Tuesday 24 April 2012

अम्बानी एंड संस


                                                            अम्बानी एंड संस 

दीपावली पर सारा देश लक्ष्मीपूजन करता है, लेकिन मुझ जैसा व्यक्ति जिसे लक्ष्मी के प्रति अतिरिक्त आकर्षण न हो वह क्या करे?
मैंने इस दीपावली पर मिले अवकाश का उपयोग लक्ष्मी पूजन में तो नहीं, किन्तु एक बहुचर्चित लक्ष्मीपुत्र याने धीरूभाई अंबानी की जीवनी पढ़ने में व्यतीत किया। आस्ट्रेलिया के पत्रकार हेमिश मेकडॉनाल्ड ने कुछ वर्ष पूर्व धीरूभाई अंबानी पर एक पुस्तक लिखी थी- ''द पोलिएस्टर प्रिंस'' जो भारत में अदालती आदेश से प्रतिबंधित हो गई थी। यही पुस्तक संवर्ध्दित और संशोधित रूप में इस वर्ष ''अंबानी एण्ड संस'' नाम से प्रकाशित हुई है: इंटरनेट पर पुरानी किताब के कुछ अंश पढ़ने से यही अनुमान हुआ।

भारत के औद्योगिक घरानों और उद्योगपतियों पर इसके पहले भी पुस्तकें लिखी गई हैं। एक दो उद्योगपतियों ने किसी लेखक या पत्रकार की सहायता लेकर आत्मकथाएं भी लिखीं, लेकिन ये सब सूचनाओं से बोझिल ऐसी पुस्तकें हैं जिन्हें कोई सामान्य पाठक शायद ही कभी पढ़ना चाहेगा। आज से लगभग बीस साल पहले अमेरिका में क्रिसलर कार कंपनी के सीईओ ली इयाकोक्का ने अपनी आत्मकथा में एक डूबती कंपनी को दुबारा मजबूत स्थिति में लाने के संघर्ष का जैसा जीवंत और प्रभावी चित्रण किया था, वैसा कोई भारतीय उद्योगपति नहीं लिख सका। 

धीरूभाई अंबानी पर भी यदि कोई प्रायोजित पुस्तक लिखी जाती तो शायद उसका भी वही हश्र होता, लेकिन ''अंबानी एण्ड संस'' आर्थिक मामलों के एक ऐसे विशेषज्ञ पत्रकार ने लिखी है, जो अपने विषय को खूब अच्छी तरह से समझता है और जिसके पास खोजी पत्रकार की सतर्क दृष्टि है। इस नाते भारतीय उद्योग जगत पर अब तक लिखी गई तमाम किताबों में यह शायद सबसे बेहतरीन किताब मानी जाएगी। यद्यपि पुस्तक का शीर्षक ''अंबानी एण्ड संस'' है तथापि यह सिर्फ धीरूभाई अंबानी या उनके बेटों की जीवनी नहीं है। जैसा कि प्रकाशकीय टिप्पणी में कहा गया है- ''अंबानी गाथा आधुनिक भारत की एक वृहत्तर गाथा को समेटती है। यह सिर्फ एक आर्थिक शक्ति केन्द्र के बारे में नहीं, बल्कि सरकार और मोटा व्यापार इन दोनों के बीच की जटिल रिश्तों की भी पड़ताल करती है।''

एक तरफ हेमिश मेकडॉनाल्ड की यह पुस्तक जासूसी उपन्यास सा मजा देती है; लेकिन चूंकि यह वास्तविक प्रसंगों पर आधारित है, इसलिए दूसरी ओर बेहद डराती भी है। भारत की आर्थिक प्रगति इस तरह से ही होना है जैसा कि लेखक ने विस्तारपूर्वक वर्णन किया है तो बहुत बड़ा सवाल उठ खड़ा होता है कि क्या भारत में सचमुच जनतंत्र है? और यदि है तो किसके लिए है? देश की आजादी के बाद राजनैतिक, आर्थिक और सामाजिक विकास के लिए जो ढांचा बनाया गया, जो संस्थाएं खड़ी की गईं, वे क्या वाकई गणदेवता के प्रति जिम्मेदार हैं या फिर जनतंत्र के नाम पर हम जो देख रहे हैं वह कठपुतली के तमाशे से बढ़कर कुछ नहीं है?  लेखक की पहली पुस्तक में शायद सीधे-सीधे आरोप लगाए गए होंगे जिनकी वजह से उस पर रोक लगाई गई। इसीलिए इस पुस्तक में यह जगह-जगह पर कहा गया है कि फलाने मामले में अंबानी की कोई सीधी भूमिका स्थापित नहीं हो पाई, तथापि लेखक जो कहना चाहता है, वह इतना लिख देने मात्र से स्पष्ट हो जाता है।

मैं इस पुस्तक में वर्णित घटनाओं और प्रसंगों को एक बड़े कैनवास पर समझने की कोशिश कर रहा हूं। अमेरिका में एक कहावत प्रचलित है कि किसी अरबपति से यह मत पूछो कि उसने पहला एक करोड़ किस तरह कमाया था।  इसका मतलब है कि बड़े आर्थिक घरानों की नींव में यदि खुला अपराध नहीं, तो संदिग्ध गतिविधियाँ अवश्य रहती हैं। इस कहावत की पुष्टि अमेरिका में ही प्रचलित एक संज्ञा से होती है। वहां उन्नीसवीं और बीसवीं सदी में जिन लोगों ने आर्थिक साम्राज्य खड़े किए उन्हें, अक्सर ''रॉबर बैरन'' कहकर याद किया जाता है। इसका सीधा अर्थ है कि उन लोगों ने कायदे-कानून की धज्जियां उड़ाते हुए आम जनता को लूटकर पैसा कमाया। विवेच्य पुस्तक को पढ़कर लगता है कि भारत की स्थिति भी लगभग ऐसी ही है। 

यह हम जानते हैं कि भारत में आज जो पुराने सम्मानित आर्थिक घराने हैं उनमें से अनेक ने या तो चीन को अफीम बेचकर, या फिर सट्टा खेलकर या फिर अंग्रेज बहादुर की सेवा कर प्रारंभिक सफलताएं अर्जित की थीं। लेकिन इधर जो हो रहा है वह तो भौंचक कर देने वाला है। यह सच है कि कोई भी व्यापार अनुकूल सरकारी नीतियों व सरकारी संरक्षण के बिना आगे नहीं बढ़ सकता: जापान, ताइवान, दक्षिण कोरिया, इंडोनेशिया, फिलीपिंस, थाइलैण्ड, सिंगापुर आदि में तो सरकार और व्यापार का यह गठजोड़ अद्भुत तरीके से चलता है। अगर वहां ऐसा होता है तो भारत में ही उस पर क्यों एतराज हो! किंतु इन देशों व भारत में एक फर्क है। वहां जब भी अनुचित तरीके से राजनैतिक संरक्षण मिलने की बात उजागर होती है, उस पर तुरंत कार्रवाई हो जाती है। इन देशों में मंत्रियों को ही नहीं, राष्ट्रपति और प्रधानमंत्रियों को भी इस्तीफे देने पड़े और ऐसे उद्योगपतियों को कठोर कारावास की सजा सुनाई गई। हमारे देश की स्थिति इसके विपरीत है। यहां बड़े से बड़ा कांड हो जाए, कानून अपना काम करेगा- इतनी दुहाई देने मात्र से राहत मिल जाती है। 

इस पुस्तक को साक्षी मानें तो देश में ऐसे  उद्योगपति हैं जिनके पास कोई प्रदेश तो क्या, केन्द्रीय सरकार बदल देने की शक्ति निहित है। कांग्रेस व भाजपा- इन दोनों बड़ी पार्टियों में कुछ गिने-चुने लोगों को छोड़ दिया जाए तो एक भी ऐसा नेता नहीं है जो इन शक्तिशाली थैलीशाहों के इंगित पर काम न करता हो। लेखक ने जो संकेत दिए हैं, उनसे अनुमान होता है कि वी.पी. सिंह से वित्त मंत्रालय छीनने से लेकर शंकर सिंह वाघेला को मुख्यमंत्री बनाने तक जैसे अनेक प्रकरणों में अंबानी समूह की भूमिका परदे के पीछे रही। अगर लेखक की बात पर विश्वास किया जाए तो धीरूभाई अंबानी ने एक समय तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को सीधे फोन करके कहा कि यदि वाघेला को उपमुख्यमंत्री बना दिया जाए तो गुजरात का संकट खत्म हो जाएगा।

राजनीति और व्यापार के इस गठजोड़ में स्वाभाविक है कि सरकारी एजेंसियां जैसे सीबीआई, इन्कमटैक्स, सेन्ट्रल एक्साइज, प्रवर्तन निदेशालय, सार्वजनिक व निजी बैंक सबके सब शतरंज की बिसात पर बिछे मोहरों के सिवाय कुछ न हों। ऐसा लगता है कि अधिकारियों के अपने विवेक से निर्णय लेने का अधिकार पूरी तरह छीन लिया गया है। वे या तो स्वयं भ्रष्ट हो गए हैं या फिर बेबस। अगर चंद  अधिकारी कर्तव्यनिष्ठ हैं भी तो उनके भाग्य में सिर्फ प्रताड़नाएं ही आती हैं। इसका एक और भयावह पक्ष यह है कि उद्योगपति अपनी व्यवसायिक प्रगति के लिए खूंख्वार अपराधियों की सेवाएं लेने से भी परहेज नहीं करते, फिर वह भले दाऊद इब्राहिम ही क्यों न हो। इन सबको प्रकाश में लाने का काम जो संस्था कर सकती है, याने मीडिया उसकी स्थिति भी बेहतर नहीं है। उन्हें भी या तो खरीद लिया जाता है या फिर खत्म कर दिया जाता है। देश का दुर्भाग्य कि ऐसी आर्थिक समृध्दि पर हम निछावर हुए जा रहे हैं।


11 नवम्बर 2010 को प्रकाशित 

भ्रष्टाचार-16


अनशन से क्या मिला?    


