Thursday 30 January 2014

आज पढ़ें ''सत्य के प्रयोग''


आज महात्मा गांधी की पुण्यतिथि है। यह याद कर मन में विचार उठता है कि वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य में उनके विचारों के लिए क्या स्थान है। यह तो तय है कि देश में आज एक भी ऐसा राजनीतिक दल नहीं है, जो उनके जीवन और दर्शन से प्रभावित होने का सार्वजनिक उद्धोष न करता हो। लेकिन क्या लोग ऐसी बात सच्चे मन से कह रहे होते हैं? अभी जो घटनाचक्र  चला हुआ है उसमें यह सवाल और भी प्रासंगिक हो जाता है। दरअसल बापू हमारे सामने बहुत सी मुश्किलें खड़ी करते हैं। सबसे पहले तो उन्होंने अपनी तरह से एक अनूठा जीवन जिया है, जिसकी और कोई मिसाल मिलना मुश्किल है। हर महापुरुष की तरह उनका जीवन एकपक्षीय नहीं था। उनके कर्मक्षेत्र में जो विविधता थी वह दुलर्भतर थी। ऐसी व्यापकता के बीच अन्तर्विरोधों का आभास मिलना भी स्वाभाविक है। फिर, जैसा कि मैंने पहले  भी कहा है, गांधीजी ने जो विपुल लेखन किया उसकी कोई तुलना विश्व के राजनीतिक इतिहास में किसी अन्य व्यक्ति से नहीं की जा सकती।

गांधी के कृतित्व और व्यक्तित्व का निर्माण करने वाली इस व्यापकता, विविधता और बहुलता का ही परिणाम है कि गांधी दर्शन से हर व्यक्ति अपनी-अपनी सोच के मुताबिक विचार उठा सकता है। इसका एक प्रमाण तो हमें इस तथ्य में ही मिलता है कि गांधी की व्याख्या करने के लिए हर साल एकाध दर्जन नई किताबें तो बाजार में आ ही जाती हैं। यह जानना रोचक है कि विदेशी अध्येता इस दिशा में कहीं ज्यादा रुचि लेते हैं। उनके अध्ययन में तार्किकता और गंभीरता भी देखने मिलती है। भारतीय अध्येताओं की जहां तक बात है अधिकतर का लक्ष्य कुछ और ही होता है। वे जानते हैं कि गांधी का नाम लेने के इस देश में फायदे बहुत हैं। इसलिए कोई गांधी के नाम से संस्था बना लेता है, कोई उनके नाम पर पत्रिका निकाल लेता है, कोई-कोई तो महज दस-बारह पन्नों का पम्फलेट छपवाकर उसे शोध पत्रिका का नाम दे देते हैं, कोई उनकी एक सौ पच्चीसवीं जयंती मना रहा है, तो कोई हिन्द स्वराज की शताब्दी।

मैं अपने कॉलेज जीवन में खादी का कुर्ता-पैजामा पहना करता था। उसे देखकर मेरे एक प्राध्यापक ने प्रस्ताव दिया कि मुझे कॉलेज की गांधी सेवा समिति का अध्यक्ष बन जाना चाहिए। आशय यह कि गांधी की माला जपने से जीवनयापन और सामाजिक सम्मान मिलने के बहुत से अवसर अपने आप जुट जाते हैं। विदेश जाकर गांधी पर व्याख्यान देने का मौका या पद्मश्री या राय सरकार के किसी उपक्रम की अध्यक्षता मिल जाए, फिर तो कहना ही क्या है? आजकल कढ़ाही वगैरह का चलन कम हो गया है, फिर भी कहावत दोहराई जा सकती है, पांचों उंगलियां घी में और सिर कढ़ाही में। भारत में गांधी दर्शन पर अध्ययन करने वालों की एक खासियत यह भी है कि वे जल्द से जल्द समय में और कम से कम तकलीफ उठाकर अपना काम पूरा कर लेना चाहते हैं। हमारे विश्वविद्यालयों में होने वाले अधिकांश शोधकार्य इस प्रवृत्ति का साक्षात प्रमाण हैं। खैर!

वर्तमान राजनीतिक घटनाचक्र का सरसरी तौर पर परीक्षण करने से ही ध्यान आ जाता है कि अन्ना हजारे को थोड़े समय पहले ही गांधी के अवतार के रूप में प्रस्तुत किया गया था। अपनी इस भूमिका को निभाने में अन्ना ने भी कोई कसर बाकी नहीं रखी। वे राजघाट पर जाकर बैठे। उन्होंने दिल्ली से लेकर मुंबई तक एक के बाद एक कितने ही अनशन किए तथा यह संदेश देने की कोशिश की कि जिस तरह गांधी ने देश को आजादी दिलवाई उसी राह पर चलकर वे अब भारत को तीसरी, चौथी या पांचवी आजादी दिलवाने जा रहे हैं। सच पूछिए तो महात्मा गांधी का पहला अवतार बनने का प्रयत्न तो जयप्रकाश नारायण ने किया था या शायद उन्हें इसके लिए प्रेरित किया गया था और वे ऐसा करने वालों के मंसूबों को तुरंत नहीं भांप पाए थे। जो भी हो, जेपी बापू की विरासत के सही अर्थों में आंशिक उत्तराधिकारी तो थे ही और वे अति भावुकता में जिनके साथ चले गए थे उनसे उनका मोहभंग होने में भी अधिक समय नहीं लगा था।

स्वतंत्र भारत के राजनीतिक इतिहास के इस विपर्यय को हमेशा याद रखना चाहिए कि बापू ने स्वयं जिसे अपना उत्तराधिकारी मनोनीत किया उसकी छवि विकृत करने में जेपी का साथ देने वाली उपरोक्त शक्तियों ने कभी कोई कसर बाकी नहीं रखी। एक दौर में गांधी, पटेल और सुभाष की त्रिमूर्ति सायास गढ़ी गई। जनता को यह समझाने की निष्फल कोशिशें हुईं कि नेहरू नहीं, सरदार अथवा सुभाष ही गांधी के सच्चे वारिस हैं। यह युक्ति जब काम नहीं आई तो फिर गांधी-लोहिया-दीनदयाल की एक नई त्रिमूर्ति स्थापित करने की पहल की गई। इन दोनों अवसरों पर भारत के तत्कालीन जूट प्रेस ने बढ़चढ़ कर वैसा ही उत्साह प्रदर्शित किया जैसा कि आज के मीडिया मालिक एक नहीं तो दूसरा नया अवतार सिरजने में दिखा रहे हैं। यदि अतीत के प्रसंगों की तुलना में आज मीडिया अपनी दुरभिसंधि में कहीं सफल होता हुआ नज् ार आ रहा है तो उसका कारण है कि आज मीडिया के औजार पहले की तुलना में किसी हद तक चमत्कारी हैं तथा उनमें जनता को तत्काल मंत्रमुग्ध कर लेने की अपार क्षमता है।

अभी कुछ दिन पहले दिल्ली के मुख्यमंत्री व आम आदमी पार्टी के महानायक अरविंद केजरीवाल देश की राजधानी में बड़े जोश-खरोश के साथ धरने पर बैठे। मैं नहीं जानता कि वे 'नायक' फिल्म में अनिल कपूर की भूमिका से कितने प्रभावित थे, लेकिन मुख्यमंत्री बनते समय उनके तेवर वही थे। प्रशासनतंत्र की कठोर वास्तविकता से जब वे रूबरू हुए तो उन्हें समझ आया कि फिल्मी हीरो के अंदाज में सरकार नहीं चलाई जा सकती। इससे कुपित और क्षुब्ध होकर उन्होंने धरना देने का रास्ता अपनाया। उनके पार्टी प्रवक्ता योगेन्द्र यादव ने टीवी पर चर्चा करते हुए श्री केजरीवाल का बचाव इन शब्दों के साथ किया कि  महात्मा गांधी को भी चंपारण सत्याग्रह व दांडी यात्रा का सहारा लेना पड़ा था। श्री यादव समाजवादी विचारों के विद्वान हैं। उनके कथन को यूं ही खारिज नहीं किया जा सकता। लेकिन क्या वे सचमुच यह बात मन की गहराई से कह रहे थे।

