Wednesday 28 December 2016

विमुद्रीकरण : पांच अहम बिन्दु


 
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 8 नवंबर की रात बड़े नोटों के विमुद्रीकरण की घोषणा के साथ आम जनता से धीरज रखने की अपील की थी और स्थिति को सामान्य करने के लिए पचास दिन का समय मांगा था। कल 30 दिसंबर को यह समय सीमा पूरी हो जाएगी। इस बीच में देश की जनता ने जो कुछ देखा, भुगता, सहन किया, उसके पांच अहम बिन्दु ध्यान में आते हैं: 1. रिजर्व बैंक की भूमिका 2. बाजार के हालात 3. जांच एजेंसियों की कार्रवाईयां 4. मुद्राहीन व्यवस्था की हकीकत 5. जनसामान्य, मीडिया और विशेषज्ञों की प्रतिक्रियाएं।
ऐसा याद नहीं पड़ता कि रिजर्व बैंक की भूमिका के बारे में आम जनता में इसके पहले कभी कोई चर्चा हुई हो। रिजर्व बैंक में गवर्नर की नियुक्ति और सेवानिवृत्ति एक सामान्य प्रक्रिया के तहत चली आ रही थी, जिसमें पहली बार एक नया मोड़ रघुराम राजन का कार्यकाल समाप्त होने के साथ आया। रिजर्व बैंक ही देश की मुद्रानीति का नियमन और संचालन करता है, यह बात आम तौर पर लोग नहीं जानते, लेकिन प्रधानमंत्री तो इसे जानते थे। इसलिए एक ओर जहां उन्होंने स्वयं दूरदर्शन पर आकर विमुद्रीकरण की घोषणा की, वहीं दूसरी ओर वैधानिक औपचारिकता पूरी करने के लिए उसी दिन रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया के बोर्ड ऑफ गवर्नर्स की बैठक आनन-फानन में बुलाकर उसमें सरकार की इच्छानुसार फैसला ले लिया गया। इस बारे में अब जाकर पता चला है कि रिजर्व बैंक के बोर्ड में स्वतंत्र सदस्यों के चौदह में दस पद खाली पड़े हैं और उपरोक्त बैठक में बचे चार में से कुल तीन स्वतंत्र सदस्य ही शामिल हुए। इस निर्णय से रिजर्व बैंक की स्वायत्तता को आघात पहुंचा, साथ ही नवनियुक्त गवर्नर उर्जित पटेल की छवि भी धूमिल हुई।
यह अकारण नहीं है कि रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया का उपहास रिवर्स बैंक ऑफ इंडिया कहकर किया जा रहा है। विगत पचास दिनों में बैंक ने एक के बाद एक कोई साठ दिशानिर्देश जारी किए। उनमें से कई ऐसे थे जिनमें पिछले निर्देशों को ही काट दिया गया।  इससे अफरातफरी का माहौल बना। सबसे बुरी स्थिति तब निर्मित हुई जब बैंक ने एकाएक पुराने नोट लेने की मनाही और लेने की स्थिति में सत्यापन आदि की शर्त रख दी।इससे प्रधानमंत्री द्वारा पहले दिन की गई घोषणा का उल्लंघन हुआ। लोग सवाल पूछने लगे कि क्या देश में प्रधानमंत्री के वचन का कोई मूल्य नहीं रह गया है? जबकि रिजर्व बैंक गवर्नर के वचन को तो पहले ही मूल्यहीन कर दिया गया था। दूसरी गड़बड़ी नोटों का आकार तय करने, छपाई करने, करेंसी चेस्ट और फिर बैंकों तक नोट पहुंचाने में हुई।बैंक अथवा अन्य निर्णयकर्ता यह अनुमान लगाने में गंभीर रूप से असफल हुए कि चौदह-पंद्रह लाख करोड़ के नोट वापिस आएंगे तो उसके बदले न्यूनतम कितने नोट शीघ्रातिशीघ्र बैंकों में पहुंचा दिए जाएं। नोट का आकार क्यों बदला गया, यह भी किसी को समझ नहीं आया; उसे एटीएम में भरने के लिए क्या तकनीकी परिवर्तन करना पड़ेंगे, यह भी नहीं सोचा गया। यह एक रहस्य है कि नए नोट पर देवनागरी में अंक क्यों लिखे गए, क्योंकि भारत में वैधानिक तौर पर रोमन अंकों का ही प्रयोग होता है।
इस अप्रत्याशित निर्णय के समर्थक अपनी तारीफ में चाहे जो कहें बाजार की हकीकत कुछ और ही बयां करती है। प्रतिदिन खबरें मिल रही हैं कि देश में उत्पादक गतिविधियों में भारी गिरावट आई है। बाजार में नकद राशि नहीं है और बिना नकदी के व्यापार कैसे चले? पंजाब के खेतों से हजारों की संख्या में किसान पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार के अपने गांवों में लौट आए हैं, रायपुर में इस्पात कारखानों में काम लगभग बंद है, मजदूरों को घर बैठा दिया गया है कि जब हालात सुधरेंगे तब वापिस बुला लेंगे। बैंकों के बाहर लाइनें अभी भी लग रही हैं। शहरों की स्थिति बेहतर हुई है, लेकिन गांवों के हालात बदतर ही कहे जाएंगे। उत्तर प्रदेश में गन्ना उत्पादकों को भले ही चुनावों को ध्यान में रख भुगतान मिल रहा हो, छत्तीसगढ़ में किसानों को अपनी फसल का मूल्य पाने के लिए चक्कर पर चक्कर काटना पड़ रहे हैं। कहने को एक बार में भुगतान की सीमा पचास हजार है, लेकिन मिल रहा है दो हजार। स्थिति कब सुधरेगी कोई बताने की स्थिति में नहीं है
इस बीच आयकर विभाग, प्रवर्तन निदेशालय और सीबीआई की सरगर्मियों में एकाएक तेजी आई है। एक से एक विचित्र किन्तु सत्य किस्से सुनने मिल रहे हैं। गुजरात में एक व्यक्ति आईडीएस में एक लाख करोड़ से ज्यादा की अघोषित आय का खुलासा करता है और फिर उस पर टैक्स नहीं पटा पाता, तो अन्यत्र भजिए की दुकान से शुरू कर सूद का धंधा करने वाले व्यक्ति पर छापे में दो हजार करोड़ रुपए की छुपी आय खोजने का दावा होता है। राजनेताओं के पास से कहीं नए तो कहीं पुराने नोट पकड़े जा रहे हैं। तिरुपति मंदिर के ट्रस्टी के पास से कोई सौ करोड़ की रकम मिलती है, तमिलनाडु में प्रदेश का चीफ सेके्रटरी गिरफ्तार हो जाता है, केरल में सहकारी बैंकों पर छापे पड़ते हैं, लेकिन इन सब छापों से जो रकम मिली है, उसका आंकड़ा मात्र चार हजार करोड़ पर पहुंचा है और यह तय होना बाकी है कि इसमें वैध धन कितना है और अवैध कितना। यह सवाल भी उठता है कि ये सारी कार्रवाईयां तो इन विभागों के नियमित काम का हिस्सा है, इसे विमुद्रीकरण से कहां तक जोड़ा जाए?
ऐसी खबरें भी लगातार मिल रही हैं कि बैंक अधिकारियों ने बहुत लोगों के पुराने नोट बदलकर उन्हें नए नोट दे दिए। जहां इतने सारे बैंक और बैंक कर्मचारी हैं वहां सौ-पचास लोगों ने गलत ढंग से काम किया हो तो उसमें आश्चर्य नहीं होना चाहिए। इस बारे में यह बिन्दु भी उभरता है कि क्या बैंक अधिकारी अपने बड़े खातेदारों अथवा रसूखदार लोगों को पुराने के बदले नए नोट देने से मना कर सकते थे। यह एक नैतिक प्रश्न है, लेकिन इसका व्यवहारिक पक्ष भी है। यह तो सरकार को पहले से सोचना चाहिए था कि अगर बैकों में पर्याप्त संख्या में नए नोट नहीं पहुंचाए गए तथा नोट बदली के लिए पर्याप्त अवसर नहीं दिया गया तो इससे हाहाकार तो मचेगा ही, गलत तरीके से अपना काम करवा लेने की प्रेरणा भी कुछ लोगों के मन में जागृत हो सकती है।
जैसा कि प्रारंभ में बताया गया था, चौदह लाख करोड़ से कुछ अधिक के पुराने नोट प्रचलन में थे वह रकम लगभग पूरी की पूरी बैंकों में वापिस आ गई है। यह अभियान कुछ समझदारी के साथ चलाया जाता तो बहुत सी अवांछित स्थितियों से बचा जा सकता था।
पहले दिन प्रधानमंत्री ने विमुद्रीकरण के तीन मुख्य लक्ष्य बताए थे। वे नेपथ्य में चले गए। अब सारी बात कैशलैस और लैसकैश पर आकर टिक गई है। सरकार द्वारा मुद्राहीन भुगतान को बढ़ावा देने के लिए जोर-शोर से प्रचार किया जा रहा है, प्रलोभन दिए जा रहे हैं, यहां तक कि लाटरी भी शुरू कर दी गई है। यहां तीन बातें गौरतलब हैं-
  1. जर्मनी में अस्सी प्रतिशत और अमेरिका में पैंतालीस प्रतिशत नकदी लेनदेन आज हो रहा है।
  2. भारत में इलेक्ट्रॉनिक लेनेदेन के लिए जितनी सुदृढ़ अधोसंरचना चाहिए वह नहीं है। हमारे पास न तो पर्याप्त संख्या में पीओएस मशीनें हैं, न सबके पास स्मार्टफोन हैं और न 3जी-4जी में आवश्यक गति है।
  3. भारतीय जनमानस से एकाएक नकदी छोडक़र डिजिटल प्लेटफार्म पर आने की उम्मीद करना भी गलत है। आदमी है मशीन नहीं, बदलने में समय लगता है।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पर देश की जनता का एक हिस्सा आंख मूंदकर विश्वास करता है। उसे लगता है कि मोदी जी जो कहते हैं, करके दिखाते हैं। वह उन्हें उचित समय भी देना चाहते हैं। विमुद्रीकरण के संदर्भ में इस वर्ग को विश्वास है कि नरेन्द्र मोदी के राज में कालाधन समाप्त होगा और भ्रष्टाचार पर अंकुश लग जाएगा। इसलिए बैंकों के बाहर लगी कतारों में घंटों प्रतीक्षा करने के बाद जो सौ से अधिक लोग मर गए, उससे भी इस वर्ग की धारणा में कोई फर्क नहीं पड़ा, लेकिन देश और दुनिया के तमाम अर्थनीति विशेषज्ञ इस कदम की आलोचना कर रहे हैं। इससे वैश्विक पूंजीजगत में भारत की साख को धक्का लगा है।
आम जनता को जो दिक्कतें हो रही हैं वह आज तो बर्दाश्त कर रही है, किन्तु यदि समय रहते स्थितियों में सुधार नहीं आया तो जनता का आक्रोश क्या रूप लेगा, इसकी कल्पना मैं अभी नहीं कर पा रहा हूं।
देशबंधु में 29 दिसम्बर 2016 को प्रकाशित 