मंच पर अन्ना की टीम थी, मंच के सामने टीवी कैमरे थे, मंच के पीछे भाजपा थी, भाजपा के पीछे संघ था, और इन सबके बीच में अन्ना विराजे थे:
जनसमूह से मुखातिब, जिसमें मुख्यत: श्रीश्री के साधक थे, गायत्री परिवार के उपासक थे, विहिप के वीर थे और थे लोकपाल को भ्रष्टाचार मिटाने का अमोघ यंत्र मान बैठे मध्यमवर्गीय नागरिक।

रामलीला मैदान में न संतोष हेगड़े ज्यादा दिखे और न शांतिभूषण। श्री भूषण को बोलते हुए भी एक बार ही सुना, जब उन्होंने कहा कि चार दिन में कानून बन सकता है। प्रशांत भूषण, किरण बेदी, अरविंद केजरीवाल, अखिल गोगोई, स्वामी अग्निवेश तो थे ही, मेधा पाटकर ने भी खामोशी से प्रवेश किया और आखिर-आखिर में आकर उन्होंने बाकी सबको किसी हद तक पीछे छोड़ दिया। एक मनीष सिसोदिया भी थे जो तिहाड़ यात्रा तक काफी सक्रिय दिख रहे थे, इधर वे शायद दूसरे इंतजामों में ज्यादा व्यस्त थे। बाबा रामदेव भी कुछ समय के लिए आए, अलबत्ता श्रीश्री रविशंकर सक्रिय और मुखर भूमिका निभाते हुए दो-एक दिन नार आए। आखिरी दिन तो आमिर खान भी मंच पर अन्ना के बाजू में विराजमान हो गए थे। उन्होंने दो जबर्दस्त काम किए। एक तो उपवास पर बैठे अन्ना के सामने टीवी कैमरों से रूबरू होते हुए उन्होंने अपना रोजा तोड़ा। दूसरे उन्होंने जनता को बताया कि सांसदों के निवास घेरने का आइडिया उन्होंने ही अरविंद केजरीवाल को दिया था।

मंच पर और भी बहुत से लोग आते-जाते रहे जैसे वेदप्रताप वैदिक, देविंदर शर्मा, भय्यूजी महाराज आदि। इनमें से एक महाअभिनेता ओमपुरी ने तो गजब ढा दिया। कल तक हम उन्हें वामपंथी कलाकार समझते थे। अब पता चला कि वे भारत के अभिजात समाज का हिस्सा बन चुके हैं। उन्होंने संसद सदस्यों को गंवार और न जाने क्या-क्या कहा। संभव है कि यह उस मंच का ही असर रहा हो क्योंकि पहले दिन से ही वहां से संसद और संसदीय जनतंत्र की वैधानिकता को चुनौती दी जा रही थी। अन्ना हजारे उपवास पर थे, स्वाभाविक है कि उनका ज्यादा समय लेटे-लेटे बीत रहा था, लेकिन उन्हें बीच-बीच में जोश आता था और वे खड़े होकर नारे लगाने लगते थे। उन्होंने व्यवस्था बदल डालने का आह्वान किया, दूसरी आजादी लाने का आह्वान किया, काले अंग्रेजों से लडने का आह्वान किया और गद्दारों से भी लडने का आह्वान किया। वे शायद मानकर चल रहे थे कि जो उनके साथ नहीं है वह गद्दार है। दलितों ने उनके आंदोलन का मुखर विरोध किया; अन्ना की निगाह में पता नहीं, वे क्या हैं? कुछ साल पहले जार्ज डब्ल्यू बुश को हमने ऐसी ही भाषा बोलते सुना था। अन्ना की मांगें भी लगातार बदल रही थीं। अपनी तीन प्रमुख मांगों यानी प्रधानमंत्री को, सांसदों को, और न्यायपालिका को शामिल करने की बात वे या तो भूल गए या जानबूझकर छोड ग़ए। उनकी जगह नागरिक घोषणापत्र, लोकायुक्त नियुक्त करने और छोटे कर्मचारियों को शामिल करने की मांगें कुछ ज्यादा जोर के साथ उठाई गयी 

जब उपवास पर बैठे वृध्द, लेकिन बारंबार अपने जवान होने का बखान करते, अन्ना इतने जोश में थे तो टीम के भरेपेट युवा सदस्यों को तो जोश आना ही आना था।  प्रशांत भूषण, किरण बेदी और अरविंद केजरीवाल तीनों ने बार-बार वही बातें कहीं जो अन्ना भी कह रहे थे। इन सबने मिलकर ऐसा माहौल बनाने की कोशिश की मानो स्वतंत्र भारत के इतिहास में यह सबसे खराब समय है और यूपीए सरकार को गिराए बिना देश को मुक्ति नहीं मिलेगी। इन सबमें किरण बेदी की भूमिका देखने लायक थी। उन्होंने ''अन्ना ही भारत हैं, भारत ही अन्ना है'' का कालजयी उद्धोष किया। वे उस बच्चे की तरह खुश नजर आ रही थीं जिसे मनपसंद खिलौना मिल गया हो। वे मंच पर लगातार झंडा फहराते यूं नजर आती थीं मानों एवरेस्ट फतह कर लिया हो। वे फिर कभी गाने लगती थीं, कभी नाचने लगती थीं, कभी कदमताल देने लगती थीं, और कभी आखिरी दिन तो उन्होंने अपनी अभिनय क्षमता से सबको प्रभावित किया ही। अनुपम खेर, आमिर खान, ओमपुरी को अब उन्हें फिल्म जगत में ले ही जाना चाहिए।

देश के पूंजी-प्रसूत मीडिया, पश्चिम- प्रायोजित सिविल सोसायटी और सत्ता-व्यग्र भाजपा तीनों ने मिलकर इस अभियान में खूब रंग भरे। ये सब टीम अन्ना के इस तरह से अनुषंग बन गए थे कि एक से दूसरे को अलग करना कठिन हो रहा था। भ्रष्टाचार से मुक्ति के लिए बेचैन आम आदमी के पास तो इनके इरादे को समझने का वक्त ही नहीं था। इन सबने मिलकर कोशिश की कि दिल्ली का रामलीला मैदान काहिरा के तहरीर मैदान में बदल जाए। इन्हें शायद लग रहा था कि जेपी की संपूर्ण क्रांति का प्रयोग सफलतापूर्वक दोहराने का वक्त फिर आ पहुंचा है। अफसोस कि इनकी इच्छाएं पूरी नहीं हो पाइं।

पिछले पन्द्रह दिनों में जो कुछ भी हुआ, उसकी बहुत बड़ी जिम्मेदारी प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की भी है। यह साफ नजर आया कि कांग्रेस पार्टी के संगठन पक्ष और सत्तापक्ष के बीच में एक खाई बन चुकी है। प्रधानमंत्री ने इस स्थिति का सामना करने के लिए प्रारंभ में जिन्हें अपना सिपहसलार बनाया था, वे सब के सब नाकारा साबित हुए। यह बात स्पष्ट हुई कि कोर्टरूम की बहसें जनता की अदालत में काम नहीं आतीं। इसके साथ यह भी स्पष्ट हुआ कि सफल राजनीतिक नेतृत्व के लिए आम जनता से जीवंत संपर्क, ऊबड़-खाबड़ रास्तों पर चलने का अभ्यास, आंधी-तूफान झेलने का साहस और सहजबुध्दि, इन सबकी जरूरत होती है। बाकी सारी बुध्दिमानी ऐसे मौकों पर धरी रह जाती है। पिछले अप्रैल में सोनिया गांधी की अपील पर अन्ना ने अनशन तोड़ा था, इस बार भी राहुल गांधी देश लौटे और  सरकार के सोचने की दिशा बदल गई।  प्रणव मुखर्जी, ए.के. एंटोनी, विलासराव देशमुख हिरावल दस्ते में आ गए। लोगों ने सवाल पूछा कि राहुल सामने क्यों नहीं आते। मेरे विचार में इसलिए कि वे न मंत्री बनना चाहते हैं और न प्रधानमंत्री।

