। दरअसल अभी नहीं, पिछले कुछेक सालों से मैं मीडिया प्रसंग उठने पर बार-बार यही कहता हूं कि अब न तो अखबार में लिखे पर और न टीवी पर देखे-सुने पर जनता को विश्वास करना चाहिए। अगर एतबार करेंगे तो आगे जाकर दु:खी होंगे और यह बात मैं उस भारतीय समाज के बीच करता हूं जिसे टीवी पर न सही, अखबारों पर आज भी बहुत भरोसा है।

मीडिया की यह जो शोचनीय स्थिति मेरे सामने है इसके अनेक आयाम हैं। एक तरफ तो मीडिया का स्वयं अपने द्वारा गढ़ा हुआ मिथक है कि भारत में टीवी के दर्शकों व अखबार के पाठकों की संख्या लगातार बढ़ रही है। टीवी पर समाचार के नित नए चैनल खुल रहे हैं। दर्शकों की संख्या में आबादी के  अनुपात से वृध्दि हुई है, लेकिन हर नए चैनल को कितने नए दर्शक मिलते होंगे? उन्हें अगर नए दर्शक मिल रहे हैं तो क्या पुराने चैनलों के दर्शक टूटते न होंगे? आखिरकार एक समय में एक व्यक्ति एक ही चैनल देख सकता है? पाठकों को याद होगा कि टीवी चैनलों ने अपनी दर्शक संख्या मापने की जो प्रणाली अपना रखी है उसे लेकर ही उनके बीच गहरे मतभेद हैं। टीआरपी की विश्वसनीयता में निरंतर गिरावट आई है तथा एक सर्वमान्य प्रणाली विकसित करने के लिए उपाय खोजे जा रहे हैं। इस मुद्दे पर कुछेक चैनलों के बीच आपसी लड़ाईयां भी हो चुकी हैं।

अखबारों की पाठक संख्या को लेकर भी इस तरह के मतभेद उभरे हैं। पहले एनआरएस (नेशनल रीडरशिप सर्वे) नाम की एक संस्था होती थी। पत्र प्रकाशक, विज्ञापनदाता व विज्ञापन एजेंसियां तीनों का यह संयुक्त प्रयास था। कुछ समय बाद आईआरएस (इंडियन रीडरशिप सर्वे) नामक संस्था का उदय हुआ। इसकी भी व्यवस्था एनआरएस की तरह ही थी। पहले कुछ साल एनआरएस के आंकड़े खूब चले, फिर प्रकाशकों के बीच इसके नतीजों को लेकर विवाद होना शुरू हो गया। बहुत से पत्रों ने असंतुष्ट होकर इसकी सदस्यता छोड़ दी। यह संस्था अब क्या कर रही है कम से कम मेरी जानकारी में नहीं है। दूसरी संस्था अर्थात् आईआरएस अभी चल तो रही है, लेकिन इसकी कार्यप्रणाली और निष्कर्षों को लेकर भी प्रकाशकों के बीच सार्वजनिक बयानबाजी स्तर तक मतभेद उभर आए। इसे लेकर दो अनुमान लगाए जा सकते हैं। एक- कि अखबारों के अपने दावों में कहीं कोई कमजोरी है और दो- कि आईआरएस की सर्वेक्षण पध्दति में ही खामियां हैं! जो भी हो टीआरपी और आईआरएस दोनों की विश्वसनीयता पर लगा प्रश्नचिन्ह मीडिया की पहुंच के अपने दावों को संदिग्ध बनाता है।

मैं चूंकि स्वयं एक अखबार से पिछले तिरपन साल से जुड़ा हुआ हूं इसलिए समाचारपत्र की प्रसार संख्या और पाठक संख्या को लेकर मेरी अपनी एक राय है। आज सोलह पेज के एक अखबार में सिर्फ कागज की कीमत उसकी क्वालिटी के अनुसार साढ़े तीन से पांच रुपए के बीच बैठती है। बाकी खर्चे अलग। इसके बरक्स अखबार का मूल्य होता है तीन या साढ़े तीन रुपया। वितरण का खर्च काटकर हाथ आता है अधिकतम दो रुपया। इस तरह अखबार की एक प्रति पर अगर दो रुपया या अधिक का घाटा होता है तो सवाल उठता है कि इसकी पूर्ति कहां से होगी? जनता समझती है कि अखबार को विज्ञापन से भारी कमाई होती है। यह एक दूसरा मिथक है।  जब हर रोज नए अखबार निकल रहे हों तो विज्ञापनदाता किसको, कितना विज्ञापन दे देगा? आखिर उसे भी तो एक बजट के भीतर अपना काम करना पड़ता है। यहां पर यह स्पष्ट समझ आ जाना चाहिए कि अखबार हो या टीवी चैनल अपना अस्तित्व बनाए रखने के लिए व्यवसायिक विज्ञापनों पर नहीं, बल्कि किन्हीं अन्य स्रोतों पर निर्भर रहते हैं।

