Wednesday 27 June 2018

प्रभाकर चौबे : खत्म न होने वाली यादें



प्रभाकर चौबे अब हमारे बीच नहीं हैं, इस निर्मम सच्चाई को स्वीकार करने के लिए मन एक सप्ताह बीत जाने के बाद भी तैयार नहीं है। कितनी यादें उमड़-घुमड़कर आ  रही हैं। कहने-लिखने बैठूं तो एक पोथा भर जाए। आखिरकार, सत्तावन साल की अंतरंग दोस्ती की कथा को आसानी से तो नहीं समेटा जा सकता। हम लोगों ने साथ-साथ अनगिनत यात्राएं कीं, प्रदेश में और देश में; अनेक संस्थाओं में साथ रहे; कितने ही मंच साझा किए; और संयोगवश कई सालों तक निकट पड़ोसी भी बने रहे। पत्नी माया ने याद दिलाया कि 1970 में जब हम विवेकानंद नगर छोड़ चौबे कॉलोनी में दूसरे किराए के घर में रहने पहुंचे तो सबसे पहले प्रभाकर और भाभी से ही मिलने गए, जो हमसे कुछ पहले वहीं रहने आ गए थे। आज बाबूजी के नाम पर जो मायाराम सुरजन शास. उच्च. माध्यमिक विद्यालय चौबे कॉलोनी में है, उसका नाम तब शास. प्राथमिक शाला डंगनिया (ब) था। हम दोनों मित्रों ने अपने बच्चों को चार टूटे-फूटे कमरों वाली उसी शाला में दाखिल करवाया; और प्रधान पाठक बोधनलाल पांडे तथा छविराम वर्मा के साथ कॉलोनी के अलावा आसपास के इलाके में घर-घर जाकर चंदा मांगा कि इस शाला को एक आदर्श स्कूल बनाने के लिए साधन जुटाए जा सकें। प्रभाकर और मैंने पच्चीस साल से अधिक समय तक शाला विकास समिति का काम संभाला, नागरिकों का सहयोग लिया, शिक्षकों की हौसला अफजाई की और एक सरकारी स्कूल को ऐसा रूप देने में सहायक बने कि शिक्षा जगत में उसकी धूम मच गई। यह प्रभाकर चौबे की समाज सक्रियता की एक मिसाल है।
हम लोगों ने साथ-साथ जो यात्राएं कीं, उनका तो कोई हिसाब ही नहीं है। इन यात्राओं में गुरुजी (डॉ. हरिशंकर शुक्ल) अक्सर साथ होते थे। अनेक बार ठाकुर भैया (स्व. भगवान सिंह ठाकुर एडवोकेट) भी। मैंने अपने यात्रा-वृत्तांतों की एक पुस्तक इन्हीं तीन अग्रज साथियों को समर्पित की है। हम कहां-कहां साथ नहीं गए! दिल्ली, गुवाहाटी, हैदराबाद, द्वारिका, भोपाल, ग्वालियर, इलाहाबाद, सागर, सतना, विशाखापट्टनम, कटक, भुवनेश्वर, संबलपुर, कहां तक याद करूं। प्रभाकर बाबूजी के साथ भी बहुत घूमे, चित्रकूट, और कुरुक्षेत्र से बंबई, गोवा और त्रिवेंद्रम तक। अगर मेरी स्मरणशक्ति धोखा नहीं दे रही है तो 1964 की मई में सबसे पहले हम रायपुर से बस में बैठकर राजनांदगांव गए थे। स्वनामधन्य पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी का सार्वजनिक अभिनंदन था। देर रात हम फिर किसी ट्रेन से वापिस लौटे थे। उसके शायद साल भर बाद ही कल्याण कॉलेज भिलाई के परिसर में छत्तीसगढ़ विभागीय हिंदी साहित्य सम्मेलन का अधिवेशन हुआ था। दो या तीन दिन के कार्यक्रम में तब हम साथ रहे थे। हमने प्रदेश में भी अनेक यात्राएं कीं। कभी पवन दीवान और कृष्णारंजन के बुलावे पर राजिम जा रहे हैं; कभी किसी और मित्र के निमंत्रण पर धमतरी तो कभी मुंगेली। सभा-सम्मेलनों-शिविरों में सरगुजा से बस्तर तक और रायगढ़ से कवर्धा तक दौड़ लगाई।
देशबन्धु में स्थानीय प्रतिभाओं को प्रोत्साहन देने के लिए 74-75 में ''पड़ाव'' नामक कार्यक्रम शुरु किया था। प्रभाकर चौबे इसके सूत्रधार बने। भाटापारा, मुंगेली, धमतरी, इत्यादि स्थानों पर वे जाते थे। दिनभर की साहित्यिक गोष्ठी होती थी। वे रचनाएं सुनते थे, सुझाव देते थे, प्रकाशन योग्य समझी गई रचनाओं को लेकर लौटते थे। फिर संपादन होकर एक विशेष परिशिष्ट में उनका प्रकाशन होता था। साहित्य के प्रति ऐसी लगन, नवोदित लेखकों का मनोबल बढ़ाने का ऐसा उपक्रम, स्थानीय प्रतिभाओं को सामने लाने की ऐसी सोच विरल मानी जाएगी। हम दोनों रायपुर में न जाने कितनी बार स्कूल-कॉलेज की भाषण, वाद-विवाद इत्यादि प्रतियोगिताओं में साथ-साथ निर्णायक की भूमिका में रहे। इनके माध्यम से जिन प्रतिभाओं में निखार आया, उनमें से कुछ आज भी हमें याद कर लेते हैं। राजिम से कुछ किलोमीटर दूर स्थित कोमा गांव हम छह नवोदित कवियों को प्रोत्साहन देने गए थे, जो शायद उस समय ग्यारहवीं-बारहवीं कक्षा के छात्र थे! छह में से एक एकांत श्रीवास्तव ने न्यौता दिया था और हमने उसे तत्परता से स्वीकार कर लिया था। भावना वही रहती थी कि प्रदेश और देश में साहित्य और समाज के बीच का रिश्ता कैसे मजबूत बने।
दो-तीन यात्राओं का विशेषकर उल्लेख करना चाहूंगा। 1976 में म.प्र. हिंदी साहित्य सम्मेलन के विदिशा अधिवेशन में बाबूजी अध्यक्ष पद ग्रहण करने वाले थे। इस कारण सारे प्रदेश में उत्साह का वातावरण था। छत्तीसगढ़ से हम कोई पचास-साठ प्रतिनिधि नई-नई चली छत्तीसगढ़ एक्सप्रेस से एक साथ रवाना हुए। ट्रेन तब भोपाल तक ही जाती थी। भोपाल से बस से विदिशा पहुंचे। भीषण गर्मी के दिन, ठहरने-खाने के प्रबंध में थोड़ी अव्यवस्था फिर भी गजब का माहौल। हम चार-पांच लोग नहाने के लिए नगर के बाहर एक खेत तक पहुंचे, वहां नलकूप की मोटी धार के नीचे नहाए। दिन के भोजन के समय बाजू में बुंदेली के समर्थ कवि बालकृष्ण गुरु (शायद यही नाम था!) बैठे थे। परिचय हुआ तो हुलस उठे, भोजन बीच में छोड़कर उठे, कविता की डायरी ले आए कि हम उनकी रचनाएं सुन लें। रात को सार्वजनिक कवि सम्मेलन में एक सौ से अधिक कवि, मंच पर तिलमात्र जगह नहीं। हम लोगों ने खूब हूटिंग भी की। लेकिन मुख्य अतिथि बाबू जगजीवन राम का अर्थगंभीर, ओजस्वी व्याख्यान आज भी याद आता है। 