आज अहम् सवाल है कि अन्ना हजारे को सामने खड़ा कर जो आन्दोलन चलाया गया, उसका नतीजा क्या निकला। स्वयं अन्ना ने कहा कि यह आधी जीत है, और वे अपना अनशन सिर्फ स्थगित भर कर रहे हैं। वे अगर संसद की सामूहिक अपील के बाद ऐसा कर लेते तो उनके लिए ज्यादा गरिमापूर्ण होता। इतना स्वयंसिध्द है कि वे सरकार को झुका पाने में समर्थ नहीं हुए। बात वहीं की वहीं है। सारे मुद्दे और मांगें संसद की स्थायी समिति के पास जाएंगी, उसके बाद ही बिल का अंतिम प्रारूप बनेगा और फिर उस पर संसद में बहस होगी।  इस तरह सरकार ने अपने अधिकार की भी रक्षा की और संसद ने भी अपने अधिकारों का हनन नहीं होने दिया। इस बात पर गौर करना चाहिए कि सरकार ने अपनी प्रारंभिक गलतियों को समय रहते सुधार लिया और 1975  की स्थिति दुबारा नहीं बनने दी।  ऐसी राजनीतिक परिपक्वता से ही संसदीय जनतंत्र मजबूत हो सकता है।


1 सितम्बर 2011 को प्रकाशित 

Monday 23 April 2012

भ्रष्टाचार-15


मैं भी अन्ना, तू भी अन्ना              


अन्ना हजारे के अनशन को लेकर जो वातावरण बना, उसमें दो दिलचस्प बातें दिखीं। एक तो देश में गांधी टोपी जैसे वापिस लौट आई, दूसरे एक नया नारा उछल गया- ''मैं भी अन्ना, तू भी अन्ना।''
 यह नारा अन्ना के साथ एकजुटता व्यक्त करने के लिए गढ़ा गया है। मैं अन्ना के आन्दोलन का समर्थन नहीं करता, लेकिन इस नारे को सुनने के बाद मैंने सोचना शुरू किया कि यदि मैं अन्ना होता तो क्या करता! पहली बात तो मन में यही आई कि यदि आप किसी आन्दोलन का समर्थन कर रहे हैं तो उसके लिए सिर्फ नारे लगाना या फिर एसएमएस, फेसबुक, टि्वटर पर संदेश भेजना पर्याप्त नहीं है। कैसा भी आन्दोलन हो वह कुछ न कुछ त्याग तो मांगता ही है। इस नाते यदि मैं अपने आपको अन्ना कहने का हकदार समझता तो सिर्फ नारे नहीं लगाता बल्कि कुछ आगे बढ़कर सक्रिय होता।

मैं अगर अन्ना होता तो मेरी सक्रियता कब-कब और कहां-कहां होती, इस पर आत्ममंथन करते हुए बहुत से बिन्दु उभरकर सामने आए जिन्हें मैं पाठकों के सामने रख रहा हूं-

1.  यदि मैं अन्ना होता तो 2002 में गुजरात जाकर अनशन करता और नरेन्द्र मोदी से मांग करता कि अटल बिहारी वाजपेयी की सलाह पर राजधर्म का पालन कर वे मुख्यमंत्री की गद्दी छोड़ दें।

2.  मैं 2003 में बंगलुरू जाकर अनशन करता कि देवेगौड़ा पिता-पुत्र ने भारतीय जनता पार्टी के साथ जो अपवित्र गठबंधन किया है वह मुझे स्वीकार नहीं है, कि कुमार स्वामी गलत रास्ते से मुख्यमंत्री बने हैं और भाजपा में उनका साथ देकर गलती की है। मैं उसी समय कर्नाटक में मध्यावधि चुनाव करने की मांग करता।

3.  मैं 2004 में दिल्ली में अनशन करता कि देश को मनोनीत नहीं, बल्कि निर्वाचित प्रधानमंत्री चाहिए और मैं डॉ. मनमोहन सिंह से छह माह के भीतर लोकसभा चुनाव लड़ने की मांग करता।

4.  मैं लाभ का पद वाले मामले में सोमनाथ चटर्जी से मांग करता कि वे भी सोनिया गांधी का अनुसरण करें और फिर से चुनाव लड़ने का साहस दिखाएं। मैं अनशन कर उनसे लोकसभा का अध्यक्ष पद छोड़ने के लिए कहता।

5.  मैं शरद पवार के घर के सामने अनशन करता कि या तो वे कृषि मंत्री का पद छोड़ें या  क्रिकेट बोर्ड की अध्यक्षता।

6.  इसी तरह अन्य राजनेताओं का भी खेलसंघों पर नियंत्रण समाप्त करने का आह्वान करता।

7.  मैं अनशन करता कि लाभ के पद की परिभाषा यथावत रखी जाए और राजनेताओं को दोहरा लाभ लेने से रोका जाए।

8.  मैं इस बात पर अनशन करता कि राज्यसभा में राज्य के लोगों को ही चुना जाए और प्रभावशाली लोगों को चोर दरवाजे से राज्यसभा में लाने का विधेयक पारित न किया जाए।

9.  मैं पश्चिम बंगाल के सिंगूर और नंदीग्राम में अनशन करता तथा बुध्ददेव भट्टाचार्य की सरकार से कहता कि वे जनता का दर्द समझें।

10.  मैं छत्तीसगढ़ आता और बस्तर जाकर अनशन करता कि सरकार और नक्सली दोनों को सद्बुध्दि आए कि बस्तर में हिंसा का तांडव रुके।

11.  मैं दिल्ली में भाजपा मुख्यालय के सामने अनशन करता और नितिन गडकरी से अपील करता कि झारखण्ड में भ्रष्ट राजनेताओं के साथ मिलकर सरकार न बनाएं।

12.  मैं न्यायमूर्ति संतोष हेगड़े का इस बात पर विरोध करता कि अडवानी जी के कहने से उन्हें अपना इस्तीफा वापिस नहीं लेना चाहिए था।

13.  मैं बंगलुरू में फिर से अनशन पर बैठता कि येदियुरप्पा तुरंत गद्दी छोड़ें और पार्टी हाईकमान के आदेश की प्रतीक्षा न करें।

14.  मैं इस बात के लिए अनशन करता कि 2-जी मामले में जिन कम्पनियों के नाम आए हैं, याने नेताओं और अफसरों को जिन्होंने रिश्वत दी है, उनको भी ए.राजा और कनीमोझी के साथ जेल भेजा जाए।

15.  मैं मुंबई में मुकेश अंबानी के गगनचुंबी महल के सामने अनशन पर बैठता कि इस देश में ऐसा ऐश्वर्य और आडंबर बर्दाश्त नहीं किया जाएगा।

16.  मैं यह संकल्प करता कि नीरा राडिया के टेप में जिन पत्रकारों के नाम आए हैं, उनके साथ कोई बात नहीं करूंगा तथा उनके चैनल व अखबार के लिए साक्षात्कार नहीं दूंगा, बल्कि उनका सार्वजनिक बहिष्कार करूंगा।

17.  मैं भले ही एक दिन के लिए लेकिन मणिपुर अवश्य जाता और इरोम शर्मिला के समर्थन में अनशन करता। 

18.  मैं केन्द्र सरकार पर दबाव डालने के लिए अनशन करता कि सशस्त्र बल विशेष अधिकार कानून (आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल पॉवर एक्ट) पर व्यापक विचार विमर्श हो और इसका दुरुपयोग रोकने के उपाय किए जाएं।

19.  मैं देश के हर उस स्थान पर जाता जहां सवर्णों ने दलितों पर अत्याचार किए हैं और उनका तिरस्कार किया है, और अत्याचार करने वालों को सद्बुध्दि मिले, इसके लिए प्रार्थना करता।

20.  मैं अनशन करता कि तमिलनाडु में सवर्णों द्वारा दलित बस्ती के सामने बनाई गई दीवाल तोड़ी जाए।

21.  मैं सुप्रीम कोर्ट के सामने जाकर अनशन पर बैठता कि तमाम बड़े-बड़े जज जिन पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप हैं, अपना पद छोड़ें। मैं उनसे जस्टिस कृष्णा अय्यर की आवाज सुनने का आग्रह करता।

22.  मैं 2008 में यूपीए सरकार के खिलाफ अनशन पर बैठता कि वह अमेरिकी दबाव में आणविक ऊर्जा कानून बनाने से बाज आए।

23.  मैं मेडिकल कौंसिल ऑफ इंडिया के दफ्तर के सामने अनशन पर बैठता कि वहां रिश्वत का खेल बंद हो तथा देश में बड़ी संख्या में सरकारी मेडिकल कॉलेज स्थापित होने का रास्ता खुले ताकि आम जनता को सस्ती चिकित्सा सुलभ हो सके।

24.  मैं इस बात के लिए भी अनशन करता कि शिक्षा का अधिकार कानून प्रभावी तरीके से लागू किया जाए और हर बच्चे को बिना भेदभाव के समान शिक्षा मिले। मैं महंगी फीस वाले निजी स्कूलों के खिलाफ धरना देता।

25.  मैं अन्ना हूं, आज लोग मेरी बात सुन रहे हैं इसलिए इस बुनियाद पर मैं अपने सारे समर्थकों का आह्वान करता कि सांसदों के निवास पर सांकेतिक प्रदर्शन करने के बजाय वे अपने-अपने घर जाएं और अपने इलाके के भ्रष्ट पार्षद, भ्रष्ट अफसर, भ्रष्ट विधानसभा सदस्य और भ्रष्ट संसद सदस्य सबके खिलाफ अभियान छेड़ें और जनता उनकी जवाबदेही सुनिश्चित करें।