Saturday 24 December 2016

अरब बसंत से अलेप्पो तक




साम्राज्यवादी पश्चिम ने अमेरिका के नेतृत्व में पिछले सौ सालों के दौरान अरब देशों के खिलाफ लगातार षडय़ंत्रों की रचना की है। इसके तीन प्रमुख कारण समझ आते हैं। एक- पश्चिम एशिया व उत्तर अफ्रीका, याने मिडिल ईस्ट के तेल भंडारों पर कब्जा करना। दो- यहूदियों के लिए इजरायल देश की स्थापना कर उनके साथ सदियों के जटिल संबंधों को अपने हित में एक नया मोड़ देना। तीन- ईसाईयत और इस्लाम के बीच एक हजार वर्ष पूर्व हुए धर्मयुद्धों की जातीय स्मृति के साथ अपनी श्रेष्ठता प्रतिपादित करना। कहना आवश्यक है कि साम्राज्यवादी और पूंजी-पोषक वर्ग के संदर्भ में यह बात की गई है जिसके प्रमाण पश्चिम के ही उदारवादी लेखकों, चिंतकों व राजनीतिक कार्यकर्ताओं के लेखों में मिलते हैं। इस इतिहास की एक त्रासद विडंबना इस रूप में देखने मिलती है कि एक ओर जहां उन्नीसवीं सदी के अंतिम दशकों से ही यहूदियों के पितृदेश याने इजरायल के निर्माण की भूमिका साम्राज्यवादी शक्तियों द्वारा तैयार की जा रही थी, जिसकी सफल परिणति 1948 में नए देश के उदय के साथ हुई, वहीं दूसरी ओर नाजी-जर्मनी के दुर्दान्त तानाशाह हिटलर के राज में यहूदियों का नरसंहार हुआ।

इसी इतिहास की दूसरी विडंबना है कि आज इजरायल की गणना विश्व के बड़े युद्ध सामग्री निर्यातक के रूप में की जाने लगी है जबकि हजारों सालों के वासी फिलीस्तीनियों को बेघर कर दिया गया है। आज से दो हजार साल पहले यहूदियों को जिन भी कारणों से अपना वतन छोड़ अन्यत्र शरण लेना पड़ी हो, फिलीस्तीनियों ने भला कौन सा अपराध किया था जिसकी सजा उन्हें जलावतन कर दी जा रही है? एक तरफ विश्वग्राम का ढिंढोरा पीटा जाता है तो दूसरी ओर इजरायल में यहूदियों और फिलीस्तीनियों के बीच चीन की दीवार की तर्ज पर कांक्रीट की दीवार खड़ी कर दी गई है। यह एक तस्वीर है। दूसरी तस्वीर में नवसाम्राज्यवादी ताकतों द्वारा अरब जगत पर थोपे गए युद्ध और गृहयुद्धों के दृश्य हैं। इन दारुण स्थितियों के पीछे क्या सोच काम कर रही है इसका खुलासा सेमुअल हंटिंगटन की बहुचर्चित पुस्तक द क्लैश ऑफ सिविलाइजेशन अर्थात सभ्यताओं के संघर्ष में मिलता है। इसका जिक्र मैं पहले भी अपने लेखों में कर चुका हूं। अगर इस पुस्तक को नवसाम्राज्यवादियों का धर्मग्रंथ भी कहा जाए तो शायद अतिशयोक्ति नहीं होगी।

यह 1980 की बात है जब ईरान और इराक के बीच दस-साला खाड़ी युद्ध की शुरूआत हुई। उस समय अमेरिका इराक के तानाशाह सद्दाम हुसैन के साथ खड़ा था और ईरान के अयातुल्ला खुमैनी को दुनिया के सामने एक राक्षस के रूप में पेश किया जा रहा था। उस दौर में फ्रांस के किसी ज्योतिषी नास्त्रोदोमस की चार सौ साल पहले की गई कथित भविष्यवाणियों की खूब चर्चा की गई थी। 1990 में यह युद्ध समाप्त हुआ। सद्दाम हुसैन की पीठ पर हाथ रख ईरान को शक्तिहीन करना था, वह काम तो पूरा हो गया था। लेकिन इसके बाद दस-बारह साल ही हुए थे कि सद्दाम हुसैन को खलनायक बना दिया गया। इराक के पास डब्लूएमडी याने नरसंहार के शस्त्रास्त्र होने का दावा खूब उछाला गया, लेकिन जब हकीकत सामने आई तो वह अमेरिकी दावों से बिल्कुल विपरीत थी। अंतत: यह हुआ कि इराक के बड़े हिस्से पर अमेरिकापरस्त सरकार काबिज हो गई तथा देश के तेल भंडारों पर अमेरिका का नियंत्रण हो गया।