मुझे अपने पाठकों को यह स्मरण कराने की आवश्यकता बिल्कुल भी नहीं होना चाहिए कि गांधी चंपारण और दांडी दोनों स्थानों पर अंग्रेजीराज याने विदेशी हुकूमत के खिलाफ लड़ रहे थे। दक्षिण अफ्रीका, भारत, यहां तक कि इंग्लैंड की धरती पर भी उन्होंने विदेशी सत्ता के खिलाफ लड़ाई लड़ी थी। मैं नहीं समझ पा रहा हूं कि श्री यादव ने इस मूल बिंदु को कैसे भुला दिया। श्री केजरीवाल अन्ना के साथ और अन्ना के बाद आंदोलनकारी के रूप में या राजनीतिक कार्यकर्ता के रूप में सत्ता के विरोध में सड़क पर उतरे, वहां तक तो बात ठीक थी, लेकिन एक मुख्यमंत्री कैसे उस तंत्र के खिलाफ पद पर रहते हुए आ सकता है जिसका कि वह स्वयं उसका हिस्सा है? श्री यादव अपने तर्क देते समय यह भी भूल गए कि महात्मा गांधी ने स्वयं के लिए सत्ता की चाहत कभी नहीं रखी। अनेक पाठकों को तो शायद याद न हो कि कि गांधी भले ही कांग्रेस के एक तरह से डिक्टेटर रहे हों, लेकिन वे तो पार्टी के चवन्नी सदस्य भी नहीं थे। है न मजे की बात!

बापू के जीवन का अध्ययन करने से हमें यह भी पता चलता है कि उन्होंने दूसरों को असुविधा पहुंचाने वाला कोई काम कभी नहीं किया। वे सच्चे अर्थों में सत्याग्रही थे और अहिंसा में उनका विश्वास अटूट था इसलिए वे जब अनशन पर बैठे तो या तो अपने आश्रम में या फिर जेल में। जब दांडी मार्च हुआ तो गांधीमार्गियों के जत्थे के जत्थे पुलिस की लाठियां खा-खाकर भी आंदोलन करते रहे। उन्होंने एक बड़ा अनशन उस समय किया जब उग्र सत्याग्रहियों ने चौरी-चौरा में थाना जलाने की हिंसक वारदात की। इस इतिहास को जानने के लिए जो लोग किताब पढ़ने का कष्ट उठाने तैयार न हों, वे कम से कम गांधी फिल्म तो देख ही सकते हैं। दरअसल आज उनकी पुण्यतिथि पर इतना पर्याप्त नहीं है कि सुबह ग्यारह बजे दो मिनट का मौन रखा जाए या ऐसे ही प्रतीकों के माध्यम से उन्हें श्रध्दांजलि दी जाए। आज देश में गांधी का नाम लेकर जो छद्म चल रहा है, दुकानदारी की जा रही है, पाखंड हो रहा है और गांधी को मारने वाले तक उनका नाम लेकर राजनीतिक सत्ता हासिल करने की कोशिश कर रहे हैं, उसे समझने के लिए गांधी साहित्य को पढ़ने से बेहतर और क्या हो सकता है?

कितना अच्छा हो कि आज गांधी पर श्रध्दा रखने वाले हर परिवार में बड़े-बूढ़े घर के बच्चों को गांधी की आत्मकथा ''सत्य के प्रयोग'' के दो-चार पन्ने पढ़कर ही सुनाएं!! 

 
देशबंधु में 30 जनवरी 2014 को प्रकाशित

Wednesday 22 January 2014

'आप' की राह निराली




मेरा
हमेशा से मानना रहा है कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में असंतोष व असहमतियों का निराकरण संवैधानिक प्रक्रियाओं के तहत ही होना चाहिए। भारत के संविधान ने हमें एक तरफ प्रतिनिधि संस्थाएं दी हैं और दूसरी तरफ नागरिकों को यह अधिकार भी दिया है कि वे अहिंसक और शांतिपूर्ण रास्ते से आंदोलन कर सकें। दूसरे शब्दों में यदि जनता की आवाज निर्वाचित सदनों में अनसुनी की जा रही है, तो सड़क पर आने का विकल्प उसके सामने खुला हुआ है। देश में विभिन्न समुदाय अपने संगठन बनाते रहे हैं। औपचारिक व अनौपचारिक ढंग से आंदोलनों का एक लंबा चलता हुआ सिलसिला 1947 से अब तक देखा जा सकता है। जनांदोलनों की सफलता अथवा असफलता के अनेक उदाहरण सामने हैं। देश ने इन्हीं में से समय-समय पर नए नेतृत्व का उभार होते भी देखा है। जब-जब नया नेतृत्व उभरा है तब-तब देश की राजनीति में भी छोटे-बड़े परिवर्तन देखने भी मिले हैं। संक्षेप में कहा जा सकता है कि यदि प्रतिनिधि सदन और जनांदोलन दोनों संवैधानिक आदर्शों और मर्यादाओं का पालन करते चलें तो इससे भारतीय लोकतंत्र मजबूत ही होगा।

इस पृष्ठभूमि में आम आदमी पार्टी और अरविंद केजरीवाल दोनों का परीक्षण किया जाना सम्यक, समीचीन है। हाल के विधानसभा चुनावों में दिल्ली में आम आदमी पार्टी को स्पष्ट बहुमत न मिलने के बावजूद उसे मिला वोट प्रतिशत और सीटें यह सिध्द करने के लिए पर्याप्त थे कि दिल्ली का मतदाता अरविंद केजरीवाल के नेतृत्व में उभरी इस नई पार्टी में राजनीति की एक नई दिशा बनने की संभावना देख रहा था। मैं समझता हूं कि कांग्रेस पार्टी ने अपने बाहरी समर्थन से श्री केजरीवाल को सरकार बनाने का मौका देकर दिल्ली के मतदाताओं की इस जनतांत्रिक इच्छा का सम्मान ही किया। भारतीय जनता पार्टी इस बारे में चाहे जो आरोप लगाती रहे, उसके अपने कारण हैं, लेकिन एक नए प्रयोग को स्वयं को सिध्द करने का अवसर देना उचित ही था। यूं तो सबसे बेहतर प्रदर्शन के कारण सरकार बनाने का पहला हक भाजपा को मिला ही था, लेकिन उसे आशंका थी कि उसकी सरकार विश्वास मत में पराजित हो सकती थी। उसकी सरकार कांग्रेस विधायकों की खरीद-फरोख्त से ही बन पाना संभव था। भाजपा को इससे कोई परहेज भी नहीं होता। कर्नाटक, झारखंड और अन्यत्र उसने ऐसा पहले किया भी है, लेकिन आम आदमी पार्टी ने जो नया राजनीतिक वातावरण रचा उसमें ऐसा करने से भाजपा की बदनामी होती।

आम आदमी पार्टी ने सुदीर्घ विचार मंथन के बाद दिल्ली में सरकार बनाने का फैसला लिया। इतना समय तो सीपीआईएम के  पोलित ब्यूरो ने ज्योति बसु को प्रधानमंत्री न बनने देने का निर्णय लेने में भी नहीं लिया था। श्री केजरीवाल ने इस विचार मंथन की प्रक्रिया में जनमत संग्रह करने जैसे नाटकीय कदम भी उठाए। बहरहाल, जब एक बार तय हो गया था कि सरकार संभालना है तो सांकेतिक कदमों के साथ एक ठोस कार्य योजना बनाने पर भी उन्हें शीघ्रातिशीघ्र विचार करना चाहिए था। सार्वजनिक जीवन में सादगी और शुचिता लाने के लिए ''आप'' ने जो जो सांकेतिक कदम उठाए, उनमें से कुछ की मैं सराहना करता हूं। मसलन मोटर-कार पर लालबत्ती न लगाना, मंत्रियों की सुरक्षा में कटौती, छोटे मकान में आवास इत्यादि। लेकिन पहले दिन ही उनके दो सांकेतिक कदम ऐसे थे जिनमें सादगी की भावना कम, दिखावा यादा था। एक तो शपथ ग्रहण के लिए मैट्रो में आने से कोई बात नहीं बनती। यह कार्य सिर्फ दिखाने के लिए ही किया गया था। दूसरे रामलीला मैदान में भारी भीड़ के बीच में शपथ लेना भी एक प्रदर्शन ही था। श्री केजरीवाल और उनके साथी राजभवन में सादे समारोह में शपथ लेकर अपनी नई जिम्मेदारियां संभाल सकते थे।

