Wednesday 29 July 2015

'स्मार्ट सिटी' का सपना




इन दिनों केंद्र सरकार द्वारा प्रवर्तित ''स्मार्ट सिटी" योजना काफी चर्चा में है। कोई ऐसा राज्य नहीं जो इस योजना का लाभ न उठाना चाहता हो और कोई ऐसा बड़ा शहर नहीं जो इस दौड़ में शामिल न हो। इसके लिए राज्य सरकारों के शहरी विकास विभाग व नगर निगम अपना दावा पुख्ता करने के लिए आकाश-पाताल एक किए दे रहे हैं। लेकिन यह योजना आखिरकार है क्या? सरकार की ओर से जो सूचनाएं प्रसारित हुई हैं उनके अनुसार देश में एक सौ स्मार्ट सिटी स्थापित की जाएंगी तथा इसके अलावा हर बड़े शहर के आसपास सैटेलाइट टाउनशिप या उपनगर का निर्माण किया जाएगा। देश के उनतीस राज्यों में से हरेक को न्यूनतम दो स्मार्ट सिटी मिलेंगी व इनके अतिरिक्त मुंबई-दिल्ली औद्योगिक कॉरीडोर इत्यादि में इनका निर्माण किया जाएगा। सरकार का मानना है कि देश के तेजी से हो रहे शहरीकरण को व्यवस्थित करने में यह योजना कारगर होगी तथा इससे बड़े पैमाने पर रोजगार के अवसर भी सृजित होंगे। भारत सरकार ने इस योजना को स्वीकार करने में विश्व के कुछेक देशों में इसी नाम से लागू योजनाओं का अनुकरण किया है, जिनमें इंग्लैंड, इजराइल व जर्मनी आदि शामिल हैं। इन सभी में योजना के लाभ तो अनेक गिनाए गए हैं, लेकिन मुझे जो बिंदु सर्वोपरि प्रतीत होता है वह यह कि इन नए नगरों के संचालन में सूचना प्रौद्योगिकी का अधिकतम इस्तेमाल किया जाएगा।

यह मानी हुई बात है कि सभ्यता के विकास के साथ नए नगरों की स्थापना होती है और उनमें विद्यमान प्रौद्योगिकी का उपयोग किया ही जाता है। हम चाहे सिंधु घाटी सभ्यता के हड़प्पा व मोहनजोदड़ो जैसे नगरों की बात करें, चाहे उज्जैन या उज्जयिनी से उत्खनन में प्राप्त प्राचीन बसाहट की, या फिर आधुनिक समय में तीन सौ वर्ष पूर्व बसाए गए जयपुर अथवा स्वतंत्रता के बाद स्थापित चंडीगढ़, भुवनेश्वर, गांधीनगर की, इन सबमें जो भी आधुनिकतम तकनीकी प्रचलित थी, नगर निर्माण में उनका उपयोग किया गया। इसलिए इक्कीसवीं सदी के पूर्वाद्र्ध में स्थापित, विकसित की जाने वाली स्मार्ट सिटी में अद्यतन कला-कौशल का उपयोग होना स्वाभाविक माना जाएगा। यहां प्रश्न यह उठता है कि देशव्यापी योजना को अंगीकृत करने के पूर्व इस हेतु किस स्तर पर विचार-विमर्श किया जाना चाहिए था? क्या यह कार्य पूरी तरह से नीति आयोग तथा शहरी विकास मंत्रालय आदि में बैठे विशेषज्ञों व अधिकारियों पर छोड़ देना चाहिए या इस पर पूरी पारदर्शिता के साथ नागरिक समुदायों के साथ चर्चा की जाना चाहिए थी? अपनी ओर से सरकार ने कुछ अंग्रेजी अखबारों में तथा वेबसाइट पर जनता के सुझाव आमंत्रित अवश्य किए हैं, लेकिन क्या यह बेमन से उठाया गया आधा-अधूरा कदम नहीं है? जब तक जनता के पास अपनी भाषा में इस विषय की पर्याप्त जानकारी एवं उस पर बहस करने के लिए पर्याप्त समय नहीं होगा, तब तक एक आम आदमी कोई राय दे भी तो क्या दे?

मैं देख रहा हूं कि इधर कुछ दिनों से छत्तीसगढ़ व मध्यप्रदेश के कुछ बड़े शहरों में अपने नगर को स्मार्ट सिटी का दर्जा दिलाने के लिए प्रशासनिक तंत्र के भीतर चर्चाएं चल रही हैं। तब क्या एक सामान्य नागरिक को यह सवाल पूछने का हक नहीं है कि अपने नगर के विकास के लिए आप एक नई अवधारणा लेकर आ रहे हैं तो इसमें उसकी सुनवाई कहां है? इस सिलसिले में यह बात भी अटपटी लगती है कि स्मार्ट सिटी के नाम पर बिल्कुल नए नगर बसाएं जाएंगे तो मौजूदा शहरों के मालिक (!) उस पर इतनी माथापच्ची क्यों कर रहे हैं! अगर इस योजना के अन्तर्गत उपनगर बसेंगे तो वे भी तो वर्तमान नगर प्रशासन के बाहर ही रहेंगे। इससे तो यही प्रतीत होता है कि हमारे निर्वाचित प्रतिनिधियों को समय बिताने के लिए एक नया खिलौना मिल गया है। इसका दूसरा पक्ष यह भी है कि अगर इनकी मेहनत वाकई रंग लाती है और मौजूदा शहर को स्मार्ट सिटी का दर्जा मिल जाता है तो क्या फिर वे वाकई स्मार्ट सिटी कहलाने के अधिकारी होंगे?

इस लेख में अब तक मैंने शायद आधा दर्जन बार 'स्मार्ट सिटी' संज्ञा का प्रयोग किया है। मैं जानना चाहता हूं कि हिंदी या अन्य भारतीय भाषाओं में इसकी समानार्थी संज्ञा क्या होगी? ट्विटर पर एक सज्जन ने मेरे प्रश्न के उत्तर में चतुरनगरी संज्ञा प्रस्तावित की। फिर मुझे कुछ और शब्द सूझे यथा-कुशलपुरी, कुशाग्रपुरी, चपलनगरी, दक्षनगरी आदि। फिर भी स्मार्ट का ठीक-ठीक भाव शायद इनमें से किसी में नहीं आ पाता। क्या इसकी वजह यह है कि स्मार्ट संज्ञा हमारे लिए पराई या विदेशी है? पारंपरिक रूप से धोती-कुर्ता या कुर्ता-पाजामा पहनने वालों के सामने सूट-बूट वाले लोग ही स्मार्ट कहलाते हैं। याद कीजिए सगीना महतो में दिलीपकुमार पर फिल्माया गया गीत- साला मैं तो साहब बन गया, ये सूट मेरा देखो, ये बूट मेरा देखो, जैसे गोरा कोई लंदन का; और मान लीजिए कि स्मार्ट सिटी का समानार्थी ढूंढने की आवश्यकता नहीं है। लेकिन फिर एक दूसरा दुष्ट विचार मन में उठता है कि क्या स्मार्ट सिटी में रहने वाले लोग अंग्रेजी ही बोलेंगे, लिखेंगे, उसी में सोएंगे और उसी में जागेंगे? तब फिर सरकार की उस घोषणा का क्या होगा कि बढ़ते हुए शहरीकरण को सुचारु रूप देने के लिए इनका निर्माण किया जाएगा?

एक आधुनिक नगर, कुछ-कुछ अपने समय के इंद्रप्रस्थ जैसा, जिसमें सड़कें चकाचक होंगी और इमारतें भव्य, जहां स्मार्टफोन या अन्य उपकरणों की क्लिक के साथ आदेश दिए जा सकेंगे, जहां सब कुछ करीने से होगा, उस बस्ती में क्या गांव से शहर का रुख करने वाले मुसीबतज़दा भूमिपुत्र के लिए कोई जगह होगी? किसान का बेटा शहर आकर मजदूर बनता है, लेकिन यदि इस मायानगरी में मजदूर का काम यंत्रमानव (रोबो) करेगा तो ये जमीन से उखड़े लोग फिर कहां जाएंगे? लेकिन इतना निराश क्यों हुआ जाए? शायद हो कि यहां भी इनकी सेवाओं की आवश्यकता आन पड़े! लेकिन ये कहां रहेंगे? इनके बच्चे कहां पढ़ेंगे? इनका इलाज़ कहां होगा? क्या ये किसी पुराने शहर के सीमांत पर बसे स्मार्ट जे.जे. क्लस्टर (झुग्गी-झोपड़ी बस्ती) में रहेंगे, जहां से कोई स्मार्ट बस इन्हें अपनी ड्यूटी पर लाएगी और स्कूल-अस्पताल आदि के लिए इन्हें पुराने शहर का रुख करना होगा? या फिर स्मार्ट सिटी में इस तरह का भेदभाव नहीं होगा? जैसे लंदन, न्यूयॉर्क, बर्लिन में अमीर-गरीब, साहब-चपरासी उसी मैट्रो में सफर करते हैं, अक्सर उसी कैंटीन में एक लाइन में खड़े होकर अपनी प्लेट उठाते हैं, क्या भारत की स्मार्ट सिटी में इस समदर्शी व्यवहार का परिचय मिलेगा?