मैं चूंकि मैं हूं और अन्ना अन्ना हैं, इसलिए जाहिर है कि अन्ना ने इन सब मुद्दों पर सोचने की शायद कभी जरूरत नहीं समझी। इसलिए अब मैं अपनी बात कहता हूं कि भारत एक जनतांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष समाजवादी देश है,  जिसकी बुनियाद जवाहरलाल नेहरू ने डाली और जिसमें लालबहादुर शास्त्री ने  नैतिकता के ऊंचे मूल्य स्थापित किए। यह शास्त्री जी ही थे जिनके कहने पर करोड़ों लोगों ने हफ्ते में एक समय का उपवास रखना शुरु किया; इतना ही नहीं, देश ने राजनीतिक और गैर राजनीतिक दोनों स्तर पर बहुत कुछ हासिल किया, गो कि बहुत कुछ करना बाकी है, लेकिन इसके लिए हठधर्मिता की नहीं, संवादधर्मिता की जरूरत है। अन्ना के द्वाररक्षकों की नजर बचाकर मेरा लेख उन तक पहुंच जाए, फिलहाल मैं इतनी ही उम्मीद करता हूं।


25 अगस्त 2011 को प्रकाशित 

भ्रष्टाचार-14


अनशन से फायदा किसे   


आम जनता को लग रहा है कि अन्ना हजारे द्वारा प्रस्तावित जनलोकपाल कानून बन जाने से देश को भ्रष्टाचार से मुक्ति मिल जाएगी।
जनता भ्रष्टाचार से त्रस्त है और अन्ना हजारे के अभियान में आशा की किरण देखकर कम से कम मध्यम वर्ग तो उनके साथ जुड़ ही गया है, लेकिन यह बात जनता को समझ लेना चाहिए कि अन्ना के पास जादू की छड़ी नहीं है। यदि कल को संसद अन्ना के मसौदे पर विचार करने का मन बना ले तब भी उसे कानून की शक्ल मिल पाएगी, इसमें शक है। आज विरोधी दल तात्कालिक हित के लिए भले ही अन्ना का समर्थन कर रहे हों; यह तय है कि जनलोकपाल का मसौदा किसी को भी स्वीकार नहीं है।

बुधवार को लोकसभा में जितनी चर्चा हुई उसमें हर राजनीतिक दल ने यह कहा कि वे अन्ना हजारे द्वारा प्रस्तावित सुझावों से पूरी तरह सहमत नहीं हैं। सुषमा स्वराज, शरद पवार, गुरुदास दासगुप्ता इत्यादि ने अन्ना को अनशन न करने देने और उनकी गिरफ्तारी पर सरकार की खूब खिंचाई की, लेकिन इनमें से कोई भी यह कहने से नहीं चूका कि वे अन्ना के प्रस्तावों का पूरा समर्थन नहीं करते। सुषमा स्वराज ने तो एक कदम आगे बढ़कर यहां तक कहा कि अन्ना ने प्रधानमंत्री को 14 अगस्त को जो पत्र लिखा, उसकी कुछ बातें गलत थीं। इस वास्तविकता को जानने के बाद सवाल उठता है कि जनता का एक वर्ग फिर क्यों आंख मूंदकर अन्ना और उनके साथियों की बात पर भरोसा कर रहा है। इसी के साथ एक और सवाल उठता है कि अन्ना का यह आभामंडल कैसे बना।

आज याने गुरुवार की दोपहर इंडिया टुडे समूह के चैनल हेडलाइन्स टुडे में जो परिचर्चा आई, उसमें इस दूसरे सवाल का जवाब मिलता है। बहस का शीर्षक था ''क्या अन्ना को मीडिया ने स्थापित किया है?'' इस बहस में जो चार जाने-माने लोग भाग ले रहे थे, उसमें सबने यह स्वीकार किया कि भ्रष्टाचार एक बड़ा मुद्दा है, लेकिन उसके बहाने अन्ना को हीरो बनाने में मीडिया की अहम् भूमिका रही है। इनमें से एक वार्ताकार दिलीप चेरियन ने तो यहां तक कहा कि आज के दौर में मीडिया के माध्यम से ही कोई आन्दोलन हो सकता है। इस बहस में यह बात स्थापित हुई कि यदि मीडिया खासकर टीवी ने इतना बढ़-चढक़र कवरेज न किया होता तो आन्दोलन को जो विस्तार मिला, वह नहीं मिल सकता था।

आजकल के जो संचार माध्यम हैं उनकी उपयोगिता से कौन इंकार करेगा, लेकिन इसी रविवार को द हिन्दू में सेवंती नाइनन ने एक गंभीर प्रश्न उठाया है कि जो नया सामाजिक मीडिया आया है, क्या वह हमेशा समाज हितैषी ही होगा या उसकी कोई नुकसानदायक भूमिका भी हो सकती है! उन्होंने इंग्लैण्ड के हाल के उपद्रवों का उदाहरण देकर बताया है कि कैसे फेसबुक, टि्वटर आदि का दुरुपयोग किया गया। इसी बात को भारत के संदर्भ में रखकर देखें। ये माध्यम बच्चों के खिलौने नहीं हैं, इनका शौक रखना एक बात है, लेकिन इनके अच्छे और बुरे प्रभावों के बारे में विचार करना भी आवश्यक है।

यह समझा जाता है कि अरब जगत में खासकर टयूनीशिया और इजिप्त में सत्ता परिवर्तन में इन माध्यमों ने अहम् भूमिका अदा की। ऐसा लगता है कि भारत का मीडिया उस समय से ही उतावला था कि यहां भी वैसा कुछ कर दिया जाए। मैं एक बार फिर मार्शल मैकलुहान की उक्ति याद करता हूं कि ''माध्यम ही संदेश है'' (मीडिया इंज द मैसेज)। जैसा कि सब जानते हैं मीडिया अब पत्रकारों के हाथ में नहीं, बल्कि कार्पोरेट घरानों के हाथ में है। विश्व की अर्थव्यवस्था और राजनीति पर नियंत्रण करने के लिए इन महापूंजीपतियों के पास मीडिया के रूप में एक सशक्त अस्त्र आ गया है। अन्ना को महानायक बनाने में इस अस्त्र का इस्तेमाल करना उनकी रणनीति का ही हिस्सा माना जा सकता है, लेकिन यहीं उनकी एक विसंगति पर भी गौर करें। आज सुबह तक मीडिया अनथक अन्ना को कवरेज दे रहा था, लेकिन दोपहर बाद वह कुछ-कुछ ठंडा पड ग़या। क्या इसलिए कि सरकार द्वारा स्थिति संभाल लेने के बाद सनसनी फैलाने के लिए फिलहाल कोई और बिन्दु नहीं था; या इसलिए कि एक अरब बीस करोड़ लोगों को बहुत लंबे समय तक बेवकूफ नहीं बनाया जा सकता, यह बात उसे समझ आ गई थी?

यह तय है कि मीडिया आगे भी ऐसे अवसरों की तलाश में रहेगा, जहां वह आमजनता को अपने  बनाए एजेंडे पर ले जा सके। फिलहाल थोड़ा गौर इस पर भी करें कि अन्ना के अनशन से मीडिया के अलावा और किस-किस को लाभ हो सकता है। अगर सरकार पर कोई आंच आती है तो उसका लाभ शायद भाजपा को ही मिलेगा, जैसा कि मैंने कल भी लिखा था। इसके अलावा कांग्रेस में जो असंतुष्ट हैं उनके लिए भी शायद यह एक अनुकूल अवसर हो सकता है। स्मरणीय है कि सरकार की तरफ से पी. चिदम्बरम, कपिल सिब्बल और अंबिका सोनी ही कमान संभाले रहे; ए.के. एंटोनी, वीरप्पा मोइली, सलमान खुर्शीद इत्यादि इस बीच शायद ही कहीं दिखे हों। दूसरे अन्ना के आन्दोलन को साधन उपलब्ध कराने में देश के वाणिज्यिक प्रतिष्ठानों व अप्रवासी भारतीयों का काफी योगदान रहा। उनके क्या मंसूबे हैं, इसे समझना पड़ेगा। तीसरे बहुत से जनआन्दोलनों और स्वैच्छिक संगठनों को भी सरकार को छकाने के लिए यह एक अच्छा अवसर प्रतीत हुआ। ध्यान रहे कि उनके बीच भी नीतिगत और राजनीतिगत बहुत से विभेद हैं। कुल मिलाकर अन्ना को समर्थन देने के पीछे सबने अपना-अपना लाभ देखा, लेकिन अंत में जिन्हें ठगे जाना है वह आम जनता ही है।