यह आजकल का फैशन हो गया है कि विशाल जनसमूह की उपस्थिति में शपथ ग्रहण की जाए। इसकी शुरूआत 1977 में मोरारजी देसाई के नेतृत्व में जनता पार्टी सरकार ने की थी। अब यह चलन सब तरफ चल पड़ा है। इसमें होता यह है कि सत्तारूढ़ पार्टी के कार्यकर्ता स्वेच्छा से या दबाव से सभास्थल पर लाए जाते हैं। उन्हें संभालने में पुलिस और प्रशासन को मजबूरन अतिरिक्त काम करना पड़ता है। ऐसे अवसर पर मंत्रियों और वीआईपीजनों  को कोई कष्ट नहीं होता, लेकिन आम जनता के हिस्से में सिर्फ उड़ती हुई धूल आती है। असली फायदा होता है शामियाना और पंडाल लगाने वालों को। मैं नहीं समझता कि श्री केजरीवाल इस सच्चाई से वाकिफ नहीं थे। खैर! यह तो जो होना था हुआ। इसके बाद सरकार को जनाकांक्षा पूरी करने के लिए  जिस ठोस कार्ययोजना की जरूरत थी उसका क्या हुआ? अपने घोषणापत्र में समयबध्द कार्य सम्पन्न करने के जो वायदे किए गए थे उनका भी क्या हुआ? चलिए मान लेते हैं कि गैर-अनुभवी होने के कारण उन्हें नए सिरे से अपनी रीति-नीति एवं समय सीमाओं को संशोधित करने की जरूरत है तो क्या वे ऐसा कर रहे हैं?

श्री केजरीवाल को दिल्ली का शासन संभाले हुए साढ़े तीन सप्ताह बीत चुके हैं। ऐसा दिखाई तो देता है कि वे बहुत कुछ एक झटके में कर लेना चाहते हैं। वे और उनके मंत्री इसीलिए खलीफा हारून अल रशीद की तरह रात-बिरात सड़कों पर गश्त लगाते घूम रहे हैं। औरों की तो पता नहीं, स्वयं श्री केजरीवाल का स्वास्थ्य उन्हें ऐसी भाग-दौड़ करने की इजाजत नहीं देता है। टीवी पर नज़र आता है कि वे अपने स्वास्थ्य के प्रति लापरवाह हैं। इसे शायद वे अपनी बहादुरी मान रहे हैं, लेकिन यदि उनके जीवन में कोई बड़ा लक्ष्य है, तो वह खुद की सेहत की उपेक्षा करने से हासिल नहीं हो सकता। संभव है कि देश-विदेश में उनका जो गुणगान हो रहा है उससे वे प्रेरित ही नहीं, बल्कि उत्तेजित हैं। मेरी राय में उन्हें इस समय उत्तेजना की बजाय धैर्य व संयम से काम लेने की जरूरत है। हिन्दी कहावत कहूं तो यार-दोस्तों के कहने से ''चढ़ जा बेटा सूली पर'' के मनोभाव से उन्हें बचना चाहिए।

मैं श्री केजरीवाल के गुरु (?) अन्ना हजारे के उस कार्य का प्रशंसक था, जो उन्होंने अपने गांव रालेगांव सिध्दि में किया था। इससे उत्साहित हो वे मसीहा बनने की राह पर चल पड़े थे। इस राह में उन्हें श्री केजरीवाल जैसे समर्थक मिले। 2011 में दिल्ली में अन्ना हजारे ने जो आंदोलन किया उसका वर्णन दुबारा करने की यहां जरूरत नहीं है। मैंने उस वक्त भी श्री हजारे एवं उनके साथियों के आंदोलन की लगातार आलोचना की थी। वह आंदोलन मुझे स्वस्फूर्त होने की बजाय प्रायोजित लगा था। कालांतर में गुरु-शिष्य के बीच मतभेद उभरे यह समझ आया कि जो संघ परिवार अन्ना के आंदोलन को हवा दे रहा था वहीं उन्हें भाजपा के राजनीतिक दर्शन की ओर आकर्षित कर रहा था। यह बात धीरे-धीरे कर साफ भी हो रही है। उधर श्री केजरीवाल ने आंदोलन का रास्ता छोड़ एक राजनीतिक पार्टी खड़ी कर ली। इसका स्वागत इस रूप में हुआ कि अरविंद केजरीवाल के आने से देश की राजनीतिक जीवन में शुचिता बढ़ेगी, लेकिन अब जो हो रहा है उसे क्या समझा जाए?

श्री केजरीवाल दिल्ली में धरने पर बैठ गए। एक मुख्यमंत्री का सड़क पर धरने पर बैठना भारत के लिए अभूतपूर्व तो नहीं, लेकिन विचित्र सत्य अवश्य है। श्री केजरीवाल ने सोमवार को यह भी कहा कि- ''हां, वे अराजकतावादी हैं।'' यह दूसरा विचित्र सत्य है। एक मुख्यमंत्री चाहे कितने भी अतिवादी विचारों का हो वह एक राजनीतिक ढांचे का ही अंग है और इसलिए वह अराजक नहीं हो सकता। अगर श्री केजरीवाल को अपने अराजक होने पर इतना ही विश्वास है तो फिर उन्हें स्वेच्छा से मुख्यमंत्री पद त्याग देना चाहिए। आज वे जहां हैं वहां अपने सपनों को सच्चाई में बदलने के लिए उनके पास एक पूरा तंत्र मौजूद है, किन्तु जब वे उसी तंत्र के विरोध में सड़क पर आकर खड़े हो जाते हैं तो फिर वे सदन में बने रहने की अपनी पात्रता को संदिग्ध बना देते हैं। आम आदमी पार्टी के प्रमुख भाष्यकार योगेंद्र यादव व उनके समर्थक चाहे जो स्पष्टीकरण दें, आप सरकार अभी जो कुछ कर रही है उसमें संवैधानिक प्रक्रियाओं का निषेध ही दिखाई देता है।


देशबंधु में 23 जनवरी 2014 को प्रकाशित

Wednesday 15 January 2014

कांग्रेस : ठोस कदम उठाने की जरूरत




कांग्रेस
, भाजपा, आप- सबने आगामी लोकसभा चुनाव के लिए अपनी-अपनी कमर कसना शुरू कर दिया है। भारतीय जनता पार्टी ने तो काफी पहले से नरेंद्र मोदी के रूप में अश्वमेध यज्ञ का घोड़ा छोड़ रखा है। जिसकी भुजाओं में बल हो वह उसे रोककर बताए। आम आदमी पार्टी के नेता भी इस समय 'नाइन ओ क्लॉक' पुष्प की तरह रोशनी की पहली किरण पाकर प्रस्फुटित हो रहे हैं। कुमार विश्वास अमेठी जाकर ताल ठोंक आए हैं। जीवन भर के संघर्षों से थकी मेधा पाटकर ने भी अपनी नाव 'आप' के घाट बांध ली है। कल के कम्युनिस्ट कमल मित्र चिनाय ने आज 'आप' की टोपी पहन ली है। यह सब अभी चलेगा। दूसरी पार्टियां भी पीछे नहीं हैं। नीतीश कुमार थोड़े समय पहले तक प्रधानमंत्री बनने की संभावना में इठला रहे थे, वे फिलहाल शांत हैं, लेकिन सुश्री जयललिता ने तो अपनी उम्मीदवारी का खुला ऐलान कर ही दिया है। नवीन पटनायक मन ही मन मंसूबे बांध रहे हैं। सुश्री मायावती भी दौड़ में शामिल हैं और उनके चिरशत्रु मुलायम सिंह यादव की बेताबी किसी से छिपी हुई नहीं है। मायावती अपनी ताकत पर लड़ेंगी। हो सकता है कि कांग्रेस के साथ उनका गठजोड़ कायम रहा आए। मुलायम सिंह अपने बेटे से ज़यादा आजम खान और
राजा भैया  के बल पर अखाड़े में उतरेंगे। शरद पवार और लालू प्रसाद की भी महत्वाकांक्षाएं हैं। लालूजी जहां कांग्रेस के साथ रहेंगे वहीं पवार साहब आखिरी वक्त तक अपने पत्ते नहीं खोलने वाले। ममता बनर्जी भी शायद देखेंगी कि उनकी भलाई किसके साथ जाने में होगी और कौन उनको साथ देगा।