दूसरा प्रसंग सतना का है। म.प्र. प्रगतिशील लेखक संघ का प्रथम अधिवेशन सतना में 1976 में ही हुआ। इसमें भी छत्तीसगढ़ से हम बहुत सारे लेखक मित्र एक साथ सतना गए। बिलासपुर और कटनी में ट्रेन बदली। वहां मुझे अपनी बेटी के अचानक गंभीर रूप से अस्वस्थ होने की सूचना मिली। ज्ञानरंजन ने फोन सुना था। उन्होंने आकर कहा- आई थिंक यू मस्ट गो इमीडियेटली। रात बारह बजे काशी एक्सपे्रस में कंडक्टर की सहानुभूति से बैठने लायक जगह पाकर जबलपुर पहुंचे। देशबन्धु के स्थानीय संपादक राजेंद्र अग्रवाल को घर जाकर उठाया। उन्होंने आश्वस्त किया कि चिंता की कोई बात नहीं थी। सुबह जबलपुर से राज्य परिवहन की बस पकड़ शाम ढले रायपुर लौटे। दुश्चिंता के बीच की गई इस यात्रा में प्रभाकर चौबे मेरे साथ ही रायपुर लौट आए। मुझे अकेले नहीं आने दिया।
अनेक बरस बाद सतना में ही एक दूसरा प्रसंग घटित हुआ। प्रभाकर, गुरुजी और मैं सम्मेलन द्वारा आयोजित वृंदावन लाल वर्मा शताब्दी समारोह में भाग लेने गए थे। यहां गुरुजी की माताजी के निधन की सूचना मिली। हम तीनों किसी ट्रेन से कटनी पहुंचे, वहां उत्कल एक्सप्रेस पकड़ी। ट्रेन बीच के किसी स्टेशन पर एक घंटा रुकी रही। ड्राइवर, गार्ड सभी पास में कहीं टीवी पर महाभारत देखने चले गए थे। विलंब से बिलासपुर और फिर किसी अन्य साधन से रायपुर ऐन वक्त पर पहुंचे जब अम्मा की अर्थी उठने ही वाली थी। एक अन्य निजी प्रसंग मुझसे जुड़ा हुआ है। 31 दिसंबर 1994 को बाबूजी का भोपाल में निधन हुआ। 2 जनवरी को अस्थि संकलन करना था। मैं श्मशान घाट पहुंच गया था कि उसी समय ट्रेन से उतरकर प्रभाकर और ठाकुर भैया भी वहां पहुंच गए। उनका आ जाना उस समय मेरे लिए बहुत बड़ा संबल था। प्रभाकर चौबे, चाहे हमारे घर में सुख-दु:ख का कोई प्रसंग हो; प्रेस के सहज या कठिन दिन हों;  किसी संस्था के कार्यक्रम अथवा योजना का विषय हो, हर समय इसी तरह मेरा संबल बन जाते थे। और यह सिर्फ मेरा अनुभव नहीं है। उनमें संबंधों को निभाने की एक अपूर्व सिफत थी। सब काहू से दोस्ती, न काहू से बैर मानों उनका मूलमंत्र था।
हिंदी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग; प्रगतिशील लेखक संघ, अखिल भारतीय शांति एवं एकजुटता संगठन, छत्तीसगढ़ प्रदेश हिंदी साहित्य सम्मेलन, म.प्र. हिंदी साहित्य सम्मेलन, भारत सोवियत मैत्री संघ, देशबन्धु प्रतिभा प्रोत्साहन कोष, मायाराम सुरजन फाउंडेशन जैसी कुछ संस्थाएं थीं, जिनमें हमने मिलकर काम किया। वे ट्रेड यूनियन कौंसिल तथा शिक्षक संघ आदि से भी जुड़े थे। 1978 से 1980 के बीच छत्तीसगढ़ में हमने म.प्र. प्रगतिशील लेखक संघ के बैनर तले लगातार युवा रचना शिविरों का आयोजन किया। पहिला शिविर 4,5,6 मार्च 1978 को चंपारन में हुआ जो तब एक लगभग निर्जन स्थान था। इसके बाद बतौली (सरगुजा), कुरुद (धमतरी), जशपुरनगर, दल्लीराजहरा, कवर्धा, महासमुंद, कांकेर आदि अनेक स्थानों पर तीन दिवसीय शिविर हुए। इन शिविरों से प्रलेस की एक मुकम्मल पहचान कायम हुई, अगर मैं यह दावा करूं तो गलत नहीं हो। प्रभाकर चाहते तो इनके माध्यम से अपनी निजी छवि बना सकते थे, लेकिन वे प्रचारप्रियता और गुटबाजी से कोसों दूर थे। लगभग चालीस साल बाद उनके योगदान का मूल्यांकन हुआ, जब 2016 के बिलासपुर राष्ट्रीय अधिवेशन में उन्हें अध्यक्ष मंडल का सदस्य चुना गया। अभी राष्ट्रीय महासचिव राजेंद्र राजन ने उचित निर्णय लिया है कि आगामी माह पटना में आयोजित राष्ट्रीय कार्यक्रम के सभास्थल का नाम प्रभाकर चौबे भवन रखा जाएगा।
प्रभाकर लंबे समय तक मध्यप्रदेश हिंदी साहित्य सम्मेलन की प्रबंधकारिणी के सदस्य रहे, छत्तीसगढ़ हिंदी साहित्य सम्मेलन के तो वे संस्थापक सदस्य तथा संरक्षक थे। इसी 29-30 मार्च को म.प्र. सम्मेलन का शताब्दी समारोह मनाया गया तो सभी साथियों की राय बनी कि उद्घाटन के लिए प्रभाकर चौबे से उत्तम कोई अन्य मुख्य अतिथि नहीं हो सकता। सम्मेलन ने लगभग दस वर्ष पूर्व उनके पचहत्तर वर्ष पूरे होने पर सार्वजनिक अभिनंदन किया था जिसमें कोई सौ-पचास संगठन उनका सम्मान करने आगे आए थे। सम्मेलन का मायाराम सुरजन स्मृति लोकचेतन अलंकरण भी उन्हें प्रदान किया गया, यद्यपि वे स्वयं सदस्य होने के नाते इसे नहीं लेना चाहते थे। उन्होंने साहित्य सेवा के लिए दो-तीन बार सम्मान स्वीकार किए लेकिन वे सिर्फ किसी लेखक, साहित्यकार के हाथों ही सम्मान लेने तैयार होते थे। जिनका साहित्य से कोई सरोकार नहीं, जो किताबें नहीं पढ़ते, जो लेखक को जानते भी नहीं, उनके ''करकमलों'' से सम्मान क्यों लिया जाए? वे हिंदी साहित्य सम्मेलन प्रयाग की स्थायी समिति के सदस्य थे, उसके वार्षिक अधिवेशनों में भाग लेने के लिए सदा उत्साहित रहते थे और समिति की बैठकों में भी भरसक शामिल होते थे। शनिवार 23 जून को प्रयाग में उनके शोक में एक दिन अवकाश रख सम्मान प्रकट किया गया।
अखिल भारतीय शांति एवं एकजुटता संगठन (एप्सो)की गतिविधियों में भी प्रभाकर गहरी दिलचस्पी रखते थे। मध्यप्रदेश के दिनों में रायपुर में प्रादेशिक अधिवेशन करने में उन्होंने प्रमुख भूमिका निभाई; क्यूबा, वियतनाम, दक्षिण अफ्रीका व बांग्लादेश के जनतांत्रिक आंदोलनों के समर्थन में रायपुर में आयोजित कार्यक्रमों में वे हमेशा आगे रहते थे, एप्सो के तीन राज्य सम्मेलन तो उनकी प्रेरणा से ही संभव हो पाए। इन सारे संगठनों के आयोजनों में भाग लेने के लिए हमने एक साथ दूर-दूर की यात्राएं कीं। आयोजनों में अपनी दमदार उपस्थिति दर्ज कराते थे। ये निठल्लेपन की यात्राएं नहीं थीं। हम लोग किताबों पर बात करते थे, राजनीति और दीगर मुद्दों पर बहस कहते थे; बस में, ट्रेन में सहयात्री चकित होकर हमारी चर्चाएं सुनते थे, और कई बार उनमें शामिल भी हो जाते थे। पं. नेहरू ने विजयलक्ष्मी पंडित को एक पत्र में लिखा था- चाहे जीवन यात्रा हो, या साधारण यात्रा, हमेशा कम बोझ लेकर चलना चाहिए। प्रभाकर ने मानों इस सीख का ही अनुकरण करते हुए अपनी जीवन यात्रा पूरी कर ली।
देशबंधु में 28 जून 2018 को प्रकाशित 