स्मार्ट सिटी की चर्चा करते हुए एक भय भी मन में उपजता है। अनेक वर्ष पूर्व इरविंग वालेस का उपन्यास आया था- द आर डाक्यूमेंट। इसमें बताया गया था कि एक औद्योगिक नगरी में किस तरह हर रहवासी पर कड़ी नज़र  रखी जाती थी। इसके बाद बांग्ला के लोकप्रिय लेखक शंकर का उपन्यास- 'सीमाबद्ध' पढऩे मिला। इसमें जिक्र था कि कंपनी के बड़े साहब ने एक अधिकारी को बुलाकर आदेश दिया कि तुम्हारे बूढ़े माँ-बाप को आए तीन दिन हो गए, तुम्हारा ध्यान उनकी तरफ लगा रहेगा तो यहां काम कौन करेगा, उन्हें वापिस भेज दो और इलाज़ के लिए पैसा भेज दिया करो। क्या हमारी 'स्मार्ट सिटी' में भी कुछ ऐसा ही वातावरण बनेगा? यह डर इसलिए बढ़ जाता है कि स्मार्ट सिटी के साथ-साथ अब देश में प्राइवेट सिटी याने निजी नगरों की अवधारणा भी प्रचलित होने जा रही है। महाराष्ट्र के लवासा को भारत की पहिली प्राइवेट सिटी निरूपित करते हुए उम्मीद की जा रही है कि शीघ्र ही ऐसे कोई तीस निजी नगर खड़े हो जाएंगे। इनके अलावा औद्योगिक नगरों का भी बखान हो रहा है। मुझे एक औद्योगिक नगर के बारे में पता है कि वहां कोई चालीस साल तक महात्मा गांधी की प्रतिमा स्थापित नहीं होने दी गई थी। अगर स्मार्ट सिटी, प्राइवेट सिटी, इंडस्ट्रियल सिटी- सब का रवैय्या यही रहा तो भारत के मजदूर वर्ग को व्यक्तिगत स्वतंत्रता, जनतांत्रिक अधिकार, मानवीय गरिमा आदि के बारे में भूल जाना पड़ेगा। हम उम्मीद करते हैं कि इस पर खुली बहस होगी।

मैं अपनी बात का समापन बीती रात देखे सपने के उल्लेख से करना चाहता हूं। मैंने देखा कि मेरा नगर याने रायपुर स्मार्ट सिटी बन गया है। जनता मुदित है। सारी सड़कें फोरलेन हो गई हैं। बरसात का पानी सड़कों पर जमा नहीं हो रहा है। सारे तालाब पाट दिए गए हैं क्योंकि हर घर में रेनवाटर हार्वेस्टिंग हो रही है। हर घर में फ्री वाई-फाई पहुंच गया है। सारे स्कूल-कॉलेज बंद कर दिए गए हैं- बच्चे घर से ही ई-क्लास रूम में उपस्थिति दे रहे हैं। सारे बागीचों में प्लास्टिक केपेड़ रोप दिए गए हैं, ताकि नागरिक पेड़-पौधों से होने वाली एलर्जी से बच सकें। राजधानी के तमाम नेता सांस्कृतिक -सामाजिक कार्यक्रमों में बिल्कुल घड़ी का कांटा देखकर पहुंच रहे हैं लेकिन आयोजक क्षमायाचना कर रहे हैं कि एक भी दर्शक-श्रोता नहीं आया, सब अपने घर में बिग स्क्रीन पर कार्यक्रम देखने के लिए बैठे हुए हैं। कोई बाहर नहीं निकलना चाहता, सिवाय फास्ट फुड की डिलीवरी करने वाले बाइक-सवारों के अलावा। कहिए, क्या ख्याल है?


देशबन्धु में 30 जुलाई 2015 को प्रकाशित

Wednesday 22 July 2015

व्यापम : कड़वे सच की परतें


 मध्यप्रदेश के व्यवसायिक परीक्षा मंडल या कि व्यापम महाघोटाले की जांच सीबीआई के सुपुर्द  कर दिए जाने के बाद बहुत लोगों ने चैन की सांस ली होगी। जिन राज्यपाल रामनरेश यादव के अब-तब में इस्तीफा देने या पदमुक्त किए जाने की चर्चाएं चल रही थीं उनके बारे में कहा जा रहा है वे शायद जांच पूरी होने या अपना कार्यकाल समाप्त होने तक अपनी जगह पर बने रहेंगे। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने तो स्पष्ट कहा है कि उनके सिर से भारी बोझ उतर गया है। प्रमुख विपक्षी दल कांग्रेस को शायद इस बात की खुशी हो कि उनके दबाव बनाने के कारण ही मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा और जांच का काम राज्य सरकार की एजेंसी से लेकर केंद्रीय एजेंसी को दे दिया गया। इस अभूतपूर्व षड़ंयत्र का पर्दाफाश जाने-अनजाने में जिन्होंने किया, वे भी अपनी सुरक्षा के प्रति अब आश्वस्त होंगे! आम जनता को भी संभवत: लग रहा हो कि अब न्याय होकर रहेगा। दूसरी ओर ऐसा सोचने वालों की भी कमी नहीं कि सीबीआई तो पिंजरे में कैद तोता है और जैसा केंद्र सरकार चाहेगी, उसकी जांच उसी दिशा में जाएगी। इस सिलसिले में भाई लोग याद भी दिलाते हैं कि एक समय शिवराज सिंह चौहान प्रधानमंत्री पद के दावेदार थे, इसलिए उन्हें नरेंद्र मोदी सरकार से किसी सहानुभूति की अपेक्षा नहीं रखना चाहिए। कुछेक जन इसके आगे बढ़कर टीका करते हैं कि सुषमा, वसुंधरा, शिवराज सबके सब मोदी-विरोधी हैं। फिलहाल, हमें इतनी दूर जाने की आवश्यकता नहीं है।

व्यापम में पिछले एक दशक में या शायद उसके भी पहिले जो कुछ हुआ है, उसकी अनेक परतें हमारे सामने खुलती हैं। शिवराज सरकार से पहिले की चर्चा करें तो ध्यान आता है कि व्यापम में धांधली की शिकायतें आज से बीस साल पूर्व भी सुनने मिलती थीं। अलबत्ता उनका स्वरूप इतना विकराल नहीं था। धनी-धोरी लोग अपने पाल्यों को डॉक्टर, इंजीनियर बनाने के लिए परीक्षकों को अथवा अन्य अधिकारियों को घूस देकर अंकसूची में हेरफेर करवाते हैं, ऐसी चर्चाएं तब होती थीं। लेकिन इनमें राजनेताओं के नाम कभी नहीं लिए गए। कुल मिलाकर जैसे बारहवीं बोर्ड या बी.ए./एम.ए. में नंबर बढ़वाने की जो प्रथा प्रचलित थी, वही व्यापम में भी लागू हो गई थी। सुनते हैं कि अपनी संतान को मेडिकल कॉलेज में दाखिले की व्यवस्था करने के लिए पालक उस समय तीन-चार लाख रुपए तक की रिश्वत दे देते थे। ऐसे कुछ प्रकरण पकड़े भी गए थे। उन पर क्या कार्रवाई हुई, यह पता नहीं चला। किंतु यदि तत्कालीन सरकारों ने इस ओर पर्याप्त ध्यान दिया होता तो उसी समय बेहतर विकल्पों पर विचार किया जा सकता था।

बहरहाल, शिवराज सरकार के दौरान जो भयावह स्थिति बनी है, उसमें तीन पक्ष साफ देखे जा सकते हैं। पहिला पक्ष तो राजनेताओं व अफसरों का है जिन्होंने इस महाघोटाले का लाभ दो तरह से उठाया। एक तो अपने चहेतों को उपकृत करके और दूसरे करोड़ों-अरबों के लेन-देन में अपना हिस्सा लेकर। ध्यातव्य है कि जो व्यापम पूर्व में सिर्फ व्यवसायिक पाठ्यक्रमों की परीक्षाएं संचालित करता था, कालांतर में वह राज्य सरकार के कतिपय निम्न श्रेणी पदों पर भरती करने का अभिकरण भी बन गया था। याने सरकारी नौकरी लगाने के लिए जो घूस ली जाती है, वह व्यापम के माध्यम से होने लगी। क्या शासक दल का कोई भी जिम्मेदार व्यक्ति इस प्रक्रिया में बेदाग बच गया होगा? पाठक अपनी बुद्धि से  निर्णय ले सकते हैं। दूसरा पक्ष उन व्यक्तियों का है जिन्होंने या तो नौकरी पाने के लिए या मेडिकल आदि में दाखिले के लिए रिश्वत दी। छोटी नौकरियों के लिए चढ़ावे की रकम भी छोटी ही रही होगी। फिर भी न जाने कितने परिवारों ने अपनी जेवर-ज़मीन-घर बेचकर अथवा रेहन रखकर इसकी व्यवस्था की होगी,  इसकी कल्पना ही की जा सकती है। जब मध्यप्रदेश-छत्तीसगढ़ में तबादला करने-रुकवाने के लिए पचास-पचास हजार रुपए की बोली होती हो तो नौकरी लगने के लिए दो लाख रुपया तो सामान्य बात होगी!

इसमें सबसे अधिक लेन-देन मेडिकल कॉलेज में दाखिले के लिए हुआ होगा। अगर इस हेतु प्रति छात्र पंद्रह लाख रुपया भी लिया गया हो तो आश्चर्य नहीं करना चाहिए। सब जानते हैं कि कर्नाटक में जब निजी मेडिकल कॉलेजों में कैपिटेशन फीस देकर प्रवेश की परंपरा प्रारंभ हुई तो उसके लिए तीस लाख रुपए तक देना होते थे। बाद में महाराष्ट्र आदि प्रदेशों ने भी इस परंपरा को प्रसन्न भाव से ग्रहण कर लिया। अब सुनते हैं कि स्नातकोत्तर याने पी.जी. पाठ्यक्रमों के लिए तो एक करोड़ से भी अधिक की मांग की जाती है। इस दूसरे पक्ष में दो तरह के पात्र सामने आए-पहिले- पालक/अभिभावक और दूसरे-उनके पाल्य। माँ-बाप को लगता है कि बेटा-बेटी डॉक्टर बन जाएंगे तो उसका जीवन बन जाएगा। आज जैसा सामाजिक परिवेश है उसमें बच्चों को भी लगता है कि सफल जीवन का मंत्र बेतहाशा धनार्जन करना ही है। जिन व्यवसायों में आर्थिक सुरक्षा व प्रगति की संभावनाएं हैं, उनमें इस दौर में डॉक्टरी पेशा मानो सोने के अंडे देने वाली मुर्गी है। अभियांत्रिकी, वकालत आदि में भी ऐसी अपार गुंजाइश नहीं है, गो कि बहुत से विद्यार्थी उस दिशा में जाते ही हैं।