यह सब तो ठीक है, लेकिन भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस कहां है? पत्रकारों और प्रोफेसरों की मानें तो कांग्रेस के सामने अब कोई भविष्य नहीं है। भाजपा भी यही कह रही है। पांच में से चार राज्यों में विधानसभा चुनाव हारने के बाद कांग्रेस की स्थिति सचमुच दुर्बल नजर आती है। इस समय कांग्रेस का यह तर्क बिल्कुल भी काम नहीं कर रहा कि बारह राज्यों में उसकी सरकार है जबकि भाजपा की सिर्फ पांच में। कांग्रेस ने छह महीने पहले ही तीन विधानसभाएं भाजपा से छीनीं। इस तथ्य को भी फिलहाल कोई गंभीरता से लेने के लिए तैयार नहीं है। यदि लोकसभा चुनाव सामने न होते तो शायद जनता को एक संतुलित राय बनाने का अवसर मिल गया होता, लेकिन अब उसके लिए समय कहां बचा है? कांग्रेस का यह तर्क भी बहुत सटीक नहीं है कि लोकसभा और विधानसभा में मतदाता की पसंद एक जैसे नहीं होती। 2009 में चार राज्यों के विधानसभा चुनाव के नतीजे जैसे आए थे
लगभग वे ही लोकसभा में  दोहराए गए थे।

8 दिसंबर 2013 को कांग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने पत्रकारों से मुखातिब होते हुए जोशीले शब्दों में घोषणा की थी कि वे कांग्रेस पार्टी को बदलकर रख देंगे। आज उस घोषणा को एक माह और एक सप्ताह बीत चुका है। इस बीच में कांग्रेस के युवा नेता ने ऐसा कोई बड़ा कदम नहीं उठाया जिससे लगे कि कांग्रेस बदलाव के लिए तैयार है। जो स्थिति आठ दिसंबर के पहले थी वही चली आ रही है। श्री गांधी को कांग्रेस की चाहे जितनी चिंता हो, लेकिन देश और प्रदेश में पार्टी के जो वरिष्ठ नेता हैं उनके चेहरे पर शिकन भी दिखाई नहीं देती। वे सब पहले की तरह अपने गुणा-भाग में लगे हुए हैं। इसका एक शोचनीय उदाहरण मध्यप्रदेश में देखने आया जहां नयी विधानसभा का पहला सत्र शुरू होते तक कांग्रेस में नेता प्रतिपक्ष के नाम पर सहमति नहीं बन पाई। छत्तीसगढ़ में भी इस तरह की जोड़-तोड़ देखने मिली। नेताओं के बीच आरोप-प्रत्यारोपों का सिलसिला जारी है। दिल्ली में जरूर कांग्रेस ने यह समझदारी दिखलाई कि आम आदमी पार्टी की सरकार बनने का रास्ता प्रशस्त किया, लेकिन मुंबई में संजय निरूपम जैसे वाचाल और प्रिया दत्त जैसी गंभीर नेता दोनों एक स्वर में 'आप' से प्रेरणा ग्रहण करने की बात कर रहे हैं, उसे एक प्रहसन ही माना जाना चाहिए।

बहरहाल, यदि राहुल गांधी सचमुच कांग्रेस में आमूल-चूल परिवर्तन लाना चाहते हैं तो इसके लिए कोरी बयानबाजी से काम नहीं चलेगा, और न छिटपुट कार्रवाईयों से। मसलन, पहले उन्होंने छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल को प्रदेश कांग्रेस की कमान  सौंपी, फिर दिल्ली में अरविंदर सिंह लवली को, फिर मध्यप्रदेश में अरुण यादव को और फिर राजस्थान में सचिन पायलट को। ये नई नियुक्तियां किश्तों में करने से कांग्रेस को क्या लाभ हुआ? क्या इससे आम जनता के बीच सही संदेश गया? इसके बजाय चारों हारे हुए प्रांतों में एक साथ नेतृत्व परिवर्तन किया जाता तो उसकी गूंज कुछ धमाकेदार होती व स्वयं कांग्रेसजनों को विश्वास होता कि पार्टी नेतृत्व स्थानीय नेताओं की नाकाबिलियत व मनमानी बर्दाश्त करने के लिए तैयार नहीं थे। यह कॉलम छपने के एक दिन बाद याने 17 जनवरी को कांग्रेस पार्टी कोई नई कार्ययोजना लेकर आएगी। इस बारे में काफी कयास लगा रहे हैं। इसे देखते हुए हम कहेंगे कि राहुल गांधी को कुछ कठोर निर्णय एकबारगी ही ले लेना चाहिए।

कांग्रेस भले ही देश की सबसे पुरानी पार्टी हो, लेकिन उसके शीर्ष नेतृत्व को याद रखना चाहिए कि बदलते हुए समय के साथ नए औजारों की भी जरूरत होती है। जिस तरह से गद्दे-तकिए वाली बैठकों की जगह टेबल-कुर्सी ने ले ली है वैसे नए वातावरण में और क्या आवश्यकताएं हैं यह समझना कांग्रेस के लिए बेहद जरूरी है। हम याद दिलाना चाहेंगे कि आज के दौर में वांछित हो या अवांछित, मीडिया राजनीति में एक बड़ी हद तक हस्तक्षेप कर रहा है। इसके लिए कांग्रेसजनों का मीडिया से बातचीत करने का तौर-तरीका बदलना आवश्यक नहीं बल्कि अनिवार्य है।  मीडिया का जो वर्ग कांग्रेस हितैषी है वह भी परेशान है कि कांग्रेस के शीर्ष नेता मीडिया से दूरी बनाकर रखते हैं। इसमें कांग्रेस का जो नुकसान हुआ है उसका आकलन शायद तीनों बड़े नेताओं ने नहीं किया।

इस तथ्य को जानकर कांग्रेस को अपने सारे वर्तमान प्रवक्ताओं को टीवी के परदे से हटा लेना चाहिए। जब भाजपा के प्रवक्ता प्रहार करते हैं और सूत्रधार उनका साथ देते हैं तब संजय झा जैसे प्रवक्ताओं को समझ ही नहीं आता कि वे क्या बोलें। कपिल सिब्बल, मनीष तिवारी, अभिषेक सिंघवी इत्यादि तो हर समय मानो अपनी वकालत चमकाने के फेर में ही रहते हैं। दूसरी बात यह भी है कि कांग्रेस प्रवक्ता एक स्वर में बात नहीं करते। वे शायद अपना होमवर्क करके भी नहीं आते। जिसके मन में जो आया कह दिया। सचिन पायलट और आर.पी.एन. सिंह जैसे दो-चार युवा नेता ही हैं जो अपना पक्ष संजीदगी के साथ सामने रखते हैं। अगर राहुल गांधी यह बदलाव ला सके तो पार्टी के लिए अच्छा होगा। इसके अलावा मैं समझता हूं कि श्री  गांधी को अब चुनाव तक सप्ताह में कम से कम एक दिन पत्रकारों से सीधे बात करना चाहिए।  फिर वे चाहे दिल्ली में हों या मुंबई में।