ये अन्य स्रोत क्या हैं? इन्हें हम मुख्यत: तीन श्रेणियों में रख सकते हैं। पहला, मीडिया मालिक के अपने अन्य कोई व्यवसायिक उपक्रम हों जिनकी कमाई से वह घाटे की पूर्ति करता हो और इसकी एवज में मीडिया का इस्तेमाल व्यापार बढ़ाने के लिए करता हो। दूसरे, वह सरकार पर निर्भर रहता हो। देश में राजनीतिक चेतना का क्रमिक विकास हुआ है। राजनीति किसी हद तक विकेन्द्रित हुई है। हर मुख्यमंत्री तथा हर क्षत्रप अपने छवि निर्माण के लिए पहले से कहीं ज्यादा  आत्म सजग है। हरेक की निगाह प्रधानमंत्री की कुर्सी पर है। हरेक चाहता है कि मीडिया में सुबह-शाम उसकी जय-जयकार होती रहे।  मीडिया मालिक अगर इसकी कोई कीमत मांगता है तो उसे देने में क्या हर्ज है? यह कीमत अगर विज्ञापन की शक्ल में चुकाना हो तो उसमें बुराई क्या है? अगर मीडिया मालिक को राज्यसभा में भेजना हो तो वह भी मुनाफे का सौदा है।

जिन दो श्रेणियों का संक्षिप्त वर्णन मैंने ऊपर किया उसका प्रभाव क्षेत्र सीमित है, इसलिए समाज के लिए बहुत ज्यादा  नुकसानदायक नहीं है। लेकिन हाल के वर्षों में एक तीसरी श्रेणी भी बन गई है। अब मीडिया में एक तरफ विदेशी पूंजी लग रही है, तो दूसरी तरफ कारपोरेट पूंजी से उनका पोषण हो रहा है। भारत के सबसे बडे उद्योगपति मुकेश अंबानी आज एक बडे मीडिया साम्राय के भी मालिक हैं। अन्य इजारेदार भी उसी राह पर चल रहे हैं। वे मीडिया को स्वतंत्र व पृथक व्यवसाय की तरह नहीं देखते बल्कि अपने व्यवसायिक साम्राय का विस्तार करने के लिए देश की राजनीति को प्रभावित करने के उद्देश्य से उसका बेहिचक इस्तेमाल कर रहे हैं। उन्हें इसमें किसी तरह से कोई रोक-टोक पसंद नहीं है।

मैं अपने पाठकों का ध्यान 'आउटलुक' पत्रिका के 3 फरवरी 2014 के अंक की ओर दिलाना चाहता हूं। इसमें पत्रिका ने मीडिया पर कारपोरेट नियंत्रण को लेकर एक लंबा लेख छापकर बताया है कि कारपोरेट भारत नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री बनाने के लिए मीडिया की स्वतंत्रता से किस तरह खिलवाड़ कर रहा है। इस लेख में पांच पत्रकारों के उदाहरण दिए गए हैं। देश के सर्वश्रेष्ठ माने जाने वाले समाचारपत्र 'द हिन्दू' में प्रबंधन में आंतरिक बदलाव हुए तो पत्र के प्रतिष्ठित संपादक सिध्दार्थ वरदराजन को आनन-फानन में बाहर का रास्ता दिखा दिया गया। अगर 'द हिन्दू' में ऐसा हो सकता है तो फिर बाकी अखबारों के बारे में तो कल्पना ही की जा सकती है।  तमिलनाडु में ही प्रभावशाली सन टीवी के पत्रकार थिरू वीरपाण्डयान को भी इसलिए हटा दिया गया कि उन्होंने एक स्वतंत्र कार्यक्रम में अपनी निजी हैसियत से बोलते हुए नरेन्द्र मोदी की आलोचना कर दी थी।

कुछ समय पहले जब रहील खुर्शीद को 'टि्वटर' का भारत प्रभारी नियुक्त किया गया तो उनको हटाने के लिए भी एक मुहिम चल पड़ी क्योंकि खुर्शीद पूर्व में श्री मोदी की आलोचना कर चुके हैं। 'फोर्ब्स इंडिया' के एक संपादक इंद्रजीत गुप्ता को भी किसी ऐसे ही आधार पर पद त्याग के लिए मजबूर होना पड़ा। आर.पी. गोयनका समूह द्वारा संचालित 'ओपन' पत्रिका से जुझारू पत्रकार हरतोष सिंह बल को इसलिए हटना पड़ा कि वे भी नरेन्द्र मोदी की नीतियों  का विरोध कर रहे थे। उनके आलोचक भूल गए कि श्री बल ने कांग्रेस और राहुल गांधी की भी उसी निष्पक्षता के साथ आलोचना की थी। इस बीच दिल्ली के युवा पत्रकार शिवम विज का एक लेख इंटरनेट पर आया है जिसमें उनका आरोप है कि मुकेश अंबानी के टीवी-18 समूह ने अपने दो जाने माने पत्रकारों निखिल वागले व सागरिका घोष को चेतावनी दी है कि वे निजी तौर पर भी श्री मोदी की आलोचना करना बंद करें।