तीसरा पक्ष उन गिरोहों व व्यक्तियों का है जो सामने न आकर परदे के पीछे से सारी कूटरचना करते हैं। व्यापम जैसी परीक्षाओं में ये परचे आउट करवाते हैं, नंबर बढ़वाते हैं, कोरी उत्तर-पुस्तिकाएं भरवाते हैं, छद्म विद्यार्थियों से परीक्षा दिलवाते हैं और इसके लिए मेहनताना वसूल करते हैं? पालक/विद्यार्थी, व्यापम, राजनेता के बीच की कड़ी ये ही होते हैं। इनके लिए माफिया संज्ञा बिल्कुल फिट बैठती है। जब इन्हें अपने ऊपर आँच आने का अंदेशा हो तब ये माफिया शैली में डराने-धमकाने से लेकर हत्या करने तक से नहीं हिचकते। व्यापम में जो संदिग्ध मौतें सड़क दुर्घटनाओंं आदि में हुई हैं, उनके पीछे इनका ही हाथ होगा। यह एक तरह से लोगों को अपनी जुबान बंद रखने की चेतावनी थी। इसीलिए बाद में कुछ लोग दहशत में ही मर गए होंगे तो कोई आश्चर्य की बात नहीं होगी। कहना न होगा कि ये माफिया गिरोह राजनैतिक संरक्षण में ही फलते-फूलते हैं। मेरा अनुमान है कि ये गिरोह मध्यप्रदेश में ही नहीं, अनेक अन्य प्रदेशों में भी सक्रिय हैं तथा इन्हें सदैव व्यापम जैसी संभावनाओं की तलाश रहती है। छत्तीसगढ़ में भी पीएमटी परचे फूटने के जो केस सामने आए हैं, उसमें भी यही लोग लिप्त रहे होंगे। सीबीआई की जांच जैसे-जैसे आगे बढ़ेगी, नए-नए खुलासे होंगे, तभी हम वस्तुस्थिति जान सकेंगे।

मध्यप्रदेश का व्यापम हो या डीमैट महाघोटाला या फिर छत्तीसगढ़ का पीएमटी पर्चा फूट कांड, इनके एक अत्यन्त गंभीर एवं शोचनीय पक्ष पर अभी तक पर्याप्त ध्यान नहीं दिया गया है। व्यापम के बारे में जैसा कि हमें पता है, लगभग दो हजार व्यक्तियों पर फौजदारी प्रकरण दर्ज किए गए हैं। लगभग इतने लोगों की गिरफ्तारी हुई, उनमें से अनेक जेल में हैं,  अनेक जमानत पर। इनमें बड़ी संख्या उन युवजनों की है, जिनकी आयु व्यापम परीक्षा में बैठते वक्त अठारह या उन्नीस साल रही होगी। छत्तीसगढ़ में भी इसी तरह सैकड़ों नौजवानों को गिरफ्तार किया गया। इन्होंने अपराध तो निश्चित रूप से किया है, इसलिए इन्हें दंड भी मिलना चाहिए, किंतु क्या बात यहीं खत्म कर देना ठीक होगा? क्या हमें उन सामाजिक स्थितियों का विश्लेषण नहीं करना चाहिए, जिनके चलते ये युवजन एक स्वर्णमृग के पीछे भागने लगते हैं? इन्हें गिरफ्तार कर, जेल भेजकर, साल-दो साल की कारावास देकर हम इनके भविष्य के बारे में क्या सोचते हैं? इतना सब कुछ हो जाने के बाद भी क्या पीईटी और पीएमटी जैसी परीक्षाएं जारी रहना चाहिए? क्या केंद्रीकृत परीक्षा होने से यह बुराई समाप्त हो जाएगी? मेडिकल की बात खास तौर पर करें तो सरकार बड़े पैमाने पर आवश्यकतानुसार मेडिकल कॉलेज शुरु क्यों नहीं करती? डॉक्टरी पेशा एक लालची पेशे में इस तरह तब्दील क्यों हो गया? ऐसे और भी बहुत से सवाल जेहन में उठते हैं, किंतु मुझे यह सोचकर बेहद तकलीफ होती है कि 18-20 साल के नौजवान इस व्यवस्था में किस तरह पथभ्रष्ट हो रहे हैं, उन्हें अपराध के रास्ते पर ढकेला जा रहा है, इसमें उनके अपने सगे प्रेरणा दे रहे हैं और इस बुनियादी मुद्दे पर कहीं कोई बात नहीं होती।
देशबन्धु में 23 जुलाई 2015 को प्रकाशित

Wednesday 15 July 2015

सिद्धांत बनाम पद



भारत की राजनीति पर कुछ इसी अंदाज में कोहरा छाया हुआ है जैसे शीतकाल में देश की राजधानी पर कई-कई दिनों तक छाया रहता है। जब हाथ को हाथ नहीं सूझता, रेलें पटरियों पर थम जाती हैं, हवाई जहाज उड़ान नहीं भर पाते और सड़कों पर चलना दुश्वार होने के अलावा वह जानलेवा भी हो सकता है। यह कुछ अनहोनी सा घटित हो रहा है। एक साल ही तो बीता है, जब देश के मतदाताओं का एक बड़ा वर्ग एक नई सुबह के विश्वास में प्रमत्त हुआ जा रहा था। उसने तो सोचा था कि उनका बालारुण शीघ्र ही मध्यान्ह के मार्तंड में कायांतरण कर अपनी प्रचंड किरणों से भ्रष्टाचार, निकम्मापन, बेईमानी आदि बुराईयों को भस्मीभूत कर देगा। तब उसे क्या रंचमात्र भी आशंका थी कि वह नई सुबह का सूरज उनकी अपेक्षाओं को झुठलाते हुए इतने जल्दी मौन के बादलों के पीछे जाकर शरण ले लेगा और बस, कुछ फुलझडिय़ां बीच-बीच में टीवी के परदे पर आकर महानायक के पुनरावतरण के अविश्वसनीय आश्वासन देती रहेंगी। कितनी अच्छी-अच्छी बातें सुनने मिलती थीं- संवेदनशीलता, पारदर्शिता, सुशासन आदि के बारे में। उन वायदों पर ऐतबार करना तो दूर, अब उनके बारे में सोचना भी निरर्थक प्रतीत होता है।

यह एक विडंबना ही मानी जाएगी कि इन दिनों जब चालीस साल पहिले लगे आपातकाल का स्मरण अपने-अपने ढंग से किया जा रहा है, तब देश में इस समय अघोषित आपातकाल लागू होने की बात भी चर्चाओं में उभरने लगी है। मैं मानता हूं कि 12 जून 1975 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय का फैसला आने के बाद यदि श्रीमती इंदिरा गांधी ने इस्तीफा दे दिया होता तो मात्र दो सप्ताह बाद उन्हें आपातकाल लगाने जैसा अतिरेकी कदम उठाने की आवश्यकता न पड़ती। अदालत का फैसला सही था या गलत, देश की आंतरिक स्थिति उस समय कैसी थी, इत्यादि प्रश्न हैं जिन पर अलग से चर्चा की जा सकती है, किंतु यह तय है कि इंदिराजी ने तत्काल इस्तीफा न देकर नैतिक दुर्बलता का परिचय दिया था, जिससे उनकी प्रतिष्ठा का ह्रास हुआ। वे अपने किसी विश्वस्त सहयोगी को प्रधानमंत्री की कुर्सी सौंप देतीं तो कुछ समय बाद सर्वोच्च न्यायालय से निर्दोष सिद्ध होने पर वापिस पदासीन हो सकती थीं। यही गलती राजीव गांधी ने दोहराई, जब बोफोर्स की आंच उन तक पहुंचने के बाद वे त्यागपत्र देने का नैतिक साहस नहीं जुटा पाए। इसके तुरंत बाद हरियाणा विधानसभा आदि में पराजय के बावजूद वे अपने पद पर बने रहे, जिसकी दु:खद परिणति 1989 की पराजय में हुई। अगर वे 1987 में मध्यावधि चुनाव में चले जाते तो अपनी खोई प्रतिष्ठा को वापिस पा सकते थे।

हमें ध्यान रखना चाहिए कि देश ही नहीं, दुनिया के तमाम जनतांत्रिक देशों में जनता अपने चुने हुए नेताओं से कतिपय नैतिक मूल्यों एवं आदर्शों के पालन की उम्मीद रखती है। इंग्लैंड-अमेरिका जैसे देशों में, जिनके बारे में हमारी सामान्य धारणा है कि वहां स्त्री-पुरुष संबंधों में बहुत खुलापन है, वहां भी राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री के एकपत्नीव्रती होने की अपेक्षा की जाती है। इंग्लैंड में जॉन प्रोफ्यूमो-क्रिस्टीन कीलर कांड से लेकर अमेरिका में बिल क्लिंटन-मोनिका लेविंस्की प्रकरण तक ऐसे अनेक उदाहरण पश्चिमी देशों में हैं। इसी तरह नेताओं की वित्तीय गड़बडिय़ों, रिश्वतखोरी, माफिया-मैत्री आदि का जब भी खुलासा होता है, जापान से लेकर अमेरिका तक नेताओं से उम्मीद की जाती है कि वे तत्काल अपने पद से इस्तीफा दें और वैसा ही होता है। यह एक स्वस्थ परिपाटी है और इसका सबसे बड़ा लाभ यह है कि पार्टी दागदार होने से बच जाती है। राजनेता पर से भी जनता का ध्यान हट जाता है। वरना आज के समय में चौबीस घंटे चलने वाले चैनलों पर अपनी थुक्का-फजीहत करवाने में कौन सी बड़ाई है?

जहां तक अपने देश का सवाल है, हमने अपने जनतंत्र के शैशवकाल से ही एक चमकदार मानक राजनेताओं के लिए बना रखा है। जो उस कसौटी पर खरा उतरे, वही सोना, बाकी पत्थर तो सब तरफ बिखरे मिलते हैं। आप जान रहे हैं कि मैं सन् 1954 में आपको ले जा रहा हूं, जब तत्कालीन रेलमंत्री लालबहादुर शास्त्री ने एक रेल दुर्घटना होने पर नैतिक दायित्व लेते हुए अपना पद छोड़ दिया था। ऐसा उन्होंने स्वयं किया, प्रधानमंत्री को विश्वास में लेकर किया या प्रधानमंत्री की सलाह से किया, यह महत्वपूर्ण नहीं है, लेकिन यह स्वयंसिद्ध है कि भारतीय लोकतंत्र में अपनी तरह के इस पहिले दृष्टांत के चलते लालबहादुर शास्त्री की जो निर्मल-उज्जवल छवि निर्मित हुई, वह आज तक कायम है। यदि पं. नेहरू के जीवनकाल में ही उनके उत्तराधिकारी के रूप में शास्त्रीजी का नाम अव्वल लिया जाता था तो उसके पीछे उनकी यही अप्रतिम छवि थी। प्रधानमंत्री बनने के बाद एवं 1965 युद्ध के समय जब उन्होंने देशवासियों से सप्ताह में एक समय उपवास रख अन्न बचाने की अपील की तो करोड़ों लोगों ने उसे एक तरह से आदेश मानकर तत्काल स्वीकार कर लिया। मैं ऐसे मित्रों को जानता हूं जो आज भी सोमवार की शाम शास्त्रीजी को श्रृद्धांजलि के रूप में उपवास रखते हैं। क्या आज ऐसे दृष्टांत की कोई प्रासंगिकता या उपयोगिता है?