इस तरह पश्चिम एशिया के दोनों बड़े देश  तबाही का शिकार हो गए। लेकिन नवसाम्राज्यवादी शक्तियों को इतने से संतोष नहीं हुआ। उन्होंने 2010 में नया प्रपंच रचा और 2011 के शुरूआती महीनों में ही ट्यूनीसिया, इजिप्त, लीबिया, यमन आदि देशों में अरब बसंत के नाम से चर्चित आंदोलन खड़ा हो गया। दुनिया को बताया गया कि इन तमाम देशों की जनता अपनी वर्तमान सरकारों से त्रस्त है और  वहां जनतांत्रिक बदलाव के लिए मुहिम छिड़ गई है। यह भी कहा गया कि इन देशों की युवा पीढ़ी इन आंदोलन के पीछे है और वह सोशल मीडिया का प्रभावी उपयोग कर बदलाव ला रही है। मैंने उस समय भी लिखा था कि सोशल मीडिया की बात तो सिर्फ झांसा देने के लिए है। असल में तो अमेरिका की शह पर ही यह सब हो रहा है। इस अरब बसंत में ट्यूनीसिया, इजिप्त व यमन की सरकारें पलट गईं और लीबिया में अमेरिका ने सीधे हस्तक्षेप कर कर्नल गद्दाफी को अपदस्थ कर उनको दुनिया से ही विदा कर दिया। लेकिन इसके बाद क्या हुआ?

इजिप्त में नए चुनाव हुए तो वहां मुस्लिम ब्रदरहुड पार्टी को पूर्ण बहुमत के साथ सरकार बनाने का जनादेश मिल गया, किन्तु यह बात साम्राज्यवादी ताकतों को रास नहीं आई और वहां एक बार फिर सैन्य क्रांति होकर सैनिक जनरल के हाथों सत्ता आ गई। यमन में एक राष्ट्रपति की जगह दूसरा राष्ट्रपति आ गया, लेकिन आज वह स्वयं अपने देश से निर्वासित है और देश में गृहयुद्ध छिड़ा हुआ है। यहां इस अंतर्विरोध पर गौर कीजिए कि इजिप्त में कट्टरपंथी मुस्लिम ब्रदरहुड का राष्ट्रपति अमेरिका को मंजूर नहीं हुआ, लेकिन यमन में अमेरिका का दोस्त और कट्टरपंथी इस्लाम के लिए कुख्यात सऊदी अरब निर्वासित राष्ट्रपति को समर्थन दे रहा है। उसके लिए एक संयुक्त अरब मोर्चा भी बन गया है और अमेरिका को इसमें कोई आपत्ति नहीं है। ट्यूनीसिया अपेक्षाकृत छोटा देश है, वहां सरकार बदलने के बाद भी जनजीवन लगभग पहले की तरह चल रहा है। अरब बसंत की इस परिणति के बाद साम्राज्यवादी शक्तियों की निगाहें सीरिया पर आ टिकती हैं। इस बीच अरब जगत में एक नई उन्मादी शक्ति का उदय होता है, जिसे कभी आईएसआईएल, कभी आईएसआईएस और सामान्यत: आईएस के नाम से जाना जाता है। आईएस याने इस्लामिक स्टेट। इसका मकसद इस्लाम में वापिस खिलाफत याने खलीफा का साम्राज्य कायम करना है। आईएस की नृशंसता के तमाम प्रसंग पिछले दो-तीन साल में लगातार सामने आए हैं। एक सभ्य दुनिया में आईएस जैसी ताकत को बर्दाश्त नहीं किया जाना चाहिए। किन्तु यह जानकर हैरानी होती है कि आईएस को खड़ा करने में अमेरिका और उसके पिछलग्गू देशों ने प्रेरक भूमिका निभाई है। बराक ओबामा के कार्यकाल में आईएस की फंडिंग भी अमेरिका द्वारा की गई है। अमेरिका इसके माध्यम से इस्लाम के दो पंथों सुन्नी और शिया के बीच की दरार को फैलाने और उन्हें एक-दूसरे पर आक्रमण कर खत्म हो जाने की कल्पना पाले हुए है। दो बिल्लियों की लड़ाई में बंदर का फायदे वाली कहावत का यह उम्दा उदाहरण है।

यह सर्वविदित है कि अरब जगत मुख्यत: इस्लाम धर्मावलंबी है। सामान्यत: लोग इस्लाम को एक एकसार धर्म के रूप में देखते हैं। वे नहीं जानते कि इस्लाम के भीतर भी बहुत से फिरके हैं और उनके बीच बहुत से मसलों पर मतभेद ही नहीं, कटुताएं भी हैं। यह बात भी अधिकतर लोग याद नहीं रखते कि शिया बहुल इराक की सत्ता सुन्नी सद्दाम हुसैन के हाथों थी, दूसरी तरफ सुन्नी बहुल सीरिया पर शिया बशर अल असद का राज है। एक समय लगभग समूचे अरब जगत में समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष बाथ पार्टी का बोलबाला था, जिसमें अब बशर अल असद के अलावा कोई नहीं बचा है। यह भी स्मरणीय है कि ईरान, इराक, तुर्की और सीरिया के सीमावर्ती इलाके में कुर्द निवास करते हैं जिनकी इस्लाम की अवधारणा बाकी से कुछ अलग है। इन्हें भी पश्चिमी ताकतें लंबे समय से उकसाती रही हैं।

सीरिया के उत्तर में पालमीरा और अलेप्पो जैसे नगर हैं। इन पर पिछले तीन साल से आईएस का कब्जा रहा है। पालमीरा में आईएस ने विश्व की प्राचीन धरोहरों को नष्ट कर दिया जैसे अफगानिस्तान में तालिबान ने। अमेरिका, ब्रिटेन फ्रांस सब मिलकर असद को हटाने के लिए हर संभव कोशिश कर रहे हैं। वे इसके लिए आईएस को भरपूर मदद भी पहुंचा रहे हैं। आईएस और सीरिया के तथाकथित विद्रोहियों ने इन तीन सालों में नागरिक आबादी पर जो भीषण अत्याचार किए हैं उसकी कोई गंभीर पड़ताल मीडिया ने नहीं की। लेकिन जब रूस असद की मदद के लिए आगे आया और अलेप्पो को आईएस के कब्जे से मुक्त कर लिया गया तो वहां नागरिक आबादी पर अत्याचार की खबरें जोर-शोर से प्रचारित होने लगीं। उल्लेखनीय है कि रूस ने इसके पहले बार-बार अमेरिका से चर्चा कर संयुक्त अभियान चलाने के प्रस्ताव रखे, संघर्षविराम भी बीच-बीच में हुआ, लेकिन अमेरिका की नियत ही कुछ और है।

कल कथित अरब बसंत, आज अलेप्पो। समझना कठिन नहीं है कि आग में घी डालने का काम किसने किया है। जब साम्राज्यवादी ताकतें देशों की सार्वभौमिक सत्ता का अतिक्रमण करने पर तुली हों, तब वे देश राष्ट्र की सुरक्षा के नाम पर कोई कदम उठाएं तो उसकी एकतरफा आलोचना कैसे की जाए? युद्ध और हिंसा हमें स्वीकार नहीं है किंतु शांति स्थापना के लिए तो सभी पक्षों को मर्यादा व विवेक का परिचय देना होगा।