इस लेख के बाद सीएनएन-आईबीएन के प्रमुख कर्ता-धर्ता राजदीप सरदेसाई ने ऐसी किसी चेतावनी या दबाव की बात का खंडन किया, लेकिन शिवम विज अपनी बात पर कायम हैं। मैं याद करता हूं कि आज से बीस साल पहले राजदीप सरदेसाई ने 'टाइम्स ऑफ इंडिया' में एक युवा पत्रकार के रूप में विकासमूलक पत्रकारिता करते हुए अपनी पहचान बनाई थी, जबकि उसी समय में निखिल वागले अपने सांध्य दैनिक 'महानगर' में शिवसेना और बाल ठाकरे पर तीखे आक्रमण करने के कारण चर्चित हुए थे और उन्हें जानलेवा हमलों का भी सामना करना पड़ा था। क्या ये दोनों उदाहरण इस कड़वी सच्चाई की गवाही नहीं देते कि कारपोरेट नियंत्रित मीडिया ने इस तरह पत्रकारों से उनकी आवाज के तीखे तेवर और कलम की धार छीनकर उन्हें बेबस और अकिंचन बना दिया है.

 
 देशबंधु में 13 फरवरी 2014 को प्रकाशित

Wednesday 5 February 2014

21 वीं सदी में जनतंत्र!




ऑल
इंडिया प्रोग्रेसिव फोरम द्वारा बीते सप्ताह ''सामाजिक रूपांतरण में जनतंत्र एवं जनतांत्रिक संस्थाएं; इक्कीसवीं सदी की संभावनाएं'' विषय पर एक राष्ट्रीय परिसंवाद का आयोजन किया गया। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) परिसर में आयोजित इस कार्यक्रम में देश के सोलह-सत्रह प्रांतों ने भागीदारी की। प्रतिनिधियों में राजनीतिक चिंतक, समाजशास्त्री, पत्रकार, अध्यापक, शोधार्थी, विद्यार्थी, श्रम संगठनों के कार्यकर्ता आदि शामिल थे। वर्तमान समय में एक बड़ी चुनौती हमारे सामने इस रूप में मौजूद है कि देश का सामाजिक, राजनीतिक विमर्श त्वरित लाभालाभ पर केन्द्रित हो गया है एवं  गंभीर वैचारिक विमर्श की जगह धीरे-धीरे खत्म होती जा रही है। एक हड़बड़ी चारों तरफ दिखाई देती है कि जितनी जल्दी जितना अधिक मिल सके उसे बटोर लिया जाए। यह प्रवृत्ति समाज के हर क्षेत्र में दिखाई दे रही है। ऐसे में भविष्य की कल्पना कर दूरगामी हित करने वाली नीतियां कैसे बनें इस पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया जा रहा है।

इस पृष्ठभूमि में यह एक संतोषदायी अनुभव था कि दिल्ली की कड़कड़ाती ठंड में देश के चारों कोनों से आए विभिन्न अनुभवों और विभिन्न आयु वाले बहुत सारे लोग तीन दिन तक एक साथ बैठें और माथापच्ची करें कि भारत के लिए जनतंत्र तथा जनतांत्रिक संस्थाओं का क्या मूल्य है और यह कि आने वाले समय में समाज का बेहतरी के लिए  रूपांतरण करने में इनकी क्या भूमिका हो सकती है। यहां यह रेखांकित करना भी उचित होगा कि इस तीन दिवसीय कार्यक्रम में किसी भी तरह का तामझाम नहीं बरता गया। विभिन्न सत्रों में कुछेक विद्वान अतिथि वक्ता आए लेकिन हमारे यहां स्वागत- सत्कार की जो अनावश्यक औपचारिकताएं निभाई जाती हैं उनकी यहां कोई आवश्यकता नहीं समझी गई। कुल मिलाकर एक खुला वातावरण था, जिसमें कुछ अच्छे आलेख पढ़े गए और फिर उन पर जमकर बहसें हुईं। सारे सत्रों का संचालन भी उन विद्यार्थियों ने किया, जो स्वयं को आने वाले दिनों में सक्रिय सामाजिक भूमिका निभाने के लिए तैयार कर रहे हैं।