Sunday 24 June 2018

प्रभाकर चौबे का कॉलम अब नहीं लिखा जाएगा


                      
बीते सोमवार याने 18 जून को मैंने प्रभाकर से कहा- आज तुम्हारा कॉलम छपा है। अगले हफ्ते का कब लिखोगे। रायपुर के एम्स अस्पताल के आपातकालीन चिकित्सा कक्ष में रोगशैय्या पर पड़े उनका जवाब था- तुम्हारी तुम जानो। मैंने अपना काम कर दिया है। इतने सालों में एक बार भी नागा नहीं किया। उन्हें बोलने में तकलीफ हो रही थी, लेकिन तेवर वही थे। अगली सुबह बेटे जीवेश से कहा- पैन-कागज लाकर दो, कॉलम लिखना है। वे मौत से लड़ रहे थे। शायद जानते थे कि जीत नहीं पाएंगे, किंतु आखिरी साँस तक हार मानने के लिए तैयार नहीं थे। चंद दिनों की बीमारी में शरीर कमजोर हो गया था, दवाईयां चल रही थीं, जीवन रक्षक उपकरणों के सहारे जीवन आगे बढ़ रहा था। ऐसे में कॉलम कहां से लिख पाते!
18 जून को प्रकाशित लेख उनका अंतिम लेख सिद्ध हुआ। इसे उन्होंने घर में ही बिस्तर पर लेटे-लेटे जीवेश के सहयोगी दुर्गेश को डिक्टेशन देकर लिखवाया था। इसके पहले के दो लेखों हेतु छोटे बेटे आलोक को डिटेक्शन दिया था। ये प्रभाकर चौबे थे- सच्चे मायनों में कलम के सिपाही। वे यश के लिए, पद के लिए, धन के लिए नहीं लिखते थे। उनका एकमात्र मकसद था कि उनके विचार आम जनता तक पहुंचना चाहिए। लेखनी समाज के प्रति ऋण उतारने का माध्यम थी।
प्रभाकर चौबे देशबन्धु के प्रारंभ काल याने 1959 से ही अखबार के साथ जुड़ गए थे। यह रिश्ता उन्होंने जीवन भर कायम रखा। हरिशंकर परसाई का अस्सी प्रतिशत लेखन देशबन्धु में प्रकाशित हुआ तो प्रभाकर चौबे का पंचानवे प्रतिशत। साठ साल तो नहीं, लेकिन लगभग अठ्ठावन वर्षों तक प्रभाकर का लिखा देशबन्धु में प्रकाशित होता रहा- पत्र, कविताएं, व्यंग्य, लेख, कहानियां, उपन्यास, एकांकी, रिपोर्ताज, निबंध, गरज यह कि हर विधा में उन्होंने लिखा और खूब लिखा। परसाईजी की एक पुस्तक "हँसते हैं, रोते हैं" का शीर्षक उधार लेकर उन्होंने एक स्तंभ लिखना शुरू किया जो अनेक सालों तक सप्ताह में दो बार प्रकाशित होता रहा। 1988-89 में जबलपुर यात्रा के दौरान मैं और प्रभाकर नगर में प्रतिष्ठित समाजसेवी चिकित्सक डॉ. जे.एन. सेठ से मिलने गए। प्रभाकर चौबे का परिचय पाते ही वे उछल पड़े। अरे भाई, आपका कॉलम तो मैं नियमित रूप से पढ़ता हूं और सबको पढ़वाता हूं। यह थी एक पाठक की प्रथम परिचय में प्रतिक्रिया। ऐसे और भी अनुभव हैं।
एक रात रायपुर के रंगमंदिर से कोई नाटक देखकर हम लौट रहे थे। कोई पंद्रह साल पुरानी बात होगी। हम दोनों रिक्शे में बैठे बात करते चले आ रहे थे। अग्रसेन चौक पर रिक्शे से उतरे। चालक ने पूछा- सर! आप प्रभाकर चौबे हैं। हां में उत्तर मिला तो वह रिक्शे का किराया लेने से मना करने लगा। आपके लेख मैं हमेशा पढ़ता हूं। सोचता हूं कोई तो है जो हमारे जैसे गरीबों के बारे में लिखता है। वह पैसे लेने तैयार नहीं था। मैंने जबरन यह कहकर पैसे थमाए कि इनका किराया मत लेना, मेरा किराया तो ले लो। ये प्रभाकर चौबे थे- मन, वचन, कर्म से एक। जैसा सोचते थे, वैसा ही जीवन जीते थे और वैसा ही लिखते थे। कहीं कोई खोट नहीं, एकदम पारदर्शी सोच; लेकिन राग द्वेष से हीन, न किसी का चरित्र हनन किया, न ओछी टिप्पणी की और न कभी घटिया चुटकुलेबाजी। उनके जैसे बेलाग लिखने वाले लोग, और वह भी जीवन में कभी डगमग हुए बिना, हां, बिना डगमग हुए, हमारे बीच कितने हैं?
व्यंग्य का नियमित स्तंभ लिखते हुए एक समय प्रभाकर के मन में विचार आया।  व्यंजना के बजाय सीधी-सीधी बात कहने का समय आ गया है। उनका सोचना था कि व्यंग्य में अन्तर्निहित तमाम शक्ति के बावजूद लोक शिक्षण के लिए आवश्यक हो गया है कि पाठकों के सामने खुलकर मुद्दे रखे जाएं। इस तरह सोमवार को उनके नियमित स्तंभ की शुरूआत हुई। इस कॉलम का हमने कोई नाम नहीं दिया। लगभग बीस साल लगातार चलने के बाद अब यह स्तंभ सदा के लिए बंद हो गया है।
प्रभाकर चौबे की जन पक्षधरता इन लेखों में बहुत स्पष्टता के साथ व्यक्त होती है। सन् नब्बे के दशक से भारत में जिस तरह से नवसाम्राज्यवादी तथा नवपूंजीवादी ताकतों ने अपने पैर जमाना शुरू किए, उससे प्रभाकर स्वाभाविकत: क्षुब्ध थे। वे जान रहे थे कि उदारीकरण, वैश्वीकरण और निजीकरण का लुभावना नारा देकर ये ताकतें भारत को अघोषित रूप से अपना उपनिवेश बनाने का षड़यंत्र रच रही हैं। देश का सत्ताधारी वर्ग जिस प्रकार लोभ, लालच में पड़ गया है, मदांध हो गया है, उसे भी वे ताड़ चुके थे। अपने साप्ताहिक स्तंभ में उन्होंने सरल-सुबोध भाषा में जनता को आगाह किया। वे एक तरफ रामचरित मानस की चौपाईयां उद्धृत करते थे तो अक्सर मुक्तिबोध की कविता पंक्तियों से अपने तर्क को पुष्ट कर लेख समाप्त करते थे।
मैं पाठकों का ध्यान आकर्षित करना चाहूंगा कि प्रभाकर चौबे हिंदी साहित्य नहीं, बल्कि वाणिज्य के विद्यार्थी थे। पढ़ाई पूरी करने के बाद उन्हें इनकम टैक्स इंस्पैक्टर की नौकरी मिल गई थी। लेकिन यह नौकरी उन्हें उसी तरह रास नहीं आई, जैसे परसाईजी को महकमा-ए-जंगलात में नौकरी करना नहीं जँचा।  प्रभाकर ने स्वाधीनता संग्राम के दौरान स्थापित राष्ट्रीय उच्चतर माध्यमिक विद्यालय में शिक्षक के रूप में काम करना शुरू किया और समय आने पर शाला के प्राचार्य बने और उसी पद से सेवानिवृत्त हुए। प्रभाकर रिटायर हो चुके थे। देशबन्धु में उनका लेखन बदस्तूर चल रहा था।  तभी हमने 1996 में सांध्य दैनिक 'हाईवे चैनल' निकालने की योजना बनाई। मेरे अनुरोध पर प्रभाकर चौबे प्रदेश के इस प्रथम संपूर्ण सांध्यकालीन पत्र के संपादक बने।
उन्होंने पूरी तन्मयता और परिश्रम के साथ अठारह वर्षों से अधिक समय तक यह दायित्व निभाया। वे प्रतिदिन संपादकीय लिखते थे। उनकी पत्नी मालती भाभी 2004 में बीमार पड़ीं तो अस्पताल में उनके सिरहाने बैठकर भी वे अपना काम करते रहे। मुझे अगर ठीक याद है तो 7 सितम्बर 2004 याने जिस दिन भाभी की अंत्येष्टि हुई, सिर्फ उस दिन उन्होंने संपादकीय नहीं लिखा। अगले दिन से वे घर से लिखकर भेजते रहे, जबकि घर में रिश्तेदारों व मातमपुर्सी के लिए आने वालों का तांता लगा रहता था। कोई स्थितप्रज्ञ ही ऐसा कर सकता था!
प्रभाकर चौबे ने इस एकाग्रता, तन्मयता, कर्मनिष्ठा, दायित्वबोध का परिचय जीवन में हर मोड़ पर, हर समय दिया। वे अशासकीय शिक्षकों के संगठन म.प्र. माध्यमिक शिक्षक संघ के महासचिव थे। अध्यक्ष थे स्व. मुरलीधर गनौदवाले।  एक वामपंथी, एक धुर दक्षिणपंथी। लेकिन संगठन के प्रति दोनों ने जिम्मेदारी बहुत समझदारी और ईमानदारी के साथ निभाई। राजनीति को बीच में नहीं आने दिया। उन्होंने अपनी शाला में भी आंदोलन किए, लेकिन प्रबंधन के प्रति कटुता नहीं पाली।
राइस किंग सेठ नेमीचंद प्रबंध समिति के अध्यक्ष  थे, उन्होंने प्रभाकर चौबे को वरिष्ठता के सिद्धांत पर प्राचार्य नियुक्त किया। इस पद पर भी प्रभाकर ने न तो अपने दायित्व में कोताही की और न अपने सिद्धांतों से समझौता किया। उनके साथ काम करने वाला कोई भी व्यक्ति नहीं कह सकता था कि प्रभाकर चौबे ने किसी से अन्याय किया हो, दुराव किया हो, पीठ पीछे बात की हो, काम ठीक से न किया हो। उनकी फितरत में यह सब नहीं था। दरअसल, वे कई मायनों में निस्पृह व्यक्ति थे। जिन जनसंगठनों में वे सक्रिय रहे, वहां वे पहले एक कार्यकर्ता थे, फिर नेता। पद के लिए साथियों को आगे कर दिया, फिर किसी ने मार्गदर्शन मांगा तो ठीक, नहीं तो अपन अपने घर में भले।
प्रभाकर ने जितना विपुल लेखन साठ वर्षों की अवधि में किया, हिन्दी में फिलहाल उसकी मिसाल मिलना असंभव प्रतीत होता है। विभिन्न विषयों पर लिखे संपादकीय व अन्य रचनाओं की संख्या दस हजार के आसपास होगी। यह भी कमाल की बात है कि उन्होंने देशबन्धु के अलावा और किसी पत्र-पत्रिका के लिए लेखन नहीं किया।  एक अखबार और एक लेखक अठ्ठावन साल तक साथ-साथ रहे, यह सचमुच एक विश्व रिकॉर्ड है। लेकिन न उनका लिखना, न देशबन्धु का उन्हें छापना रिकॉर्ड बनाने के उद्देश्य से था।  वे मुक्तिबोध और परसाई के परंपरा के लेखक थे। प्रभाकर जितना लिखते थे, उतना पढ़ते भी थे। उनकी रुचि समकालीन राजनीति, अर्थनीति, दर्शनशास्त्र, इतिहास इन तमाम विषयों में थी। साहित्य की विधाओं में उनकी अधिक रुचि कथा साहित्य पढ़ने में थी। पत्र-पत्रिकाओं में वे सबसे पहले कहानियां ही पढ़ते थे। कोई रचना पसंद आ जाए और रचनाकार का फोन नंबर उपलब्ध हो तो फोन करके बधाई देने में देरी या कंजूसी नहीं करते थे। इस तरह देश के कितने ही नए लेखकों को उन्होंने खासकर प्रोत्साहित किया। वे फिर मुझे बताते थे कि अमुक पत्रिका में फलाने की कहानी छपी है। तुम भी पढ़ लेना। 
एक दिलचस्प तथ्य है कि मैंने जब कोई नई कविता लिखी तो सबसे पहले प्रभाकर को ही सुनाई। 1996 में एक रात अचानक मेरी नींद खुली और मैं सात साल बाद लंबे समय से अधूरी पड़ी एक कविता को पूरी करने के लिए टेबल पर बैठ गया। सुबह चार बजे कविता पूरी हुई। अब बेचैनी थी कि प्रभाकर को सुना दूं। सुबह छह बजे नहीं कि मैंने फोन खटखटा दिया। प्रभाकर नींद में ही थे। मैंने कहा- कविता सुनो। लंबी कविता थी। उन्होंने सुनी और सजग प्रतिक्रिया दी- अच्छी है लेकिन आखिरी पैरा में झोल है। मैं निराश हो गया। कहा- यार! इतने साल बाद कविता लिखी पर तुम उसे खारिज कर रहे हो। खैर, मैंने कविता को नए सिरे से पढ़ा। प्रभाकर की राय ठीक लगी। कविता को संशोधित किया। उन्हें दुबारा सुनाई। जब प्रभाकर का अनुमोदन मिल गया तो संतोष हुआ कि वाकई मैंने एक अच्छी कविता लिख ली है। 'तिमिर के झरने में तैरती अंधी मछलियां'  मेरी प्रिय कविता है और उसका श्रेय प्रभाकर को ही है। 
देशबंधु में 25 जून 2018 को प्रकाशित 

 