19 अगस्त 2011 को प्रकाशित 

भ्रष्टाचार-13


लोकपाल की आड़ में        


लोकपाल विधेयक पर चर्चा चलते हुए तीन माह पूरे हो गए। इतने समय में जनता को शायद यह समझ आ गया होगा कि लोकपाल बनने या न बनने से उसका कोई भला होने वाला नहीं है।
यह सारा व्यायाम, उन दूसरे प्रश्नों से जो कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण हो सकते थे, उसका ध्यान हटाने के लिए किया जा रहा है। पिछली जुलाई से अब तक के घटनाचक्र पर एक सरसरी निगाह डालें तो एक के बाद एक जुडी कड़ियां सामने आने लगती हैं। सबसे पहले राष्ट्रमण्डल खेलों का घोटाला सामने आया, उसे खूब उछाला गया।  एक तरफ सुरेश कलमाड़ी और उनके कुछ सहयोगी जेल भेजे गए तो दूसरी तरफ देश की सर्वोच्च संस्था यानी संसद की व्यवस्था कैसे पंगु बनाई जा सकती है, यह भी समझ में आया। पहले तो लोकलेखा समिति और संयुक्त संसदीय समिति का विवाद चलते रहा, फिर लोकलेखा समिति में ही मतभेद अभूतपूर्व ढंग से सामने आए। समिति के अध्यक्ष मुरली मनोहर जोशी की रिपोर्ट को लोकसभा अध्यक्ष ने ही खारिज कर दिया। अब जेपीसी रिपोर्ट की प्रतीक्षा है।

राष्ट्रमण्डल खेलों का प्रकरण अभी चल ही रहा है। रोज नए-नए घोटाले सामने आ रहे हैं, लेकिन कलमाड़ी प्रसंग के तुरंत बाद राजा प्रसंग प्रारंभ हो गया।  2 जी स्पेक्ट्रम को लेकर ए.राजा और कनिमोझी अपने कुछ कथित सहयोगियों के साथ जेल में हैं। उधर न्यायामूर्ति शिवराज पाटिल की अध्यक्षता में एक जांच कमेटी बना दी गई तो उधर सीएजी का काम बदस्तूर चल ही रहा है। इस बीच यह खबर भी आई कि सीबीआई ने टाटा और अंबानी को इस प्रकरण में दोषमुक्त कर दिया है।  यह भी कहा गया कि नीरा राडिया भी दोषमुक्त हो गई हैं। एक छोटा सा विवाद इस बात पर भी उठा कि नीरा राडिया सीबीआई के निदेशक से मिलने क्यों पहुंचीं और निदेशक ने एक संदिग्ध व्यक्ति को मिलने का मौका क्यों दिया?

इसके बाद विकिलीक्स के खुलासे एक के बाद एक करके अखबारों में छपने लग गए। जितना कुछ भी छपा, कुल मिलाकर प्याली में तूफान ही साबित हुआ। कुछ समय के लिए हम लोग चटखारे लेकर इन खुलासों को पढ़ते रहे, लेकिन इस बिन्दु पर शायद ही किसी ने ध्यान दिया हो कि ऐसे दस्तावेज सार्वजनिक हो जाने का अन्तर्राष्ट्रीय राजनैतिक संबंधों पर क्या असर पड़ सकता है। इसके साथ ही यह भी ध्यान नहीं दिया गया कि इन दस्तावेजों में ऐसा क्या था जो लोकमहत्व का था। यह स्पष्ट है कि विकिलीक्स की तुलना किसी भी तरह वॉटरगेट के टैंकों से नहीं की जा सकती, फिर इन्हें उछालने से किसका कौन सा मतलब सध रहा था? यह सब चल ही रहा है कि च्युइंगम प्रकरण सामने आ गया है। प्रणव मुखर्जी ने लगभग एक वर्ष पूर्व प्रधानमंत्री को गोपनीय पत्र लिखकर अपने दफ्तर में जासूसी होने की आशंका जताई थी। यह जानकारी इतने महीनों बाद एकाएक कैसे सार्वजनिक हो गई? फिर प्रत्यक्षकर बोर्ड और आईबी दोनों की जांच रिपोर्ट के निष्कर्ष अलग-अलग क्यों हैं?

एक तरफ ऐसे प्रकरण सामने आ रहे हैं तो दूसरी तरफ लोकपाल को लेकर बहस चल रही है। ऐसा लगता है कि अब हम लोगों के पास कोई दूसरा काम बचा ही नहीं है। एक समय मुहावरा चलता था- ''चंडूखाने की गप्प'' याने अफीम की पिनक में बेसिर पैर की बातें होना। इसे अपदस्थ किया कॉफी हाउस ने। कहा जाने लगा कि कॉफी हाउस में एक कप कॉफी पर घंटों बैठकर धुएं के छल्ले उड़ाते हुए लोग इस अंदाज में चर्चा करते हैं मानो दुनिया की हर समस्या का समाधान उनके पास है। फिर इसका स्थान ले लिया ए.सी. कमरों में बैठकर बहसें करने के मुहावरे ने। याने समय के साथ-साथ स्थान और परिस्थिति बदलती गई।  आज फेसबुक, टि्वटर और एसएमएस चल रहे हैं जिनका जिक्र मैंने पिछले लेख में किया है। सवाल यह है कि कौन लोग हैं जिनके पास ऐसी अंतहीन बहसें करने के लिए समय ही समय है। अगर सर्वेक्षण किया जाए तो पता चलेगा कि या तो ये अवकाशप्राप्त बुजुर्ग हैं जिनके सामने समय काटने के साथ-साथ अपने वजूद बनाए रखने की समस्या है, या फिर लोकतंत्र को कुलीनतंत्र से प्रतिस्थापित करने के लिए बेचैन युवजन हैं।

यह समूचा परिदृश्य चिंता उपजाता है। मुझे लगता है कि देश की युवा पीढ़ी को एक चक्रव्यूह की ओर ढकेला जा रहा है। अभी पिछले सप्ताह की ही बात है- कुछ अखबारों में यह चिंता जाहिर की गई कि भारत में मद्यपान करने के लिए न्यूतनम आयु विश्व में सबसे अधिक है। इस सिलसिले में छपी खबरों में कहा गया कि अनेक देशों में मद्यपान के लिए न्यूनतम वैधानिक आयु अठारह वर्ष है। जाहिर बात है कि एक लॉबी है जो भारत के नवजवानों को कम से कम आयु में मदिरापान करने के लिए प्रेरित करना चाहती है। बाज़ार के द्वारा किए जा रहे इस प्रच्छन्न आक्रमण की सुध न तो बाबा रामदेव को है, जो कोला पेय का विरोध करते हैं, न अन्ना हजारे को जिन्होंने अपने गांव में शराबबंदी आन्दोलन चलाकर ही प्रथमत: ख्याति पाई थी। इस विडंबना पर गौर करना चाहिए कि एक ओर जहां यह हाल है, वहीं दूसरी ओर कितने ही राज्यों में कॉलेजों में प्रत्यक्ष रूप से छात्रसंघ चुनाव नहीं हो सकते। मेरा राज्य छत्तीसगढ़ भी इनमें से एक हैं। जब भारत का संविधान अठारह वर्ष के युवा के लिए मतदान का प्रावधान कर देश की राजनीति में प्रत्यक्ष का प्रावधान देता है, तब उसी युवा को छात्रसंघ चुनाव में भाग लेने से रोकने में कौन सी बुध्दिमानी है?

इस बीच हमने यह भी देखा कि छत्तीसगढ़ में पूर्व मेडिकल परीक्षा पर्चे फूट जाने के कारण दूसरी बार स्थगित की गई। अफवाह है कि इस चोर दरवाजे से मेडिकल कॉलेज में प्रवेश के लिए बारह लाख रुपए प्रति छात्र वसूले गए। वे अभिभावक कौन हैं जो अपने बच्चों का भविष्य संवारने के लिए इतनी बड़ी रकम खर्च कर सकते हैं? इस कारगुजारी में क्या सरकारी मंत्री और राजेनता दोनों शामिल नहीं हैं? इनके लिए आप कौन से लोकपाल की व्यवस्था करेंगे?

अभी 3 जुलाई को प्रधानमंत्री सारे राजनीतिक दलों के साथ लोकपाल विधेयक पर चर्चा करेंगे। उधर अन्ना हजारे ने पहले से धमकी दे दी है कि उनकी मर्जी के अनुसार लोकपाल कानून नहीं बना तो वे 16 अगस्त से आमरण अनशन पर बैठ जाएंगे। ये सब मिलकर जो चाहे सो करें, लेकिन जरूरत इस बात की है कि जनता इनके झांसे में न आए। जनता के सामने महंगाई की विकराल समस्या है। छठे वेतन आयोग के चलते कीमतें बढ़ी हैं जिसका दुष्प्रभाव मुख्य रूप से असंगठित क्षेत्र के कामगारों पर ही पड़ रहा है। बेरोजगारी, फिर जमीन से बेदखली, शिक्षा में गुणवत्ता का अभाव, प्राथमिक चिकित्सा सेवा न होना- ये सारे प्रश्न लगातार चुनौती दे रहे हैं।  इन सबसे जूझने के लिए नौजवानों को ही सामने आना होगा। थकी हुई पुरानी पीढ़ी से कोई उम्मीद रखना व्यर्थ है।