पहले दिन परिसंवाद की शुरूआत नागपुर के प्रोफेसर युगल रायलु के बीच वक्तव्य के साथ हुई। उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि भारतीय जनता के लिए जनतंत्र सिर्फ एक राजनैतिक व्यवस्था ही नहीं, बल्कि जीवन पद्धति है। उन्होंने इस बात की ओर ध्यान दिलाया कि भारत व्यापक विविधताओं का देश है तथा इस विविधता का संरक्षण जनतांत्रिक व्यवस्था में ही संभव है। किसी भी तरह की तानाशाही अथवा अधिनायकवाद में विविधता का निषेध ही होता है। प्रोफेसर रायलु ने इस खतरे की ओर आगाह किया कि देश में जनतांत्रिक प्रक्रिया को भीतर ही भीतर नष्ट करने का महीन षड़यंत्र चल रहा है। एक तरफ अतिदक्षिणपंथी हैं जो भारत के संविधान को बदल देना चाहते हैं, तो दूसरी ओर अतिवामपंथी हैं जो संविधान में विश्वास ही नहीं रखते। इन दोनों से ही सावधान रहने की आवश्यकता है। एक अन्य वक्ता डॉ. अजय पटनायक ने इस बात पर चिंता जताई कि जनता और मीडिया में कथित विकास को लेकर तो बहसें हो रही हैं, किंतु गैरबराबरी और नाइंसाफी को लेकर जिस गंभीरता के साथ बहस होना चाहिए वह दूर-दूर तक नहीं दिखती। उन्होंने इस बात पर भी जोर दिया कि धर्मनिरपेक्षता हमारे जनतंत्र का प्रमुख आधार है और इसे बचाना बेहद जरूरी है।

ऑल इंडिया प्रोग्रेसिव फोरम के कार्यकारी अध्यक्ष अनिल राजिमवाले ने इस अवसर पर एक विस्तृत आधार पत्र प्रस्तुत किया। उन्होंने बतलाया कि अंग्रेजी राज के दौरान भी हमारे स्वाधीनता सेनानियों ने किस तरह से समाज के बीच जनतांत्रिक चेतना फैलाने का काम किया। उन्होंने विभिन्न कालखंडों का जिक्र करते हुए 1937 के आम चुनावों की चर्चा की जब ग्यारह में से नौ प्रांतों में कांग्रेस ने भूमिहीनों व गरीब जनता के भारी समर्थन से विजय हासिल की। इसके बाद उन्होंने ध्यान आकर्षित किया कि भारत के पड़ोसी देशों में जनतंत्र को जडें ज़माने का पर्याप्त अवसर नहीं मिला जबकि हमें संविधान सभा के माध्यम से ऐसी जनतांत्रिक व्यवस्था प्राप्त हुई जो अब तक चली आ रही है। श्री राजिमवाले ने श्रमिक संगठन, सार्वजनिक उद्यम, मीडिया आदि अनेक अभिकरणों का उल्लेख किया, जिन्होंने जनतंत्र को पुष्ट करने में भूमिका निभाई। इसके बाद उन्होंने प्रश्न उछाला कि क्या हम इस व्यवस्था का संपूर्ण लाभ उठा सके हैं? इसमें देश को रूपांतरित करने की जो क्षमता है क्या उसका दोहन पूरी तरह से किया गया है? उन्होंने यह मंतव्य भी प्रकट किया कि जनतंत्र सिर्फ एक राजनीतिक व्यवस्था नहीं है, बल्कि वह मनुष्य संस्कृति का एक नया रूप है। श्री राजिमवाले ने अपने उद्बोधन का एक बड़ा हिस्सा इस बात पर केंद्रित किया कि विज्ञान व टेक्नालॉजी में खासकर सूचना प्रौद्योगिकी में जो नए आविष्कार हुए हैं उनसे समाज में जनतंत्रीकरण की प्रक्रिया मजबूत होने की संभावना बढ़ी है। इस बारे में कुछ अन्य वक्ताओं के साथ मैंने भी आंशिक असहमति दर्ज की।

एक सत्र में राज्यसभा के संयुक्त सचिव सत्यनारायण साहू अतिथि वक्ता थे। उन्होंने अपने रोचक वक्तव्य में अनेक दृष्टांत देते हुए यह स्थापित किया कि सामाजिक रूपांतरण के लिए जनतंत्र से बेहतर अन्य कोई व्यवस्था नहीं हो सकती। श्री साहू ने महात्मा गांधी को याद करते हुए प्रतिपादित किया कि भारत में यदि जनतंत्र मजबूत हुआ है तो उसका मूल आधार अहिंसा है। उन्होंने वर्तमान की चर्चा करते हुए विश्वास व्यक्त किया कि आम चुनावों में इलेक्ट्रानिक प्रक्रिया अपनाने से बेहतर ढंग से चुनाव संचालन संभव हो रहा है। इसी सत्र में हैदराबाद के तकनीकीविद्  एम. विजय कुमार ने तर्क रखा कि विकेंद्रीकरण और जनतंत्रीकरण दो अलग-अलग बातें हैं। विकेंद्रीकरण एक सीमित प्रक्रिया है जबकि जनतंत्रीकरण का दायरा व्यापक है। उन्होंने यह आशंका भी व्यक्त की कि आज की प्रौद्योगिकी कहीं अधिनायकवादी प्रवृत्ति को बढ़ावा देने का काम तो नहीं कर रही? गोवा के डॉ. ईश्वर सिंह दोस्त का भी प्रश्न था कि- विज्ञान और प्रौद्योगिकी के विकास से होने वाला लाभ अंतत: कौन उठा रहा है। दिल्ली के वैज्ञानिक डॉ. सोमा एस. मार्ला ने नवउदार पूंजीवाद की चर्चा करते हुए कुछ मौजूं प्रश्न सामने रखे जैसे कि टेक्नालॉजी के विकास से श्रमिकों को क्या लाभ मिला है? क्या इससे अमीर और गरीब के बीच की खाई बढ़ी है? क्या इससे श्रमिक समुदाय का जीवनस्तर बेहतर हुआ है? उन्होंने यह भी बताया कि आज दुनिया के दो तिहाई से यादा वैज्ञानिक बहुराष्ट्रीय निगमों के लिए काम कर रहे हैं।