देशबंधु में 22 दिसम्बर 2016 को प्रकाशित 

Wednesday 14 December 2016

हाथी, टमाटर और आदिवासी



 एक सप्ताह पूर्व 8 दिसम्बर को रायपुर-बिलासपुर के अखबारों में दो समाचार छपे। एक पर पाठकों का कुछ ध्यान गया, दूसरे पर लगभग नहीं। दोनों खबरें उत्तरी छत्तीसगढ़ के आदिवासी  अंचल की थीं। क्रमश: सरगुजा और जशपुर जिले की। एक खबर जिस पर पाठकों का ध्यान थोड़ा-बहुत गया तथा सोशल मीडिया में टिप्पणियां भी आईं उसे मोदी सरकार के विमुद्रीकरण के फैसले से जोडक़र देखा गया और इसी वजह से उस पर चर्चा हो सकी। इन दोनों खबरों में वैसे तो ऊपरी तौर पर कोई संबंध दिखाई नहीं देता किन्तु ध्यान से देखा जाए तो दोनों का मूल एक ही है। पहली खबर सरगुजा जिले के मुख्यालय अंबिकापुर की थी। वहां 7 दिसम्बर को ग्यारह हाथियों का एक झुंड नगर के भीतर आ गया, उसके कारण चारों तरफ हाहाकार मच गया, लोगों को जान-माल की चिंता सताने लगी, देखते ही देखते शहर का हर दरवाजा बंद हो गया और शटर गिरा दिए गए। दूसरी खबर जशपुर जिले के पत्थलगांव की है जहां आदिवासियों ने टमाटर की उपज का उचित मूल्य न मिलने पर कई टन टमाटर सडक़ पर फेंक कर नष्ट कर दिए।

यह सच है कि विमुद्रीकरण के बाद बाजार में बहुत सी जिंसों के भाव गिर गए हैं क्योंकि खरीदारों के पास पर्याप्त नकदी नहीं है और कैशलेस आर्थिक व्यवस्था जादूगर के छड़ी घुमाने मात्र से सच नहीं हो सकती। पत्थलगांव में किसानों के टमाटर न बिकने का यह एक कारण हो सकता है। लेकिन इस संदर्भ में मैं बहुत पीछे जाना चाहता हूँ। 1980 तक। किसी स्थानीय अखबार में एक पाठक का चार-छह लाइन का पत्र छपा था कि लुड़ेग में आदिवासियों का उपजाया टमाटर मिट्टी के मोल बिक रहा है। यह पत्र पढऩे के बाद मैंने अपने ऊर्जावान सहयोगी गिरिजाशंकर को लुड़ेग के लिए रवाना किया कि वे वहां जाकर वस्तुस्थिति का पता लगाएं। रायपुर से रायगढ़ ट्रेन से, वहां से बस या ट्रक से पत्थलगांव, फिर लुड़ेग। जो स्थिति वहां देखी वह सचमुच आश्चर्य में डालने वाली थी। गिरिजा ने लौटकर जो रिपोर्ट बनाई वह प्रथम पृष्ठ पर इस शीर्षक के साथ प्रकाशित हुई- दो रुपए में पचास किलो टमाटर। उन दिनों जब हम लोग एक या दो रुपए किलो टमाटर खरीदते थे तब वहां की वास्तविकता यह थी।

इसका व्यवहारिक गणित एकदम सीधा था। आदिवासी मंडी तक अपनी उपज लेकर तो आ गया है; टमाटर बिकेंगे नहीं तो उन्हें वह वापिस ले जाने से तो रहा। उसकी मजबूरी का फायदा उठाकर दूर-दूर से आए व्यापारी इतने सस्ते भाव पर याने कि लगभग मुफ्त में टमाटर खरीद लेते थे। किसान को जो मिल गया वह उसकी किस्मत। ‘देशबन्धु’ में जिस दिन यह रिपोर्ट छपी संयोग से उसी दिन या अगले दिन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह रायगढ़ दौरे पर आए, उनके सामने अखबार रखा गया; उन्होंने घोषणा करने में देर नहीं की कि रायगढ़ में टमाटर शोधन संयंत्र लगाया जाएगा ताकि आदिवासियों को उचित मूल्य मिल सके और देशी टमाटर की सॉस आदि जनता को सुलभ हो सके। जिले के ही एक विधायक लक्ष्मी पटेल को उन्होंने कृषि विकास निगम का अध्यक्ष बना यह संयंत्र स्थापित करने का दायित्व भी सौंप दिया। कुछ दिनों तक फाइलें दौड़ती रहीं। आज छत्तीस साल हो गए। टमाटर शोधन संयंत्र नहीं लगना था सो नहीं लगा।

आज आदिवासी पच्चीस पैसा किलो में अपनी फसल बेचने को मजबूर है। वह गांव से जितना वजन उठाकर लाया है उसे वापिस ले जाने की तकलीफ और क्यों उठाए? इन चार दशकों के दरमियान उसके मन में इतना गुस्सा जरूर पैदा हो गया है कि वह व्यापारियों की नाजायज शर्त मानने के बजाय अपनी फसल को ही नष्ट कर दे। यह गुस्सा आगे क्या रूप ले सकता है इस पर विचार करने की आवश्यकता है।

अब दूसरी खबर। अंबिकापुर में हाथी पहली बार शहर में नहीं आए। आज से दसेक वर्ष पूर्व गजराज न सिर्फ शहर में घुसे थे बल्कि सीधे सर्किट हाउस तक पहुंच गए थे। सर्किट हाउस यदि राजनेताओं और उच्च पदस्थ अधिकारियों का विश्रामस्थल है तो हाथी उनसे किसी तरह कम तो नहीं है। वह भी अपने जंगल का राजा है जब तक कि शेर से मुठभेड़ की नौबत न आ जाए। इस बीच लगातार खबरें छप रही हैं कि जशपुर, सरगुजा तथा कोरबा जिले में हाथियों के झुंड या अकेले हाथी कभी एक गांव में, तो कभी दूसरे गांव में आकर उत्पात मचाते हैं। वे खड़ी फसल को नष्ट कर देते हैं, आदिवासी किसानों की, ग्रामीणों की झोपडिय़ां उजाड़ देते हैं और ऐसे भी बहुत से प्रसंग सामने आए हैं जिसमें हाथियों ने गुस्से में आकर ग्रामीणों को मार भी डाला है। यह एक बेहद चिंताजनक स्थिति है। हाथियों के द्वारा की गई जन-धन की हानि पर सरकार द्वारा मुआवजा दिए जाने के कुछ नियम लागू हैं, किन्तु मात्र इतने से बात नहीं बनती।  मुख्य सवाल तो यह है कि छत्तीसगढ़ में हाथी और मनुष्य के बीच यह द्वंद्व किन परिस्थितियों के चलते उत्पन्न हुआ और उसके निराकरण के लिए क्या प्रयत्न किए गए? मुआवजा देना एक फौरी उपाय है, स्थायी समाधान नहीं।

