Wednesday 29 May 2019

''मोदीवाद की जीत''


मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री व वर्तमान में भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष शिवराज सिंह चौहान ने एक वाक्य में पूरी कहानी कह दी है कि ''यह मोदीवाद की जीत है।'' इसके साथ ही उन्होंने नरेंद्र मोदी को एक उच्चतर धरातल पर स्थापित कर दिया है। पूंजीवाद, साम्राज्यवाद, साम्यवाद, गांधीवाद, समाजवाद, माओवाद आदि की तर्ज पर गोया एक नया राजनीतिक दर्शन अस्तित्व में आ गया है। यह अब अध्येताओं का जिम्मा है कि वे मोदीवाद की व्याख्या करें, उसके गुण सूत्र तलाशें, उसके बिंदुवार अनुच्छेद तैयार करें। अपनी सीमित समझ में हम जैसे अज्ञानी भी अगर ऐसा करने चाहें तो कर सकते हैं। मेरी कोशिश कुछ यही है।
श्री चौहान के सारगर्भित कथन का खुलासा करते हुए सबसे पहले यही समझ में आता है कि सत्रहवीं लोकसभा के लिए संपन्न चुनावों में नरेंद्र मोदी और सिर्फ नरेंद्र मोदी ने विजय हासिल की है। चुनाव के समय एकमात्र नारा था- फिर एक बार मोदी सरकार या अबकी बार मोदी सरकार। इस परिदृश्य में न तो कहीं भारतीय जनता पार्टी थी और न कहीं राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन या कि एनडीए। परिणाम आने के बाद अवश्य कहा जा सकता है कि चालीस पार्टियों का गठबंधन जीता है, लेकिन यह बच्चे के हाथ में झुनझुना थमा देने जैसी बात है। सच तो यह है कि चुनाव में भाजपा या एनडीए के प्रत्याशी तक मतदाता की स्मृति और सोच से नदारद थे। हर मुखर मतदाता यही कह रहा था कि मोदी को जिताना है। स्वतंत्र भारत में संसदीय जनतंत्र के इतिहास में यह पहली बार हुआ है। नेहरू, इंदिरा, राजीव, नरसिंह राव, वीपी सिंह, मोरारजी, वाजपेयी किसी ने भी खुद अपने नाम पर चुनाव नहीं लड़ा था। उनके व्यक्तित्व का जो लाभ मिला, वह समयोचित संयोग था।
याद करें कि 2014 के चुनाव में नरेंद्र मोदी की छवि को सामने रखा गया था, लेकिन तब चुनाव भारतीय जनता पार्टी के बैनर तले लड़ा गया था और भ्रष्टाचार से मुक्ति तथा देश के विकास के नाम पर वोट मांगे गए थे। पिछले पांच साल में भाजपा या घटक दल का हर नेता समय-असमय एक ही नारा लगाते मिलता था- विकास, विकास, विकास। इस बार के चुनाव अभियान में विकास को तलाक, तलाक, तलाक कह दिया गया। न नरेंद्र मोदी, न अमित शाह, न किसी प्रत्याशी, और न किसी बड़े नेता ने ही विकास का नाम लिया। 23 मई की शाम को भाजपा मुख्यालय में भाषण देते हुए मोदीजी ने आम जनता की तुलना भगवान कृष्ण से की, लेकिन सच तो यह है कि मोदीजी स्वयं कृष्ण की भूमिका निभाते हुए कह रहे थे- सर्वधर्मान परित्यज्य मामेकं शरणं वृज। हे बृजवासियो, हे देशवासियो! सब कुछ छोड़कर तुम मेरी शरण में आओ। तथास्तु। अहम् ब्रम्हास्मि मोदीवाद का पहला सूत्र है।
गठबंधन का नाम नहीं, पार्टी का नाम नहीं, मुद्दों की बात एक सिरे से गायब तो फिर वह ऐसा कौन सा आशादीप था जो पतिंगे की मानिंद मतदाताओं को मोदी की तरफ खींच रहा था? इसका जवाब 23 तारीख की दोपहर में छत्तीसगढ़ की प्रमुख भाजपा नेत्री सरोज पांडे ने दिया। एक रिपोर्टर से उन्होंने कहा- राष्ट्रवाद और देश की सुरक्षा। मैंने उनका कथन सुना, लेकिन देश में अन्यत्र भी अन्य नेतागण शायद यही बात कर रहे होंगे! इस राष्ट्रवाद को कैसे परिभाषित किया जाए, मैं नहीं जानता। इतना अवश्य पता है कि बीसवीं सदी के पूर्वाद्र्ध में चीनी राष्ट्रवाद, जापानी राष्ट्रवाद, कोरियाई राष्ट्रवाद जैसी भावनाएं प्रचलित थीं, जिनकी आलोचना विश्वकवि रवींद्रनाथ ठाकुर ने की थी। मैं यह भी नहीं समझ पाता कि हम एक देश में रहते हैं, देशवासी कहलाते हैं, लेकिन राष्ट्रवाद की तर्ज पर देशवाद जैसी कोई संज्ञा आजतक क्यों नहीं बनी! भाजपा के राष्ट्रवाद की व्याख्या शायद यही है कि 1947 में पाकिस्तान के नाम पर एक मुस्लिम राष्ट्र बन गया था, सो भारत को हिंदू राष्ट्र बनना ही चाहिए जिसमें मुसलमान दोयम दर्जे के नागरिक बनकर रहें। उनकी यह अवधारणा इजराइल के यहूदी राष्ट्रवाद से प्रेरित हो तो इसमें आश्चर्य की बात नहीं होगी। यह मोदीवाद का सूत्र क्रमांक दो है।
सुश्री सरोज पांडे ने सुरक्षा का मुद्दा भी सामने रखा। एक अरब तीन करोड़ की आबादी वाले भारत देश को किससे सुरक्षा चाहिए? क्या हम एक भयभीत देश हैं? हमने तो 1947 के अक्टूबर में ही जब देश नया-नया आजाद हुआ था, तब भी काश्मीर पर हमले को नाकाम कर दिया था; जिसमें बारामूला के मकबूल शेरवानी और ब्रिगेडियर मोहम्मद उस्मान सबसे पहले शहादत पाने वालों में थे। हमने 1965 में पाकिस्तानी हमले को नाकाम किया, 1971 में बांग्लादेश के मुक्ति संग्राम में निर्णायक सहायता की; 1998 में कारगिल से पाक को खदेड़ दिया; 1974 और 1999 में आण्विक क्षमता हासिल कर उसका परिचय दिया; फिर भी हमारे मन मेंं सुरक्षा को लेकर चिंता है? हम 1962 में अवश्य चीन से पराजित हुए थे लेकिन चीन हर दृष्टि से हमसे समर्थ था और हम युद्ध को लगातार टालने की कोशिश कर रहे थे। लेकिन आज जब चीन के साथ हमारे घनिष्ठ वाणिज्यिक संबंध बन चुके हैं और चीन के राष्ट्रपति भारत के प्रधानमंत्री के साथ झूला झूलते हैं, तब चीन से भी कैसा डर? जो भी हो, सुरक्षा (पाकिस्तान का भय!) मोदीवाद का तीसरा सूत्र है।
शिवराज सिंह चौहान ने अपने उपरोक्त कथन में जातिवाद और वंशवाद समाप्त होने का भी उल्लेख किया। नतीज़े आने के बाद अनेक विश्लेषक व पत्रकार कह रहे हैं कि इन चुनावों में मतदाता ने जात-पांत से ऊपर उठकर वोट दिया और साथ ही उसने वंशवाद को नकार दिया। क्या सचमुच? अगर ऐसा है तो एनडीए में शामिल शेष उन्चालीस पार्टियों का राजनीतिक आधार क्या है? एक सांस में जातिवाद खत्म होने का दावा, और उसी सांस में यह प्रशंसा भी कि मोदी ने ओबीसी के उपेक्षित समुदायों को कैसे साथ लेकर गठबंधन तैयार किया। यह दोहरी बात क्यों? ओपी राजभर आपके साथ क्यों थे? अनुप्रिया पटेल आपके साथ क्यों हैं? गिरिराज सिंह की सीट बदलकर बेगूसराय से क्यों उतारा गया? छत्तीसगढ़ की बिलासपुर और महासमुंद सीट से साहू के बदले साहू को ही टिकिट क्यों दिया गया? फिर भी आप कहते हैं तो मान लेते हैं कि आपने जातिवाद समाप्त कर दिया है। वंशवाद का जहां तक सवाल है, वह तो सोनिया-राहुल तक सीमित है। मेनका-वरुण तो अपनी काबलियत से आगे बढ़े हैं। बाकी किसी गिनती में नहीं आते। मोदीवाद का चौथा सूत्र-तुम्हारे पैर पैर, हमारे पैर चरण।
देश के (या राष्ट्र के!) मतदाता बधाई के पात्र हैं कि उन्होंने मोदीवाद के इन तमाम सूत्रों को आत्मसात किया और ट्रंप, पुतिन, एरदोगान, नेतन्याहू, अबे, दुतार्ते की परंपरा को आगे बढ़ाते हुए एक ''स्ट्रांग लीडर'' को अपना नेतृत्व करने के लिए चुना। आज की दुनिया की शायद यह सामान्य रीति बन गई है कि हमें सलाह-मशविरा करने वाले, आम सहमति कायम करने वाले नहीं, आनन-फानन में सही या गलत, दृढ़ निर्णय लेने वाले नेताओं की आवश्यकता आन पड़ी है।
लेख समाप्त करने के पहिले एक बात उनसे जो इन चुनावी नतीजा को लेकर संशयग्रस्त हैं। एक्जिट पोल आने के आसपास आरटीआई कार्यकर्ता वेंकटेश नायक ने टीवी पर बताया कि ईवीएम का खोखा तो भारत में निर्मित है, लेकिन उसकी माइक्रो प्रोसेसिंग चिप विदेश से आयातित हैं, जिसमें फिट फ्लैश मेमोरी मनचाहा कमाल कर सकती है। क्या कांग्रेस पार्टी श्री नायक की इस दौड़धूप से अनभिज्ञ थी? उसने समय रहते इसका खुलासा क्यों नहीं किया? फ्लैश मेमोरी वाली चिप किन कंपनियों से खरीदी गई, उनकी अपनी साख क्या थी, ये सारे बिंदु सुप्रीम कोर्ट और जनता की अदालत दोनों में समय रहते रखे जाते तो कुछ बात बनती। अब लकीर पीटने से क्या होना है!
#देशबंधु में 30 मई 2019 को प्रकाशित
  