परिसंवाद में एक सत्र ''मीडिया एवं सामाजिक परिवर्तन'' पर हुआ। इस सत्र में सुप्रसिद्ध पत्रकार हरतोष सिंह बल अतिथि वक्ता के तौर पर मौजूद थे उन्होंने अपने वक्तव्य में कुछ बहुत ही चुभते हुए प्रश्न उठाए। उन्होंने पूछा कि भारत में मीडिया की वृद्धि की जो बात की जा रही है वह किस हद तक सही है? उन्होंने इस बात पर चिंता व्यक्त की कि मीडिया का स्वामित्व धीरे-धीरे कुछेक पूंजीपतियों के हाथों सिमटता जा रहा है। उन्होंने बतलाया कि कितने ही मीडिया समूह भारी घाटे में चल रहे हैं और इस घाटे की पूर्ति मीडिया मालिक अपने दूसरे व्यवसाय में मुनाफा उठाकर करते हैं। श्री बल ने मीडिया, कारपोरेट और राजनेताओं के गठबंधन पर भी चिंता जाहिर की तथा मीडिया को स्वतंत्र व निष्पक्ष बनाने के लिए दो महत्वपूर्ण सुझाव दिए। एक- मीडिया के क्रियाकलाप भी जनता के पड़ताल के लिए खुले होना चाहिए, जिस तरह आईटीआई के अंतर्गत सरकार के कार्यकलाप। दो- देश की संसद और जनप्रतिनिधियों को मीडिया की स्वतंत्रता सुनिश्चित करने के लिए हस्तक्षेप करना चाहिए। इस सत्र में सोशल मीडिया व न्यू मीडिया पर भी बहुत बातें हुईं। अधिकतर वक्ताओं का मानना था कि सोशल मीडिया अपने आप में परिवर्तन का वाहक नहीं, बल्कि एक सुलभ माध्यम मात्र है। असली परिवर्तन तो जनता ही करती है। भारत के संदर्भ में रेखांकित किया गया कि सोशल मीडिया यहां अभी प्रारंभिक अवस्था में है। वह मुख्यत: शहरी क्षेत्र तक केंद्रित है और उसकी पहुंच सीमित है। जनता के हक में इसका बेहतर और अधिकतम इस्तेमाल कैसे हो सकता है इस पर अभी और विचार करना होगा।

परिसंवाद के एक सत्र में ''जनतंत्र और वर्चस्ववाद'' पर चर्चा हुई तो एक में ''भारतीय जनतंत्र व धर्मनिरपेक्षता'' पर। समापन दिवस पर एक सत्र में हाशिए का समाज और 'जेंडर जस्टिस' (लैंगिक न्याय) पर चर्चा हुई तथा दूसरे सत्र में संस्थाओं के जनतंत्रीकरण पर। स्थानाभाव के कारण उन पर चर्चा फिर कभी। कुल मिलाकर यह एक विचारोत्तेजक कार्यक्रम था। शास्त्रार्थ के लिए प्रसिद्ध इस देश में आवश्यक है कि ऐसी चर्चाएं निरंतर होती रहें, अन्यथा भावनाओं में बहकर हम किसी भी दिन किसी तानाशाह को गद्दी सौंपकर जनतंत्र को खो देंगे।