Thursday 21 June 2018

नेसार नाज़: आज की कहानियां



एक समय छत्तीसगढ़ में चौदह देशी रियासतें थीं। इनमें से एक थी कोरिया जिसका नाम ही प्रदेश से अपरिचित लोगों को आश्चर्य में डाल देता है। चारों तरफ घनघोर जंगल और धरती के नीचे बेशुमार कोयला। बैकुंठपुर इस रियासत की राजधानी थी जिसका काफी कुछ वर्णन डॉ. कांतिकुमार जैन ने अपनी अद्भुत जीवनीपरक पुस्तक 'बैकुंठपुर में बचपन' में किया है। (यह मात्र संयोग है कि दो माह के भीतर मैं दूसरी बार कांतिकुमार जी का नाम उल्लेख कर रहा हूं।) बैकुंठपुर शेष छत्तीसगढ़ से किसी हद तक कटा हुआ है, लेकिन यहां की मिट्टी पानी में कुछ तो कमाल है। देश के कितने ही जाने-माने लेखकों का यहां से गहरा नाता रहा है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल, रामानुजलाल श्रीवास्तव, भवानी प्रसाद मिश्र इत्यादि नाम ध्यान में आते हैं। लेकिन प्रदेश के साहित्यिक नक्शे पर अब बैकुंठपुर का नाम कहीं दिखाई नहीं देता। ऐसा शायद इसलिए हुआ कि इस नगर के रचनाकार संकोची स्वभाव के हैं या शायद फिर प्रदेश के अन्य इलाकों ने यहां से दूरी बना रखी है!
कोई पन्द्रह साल पहले बैकुंठपुर में ही मेरी भेंट रशीद नोमानी से हुई थी। वे एक उम्रदराज शायर थे और उनकी ग़ज़लों में अपने दौर का जीवंत व सशक्त वर्णन मैंने पाया था। डेढ़ दशक बाद इस नगर के नेसार नाज़ से परिचय करने का अवसर मिला। पहले उनका कहानी संग्रह मेरे पास पहुंचा और फिर अचानक एक दिन वे मेरे दफ्तर तशरीफ़ लाए। मैंने इस बीच उनकी कहानियां पढ़ ली थीं और आश्चर्य में था कि कलम के धनी ऐसे कहानीकार से मैं अब तक कैसे नावाकिफ रहा आया! जब उनसे मुलाकात हुई तो स्वाभाविक प्रसन्नता हुई। बातचीत में उनके बारे में कुछ और भी जाना। यह समझ में आया कि नए लोगों से मिलने में उन्हें संकोच होता है। अपनी रचनाओं के प्रति भी वे काफी हद तक लापरवाह हैं। यही कारण है कि उनका पहला कहानी संग्रह तब प्रकाशित हुआ जब वे इसी जून माह में जीवन के साठ वर्ष पूरे करने जा रहे हैं। 
नेसार नाज़ के कहानी संकलन का शीर्षक है- हांफता हुआ शोर । इसमें कुल जमा ग्यारह कहानियां हैं। संकलन की प्रस्तावना जाने-माने कवि-कथाकार अनवर सुहैल ने लिखी है। उन्होंने इन्हें छोटे फलक की बड़ी कहानियां निरुपित किया है। सुहैल नेसार नाज़ को एक तरफ मंटों और दूसरी तरफ प्रेमचंद की परंपरा से जोड़ते हैं। उन्होंने जो स्थापना की है उसकी विवेचना सुधी समीक्षक करेंगे। मैंने जब इन रचनाओं को पढ़ा तो एकबारगी ही प्रभावित हुआ। संकलन की पहली कहानी का शीर्षक है 'पुल’। यह न नदी का पुल है, न सड़क का, न रेलवे का पुल। यह भौतिक पुल नहीं है, अपितु मनुष्य को मनुष्य से जोडऩे वाला अदृश्य सेतु है। पुल एक ऐसी कहानी है जो आज के समय की है और जिसकी आज जैसी आवश्यकता पहले कभी नहीं थी। एक ही बस्ती में रहने वाला एक हिन्दू ब्राम्हण परिवार और दूसरा एक मुसलमान परिवार। दोनों परिवारों के बीच बातचीत का रिश्ता है, सुख-दुख में काम आने का भी रिश्ता है, लेकिन धर्म की एक दूरी दोनों के बीच कहीं बनी हुई है। सुगरा बी और सुबहान का बेटा इस खाई को पाटने के लिए पुल बन जाता है। पंडिताइन को उस मासूम बच्चे को देखकर ससुराल चली गई बेटी का बचपन याद आता है और पंडित जी भी महसूस करते हैं कि बच्चे तो भगवान का रूप हैं। इस बच्चे से दूरी बनाने के बाद उन्हें अहसास होता है कि वे जिंदगी की एक मिठास से मरहूम हो गए थे।
संकलन की ग्यारह कहानियों में ग्यारह नहीं तो सात रंग अवश्य हैं। हर कहानी की विषयवस्तु दूसरे से अलग है, लेकिन विषय का निर्वाह हरेक में प्रमाणिकता के साथ हुआ है। पढ़ते हुए लगता है कि लेखक के पास अनुभवों का पिटारा होने के साथ गहरी अंतर्दृष्टि भी है। भाषा सरल है, और जनपदीय भाषा का यत्र-तत्र प्रयोग कहन को रोचक बना देता है। यहां उल्लेख करना होगा कि कोरिया और बैकुंठपुर की भाषा में एक अनोखापन है। वह मैदानी इलाके की छत्तीसगढ़ी नहीं है, वह प्रदेश के उत्तरी इलाके की सरगुजिहा भी नहीं है, उसमें विंध्यप्रदेश की बघेली का थोड़ा सा पुट है, तो मैकल पर्वत श्रेणी की बोली का भी, ऐसा हो भी क्यों न? कोरिया का जनपद इन चारों के बीच जो बसा हुआ है।
''अँधेरे की गवाह’’ मात्र दो पृष्ठों की कहानी है। चाहे तो उसे लघुकथा कह लें। इस कथा में भी साम्प्रदायिक सोच का प्रतिकार है। शहर में दंगों के बाद कफ्र्यू लगा हुआ है। जिसका वर्णन लेखक ने इन शब्दों में किया है- ''डरी हुई खामोशी इस कद्र पसरी थी कि शहर के आवारा कुत्ते तक जाने कहां दुबक गए थे। मानो शहर की ही मौत हो गई थी। नन्हें मासूम बच्चों की किलकारी और रुदन पर भी मांओं की हथेलियों का पहरा था।‘’
इस माहौल में दो लोग अपने-अपने कारणों से बहुत मजबूरी में डरते-डरते सड़क पर निकले हैं। एक अपने बूढ़े बाप को घर वापिस लाने बाहर आया है और दूसरा घायल अवस्था में जैसे भी हो अपनी बेटी के पास पहुंच जाना चाहता है। नौजवान बूढ़े को अपने कंधे पर लेकर चल रहा है और पुलिस की गोलियों से दोनों मारे जाते हैं। यह पता नहीं चल पाता कि दोनों में किसका क्या धर्म है, लेकिन दोनों के बीच संवाद से अनुमान लगता है कि नौजवान हिन्दू है और बूढ़ा मुसलमान। दोनों जब मरते हैं तो गाढ़ा अंधेरा गवाही देता है। उसने देखा- ''तड़पते हुए दो जिस्म, दो इंसान और दो कौमों का लहू एक होने लगा था।‘’
''हांफता हुआ शोर’’ और ''असमाप्त’’ दोनों बेहद मार्मिक कहानियां हैं। इनमें विपन्नता और गरीबी का जो बयान हुआ है वह हिलाकर रख देता है। असमाप्त में नगर के मुहाने पर मुख्य सड़क के पास बसी बस्ती का चित्रात्मक वर्णन है जिसे त्रिआयामी कहा जा सकता है। जैसे पाठक वह सब कुछ अपनी आंखों के सामने घटित होते देख रहा है। मुख्यत: गरीबों की बस्ती है, लेकिन आसपास कुछ निम्न मध्यमवर्गीय, कुछ मध्यमवर्गीय, कुछ नौकरीपेशा, कुछ छोटे-मोटे दुकानदार, ऐसे तमाम चरित्र हैं। उनमें किसी हद तक आपसी मेलजोल है। जिसे आवश्यकता हो, उसकी मदद करने की उदारता भी है। इसमें एक तरफ वे चरित्र हैं जैसे सेठानी और पाठक जी, जो जीवन के प्रति आस्था जगाए रखते हैं। टपरा चाय दुकान का मालिक रामा का दद्दा है जो गरीबी के बावजूद चोरी को पाप समझता है। दूसरी तरफ दुर्दांत गरीबी है जो रामा की अम्मा के प्राण हर ले लेती है। असहायता का बोध पसर जाता है। एक टुकड़ा जिंदगी कई टुकड़ों में बंट जाती है, लेकिन कथा तो असमाप्त है। हमारे समाज की असमाप्त कथा। हमारे समय की भीषण सच्चाई कि गरीबी से निजात पाना आसान तो नहीं।
गरीबी की यही कथा ''हांफता हुआ शोर’’ में भी है। एक प्रेमकथा से जिसका प्रारंभ हुआ, वह एक दुखांतिका में बदल जाती है। गांव से शहर आकर रिक्शा चलाकर, अपनी हड्डियां तोड़ते हुए गुजारा करते जोहन को टीबी हो जाती है। गांव से प्रेमिका के साथ शहर भागकर आया था। वह प्रेम धीरे-धीरे परिस्थितियों के कारण क्षीण होते जाता है। घर में खाने के लाले पड़े। एक दिन बर्तन बेचकर जोहन खाने-पीने का सामान लाता है। कई दिन के भूखे चार बरस के बेटे को वह प्रेमवश इतना खिलाता है कि उसी में उसकी मौत हो जाती है। इस बीच पत्नी सोनिया कभी चीटियों की तरह दुनिया की भीड़ में कहीं खो जाना चाहती है, तो कभी वह अपने को मक्खी के रूप में देखती है जिसे मकड़ी ने दबोचकर खत्म कर दिया है।
''मरे हुए लोग’’  का प्रारंभ कुछ इस तरह से होता है मानो लेखक कहानी नहीं कोई गद्य-गीत लिख रहा हो। वह कथावस्तु पर आने के पहले मैकल पर्वत श्रृंखला के बीच में बसे गांवों में ग्रीष्म ऋतु का कुछ इसी अंदाज में वर्णन करता है। लेकिन कुछ देर में कहानी खुलती है तो एक बार फिर समाज की कठोर सच्चाइयों से हमारा परिचय होता है। जंगल पर सरकार का अधिकार है, जंगलात का महकमा आदिवासियों से कीड़े मकोड़े सा व्यवहार करना है। गांव में एक स्वघोषित नेता है जो गांव वालों के साथ संघर्ष करने के वायदे तो बड़े-बड़े करता है, लेकिन मौका आने पर भाग खड़ा होता है और उसके भरोसे बैठे लोग ठगे रह जाते हैं। इस कहानी के प्रारंभ और अंत के निम्नलिखित अंश क्रमश: दृष्टव्य हैं- 
''हां, शाम को जब सूरज पहाड़ी की ओट में थके हुए राहगीर की मानिंद निढाल हो जाएगा तब जंगली परिंदे मेहमानों की तरह पहाडिय़ों से गांव में उतर आएंगे।"
''हवा खामोश थी। सरई के पेड़ गमगीन खड़े थे। चारों तरफ सन्नाटा पसर गया था। महसूस हो रहा था- गांव में कुछ जिंदगियां थीं, जो मर गई थीं। इन्हीं मरी हुई जिंदगियों को नोचने आसमान में गिद्धों का कुनबा चक्कर मार रहा था।‘’
नेसार नाज़ एक तरफ ऐसे तमाम सामाजिक प्रश्न उठाते हैं, तो दूसरी ओर वे उसी सरलता से प्रेमकथाएं भी लिखते हैं। ''लाल गुलाब’’, ''गिद्धों का घोंसला’’, ''बुनियाद की ईंट’’ कुछ ऐसी ही कहानी हैं। ''मरघट की खटिया’’ का रंग अलग है। यहां हम हरखू से मुखातिब होते हैं जो श्मशानघाट से चादर, खाट, बांस उठाकर-बेचकर अपनी आजीविका चलाता है और फिर एक दिन खुद हमेशा के लिए सो जाता है। ''मीरबाज खान’’ शीर्षक कहानी बिलकुल आज की कहानी है जब देश की सरकार और उसकी पार्टी के एजेंडे में गौरक्षा उच्च स्थान पर है और जब मुसलमान के लिए गाय पालना भी अपराध मान लिया गया है।
नेसार नाज़ की कहानियां पढ़ते हुए मुझे अनायास अपने मित्र सुबोध श्रीवास्तव की कहानियां याद आई। सहानुभूति से प्रेरित होकर लिखना एक बात है, लेकिन वंचित समाज के भीतर पैठकर उनकी जीवन स्थिति का चित्रण करना, उनके प्रति कहानियों के माध्यम से एकजुटता प्रदर्शित करना साहस का काम है। मलिन बस्ती, झुग्गी झोपड़ी, नालों के किनारे और गांव की कच्ची-पक्की झोपडिय़ों के बीच रहने वालों के जीवन को समझना और उसका अक्स उतारना सरल काम तो है नहीं। नेसार नाज़ इसके लिए बधाई के पात्र हैं। बधाई तो बैकुंठपुर के ही मूल निवासी युवा लेखक संजय अलंग को भी मिलना चाहिए, जिन्होंने निसार नाज़ की कहानियां एकत्र कर संकलन प्रकाशित करने में व्यक्तिगत दिलचस्पी ली। मेरी समझ में यह उन्होंने बड़ा काम किया है। वरना छत्तीसगढ़ के एक सशक्त कथाकार से हम अब तक अनजान ही रहे आते। लेखक बिरादरी में ऐसी उदारता, ऐसा मैत्रीभाव कम ही देखने मिलता है और उदासीनता के चलते कितने ही गुणी रचनाकार सामने नहीं आ पाते।
अक्षर पर्व जून 2018 अंक की प्रस्तावना 

Wednesday 20 June 2018

वियतनाम : विश्व शांति के लिए एक पहल

                               
 