 

Thursday 23 May 2019

गहलौत, नाथ, बघेल और आने वाले दिन


इस वक्त आप शायद टीवी स्क्रीन पर नजरें गड़ाए बैठे होंगे! आज सत्रहवीं लोकसभा के बहुप्रतीक्षित चुनाव परिणाम आने का दिन जो है। टीवी स्टूडियो में सुबह छह बजे से ज्ञानी, पंडित, विश्लेषक आकर बैठ गए होंगे और अभी शायद डाक मतपत्रों की गणना शुरू हो गई होगी! ऐसे में आज आपको मेरा कॉलम पढ़ने का भी समय और धीरज कहां होगा? मैं आज कॉलम न भी लिखता तो काम चल जाता, मेरी ही मेहनत बचती, लेकिन पिछले सत्रह सालों में जब एक भी हफ्ते व्यवधान नहीं हुआ तो आज का गुरुवार ही अपवाद क्यों बने, यही सोचकर लिखने बैठ गया। दिक्कत विषय चुनने की भी है। एक्जाट पोल पहिले ही आ चुके हैं। पिछले रविवार की शाम से उन पर चकल्लस चल रही है। मैं खुद भी सोशल मीडिया पर अपनी अकल के नमूने पेश कर चुका हूं। इस क्षण उस बारे में बात करने का कोई मतलब नहीं है। चुनाव परिणाम शाम-रात तक आ ही जाएंगे, तब उन पर बहस होगी। फिलहाल, क्या यह बेहतर नहीं होगा कि मैं कुछ ऐसी चर्चा करूं जिस पर अमूमन अभी ज्ञानीजनों का ध्यान नहीं गया है?
मैं उन तीन राज्यों के बारे में कुछ बातें करना चाहता हूं, जिनमें विगत नवंबर 2018 में विधानसभा चुनाव हुए थे। मेरा आशय राजस्थान, मध्यप्रदेश व छत्तीसगढ़ से है। जैसा कि आपको ध्यान होगा, इन तीनों राज्यों के चुनाव परिणाम 11 दिसंबर को घोषित हुए और उसके एक सप्ताह बाद 17 दिसंबर को तीनों नवनिर्वाचित मुख्यमंत्रियों ने अपना-अपना पदभार ग्रहण किया। उन्हें अपना मंत्रिमंडल गठित करने में इसके बाद कुछ दिन और लग गए। इस बीच 10 मार्च 2019 को केंद्रीय चुनाव आयोग ने लोकसभा चुनावों की अधिसूचना जारी कर दी, जिसके बाद सारे सरकारी कामकाज एक तरह से रुक ही गए। सीधा गणित है कि इन तीनों प्रदेशों की नई सरकारों को मात्र पैंसठ या सत्तर दिन ही मिल पाए, जिसमें वे अपने चुनावी वायदों और पार्टी की नीतियों के अनुरूप कुछ ठोस काम कर पाते। बाकी तो दैनंदिन प्रशासन अपनी गति से चलना ही था। देश के अन्य राज्यों की तुलना में इन राज्यों में, कह सकते हैं, कि एक विशिष्ट परिस्थिति निर्मित हो गई थी।
तीन नई सरकारें। तीन नए मुख्यमंत्री। इनमें शायद सबसे कम परेशानी राजस्थान के अशोक गहलोत के सामने थी। वह इसलिए कि वे पहले भी दो बार पूरे पांच साल के लिए मुख्यमंत्री पद सम्हाल चुके थे और राज्य के प्रशासन तंत्र पर उनकी पकड़़ पहिले से थी। मेरा अनुमान है कि राजस्थान में चूंकि सरकारें पांच साल में बदलती रही हैं, इसलिए नौकरशाही भी दूसरे राज्यों के मुकाबले व्यक्ति निष्ठा अथवा दलीय निष्ठा से किसी हद तक मुक्त रही होगी। मध्यप्रदेश का मामला इस लिहाज से अधिक गंभीर था। कमलनाथ वैसे तो सन् 1980 से लगातार लोकसभा सदस्य रहे हैं और चुनावों के एक साल पहिले वे प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष बन गए थे, फिर भी उनके सामने कई तरह की अड़चनें थीं। यह याद रखना होगा कि राजस्थान व मध्यप्रदेश दोनों में कांग्रेस को स्पष्ट जनादेश मिलने में कुछ कसर रह गई थी। राजस्थान में सत्ताच्युत भाजपा कांग्रेस को चुनौती देने लायक सीटें नहीं जीत पाई, किंतु मध्यप्रदेश में दोनों के बीच मात्र चार सीटों का अंतर था और भाजपा किसी कदर उद्धत होकर अपनी पराजय मानने तैयार न थी और न है।