पं. नेहरू के प्रधानमंत्री काल में शास्त्रीजी का उदाहरण बेमिसाल है किंतु उस अवधि में पंडितजी के कतिपय अन्य सहयोगियों ने भी अपनी छवि पर आंच आने पर इस्तीफे दे दिए थे। टी.टी. कृष्णमाचारी ने हरिदास मूंधड़ा कांड में व केशवदेव मालवीय ने सिराजुद्दीन कांड में नाम आने पर मंत्रीपद छोड़ दिया था। इन प्रकरणों में उनकी कोई सीधी संलिप्तता सिद्ध नहीं हुई, याने इनके त्यागपत्र भी नैतिक आधार पर ही लिए गए थे। काफी आगे चलकर शास्त्रीजी का अनुकरण करते हुए माधवराव सिंधिया ने दुर्घटना का दायित्व लेते हुए मंत्रीपद से तत्काल इस्तीफा दे दिया था। कांग्रेस पार्टी में एक और उदाहरण ध्यान आता है, जब लाभ का पद मामले में सोनिया गांधी ने राष्ट्रीय सलाहकार परिषद (एएनसी) व लोकसभा से इस्तीफा दिया तथा उपचुनाव में विजयी होकर दुबारा सदन में लौटीं। दुर्भाग्य से इस परिपाटी का पालन यूपीए सरकार द्वारा नियुक्त राज्यपालों ने नहीं किया। दो-तीन अपवाद छोड़कर बाकी सब रास्ता देखते रहे कि जब मोदी सरकार निकालेगी, तभी घर जाएंगे। लेकिन इस दल में भी ऐेसे दो राज्यपाल निकल आए जो जितने यूपीए को प्यारे थे, उतने ही बीजेपी को भी। इनके नाम सब जानते हैं- नजीब जंग तथा रामनरेश यादव। यादवजी तो कमाल के आदमी हैं। वे शायद राजनेताओं की वर्तमान पीढ़ी के लिए अनुकरणीय आदर्श हो सकते हैं।

चूंकि आपातकाल का जिक्र आ गया है तो यह उल्लेख अवश्य किया जाना चाहिए कि 1976 में जब इंदिराजी ने लोकसभा का कार्यकाल एक साल बढ़ाया तब उसे अनैतिक एवं असंवैधानिक करार देते हुए दो संसद सदस्यों ने बिना समय गंवाए लोकसभा की सदस्यता त्याग दी थी। एक थे- मधु लिमए और दूसरे शरद यादव। मधुजी दुर्भाग्य से हमारे बीच नहीं हैं, किंतु शरद यादव वर्तमान में वरिष्ठतम सांसदों में से एक हैं। वे देश में संयुक्त विपक्ष के उम्मीदवार के नाते 1975 में जबलपुर से चुने गए थे। उन्होंने पचास साल सांसद रहे सेठ गोविंददास की मृत्यु के बाद संपन्न उपचुनाव में उनके पौत्र रविमोहन को पराजित किया था। एक युवानेता के रूप में शरद के मन में लालच हो सकता था कि एक साल का बढ़ा हुआ कार्यकाल सेंत-मेंत में मिल रहा है, इसे क्यों छोड़ा जाए, किंतु उन्होंने संसदीय व्यवहार व परंपरा को निजी लाभ से ऊपर रखकर एक आदर्श प्रस्तुत किया। आगे शरद यादव वाजपेयी सरकार में नागरिक उड्डयन मंत्री भी बने। लेकिन उन्होंने विदेशयात्रा का मोह कभी नहीं पाला। अभी हाल में शायद वे मात्र एक बार चीन की संक्षिप्त यात्रा पर गए। इसी तरह जैन हवाला केस में नाम आया तो शरद यादव ने निर्भीकतापूर्वक स्वीकार लिया कि हां, उन्होंने चंदा लिया था।

यह सोचकर क्लेश होता है कि जब आज भी हमारे समक्ष ऐसे दृष्टांत मौजूद हैं तो राजनेता इनसे कोई सबक क्यों नहीं लेते। विगत तीन-चार सप्ताह के दौरान जो प्रसंग घटित हुए हैं, वे देश की राजनीतिक दिशा के प्रति शंका, अविश्वास एवं चिंता उत्पन्न करते हैं। सुषमा स्वराज जिन्हें कभी प्रधानमंत्री पद का दावेदार माना जाता है, ललित मोदी के मामले में अपनी जवाबदेही से बच रही हैं, वसुंधरा राजे का भी रुख वैसा ही है, केंद्रीय मंत्रिमंडल में ऐसे व्यक्ति शामिल हैं जिन पर आपराधिक प्रकरण चल रहे हैं और मध्यप्रदेश में शिवराज सिंह ने जिस हठधर्मी का परिचय दिया है, वह राजनीति में उनकी भावी प्रगति पर प्रश्नचिन्ह लगाती है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी चुप रहना चाहते हैं तो वैसा ही करें, लेकिन वे खामोश रहकर भी तो जनभावना के अनुरूप आवश्यक निर्णय ले सकते हैं। श्री मोदी की निर्णयहीनता तात्कालिक रणनीति की दृष्टि से उचित हो सकती है, किंतु हकीकत ये है कि इस तरह कतराकर निकलने से वे अपने ही मतदाताओं का स्वप्न भंग कर रहे हैं।