वियतनाम शांति एवं विकास फाउंडेशन वियतनाम का एक प्रमुख और प्रभावशाली सिविल सोसायटी संगठन है। जैसा कि नाम से स्पष्ट है यह संगठन विश्व शांति और शांति के माध्यम से विकास के लिए काम करता है। वियतनाम की अप्रतिम स्वाधीनता सेनानी और आगे चलकर देश की उपराष्ट्रपति बनी मदाम न्गुएन थी बिन्ह इसकी अध्यक्ष हैं। अंतरराष्ट्रीय शांति आंदोलन में मदाम बिन्ह का नाम अत्यन्त सम्मान के साथ लिया जाता है।  वियतनाम के मुक्ति संग्राम में तो उन्होंने बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया ही, अपने देश को नवनिर्माण के पथ पर ले जाने में तथा विश्व समाज में देश की प्रतिष्ठा कायम करने की दिशा में भी उन्होंने महत्वपूर्ण योगदान किया। यह उनकी ही सोच थी कि वर्तमान समय को देखते हुए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जन एकजुटता को प्रगाढ़ करने के लिए एक सम्मेलन का आयोजन किया जाए।  मैं इस कार्यक्रम में भाग लेने के लिए वियतनाम की संक्षिप्त यात्रा पर अखिल भारतीय शांति एवं एकजुटता संगठन अर्थात (एप्सो) के राष्ट्रीय अध्यक्ष मंडल का सदस्य होने के नाते उसका प्रतिनिधि बनकर गया था। 
जैसा कि पूर्व विवरण से पाठकों को ज्ञात होगा कि यह आयोजन मध्यपूर्व वियतनाम में दक्षिण चीन सागर के तट पर क्वांग त्री नगर के पास एक गांव में किया गया था। मदाम बिन्ह का क्वांग त्री प्रदेश से गहरा नाता रहा है और मुक्ति संघर्ष में क्वांग त्री प्रदेश की बड़ी भूमिका रही है।  शायद यही सोचकर स्थान का चयन किया गया था। इस आयोजन को नाम दिया गया था- शांति, सुरक्षा एवं स्थायी विकास के लिए अंतरराष्ट्रीय जन एकजुटता के मुद्दों की पहचान हेतु कार्यशाला। शीर्षक लंबा-चौड़ा है, लेकिन कुल मिलाकर भावना यही थी कि किसी भी देश और समाज का विकास तभी हो सकता है जब असुरक्षा का भय न हो और शांति का माहौल हो। कार्यक्रम को पूर्व से लेकर पश्चिम तक से शांति संगठनों और शांति आंदोलनों का अनुमोदन प्राप्त हुआ। विश्व शांति परिषद के कार्यकारी सचिव इराक्लीस ग्रीस से आए; अफ्रो एशियाई जन एकजुटता संगठन, जिसका मुख्यालय इजिप्त की राजधानी काहिरा में है, के अध्यक्ष डॉ. हेल्मी हदीदी स्वयं आए।  वे अपने देश के एक प्रसिद्ध अस्थिरोग विशेषज्ञ हैं।  शिक्षा मंत्री भी रह चुके हैं। वे एक लंबी यात्रा कर क्वांग त्री पहुंचे। 
इनके अलावा अमेरिका, क्यूबा, फ्रांस, जर्मनी, जापान, दक्षिण कोरिया, फिलीपीन्स, इंडोनेशिया, लाओस, कम्बोडिया इत्यादि से भी शांति संगठनों के  प्रमुख नेताओं ने भागीदारी की। शांति और विकास के लिए काम कर रही कुछ अन्य संस्थाओं के प्रतिनिधि भी आए जिनमें जर्मनी की रोजा लक्जेमबर्ग फाउंडेशन का नाम प्रमुखता से लिया जा सकता है। वियतनाम के प्रतिनिधि तो खैर थे ही। तीन दिनों तक कार्यशाला की थीम पर खूब बातचीत हुई।  सभाकक्ष में ही नहीं, खाने की मेज पर भी, बस में यात्रा करते हुए भी और समुद्र तट पर भी। इस चर्चा मंडली में अनुभवी पूर्व राजदूत थे, वकील थे, ट्रेड यूनियन कार्यकर्ता थे, पत्रकार थे, मानवाधिकार  कार्यकर्ता थे और थे अनेक युवजन। वैसे तो मदाम बिन्ह को कार्यशाला का औपचारिक शुभारंभ अपने स्वागत वक्तव्य के साथ करना था, लेकिन अस्वस्थता के कारण वे स्वयं नहीं आ सकीं। उनकी एवज में संस्था के उपाध्यक्ष राजदूत चुआंग ने स्वागत भाषण पढ़ा।
विचार गोष्ठियों में बहुत सारे मुद्दों पर बातें हुईं, खुलकर बातें हुईं जिनमें साठ से अधिक प्रतिभागियों  ने शिरकत की। कुछ बड़े मुद्दे प्रमुखता के साथ उभरकर सामने आए।  इनमें पहला मुद्दा फिलिस्तीन का था। यह याद दिलाने की आवश्यकता नहीं पड़ना चाहिए कि अमेरिकी संरक्षण में इजराइल लगातार फिलिस्तीनी भूमि पर जबरन कब्जा किए जा रहा है। उसे न तो विश्व जनमत की परवाह है और न संयुक्त राष्ट्र संघ के प्रस्तावों की। लगभग सौ वर्ष पूर्व यह तय हुआ था कि फिलिस्तीन का जो भू-भाग था उसमें इजराइल नाम से यहूदियों का अपना देश बसेगा और साथ-साथ स्वतंत्र सार्वभौम फिलिस्तीन भी बसेगा। वैसे अपने आप में यह साम्राज्यवादी ताकतों द्वारा लादा गया फार्मूला था जिसे फिलिस्तीनी जनता ने मन मार कर स्वीकार कर लिया था किन्तु इजराइल ने इसे लागू करने में कभी दिलचस्पी नहीं दिखाई। डोनाल्ड ट्रंप के राष्ट्रपति बनने के बाद तो इजराइल के हौसले और बुलंद हो गए हैं।
अभी इसी मई माह में अमेरिका ने भी दादागिरी दिखाते हुए जेरुसलम में अपना दूतावास खोल लिया है। इसके लिए दुनिया के तमाम देशों को निमंत्रण भेजे गए थे। अधिकतम ने निमंत्रण ठुकरा दिया। भारत की मोदी सरकार ने भी फिलिस्तीन के साथ अपने पुराने संबंधों को याद रखा और अमेरिकी दूतावास के उद्घाटन में भाग नहीं लिया। क्वांग त्री की हमारी कार्यशाला में इस बारे में लंबी बात हुई। हम सब एक राय थे कि स्वतंत्र सार्वभौम फिलिस्तीन देश की स्थापना होना चाहिए जिसकी राजधानी पूर्वी जेरुसलम में हो। हम सबकी सोच थी कि इजराइल के उद्दंड आचरण से विश्व शांति को लगातार खतरा पहुंच रहा है। सैन्य ताकत और अमेरिका की शह पर इजराइल जो कुछ कर रहा है वह मानवता के लिए कलंक है और उसके दुष्परिणाम तो सामने आ रहे हैं, दूरगामी प्रभाव भी घातक ही होंगे।
कार्यशाला का दूसरा मुख्य मुद्दा विश्व के समुद्रों और महासागरों के बारे में था। पाठक जानते हैं कि अमेरिका एक लंबे अरसे से समूची दुनिया के समुद्री क्षेत्र पर अपनी धाक जमाकर तटीय देशों को अपने काबू में रखना चाहता है। उसके जहाजी बेड़े सातों महासागरों में घूमते रहते हैं, कितने सारे द्वीपों पर उसने अपने सैन्य अड्डे बना रखे हैं।  हम भारतीयों को बंगलादेश मुक्ति संग्राम की याद है जब अमेरिकी सातवां बेड़ा भारत को धमकाने के अंदाज में आगे बढ़ रहा था। दियागो गार्सिया द्वीप पर उसने साठ के दशक में सैन्य अड्डा स्थापित किया था जिस पर भारत में बवाल मचा था। भूतकाल की कुछ औपनिवेशिक ताकतों ने भी दूरदराज के द्वीपों पर अपने सैनिक अड्डे बना रखे हैं। इधर चीन विश्व की दूसरी महाशक्ति के रूप में उभर रहा है। उसे लेकर भी कई बार संदेह का वातावरण निर्मित होता है। 
चीन, भारत, जापान, वियतनाम ये सब एशियाई देश हैं। याने एक-दूसरे के पड़ोसी हैं। यह हर शांतिप्रिय नागरिक चाहेगा कि एशिया में शांति का वातावरण बना रहे। इस दृष्टि से यह आवश्यक हो जाता है कि हिन्द महासागर हो या प्रशांत महासागर, लाल सागर हो या बंगाल की खाड़ी या दक्षिण चीन समुद्र या मलक्का जल डमरूमध्य- इस पूरे जल क्षेत्र में किसी तरह की कोई सैनिक हलचल न हो। यदि दो महाशक्तियों की प्रतिद्वंद्विता के बीच एशिया के समुद्रों में सैनिक अड्डे आदि बनते हैं तो उससे इन एशियाई देशों के अनिष्ट की आशंका हमेशा बनी रहेगी। इस परिदृश्य पर गौर करते हुए कार्यशाला में एकमतेन स्वीकार किया गया कि ये जलराशियां मानवता की साझी धरोहर हैं और इनमें किसी भी तरह की सामरिक गतिविधियां होना अवांछित है तथा इन्हें सदा के लिए शांति का क्षेत्र बने रहना चाहिए।
तीन दिवसीय कार्यक्रम में इन दो प्रमुख मुद्दों के अलावा परमाणु निशस्त्रीकरण, आतंकवाद, अमेरिका की बढ़ती हुई दादागिरी जैसे मुद्दों पर भी चर्चा हुई। दूसरी ओर दक्षिण कोरिया और उत्तर कोरिया के बीच तनाव कम करने के जो प्रयत्न हो रहे हैं इन पर संतोष व्यक्त किया गया। ट्रंप-किम वार्ता को लेकर उस समय ऊहापोह की स्थिति थी, फिर भी अपेक्षा की गई कि शिखर वार्ता होगी और उसके परिणाम शायद अच्छे ही निकलेंगे। यह सभी प्रतिभागियों का मानना था कि तीसरी दुनिया के देशों ने उपनिवेशवाद के दौर में अपनी-अपनी आजादी की लड़ाई लड़ी उसमें सभी देशों की शांतिकामी जनता ने अपना नैतिक समर्थन दिया था। आज भी जब विश्व में वर्चस्ववाद कायम करने की कोशिश हो रही है तब आवश्यकता इस बात की है सभी देशों की जनता के बीच भाई-चारे का सूत्र प्रगाढ़ हो और एक-दूसरे को मैत्रीपूर्ण नैतिक समर्थन देते हुए सभी देश स्थायी शांति की दिशा में कदम बढ़ाएं।
देशबंधु में 21 2018 को प्रकाशित 