देशबंधु में 06 फरवरी 2014 को प्रकाशित
 

Tuesday 4 February 2014

शिक्षा का मोल : मोल ली शिक्षा



भारत
में शिक्षा की आवश्यकता व उपादेयता को जिस रूप में लिया जाता है उसे देख-देखकर मैं हैरान हूं। एक समय था जब मंत्रियों तथा बड़े समझे जाने वाले अन्य लोगों के स्वागत के लिए शाला से बच्चों को इकट्ठा कर कभी किसी मैदान में तो कभी किसी सड़क के किनारे खड़े होने के लिए ले आया जाता था। कई बार ऐसे गणमान्य व्यक्ति के आने में देर होती थी तो दस-बारह साल उम्र के बच्चे कई-कई घंटे खड़े रहने पर मजबूर हो जाते थे। भूखे-प्यासे, कभी ठंड में ठिठुरते, तो कभी धूप में झुलसते। गोया बच्चे न हुए रंग-बिरंगा फीता हो गए। किसी शिक्षक, किसी प्रधानाध्यापक की हिम्मत नहीं होती कि तहसीलदार या जिलाधीश की हुक्म हुजूरी कर सकें। आज भी तमाम सरकारी आदेशों के बावजूद यह स्थिति किसी हद तक बरकरार है।  इन विद्यार्थियों के लिए शैक्षणिक कैलेण्डर के मुताबिक साल में विभिन्न अवसरों पर भांति-भांति के उत्सवों और प्रतियोगिताओं का आयोजन किया जाता है। इनमें राष्ट्रीय स्तर के आयोजन भी शामिल हैं। किन्तु उद्धाटन और समापन इन दो अवसरों को छोड़ दें तो दूर पास से आए विद्यार्थियों की खोज-खबर शायद ही कोई लेता हो। उन्हें ऐसी जगह ठहराया जाता है जहां न तो साफ-सफाई होती है और न अन्य उचित व्यवस्थाएं। पीने का पानी भी ऐसे मटकों में भरा जाता है जो शायद कभी धुलते भी नहीं। नाश्ते और भोजन के लिए जो राशि स्वीकृत होती है वह अपने आप में पर्याप्त नहीं होती और आयोजनकर्ताओं को बस्ती के धनी-धोरी लोगों की कृपा से इंतजाम करने पर बाध्य होना पड़ता है। यदा-कदा अखबार का कोई संवाददाता सजग, संवेदनशील हुआ तो वह ऐसी बदहाली की रिपोर्ट छाप देता है, लेकिन तब तक अवसर बीत जाता है।


ऐसा नहीं है कि हमारे कल्याणकारी राज्य को अपनी नई पीढ़ी की बिल्कुल भी चिंता न हो। शिक्षा का अधिकार कानून सारे देश में लागू हो चुका है। यह हमारे नीति निर्माताओं के सदाशय का सबसे ताजा और बड़ा प्रमाण है। स्कूलों में मध्यान्ह भोजन योजना तो पिछले कई साल से चल ही रही है, लेकिन इस योजना पर अमल किस तरह से हो रहा है वह भी किसी से छिपा हुआ नहीं है। उच्च स्तर पर ऐसे मुद्दे को लेकर अब तक आम राय कायम नहीं हो सकी है कि बच्चों को बिस्किट या पहले से तैयार अन्य कोई आहार मध्यान्ह भोजन में परोसा जाए या फिर उन्हें स्कूल में ताजा गर्म सामान्य भोजन उपलब्ध कराया जाए। फिर यह प्रयोग भी चल रहा है कि किसी निजी संस्था की केन्द्रीय रसोई में भोजन तैयार कर आसपास के स्कूलों में वितरित कर दिया जाए। अधिकतर स्थानों पर स्कूल के भीतर ही रसोई की व्यवस्था है, लेकिन उसमें भी मुश्किलें कम नहीं हैं।

मैंने देखा है कि जहां कहीं शिक्षक स्वप्रेरित हैं वहां तो बच्चों को भोजन ठीक से मिल जाता है, लेकिन अधिकतर स्थानों में स्थिति बहुत अच्छी नहीं कही जा सकती। ऐसी खबरें भी लगातार सुनने में आती हैं कि विशेषकर भोजन के समय बच्चों से जाति और धर्म के आधार पर भेदभाव किया जाता है। हमारे कुछ जाने माने समाजचिंतक दावा करते हैं कि मध्यान्ह भोजन योजना के चलते स्कूलों में बच्चों की आमद में इजाफा हुआ है। याने सरकारी भाषा में शाला-प्रवेशी बच्चों का प्रतिशत लगातार बढ़ रहा है। किन्तु ये उदारमना चिंतक इस सच्चाई पर शायद जानबूझ कर ही गौर नहीं करते कि स्कूल में भोजन कर लेने के बाद कितने बच्चे कक्षा में बैठते हैं और कितने तुरंत घर वापिस चले जाते हैं। वैसे भी उन कक्षाओं में बच्चे बैठकर करेंगे भी क्या जहां या तो शिक्षक हैं ही नहीं और अगर हैं भी तो स्कूल से नदारद हैं। तथापि कुछेक अत्यंत दुर्लभ अवसरों को छोड़कर अभिभावक या आसपास का समाज इन सारी बातों पर गौर नहीं करता।