30 जून 2011 को प्रकाशित 

भ्रष्टाचार- 12

आन्दोलन से उभरती तस्वीर-२      

आज उन कुछ बिन्दुओं पर बात जिन पर पिछले लेख में स्थानाभाव के कारण चर्चा नहीं हो सकी थी।
वर्तमान में चल रही भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम को लेकर एक बात सामने आई है- नए जनसंचार माध्यम अर्थात् न्यू सोशल मीडिया की। कुछेक अध्येताओं का मानना है कि टयूनीसिया से प्रारंभ होकर संपूर्ण अरब जगत में उठ रही परिवर्तन की लहर के पीछे इस नए माध्यम की महती भूमिका रही है। वे भारतीय राजनीति में भी परिवर्तन लाने में इसकी सक्रिय और निर्णायक भूमिका होने की संभावना व्यक्त करते हैं। उनकी बात को एकाएक नहीं नकारा जा सकता। मेरे पास भी प्रतिदिन ई-मेल और एसएमएस पर दर्जनों संदेश आ रहे हैं जिनमें एक ओर यूपीए सरकार की आलोचना ही नहीं, भर्त्सना तक होती है; वहीं दूसरी ओर अन्ना हजारे व बाबा रामदेव पर अगाध विश्वास प्रकट करते हुए उनकी अंतहीन प्रशंसा होती है। मैं चूंकि फेसबुक व टि्वटर आदि का सदस्य नहीं हूं, इसलिए उनमें चल रही चर्चाओं से मैं अनभिज्ञ हूं, लेकिन उन पर शायद ज्यादा विस्तार से यही चर्चाएं हो रही हैं।

यह मानी हुई बात है कि विज्ञान और प्रौद्योगिकी के जो भी आविष्कार होते हैं उनका उपयोग समाज द्वारा किसी न किसी रूप में किया ही जाता है। ''आवश्यकता आविष्कार की जननी है''- यह कहावत यूं ही नहीं बन गई थी।  प्राचीन समय में भी जनसंचार माध्यमों का उपयोग किया जाता था, जिसे आजकल हम पत्रकारिता की कक्षाओं में पत्रकारिता के इतिहास के अंग के रूप में पढ़ाते हैं। आज तो संचार क्रांति का ही दौर चल रहा है। स्वाभाविक है कि नए-पुराने जो भी माध्यम हों, उनका उपयोग किया ही जाएगा; लेकिन अरब जगत से भारत की तुलना करना तात्कालिक भावुकतापूर्ण प्रतिक्रिया से ज्यादा कुछ नहीं है। भारत की राजनैतिक स्थितियों पर सरसरी निगाह डाल लेने से ही बात स्पष्ट हो जाती है। अरब देशों में तीन-तीन दशकों से सैन्य तानाशाही अथवा निरंकुश राजतंत्र कायम है, जिसके खिलाफ वहां की जनता उठ खड़ी हुई है, क्योंकि उसकी सहनशक्ति जवाब दे चुकी है और सुनवाई का कोई जरिया नहीं है। अरब जगत की चर्चा करते हुए इस तथ्य पर भी गौर करना आवश्यक है कि वहां जनता सड़कों पर निकल आई है और अब उसे सत्ता की बंदूकों का खौफ नहीं है। 

मेरी राय में वहां भी न्यू मीडिया जनान्दोलन में एक पूरक भूमिका ही निभा रहा है न कि उत्प्रेरक की। दूसरी ओर, भारत की स्थिति बिलकुल भिन्न है। यहां न तो निरंकुश सत्ता है और न ही मुखर जनान्दोलन। सच तो यह है कि दिल्ली में बैठकर जो आन्दोलन चलाया जा रहा है उसका असर उत्तर भारत में ही थोड़ा बहुत देखने मिल रहा है, अन्यत्र इन अनशनों और आन्दोलनों के बारे में कोई चर्चा भी नहीं हो रही है। फिर जो व्यक्ति न्यू मीडिया का उपयोग कर रहे हैं, उनकी संख्या बहुत कम है और उनसे किसी जनांदोलन में भाग लेने की उम्मीद बेमानी है। एक समय अखबारों में वक्तव्य छपवाकर नेतागिरी करने वालों को हम लोग ''पेपर टाइगर'' की संज्ञा देते थे; पांच-सात साल पहले मैंने इंटरनेट पर बड़ी-बड़ी बातें करने वालों को ''इंटरनेट वॉरियर'' की संज्ञा दी थी; अभी जो लोग न्यू मीडिया का इस्तेमाल कर रहे हैं, वे अधिकतर दंतविहीन-नखविहीन-आन्दोलनभीरु प्राणी हैं। वे अपनी बनाई हुई दुनिया में मुग्ध हैं: इन्हें वहीं रहने देना चाहिए।

मैं ओल्ड मीडिया याने अखबार और टीवी की भी थोड़ी चर्चा करूं। हम अपने पाठकों और दर्शकों को आन्दोलन की दिन-ब-दिन खबर दें, यह तो बिलकुल ठीक है, लेकिन लोकपाल विधेयक पर अथवा भ्रष्टाचार दूर करने के अन्य उपायों पर हमारी अपनी क्या राय है? पिछले तीन माहों में क्या हमने इस बारे में समाज और सरकार के सामने कोई ठोस सुझाव रखे हैं? क्या हमने अपने पाठकों से इस विषय पर कोई गंभीर चर्चा करने की कोशिश की है?  मैं कवि दुष्यंत कुमार की बात को पलटकर कहूं तो पूछना होगा कि यदि हम सूरत बदलना चाहते हैं तो फिर हंगामा खड़ा करने की क्या जरूरत है? जाहिर है कि देश के पूंजीमुखी मीडिया का असली इरादा कुछ और ही है। पिछले तीन माह से चल रहे आन्दोलन के कारण लोकहित के कितने ही मुद्दे दरकिनार कर दिए गए हैं।  इसे क्रूर विडंबना ही कहा जाएगा कि जब सारे फ्लैशलाइट बाबा रामदेव पर चमक रहे थे, ठीक उसी समय देहरादून के उसी अस्पताल में, खनिज माफिया के खिलाफ अनशन पर बैठे स्वामी निगमानंद आखिरी साँस ले रहे थे और उनकी सुध लेने वाला कोई नहीं था।  पाठक किसी भी दिन का अखबार उठाकर देख लें, स्थानीय स्तर पर भ्रष्टाचार की दर्जनों खबरें रोज छप रहीं हैं। इनके बारे में न कोई एसएमएस करता, न फेसबुक व टि्वटर पर ही इसकी चर्चा होती और न इसके खिलाफ जनांदोलन करने पर विचार होता है। 

भारत में भ्रष्टाचार का जो विकराल रूप जो आज दिखाई दे रहा है, इसके बारे में एक तो यह समझना चाहिए कि पीवी नरसिम्हाराव के प्रधानमंत्रित्वकाल और डॉ. मनमोहन सिंह के वित्तमंत्री रहते जो नई आर्थिक नीतियां लागू की गई थीं, यह उनका ही परिणाम है और दूसरे आज यह भी समझ लेना चाहिए कि यह आर्थिक उदारवाद नहीं बल्कि क्रमिक एकाधिकारवाद है तथा इसमें हरहमेश बड़े-बड़े भ्रष्टाचार की गुंजाइश बनी रहेगी। विश्व की पूंजीवादी ताकतों के लिए वह स्थिति सुविधाजनक होती है, जिसमें सत्तातंत्र को कटघरे में खड़ा किया जा सके क्योंकि उसकी आड़ में वे अपनी दुरभिसंधियां संचालित कर सकते हैं। यह देखना कठिन नहीं है कि एक ओर जहां सत्तारूढ़ गठबंधन के नेताओं पर निशाने साधे जा रहे हैं, वहीं दूसरी ओर उन औद्योगिक घरानों की बात कोई भी आन्दोलनकारी नहीं कर रहा है जो ऐसे भ्रष्टाचार के प्रथम कर्ता हैं।

इस प्रसंग में सिविल सोसायटी की चर्चा करते हुए राष्ट्रीय सलाहकार परिषद याने एनएसी की भूमिका पर भी प्रश्न उठाए जा रहे हैं।  मैं एनएसी के वर्तमान स्वरूप से कतई संतुष्ट नहीं हूं, उसके कारण अलग हैं; लेकिन परिषद ने अभी तक अपनी सीमाओं से परे जाकर अवांछित आचरण का कोई परिचय नहीं दिया है, इसलिए उसकी तुलना अन्ना हजारे की टीम से नहीं की जानी चाहिए। अन्ना व उनके साथियों को लोकपाल समिति को अपना काम पूरा करने तक इंतजार करना था। वे अपनी असहमति और असंतोष को बाद में सार्वजनिक कर सकते थे, ऐसा करने में ही उनके आन्दोलन की मर्यादा थी। दूसरी ओर बाबा रामदेव  रामलीला मैदान छोड़कर भागने के बजाय पुलिस के सामने आत्मसमर्पण कर देते तो उनकी प्रतिष्ठा बढ़ जाती। दुर्भाग्य से इन दोनों ने उन तमाम लोगों को निराश ही किया है जो इनसे भारी उम्मीदें बाँधे हुए थे।