Thursday 14 June 2018

वियतनाम : एक अधूरी यात्रा-2

                                       
वियतनाम के पूर्व में स्थित क्वांग त्री से पश्चिम में पड़ोसी देश लाओस की सीमा तक राष्ट्रीय राजमार्ग क्रमांक-9 जाता है। इस रास्ते पर क्वांग त्री शहर से कुछ दूरी पर ही एक राष्ट्रीय समाधि स्थल बना हुआ है। एक छोटी सी पहाड़ी पर अवस्थित इस स्थान में दूर से देखने पर कुछ असाधारण प्रतीत नहीं होता, लेकिन यह वियतनाम के मुक्ति संघर्ष का एक महत्वपूर्ण यादगार स्थल है। मुख्य द्वार से प्रवेश करते साथ दाहिनी ओर एक कलात्मक छतरी बनी है। इसके ठीक पीछे एक विशालकाय प्रस्तर प्रतिमा है। एक युवा सिपाही, साथ में उसकी पत्नी और गोद में एक बालक। छतरी के दोनों ओर भी कुछ छोटी प्रतिमाएं लगी हैं। छतरी के नीचे एक मंजूषा है जिसमें वहां पहुंचने वाले अगरबत्ती लगाकर प्रार्थना करते हैं। यहां से कुछ सीढ़ियां ऊपर चढ़ने के बाद दूर-दूर तक सिर्फ समाधियां ही दिखाई देती हैं। इस स्थान पर दस हजार से अधिक सैनिकों की समाधियां बनी हुई हैं जिनकी बहुत जतन के साथ देखभाल होती है।
अनेक समाधियों में सैनिक का पूरा परिचय उत्कीर्ण है। उसका फोटो भी लगा हुआ है और हर समाधि पर कमल का एक कृत्रिम फूल अवश्य चढ़ाया हुआ है। एक जगह एक बड़ी सी समाधि बनी है जिसके पास सूचनापटल में एक सौ तीस सैनिकों के नाम लिखे हैं। उनके क्षत-विक्षत अंग अलग से पहचान में नहीं आ सके इसलिए सामूहिक समाधि बनाई है। अकेले क्वांग त्री प्रांत में ऐसे सत्ताइस समाधि स्थल हैं। समूचे देश में तो इनकी संख्या अनगिनत हैं। यह एक राष्ट्रीय समाधि स्थल है और अन्य प्रांतों में भी ऐसे बड़े-छोटे स्थान हैं जहां बड़ी संख्या में सैनिक चिरशांति में सो रहे हैं। इस स्थान पर पहुंच कर मुझे हिरोशिमा और नागासाकी की याद आई जहां अमेरिकी सेनाओं ने अब तक के इतिहास में पहली बार एटम बम डालकर दो लाख लोगों को मार डाला था। क्वांग त्री के समाधि स्थल पर चिरनिद्रा में सोए सैनिक भी तो अमेरिका की उसी साम्राज्यवादी और विस्तारवादी नीति का शिकार बने।
मुझे साथ-साथ यह भी ध्यान आया कि अमेरिका की राजधानी वाशिंगटन डीसी में भी एक वियतनाम युद्ध स्मारक है जहां इसी हड़प नीति के चलते हजारों अमेरिकी सैनिकों को सुदूर वियतनाम में जाकर अपने प्राण गंवाना पड़े। आज भी वाशिंगटन डीसी के इस वार मेमोरियल पर मृत सैनिकों के जन्मदिन या मृत्युतिथि पर उनके परिजन आते हैं, अगरबत्ती जलाते हैं, फूल चढ़ाते हैं और शिला पर उत्कीर्ण नाम पर उंगलियां फिराते हुए नि:शब्द रोते हैं। याद करना चाहिए कि वियतनाम युद्ध के दिनों में जो भी युवक सेना में भर्ती होने से इंकार करता था उसे जेल भेज दिया जाता था। उसे देशद्रोही माना जाता था। अमेरिका के युद्धपरस्त शासकों ने उन मानवीय मूल्यों की भी कभी परवाह नहीं की जिनका उद्घोष अमेरिकी स्वतंत्रता घोषणापत्र में किया गया है। मैं क्वांग त्री के राष्ट्रीय स्मारक में मृत सैनिकों की समाधि पर आए शोकाकुल परिजनों को देख रहा था और सोच रहा था कि युद्ध की कितनी भारी कीमत चुकानी पड़ती है।
एक समय क्वांग त्री शहर में इसी नाम के प्रदेश की राजधानी होती थी। आज से दो सौ साल पहले वहां एक भव्य किले का निर्माण किया गया था। हम इस किले को भी देखने गए। उत्तरी और दक्षिणी वियतनाम के बीच यह प्रांत अमेरिका के कब्जे वाली दक्षिणी ताकत के पास था। 1972 में उत्तर वियतनाम की मुक्ति सेना ने जबरदस्त लड़ाई के बाद इसे मुक्त करा लिया था लेकिन छह माह के भीतर ही अमेरिकी फौजों ने क्वांग त्री पर फिर से आक्रमण किया और भयानक बमबारी कर पूरे शहर को श्मशान में बदल दिया। क्वांग त्री का किला भी नष्ट हो गया। अब वहां पुराने समय की याद दिलाती हैं किले की परिधि की खंदक और एक पुराना सिंहद्वार। किले के विशाल परिसर में हरियाली के बीच एक स्मारक है जहां लोग श्रद्धांजलि देने आते हैं। यहां मैंने एक आकर्षक मूर्ति देखी।
एक घने वृक्ष की छाया में स्थापित यह प्रतिमा एक बैठे हुए सैनिक की है। वह आराम की मुद्रा में है। उसकी बंदूक कंधे पर न होकर गोद में है। उसके होठों पर हल्की सी मुस्कान है। शिल्पी ने इसे बनाने में अद्भुत कल्पनाशीलता का परिचय दिया है। शांत मुद्रा में बैठा हुआ सैनिक मानों कह रहा हो कि मैंने अपना काम कर दिया है, मैं भी अब कुछ पल के लिए विश्राम करना चाहता हूं। तुम इतनी दूर मुझे ढूंढते हुए आए, इसके लिए धन्यवाद। वियतनाम की जनता भी मानो इस सैनिक की भावना को अच्छे से समझ रही है। युद्ध समाप्त हुआ। अब देश का नवनिर्माण करना है। किले से निकलकर हम थोड़ी दूर पर स्थित नदी तट पर गए। वहां एक पक्का घाट बना हुआ है। घाट पर एक छोटा सा बौद्ध मंदिर है। वहां से नीचे सीढ़ियां उतरकर हमने मोम के दिए जलाए और उन्हें धीरे से नदी में प्रवाहित कर दिया। नदी में दीप प्रवाहित करने की यह मनोहारी परंपरा मुझे भारत से लेकर जापान तक हर जगह दिखी। फर्क सिर्फ इतना मिला कि हिरोशिमा और क्वांग त्री की नदियां स्वच्छ थीं, भारत की नदियों की तरह प्रदूषित नहीं।
वियतनाम और भारत के बीच परंपरा में ही नहीं, प्रकृति में भी काफी कुछ समानताएं ढूंढी जा सकती हैं। बरगद और पीपल- ये दो वृक्ष वहां बहुतायात में हैं। क्वांग त्री के राष्ट्रीय समाधि स्थल पर चार का पेड़ भी लगा हुआ था जिससे चिरौंजी निकलती है। हम जहां रुके थे वहां चारों तरफ अमलतास और गुलमोहर के पेड़ों पर बहार आई हुई थी। वियतनाम में आम भी खूब फलता है। लेकिन वे उसे पूरा पक जाने के बजाय खटमिठ्ठा खाना पसंद करते हैं, वह भी नमक व लाल मिर्च लगाकर। हां, खानपान में जरूर भारतीयों को दिक्कत हो सकती है। वियतनाम का मुख्य भोजन चावल है और साथ में शोरबा जिसमें हर तरह का मांस और अनेक सब्जियां होती हैं। गेहूं के आटे के बजाय वे मैदे के बने नूडल्स खाते हैं। मुझे अपना काम ब्रेड से ही चलाना पड़ा। जिसे वे शाकाहारी सूप कहते हैं उसमें भी क्या है, जानना-समझना मुश्किल होता है।
मैं जिस उद्देश्य से वियतनाम गया था, उसकी विस्तारपूर्वक चर्चा अगली किश्त में करूंगा। अभी एक रोचक जानकारी पाठकों के साथ साझा करना चाहूंगा। मुझे क्वांग त्री में लाओस के एक पुराने शांति कार्यकर्ता और पत्रकार मित्र श्री मिसाई मिले। उनके दाहिने हाथ में मौली जैसा कुछ बंधा हुआ था। इस बिन्दु पर बातचीत चल पड़ी तो उन्होंने बताया कि वियतनाम में जहां बौद्ध धर्म का प्रभाव है वहीं लाओस में ब्राह्मणवाद का; और एक तरह से उनके देश में बौद्ध और ब्राह्मण दोनों परंपराओं के बीच तालमेल बैठा दिया गया है। उनके गले में लॉकेट था। उसमें एक तरफ भगवान बुद्ध थे और दूसरी तरफ किसी अन्य देवता की छवि। मालूम पड़ा कि कोई शुभ कार्य होने पर बौद्ध पुजारी आता है और वैदिक परंपरा से अनुष्ठान कराता है। यह मौली भी उसी की देन है। एक दिलचस्प जानकारी उन्होंने और दी कि चंपा लाओस देश का राष्ट्रीय पुष्प है। भारत का पूर्वी एशिया के साथ कितने स्तरों पर सांस्कृतिक विनिमय हुआ है इस बारे में अभी हमें बहुत कुछ जानना बाकी है।
वियतनाम, लाओस और कम्बोडिया इन तीनों की एक विशेषता है।  इन्हें मिलाकर बनने वाले क्षेत्र को हिन्दचीन कहा जाता है। चीन तो खैर इनका निकटतम पड़ोसी है। भारत भी बहुत दूर नहीं है। इन दोनों बड़े देशों की संस्कृतियों का हिन्दचीन पर कहीं कम, कहीं ज्यादा प्रभाव पड़ा है। इन तीन देशों  ने एक देश की नहीं, बल्कि दोहरी गुलामी झेली है। पहले फ्रांस  और फिर अमेरिका की। इन्होंने अमेरिका से लंबी लड़ाई लड़ी, स्वतंत्रता हासिल की। इसमें सबसे घना, सबसे लंबा और सबसे भीषण संघर्ष वियतनाम में हुआ। साम्राज्यवादी ताकतों ने देश को दो हिस्सों में बांट दिया। स्वतंत्रता और एकीकरण के लिए वियतनाम की जनता ने बहुत दिलेरी के साथ लड़ाई लड़ी और अंतत: विजय हासिल की। आज भी वियतनाम एक शांतिप्रिय विकासशील देश के रूप में आगे बढ़ रहा है और चाहता है कि दुनिया में अब कहीं भी युद्ध की नौबत नहीं आना चाहिए।
देशबंधु में 14 जून 2018 को प्रकाशित 