राहुल गांधी को हमारी दूसरी बिन मांगी सलाह है कि वे पार्टी के लगभग सभी बुजुर्ग नेताओं को अवकाश पर भेज दें। छत्तीसगढ़ में अजीत जोगी तो अगले एक साल भजन कीर्तन और लिखने-पढ़ने में बिताने की घोषणा कर चुके हैं। भारतीय परंपरा कहती है कि जब बेटे के पांव पिता के जूतों में आने लगें तब वानप्रस्थ आश्रम में चले जाना चाहिए। श्री गांधी इसे एक आदर्श की तरह पार्टी के अन्य नेताओं के सामने रख सकते हैं और उन्हें पूर्ण सन्यास न सही, अवकाश लेने के लिए प्रेरणा दे सकते हैं। अगर यह संभव न हो तब भी कांग्रेस के युवा नेता को इतना तो करना ही चाहिए कि सारे मुखर नेताओं को सार्वजनिक रूप से बयान देने से प्रतिबंधित कर दिया जाए और जो न माने उसे निलंबित करने का साहस दिखाया जाए।

हम यह भी चाहेंगे कि राहुल गांधी एक नई-नवेली टीम लेकर मैदान में उतरें। अभी उन्होंने चार प्रांतों में प्रदेश अध्यक्ष बदले हैं, लेकिन क्या अन्यत्र पार्टी की स्थिति बेहतर है? रमेश चेन्नीथला को केरल में मंत्री बनाना क्यों जरूरी था? उत्तर प्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र, पं. बंगाल इन सबमें कांग्रेस की क्या स्थिति है? भारतीय जनता पार्टी के मुकाबले कांग्रेस में नई पीढ़ी में क्षमतावान युवा कहीं ज़यादा हैं। इनको साथ लेकर चलने से राहुल गांधी की अपनी छवि में निखार आएगा। आम आदमी पार्टी की ओर जिस तरह से पेशेवर लोग, विशेषकर युवा आकर्षित हो रहे हैं उसकी भी काट यही है कि कांग्रेस में स्वच्छ छवि के नए लोगों को आगे लाया जाए। एक तरफ नंदन निलेकनी, दूसरी तरफ मीनाक्षी नटराजन, एक तरफ टी.एस. सिंहदेव दूसरी तरफ सचिन पायलट और प्रिया दत्त। ऐसे नेताओं को पार्टी अग्रपंक्ति में स्थान दें तो एक सौ अठाइस साल पुरानी पार्टी को संजीवनी मिल सकेगी।

 
देशबंधु में 16 जनवरी 2014 को प्रकाशित

Thursday 9 January 2014

'आप' की सादगी और अन्य बातें



आज
की शुरुआत आम आदमी पार्टी की दिल्ली सरकार के उस निर्णय के जिक्र से जिस पर न जाने क्यों समाज के किसी भी वर्ग ने बहुत अधिक ध्यान नहीं दिया, जबकि मेरी राय में वह इस सरकार का पहला बड़ा और ठोस कदम था। पाठकों को संभवत: स्मरण हो कि सरकार संभालने के तुरंत बाद मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने सिपाही विनोद कुमार के परिवार को एक करोड़ रुपए की बड़ी राशि क्षतिपूर्ति के रूप में देने का आदेश जारी किया था।  खतरे के बीच अपनी डयूटी निभाते हुए सिपाही विनोद कुमार असामाजिक तत्वों के द्वारा मारा गया था। निर्णय इसलिए बड़ा था क्योंकि इसमें पुलिस के मनोबल बढ़ने की बड़ी संभावना छिपी हुई है वरना प्रदेशों में पुलिस के जो हालात हैं वे किसी से छिपे हुए नहीं हैं। अपनी डयूटी निभाते हुए पुलिस कदम-कदम पर मौजूद खतरों से तभी जूझ सकता है जब उसे विश्वास हो कि कोई अनहोनी हो गई तो बाद में परिवार को दुर्दशा नहीं झेलना पड़ेगी। मैं समझता था कि प्रकाश सिंह, वेद मरवाह और किरण बेदी जैसे मुखर पुलिस अधिकारी तो इस बारे में बोलेंगे, लेकिन मेरे देखे-सुने में उनका कोई बयान नहीं आया।

मजे की बात यह है कि अरविंद केजरीवाल व आम आदमी पार्टी की उन नीतियों और निर्णयों की ज्यादा चर्चा हो रही है, जो किसी हद तक प्रतीकात्मक हैं और जिन्हें क्रियान्वयन की कसौटी पर खरा उतरना अभी बाकी है। मुख्यमंत्री और उनके सहयोगी खुद के लिए ''आम आदमी'' की संज्ञा धारण करने के साथ-साथ बार-बार  ''हम तो छोटे लोग हैं'', ''हम तो सड़क के आदमी हैं'' जैसे जुमलों का इस्तेमाल भी कर रहे हैं। मैं नहीं समझ पाता कि अपने आपको इतना दीन-हीन जतलाने की क्या जरूरत है! श्री केजरीवाल के लिए यह उचित होगा कि वाक् चातुरी को छोड़कर इस पर ध्यान दें कि वे और उनके साथी निराभिमानी व विनम्र रहते हुए सादगी के अपने एजेंडे को ईमानदारी से लागू करने के लिए काम करते रहें। आखिरकार जनता ने आपको चुना इसलिए है कि अन्य पार्टियों की तरह आपकी कथनी और करनी में अंतर नहीं होगा!

अभी इस बात पर हो-हल्ला हुआ कि 'आप' के मंत्री सरकारी गाड़ियों में चलने लगे हैं। इस पर भी कि मुख्यमंत्री को आधिकारिक आवास के लिए बड़े मकान की जरूरत क्यों पड़ी? दोनों मुद्दों पर आपत्ति  अनावश्यक थी। मुख्यमंत्री बहुत बड़े बंगले में न रहें यहां तक तो ठीक है, लेकिन उस पद पर बैठे व्यक्ति को अपनी शासकीय जिम्मेदारी के तहत जितने लोगों से मिलना होता है उसे देखते हुए पांच कमरे का मकान बड़ा नहीं, पर्याप्त ही माना जाना चाहिए। मुख्यमंत्री के निवास से लगकर यदि एक आवासीय कार्यालय भी है तो वह भी विलासिता नहीं, बल्कि आवश्यकता है। देश की राजधानी दिल्ली के मुख्यमंत्री से भेंट करने देश-विदेश से लोग आते हैं। इनसे मुख्यमंत्री कहां मिलेंगे? उन्हें शिष्टाचार के निर्वाह के लिए शासकीय स्तर पर भोज भी देना होंगे। इसकी व्यवस्था वे कहां करेंगे? श्री केजरीवाल ने अपने दामन पर कोई दाग न लगे इस नाते तुरंत ही और छोटे मकान की तलाश शुरु कर दी है, लेकिन इसमें कोई बहुत बुध्दिमानी नहीं है।

शासकीय वाहन की बात करें। मुख्यमंत्री अपनी वैगन आर में चल रहे हैं। अच्छी बात है। दिल्ली की भीड़ भरी सड़कों पर छोटे वाहन में चलना ठीक ही है। इनके साथियों को इनोवा गाड़ियां दी गई हैं। जाहिर है कि दिल्ली सरकार के गैराज में ये गाड़ियां रही होंगी जो पुराने से नए मंत्रियों के  पास आ गई हैं। इनका इस्तेमाल करने में कोई बुराई नहीं है।  गैराज में रखे धूल खाने से बेहतर है कि गाड़ियां चलती रहें लेकिन आगे के लिए सरकार इतना जरूर तय कर सकती है कि बड़ी गाड़ियों के बदले छोटी, कम खर्चीली व बेहतर मायलेज देने वाली गाड़ियां ही खरीदी जाएंगी। ऐसा करने से यह भी होगा कि दिल्ली के अफसरान भी छोटी गाड़ियों में चलने की आदत डाल लेंगे, लेकिन यह पर्याप्त नहीं है। मुख्यमंत्री सादगी की प्रतीकात्मकता को यदि स्थायी वास्तविकता में बदलना चाहते हैं तो उन्हें सुनीता नारायण व दिनेश मोहन जैसे विशेषज्ञों से सलाह कर सार्वजनिक यातायात, सायकिल व फुटपाथ- इनके बारे में विचार करना होगा।