देश में स्कूल शिक्षा के क्षेत्र में एक राजनैतिक प्रयोग समाजसेवा के आवरण में कुछ सालों से चल रहा है। इसके तहत सुदूर आदिवासी गांव में आदिवासी बच्चों को तीसरी क्लास तक की शिक्षा देने के लिए एकल विद्यालय खोले गए हैं याने एक शिक्षक है जो तीन कक्षाओं को पढ़ाएगा, उसे गांव के ही समर्थ लोग मानदेय देंगे। तीसरी कक्षा के बाद ये बच्चे कहां जाएंगे? पूछने पर जवाब मिलता है कि वे नजदीक के सरकारी स्कूल में जा सकते हैं। ऐसी आधी-अधूरी व्यवस्था करने के बजाय आप पूर्ण सुसज्जित शाला स्थापित क्यों नहीं करते? पूछने पर गोलमाल ढंग से जवाब मिलता है। इस बिन्दु को फिलहाल मैं यहीं छोड़ता हूं। मुख्य बात यह है कि उपरोक्त चर्चा देश में शिक्षा के मौजूदा हालात को समझने में हमारी मदद करती है।

एक तरफ यह स्थिति है, लेकिन दूसरी ओर हमारे समाज की अपनी शिक्षा प्रणाली से याने विद्यालयों, अध्यापकों और विद्यार्थियों से अपेक्षा का कोई अंत नहीं है। समाज चाहता है कि वे बड़े वैज्ञानिक बनें, बड़े खिलाड़ी बनें, वीर योध्दा बनें, देश का नाम रोशन करें इत्यादि। देश के प्रभुताशाली वर्ग ने एक जुमला रट लिया है- ''कैच दैम यंग''। बच्चे न हुए, मछली हो गए। हम अपने बच्चों  को सर्वगुण सम्पन्न बनाना चाहते हैं और उसके लिए एक आसान फार्मूला भी हमने खोज लिया है। देश में पर्यावरण की समस्या विकट हो रही है तो स्कूल के पाठयक्रम में पर्यावरण शिक्षा को अनिवार्य रूप से शामिल कर लिया जाए; देश में मानव अधिकारों के हनन की घटनाएं लगातार बढ़ रही हैं, तो बच्चों को मानवाधिकार के बारे में पढ़ना अनिवार्य कर दिया जाए; देश में सड़क दुर्घटनाओं में निरंतर बढ़ोतरी हो रही है तो बच्चों को स्कूल से ही यातायात के नियम सिखाना शुरू कर दिया जाए।

गरज यह कि हमसे अब कुछ करते-धरते नहीं बनता और न हम करेंगे। बच्चों को पाठ पढ़ा दो, वे ही बड़े होकर स्थितियां सुधारेंगे। इसमें भी सारा जोर सरकारी स्कूलों पर है। ऊपर हमने मुख्यत: इन सरकारी स्कूलों की ही एक आधी- अधूरी तस्वीर आपके सामने रखी है। डॉ. दौलत सिंह कोठारी की अध्यक्षता में बने कोठारी आयोग की रिपोर्ट प्रकाशित हुए पचास साल बीत गए। हमारे नीति निर्माताओं को उस पर अमल नहीं करना था सो नहीं किया। किन्तु उसके बाद राममूर्ति आयोग और फिर न जाने और कितनी-कितनी कमेटियां बनती चली गईं, उन सबकी रिपोर्टें भी पवित्र उद्देश्यों का वक्तव्य बनकर रह गईं। अनिल सद्गोपाल ने किशोर भारती के माध्यम से जो नवाचार प्रस्तुत किया उसे आगे बढ़ाने में न सरकार, न समाज की कोई रुचि दिखी। इसी तरह एकलव्य के सारे प्रयोग भी एक सीमित दायरे में इस तरह सिमट गए क्योंकि प्रभुताशाली वर्ग की उसमें रुचि नहीं थी।

हमारे देश का नाम ही भारत है याने वह देश जो ज्ञान की साधना में रत है। शायद कुछ इस वजह से, शायद कुछ किन्हीं पुरानी स्मृतियों के कारण, शायद कुछ औपचारिकता के चलते यह तो बार-बार कहा जाता है कि शिक्षा से बढ़कर बहुमूल्य मनुष्य के जीवन में कुछ भी नहीं है। लेकिन व्यवहारिक रूप में देखें तो यह कुछ वैसा ही है जैसे हर छोटे-बड़े शैक्षणिक या सांस्कृतिक अवसर पर सरस्वती की प्रतिमा पर माल्यार्पण किया जाए और उसके बाद कुछ बच्चे मंच पर आकर 'या कुंदेंदु तुषार हार धवला' अथवा 'वर दे वीणावादिनी' का गायन कर दें। ऐसी औपचारिकता से आगे बढ़कर इस बात को कोई नहीं समझाता कि शिक्षा यदि बहुमूल्य है तो क्यों है? आखिरकार शिक्षित होकर हम क्या हासिल करना चाहते हैं।