एक अन्य परिस्थिति का भी उल्लेख करना चाहिए। राजस्थान में युवा प्रदेश अध्यक्ष सचिन पायलट मुख्यमंत्री पद के दावेदार थे, लेकिन गहलोत की वरिष्ठता का आदर व उपमुख्यमंत्री मिल जाने के कारण वहां कोई आंतरिक संकट उपस्थित नहीं हुआ। मध्यप्रदेश में कमलनाथ प्रदेश अध्यक्ष होने के नाते स्वाभाविक रूप से मुख्यमंत्री पद के दावेदार थे, लेकिन युवा ज्योतिरादित्य सिंधिया व हमउम्र दिग्विजय सिंह के साथ जाने-अनजाने उनकी तुलना होने लगी। यहां तक बातें उठीं कि सरकार तो दिग्विजय चला रहे हैं। अजय सिंह, राहुल, सुरेश पचौरी, अरुण यादव भी नेपथ्य में विद्यमान थे। लेकिन इन सबसे बढ़कर दो अन्य कारण भी थे। एक तो कमलनाथ को प्रदेश सरकार चलाने का कोई अनुभव नहीं था। वे कैलाशनाथ काटजू व प्रकाशचंद सेठी की परंपरा के मुख्यमंत्री हैं। केंद्र में अनेकानेक कार्य सुनिश्चित नीति और प्रक्रिया से चलते हैं जबकि मध्यप्रदेश जैसे राज्य में लगभग सारे समय प्रशासन में अस्त-व्यस्तता का माहौल बना रहता है। दूसरे, प्रदेश की नौकरशाही पिछले पंद्रह सालों के दौरान भाजपा व शिवराज सिंह के साथ काम करने के अभ्यस्त हो चुकी है।
हम देख रहे हैं कि एक्जिट पोल आने के बाद शायद इन सभी कारणों से मध्यप्रदेश में भाजपा के हौसले एक बार फिर बुलंद हो गए हैं। प्रतिपक्ष के नेता गोपाल भार्गव ने तो राज्यपाल को पत्र लिखकर विधानसभा का विशेष सत्र बुलाने की मांग कर दी है, जबकि उसके लिए फिलहाल कोई तर्कसंगत आधार नहीं है। आशंका होती है कि चुनाव परिणाम आने के बाद भाजपा कमलनाथ सरकार को अपदस्थ करने के लिए हरसंभव प्रयत्न करेगी। भाजपा का यह अतिउत्साह और आत्मविश्वास का अतिरेक जनतांत्रिक परंपराओं के विपरीत दिखाई देता है। सामान्य तौर पर विधानसभा का मानसून सत्र जुलाई में आहूत होगा। क्या शिवराज सिंह और गोपाल भार्गव डेढ़-दो माह भी धैर्य नहीं रख सकते? तिस पर तुर्रा यह कि ''हमने कांग्रेस को सरकार बनाने दी।" बहुत मेहरबानी आपकी। लेकिन फिर गोवा और मेघालय और मणिपुर में इतनी ही दयानतदारी दिखा देते। अच्छी बात है कि कमलनाथ ने बेहद संयत स्वर में इनकी चुनौती को कबूल कर लिया है।
छत्तीसगढ़ की स्थिति राजस्थान और मध्यप्रदेश दोनों से भिन्न है। मोदी-शाह तंत्र की सोच थी कि यहां तो भाजपा लगातार चौथी बार जीतेगी, जिसका असर म.प्र. व राजस्थान में भी होगा। यही सोचकर सबसे पहिले विधानसभा चुनाव छत्तीसगढ़ में करवाए गए। लेकिन भाजपा का दांव उल्टा पड़ गया। छत्तीसगढ़ से जो लहर उठी, उससे म.प्र. व राजस्थान में कांग्रेस को कुछ न कुछ लाभ ही पहुंचा। यहां कांग्रेस ने तीन चौथाई बहुमत हासिल किया तो पूरे देश में पार्टी के भीतर नए उत्साह का संचार हुआ। भूपेश बघेल, टीएस सिंहदेव, ताम्रध्वज साहू, रवींद्र चौबे आदि सभी वरिष्ठ नेताओं को दूसरे प्रदेशों में भी लोकसभा चुनाव में मदद करने भेजा गया। टीएस बाबा ओडिशा के प्रभारी बनाए गए, जबकि मुख्यमंत्री भूपेश मध्यप्रदेश व उत्तरप्रदेश के अनेक क्षेत्रों में स्टार प्रचारक के रूप में भूमिका निभाते नज़र आए। यह कहना शायद गलत नहीं होगा कि पार्टी के भीतर भूपेश एक कद्दावर ओबीसी नेता बनकर उभरे हैं। यह तस्वीर का एक पहलू है। इसका दूसरा पक्ष भी देख लेना चाहिए।
इसमें संदेह नहीं कि भूपेश सरकार को इस बीच काम करने के लिए जो सत्तर दिन मिले, उनमें कर्ज माफी जैसे अनेक कदम त्वरित रूप से उठाए गए। वायदे निभाए गए। लेकिन अब सामने चुनौतियों का अंबार लगा है। राज्य के प्रशासन तंत्र को लेकर जो स्थिति म.प्र. में है, वही छत्तीसगढ़ में है। मुख्यमंत्री को सर्वोच्च वरीयता देकर ऐसा तंत्र स्थापित करने की जरूरत है जो राग-द्वेष, ईर्ष्या प्रतिद्वंद्विता, भ्रष्टाचार से मुक्त होकर सरकार की रीति-नीति के अनुसार काम करे और परिणाम दे सके। शीर्ष नेताओं के बीच आपसी खींचतान की जो $खबरें आ रही हैं, वे भी चिंता उपजाती हैं। मतभेद होना सामान्य है, लेकिन उनके समाधान संभव है और इन्हें अखबारों की गपशप बनने से बचाने की फौरी आवश्यकता है। आज शाम को चुनाव परिणाम घोषित होने के साथ ही सरकारी कामकाज पर लगी रोक हट जाएगी। मेरी अपनी राय में युवा मुख्यमंत्री को अब अधिकतर समय अपने कार्यालय में बैठकर प्रशासन को सही दिशा व गति देने पर केंद्रित करना वांछित होगा
#देशबंधु में 23 मई 2019 को प्रकाशित
  