देश में राष्ट्रीय वन्य प्राणी संरक्षण प्राधिकरण या मंडल है। हर प्रदेश में उसी तर्ज पर राज्य वन प्राणी संरक्षण मंडल भी गठित किए गए हैं। दस साल पूर्व तक इसकी अध्यक्षता राज्य के वनमंत्री किया करते थे। इसके सदस्यों में वन्य जीवन के विशेषज्ञों को शामिल करने का प्रावधान था और है। केन्द्र सरकार ने पर्यावरण और वन्य जीवन के प्रति अपनी प्रतिबद्धता दर्शाने के लिए नियमों में यह परिवर्तन कर दिया कि वन मंत्री के बजाय स्वयं मुख्यमंत्री इस समिति के अध्यक्ष होंगे। जब राज्य का मुखिया प्रभार में हो तब तो समिति का काम ईमानदारी और तेजी के साथ होना चाहिए, किन्तु हकीकत कुछ और ही है। वन्य जीव संरक्षण मंडल की बैठकें तो बदस्तूर होती हैं, लेकिन उसमें होता वही है जो वन विभाग के अधिकारी चाहते हैं। वे केन्द्र सरकार से मिले निर्देशों की भी कोई खास परवाह नहीं करते। हां, केन्द्र से किसी मद में कितनी राशि मिल रही है इस पर अवश्य उनकी निगाहें टिकी रहती हैं। जिन विशेषज्ञ सदस्यों को वे अपने अनुकूल नहीं समझते वे बैठक में न आ सकें इसके प्रयत्न भी करते हैं। मुख्यमंत्री अध्यक्ष भले ही होते हों, परन्तु उनके ऊपर वैसे ही बहुत सारे कामों का बोझ होता है।

कुल मिलाकर एक गंभीर समस्या का जो कार्य-कारण विश्लेषण है वह सही रूप में नहीं हो पाता। छत्तीसगढ़ में हाथियों का आना क्यों शुरू हुआ? यह सवाल सबसे पहले उठना चाहिए। झारखंड तथा उड़ीसा के सीमावर्ती जंगलों में हाथियों की रिहाइश लंबे समय से रही है। वह अब उजड़ती जा रही है। उन जंगलों में कोयला, लौह, अयस्क आदि खनिजों के भंडार हैं जिनका दोहन पिछले कुछ वर्षों में बहुत तेजी के साथ बढ़ा है। इसके कारण पहले तो साल और अन्य बेशकीमती वृक्षों की अंधाधुंध कटाई प्रारंभ हुई। हाथी शाकाहारी प्राणी है। जंगलों के कटने से उसके भोजन के स्रोत धीरे-धीरे करके खत्म होने लगे। फिर जंगल इलाके में बुलडोजर, डम्पर, एक्सकेवेटर, ट्रक इत्यादि की आवाजाही के लिए सडक़ बनना शुरू हुई। इससे हाथी भयभीत होकर यहां-वहां भागने लगे। भारी मशीनों के नीचे दबकर इनकी मौतें भी हुईं। इसके बाद खदानें खुदने से बड़े-बड़े दैत्याकार गड्ढे निर्मित होने लगे, ये भी हाथियों की मृत्यु का कारण बने। ऐसे में हाथियों का भागकर छत्तीसगढ़ आना शुरू हुआ। जब तक संख्या कम थी तब तक किसी का ध्यान नहीं गया, अब परेशानी ही परेशानी है। पर्यावरण का विनाश करने की कीमत इस रूप में चुकाना पड़ेगी यह किसी ने नहीं सोचा था। शायद आज भी नहीं सोच रहे हैं। पहले किसी परियोजना के लिए पर्यावरण स्वीकृति के कठोर नियम थे, वे लगातार शिथिल किए जा रहे हैं। आज समस्या यह है कि एक तरफ हनुमान जी का अवतार माने जाने वाले बंदरों के उत्पात से दिल्ली तक की जनता त्रस्त है, तो दूसरी तरफ गणेश जी के अवतार हाथी के साथ संघर्ष का दौर प्रारंभ हो गया है।

दूसरे वन्य प्राणियों के साथ भी वैसी ही स्थितियां निर्मित हो रही हैं। अब तेन्दुए भी शहर की सीमाओं तक आने लगे हैं। औद्योगीकरण, शहरीकरण और मुनाफे का लालच- इन सबने मिलकर वर्तमान परिस्थिति को जन्म दिया है। गौरतलब है कि आदिवासी चिरौंजी, साल बीज, इमली, महुआ, तेन्दूपत्ता, टमाटर, इत्यादि उपभोक्ता वस्तुओं के लिए जंगलों का संरक्षण करते आया है। शेर, चीते और हाथी के साथ भी उसका सहअस्तित्व का संबंध सदैव रहा है, लेकिन उस आदिवासी से सहजीवन का अर्थ समझने की कोशिश करना तो दूर, वह अब हमारी सहानुभूति का पात्र भी नहीं है।  उसे हमने सशस्त्र बलों की दया पर छोड़ दिया है। यह अवमूल्यन वर्तमान समय की भीषण त्रासदी है।

 देशबंधु में 15 दिसम्बर 2016 को प्रकाशित 

Tuesday 13 December 2016

सेतुबंध


सेतुबंध 

शतरंज की बिसात
धीरे से समेट ली है
व्याकुल मंदोदरी ने और
अशोक-वाटिका में अभी भी
विनत-अशोक की डाल-सी
उदास बैठी हैं भूमिसुता
युद्ध अब किसी भी पल
छिड़ सकता है लेकिन
भावना के तट पर अकेले
संशय में भीगे खड़े हैं अर्जुन

सेनाएं आमने-सामने हैं और
योद्धा हैं उत्सर्ग के लिए तैयार
राम समुद्र पर पुल बनाने का
रास्ता ढूंढ रहे हैं और
कृष्ण अपने शब्दों से
पुल बांध रहे हैं अब
शिविर के किसी एकांत में
आंसू बहा रही हैं सुभद्रा

पुल बन रहा है और
उत्तेजना से चीख रहे सैनिक
खुद के आवेश को सम्हाल नहीं
पा रहे हैं भीम और सुग्रीव
विजय की कल्पना से
थरथरा रहे हैं विभीषण और
धर्मराज प्रस्तुत हो रहे हैं
असत्य संभाषण के लिए

शैशव से अब तक के
संघर्ष याद करते हुए
पूर्णपुरुष कृष्ण लिख रहे हैं
इतिहास के लिए अपनी भूमिका
और समुद्र की लहरों में
मर्यादा का अर्थ
खोज रहे हैं पुरुषोत्तम राम

गंगा की गोद में लौटने की
प्रतीक्षा में रुके हैं
खुद से हारे हुए भीष्म और
धरती की कोख में लौटने के
दिन गिन रही हैं
परीक्षाओं से थकी वैदेही

हस्तिनापुर से लौट आए हैं माधव
और द्वारिका में एकदम अकेले हैं
लंका से लौट आए हैं रघुनाथ
और अयोध्या में एकदम अकेले हैं
विजय के बाद इस अकेलेपन में
न कहीं सुदामा के चावल हैं
न कहीं शबरी के बेर
और न कहीं केवट की नाव

कुरुक्षेत्र में एक अनंत निस्तब्धता है
रामेश्वरम् में एक वीरान पुल
और राम की स्मृति में डूबी
एक बूढ़ी गिलहरी
बार-बार सोचती है
किसके लिए हुआ यह समर
किसके लिए बना यह सेतु
किसकी हुई है विजय
और किसके निमित्त!