Wednesday 6 June 2018

वियतनाम : एक अधूरी यात्रा-1

                                   
मैं इस यात्रा को अधूरी ही कहूंगा क्योंकि जो कुछ मन में था वह मैं नहीं देख पाया।  हनोई विमानतल से आना-जाना हुआ, लेकिन मात्र पैंतालीस किलोमीटर दूर स्थित न तो हनोई शहर को देख सका और न वियतनाम के राष्ट्रपिता हो ची मिन्ह की समाधि पर जा सका। सुदूर दक्षिण में स्थित सैगोन जिसे अब हो ची मिन्ह सिटी कहा जाता है को देखने का तो सवाल ही नहीं था। मैं यद्यपि मध्यपूर्व में स्थित क्वांग त्री प्रांत तक गया था, लेकिन देश के ऐन मध्य में स्थित चाम प्रांत की यात्रा करने का सुयोग नहीं जुटा पाया। इस चाम प्रांत को ही सुदूर अतीत में हम भारतीय चंपा देश के नाम से जानते थे और यहां दसवीं-ग्यारहवीं शताब्दी का बना शिव मंदिर भारत और वियतनाम के सदियों पुराने सांस्कृतिक संबंधों की गवाही देता खड़ा है। बहरहाल जो कुछ देखा अच्छा ही देखा और ढेर सारी अच्छी स्मृतियां लेकर ही मैं वहां से लौटा। वियतनाम जाने का मन तो न जाने कब से था इसलिए जितना देख लिया उसमें ही संतोष करना ठीक है।
नवमी-दसवीं क्लास में पढ़ते समय लाओस, कम्बोडिया, वियतनाम और इनके साथ विएन तिएन, लुआंग प्रवांग, नाम पेन्ह, हनोई जैसे नगरों के नाम बार-बार सुनने में आते थे। सुश्री कमला रत्नम आदि के इन देशों पर लिखे गए लेख उस समय की पत्रिकाओं में पढ़ने मिलते थे। कई बरस बाद 1994 में ताइवान जाते समय बैंकाक हवाई अड्डे पर कुछ देर रुका तो इन तमाम शहरों को जाने वाली फ्लाइट की सूचनाएं सुनने-देखने मिल रही थीं, तब कुछ पल के लिए मन बच्चों जैसा मचल गया था कि ताइवान छोड़कर इन्हीं देशों की तरफ निकल जाऊं। अपने मन से उड़ने की आजादी पक्षियों को है, कछुए और मछलियां भी सीमाओं की परवाह कहां करती हैं, लेकिन मनुष्य को तो पासपोर्ट और वीजा की औपचारिकताएं पूरी करना पड़ती हैं। ये प्रथम विश्वयुद्ध की मनुष्यता को सौगात हैं। इसके पहले पासपोर्ट की आवश्यकता नहीं पड़ती थी। अब तो उसमें भी कितने सारे नए-नए प्रतिबंध लग गए हैं। आधार कार्ड की तरह बायोमीट्रिक पहचान अनिवार्य हो गई है।
मुझे 19 मई की दोपहर दक्षिण चीन सागर के तट पर बसे क्वांग त्री नगर पहुंच जाना था, लेकिन हनोई पहुंचने वाली फ्लाइट में विलंब हुआ, आगे की फ्लाइट चूक गई और करीब पांच घंटे विमानतल पर ही काटना पड़े। खैर! 19 मई की शाम आठ बजे के करीब मैं हनोई से व्हे विमानतल पर उतरा। व्हे वियतनाम की पुरानी राजधानी रही है। यहां से क्वांग त्री का लगभग अस्सी किलोमीटर का सफर सड़क मार्ग से तय करना था। रात हो गई थी, लेकिन रास्ते के गांवों में चहल-पहल थी। यह दिख रहा था कि अधिकतर घर एकमंजिले थे; खपरैल या टीन की छत वाले, दोमंजिले, तिमंजिले मकान बहुत कम देखने में आए। हमारा कुछ सफर हनोई से हो ची मिन्ह सिटी जाने वाले एशियन हाईवे एक पर हुआ, और करीब आधा सफर ग्रामीण रास्ते पर। हाईवे भी कहीं-कहीं ही फोरलेन था, लेकिन सड़क पर यातायात रात को भी काफी था। रास्ते में जगह-जगह एक के बाद एक ढाबे खुले हुए थे जिनसे अनुमान हुआ कि स्थानीय लोग बड़ी संख्या में यहां आकर खाना पसंद करते हैं।
क्वांग त्री में शहर से दूर समुद्र तट पर स्थित अपने होटल तक पहुंचने के लिए हम जिस सड़क से गुजरे वहां एक जगह यह देखकर प्रसन्नता हुई कि सड़क पर गायें निर्द्वंद्व विचरण कर रही थीं।  भारत-वियतनाम की दोस्ती का इससे बड़ा सबूत और क्या हो सकता था! मैं एक क्षण में मानो रायपुर वापिस पहुंच गया था। यह नजारा हमें एकाध जगह और देखने मिला, लेकिन इसे अपवाद ही मानना चाहिए और इस आधार पर वियतनाम के बारे में कोई राय बनाएंगे तो गलती करेंगे। सड़क यात्रा में मैंने पाया कि गाड़ियों के हार्न यदा-कदा ही बजते हैं, वे भी अधिकतर लंबी दूरी के बसों के ड्रायवर बजाते हैं। दूसरे, वियतनामी लोग जितने विनम्र हैं उतने ही परिश्रमी भी हैं। वे आपको कोई वस्तु देंगे या लेंगे तो दोनों हाथ से। यह शिष्टाचार मैंने अब तक सिर्फ जापान में देखा था।
आप होटल में जाएं, रेस्तरां में या बाजार में किसी दूकान पर, कदम-कदम पर इस विनम्रता का अनुभव करेंगे। स्त्री हो पुरुष, मेहनत करने में वे लाजवाब हैं। हम जिस होटल में ठहरे थे वहां स्वागत कक्ष याने रिसेप्शन पर जो लड़की बैठी थी वही कक्ष में और कक्ष के बाहर झाड़ू लगा रही थी। उनकी गिफ्ट शॉप मैं देखना चाहता था तो उसी लड़की ने आकर दूकान खोली और मुझे सामान दिखाया। इसी तरह आपने किसी को भी कोई काम कहा तो इंकार सुनने नहीं मिला। उनकी कार्यदक्षता का उदाहरण मैंने देखा जब 22 तारीख को हमारी कार्यशाला समाप्त होने के बाद आधा घंटे के भीतर पूरे हाल की सफाई हो गई जैसे किसी ने जादू की छड़ी चला दी हो। हां, होटल में, शहर में या एयरपोर्ट में घूमते हुए एक बड़ी अड़चन पेश आई कि उनका अंग्रेजी ज्ञान नहीं के बराबर है। गनीमत है कि वे वाटर कहने से पानी समझ लेते हैं, बाकी तो इशारों में बात समझानी पड़ती है।
वियतनाम में मुख्य तौर पर धान की ही खेती होती है। हमारी तरह वहां भी हार्वेस्टर चलन में आ गए हैं। इस वजह से अब वहां धान के बच गए ठूंठों या नरई को आग जलाकर खत्म करते हैं। उत्तर भारत में इस क्रिया को पराली के नाम से जानते हैं। खेतों में आग लगाने के कारण धुआं फैलता है और आसपास के वातावरण को प्रदूषित करता है। वियतनाम में चिंता व्याप्त है कि इस प्रदूषण को कैसे रोका जाए। कुछ लोगों का मानना है कि जलाने से जो राख बनती है वह उत्तम खाद का काम करती है। एक और विशेषता पर मेरा ध्यान गया। लगभग हर घर में आंगन में या दो-तीन मंजिल का घर हुआ तो ऊपर एक छोटे से मंदिर का निर्माण अवश्य हुआ है। अधिकतर वियतनामी बौद्ध हैं। इस मंदिर में भगवान बुद्ध के साथ-साथ पुरखों की भी पूजा होती है, ऐसा मुझे बताया गया।
इधर घरों में छोटे-छोटे मंदिर हैं, तो उधर खेतों में समाधियां बनी हैं। कोई खेत ऐसा नहीं जिसमें कि एक-दो समाधियां न हों। इन समाधियों को काफी अच्छे से अलंकृत किया गया है। कई जगह पर समाधियों के आगे तोरणद्वार भी देखने में आए। यह दृश्य ग्रामीण क्षेत्र का है, लेकिन नगरीय क्षेत्र में ऐसा करना संभव नहीं है तो अब वहां खुली जगहों पर कब्रिस्तान बन गए हैं। जिनकी जतन के साथ देखभाल की जाती है। क्वांग त्री वियतनाम का शायद सबसे गरीब प्रांत है। वहां मुझे कोई बड़े कारखाने आदि नजर नहीं आए। हां, होटलों और ढाबों के साथ मोबाइल की दूकानें बड़ी संख्या में नजर आती हैं और इसके अलावा स्कूटर-बाइक रिपेयर की दूकानें। देश की मेहनतकश औरतें और आदमी सुबह चार बजे से अपनी-अपनी स्कूटी पर ढेर सारा सामान लाद कर पास के बाजार के लिए निकल पड़ते हैं।
यह दिलचस्प बात है कि अधिकतर वियतनामी अंग्रेजी भाषा नहीं जानते लेकिन उनकी अपनी कोई लिपि नहीं है और वे रोमन लिपि का प्रयोग करते हैं।  कहते हैं कि कोई डेढ़ सौ साल पहले तक वहां मंदारिन या चीनी लिपि का प्रयोग होता था। जब वियतनाम पर फ्रांस का कब्जा था, तब कभी एक फ्रेंच सैन्य अधिकारी ने वियतनामी भाषा के लिए रोमन लिपि को कुछ सुधारों के साथ लागू किया और अब वही उनकी अपनी लिपि बन गई है। इसमें वियतनामी भाषा के विशिष्ट उच्चारणों के लिए लिपि में संशोधन किए गए हैं जिसे जानकार ही समझ सकते हैं। जैसे 'डी' का उच्चारण कब 'द' होगा और कब 'झ' इसे समझना हमारे लिए कठिन है। दूसरे भाषा  और लिपि भले एक हो, लेकिन स्थान परिवर्तन के साथ उच्चारण परिवर्तन भी हो जाता है। मध्य और दक्षिण में जिसे क्वांग त्री कहते हैं उत्तर में वह क्वांग ची बन जाता है। 
देशबंधु में 07 जून 2018 को प्रकाशित 