देशबन्धु में 16 जुलाई 2015 को प्रकाशित 

Friday 10 July 2015

जनता के आँगन में कवि



सारे
अतिथि आ चुके हैं। जलपान के साथ स्वागत हो गया है। अब सभास्थल की ओर चलना है। लाउडस्पीकर से लगातार घोषणा हो रही है कि कार्यक्रम प्रारंभ होने ही वाला है। स्वागत गृह से सभास्थल दूर नहीं है, बस यही कोई दो-ढाई सौ मीटर या एक फर्लांग। आगे-आगे नवयुवाओं की टोली ढोल-नगाड़ा बजाते चल रही है। दस मिनट में दूरी तय हो जाती है। सामने चौपाल में दरियां बिछी हैं। अच्छी खासी संख्या में श्रोता आ भी चुके हैं। आने का क्रम जारी है। सरस्वती वंदना, अतिथियों की आरती, फूलमाला, टीके से स्वागत होते-होते तक पांचेक सौ जन तो आ ही गए हैं, लेकिन लोगों का आना अभी भी जारी है। इनमें एक तिहाई संख्या महिलाओं की होगी। वे घर का कामकाज निबटाकर आ रही हैं। अनेक की गोद में या फिर अंगुली पकड़े बच्चे भी हैं। पुरुष श्रोता भी फुर्सत के भाव में आए हैं। दरी पर जगह नहीं है तो कोई घर की दहलीज पर बैठा है, कोई चबूतरे पर, कोई खुली बैलगाड़ी पर और सामने छत पर भी तो 15-20 नौजवान डटे हुए हैं। समय रात आठ बजे का हो चुका है। दृश्य गांव का है। गांव में बिजली है, डीटीएच और बुद्धू बक्सा भी, किन्तु आज की रात टीवी सेट खामोश हैं। ये सब जन सामने गांव के सार्वजनिक सांस्कृतिक मंच पर विराजमान अतिथियों को सुनने के लिए आए हैं। मेला तो नहीं है, लेकिन चहल-पहल अच्छी-खासी है।
इस गांव का नाम है- ईटार। छत्तीसगढ़ के कस्बे खैरागढ़ से उत्तर-पश्चिम में कोई 13 किमी दूर। गांव के थोड़ा आगे ही जंगल का इलाका प्रारंभ हो जाता है। खैरागढ़ का नाम सुनकर शायद बहुत से पाठकों को याद आए कि एशिया का पहिला कला-संगीत विश्वविद्यालय इस नगर में स्थापित है। उसकी चर्चा बाद में कभी। फिलहाल हमारे सामने जो दृश्य है, उसकी बात। हम जो अतिथि यहां आए हैं सब छत्तीसगढ़ प्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन से जुड़े हुए हैं। संस्था की एक योजना ‘पाठक मंच’ के नाम से गत 13-14 वर्ष से संचालित हो रही है। एक पाठक मंच खैरागढ़ में भी है जिसके संयोजक डॉ. प्रशांत झा हैं। ईटार प्रशांतजी का गांव हैं और उनके निमंत्रण पर ही हम उपस्थित हैं। पेशे से भले ही डॉक्टर हों, किन्तु वे एक साहित्यिक अभिरुचि संपन्न व्यक्ति हैं। यह बात उनके मन में उठी कि शहरों में और बड़ी जगहों पर तो साहित्यिक-सांस्कृतिक कार्यक्रम आए दिन होते ही रहते हैं, संस्कृतिकर्मियों को, साहित्यकारों को उससे आगे बढक़र गांवों का रुख भी करना चाहिए। अन्य कोई संस्था ऐसा करे या न करे, जिस संस्था से वे जुड़े हुए हैं, वह तो ऐसा कर ही सकती है। फिर अगर प्रयोग ही करना है तो अपने निज गांव से बेहतर स्थान और कौन-सा हो सकता है?
बस यह बात उनके मन घर कर गई और उन्होंने ठान लिया कि पाठक मंच की खैरागढ़ इकाई का एक कार्यक्रम वे अपने गांव में करके ही रहेंगे। इसके लिए उन्होंने पाठक मंच की सामान्य गतिविधि से हटकर कार्यक्रम की रूपरेखा बनाई, ताकि ग्रामजनों की रुचि व सहभागिता उसमें हो सके। उन्होंने ‘‘चलो गांव की ओर’’ यह नाम भी अपने इस कार्यक्रम के लिए तय कर लिया। पाठक मंच में सामान्यत: पुस्तक चर्चा होती है, उन्होंने इसमें कवि सम्मेलन का भी समावेश कर लिया। इस तरह ईटार में 3 जून की रात साढ़े 7 बजे से 4 जून की सुबह 1 बजे तक यह अद्भुत कार्यक्रम सम्पन्न हुआ जिसकी संक्षिप्त झलक मैंने प्रारंभ में आपको दी। कवि सम्मेलन सुनकर जो तस्वीर आपके मन में उभरती है, यह कवि सम्मेलन वैसा बिलकुल भी नहीं था। आसंदी पर जो कविगण विराजमान थे, उनमें से 2 या 3 ऐसे अवश्य थे जो कवि सम्मेलनों के मंच पर जाते रहे हैं, किन्तु वे सब अपनी अर्थगंभीर रचनाशीलता के लिए जाने-जाते हैं। उनमें से एक भी तुक्कड़ नहीं था, जोकर नहीं था, हास्य रस या वीर रस की वर्षा करने वाला नहीं था। दो घंटे तक कवि सम्मेलन चला, नौ या दस साथियों ने कविताएं सुनाईं और श्रोतागण मुग्ध होकर पूरे समय उनको सुनते रहे।
ईटार के इतिहास में संभवत: यह पहिला ही कवि सम्मेलन होगा। इसके पूर्व हो सकता है कि कुछेक खैरागढ़ या अन्य कहीं कथित कवि सम्मेलनों में श्रोता के रूप में हाज़िर रहे हों; अनेक ने शायद टीवी पर वाह! वाह! जैसे कार्यक्रम देखे होंगे। कुल मिलाकर कवि सम्मेलन जैसे कार्यक्रम के बारे में ग्रामजनों की क्या अवधारणा अब तक रही है, यह हम नहीं कह सकते। किन्तु उस रात का जो वातावरण था, वह हम सबके लिए एक अविस्मरणीय अनुभव बन गया है। हम जान रहे थे कि श्रोता समादर के भाव के साथ अतिथि कवियों के गीत एवं कविताओं का आस्वाद ले रहे थे। रचनाओं में उन्हें शायद अपने जीवनानुभवों का प्रतिबिंब छलकता प्रतीत हो रहा होगा। शायद उन्हें अहसास हो रहा था कि ये कविताएं उनके लिए लिखी गई हैं; कि अगर वे भी कवि होते तो शायद अपने भावों को कुछ इसी तरह शब्दों में बांधते। साथी जीवन यदु छत्तीसगढ़ के चहेते जनकवि हैं। वे अपने गीतों में एक बेहतर दुनिया रचने का स्वप्न देखते हैं। जीवन जब सधे हुए कंठ से गीत गा रहे थे तो स्त्री-पुरुष सब उनकी स्वर-लहरियों पर झूमे जा रहे थे।
कवि सम्मेलन का समापन हुआ, रात्रि भोजन का समय हो चला था, सभा कुछ देर के लिए स्थगित की गई, रात 11 बजे के आसपास श्रीमती संतोष झांझी के कहानी संग्रह ‘पराए घर का दरवाजा’ पर पाठक मंच की गोष्ठी प्रारंभ हुई। अगर गांव में प्रथम कवि सम्मेलन आयोजित कर एक रिकॉर्ड बना था तो अब दूसरा कीर्तिमान स्थापित करने का वक्त आ गया था। इसके पहिले क्या आपने कभी सुना कि आधी रात को किसी पुस्तक पर चर्चा की गई हो, वह भी किसी गांव में, वह भी जहां न कोई कॉलेज हो और न हिन्दी साहित्य का कोई विद्वान प्रोफेसर आलोचक! तिस पर मज़ा यह कि लाउडस्पीकर अभी भी चल रहा था; जो लोग भोजन के बाद सभास्थल पर नहीं लौटे, वे अपने-अपने घर में बैठकर ही श्रवण लाभ लें, जानें कि कहानी की एक पुस्तक के बारे में क्या चर्चा हो रही है। यह चर्चा गोष्ठी भी दो घंटे तक चली, एक बजे रात तक, जिसमें कुल मिलाकर 19 या 20 लोगों ने अपने विचार प्रस्तुत किए। इनमें अतिथियों के अलावा गांव के वे प्रबुद्धजन भी थे, जिन्हें पाठक मंच के संयोजक ने कुछ कहानियों की फोटो प्रतियां दे दी थीं कि आप भी पढऩा और इन पर बात करना।
इस रिपोर्टिंग के बाद शायद यह प्रासंगिक व उपयुक्त होगा कि छ.ग. प्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन की पाठक मंच योजना के बारे में संक्षिप्त जानकारी मैं पाठकों के साथ साझा करूं। यह योजना हमने कोई 13-14 साल पहिले प्रारंभ की थी। इसका मूल विचार मध्यप्रदेश साहित्य परिषद द्वारा तीन दशक पूर्व स्थापित पाठक मंच की योजना से ही हमने लिया था। किन्तु दोनों में एक बड़ा फर्क यह है कि म.प्र. साहित्य परिषद का पाठक मंच एक शासकीय अनुष्ठान है जबकि सम्मेलन की योजना पूरी तरह गैर-सरकारी। एक में मंच संयोजक को कुछ मानदेय दिए जाने की व्यवस्था है, इसमें बिलकुल भी नहीं। इसके अलावा सम्मेलन का पाठक मंच नाम के अनुरूप है अर्थात् इसके सदस्यों में बहुतायत पाठकों की है, न कि लेखकों की। आपको यह जानकर सुखद आश्चर्य हो सकता है कि क्रमश: रायपुर व भिलाई में दो पाठक मंच ऐसे भी हैं जिनकी सदस्याएं गृहणियां हैं और कामकाज के बीच पढऩे का समय निकालती हैं। अभी कोई 35-36 पाठक मंच स्थापित हैं, कुछ सक्रिय, कुछ निष्क्रिय। हरेक में औसतन 12 सदस्य हैं। किसी चुनी गई पुस्तक की दो प्रतियां मंच को भेजी जाती हैं, एक संयोजक के लिए, दूसरी आलेख लेखक के लिए। सारे सदस्य बारी-बारी से पुस्तक पढ़ते हैं, फिर एक दिन प्रारंभिक आलेख पाठ के बाद उस पर चर्चा हो जाती है। कार्रवाई की रिपोर्ट मिलने पर वह लेखक को भी भेज देते हैं। इस तरह अमूमन एक पुस्तक को प्रदेश के 200-250 पाठक पढ़ लेते हैं।
पाठक मंच में पुस्तकों के चयन में कथा संग्रह को प्राथमिकता दी जाती है। उपन्यास पढऩे में सबकी रुचि नहीं होती, समय भी नहीं मिल पाता। कविता की किताब में वैसे भी एक सामान्य पाठक की दिलचस्पी नहीं होती। कहानी के अलावा संस्मरण व यात्रा-वृत्तांत की पुस्तकें भी यथासमय मंच को भेजी जाती हैं। इस योजना में अब तक चालीस से अधिक पुस्तकें पाठक मंच के सदस्यों ने पढ़ ली हैं। लेखकों को जब पाठकों द्वारा ही लिखी गई समीक्षा एवं उनकी प्रतिक्रिया जानने मिलती है, तब उन्हें यह संतोष अवश्य होता होगा कि वे जो लिख रहे हैं वह दूर-दूर तक पहुंच रहा है और सराहा जा रहा है। इन समीक्षाओं में अकादमिक बहसें तो होती नहीं हैं और न ही किसी तरह का राग-द्वेष प्रकट करने का अवसर होता है। अभी एक प्रावधान यह है कि पाठक मंच अगर चाहे तो वह पुस्तक लेखक को अपने यहां आमंत्रित कर सकता है जिसका मार्गव्यय सम्मेलन वहन करेगा। इस तरह पाठकों को लेखक से रू-ब-रू होने का भी अवसर मिलेगा। खैरागढ़ के पाठक मंच ने नई सुविधा का लाभ उठाया तथा भिलाई निवासी लेखिका को ईटार आमंत्रित किया। आप देख सकते हैं कि सम्मेलन की इस योजना से एक ओर अच्छी कृतियों से पाठकों का परिचय हो रहा है, तो दूसरी ओर लेखकों को पाठकों के साथ जीवंत संवाद स्थापित करने का अवसर भी जुट रहा है।
 