अक्षर पर्व दिसम्बर 2016 अंक (युद्ध विरोधी कविता विशेषांक) में पुनर्प्रकाशित एक पुरानी कविता

Friday 9 December 2016

युद्ध विरोधी कवितायेँ




मुझे यह कहने के लिए माफ कीजिए कि युद्ध के बारे में भारतवासियों का ज्ञान व अनुभव बहुत अल्प, सीमित और अधूरा है। बावजूद इसके कि राम-रावण युद्ध तथा महाभारत हमारी जातीय स्मृति के अभिन्न अंश हैं; और बकौल आकार पटेल (पत्रकार एवं टीकाकार) गत दो हजार वर्ष से अधिक समय से भारतीय लोग भाड़े के सैनिक के रूप में दुनिया में अपनी सेवाएं देते आए हैं। अत्यन्त प्राचीन समय में रोमन सेना में भारतीय सैनिक थे, कर्बला के मैदान में पंजाब के हुसैनी ब्राह्मण हजरत अली की ओर से लडऩे गए थे, प्रथम व द्वितीय विश्वयुद्ध में गुलाम भारत के सैनिक अंग्रेजी फौज में अपनी सेवाएं देने के लिए मजबूर थे। 1947 में आजादी हासिल होने के बाद से अब तक हमें चार लड़ाइयां लडऩी पड़ीं, लेकिन उसकी बड़ी कीमत खासकर सीमांत प्रदेशों के सैनिक परिवारों को ही चुकाना पड़ी। दूसरी ओर भारत ने कोरिया, कांगो और दक्षिण सूडान तक संयुक्त राष्ट्र की शांति सेना में अहम् भूमिका निभाई और विश्व संस्था से प्रशंसा हासिल की।

इन सबके बावजूद मोटे तौर पर हम युद्ध को बहुत संकीर्ण अर्थों में लेते हैं। हमारी  सामूहिक सोच में युद्ध का अर्थ प्रमुखत: पाकिस्तान से लडऩे या फिर चीन को मजा चखाने के संवादों तक सीमित रहता है। इधर टीवी पर युद्ध के आधे-अधूरे दृश्य देखने के साथ-साथ जीवन-मरण के इस प्रश्न पर मानो हमारी संवेदनशीलता ही लगातार शेष होते जा रही है। पुराकथाओं, मिथकों व प्रायोजित इतिहास के अध्यायों को पढक़र हम युद्ध की अनिवार्यता या निरर्थकता के बारे में चाहे जो राय बनाएं, अपने मानस के अनुरूप परिभाषाएं गढ़ें, वीर रस से आगे बढक़र ओज रस का आविष्कार करें, शौर्यभूमि की कल्पना करें, यह सच्चाई अपनी जगह कायम है कि वर्तमान समय में युद्ध की जो विकरालता है, उसके दूरगामी परिणाम क्या हो सकते हैं, मनुष्यता किस तरह नष्ट होती है, प्रगति और समृद्धि की बजाय विपन्नता कैसे घर कर लेती है, इनके बारे में अपने देश में विवेक-सम्मत तरीके से बहुत कम सोचा जाता है। 

आज आवश्यकता है कि एक पल ठहर चारों तरफ नजर दौड़ाकर देखा जाए कि बीसवीं-इक्कीसवीं सदी की दुनिया की कभी न कभी, कहीं न कहीं चल रही लड़ाइयों के कितने दुष्परिणाम भुगतना पड़े हैं। ये युद्ध साम्राज्यवादी, नवसाम्राज्यवादी, उपनिवेशवादी, नवउपनिवेशवादी, पूंजीवादी और नवपूंजीवादी ताकतों के द्वारा प्रायोजित किए गए, जिन्होंने अपने स्वार्थ के आगे, दुनिया पर एकछत्र हुकूमत करने के स्वप्न के आगे और कुछ नहीं सोचा। पिछले सौ-सवा सौ सालों में एक तरफ जहां वैश्विक समाज की रचना की कल्पनाएं की गईं, वहीं दूसरी ओर अधिनायकवाद, तानाशाहियां, सैन्य शासन, कठपुतली सरकारें, बनाना रिपब्लिक, गृहयुद्ध, देशों की कृत्रिम सीमाएं, देशों के विभाजन, सैन्य-औद्योगिक गठबंधन, कॉरपोरेट वर्चस्व और एटमबम द्वारा नरसंहार की तस्वीरें भी सामने आईं। इन तस्वीरों को समर्थ रचनाकारों ने अपनी कलम से बांधा है। चित्रकारों ने इन्हें कैनवास पर जीवंत किया है, पाब्लो पिकासो का बनाया चित्र ‘गुएर्निका’ याद कीजिए। संगीतज्ञों ने विश्वशांति के लिए बंदिशें तैयार की हैं, जैसे यहूदी मेन्युहिन व रविशंकर की वायलिन व सितार पर जुगलबंदी।

इस साल साहित्य का नोबल पुरस्कार बॉब डिलन को दिया गया है। वे युद्ध के खिलाफ व विश्वशांति के पक्ष में हजारों की सभा में गीत गाते रहे। उनके प्रेरणास्रोत पीट सीगर भी युद्ध के खिलाफ गीत लिखते और गाते रहे। फिर ‘हम होंगे कामयाब’ के अमर रचयिता पॉल रॉब्सन को भला कैसे भूला जा सकता है। यह उस अमेरिका की बात है, जो हमारे समय में हथियारों का सबसे बड़ा सौदागर और युद्ध का सबसे बड़ा निर्यातक देश रहा है। इसके बावजूद लैटिन अमेरिका, जापान, इंग्लैंड, ईरान, ईराक, पाकिस्तान, इजिप्त, जर्मनी, फ्रांस, रूस- कौन सा देश नहीं है जिसके लेखकों, कवियों व बुद्धिजीवियों ने युद्ध के खिलाफ आवाज बुलंद न की हो? कौन सी भाषा है, जिसमें युद्ध विरुद्ध साहित्य न रचा गया हो, फिल्में न बनाई गई हों? हमारे पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान में फैज अहमद फैज ने मिलिटरी हुकूमत के खिलाफ बोलने-लिखने के कारण बरसों जेल की कोठरी में बिताए। और वे ऐसे अकेले विवेकधर्मा लेखक नहीं थे।

युवा लेखक क्रिस्टोफर कॉडवेल ने स्पेन के गृहयुद्ध में तानाशाह फ्रांको के खिलाफ जनतांत्रिक शक्तियों की तरफ से लड़ते हुए प्राणों की आहुति दी। अर्नेस्ट हैमिंग्वे भी इस मोर्चे पर लडऩे गए। नाजिम हिकमत, स्टीफेन बिको, गार्सिया लोर्का, वाल्टर बैंजामिन, पाब्लो नेरूदा आदि के बारे में प्रबुद्ध पाठक जानते ही हैं। मैं पिछले 15-16 साल से युद्धविरोधी कविताओं के भावानुवाद करते आया हूं।  बेशक, अनुवाद अंग्रेजी से किए हैं लेकिन कविताएं विभिन्न भाषाओं की हैं- जर्मन, फ्रैंच, स्पेनिश, अरबी, फारसी, रूसी, जापानी इत्यादि। जिनके अनुवाद किए हैं, उनमें से कुछ तो बेहद जाने-पहचाने नाम हैं यथा बर्तोल्त ब्रेख्त, विस्लावा सिम्बोर्सका, जॉर्ज लुई बोर्खेज , दुन्या मिखाइल, मिमी खलवाती, फरीदा मुस्तफावी, जो ब्रूचाक, लैंगस्टन ह्यूज आदि। लेकिन यह जानना महत्वपूर्ण है कि युद्ध विरोधी रचनाएं करने वाले अनेक कवि पारंपरिक अवधारणा में कवि नहीं हैं। इनमें स्कूल के छात्र हैं, मोर्चे पर गए सिपाही की बहन है, गुआंटानामो में कैद कथित आतंकी हैं, और हैं अनेक सामान्य जन जिन्हें युद्ध से मिली मर्मांतक पीड़ा और भयावह दु:स्वप्नों ने कवि बना दिया है।

यह कहना अनावश्यक होगा कि भारत और भारतीय भाषाओं में भी ऐसे दृष्टा कवि कम नहीं हैं जो शांति के पक्ष में और युद्ध के विरुद्ध मुखर हैं। किंतु यह देखना और दिलचस्प है कि विशेषकर हिंदी में पिछली पीढिय़ों के कवियों ने अपने समय में युद्ध की अनिवार्य निस्सारता को समझ लिया था और उसे अपनी रचनाओं से जन-जन तक पहुंचाने का काम किया था। वे इस तरह एक सजग-समर्थ रचनाकार के रूप में लोक शिक्षण का काम कर रहे थे। इनमें वे कवि भी हैं, जो साहित्य के वर्तमान विमर्श में गीतकार कहकर खारिज कर दिए गए हैं। लेकिन क्या आज सचमुच मैं सोच रहा हूं/ अगर तीसरा युद्ध छिड़ा तो क्या होगा  जैसी रचनाएं लिखने वाले नीरज आदि कवियों को पूरी तरह से नकार सकते हैं?
 