 

Thursday 16 May 2019

एक गैर-चुनावी चर्चा


देश में इन दिनों चारों तरफ आम चुनावों का माहौल है, लेकिन इसी बीच रायपुर में एक गैर-चुनावी घटना से प्याली में तूफान उठने की स्थिति बन गई। हुआ यह है कि प्रदेश के चर्चित आरटीआई कार्यकर्ता कुणाल शुक्ल एक दिन सुबह-सुबह वरिष्ठ विधायक और पूर्व मंत्री बृजमोहन अग्रवाल के सरकारी बंगले को खाली करने की मांग लेकर बंगले के सामने ही धरने पर बैठ गए। धरना अधिक देर तक नहीं चल पाया। पुलिस आई और उन्हें उठाकर ले गई। लेकिन इस घटना ने झील में कंकड़ फेंकने का काम तो कर ही दिया और मुझ जैसे लोगों को सोचने के लिए मसाला दे दिया।
भाजपाई बृजमोहन अग्रवाल सन् 1990 में पहली बार विधायक बने। हाल में संपन्न विधानसभा चुनावों में उन्होंने लगातार सातवीं बार जीत का रिकॉर्ड बनाया है। तीस साल की उम्र में विधायक बने बृजमोहन अब साठ सीढ़ियां पार कर चुके हैं। वे एक संपन्न व्यापारी परिवार से आते हैं, लेकिन नगर की जनता मुख्यत: उनकी मिलनसारिता से प्रभावित होती है। जब राजधानी भोपाल में थी, तब भी छत्तीसगढ़ से कोई भोपाल जाए तो बृजमोहन के सरकारी घर पर यथोचित ध्यान रखा जाता था। रायपुर में वे शहर की सड़कों पर अपने स्कूटर पर ही घूमने, पान खाने, मिलने-मिलाने निकल जाते थे। रायपुर के ही एक कांग्रेसी विधायक कुलदीप जुनेजा उनका अनुसरण करते नजर आते हैं। कुलदीप को भी स्कूटी की सीट पर अपना दफ्तर जमाए देखा जा सकता है। लेकिन माफ कीजिए, मैं बहक गया। बात तो बंगले की हो रही थी।
2003 में छत्तीसगढ़ में भाजपा की सरकार बनी बृजमोहन को मंत्री पद हासिल हुआ और उन्होंने बिना समय गंवाए रायपुर की सिविल लाइंस के सबसे महत्वपूर्ण माने जाने वाले बंगले पर कब्जा कर लिया। यह परंपरा से रायपुर संभाग के कमिश्नर का बंगला था, जो राज्य बनने के बाद प्रदेश के मुख्य सचिव के नाम हो गया था। चीफ सेक्रेटरी अरुण कुमार इसमें रहे और रिटायर होने के बाद प्रशासनिक सुधार आयोग के अध्यक्ष की हैसियत से भी वहीं काबिज रहे आए। लेकिन मंत्रीजी नौकरशाह पर भारी पड़ गए। अरुण कुमार को बंगला छोड़ना पड़ा। तब से बृजमोहन अग्रवाल का निवास यहां बना हुआ है याने पंद्रह साल कुछ माह से। यह समझ आता है कि प्रदेश के वरिष्ठतम विधायकों में से एक श्री अग्रवाल को एक सुविधायुक्त आवास की सुविधा होना चाहिए, लेकिन उन्हें इसी जगह से इतना मोह है तो उसका कोई कारण अवश्य होगा!
मुश्किल यह हुई है कि पंद्रह साल बाद सत्ता में लौटी कांग्रेस के नए-नवेले मंत्री रुद्रकुमार गुरु ने अपने आवास के लिए इसी बंगले को चुन लिया। रायपुर कमिश्नर के इस सौ साल पुराने बंगले में ऐसी क्या कोई खासियत होगी जो किसी मंत्री को अपनी ओर आकर्षित करती है? श्री गुरु का कथन है कि वे शिफ्ट होंगे तो इसी बंगले में वरना अपने पैतृक आवास से ही काम चलाते रहेंगे। उन्हें दूसरे सरकारी आवास में जाना कुबूल नहीं है। लेकिन हमारी समझ में बात नहीं आई कि कुणाल शुक्ल एकाएक रुद्रकुमार गुरु के हनुमान क्यों बन गए! वे एक ऊर्जावान युवा हैं जो पिछले कई सालों से सूचना के अधिकार कानून व जनहित याचिका आदि का सहारा लेकर प्रशासन तंत्र की जवाबदेही सुनिश्चित करने के उपक्रम में लगे रहते हैं। इस बंगला प्रसंग में भी उन्होंने शायद जनहित मानकर ही हस्तक्षेप किया होगा; लेकिन प्रतीत होता है कि इस पूरे मामले के जितने स्टेकहोल्डर याने हितग्राही हो सकते हैं, वे इस ओर से पूरी तरह निर्विकार हैं।
मुझे इस संदर्भ में कुछ सप्ताह पहले लिखे अपने ही एक लेख की याद हो आई। सन् 2000 में राज्य गठन के बाद स्वाभाविक था कि मंत्रियों को शासकीय आवासगृहों या कि बंगलों की आवश्यकता पड़ती। मंत्री द्वय सत्यनारायण शर्मा व अमितेश शुक्ल पूर्व से ही रायपुर के स्थायी निवासी थे। शर्माजी ने जनसंकुल बांसटाल की गली में अपने निजी आवास में ही रहना पसंद किया। वह मकान उनके लिए सदा से मंगलकारी था। वहीं से उनकी राजनीति परवान चढ़ी। अमितेश का खम्हारडीह का सुसज्जित बंगला तो वैसे भी पूर्व मुख्यमंत्री का निजी आवास था, सो उसमें शुभ-लाभ सोचने की कोई बात नहीं थी। अगर अन्य किसी मंत्री ने भी इन उदाहरणों का अनुकरण किया हो तो मुझे ध्यान नहीं है।