Sunday 3 June 2018

बिंदास बेपरवाह बसंत: एक दोस्त की कुछ यादें

            
वह जीवन ही क्या जो सीधी-सरल राह पर चले! हर व्यक्ति की ज़िन्दगी में लगभग बिना अपवाद के न जाने कितने घेरदार-घुमावदार मोड़ आते हैं, न मालूम कितने उतार-चढ़ाव उसकी परीक्षा लेते हैं; फिर भी एक दौर, वह छोटा ही क्यों न हो, अवश्य आता है जब वह चारों तरफ से बेपरवाह होता है। तकलीफें और मुसीबतें उस पर हमलावर होती हैं, किन्तु वह हंसकर उनका इस्तकबाल करता है। उसका आत्मविश्वास कहता है कि ये दिन आसानी से गुज़र जाएंगे। यह दौर अमूमन व्यक्ति की तरुणाई के दिनों में होता है। उसकी आंखों में चमक होती है। उस चमक में सपने पलते हैं। हृदय में सपनों को हकीकत में बदलने की आशा और किसी हद तक ज़िद होती है। यह उसकी मासूमियत, निश्छलता, अल्हड़पन, खिलंदड़ेपन का दौर होता है। इन दिनों जो दोस्त बनते हैं वे उम्र भर के लिए और दुश्मनियां जल्द ही भुला दी जाती हैं। इस दौर की यादें बिल्कुल छायावादी कविता की मानिंद किताब में रखे सूखे फूल सी होती हैं। कभी अनायास किताब हाथ में आती है, पन्ने पलटते-पलटते सूखा फूल सामने आ जाता है और अतीत की स्मृतियां मन के दरवाजे पर दस्तक देने लगती हैं।
मेरे साथ पिछले दिनों कुछ ऐसा ही हुआ। मैं तीन दिन की यात्रा से लौटा था। थका हुआ था। यूं ही बैठे-बैठे झपकी लग गई थी कि फोन की घंटी ने मुझे उठा दिया। दूसरी तरफ युवा पत्रकार-लेखक समीर दीवान थे। अपने पिता बसंत दीवान पर एक स्मृति ग्रंथ प्रकाशित कर रहे हैं, आप उनके मित्र थे; उस दिन घर आए थे तो उनके संस्मरण सुना रहे थे; क्या आप उन पर एक स्मृति लेख लिख सकेंगे? न करने का सवाल ही नहीं था। फिर मुझे दुबारा नींद न आई। बसंत दीवान के बारे में सोचते-सोचते मैं उसे बीते वक्त में पहुंच गया, जब उनके साथ पहली भेंट हुई थी। देशबन्धु का नाम तब नई दुनिया हुआ करता था। इंदौर से प्रकाशित नई दुनिया की आंशिक भागीदारी में बाबूजी ने 1959 में रायपुर से अखबार का प्रकाशन प्रारंभ किया था। वह एक अलग कथा है। अखबार का दफ्तर सदर बाजार में बूढ़ातालाब और श्याम टॉकीज तक जाने वाली एक ढलुवां सड़क पर था। संपादकीय विभाग के लगभग सभी साथी, उम्र में बड़े या छोटे, लिखने-पढऩे वाले प्राणी थे, कवि, कहानीकार गीतकार, गायक आदि। रायपुर तब मध्यप्रदेश का पांचवा बड़ा शहर होकर भी एक मझोले आकार का नगर था। 1964 में विश्वविद्यालय स्थापित हो गया था। साहित्यिक-सांस्कृतिक हलचलें लगातार चलती थीं।
1964 में ही किसी दिन बसंत दीवान से परिचय हुआ। वे शायद किसी पत्रकार मित्र के साथ प्रेस आए थे। परिचय में मालूम हुआ कि वे जे.जे. स्कूल ऑफ आटर््स, बम्बई से प्रशिक्षण लेकर लौटे हैं और फोटोग्राफर हैं। मैंने बात-बात में उन्हें सुझाया कि वे अखबार के लिए काम क्यों नहीं करते। उन्हें यह मशविरा पसंद आ गया और इस तरह बसंत दीवान नामक बंबई रिटर्न युवक देशबन्धु का, रायपुर का और छत्तीसगढ़ का पहला प्रेस फोटोग्राफर बन गया। प्रदेश की पत्रकारिता के इतिहास लिखने वाले कृपया यह तथ्य नोट करें। लगभग उसी समय नगर निगम के रामदयाल तिवारी स्कूल के शिक्षक श्रीनिवास (चीनी) नायडू देशबन्धु के मार्फत प्रदेश के पहले खेल पत्रकार बन गए थे। यह हम सबकी तरुणाई का समय था। मैं उम्र में सबसे छोटा था, लेकिन दोस्ती में सब बराबर थे। अखबार हमारे लिए मुनाफे का माध्यम नहीं, समाज को कुछ बेहतर देने का अवसर था। हम लोग काम खत्म होने के बाद घंटों साथ बैठते थे। फुरसत के समय दुनिया भर के मुद्दों पर बहसें करते थे। सुबह चार बजे प्रेस से उठे तो शारदा चौक पर अक्सर सबेरा होटल या कभी-कभार बाम्बे भेल हाउस में चाय पीकर बातों में समय गुजारते थे।
बसंत जब बंबई से लौटे उसी के आसपास मनु नायक भी मायानगरी से लौटकर आए और ज़ाफ़र अली फरिश्ता भी। मनु नायक ने पहली छत्तीसगढ़ी फिल्म बनाई- "कहि देबे संदेस"। अब्बास साहब की "शहर और सपना" की नायिका सुरेखा इस फिल्म की नायिका बनीं। उन्हें देखने भीड़ उमड़ती थी। ज़ाफ़र अली फरिश्ता बंबई में फिल्मों में छोटे-मोटे रोल कर रहे थे। वे भी अपने गृहप्रदेश में शायद नई संभावनाएं तलाश रहे थे। कुछ समय बाद वापिस चले गए। 1964 में ही शायद दुर्ग के नारायण भाई ने एचएमवी में पहला छत्तीसगढ़ी गाना- "सावन में लोर-लोर, भादों में घटा घोर" रिकॉर्ड करवाया था। मेरे सहपाठी इकबाल अहमद रिज़वी ने भी किसी छत्तीसगढ़ी फिल्म में एक गाना गाया था। हरि ठाकुर और नरेन्द्र देव वर्मा ने 'संज्ञा" पत्रिका प्रारंभ की। कुछ समय बाद विभु खरे ने "हस्ताक्षर" का प्रकाशन प्रारंभ किया। गुरुदेव काश्यप और प्रभाकर चौबे ने मिलकर "धूप के टुकड़े" नाम से साइक्लोस्टाइल्ड पत्रिका शुरू की। कुल मिलाकर एक रचनात्मक माहौल बना हुआ था, जिसमें एक युवा पीढ़ी उत्साह व उमंग के साथ भाग ले रही थी।
बसंत दीवान को याद करते हुए इन सबकी याद सहसा आ गई। बसंत दीवान बहुत अच्छे फोटोग्राफर थे। अखबार के लिए तस्वीर लेने हेतु वे भागदौड़ भी बहुत करते थे। उस समय उनका स्टूडियो शायद घर पर ही था। उन दिनों अखबारों की मुद्रण तकनीक पुरानी थी, फोटो से ब्लॉक बनते थे, फिर छपाई होती थी। यहां ब्लॉक-मेकिंग की व्यवस्था नहीं थी। शाम की ट्रेन से फोटो नागपुर भेजते थे, अगले दिन एम.आर. देउसकर एंड कंपनी वाले ब्लॉक बनाकर रात की ट्रेन से रवाना करते थे और तब तीसरे दिन जाकर फोटो छपता था। लेकिन जीवन में आज जैसी आपा-धापी नहीं थी, खबरों के लिए लोग समाचार पत्र का इंतजार करते थे। जशपुर, सरगुजा और बस्तर के दूरस्थ इलाकों में दूसरे दिन शाम तक अखबार पहुंचते थे, इसलिए फोटो तीसरे-चौथे दिन भी छपा तो कोई बड़ी बात नहीं थी। लेकिन हां, इससे हमारे अखबार को भी प्रशंसा मिली और बसंत दीवान की लोकप्रियता भी बढ़ी। लोकप्रिय मैंने इसलिए कहा क्योंकि वे लोगों को अपना बनाने की कला में सिद्धहस्त थे।
बसंत दीवान की प्रेस फोटोग्राफी का दौर दस-बारह साल चला। इस बीच उन्होंने अपना स्टूडियो भी खोला। पहले शारदा चौक के पास शुक्ला भवन की ऊपरी मंजिल पर एक तिकोने कमरे में, बाद में नवीन बाजार में उन्होंने व्यवस्थित रूप से स्टूडियो स्थापित किया। लेकिन तब तक उनका मन दूसरी दिशा में मुडऩे लगा था। डॉ. खूबचंद बघेल द्वारा स्थापित छत्तीसगढ़ी भ्रातृसंघ से वे जुड़ गए थे। पृथक छत्तीसगढ़ आंदोलन के शुरूआती दौर से ही वे उसके साथ रहे। फोटोग्राफी के अलावा गीत लिखने में भी उनकी दिलचस्पी थी और उन्होंने अच्छा कंठ स्वर भी पाया था। इनके चलते वे आंदोलन के जलसों में भाषण देने लगे। उन्हें कवि सम्मेलनों में भी आमंत्रित किया जाने लगा। एक तरह से बसंत अपनी प्रतिभा को एक दिशा में केन्द्रित न कर अनेक दिशाओं में फैलाने में लग गए थे। हम लोगों का मिलना-जुलना चलता रहा, यद्यपि उसमें पहले जैसी नियमितता नहीं रही।
1971 में मेरी बड़ी बेटी के पहले जन्मदिन पर जो कुछ मित्र इकट्ठा हुए थे, उनमें बसंत दीवान भी थे। उन्होंने इस अवसर पर जो फोटो लिए वे अभी भी मेरे एलबम में सुरक्षित हैं। यद्यपि अधिकतर मित्र अब हमारे बीच नहीं रहे। घर और प्रेस के कार्यक्रमों के फोटो अनेक अवसरों पर उन्होंने ही लिए। बसंत दीवान के दो मजेदार प्रसंग मुझे ध्यान आ रहे हैं- 1972 में अपने मित्र डॉ. रमेश पाहूजा की शादी में हम बहुत से लोग महासमुंद गए। रात को रेस्ट हाउस में रुके थे। बरामदे में बैठकर गप्पें चल रही थीं। कहीं एक कुत्ता भौंका। बसंत ने हूबहू उसकी नकल उतारी, देखते ही देखते सौ-पचास कुत्तों का समवेत स्वर में भौंकना शुरू हो गया। एक तरफ श्वान सेना, दूसरी तरफ अकेले बसंत दीवान। अपने प्रबल कंठस्वर और  नकल उतारने की प्रतिभा से उन्होंने युद्ध जीत लिया। सारे कुत्ते थककर वापिस लौट गए। एक दूसरा प्रसंग अगले साल 1973 का है। मेरे छोटे भाई देवेन्द्र का विवाह रायपुर के पास चम्पारण से होना था। मैं तैयारियों के लिए पहले चला गया था। बसंत सहित कुछ मित्र बस से आने वाले थे। उसमें छोटे भाई के जबलपुर से आए मित्र भी थे। बाराती धर्म का निर्वाह करते हुए उन्होंने कुछ ऊलजलूल ढंग से बातें करना शुरू कीं। मना करने पर भी नहीं माने। दूल्हे के दोस्त, वे भी जबलपुर के, तब बसंत दीवान ने कमान संभाली और उन उदण्ड लड़कों को ऐसे चुन-चुनकर जवाब दिए कि वे पानी मांगते नज़र आए। बसंत दीवान को गुरु मानकर उनके पैर पकड़ लिए।
बसंत दीवान यारबाश थे। दोस्ती निभाना जानते थे। एक प्रसंग का उल्लेख उदाहरण स्वरूप देना चाहूंगा। प्रदेश से बाहर किसी नगर के एक युवा पत्रकार साथी एक दिन अचानक रायपुर आए। वे अपनी प्रिया को खोजते-खोजते यहां पहुंचे थे। उसके परिजन इस संबंध से नाखुश थे। इन्हें कहीं से खबर लगी कि कन्या को छत्तीसगढ़ के किसी नगर में उसके दूरदराज के रिश्तेदारों की पहरेदारी में रखा गया है। हम कुछ लोग सलाह-मशविरा करने बैठे। राजूदा याने राजनारायण मिश्र और बसंत दीवान ने जिम्मेदारी ली कि वे सही खबर पता करके रहेंगे। उनको मिशन में सफलता मिली। रायपुर में कलेक्टर को अर्जी दी गई कि कन्या बालिग है, उसे मर्जी के खिलाफ रोका गया है। रविवार के दिन कलेक्टर के बंगले में कन्या, उसके रिश्तेदार और साथ में पुलिस इंस्पेक्टर आए। कन्या से परिवार का दु:ख नहीं देखा गया। हमारे दु:खी साथी ने उसके प्रेम पत्र और प्यार की निशानी रुमाल वगैरह वहीं लौटा दिए। ये जो हुआ सो हुआ, लेकिन दा और बसंत दीवान ने एक मित्र के लिए जो खतरा उठाया उसकी तो तारीफ करना ही होगी।
जैसा कि मैंने पहले कहा बसंत इस बीच अन्य गतिविधियों में मसरूफ हो गए थे। मैं भी अपने काम में मुब्तिला था। पहले जैसी फुर्सत और निश्चिंतता अब नसीब नहीं थी। लेकिन फिर एक दिन मैंने ही उनसे बात की। 1964 में मैंने उन्हें प्रेस फोटोग्राफर बनने का मशवरा दिया था। इस बार मेरा परामर्श था कि देशबन्धु के लिए व्यंग्य कविता का एक दैनिक कॉलम लिखो। वे मान गए और "बसंत राग"  शीर्षक से उनकी व्यंग्य कविता का स्तंभ प्रकाशित होने लगा। यह कॉलम संपादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित होता था। ये बात शायद 1994-96 के आसपास की होगी। कॉलम लोकप्रिय हुआ, लेकिन अपने बिंदासपन के मारे बसंत इसे लंबे समय तक जारी नहीं रख पाए। मैं आज सोचता हूँ कि बसंत अपने नाम के अनुरूप जीवन भर एक तरुण ही बने रहे। कुछ-कुछ बेपरवाह, कुछ-कुछ जिद्दी, कुछ-कुछ स्वप्नदर्शी। कहना होगा कि उन्होंने नाम के अनुरूप अपने व्यक्तित्व को बचाकर रखा। गर्मी, बरसात, जाड़ा, सब झेलते रहे, लेकिन अपने जीवन में शिशिर को आने नहीं दिया।  

 अक्षर पर्व मई 2018 अंक की प्रस्तावना