यहां एक अन्य तथ्य पर हमारा ध्यान जाए बिना नहीं रहता। विश्व की अन्य भाषाओं में जो युद्धविरोधी कविताएं लिखी गई हैं, वे प्रत्यक्ष अनुभव पर आधारित हैं। उनमें बीसवीं व इक्कीसवीं सदी के दौरान हुए और चल रहे युद्धों के प्रामाणिक दृश्य हैं। वे आपको अपने समय में घट रही त्रासदियों के सामने लाकर खड़ा कर देती हैं। लो, साहस है तो इन सच्चाइयों का सामना करो। इनकी एक-एक पंक्ति जैसे लहू में डूबकर लिखी गई है। एक-एक शब्द जैसे आँसुओं से भीगा है। इनके बरक्स हिंदी कविता एक गहरे दार्शनिक स्तर पर युद्ध की विवेचना करती हैं। उनकी आधारभूमि पौराणिक गाथाएं, मिथक और इतिहास में है। इस तरह समर्थ कवि मानो काल की सीमा का अतिक्रमण करते हैं। जो दो या तीन हजार वर्ष पूर्व हुआ, आज भी वही हो रहा है। युद्ध छेडऩे के कारण भी वही हैं- अहंकार, महत्वाकांक्षा, सत्ता की अभिलाषा, संपत्ति का लालच, स्वयं को सर्वशक्तिमान समझने की रुग्ण मानसिकता आदि। मुक्तिबोध, शमशेर जैसे कुछ अपवाद हैं जिन्होंने अपने समय में, दूर से ही सही, देखे गए युद्धों की सटीक विवेचना की है।

आज देश-दुनिया का जो परिदृश्य है, उससे हम अनभिज्ञ नहीं हैं, आज की प्रथा के अनुकूल सोशल मीडिया पर हम टिप्पणियां भी करते हैं, किंतु मैं सोचता हूं कि क्या अपने पूर्वज कवियों की परंपरा को आगे बढ़ाने में हमारे प्रयत्नों की क्या कोई सीमा है?
 
अक्षर पर्व दिसम्बर 2016 अंक की प्रस्तावना 

Thursday 8 December 2016

काली कमाई के कुछ ठिकाने



प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने बड़े नोटों के विमुद्रीकरण का जो अभूतपूर्व कदम उठाया है, उसका तात्कालिक परिणाम तो विगत एक माह में बैंकों और एटीएम के सामने लगी अंतहीन कतारों के रूप में सामने आया है। मोदी जी ने जो पचास दिन का समय मांगा था, उसमें अब मात्र बीस दिन बचे हैं। इसके बाद ही पता चलेगा कि इस नई व्यवस्था का दूरगामी प्रभाव किस प्रकार पड़ता है। आम जनता ने इस बीच जो तकलीफ झेली है, वह उसने यह सोच कर बर्दाश्त की कि बड़े लोगों ने जो कालाधन संचित कर रखा है, वह बाहर आएगा एवं भविष्य में उस पर पूरी तरह से अंकुश लग जाएगा। आम जन का यह विश्वास कितना फलित होता है यह तो समय ही बताएगा।  हम यहां उन कुछ वास्तविक स्थितियों का जायजा लेना चाहते हैं जो कालेधन के प्रचलन का मुख्य कारण रही हैं।

यह निर्विवाद सत्य है कि राजनीति में, चुनावी राजनीति में विशेषकर भारी संख्या में धनराशि व्यय होती है। कांग्रेस के एक प्रखर नेता महावीर त्यागी ने अपने संस्मरणों में लिखा है कि पंडित नेहरू के समय में भी पार्टी को ज्ञात-अज्ञात स्रोतों से चुनाव फंड जुटाना पड़ता था। इसकी जानकारी नेहरू जी को नहीं दी जाती थी, क्योंकि वे गलत तरीके से चंदा लेने के खिलाफ थे। हो सकता है कि नेहरू जी इसकी अनदेखी कर देते हों! इसी तरह भारतीय राजनीति के एक विद्वान अध्येता पॉल आर ब्रास ने चौधरी चरण सिंह की राजनैतिक जीवनी लिखी है, उसमें भी उन्होंने आज़ादी के उस शुरूआती दौर में ही नेताओं द्वारा कैसे पैसा लिया जाता है, इसके उदाहरण सहित विवरण दिए हैं। ‘‘सेलेक्टेड वर्क्स ऑफ नेहरू’’ में पं. नेहरू द्वारा सीपी एवं बरार के मुख्यमंत्री पं. रविशंकर शुक्ल को लिखे वे पत्र संकलित हैं, जिनमें उन्होंने मुख्यमंत्री को छत्तीसगढ़ अंचल के एक मंत्री द्वारा गलत तरीकों से की जा रही कमाई पर कार्रवाई करने के निर्देश दिए थे।

तब और अब में एक बड़ा फर्क है। उस समय एक तो बहुत अधिक धन की आवश्यकता पड़ती नहीं थी और दूसरे ऐसे राजनेता बिरले थे जो ऐसे गलत कामों में लिप्त होते थे। आज स्थिति एकदम विपरीत है। पहिले टाटा-बिड़ला-डालमिया इत्यादि राजनैतिक दलों को चंदा तो देते थे, लेकिन स्वयं राजनीति में आने की इच्छा नहीं रखते थे। अब भावना है कि जब हमारे दिए पैसे से कोई चुनाव जीत सकता है तो हम ही क्यों न नेता बन जाएं। उदाहरण अनेक हैं और सबके सामने हैं। प्रश्न उठता है कि क्या विमुद्रीकरण से इस बुराई को समाप्त किया जा सकेगा? क्या राज्य विधानसभाओं के आसन्न चुनाव बिना पैसे के और निर्धारित व्यय सीमा के भीतर लड़े जाएंगे? जिस मतदाता के मन में आपने लालच भर दिया है, जो मतदान की रात लक्ष्मी के इंतजार में अपने दरवाजे उढक़ाए रखता है, क्या उसका मन एकाएक बदल जाएगा? मतदाता सूची के पन्ने तैयार करना, पर्चियां लिखना-बांटना, मतदान केन्द्र पर कार्यकर्ता तैनात करना, चुनावी सभाएं, पोस्टर-पैंफलेट-बैनर, मंच-माइक, ये तमाम व्यवस्थाएं वैधानिक व्यय सीमा के भीतर पूरी हो पाएंगी? मोदी जी ने विपक्षियों की खिल्ली तो खूब उड़ाई कि उनके स्रोत बंद हो गए, लेकिन क्या भाजपा आगामी चुनावों में पैसा सचमुच खर्च नहीं करेगी?