फिलहाल, मेरा ध्यान इस तथ्य पर जाता है कि बृजमोहन अग्रवाल ने 1990 के अपने पहले चुनाव के बाद 1993, 1998 और 2003 के चुनाव भी रामसागरपारा में अपने पैतृक निवास से ही जीते थे। अगले तीन चुनाव अर्थात 2008, 2013 व 2018 की विजय उन्हें मंत्री बंगले में रहते हुए प्राप्त हुई। किंतु इससे जुड़ा तथ्य यह भी है कि यह पुराना बंगला अपने तमाम रंग-रोगन के बावजूद उनकी महत्वाकांक्षा पूरी करने में सहायक नहीं बन सका। छत्तीसगढ़ भाजपा में उनकी ख्याति चुनावी रणनीतिकार के रूप में रही है। विगत पंद्रह सालों में भाजपा जितने भी चुनाव-उपचुनाव जीती है, उसमें बृजमोहन ने महती भूमिका निभाई है। यह राजनीति की विडंबना है कि इसके बाद भी वे जहां पहुंचना चाहते थे, नहीं पहुंच सके हैं। मेरी समझ में रुद्रकुमार गुरु के लिए भी यहां एक अव्यक्त संदेश है। जिस घर में रहकर दो बार विधायक और फिर मंत्री बने, वहीं बने रहने में क्या परेशानी है। अफसरों के बंगले तो वैसे भी तबादले पर आने-जाने वालों के लिए बनते हैं। उनसे क्यों मोह पाला जाए?
जो बात मंत्रियों पर लागू होती है, वह विधायकों पर भी लागू होना ही है। जशपुर के राजकुमार युद्धवीर सिंह विधायक बने तो उन्होंने रायपुर में एनआईटी डायरेक्टर के लिए नामांकित आवास पर कब्जा कर लिया। एक संपन्न राजपरिवार के वारिस होने के नाते शहर में कहीं भी वे अपनी मर्जी का आवास ले सकते थे। मालूम नहीं, शिक्षकों की कालोनी, विद्यार्थियों के छात्रावास के निकट रहने में उन्हें क्या सुख मिला। उनके नक्शेकदम पर रायपुर पश्चिम के तेजतर्रार युवा विधायक विकास उपाध्याय चल पड़े हैं। उन्होंने जिस बंगले पर आधिपत्य जमाया है वह छत्तीसगढ़ के सबसे प्रतिष्ठित शासकीय विज्ञान महाविद्यालय के प्राचार्य का नामांकित आवास है। उन्हें यहां आकर रहने की क्या सूझी? विकास का आधा समय तो धरना, प्रदर्शन, जन आंदोलन में जाता है। अब कुछ समय विधानसभा में बीतेगा। दिन भर की मशक्कत के बाद एक अच्छी नींद लेने के लिए वह पुराना घर क्या बुरा था? जनसंपर्क करना है, लोगों से मिलना-जुलना है तो कुलदीप जुनेजा को अपना आदर्श बनाने में कोई हर्ज नहीं है। अनुपम गार्डन में पेड़ की छाँह तले बैठकर भी जनता के साथ संवाद किया जा सकता है।
मेरी बात व्यक्ति को लेकर नहीं, वरन हाल-हाल में पनप रही एक नई प्रवृत्ति को लेकर है। हमारे निर्वाचित प्रतिनिधियों का ध्यान सुप्रीम कोर्ट के फैसलों की ओर जाना चाहिए। उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश आदि में पूर्व मुख्यमंत्रियों को आबंटित बंगले निरस्त कर दिए गए हैं। मोतीलाल वोरा, मुलायम सिंह, मायावती तक को बंगले खाली करने पड़े हैं। इसी तरह सुप्रीम कोर्ट ने लालबत्ती का प्रयोग भी निषिद्ध कर दिया। जननेता की पहचान लाव-लश्कर से नहीं, जनसामान्य के प्रति उसके व्यवहार व सरोकार से बनती है। कथित चायवाले को जनता ने चुना, लेकिन सोने के धागे से बुने नाम वाले सूट को उसने पसंद नहीं किया। बंगलों की चर्चा चलने पर मुझे अनायास 1956 का भोपाल याद आने लगता है। विधायक विश्रामगृह क्रमांक 1, 2 और 3 में विधायकगण सत्र के दौरान आकर ठहरते थे। सत्रावसान के बाद क्षेत्र में लौट जाते थे। यही हमने दिल्ली में देखा। नॉर्थ एवेन्यू व साउथ एवेन्यू में संसद सदस्यों के लिए फ्लैट बने हैं। एलआईजी मानदंड के फ्लैट, जिनमें संसद सत्र के दौरान सदस्य रुकते हैं। मध्यप्रदेश में तीन बार मुख्यमंत्री रहे श्यामाचरण शुक्ल भी जब लोकसभा में पहुंचे तो नॉर्थ ब्लॉक का फ्लैट ही उन्हें मिला। कम्युनिस्ट पार्टी के वरिष्ठ सांसद इंद्रजीत गुप्त तो अंत तक वेस्टन कोर्ट के एक कमरे में ही रहते रहे। अगर ये उदाहरण प्रेरणा दे सकें तो ठीक, अन्यथा जो चल रहा है, वह चलता रहेगा।
#देशबंधु में 16 मई 2019 को प्रकाशित