बहरहाल, सादगी की चर्चा करते हुए यह नहीं भूलना चाहिए कि भारत ने राजनेताओं में ऐसी सादगी पहली बार नहीं देखी है। इतिहास में जाने से पहले वर्तमान की बात करें तो दो प्रखर उदाहरण सामने है-त्रिपुरा के माणिक सरकार और पश्चिम बंगाल की ममता बनर्जी। त्रिपुरा में वामपंथी  मुख्यमंत्री हैं इसलिए उनका सादा जीवन अस्वाभाविक नहीं है, लेकिन ममता बनर्जी तो कांग्रेस से निकलकर आई हैं। गो कि कांग्रेस में मध्यप्रदेश की सांसद मीनाक्षी नटराजन जैसे उदाहरण सामने हैं। यदि अरविंद केजरीवाल ने ममता बनर्जी को सादगी से कहीं प्रेरणा ग्रहण की हो तो उन्हें शायद यह भी पता हो कि सूती साड़ी, हवाई चप्पल और रूखे व्यवहार वाली ममता बंगाल की सांस्कृतिक परंपराओं से न सिर्फ सुपरिचित हैं बल्कि वे अपने प्रदेश के लेखकों, कलाकारों व संस्कृतिकर्मियों का हर संभव सम्मान करती हैं। 'ममता' और 'आंधी' जैसी फिल्मों की नायिका अस्सी वर्षीय सुचित्रा सेन ने पिछले तीस साल से अपने आपको बाहरी दुनिया से काट लिया है, लेकिन जब ममता बनर्जी ने उनसे मिलने की इच्छा प्रकट की तो अस्पताल में दाखिल सुचित्रा सेन ने उन्हें मना नहीं किया।

जिन लोगों को इतिहास का ज्ञान नहीं है अथवा जो अपने राजनैतिक विचारों के अनुरूप इतिहास की मनमानी व्याख्या करते हैं, उनकी बात क्या करें; सुधीजन जानते हैं कि स्वतंत्र भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू का अपने शयन कक्ष में एक खड़खड़िया टेबल फैन से काम चल जाता था। इंदिराजी ने उनको बिना बताए नया पंखा लगा दिया तो उन्होंने उसे लौटा दिया। वे अपने मेहमानों का सत्कार उस समय मिलने वाले अल्प वेतन से नहीं कर पाते थे और इसलिए उन्होंने संसद में अपील की थी कि उनका वेतन कुछ बढ़ा दिया जाए, क्योंकि उनके पास आय का कोई दूसरा जरिया नहीं था। पंडित नेहरू के अनन्य सहयोगी वी.के. कृष्ण मेनन के बारे में भी क्या-क्या नहीं कहा गया, लेकिन लंदन में उच्चायुक्त रहते हुए श्री मेनन अपने दफ्तर की टेबल पर ही सो जाते थे। क्या ये तथ्य जानने में श्री केजरीवाल को कोई दिलचस्पी होगी?

मैंने ऊपर माणिक सरकार का जिक्र किया है। दरअसल, सभी वामपंथी पार्टियों के नेताओं के लिए सादा जीवन उनकी जीवन शैली का अनिवार्य अंग है। वे इसका ढिंढोरा नहीं पीटते। योति बसु मुख्यमंत्री पद पर रहते हुए सीटू के अधिवेशन में भाग लेने के लिए भिलाई आए। उन्हें लेने सरकारी गाड़ी स्टेशन गई। ज्योति बाबू ने उसे वापिस कर दिया और मजदूर संगठन के लोग जिस खटारा गाड़ी में स्टेशन पहुंचे थे, वे उसमें बैठे। बात साफ थी-मैं यहां मुख्यमंत्री की हैसियत से किसी सरकारी कार्यक्रम में नहीं आया हूं। इस तरह 2009 में पश्चिम बंगाल के सीपीआई के मंत्री श्रीकुमार मुखर्जी रायपुर आए तो उन्होंने भी सरकारी गाड़ी स्टेशन से ही लौटा दी। वे जिस कार्यक्रम में आए थे, उसके आयोजकों ने जिस साधारण होटल में अन्य प्रतिनिधियों को रुकवाया था, श्रीकुमार भी वहीं रुके।  ए.बी. वर्ध्दन, डी. राजा, गुरुदास दासगुप्ता इत्यादि भी कभी सुख-सुविधा के मोहपाश में नहीं फंसते।

पश्चिम बंगाल में ज्योति बाबू के बाद मुख्यमंत्री बने बुध्ददेव भट्टाचार्य भी अपनी सादगी के लिए जाने जाते हैं। लेकिन इस मामले में केरल का कोई मुकाबला नहीं है। वहां कांग्रेस हो, या वाममोर्चा- दोनों की लोकतंत्र में जैसी गहरी आस्था है और आचरण में जो सादगी है वह अन्यत्र दुर्लभ है। ई.एम.एस. नम्बूदरीपाद से लेकर वर्तमान मुख्यमंत्री  ओमन चांडी तक यह सिलसिला बना हुआ है। सीपीआई के सी.के. अच्युत मेनन तो भारत के ऐसे पहले मुख्यमंत्री थे, जिन्होंने स्वास्थ्य का हवाला देकर स्वेच्छा से पद छोड़ दिया था। केरल के अफसरों में भी सादे जीवन की झलकियां देखी जा सकती हैं। इधर बिहार के समाजवादी मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर का स्मरण अनायास हो आता है, जिन्होंने सचिवालय में वीआईपी लिफ्ट को आम जनता के लिए खोल दिया था। महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री सुधाकर राव नाइक को सपत्नीक व बसपा के संस्थापक कांशीराम को अकेले मैंने विमानतल पर सामान्य यात्रियों के साथ लाइन में खड़े होते देखा है और अपने छत्तीसगढ़ चंदूलाल चंद्राकर को भी, जबकि वे स्वयं नागरिक उड्डयन मंत्री थे। कांग्रेस के ही रामचंद्र सिंहदेव छह बार विधायक व मंत्री रहने के बाद भी एक साधारण से क्वार्टर में रहते हैं।

ए.के. एंटोनी का जिक्र किए बिना यह चर्चा खत्म नहीं हो सकती। वे मुख्यमंत्री थे, तब भी उनकी पत्नी अपनी नौकरी पर बस से जाती थीं। श्री केजरीवाल ने जरूर अपनी गाड़ी में लालबत्ती लगाने से मना कर दिया है, लेकिन किसी पत्रकार को पता करना चाहिए कि उनकी पत्नी किस गाड़ी में यात्रा करती हैं। कुछ दिन पहले श्री केजरीवाल के सहयोगी कुमार विश्वास रायपुर में बता गए कि उनकी बेटी डीपीएस में पढ़ती है। 'आप' के नेतागण सोचें कि क्या यह सादगी के मूलमंत्र के अनुरूप है?




देशबंधु में  09 जनवरी 2014 को प्रकाशित

 

Wednesday 1 January 2014

क्या अमेरिका भारत का दोस्त है?