चलिए, चुनाव तो सामान्यत: पांच साल में एक बार होते हैं किन्तु राजनैतिक दलों को तो हर समय अनेक चुनावों की तैयारी में लगे रहना पड़ता है। पार्टी दफ्तर के दैनंदिन काम-काज से लेकर और न जाने कितने प्रयोजनों में धन की आवश्यकता होती है। किसी दौर में सदस्यों और आम जनता से मिले चंदे से पार्टी भवन बन जाता था। आज इसके लिए ठेकेदारों व व्यापारियों पर निर्भर रहना पड़ता है। रायपुर और महासमुंद के कांग्रेस भवन के पुराने उदाहरण मेरे सामने हैं। रायपुर की किरोड़ीमल धर्मशाला से ही कभी जनसंघ का दफ्तर चला करता था। भोपाल में दक्षिण टीटी नगर के एक सामान्य से टीन की छत वाले क्वार्टर में प्रदेश कांग्रेस कमेटी का कार्यालय था। क्या उन दिनों की आज कल्पना भी की जा सकती है? क्या यही वजह नहीं है कि राजनैतिक दल आज अपनी आय के स्रोतों का खुलासा नहीं करना चाहते? क्या इसीलिए उन्हें सूचना के अधिकार कानून के दायरे से बाहर रखने पर सब एकमत नहीं है? (यह बात दीगर है कि इस कानून को ही मोदी सरकार ने लगभग निष्प्रभावी बना दिया है)। आप लाख पारदर्शिता की बात करें। राजनैतिक दलों के फंड का हिसाब-किताब फिलहाल तो सार्वजनिक होने से रहा। विमुद्रीकरण के कुछ दिन पहले भाजपा द्वारा नकद रकम से जमीनें खरीदना शायद इसका एक प्रमाण है।

राजनीति की बात छोड़ प्रशासनतंत्र पर एक नज़र डाली जाए। जो सरकारी काम-काज प्रतिदिन होता है, उसकी क्या स्थिति है? क्या यह सोचना गलत है कि भ्रष्टाचार का, कालेधन के उत्पादन का मुख्य स्रोत तो सरकारी दफ्तर ही है। यह सच है कि ताली एक हाथ से नहीं बजती, लेकिन ताली बजाने के लिए हाथ पहिले कौन बढ़ाता है? अगर रिश्वत देने वाले ने पहल की है तो लेने वाले अपना हाथ खींच क्यों नहीं लेते? अंग्रेजों के समय में भी बड़े लाट, छोटे लाट, कलेक्टर, एसपी, सबके बंगलों पर दीवाली-ईद डालियाँ पहुंचती थीं। वे आज भी बदस्तूर जारी हैं। यह हमारी व्यवस्था है जिसमें एक ईमानदार व्यक्ति भी बेईमान की संपत्ति की रक्षा करने तैयार हो जाता है। प्रेमचंद की कहानी ‘नमक का दारोगा’ याद कीजिए। देश को स्वाधीनता मिलने के बाद जो नवनिर्माण का महत्तर काम प्रारंभ हुआ, जब नए-नए कल-कारखाने, बांध-पुल और सडक़ें बनाना प्रारंभ हुआ, अनेकानेक विकास योजनाएं प्रारंभ हुई, उसके चलते देश की नौकरशाही, लालफीताशाही और अधिक शक्तिशाली हुई। जिन लोगों ने स्वाधीनता के लिए अपना जीवन होम कर दिया, जिन्होंने नए भारत का सपना दिखाया, वे तो समय के साथ इतिहास के पन्नों में खो गए। उनके बाद राजनेताओं, नौकरशाहों और ठेकेदारों की नई पीढ़ी आई, उसके सामने पैसा कमाने के सिवाय और कोई वृहत्तर लक्ष्य नहीं था। नरेन्द्र मोदी क्या इस दारुण सच्चाई से अवगत नहीं हैं? वे तो संघ के कार्यकर्ता रह चुके हैं। फिर उन्होंने काले धन की इस खदान को बंद करने के बारे में क्यों विचार नहीं किया?

कालाधन सिर्फ नेताओं व अफसरों तथा जो घोषित तौर पर व्यापारी या उद्यमी है, सिर्फ उनके पास ही नहीं है। कारोबारी समाज तो अपने पक्ष में यह तर्क भी देता है कि उसके पास जो भी रकम है वह व्यापार में लगी हुई है। इस तर्क में एक हद तक सच्चाई है और इसका एक अन्य आयाम भी है। बहुत से अफसर अपनी अघोषित आय का एक बड़ा हिस्सा विश्वासपात्र व्यापारियों के पास निवेश कर देते हैं। उनका यह रिश्ता लंबे समय तक कायम रहता है।  इस तरह जो धनराशि व्यापार में लगी हुई हो, वह अघोषित तो है, लेकिन निष्क्रिय कालाधन नहीं है। लेकिन मैं बात उस वर्ग की करना चाहता था जो खुद को कारोबारी की श्रेणी से बाहर रखकर भी व्यापार ही करता है। इस वर्ग में तीन प्रमुख शाखाएं हैं- धार्मिक प्रतिष्ठान, शिक्षण संस्थान और चिकित्सा प्रतिष्ठान। अगर किसी कथित दैवी पुरुष के देवलोक प्रयाण के उपरान्त उसके शयन कक्ष से सैकड़ों करोड़ की नकद राशि प्राप्त हो तो इसका स्पष्टीकरण क्या होगा? मेरा अनुमान है कि ऐसे अनेक प्रतिष्ठान प्रशासनिक अधिकारियों व उद्यमियों के बीच लेन-देन का सुगम एवं सुरक्षित माध्यम होते हैं। दैवी पुरुष मध्यस्थ की भूमिका निभाते हैं। लेने वाले और देने वाले दोनों इनके आश्रय में जाकर विनिमय कर लेते हैं। अब मान लीजिए कि देने वाले ने आज जाकर राशि जमा कर दी और लेने वाला कल आएगा, इस बीच सिद्धात्मा को परमात्मा ने अपने पास बुला लिया तो राशि तो वहीं जमकर रह गई!

समाज में इन गुरुओं के बाद जिन्हें सबसे अधिक सम्मान से देखा जाता है वे हैं शिक्षक और डॉक्टर। शिक्षा व चिकित्सा जगत का विगत तीस वर्षों में जिस गति के साथ व्यवसायीकरण हुआ है, वह एक अद्भुत घटना है। सरकारी स्कूल और सरकारी अस्पताल दिनों दिन दुर्दशा को प्राप्त हो रहे हैं। उनकी इमारतें भी किसी दिन निजी हाथों में सौंप दी जाएंगी।  इन निजी संस्थानों के संचालक यदि व्यापारी नहीं तो क्या है? इनका उद्देश्य आम जनता की सेवा करना है या मुनाफा कमाना है? (वैसे तो हर दुकानदार भी एक रूप में जनता की सेवा ही करता है।) स्कूल-अस्पताल संचालित करने वाले इन उद्यमियों की जो आमदनी है, क्या वह पूरी तरह से एक नंबर की है? डॉक्टर बनने के लिए एक करोड़ या अधिक इंजीनियर बनने के लिए लाखों और वकालत की पढ़ाई के लिए कई लाख कैपिटेशन फीस देना पड़ती है और बड़े-बड़े अस्पतालों में नामी डॉक्टरों के दलाल मरीजों से जाकर सौदेबाजी करते हैं।

मैंने सिर्फ कुछ दृष्टांत ही दिए हैं किन्तु सूची बहुत लंबी है। इन वास्तविक स्थितियों का संज्ञान लिए बिना क्या देश से भ्रष्टाचार व कालेधन का उन्मूलन हो सकता है, यह यक्ष प्रश्न है।

देशबंधु में 08 दिसम्बर 2016 को प्रकाशित