Thursday 9 May 2019

आम चुनाव बनाम टीवी चैनल


टीवी चैनल किसी आम चुनाव के परिणामों को कैसे प्रभावित कर सकते हैं इसका पहले-पहल उदाहरण 1960 में अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनाव में देखने मिला था। रिपब्लिकन पार्टी की ओर से विदा लेते उपराष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन उम्मीदवार थे और उन्हें चुनौती देने उतरे थे डेमोक्रैटिक पार्टी के युवा सीनेटर जॉन एफ. कैनेडी। दोनों उम्मीदवारों के बीच अमेरिकी टीवी चैनलों पर वाद-विवाद प्रतिस्पर्द्धा के अंदाज में डिबेट आयोजित हुए थे, जिनमें कैनेडी निक्सन पर भारी पड़ गए थे। उसी समय अनेक राजनैतिक पंडितों ने मान लिया था कि भविष्य के चुनाव टेलीविजन के माध्यम से ही तय होंगे। मीडिया जगत के लिए यह एक खुशखबर थी कि वे देश के भाग्यनियंता बन सकते हैं। लेकिन जैसा कि हम जानते हैं- सोचने और करने के बीच अक्सर एक फर्क होता है, जिसे क्षणिक भावावेग में झुठला दिया जाता है। इसमें शक नहीं कि टीवी के परदे पर निक्सन के मुकाबले कैनेडी की छवि निखरी हुई थी। उनके मुखमंडल पर युवकोचित मासूमियत तथा साथ ही एक आभिजात्य गरिमा थी, सूत्रधार के प्रश्न पूछने पर उनके उत्तर त्वरित व सटीक थे और वे अपनी सहज मुस्कान से दर्शकों-मतदाताओं को लुभा पाने में सफल थे। दूसरी ओर निक्सन यद्यपि कहीं अधिक अनुभवी राजनेता थे, किंतु उनके मुखानन पर प्रौढ़ता की परछांई के अलावा एक तरह की पाषाणी निर्विकारता थी तथा अपने उत्तरों व तर्कों में वे सहजता के बजाय वकीली अंदाज में पेश आ रहे थे। जाहिर है कि वे दर्शकों को रिझाने में उतने सफल नहीं हुए।
लेकिन सिर्फ इतने से यह मान लेना भूल होगी कि कैनेडी टीवी प्रदर्शन की बदौलत चुनाव जीत गए। दरअसल, निक्सन उपराष्ट्रपति के रूप में हमेशा राष्ट्रपति आइज़नहोवर की छाया में रहे और अपना स्वतंत्र व्यक्तित्व उस समय तक विकसित नहीं कर पाए थे। जबकि जॉन कैनेडी सीनेट में अपनी प्रभावशाली भूमिका के कारण लगातार लोकप्रिय हो रहे थे। उन्हें अपने परिवार की देशव्यापी प्रतिष्ठा का भी लाभ मिल रहा था। उपराष्ट्रपति उम्मीदवार के रूप में उनके साथ टैक्सास के लिंडन जॉनसन थे, जिस कारण से रंगभेदग्रस्त दक्षिणी प्रदेशों में उनकी स्वीकार्यता बढ़ी। शिकागो के अत्यन्त प्रभावशाली मेयर तथा ट्रेड यूनियनों के सरताज रिचर्ड डेली ने भी उनका साथ दिया था। शायद कारपोरेट अमेरिका ने भी उनको पसंद किया था। ऐसे तमाम मिले-जुले कारणों की भी उनकी जीत में भूमिका निभाई। याद रहे कि कैनेडी रोमन कैथॉलिक थे, और प्रोटेस्टेंट बहुल अमेरिका ने उनकी जीत की संभावना क्षीण थी, और वे बहुत कम अंतर से ही विजय हासिल कर पाए थे।
खैर, निक्सन-कैनेडी टीवी डिबेट के बाद तो यह चलन ही बन गया कि हर राष्ट्रपति चुनाव के समय दोनों प्रमुख उम्मीदवार टीवी पर बहस में आमने-सामने आकर दर्शकों का दिल जीतने की भरसक कोशिश करते हैं। लेकिन अमेरिकी राष्ट्रपति के परवर्ती चुनावों में हमने देखा कि चुनाव प्रचार का अनिवार्य अंग बन जाने के बावजूद जीत-हार में टीवी ने कोई निर्णायक भूमिका नहीं निभाई। 1964 में कार्यवाहक राष्ट्रपति जॉनसन ही बाकायदा चुने गए, 1968 फिर 1972 में निक्सन को मतदाताओं ने चुना और 1976 में जॉर्जिया के गवर्नर लेकिन राष्ट्रीय परिदृश्य पर लगभग गुमनाम जिम्मी कार्टर राष्ट्रपति चुन लिए गए। 1997 में बिल क्लिंटन जब चुने गए, तब उनकी भी कोई खास पहचान नहीं थी। और यह तथ्य सामने है कि 2016 में हिलेरी क्लिंटन को अपनी तमाम लोकप्रियता के बावजूद डोनाल्ड ट्रंप के हाथों मात खानी पड़ी। इन उदाहरणों से समझ आता है कि तब का टीवी हो या आज का सर्वग्रासी मीडिया, चुनावों में उसकी भूमिका सीमित ही हो सकती है।
मैंने अमेरिका, इंग्लैंड, जर्मनी आदि के साथ 1990 के बाद के रूस के चुनावों का भी जो सीमित अध्ययन किया है उससे निष्कर्ष यही निकलता है कि मतदाता सामान्यत: उन मुद्दों के आधार पर ही किसी पार्टी या व्यक्ति को वोट देना पसंद करता है जो उसके जीवन से जुड़े बुनियादी मुद्दों की समझ रखने के साथ उनको महत्व दे और उन पर आधारित योजना तथा कार्यक्रम लाकर बेहतर भविष्य का स्वप्न दे सके। लेकिन बात इतनी सरल नहीं है। जहां एक ओर औसत मतदाता हैं, वहीं दूसरी ओर तरह-तरह के निहित स्वार्थ भी सक्रिय होते हैं जिनकी कोशिश अपने अजेंडों को लागू करने वाली सरकार बनाने की होती है। पाठकों को यह जानकर आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि जिम्मी कार्टर, बिल क्लिंटन, बराक ओबामा की पीठ पर बहुराष्ट्रीय कंपनियों के ''ट्राइलेटरल कमीशन'' का हाथ था। अपनी गतिविधियां अत्यन्त पोशीदा ढंग से चलाने वाले इस गुट में अमेरिका, यूरोप व जापान के अनेकानेक धनकुबेर शामिल हैं। इनमें जॉर्ज सोरोस व बिल गेट्स जैसे नाम प्रमुखता से लिए जा सकते हैं।