अमेरिका की धरती पर भारतीय राजनयिक देवयानी खोब्रागडे क़ी गिरफ्तारी का प्रसंग दुर्भाग्यपूर्ण है, किन्तु वह भारत को अमेरिका के साथ अपने संबंधों पर नए सिरे से सोचने का अवसर भी देता है। बशर्ते भारत ऐसा करने के लिए तैयार हो।

भारत और अमेरिका के संबंध आज के नहीं हैं। भारत जब अंग्रेजों की गुलामी झेल रहा था तब भी भारत में एक वर्ग ऐसा था जिसके मन में अमेरिका के प्रति एक नई संभावनाओं का देश होने का आकर्षण था। मुझे अगर ठीक से पता है तो पिछली सदी के प्रारंभ में ही पंजाब से कुछ किसान उस दौर में यात्रा की तमाम तकलीफें उठाकर कैलिफोर्निया पहुंचे थे और वहां खेती शुरू की थी। यह शायद प्रथम विश्वयुध्द के पहले का समय था जब पासपोर्ट का आविष्कार नहीं हुआ था। इन किसानों के परिवार में ही सरदार दलीप सिंग सोंढ हुए थे जो संभवत: 1950 के दशक में कैलिफोर्निया प्रांत की विधानसभा  के लिए चुने गए थे। यह इतिहास का एक रोचक प्रसंग है, यद्यपि आज के विषय से इसका कोई विशेष संबंध नहीं है। प्रसंगवश यह जिक्र भी कर देना चाहिए कि राष्ट्रपिता महात्मा गांधी को अपना जीवन दर्शन विकसित करने में जिन महान व्यक्तियों से प्रेरणा मिली, उनमें से एक हेनरी डेविड थोरो अमेरिकी ही थे।


भारत के स्वाधीनता संग्राम के पन्ने पलटने से ज्ञात होता है कि अमेरिका में बड़ी संख्या में ऐसे उदारवादी राजनीतिज्ञ एवं बुध्दिजीवी थे, जो भारत के साथ सहानुभूति रखते थे और चाहते थे कि उसे शीघ्रातिशीघ्र परतंत्रता की बेड़ियों से मुक्ति मिले। इनमें अमेरिका के महान राष्ट्रपति फ्रेंकलिन डी रूजवेल्ट भी थे, जो इस बारे में ब्रिटिश सरकार पर अपनी ओर से दबाव डालते रहे। महात्मा गांधी को जहां अश्वेत अमेरिकी नेता बुकर टी वाशिंगटन ने गहरे रूप से प्रभावित किया था, वहीं मार्टिन लूथर किंग (जूनि) का पूरा जीवन ही गांधीजी से प्रेरित था। अमर अश्वेत गायक एवं मानवाधिकार कार्यकर्ता पॉल रॉब्सन पंडित नेहरू के आत्मीय मित्र थे तथा जब विजयलक्ष्मी पंडित की बेटियां अमेरिका पढ़ने के लिए गईं तो श्रीमती रॉब्सन को पंडितजी ने उनका अभिभावक नियुक्त किया, क्योंकि तब रॉब्सन जेल में थे। भारत में अमेरिकी राजदूत रहे सुप्रसिध्द अर्थशास्त्री जॉन केनेथ गॉलब्रेथ भी नेहरू जी के व्यक्तिगत मित्र थे। मुझे यह भी याद आता है कि एक अन्य अमेरिकी राजदूत चेस्टर बोल्स की बेटी सिंथिया ने ''भारत मेरा घर'' नाम से अपने संस्मरणों की पुस्तक प्रकाशित की थी।


ऐसे उदाहरणों से एकबारगी लगता है कि भारत और अमेरिका के बीच संबंध बेहद सौहार्द्रपूर्ण होना चाहिए लेकिन वस्तुस्थिति इस सदेच्छा के एकदम विपरीत है। बीसवीं सदी में अमेरिका का उदय एक महाशक्ति के रूप में हो रहा था। द्वितीय विश्वयुध्द समाप्त होते न होते उसने यह स्थान मुक्कमल तौर पर हासिल कर लिया था, जबकि ब्रिटिश साम्राय बिखरने की कगार पर पहुंच चुका था। यही समय था जब अमेरिका को लगा कि सारे विश्व को उसके सामने सिर झुकाना चाहिए। इसमें अडचन इस बात की थी कि सोवियत संघ दूसरी महाशक्ति के रूप में सामने था तथा आगे-पीछे चीन के उभरने की संभावनाएं भी दिखने लगी थीं। इस नाते अमेरिका के लिए यह जरूरी था कि वह रूस, चीन व साम्यवाद  को आगे बढ़ने से रोके ही नहीं, बल्कि उन्हें तोड़ कर रख दे।


अपनी इस वैश्विक परियोजना के लिए अमेरिका को दुनिया के अलग-अलग कोनों में सहयोगियों की जरूरत थी। उस समय दक्षिण अमेरिका या लैटिन अमेरिका लगभग उसकी मुट्ठी में था, यूरोप को द्वितीय विश्व युध्द के ध्वंस के बाद पुनर्निर्माण के लिए अमेरिकी पूंजी दरकार थी, उसने चीन के बजाय ताइवान को संयुक्त राष्ट्र का स्थायी सदस्य बनाया, मध्य पूर्व में इजराइल के रूप में उसका एक एजेंट देश स्थापित हो चुका था, सुदूर जापान भी युध्द के बाद शक्तिहीन था; इस परिदृश्य में अमेरिका को बस, दक्षिण एशिया के विशाल भू-भाग पर एक कठपुतली देश की जरूरत थी। उसे मालूम था कि जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में भारत कभी भी उसका ताबेदार नहीं बनेगा। इसलिए उसने एक तरफ काश्मीर को स्वतंत्र देश बनाने की भूमिका रची, वहीं उसने पाकिस्तान को शुरू से ही अपने चंगुल में ले लिया। अब वह पाकिस्तान में अपने पैर जमाकर वहां से एक तरफ चीन, दूसरी तरफ रूस और तीसरी तरफ ईरान, इराक आदि पर नज़र  रख सकता था। 


1947 से लेकर अब तक का घटनाचक्र बतलाता है कि विश्व में अपनी दादागिरी स्थापित करने के चक्कर में अमेरिका ने भारत को कभी भी अपना मित्र नहीं माना। उसने संयुक्त राष्ट्र संघ में काश्मीर के मसले पर हमेशा भारत का विरोध किया, बंगलादेश मुक्ति संग्राम के दौरान उसने भारत के साथ दुश्मनों जैसा बर्ताव किया, उसकी गुप्तचर संस्था सीआईए ने भारतीय विमान ''काश्मीर प्रिंसेस'' को विस्फोट से उड़ाकर भारत-चीन के बीच दुश्मनी पैदा करने की कोशिश की और जब कभी भारत के प्रति सहायता का हाथ बढ़ाया तो सिर्फ ऐसे मौकों पर जब उसे ऐसा करने में अपना फायदा प्रतीत हुआ। पंडित नेहरू और इंदिरा गांधी अमेरिका के इन मंसूबों को भलीभांति समझते थे। इसलिए उन्होंने कभी भी अमेरिका के साथ अपने संबंधों में कोई उतावलापन नहीं दिखाया।


इस तस्वीर का एक दूसरा पहलू है। भारत को स्वाधीनता के बाद अपने नवनिर्माण में यदि किसी देश ने सबसे यादा सहायता दी, वह भी उदार और निशर्त, तो वह सोवियत संघ था। काश्मीर के प्रश्न पर उसने अपने वीटो का इस्तेमाल हमेशा भारत के पक्ष में किया, उसने भिलाई इस्पात संयंत्र स्थापित करने में भरपूर मदद की, बुदनी (म.प्र.) का ट्रेक्टर प्रशिक्षण केन्द्र और सूरतगढ़ (राज.) का सामुदायिक कृषि फार्म जैसी संस्थाएं उसके सहयोग से स्थापित हुईं, उसने विदेशी मुद्रा के बदले हमसे रुपयों में सौदा किया, भले ही भारतीय मुद्रा की उसे कोई जरूरत नहीं थी। सैन्य सामग्री में भी सोवियत संघ ने भारत की मदद की। इस सबके बावजूद यह विडंबना ही कही जाएगी कि भारत के सुखी-सम्पन्न-स्वार्थी तबके ने सोवियत संघ को अपना मित्र नहीं माना, बल्कि हर मौके पर उसका मखौल उड़ाया और जो अमेरिका भारत को अपने पैरों तले रखना चाहता है उसकी चरण-धूलि अपने माथे पर लगाकर यह वर्ग विभोर होते रहा।