मैं उम्मीद करता हूं कि अक्षर पर्व के सुधी पाठक आज मुझे सम्मेलन के बारे में कुछ और सूचना देने पर आपत्ति न करेंगे। मैं चूंकि संस्था का अध्यक्ष हूं, इसलिए मेरा यह निवेदन भी है कि मैं जो कह रहा हूं, उसे आत्मश्लाघा न माना जाए। संभव है कि पूर्व में कभी सम्मेलन के कार्यक्रमों के बारे में मैंने कोई चर्चा इस स्तंभ में की हो, लेकिन अगर ऐसा हुआ है तो बहुत पहिले तथा नए पाठकों के लिए यह चर्चा नई ही होगी। सम्मेलन ने अपना मुख्य उद्देश्य यही माना है कि उत्तम साहित्य जनता तक कैसे पहुंचे, इसके लिए निरंतर प्रयत्न किए जाएं। जब हिन्दी समाज में साहित्य के प्रति अरुचि का भाव निरंतर बढ़ता प्रतीत हो रहा है; बोलचाल में और अखबारों में अंग्रेजी के शब्द एवं मुहावरे हिन्दी को लगातार बेदखल करने में लगे हैं; संस्थाओं, योजनाओं, कार्यक्रमों के भारी-भरकम नामों का अंग्रेजी में शब्दलाघव किया जा रहा है; मध्यप्रदेश व छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों तक में हिन्दी माध्यम की पाठशालाएं बंद की जा रही हैं; अंग्रेजी को पहिली कक्षा से अनिवार्य की जाने की वकालत हो रही है, तब यह काम पहिले की अपेक्षा कहीं अधिक महत्वपूर्ण हो उठता है। भाषा बचेगी तो जातीय स्मृतियां बचेंगी, वरना एक दिन हम अपनी विरासत और परंपराओं को ही खो बैठेंगे।
इस उद्देश्य को सामने रखकर 2001 में ही सम्मेलन ने एक और पहल की- गीत यामिनी कार्यक्रम के रूप में। यूं तो गीतकारों के लिए अनेक मंच उपलब्ध हैं और तथाकथित कवि सम्मेलन आज मनोरंजन का एक जनप्रिय माध्यम बन चुका है लेकिन गीत यामिनी की अवधारणा इससे हटकर है। यह कार्यक्रम प्रतिवर्ष 12 फरवरी को आयोजित किया जाता है, भारत कोकिला सरोजिनी नायडू के जन्मदिन की पूर्व संध्या पर। दरअसल, जब इस योजना पर विचार-विमर्श चल रहा था, तभी ध्यान आया कि सरोजिनी नायडू का जन्मदिन कुछ सप्ताह बाद ही है तो कार्यक्रम उनके नाम पर समर्पित करने का फैसला ले लिया गया। पहिले साल का आयोजन तो रायपुर में हुआ, किन्तु उसके बाद से हम एक के बाद एक प्रदेश के अन्य नगरों एवं कस्बों में जा रहे हैं। गीत यामिनी में प्रदेश के प्रतिष्ठित गीतकार उत्साहपूर्वक भाग लेते हैं। उन्हें कोई पारिश्रमिक नहीं दिया जाता, सिर्फ मार्गव्यय की व्यवस्था होती है। वे उत्साह के साथ आयोजन में शरीक होते हैं कि हजार-पांच सौ श्रोताओं के बीच कविता की शर्तें पूरी करने वाले गीत सुनाने का एक दुर्लभ अवसर प्राप्त होगा। लटकों-झटकों से दूर इस आयोजन में वे अपनी बेहतर रचनाएं प्रस्तुत करते हैं जिनसे श्रोताओं के मनोरंजन के साथ लोकशिक्षण का काम भी किसी सीमा तक होता है। कहना होगा कि कविजनों को यह जानकर आत्मसंतोष मिलता है कि जनता में अच्छी कविता सुनने की समझ व ललक दोनों कायम हैं।
छत्तीसगढ़ प्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन ने विशेषत: युवजनों के मध्य साहित्यिक रुचि जागृत करने के लिए कुछ अन्य अभिनव आयोजन भी किए हैं। एक कार्यक्रम है- पीढिय़ों के अंतर को पाटता साहित्य। 2012 में पहिली बार यह आयोजन सिर्फ कविता पर केन्द्रित था, लेकिन 2014 में कविता व कहानी- इन दो विधाओं को लिया गया। इसमें सम्मेलन ने कॉलेज के विद्यार्थियों को प्रतिभागी के तौर पर आमंत्रित किया। प्राध्यापक मित्रों से आग्रह किया कि वे अपने कॉलेज में 1-2 विद्यार्थियों का चयन करें, भले ही वे हिन्दी के विद्यार्थी न हों, उन्हें अपनी पसंद के कवि या कथाकार की रचनाएं चुनकर दें, उनके साथ बैठकर रचना की बारीकी समझाएं व रचनापाठ के लिए तैयार करें। इसके बाद रायपुर में निर्धारित तिथियों पर विद्यार्थियों ने चुनी गई रचनाओं का पाठ किया। इससे तीन-चार काम सधे-
1. विद्यार्थियों का आधुनिक हिन्दी साहित्य की श्रेष्ठ रचनाओं व रचनाकारों से परिचय हुआ। 2. प्राध्यापकों ने निर्धारित पाठ्यक्रम के बाहर जानकर स्वयं भी रचनाएं पढ़ीं, छांटी व छात्रों को तैयार किया। 3. कॉलेज के पुस्तकालय में हिन्दी पुस्तकों पर जमा धूल साफ हुई। 4. रायपुर के वृहद आयोजन में प्रदेश भर के साहित्य अनुरागियों को एक-दूसरे से परिचय व संपर्क विकसित करने का अवसर मिला। 5. अध्यापक मित्रों को भी लीक से हटकर साहित्य के अध्यापन का मौका मिला। 6. उपस्थित श्रोताओं को भी श्रेष्ठ रचनाएं सुनने मिलीं।
मेरी बात यहां समाप्त होती है। सम्मेलन के कार्यक्रमों की जानकारी देने का मकसद यही था कि हमारे साहित्यिक मित्र जहां हैं, वहां सोचें कि व्यापक जनसमाज, विशेषकर युवा पीढ़ी में अपनी भाषा व साहित्य के प्रति उत्कंठा व लगाव जागृत करने के लिए और भी क्या नए प्रयत्न हो सकते हैं। हमारे मध्य ऐसे मूर्धन्य रचनाकार हैं जो कविता में तो जनता के बीच जाने की इच्छा व्यक्त करते हैं, लेकिन वास्तव में चाहते यह हैं कि जनता उनके पास आए। हम जो उपक्रम कर रहे हैं, उससे शायद किसी दिन हासिल हो कि जनता कवि का घर पहिचानने लगे।
 अक्षर पर्व जुलाई 2015 अंक की प्रस्तावना 

Wednesday 8 July 2015

महानदी के किनारे

 



रायपुर
से यदि आप सराईपाली-सारंगढ़ होकर रायगढ़ जा रहे हैं तो चंद्रपुर से गुजरेंगे। सारंगढ़-रायगढ़ के लगभग बीचोंबीच बसा एक छोटा कस्बा जो हाल के वर्षों में चंद्रहासिनी मंदिर के कारण खासा लोकप्रिय हो गया है। यह स्थान वैसे अपने कोसा वस्त्रों के लिए मशहूर रहा है। चंद्रपुर एक द्वीप की तरह है, दक्षिण में महानदी और उत्तर में मांड। पूर्व में दोनों नदियों का संगम। रायगढ़ की ओर बढ़ते हुए मांड का पुल पार करते साथ एक ग्रामीण सडक़ पूर्व दिशा में बालपुर की ओर चलती है। पक्की लेकिन संकरी सडक़। दोनों तरफ तालाब जिनमें सुंदर कमल खिलते हैं। इस रास्ते के दाहिनी ओर महानदी आपके साथ-साथ हो लेती है। धान के खेतों के बीच बगुले तो बेशुमार मिलते हैं लेकिन शायद प्रवासी पक्षी यहां का रास्ता भूल चुके हैं। हां, हिमालय की ओर से शीतकाल में आने वाले वही प्रवासी जिन्हें देखकर मुकुटधर पांडेय ने ‘कुररी के प्रति’’ कविता लिखी थी और जिसे हिंदी कविता में छायावाद की प्रथम रचना माना जाता है। मुकुटधर पांडेय इस बालपुर गाँव के ही थे। एक ऐसे साहित्यानुरागी परिवार से जिसने एक ही पीढ़ी में तीन लेखक दिए। बड़े भाई लोचन प्रसाद पांडेय कवि से अधिक पुरातत्ववेत्ता के रूप में प्रसिद्ध हुए, एक अन्य अग्रज बंसीधर पांडेय को छत्तीसगढ़ी का पहिला उपन्यास लिखने का श्रेय दिया जाता है।

हमारे प्रदेश में ऐसे अनेक स्थान हैं जिन्हें उचित ही साहित्य तीर्थ की संज्ञा दी जाती है। बालपुर उनमें से एक है। लेकिन सरकार के लोक निर्माण विभाग को इतनी समझ होती तो सारंगढ़-रायगढ़ राजपथ पर  शायद एक बोर्ड लगवा देती- यहां से मुकुटधर पांडेय के गाँव बालपुर के लिए मुडि़ए। गाँव के रास्ते पर और प्रवेश द्वार पर शायद ऐसा बोर्ड लग जाता तो कितना अच्छा होता। गाँव की एक खासियत है कि यह जांजगीर-चांपा जिले का अंतिम गाँव है और विडंबना यह कि महानदी धीरे-धीरे गाँव की जमीन को काटती जा रही है। पांडेयजी का पैतृक बाड़ा नदी की भेंट चढ़ चुका है। नदी के तीर पर खड़े हों तो ग्रामवासी सतर्क करते हैं- पीछे हटिए, धरती पोली है, कभी भी धसक सकती है। इस स्थिति के चलते एक नया बालपुर खड़ा हो रहा है, नदी से दूर, वर्तमान गाँव से बाँई ओर हटकर। हमें गाँव में बंसीधरजी के पौत्र रवींद्र पांडे एवं प्रपौत्र मिले। रवींद्रजी ने अपने दादाजी की पुस्तक दिखलाई ‘‘हीरू की कहिनी’’, नब्बे साल पहिले 1926 में छपी। मैंने सुझाव दिया कि इसे इंटरनेट पर डाल दें। एक ऐतिहासिक थाती सुरक्षित रही आएगी। बालपुर में जिंदल पॉवर एंड स्टील ने अपने कारखाने में जलापूर्ति के लिए यहां इनटेकवैल बनाया है। नवीन जिंदल ने राष्ट्रध्वज के लिए सर्वोच्च न्यायालय तक लड़ाई लड़ी और जीते। कितना अच्छा हो कि वे बालपुर की तरफ ध्यान दें। आखिर वे यहां का पानी जो पी रहे हैं! क्या वे मुकुटधर पांडेय की स्मृति में कोई स्थायी आयोजन नहीं कर सकते? मसलन एक सालाना व्याख्यान माला, रायगढ़-बालपुर में उनके नाम पर कोई सांस्कृतिक भवन या ऐसा ही कुछ और?