कहना न होगा कि भारत के आम चुनावों में भी ये दोनों धाराएं साथ-साथ चलती हैं। आम जनता को तो सिर्फ इतने से मतलब है कि उसका जीवन सुकून से गुजरे यानी शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, मकान, बिजली, पानी के लिए उसे भटकना न पड़े और हमेशा अमन-चैन बना रहे। लेकिन समाज के वर्चस्ववादी तबका तो हमेशा ऊंची उड़ान भरने की फिराक में रहता है। उसके लोभ-लालच के बारे में जितना कहा जाए कम है। वह तो शेष समाज को अपने अंगूठे के नीचे रखना चाहता है। समानता, न्याय, करुणा, त्याग- ये उसकी डिक्शनरी से विलोपित हैं। अपने दावानल जैसे स्वार्थ की पूर्ति के लिए वह कई तरह के उपाय अपनाता है। वह जानता है कि राजसत्ता पर नियंत्रण किए बिना वह अपनी मनमानी नहीं कर सकता। इसके लिए निहायत जरूरी है कि वह चुनावों में हस्तक्षेप करे और अपने लिए क्रीतदासों की चुनी हुई फौज खड़ी कर ले। यहां आकर उसे मीडिया की जरूरत पड़ती है। यह अनायास नहीं है कि वैश्विक मीडिया कमोबेश पूंजीपतियों के नियंत्रण में है। इकानामिस्ट, न्यूयॉर्क टाइम्स, वाशिंगटन पोस्ट जैसे मशहूर और प्रतिष्ठित पत्र भी उस ट्राइलेटरल कमीशन का अंग रहे हैं, जिसका ज़िक्र हम ऊपर कर आए हैं। लॉर्ड थॉमसन और रूपर्ट मर्डोक आदि के आधिपत्य वाले पत्र-पत्रिकाएं, टीवी चैनल भी इस वैश्विक दुरभिसंधि से बाहर नहीं हैं। इनके पास सिनेमा स्टूडियो हैं, फिल्म निर्माण कंपनियां हैं, म्यूजाक कंपनियां हैं और फुटबॉल, बेसबॉल आदि के क्लब भी हैं। इन तमाम अवयवों का प्रयोग आम जनता पर मनोवैज्ञानिक नियंत्रण स्थापित करने याने ब्रेनवाशिंग के लिए किया जाता है। जनता खेल-तमाशे में मशगूल-मस्त रही आए और जब कभी वह बाहर निकलकर स्वतंत्र निर्णय लेने की सोचे तो उसे व्यर्थ मुद्दों में उलझा दिया जाए। इस प्रवृत्ति को हम भारत में बखूबी देख रहे हैं।
इसी तीन मई को प्रेस स्वतंत्रता दिवस मनाया गया। लेकिन मेरे शहर रायपुर में पत्रकारिता विश्वविद्यालय में आयोजित एकाध कार्यक्रम के अलावा कहीं भी प्रेस या मीडिया की स्वतंत्रता की चर्चा नहीं हुई। मीडियाकर्मियों की अच्छी-खासी संख्या है, लेकिन उनके बीच इस दिन को लेकर कोई उत्तेजना देखने में नहीं आई। सोशल मीडिया पर अवश्य कुछ टिप्पणियां पढ़ने मिलीं, जिनसे इस उत्साहहीनता का कारण स्पष्ट होता है। वह यही कि मीडिया पर नियंत्रण तो पूंजीपतियों का है, पत्रकार करें भी तो क्या करें! यह एक कड़वी सच्चाई है, लेकिन शायद राहत की बात भी है कि सोशल मीडिया पर लोग अपने दिल की बात कह रहे हैं। क्या इसका कोई दूरगामी और व्यापक प्रभाव हो सकेगा, यह जानने के लिए प्रतीक्षा करना पड़ेगी। यहां एक मौजूं प्रश्न उठता है कि क्या दुनिया के चौकीदारों के लिए सोशल मीडिया पर पूर्ण नियंत्रण रख पाना संभव है?
वर्चस्ववादी, प्रभुतावादी शक्तियां समाचारपत्रों व टीवी का उपयोग अब तक अपनी इच्छानुसार करती आई हैं। अपने देश के आम चुनावों में भी हमने इसे देखा है।
जनता इस रहस्य को समझने लगी है। वह अब टीवी चैनलों पर आंख मूंद कर ऐतबार नहीं करती। अखबारों में सत्ताधीशों के लंबे-लंबे इंटरव्यू देखकर वह जान जाती है कि यह प्रायोजित सामग्री है। आम नागरिक जब किसी विषय पर अपनी राय व्यक्त करना चाहता है तो उसे टीवी या किसी हद तक अखबार में भी जगह नहीं मिलती। अब वह सोशल मीडिया का सहारा लेने लगा है। चुनाव, पार्टी, नेता, प्रत्याशी-इन सबके बारे में वह अपनी राय यूट्यूब, ट्विटर, फेसबुक पर साझा करने लगा है। निस्संदेह निहित स्वार्थ भी इन माध्यमों का उपयोग दुष्प्रचार के लिए करने दें, किंतु अब उनका झूठ पकड़ में आ जाता है। कोई न कोई उसे उजागर कर देता है। इस तरह सोशल मीडिया पर एक संतुलन साधने की कोशिश होने लगी है जो पारंपरिक मीडिया खासकर टीवी के एकतरफा आख्यान का निषेध करती है। इस दिशा में जनता जितनी जागरूक, जितनी सजग होगी, जितनी निर्भीकता का परिचय दे सकेगी, उसी अनुपात में स्थितियां सुधर पाएंगी।
#देशबंधु में 09 मई 2019 को प्रकाशित
  