23 जून 2011 को प्रकाशित 

भ्रष्टाचार- 11


आन्दोलन से उभरती तस्वीर    

भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना हजारे और बाबा रामदेव के द्वारा अलग-अलग चलाए गए आंदोलनों से जो तस्वीर बनती है
 उससे भारत के सामाजिक, राजनीतिक जीवन में व्याप्त अंतर्विरोध के बहुत से नए पहलू उद्धाटित होते हैं। सबसे पहले कांग्रेस की ही चर्चा करें। 2004 से अब तक पार्टी और सरकार के बीच एक परिपक्व तालमेल नजर आ रहा था। अभी ऐसा कोई प्रत्यक्ष सबूत नहीं है कि इस तालमेल में सर्वोच्च स्तर पर कोई कमी आई हो, लेकिन मैदानी स्तर पर मिलने वाले संकेत कुछ और ही कहानी कहते हैं। ऐसा लगता है कि अपने दूसरे कार्यकाल में डॉ. मनमोहन सिंह अपने पद के प्रति ज्यादा सजग हैं और अपने विश्वस्त सहयोगियों के माध्यम से वे संगठन से दूरी बनाने का संदेश दे रहे हैं; दूसरी तरफ संगठन भी अपने विश्वस्तों के माध्यम से शासन की नकेल कसने की कोशिश कर रहा है।  दिग्विजय सिंह के वक्तव्य, खासकर प्रधानमंत्री को लोकपाल के दायरे में रखने का सुझाव, इसकी पुष्टि करते हैं। इससे कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण संकेत ए.के. एंटोनी ने यह कहकर दिया है कि शासनतंत्र में पारदर्शिता आज के समय की मांग है। मेरा मानना है कि श्री एंटोनी का वक्तव्य श्रीमती सोनिया गांधी की सहमति के बिना नहीं दिया गया है। (मौका लगा तो वे अगले प्रधानमंत्री हो सकते हैं) इस तरह अब एक तरफ मनमोहन सिंह, मोंटेक सिंह, चिदम्बरम, कपिल सिब्बल व आनंद शर्मा आदि हैं तो दूसरी तरफ सोनिया गांधी, राहुल गांधी, एंटोनी, दिग्विजय सिंह, जयराम रमेश व मणिशंकर अय्यर इत्यादि हैं। इन दोनों के बीच प्रणव मुखर्जी की निगाह संभवत: अगले साल राष्ट्रपति की कुर्सी पर है।
भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम के दौरान भारतीय जनता पार्टी की आंतरिक कमजोरी भी उभरकर सामने आई है। यह दुर्भाग्य की बात है कि भाजपा के सबसे बड़े एवं एकमात्र सर्वमान्य नेता अटलबिहारी वाजपेयी अपनी अशक्तता के कारण दृश्य से ओझल हो चुके हैं। उनके बाद अडवानी जी का ही नंबर आता है। वे पिछले सात साल में जिस तरह बार-बार उतावलापन व्यक्त करते नजर आए उसका खामियाजा बार-बार पार्टी को भुगतना पड़ रहा है। जैसा कि जगजाहिर है भाजपा बहुत बड़ी हद तक राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के निर्देशों से संचालित होती है। लेकिन ऐसा लगता है कि संघ का वर्तमान नेतृत्व उस वैश्विक परिदृश्य  से बिल्कुल अपरिचित है जिसका असर भारत की राजनीति पर भी पड़ता है। बहुत से अध्येताओं को उम्मीद थी कि एक बार केन्द्रीय सत्ता पर काबिज हो जाने के बाद भाजपा में गुणात्मक परिवर्तन आएगा और वह कांग्रेस का राष्ट्रव्यापी विकल्प बनने में समर्थ हो सकेगी, लेकिन यह उम्मीद पूरी नहीं हुई। भाजपा की यह द्विविधा इस दौरान खुलकर सामने आई कि एक ओर उसके व्यापक जनाधार-विहीन शीर्ष नेतृत्व में गहरे मतभेद हैं और दूसरी ओर जनाधार मजबूत करने के लिए उमा भारती जैसे उग्र नेतृत्व मानो अनिवार्य हो गया है।  पार्टी ने बाबा रामदेव को भले ही तन और धन से समर्थन दिया हो, लेकिन उसका मन वहां नहीं था। अधिकतर भाजपाई आपसी बातचीत में यह स्वीकार करते नजर आए कि इन अनशन से कुछ होना-जाना नहीं है।
इन दोनों आंदोलनों ने संवेदी समाज याने सिविल सोसायटी, जिसमें मुख्यत: एनजीओ शामिल हैं, के भविष्य के प्रति भी संशय उत्पन्न कर दिया है। आज यह प्रश्न पूछना लाजिमी है कि संवेदी समाज की भूमिका कहां तक होना चाहिए। लोक महत्व के विषयों पर सिविल सोसायटी सवाल उठाए, यहां तक तो बात बिल्कुल ठीक है। यदा-कदा वह परामर्शदाता का काम करे, वह भी स्वीकार्य है, लेकिन क्या वह संवैधानिक सत्ता का विकल्प हो सकती है!  सिविल सोसायटी को सीमित समय के लिए ही सत्ता में भागीदारी क्यों करना चाहिए!  यह हमारी मांग हो सकती है कि एक कारगर लोकपाल बिल बने; उसके लिए हमारे सुझाव भी हो सकते हैं, लेकिन यह सिविल सोसायटी के लिए किसी भी रूप में उचित नहीं है कि वह संसद की सार्वभौमिकता को चुनौती दे अथवा उसका विकल्प बनने की कोशिश करे। इस प्रसंग में स्वयं अन्ना हजारे और अरविंद केजरीवाल ने जो सार्वजनिक बयान दिए हैं उनसे संवेदी समाज की साख कम हुई है। मुझे शंका होती है कि निर्वाचित जनप्रतिनिधियों पर आरोप लगाकर, चुनाव प्रक्रिया पर ही प्रश्नचिन्ह खड़े करके कहीं राष्ट्रपति प्रणाली के लिए जमीन तो तैयार नहीं की जा रही है! इसी तरह मेरे सुपरिचित, कृषि विशेषज्ञ देविन्दर शर्मा का बाबा रामदेव के साथ सक्रिय व प्रत्यक्ष रूप में जोड़ना मुझे समझ नहीं आया। यदि राजनीति में हमारी दिलचस्पी है तो उसके लिए सीधे-सीधे राजनीति में आना चाहिए, यह मेरा मानना है।
इन आंदोलनों को लेकर भ्रष्टाचार बनाम साम्प्रदायिकता का मुद्दा अब उछाला जा रहा है। जाहिर है कि दोनों बिल्कुल अलग-अलग बुराईयाँ हैं और परस्पर विकल्प नहीं हैं। लेकिन अगर ऐसा हो रहा है तो इसका दोष बाबा रामदेव और अन्ना हजारे दोनों को ही जाता है।  पहले अन्ना हजारे ने अपने अनशन के दौरान नरेन्द्र मोदी की खुलकर प्रशंसा की जिसकी कोई जरूरत नहीं थी। इसके बाद बाबा रामदेव के मंच पर साध्वी ऋतंभरा पहुंच गईं। यदि बाबा की स्वतंत्र राजनीतिक सोच होती तो वे साध्वी को मंच पर आने से रोक देते, किंतु ऐसा नहीं हुआ और इसका कारण यही है कि बाबा संघ के विचारों से अनुप्राणित हैं। उन्होंने चालीस-बयालिस पेज की जो पुस्तिका प्रकाशित की है उसमें वे अखण्ड भारत की कल्पना करते हैं।  इन दोनों आंदोलनों ने मीडिया, खासकर टीवी, की विश्वसनीयता पर भी एक और प्रश्नचिन्ह लगा दिया है।  कल तक जो मीडिया अन्ना और बाबा का गुणगान करते नजर आ रहा था, अब वही उनकी गलतियां गिना रहा है।
इस दौरान साधु-संतों की जो भूमिका रही वह भी गौरतलब है। बाबा रामदेव का अनशन तुड़वाने के लिए श्रीश्री रविशंकर और मुरारी बापू ही नहीं, तांत्रिक चन्द्रास्वामी तक देहरादून पहुंच गए और पेजावर स्वामी शायद पहुंचते-पहुंचते रह गए। ये साधु महात्मा प्रवचन करें, योग सिखाएं, भक्त बनाएं, मंदिरों का निर्माण करें, इसमें किसी को क्या आपत्ति होगी! लेकिन क्या बात है कि देश में संतों की इतनी भारी भीड़ के बावजूद न तो कुशासन समाप्त हो रहा है, न भ्रष्टाचार में कमी आ रही है और न गरीबी, बीमारी ही दूर हो पा रही है!  सुनते हैं कि ये संतगण लोककल्याण का काम भी करते हैं, लेकिन इनके पास जो ऐश्वर्य है उसका शायद अंश मात्र भी इस प्रयोजन से खर्च नहीं होता।  इसे क्या कहा जाए कि साधु-महात्मा यह नश्वर लोक छोड़ने के पहले अपने भाई-भतीजों को ही अपना उत्तराधिकारी बनाते हैं और फिर उनके बीच इस वैभव के बंटवारे को लेकर झगड़े होते रहते हैं! ऐसे महामनाओं के वाग्जाल और चमत्कारों में जनता बार-बार फँसने के लिए तैयार हो जाती है, इस पर कहां तक अफसोस करें?