एक पल के लिए भारत और लैटिन अमेरिका के देशों की तुलना करके देखें। दक्षिण अमेरिका के अधिकतर देश अभी हाल तक ''बनाना रिपब्लिक'' के रूप में जाने जाते थे। केले का बहुतायत उत्पादन करने वाले इन देशों की राजनीति, अर्थनीति और सैन्यनीति पर अमेरिका का ही नियंत्रण था, लेकिन इन देशों के नागरिकों ने लंबे समय तक इस दासता को स्वीकार नहीं किया। क्यूबा के फिडेल कास्त्रो से प्रेरणा लेकर इन देशों ने स्वयं को अमेरिकी प्रभाव से मुक्त किया और आगे बढ़ने के लिए अपना रास्ता खुद तय करना शुरू किया। इसके लिए उन्होंने अनगिनत कुर्बानियां भी दीं, लेकिन इसके विपरीत भारत में क्या हो रहा है? इस देश के नौजवान आईआईटी, आईआईएम और अन्य संस्थाओं से पढ़कर अमेरिका की ओर भागे जा रहे हैं कि मानो मुक्ति वहां जाकर ही मिलेगी। जिनके पास यादा साधन है वे तो अपने बच्चों की पढ़ाई अमेरिका में ही करवाते हैं। ये जब कभी हिन्दुस्तान आते हैं तो आते साथ बीमार पड़ जाते हैं। इन्हें इस बात से कोई मतलब नहीं है कि अमेरिका ने एक राजनीतिक शक्ति के रूप में भारत के साथ कैसा व्यवहार किया है। दूसरे शब्दों में, इस स्वार्थी समाज के लिए देश कोई मायने नहीं रखता, अपनी सुख-सुविधा ही इनके लिए सर्वोपरि है। श्रीकांत वर्मा की एक प्रसिध्द कविता पंक्ति है - ''दोस्तो! देश को खोकर प्राप्त की है मैंने कविता''। इस पंक्ति को बदलकर कहना होगा कि-''हिंदुस्तानियों! देश को खोकर मैंने प्राप्त की है अमेरिका की चाकरी।''


आज यदि अमेरिका ने देवयानी खोब्रागड़े को गिरफ्तार करने का दु:साहस दिखाया है तो उसकी वजह यही है कि अमेरिका जानता है कि भारत में उसके क्रीतदास इस व्यवहार को बर्दाश्त करने या उसकी अनदेखी करने, बल्कि इस मामले में अमेरिका का समर्थन करने तक के लिए तैयार बैठे हैं। हमारे लिए मानो एक सौ नब्बे साल की गुलामी का अनुभव पर्याप्त नहीं था इसीलिए हमने एक बार फिर खुशी-खुशी अपने को गुलाम बनाने के लिए अमेरिका के हाथों सौंप दिया है।


देशबंधु में 02 जनवरी 2014 को प्रकाशित

दिल्ली में विश्वास मत

दिल्ली के नए मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल व उनकी अपनी आम आदमी पार्टी को तीन जनवरी को विधानसभा में विश्वासमत हासिल करना होगा। क्या वे इस परीक्षा में सफल हो पाएंगे? यह सवाल इसलिए कि स्वयं श्री केजरीवाल व उनके सहयोगी बार-बार इस बारे में शंका प्रकट कर रहे हैं। यह शंका स्वाभाविक भी हो सकती है या फिर अपनी नैतिक श्रेष्ठता सिध्द करने की पूर्व-पीठिका! यह तो सबको पता है कि ''आप '' सरकार के पास बहुमत नहीं है। इस नाते उसे गिरा देना कोई मुश्किल बात नहीं है किन्तु जिस पार्टी के बाहरी समर्थन से आप सरकार बनने का मार्ग प्रशस्त हुआ वह भला उसे क्यों गिराना चाहेगी? क्या सिर्फ इसलिए कि एक बार विश्वास मत हासिल हो जाने के बाद अगले छह महीने तक अविश्वास प्रस्ताव लाना संभव नहीं होगा और इस बीच में लोकसभा चुनाव आ जाएंगे? 

अभी जैसा माहौल है एवं जैसी चर्चाएं सबेरे-शाम चल रही हैं उसमें शायद कांग्रेस पार्टी को यह शंका फिलहाल हो कि अगर 'आप' सरकार टिक गई तो लोकसभा चुनाव में वह ज़यादा ताकत के साथ उभरकर कांग्रेस को नुकसान पहुंचा सकती है। यह दूर की कौडी है। अगर 'आप' सरकार टिकती है तो उसके सामने अगले कुछ हफ्तों में अपने वायदों और कार्यक्रमों पर खरा उतरने की कड़ी चुनौती होगी। वह अगर अपनी घोषणाओं को अमल में ला पाती है तभी लोकसभा चुनावों के समय उसे मतदाताओं का विश्वास हासिल हो पाएगा। अगर वह असफल होती है तो दिल्ली में एक बार फिर कांग्रेस और भाजपा ही आमने-सामने होंगे। ऐसी स्थिति उत्पन्न हो इसके बजाय कांग्रेस के लिए फिलहाल शायद यही बेहतर है कि केजरीवाल मैदान में बने रहें ताकि कांग्रेस-विरोधी वोटों का ध्रुवीकरण न हो सके। 


कांग्रेस ने 'आप' को समर्थन देकर एक सही कदम उठाया है। वह जनभावना के अनुकूल था। यदि कांग्रेस समर्थन न देती तो दोबारा चुनाव की नौबत आ जाती जिसे न तो मतदाता पसंद करते, न स्वयं कांग्रेस के विधायक। वैसे तो भाजपा के बत्तीस विधायकों को भी कांग्रेस का शुक्रगुजार होना चाहिए कि उसने उन्हें दुबारा चुनाव मैदान में जाने से बचा लिया। बहरहाल, कांग्रेस ने अभी तक ऐसा कोई संकेत नहीं दिया है कि वह विश्वास प्रस्ताव का समर्थन नहीं करेगी। इस लिहाज से अरविंद केजरीवाल की शंका बेबुनियाद ही प्रतीत होती है। श्री केजरीवाल की राजनीति क्या है इसके बारे में अभी हमें कुछ भी नहीं पता। उनका सबसे बड़ा मुद्दा भ्रष्टाचार के खिलाफ संघर्ष का है।  संभव है कि दिल्ली में उसका असर हुआ हो, लेकिन मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के मतदाताओं ने भ्रष्टाचार को मुद्दा नहीं माना, यह स्पष्ट है। 


ठोस राजनीतिक प्रश्नों पर श्री केजरीवाल के विचार शायद आगे चलकर स्पष्ट हों, लेकिन योगेन्द्र यादव और प्रोफेसर आनंद कुमार जैसे उनके साथियों को देखकर अनुमान होता है कि वे यूरोपीय समाजवादी ढांचे से प्रभावित हैं। मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्य सचिव शरतचंद्र बेहार को अपना सलाहकार बनाने का प्रस्ताव भी इसी सोच से प्रभावित है। एक मुकम्मल राय के बदले दिल्ली को एक शहर की शक्ल में देखें तो 'आप' पार्टी के एजेंडा में बहुत से लोक-लुभावन तत्व हैं। इनमें से कुछ को दिग्विजय सिंह ने मध्यप्रदेश में आधे-अधूरे मन से बल्कि सिर्फ प्रसिध्दि पाने के लोभ में लागू किया था! उन्हें 'स्टॉकहोम चैलेंज अवार्ड' जैसा अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार भी मिल गया था, लेकिन प्रदेश का क्या हुआ, इसके बारे में ज़यादा कहने की जरूरत नहीं है। इस लिहाज से श्री केजरीवाल को बहुत संभल कर व बहुत सूझबूझ के साथ आगे कदम उठाना  होंगे। 


आज हम कांग्रेस पार्टी के शीर्ष नेतृत्व से अपेक्षा रखते हैं कि 'आप' सरकार बनने के लिए उसने जिस सदाशय के साथ साथ दिया वह उस पर कायम रहे तथा विश्वासमत पर श्री केजरीवाल का समर्थन करने में किसी भी तरह से पीछे न हटे। आम आदमी पार्टी देश में तीसरे विकल्प के रूप में उभरती है या नहीं यह भविष्य के गर्भ में है, लेकिन राजनीतिक वास्तविकता और राजनीतिक शिष्टाचार दोनों का तकाजा है कि श्री केजरीवाल व उनकी पार्टी को अपने आपको सिध्द करने के लिए समुचित वक्त दिया जाए।


देशबंधु में  02 जनवरी 2014 को प्रकाशित