 

Wednesday 1 May 2019

मसीहा की तलाश?


क्रिकेट प्रेमियों को यह प्रसंग अवश्य याद होगा। 1971 में अजीत वाडेकर की कप्तानी में भारत ने विदेश में दो टेस्ट श्रंखलाएंं शानदार तरीके से जीती थीं। इस विजय के उपलक्ष्य में क्रिकेट के एक प्रमुख शहर इंदौर में किसी प्रमुख चौराहे पर क्रिकेट के बल्ले का एक विराट प्रस्तर प्रतिरूप स्थापित किया गया था। लेकिन 1974 में जब वाडेकर की ही कप्तानी में भारत इंग्लैण्ड से 3-0 से टेस्ट श्रंखला हार गया तो इंदौर की गुस्साई जनता ने विजय के उस बल्ले पर कालिख पोत दी; उधर तब की बंबई में वाडेकर के घर पर लोगों ने पथराव भी किया। आज यह ज़िक्र यह समझने के लिए कि समाज कैसे एक व्यक्ति से ढेर सारी आशाएं बांध लेता है, उसे मसीहा और भगवान तक का दर्ज़ा दे देता है; लेकिन जब आशाएं क्षणिक तौर पर ही सही बिखरने लगती हैं तो वही मसीहा अपमान, तिरस्कार, घृणा का पात्र बना दिया जाता है, उसकी विराट छवि धूल-धूसरित कर दी जाती है।
अभिनय, कला, क्रीड़ा जैसे क्षेत्रों में इस सामाजिक मनोवृत्ति के ढेरों उदाहरण सामने हैं। और यह दारुण सच्चाई भारत तक सीमित नहीं है। खेल व सिनेमा आदि में प्रदर्शन व परिणाम के बीच बहुत अधिक फासला नहीं होता, इसलिए इन क्षेत्रों के दृष्टांत अधिक दिखाई देते हैं। एक समय राजेश खन्ना सबके चहेते अभिनेता थे। 'नमक हराम' के बाद उनका ग्राफ जो गिरा तो गिरता ही गया, जिसे 'अवतार' ने कुछ सम्हाला। दो नामों का उल्लेख अपवादस्वरूप किया जा सकता है- अमिताभ बच्चन और सचिन तेंदुलकर। ये अभी भी भगवान बने हुए हैं; और यह तो सामाजिक मनोविज्ञान का कोई शोधकर्ता ही कभी बता सकेगा कि इनकी करिश्माई छवि बरकरार रखने में कारपोरेट घरानों के संरक्षण तथा कारपोरेट मीडिया ने क्या भूमिका निभाई है। हमें अनायास हॉलीवुड का एक प्रसंग ध्यान आता है जब किसी कम प्रतिभावान गायक को माफिया के संरक्षण के कारण एक के बाद एक ''ब्रेक'' मिलते गए और उसे अन्तत: महान पार्श्वगायक के रूप में स्थापित कर दिया गया।
हॉलीवुड, बॉलीवुड, स्टेडियम, स्टेज आदि का अपना महत्व है। श्रम का परिहार करने के लिए मनोरंजन की आवश्यकता होना स्वाभाविक है। लेकिन किसी खिलाड़ी या अभिनेता के अच्छे या बुरे प्रदर्शन का प्रभाव दूरगामी नहीं होता। समय के साथ लोग उसे भुला देते हैं। ध्यानचंद, पेले, पावो नूर्मी जैसा कोई बिरला ही होता है जो देश के गौरव का पर्याय बन जाए। किसी भी देश के शासक, राजनेता, नीतिनिर्धारक की स्थिति इसके ठीक विपरीत है। शायर बशीर बद्र का प्रसिद्ध शेर है-''लम्हों ने खता की थी, सदियों ने सजा पाई।'' उनका यह शेर शायद इस कोटि के व्यक्तियों को ध्यान में रखकर ही लिखा गया था। विश्व इतिहास में एक के बाद एक दृष्टांत मिलते हैं कि कैसे शासक वर्ग की अदूरदर्शिता, संकीर्ण मानसिकता, अहंकार, आत्मविश्वास का अतिरेक और स्वयं को अपरोजय समझने के कारण किसी देश और समाज को नारकीय यातनाओं के दौर से गुजरना पड़ा। प्लेटो जब दार्शनिक सम्राट की वकालत करता है तब क्या प्रकारांतर से वह विचारहीन, बुद्धिहीन, विवेकहीन शासकों की आलोचना नहीं कर रहा होता?
यह हमारे समय की बड़ी विडंबना है और साथ में यक्ष प्रश्न भी कि एक आदर्श शासन व्यवस्था कैसे लागू हो! हमने अतीत में राजाओं और सम्राटों को देखा है। उनके वैभव के प्रतीक, उनके तुगलकी निर्णय, उनके ऐशोआराम के साधन, उनकी महत्वाकांक्षा, अपनी प्रजा के प्रति उनकी उपेक्षा और निर्ममता के किस्सों से हम परिचित हुए हैं। नि:संदेह ताजमहल विश्व की सबसे सुंदर इमारत है, जिस पर हमें गर्व है; लेकिन क्या किसी शहंशाह या सम्राट को अपनी पत्नी का मकबरा बनाने के लिए इस बेहद फिज़ूलखर्ची की इजाजत मिलना चाहिए थी? आज भी जब सत्ताधीश ऐसे ऐश्वर्य का प्रदर्शन करते हैं तो जनता के दिल पर क्या गुजरती है, यह क्या कोई कहने की बात है! विडंबना ही तो है कि आज के समय में भी अंबानी परिवार सत्ताइस मंजिल की अट्टालिका में रहता है और देश के प्रधानमंत्री को सोने के धागे से पिरोया सूट पहनने में संकोच नहीं होता!
हमने इतिहास में उन शासकों के बारे में पढ़ा है जिन्होंने अपने साम्राज्य का विस्तार करने के लिए दूसरे देशों पर आक्रमण किए। इसमें होने वाले खून -खराबे के बारे में उन्होंने सोचना जरूरी नहीं समझा। इतिहासकारों ने जिस सिकंदर को महान की उपाधि दी वह भारत की सीमा तक आ गया, लेकिन अंतत: परिणाम क्या निकला? कहावत बन गई कि सिकंदर भी खाली हाथ आया था और खाली हाथ चला गया। एक सम्राट अशोक का ही उदाहरण है जिसे युद्ध में रक्तपात देखने के बाद पश्चाताप हुआ। फिर जिसने स्वयं का कायाकल्प शांतिदूत के रूप में किया। एक दूसरा उदाहरण इंग्लैण्ड के एडवर्ड अष्टम का है जिसने अपनी प्रेमिका से विवाह करने के लिए इंग्लैण्ड का राजपाट त्याग दिया। लेकिन ऐसे उदाहरण बिरले ही हैं। अशोक ने तो भगवान बुद्ध से प्रेरणा ली थी जिन्होंने राजसुख की कभी परवाह ही नहीं की।
मैं सोचता हूं कि सही मायनों में मसीहा तो बुद्ध और गांधी जैसे ही लोग थे। उन्होंने अपने समय में अपने आचरण से जन-जन को प्रभावित और प्रेरित किया और एक ऐसी सामाजिक व्यवस्था कायम करने का रास्ता खोला जहां हर मनुष्य को बराबरी के अवसर मिले, जहां अपने-पराए का भेद न हो, जहां ऊंच-नीच और छुआछूत न हो, जहां एक-दूसरे को संदेह की दृष्टि से न देखा जाए और जहां सब मिलजुल कर सद्भाव व सौमनस्य के साथ सुंदर जीवन जी सकें। हमने इन्हें मसीहा से ऊपर भी माना, लेकिन गौर करने की बात यह है कि बुद्ध या गांधी ने जनता को कभी उन पर निर्भर रहने के लिए नहीं कहा। उन्होंने जनसाधारण के स्वाभिमान को जगाया। उसकी छुपी हुई शक्ति से उसे परिचित कराया और निर्भय होकर आचरण करने की प्रेरणा दी। विचार करें कि क्या हम आज भी गांधी के रास्ते पर चल रहे हैं?
आज की बात करते हुए मालूम नहीं क्यों मेरा ध्यान अपनी पुराकथाओं की ओर चला जाता है। ब्रजवासियों ने श्रीकृष्ण से यह विनती क्यों की कि वे इंद्र के कोप से उनकी रक्षा करें? और अगर भगवान कृष्ण को गोवर्धन पर्वत उठाना ही था तो उन्होंने ब्रजवासियों का आह्वान क्यों नहीं किया कि आओ हम सब मिलकर इस पहाड़ को उठा लें! क्या यह सर्वोच्च सत्ता के सामने समर्पण का उदाहरण नहीं है? मैं यह भी सोचता हूं कि गुरु विश्वामित्र राजा दशरथ के दरबार में ऋषियों की सुरक्षा के लिए राजपुत्रों को भेजने का अनुरोध करने क्यों आए? संशय है कि उस युग में आज के समान कानून- व्यवस्था का कोई तंत्र था या नहीं। और अगर नहीं था तो इन ऋषि मुनियों का तपोबल कहां था? वे अपनी रक्षा स्वयं करने में समर्थ क्यों नहीं थे? यह मेरी अपनी जिज्ञासा है।
मैं देखता हूं कि हमारे देश में संविधान सम्मत संसदीय जनतंत्र होने के बावजूद हमें खुद पर भरोसा नहीं है। हम जब देखो तब किसी न किसी मसीहा की तलाश में लगे रहते हैं। कभी किसी प्रशासनिक अधिकारी में अपना प्राणरक्षक दिखाई देने लगता है तो कभी किसी नेता में। अभी चुनावों के दौर में कुछ ज्ञानियों को टी.एन. शेषन बार-बार याद आ रहे हैं। गोया शेषन के पहले कभी यहां न चुनाव हुए थे, न सरकारें बदली थीं! कभी प्रियंका गांधी को हम मुक्तिदात्री मान बैठते हैं, तो कभी कन्हैया कुमार से हम अपार उम्मीदें लगा बैठते हैं। और वर्तमान प्रधानमंत्री का जहां तक सवाल है तो एक बड़े वर्ग ने मान लिया है कि मोदी हैं तो मुमकिन है। मोदीजी सुपरमैन का चोला धारण कर तृतीय पुरुष में बतलाते हैं कि मोदी ने बालाकोट जाकर आतंकियों को मारा और हम जो अपना आत्मविश्वास खो चुके हैं इस बड़बोलेपन पर विश्वास कर बैठते हैं। यह मसीहाई अंदाज नहीं तो क्या है?
#देशबंधु में 02 मई 2019 को प्रकाशित