दरअसल, इस प्रश्न का उत्तर हमें उन शाला परिसरों में नहीं मिलता जो कि जनतांत्रिक देश की कल्याणकारी व्यवस्था के अंतर्गत राय के द्वारा स्थापित किए गए हैं। इन शालाओं में जानबूझ कर अपर्याप्त साधनों के द्वारा जो शिक्षा दी जाती है उसका उद्देश्य आज्ञाकारी सेवकों का एक ऐसा वर्ग तैयार करना है, जिसकी जरूरत सत्ता-सम्पन्न, साधन-सम्पन्न व अधिकार-सम्पन्न वर्ग को पड़ती है। इस वर्ग के बच्चों को शिक्षा देने के लिए एक समानांतर व्यवस्था प्रारंभ से चल रही है जिसे बोलचाल की भाषा में पब्लिक स्कूल कहा जाता है। रायपुर का राजकुमार कॉलेज, अजमेर का मेयो स्कूल, देहरादून का दून स्कूल और हाल के बरसों में धीरूभाई अंबानी इंटरनेशनल स्कूल तथा ऐसी अनेक संस्थाएं इस प्रणाली के अंतर्गत आती हैं। इन्हें पब्लिक स्कूल क्यों कहा जाता है यह भी एक षडयंत्र ही है क्योंकि आम जनता याने कि पब्लिक से इनका कोई लेना देना नहीं है। ये तो सम्पन्न लोगों द्वारा सम्पन्न पाल्यों के लिए स्थापित संस्थाएं हैं। हमारे देश में शिक्षा को लेकर जो द्वैतभाव है यह उसका वलंत उदाहरण है।

अपने सार्वजनिक विमर्श में इस द्वैत को अन्यत्र भी देखा जा सकता है। एक ओर तो शिक्षा में गुणवत्ता, गुणात्मक सुधार, जीवनोपयोगी शिक्षा जैसे नारे प्रयोग किए जाते हैं; वहीं दूसरी ओर शिक्षा से जुड़ी तमाम नीतियों और कार्यक्रम में पूरा जोर रोजगारोन्मुखी शिक्षा पर दिया जाता है। आज स्कूल हो या कॉलेज या फिर विश्वविद्यालय ही क्यों न हो, इनका मूल्यांकन इस आधार पर होता है कि यहां से उत्तीर्ण होने वाले विद्यार्थियों को किस बड़ी कंपनी में नौकरी मिलती है और उन्हें कितना पैकेज ऑफर किया जाता है। इसका परिणाम है कि तमाम शिक्षण संस्थाओं में भाषा, इतिहास, राजनीतिशास्त्र, भूगोल, गणित आदि पर दुर्लक्ष्य कर कम्प्यूटर शिक्षा, व्यापार प्रबंधन अथवा वाणिय जैसे विषयों पर जोर दिया जाने लगा है। देश में जो अनेक राष्ट्रीय विधि विश्वविद्यालय खुल गए हैं उनसे उत्तीर्ण होने वाले बच्चे भी जनहित वकील या न्यायाधीश नहीं, बल्कि किसी कार्पोरेट दफ्तर में मोटा पैकेज पाने वाले मुलाजिम बनना चाहते हैं। ऐसी शिक्षा मिल सके इस हेतु मां-बाप अपने बच्चों पर अपनी हैसियत से बाहर जाकर खर्च कर रहे हैं। खुद के पास साधन नहीं है तो बैंकों से इस तरह की पढ़ाई के लिए आसानी से कर्ज मिलने की व्यवस्था हो गई है। एक बार मछली जाल में फंस गई तो फिर कहां जाएगी? 'कैच दैम यंग' का जुमला यहीं पूरी तरह से आकर चरितार्थ हो जाता है।

 वर्तमान समय में जो पारंपरिक शिक्षा है उसका कोई मूल्य नहीं है। भारतीय मुद्रा की तरह उसका अवमूल्यन हो चुका है। जो शिक्षा एक बेहतर इंसान बनाती हो आज उसकी जरूरत नहीं है। 'सफलता' इस दौर का मूल मंत्र है फिर भले ही इसे हासिल करने के लिए कितनी भी बड़ी कीमत क्यों न चुकानी पड़े। यह ''मोल ली शिक्षा'' है याने इसे हम खरीद रहे हैं और जो हमें सिर्फ जिस मृग- मरीचिका की ओर ले जाती है। यह सिर्फ संयोग नहीं है कि विदेशों में जा बसे या देश में ही देशी विदेशी कारपोरेट घरानों में ऊंची-ऊंची तनख्वाह पाने वालों को भी अब ''कारपोरेट कुली'' की संज्ञा दी जाने लगी है और जिनका काम ''बॉडी शापिंग'' करना रह गया है। 
 
अक्षर पर्व जनवरी 2014 की प्रस्तावना