मेरी बालपुर की यह दूसरी यात्रा है। छ.ग. प्रदेश हिंदी साहित्य सम्मेलन के हम अनेक साथी दो वर्ष पूर्व भी यहां आए थे- सारंगढ़ के मित्र डॉ. परिवेश मित्र के प्रबंध और मार्गदर्शन में। तब से मन में यह बात बनी हुई है कि रायगढ़-बालपुर दोनों को एक साथ केंद्र में रखकर कोई स्थायी कार्यक्रम होना चाहिए। क्या ऐसा हो सकता है कि रायगढ़ में एक वार्षिक स्मृति व्याख्यान हो और उसमें शामिल सभी लोग फिर बालपुर के भ्रमण पर आएं? क्या रायगढ़ का प्रबुद्ध समाज ऐसी किसी योजना पर विचार करेगा? इस पर बातचीत हो, इस बीच हम डभरा लौटते हैं जहां से हमारा दल 19 जून को बालपुर दर्शन पर गया था। डभरा-चंद्रपुर के बीच किरारी नामक गाँव की ओर फूटती सडक़ देखी तो अनायास ध्यान आया कि अरे, यह तो वही किरारी हैै, जिसके हीराबंद तालाब से मिला काष्ठ स्तंभ रायपुर के महंत घासीदास संग्रहालय में संरक्षित है। शिलालेख की भांति यह एक काष्ठ लेख है, जिस पर किसी राजसत्ता के अधिकारियों के नाम-काम-धाम उत्कीर्ण हैं। पहिली या दूसरी सदी का यह काष्ठ स्तंभ विश्व का सबसे प्राचीन उपलब्ध काष्ठ स्तंभ है और इस नाते एक अनमोल पुरातात्विक धरोहर मानी जाती है। डभरा वैसे तो जांजगीर जिले का एक महत्वपूर्ण कस्बा है, लेकिन रेल लाइन से पच्चीस किमी दूर होने के कारण अपने आप में सिमटा हुआ है। इसके पास ही महानदी पर साराडीह बैराज बन रहा है, जहां हाल में पदयात्रा करने कांग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गाँधी आए थे। डभरा में हमारे एक युवा मित्र मुरलीधर चंद्रम इलाके के उत्साही सामाजिक कार्यकर्ता हैं और उनके आमंत्रण पर ही हमने सम्मेलन का चार दिवसीय युवा रचना शिविर वहां करने का निर्णय लिया था।

हमारे साथियों के मन में शंका थी कि इतने छोटे स्थान पर एक बड़ा और लंबा कार्यक्रम कैसे सध पाएगा। मैं स्वयं भी चिंतित हो उठा था कि मालूम नहीं प्रतिभागी इस दूर-दराज के गाँव तक आएंगे भी या नहीं। लेकिन दूसरी ओर मुझे साथी चंद्रम पर भरोसा था कि वे प्रबंध करने में कोई कसर बाकी नहीं रखेंगे। और यह भरोसा सही सिद्ध हुआ। डभरा में यूँ तो अग्रवाल समाज के दस-बीस ही घर हैं, लेकिन इन्होंने अपनी हिम्मत और संपर्कों के बल पर यहां एक अग्रसेन भवन खड़ा कर दिया है, जो पूरे समाज के काम आ रहा है। यह कल्पना हमने नहीं की थी कि अपने कार्यक्रम स्थल पर इतनी सुचारु व्यवस्था देखने मिलेगी। इसका श्रेय भवन समिति के अध्यक्ष नानकचंद अग्रवाल को जाता है जो अपना पूरा समय भवन के रख-रखाव को देते हैं। डभरा में दो-तीन अन्य विशेषताएं, जो वहां पहुंचने के बाद मालूम पड़ीं, उनका जिक्र अवश्य करना होगा। एक तो गाँव में सौ एकड़ से भी ज्यादा क्षेत्रफल का एक पुराना तालाब है- जो देश की गौरवशाली परंपरा के अनुरूप अवैध कब्जों व कचरे का शिकार होकर धीरे-धीरे सिकुड़ता जा रहा है। दिलचस्प तथ्य यह है कि तालाब के एक हिस्से को पाटकर बाज़ार निर्मित करने का काम नगर पंचायत ने किया है, किसी चतुर व्यापारी ने नहीं।

दूसरे, यहां स्थापित संबलपुरहिन दाई के मंदिर के साथ जुड़ी है एक रोचक और मार्मिक किंवदंती। कहते हैं कि बहुत पहिले जब डभरा मालगुजारी संबलपुर राज (ओडिशा) के अंतर्गत थी, तब यहां के आदिवासी राजा (मालगुजार) का संबलपुर आते-जाते किसी सारथी कन्या से प्रेम हो गया। एक बार राजा डभरा वापिस आ रहा था तो सारथी बाला उसके पीछे-पीछे आने लगी। राजा ने बीच रास्ते में कहीं लोक-लाज के भय से उसे मार डाला, लेकिन जब वह घर पहुंचा तो आंगन में सारथी बाला को खड़े देखा। तब उसके लिए राजा ने गाँव के बाहर एक स्थान नियत कर दिया। आज वह स्थान बस्ती के भीतर आ गया है और वहां एक मंदिर बन गया है, जिसमें पूजा आदिवासी बैगा ही करता है, कोई कर्मकांडी पंडित नहीं। दाई की पूजा ग्रामदेवी के रूप में होती है तथा कोई भी शुभकार्य उसकी देहरी पर धोक देकर करने की मान्यता प्रचलित हो गई है। सारी दुनिया में जगह-जगह पर प्रेम की ऐसी दु:खांत  गाथाएं सुनने मिलती हैं, कई के दृष्टांत दिए जाते हैं, कई पर नाटक और कविताएं लिखी गई हैं; एक सत्य लगभग सबमें उपस्थित है कि अंतत: स्त्री को ही त्याग और उत्सर्ग करना पड़ता है। सोचा नहीं था कि डभरा में भी यही कथा सुनने मिलेगी। 

रायपुर से डभरा जाने के लिए रास्ते अनेक हैं। बिलासपुर-जांजगीर-खरसिया होकर जाएं तो सघन यातायात के कारण परेशानी होना ही होना है। बलौदाबाजार मार्ग से गिधौरी पहुंचकर फिर या तो शिवरीनारायण होकर या फिर बिलाईगढ़ होकर भी जा सकते हैं, लेकिन बलौदाबाजार के बाद सडक़ की हालत ऐसी कि वाहन और सवारी दोनों के अस्थिपंजर ढीले कर दे। सडक़ का बड़ा भाग कसडोल विधानसभा क्षेत्र में आता है। पहिले ऐसा होता था कि सरकार कांगे्रस की, विधायक भाजपा का अथवा सरकार भाजपा की, विधायक कांग्रेस में। आपसी रस्साकशी और संकीर्ण राजनीति के चलते यह सडक़ कभी ठीक से नहीं बनी, किंतु अब तो दो साल से सरकार भाजपा की है, विधायक भी भाजपा के, वे विधानसभा अध्यक्ष भी हैं, परंतु सडक़ बन जाए इसमें शायद वे असमर्थ हैं तो इस रास्ते पर यात्री मजबूरी में ही चलते हैं। रायपुर से सराईपाली-सारंगढ़-चंद्रपुर होकर जाना ही इन सब में बेहतर विकल्प था, लेकिन हमारे हक में यह अच्छा हुआ कि बसना से सरसींवा होकर एक नई सडक़ बन गई है, जिससे समय भी बचा और दूरी भी। पता चला कि यह सडक़ कुछ समय पूर्व ही बनी है सो मानना चाहिए कि अगले तीन-चार साल तक तो दुरुस्त बनी रहेगी। इस मार्ग पर यातायात का दबाव भी कम है और सरसींवा के अलावा कोई अन्य बड़ी बस्ती भी नहीं है। इस तरह एक नए पथ का अन्वेषण इस यात्रा में हो गया।

एक समय था जब महानदी पर एक भी पुल नहीं था और छत्तीसगढ़ के अनेक इलाकों में लोग बहुत घूम-फिर कर अपने गंतव्य तक पहुंच पाते थे। 1956 में आरंग के पास महानदी पर पहिला पुल बना। वह अब जीर्ण-शीर्ण हो गया है और नये पुल का निर्माण बाजू में चल रहा है। बाद में धमतरी के पास अछोटा घाट, नयापारा-राजिम के बीच शास्त्री पुल, कसडोल, फिर शिवरीनारायण, आगे चंद्रपुर, इस तरह एक के बाद एक 7-8 पुल बने तो नदी के दोनों तटों के बीच आवागमन सुलभ हुआ। अभी जिस नए पथ से हम गुजरे उसमें भी सरसींवा-हसौद के बीच एक और पुल बन चुका है। जानकारों ने बताया कि इसके अलावा दो-तीन अन्य स्थानों में महानदी पर बैराज निर्माण के साथ पुल बन गए हैं, यद्यपि उनके कारण एक नई चिंता व्याप्त हो गई है। जांजगीर-चांपा जिले में हसदेव एवं महानदी का जल अब तक खेती के काम आता था, किंतु तेजी से हो रहे औद्योगीकरण के चलते खेती की जमीनों का अधिग्रहण हो रहा है और ग्रामीण समाज चिंतित है कि उनके जीवन यापन के लिए आगे क्या साधन बचेगा। यह एक ऐसा प्रश्न है जिसके चलते प्रदेश के किसान और ग्रामजन उद्वेलित हैं लेकिन संवेदनशील सरकार में समाधान खोजने की फुर्सत किसे है?
देशबन्धु में 09 जुलाई 2015 को प्रकाशित

Wednesday 1 July 2015

मोदी यूँ ही चुप नहीं हैं




ललित मोदी प्रकरण को लेकर हर दिन नए खुलासे हो रहे हैं और हर खुलासे के साथ मामले की सच्चाई समझना कठिन से कठिनतर होते जा रहा है। सबसे पहिले सुषमा स्वराज का नाम आया, फिर उनके पति एवं पुत्री को भी लपेट लिया गया। उसके बाद वसुंधरा राजे पर आरोप लगना प्रारंभ हुए तथा उसमें उनके पति एवं पुत्र के नाम भी आ गए। उनके पश्चात् सामने आई प्रियंका गांधी व रॉबर्ट वाड्रा की ललित मोदी के साथ कथित मुलाकात की खबर। सोमवार की शाम को एक पूर्वज्ञात सूचना को रेखांकित किया गया कि ललित मोदी का परिवार सिगरेट उत्पादन में संलग्न हैं; इस बिना पर क्रिकेट में घोटाले के साथ कैंसर फैलाने का आरोप भी लागू हो गया। इस पूरे प्रकण के राजनैतिक पहलू पर नीचे चर्चा करेंगे, लेकिन एक कड़वा सच निश्चित ही स्पष्ट हुआ कि भारत में क्रिकेट एक बड़ा व्यवसाय बन चुका है, कि उसमें नैतिक-अनैतिक के बीच कोई सीमारेखा नहीं है, और यह कि खेल के इस व्यापार में पार्टीगत राजनीति आड़े नहीं आती। देश के वर्तमान प्रधानमंत्री सहित अनेक नामी-गिरामी नेता क्रिकेट से किसी न किसी रूप में जुड़े रहे हैं। इनमें अधिक सक्रियजनों में शरद पवार, अरुण जेटली व राजीव शुक्ला के नाम लिए जा सकते हैं। इनसे क्रिकेट को फायदा हुआ अथवा इन्होंने क्रिकेट से लाभ उठाया, इस पर फैसला होना बाकी है। आईपीएल के प्रारंभिक दिनों में ही पत्रकार आलम श्रीनिवास ने इस विषय पर जो शोधपरक पुस्तक लिखी थी, वह खेलप्रेमियों को पढ़ लेना चाहिए। इस मुद्दे को लेकर भाजपा के भीतर ही अरुण जेटली व कीर्ति आकााद के आपसी विवाद सामने आए। हमारी दृष्टि में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सामने एक चुनौती यह भी है कि क्या वे राजनेताओं को क्रिकेट से अलग कर सकते हैं?

विगत तीन सप्ताह के भीतर ललित मोदी प्रकरण को लेकर जो सूचनाएं सामने आईं, उनसे यह तो स्पष्ट है कि ललित मोदी ने 2010 में भारत छोडक़र इंग्लैंड में शरण ले ली। उनके खिलाफ प्रवर्तन निदेशालय की जांच प्रारंभ की एवं उनका पासपोर्ट रद्द कर दिया गया, जो बाद में मुंबई उच्च न्यायालय ने बहाल किया किंतु जिसके खिलाफ सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय में अपील दायर नहीं की। ललित मोदी को पोर्तुगाल जाने के लिए ब्रिटिश आव्रजन कार्यालय ने भारत सरकार से अनापत्ति प्रमाणपत्र मांगा, जो विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने उपलब्ध करवाया। ललित मोदी की पत्नी का लिस्बन के जिस अस्पताल में उपचार चल रहा है, उसी को जयपुर शहर में अस्पताल खोलने के लिए वसुंधरा राजे ने कीमती सरकारी जमीन दे दी। इससे कहीं अधिक गंभीर यह तथ्य भी प्रकट हुआ कि राजस्थान विधानसभा में विपक्ष की नेता रहते हुए श्रीमती राजे ने ब्रिटिश सरकार को गोपनीयता की शर्त पर हलफनामा दिया कि ललित मोदी से उनके पारिवारिक संबंध हैं, इसलिए यूपीए सरकार द्वारा श्री मोदी को राजनैतिक रूप से प्रताडि़त किया जा रहा है। सुषमाजी ने तो ‘‘मानवीय आधार’’ पर सहायता की पेशकश की थी; वसुंधराजी ने उसे राजनैतिक स्वरूप प्रदान कर दिया। हलफनामे को गोपनीय रखने की शर्त तो और भी विचित्र है। ललित मोदी ने लंदन के किसी रेस्तोरां में रॉबर्ट वाड्रा व प्रियंका गांधी से अकस्मात भेंट हो जाने का दावा किया है। इसमें कुछ भी आश्चर्यजनक नहीं है। मैंने पहिले भी लिखा है कि श्री वाड्रा आज के सुविधाभोगी समाज की युवापीढ़ी से भिन्न नहीं हैं।

इस समूचे प्रकरण में कांग्रेस पार्टी मोदी सरकार को लगातार घेरे हुए है व दबाव बना रही है कि श्रीमती स्वराज व श्रीमती राजे के इस्तीफे लिए जाएं। उसे लगे हाथ स्मृति ईरानी व पंकजा मुंडे पर भी वार करने का अवसर मिल गया है। कांग्रेस के ये आक्रामक तेवर राजनैतिक दृष्टि से सही हैं। उसके प्रवक्ता दस्तावेजों एवं तर्कों के आधार पर हल्ला बोल रहे हैं। प्रमुख विपक्षी दल होने के नाते यह उसका अधिकार है कि वह सत्तारूढ़ दल की कमजोरियों को उजागर करे। इसमें दिलचस्प तथ्य यह है कि शरद पवार की राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी खुलकर विरोध करने से बच रही है तथा वही रवैय्या मुलायम सिंह की समाजवादी पार्टी ने भी अपना रखा है। शरद यादव के स्वराज कौशल व सुषमा स्वराज के साथ आपातकाल के दिनों से सौहार्द्रपूर्ण संबंध रहे हैं, इसलिए उनका चुप रहना समझ आता है। बहरहाल, नरेंद्र मोदी कांग्रेस पार्टी की मांग पूरी करने के मूड में नज़र नहीं आते। जो अर्णव गोस्वामी एक साल पहिले तक उग्र स्वर में कांग्रेस की आलोचना करते थे, वे आज उसी उग्रता के साथ भाजपा नेताओं की खबर ले रहे हैं, किंतु मोदीजी उनकी मांग को भी अनसुनी कर दे रहे हैं। प्रतीत होता है कि प्रधानमंत्री ने अपने दोनों कान बंद कर लिए हैं। जनता उम्मीद लगाए बैठी थी कि गए रविवार मन की बात में वे कुछ कहेंगे, लेकिन इस मामले में वे बिल्कुल मौन हैं। सोशल मीडिया में अब उनका नया नामकरण हो गया है- मौनेंद्र मोदी। यह समझना होगा कि इतनी सार्वजनिक आलोचना, नेताओं की छवि एवं पार्टी की प्रतिष्ठा पर आंच आने के बावजूद वे जनापेक्षा के अनुकूल कोई निर्णय लेने से क्यों कतरा रहे हैं? इसके लिए कुछ तो इतिहास में जाना होगा और कुछ वर्तमान को देखना होगा।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की चुप्पी या अनिर्णय को समझने के लिए हमें शायद उन दिनों को ध्यान में रखना चाहिए जब वे गुजरात के मुख्यमंत्री थे। अपने बारह साल के कार्यकाल में नरेंद्र मोदी ने कब किसकी बात मानी? क्या यह याद दिलाने की आवश्यकता है कि उन्होंने अपने प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी द्वारा राजधर्म का पालन करने की सीख को भी एक कान से सुनकर दूसरे कान से निकाल दिया था? क्या यह आईने की तरह साफ नहीं है कि नरेंद्र मोदी ने जनमत की कभी परवाह नहीं की? श्री मोदी की आलोचना चाहे निजी जीवन को लेकर की गई हो, चाहे मुख्यमंत्री के रूप में लिए गए निर्णयों पर, उन्होंने हर अवसर पर मौन रहना ही श्रेयस्कर समझा है। आज प्रधानमंत्री के रूप में भी संभवत: वे इस पुराने आजमाए गए नुस्खे का ही इस्तेमाल कर रहे हैं। देशव्यापी पैमाने पर नुस्खा कितना कारगर हो पाता है, यह कहना कठिन है, किंतु आज की सोच शायद यही है कि जो चिल्ला रहे हैं उन्हें चिल्लाने दो, एक दिन थककर सब अपने आप चुप हो जाएंगे। श्री मोदी को शायद यह विश्वास भी है कि वे जिस शीर्ष पर हैं, वहां उनके सामने कोई चुनौती, कोई खतरा नहीं है।

हमें शायद इस तथ्य पर भी गौर करना चाहिए कि भारतीय जनता पार्टी का चरित्र कांग्रेस पार्टी से एकदम भिन्न है। भाजपा मूलत: एक कैडर आधारित पार्टी है, जहां आज के तमाम बड़े नेता साथ-साथ रहते हुए आगे बढ़े हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पितृ संगठन के रूप में इन्हें एक सूत्र में बांधे रखने के तमाम प्रयत्न पर्दे के पीछे से करता है। इसलिए जब किसी पर मुसीबत आन पड़े, कोई मुश्किल आ खड़ी हो जाए तो निजी मतभेदों को कुछ देर के लिए दरकिनार कर सब एकजुट हो जाते हैं। अटल बिहारी वाजपेयी रहे हों या लालकृष्ण आडवानी-वे तक फूं-फां करने से अधिक कुछ नहीं कर पाते। जिनकी पृष्ठभूमि संघ की नहीं है, मसलन यशवंत सिन्हा या कीर्ति आज़ाद, ऐसे लोगों का यथासमय उपयोग अवश्य किया जाता है, पर पार्टी के भीतर उनकी एक नहीं चलती। इसके बरक्स कांग्रेस एक जन आधारित पार्टी है। वह सार्वजनिक आलोचनाओं से असुविधा महसूस करती है। इसलिए केंद्र हो या प्रदेश-पिछले पैंसठ सालों में कितनी ही बार कांग्रेसी मंत्रियों को नैतिक जिम्मेदारी लेकर पद छोडऩे पर विवश होना पड़ा है। यह बात दीगर है कि हाल के समय में पार्टी को इस्तीफे लेने में जितनी त्वरा दिखाना चाहिए थी, वह उसका परिचय न दे सकी। कहा जा सकता है कि भारतीय जनता पार्टी अपने परिवार के सदस्यों की देखभाल ठीक तरह से करती है। कोई बेटा नालायक निकल जाए तो उसे घर से बाहर नहीं करती।

यदि नरेंद्र मोदी अपने विवादास्पद सहयोगियों के त्यागपत्र नहीं ले रहे हैं तो उसका एक और कारण हो सकता है। बिहार में विधानसभा के चुनाव होने में मात्र 10-12 सप्ताह बाकी हैं। अगर अभी इस्तीफे मांगे गए तो इससे समीकरण बिगडऩे की आशंका बन सकती है। बेहतर है कि फिलहाल जो जहां है, उसे वहीं रहने दिया जाए। अगर कोई बड़ा फैसला लेना ही है तो वह बिहार चुनाव के बाद भी लिया जा सकता है। आज केंद्र में भाजपा के पास स्पष्ट बहुमत है, राजस्थान विधानसभा में भी। इसलिए सरकार को तो कोई खतरा है नहीं। इस्तीफे  न होने पर संसद के मानसून सत्र में हंगामा मच सकता है तो इससे क्या? अधिक से अधिक यही होगा कि कुछ और बिल शीतकालीन सत्र तक के लिए टल जाएंगे तो टल जाएं। अपने मन का कोई फैसला लागू करने के लिए अध्यादेश लाना होगा तो वह कर लिया जाएगा। सबसे बड़ी बात तो यही है कि पांच साल राज करने का अवसर मिला है तो उसमें कोई विघ्न-बाधा उत्पन्न न हो।

 
देशबन्धु में 02 जुलाई 2015 को प्रकाशित