 16 जून 2011 को प्रकाशित 

भ्रष्टाचार-10


 अन्ना, बाबा, भाजपा और सरकार

यह निर्विवाद सत्य है कि हमारे देश में भ्रष्टाचार विकराल रूप से व्याप्त है। इस पर विजय पाने के लिए सुतार्किक एवं समयबध्द योजना बनाने की आवश्यकता है,जबकि अभी जैसी हायतौबा मचाई जा रही है उसमें भ्रष्टाचार को महज एक भावनात्मक मुद्दे के रूप में उभारा जा रहा है। जो इसे उछाल रहे हैं, वे स्वयं भी शायद नहीं चाहते कि भ्रष्टाचार दूर हो। हम अपने पाठकों को एक बार फिर याद दिलाना चाहते हैं कि देश में इस मसले पर  पहले भी दो बड़े भावनात्मक आन्दोलन हुए हैं। पहला- 1973-74 में गुजरात के ''नवनिर्माण आंदोलन'' के रूप में जिसकी परिणिति जयप्रकाश नारायण की ''संपूर्ण क्रांति'' में हुई और दूसरा- बोफोर्स के खिलाफ विश्वनाथ प्रताप सिंह का जनमोर्चा जिसका प्रसाद उन्हें प्रधानमंत्री पद के रूप में मिला।

उपरोक्त दोनों आन्दोलनों के बारे में देखना कठिन नहीं है कि भ्रष्टाचार को भावनात्मक मुद्दे के रूप में खूब उछाला गया, लेकिन इसका नतीजा कुछ नहीं निकला। भ्रष्टाचार नहीं मिटना था सो नहीं मिटा, क्योंकि आन्दोलन करने वालों के इरादे ही नेक नहीं थे। उनका मकसद येन-केन-प्रकारेण राजनैतिक सत्ता हासिल करने का था, जिसके लिए जनता को प्यादों की तरह इस्तेमाल किया गया।  आज जब अन्ना हजारे तथा बाबा रामदेव जैसे व्यक्ति आन्दोलन कर रहे हैं तो पूर्व अनुभवों के आधार पर मेरा शंकालु मन उनके इरादों के बारे में आश्वस्त नहीं हो पाता। मेरा कहना है कि हमें अतीत से सबक लेकर किसी की भी बात पर एकाएक विश्वास नहीं करना चाहिए। अन्ना हजारे ने इसके पहले भी प्रादेशिक स्तर पर भ्रष्टाचार के खिलाफ आन्दोलन किए, लेकिन एक दो मंत्रियों को हटाए जाने से अधिक वे कुछ भी हासिल न कर सके। अभी लोकपाल बिल को लेकर भी वे हर रोज अपना रवैय्या बदल रहे हैं और इससे उनकी साख को धक्का ही लग रहा है।

यह कहना मुश्किल है कि अन्ना हजारे को राजनीति की कितनी समझ है, लेकिन भ्रष्टाचार के मोर्चे पर उनके प्रबल प्रतिद्वंद्वी के रूप में बाबा रामदेव जिस तरह उदित हुए हैं उसमें राजनैतिक समीकरणों को तलाश पाना बहुत कठिन नहीं है। साफ दिख रहा है कि इनका आन्दोलन संघ परिवार के आशीर्वाद से ही खड़ा हुआ है। इसमें कोई नई बात नहीं है। संघ परिवार प्रारंभ से ही भावना की राजनीति करते रहा है। जयप्रकाश नारायण तथा वीपी सिंह को नायक बनाने में संघ ने खासी सक्रिय भूमिका निभाई थी। अभी हाल में सम्पन्न विधानसभा चुनावों में भाजपा किसी भी किनारे नहीं लग पाई और अब उसे आगे के चुनावों का इंतजार है; खासकर अगले साल उत्तरप्रदेश और फिर लोकसभा का। यह उल्लेखनीय है कि भाजपा कार्यसमिति की लखनऊ बैठक बहुत ही ढीले-ढाले ढंग से सम्पन्न हुई और इस तरह भाजपा की आंतरिक कमजोरियां प्रकट हुर्इं। इस पृष्ठभूमि में स्वाभाविक है कि आने वाले समय में सफलता पाने के लिए कोई न कोई भावनात्मक मुद्दा छेडा जाए।

पिछले 3-4 दिनों के घटनाचक्र से इसकी पुष्टि होती है। आडवाणीजी के नेतृत्व में भाजपा का प्रतिनिधिमंडल राष्ट्रपति से मिला और मांग की कि संसद का विशेष सत्र तुरन्त बुलाया जाए। भाजपा बताए कि यदि संसद ही सार्वजनिक बहस का उचित मंच है तो वह बार-बार संसद की कार्रवाई क्यों नहीं चलने देती? दूसरे, राष्ट्रपति से मिलने के पूर्व आडवाणीजी ने एक चैनल को साक्षात्कार दिया कि राष्ट्रपतिजी सिर्फ सुनती हैं, करती कुछ नहीं हैं। क्या यह शिष्टाचार का उल्लंघन तथा राष्ट्रपति पर दबाव बनाने की नीति नहीं थी? तीसरे, जब भाजपा आधी रात रामलीला मैदान में पुलिस की दबिश और बाबा रामदेव को वहां से हटाए जाने की तुलना आपात्काल से करती है तब क्या उसे बाबा की शतरंजी चालें दिखाई नहीं देतीं? बाबा ने किस प्रयोजन से रामलीला मैदान किराए पर लिया था और उन्होंने क्या किया? उन्हें 4 जून को गृह मंत्रालय से दिन भर में जितने नोटिस भेजे गए, उनकी चर्चा भी कोई क्यों नहीं करता? 5 हजार योगोत्सुकों के बजाय 50 हजार आंदोलनकारी थे। अगले दिन उनकी संख्या बढ़कर कितनी होती और वे क्या करते, न करते उस समय क्या होता?

इधर अन्ना हजारे एवं उनके साथियों ने जो रुख अपनाया है, वह भी आश्चर्य में डालता है। जब आप लोकपाल विधेयक की मसौदा कमेटी में सरकार के साथ काम कर रहे हैं तो दिन-प्रतिदिन सरकार की आलोचना करने का क्या प्रयोजन है? कमेटी की बैठकों का टीवी पर जीवंत प्रसारण क्यों होना चाहिए? फिर आपने 6 जून की बैठक का बहिष्कार क्यों किया? कुल मिलाकर लगता है कि अन्ना हजारे, बाबा रामदेव, संवेदी समाज (सिविल सोसायटी) के प्रतिनिधि सबने अपने आपको देश की संसद से ऊपर समझ लिया है। इस अहंकार के चलते इनकी साख कब तक टिकेगी? मनमोहन सरकार ने इस प्रकरण में जो रीति-नीति अपनाई, वह भी सत्ता के अविचारित दंभ का प्रमाण देने के साथ-साथ गंभीर मसलों को हल्के-फुल्के ढंग से टाल देने की मानसिकता का परिचय देती है।

भ्रष्टाचार की चर्चा करते हुए यह स्मरण रखना आवश्यक है कि यह एक अनिवार्य सामाजिक बुराई है। चाणक्य नीति में साम-दाम-दंड-भेद की बात कही गई है जिसमें दाम का तात्पर्य भ्रष्टाचार से ही है।  संस्कृत विश्व की प्राचीनतम भाषाओं में से एक है और उसमें घूस के लिए ''उत्कोच'' शब्द दिया गया है। यह मान लेना चाहिए कि यह शब्द जब गढ़ा गया होगा, तब से भ्रष्टाचार चला आ रहा होगा।  दरअसल, सत्तातंत्र किसी भी प्रकार का हो, उसमें भ्रष्टाचार को जड़ से समाप्त करने का कोई उपाय नहीं है। राजतंत्र में राजा घूस न लेकर जबराना और नाराना लेता था, लेकिन उसके मंत्री से लेकर संतरी तक रिश्वत लेते ही थे। समुद्र की लहर गिनने के नाम पर भ्रष्टाचार करने की  कथा बहुत से पाठकों को स्मरण होगी। सैन्यतंत्र में भ्रष्टाचार कितना व्यापक हो सकता है इसकी मिसाल पड़ोसी पाकिस्तान है और भारतीय सेना के अफसरों के किस्से भी कम नहीं है। यह जनतंत्र ही है, जिसमें भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाया जा सकता है, लेकिन यह काम सजग नागरिक ही कर सकते हैं। बाबा की सभा में तालियां बजाने से कुछ हासिल होने वाला नहीं है। 

मैं अपनी बात कुछ दूसरे देशों के उदाहरण देकर स्पष्ट करना चाहूंगा। जापान में भारत से कई गुना ज्यादा भ्रष्टाचार है, लेकिन वहां इसके लिए कोई आन्दोलन नहीं होता। पिछले साठ साल में जापान में चालीस-पचास प्रधानमंत्री बदल चुके हैं। जैसे ही भ्रष्टाचार का आरोप लगता है, प्रधानमंत्री इस्तीफा दे देता है और स्थिति संभालने के लिए उसके उत्तराधिकारी को समय मिल जाता है। इंग्लैण्ड में भ्रष्टाचार के कितने ही किस्से हाल-हाल में सामने आए हैं, लेकिन हर प्रकरण में मंत्री या संसद सदस्य को तुरंत पद छोड़ना पडा और उसका सार्वजनिक जीवन समाप्त हो गया। ऐसा ही किसी हद तक अमेरिका में भी है। वहां राज्य के गवर्नर और सीनेटर जैसे प्रभावशाली व्यक्तियों को तुरंत पद छोड़ना पड़े। इतना ही नहीं, इन सारे देशों में भ्रष्टाचारी नेताओं पर मुकदमे भी चले हैं और उन्हें कठोर सजाएं भी हुईं। हमने यह भी देखा है कि इन देशों में भ्रष्टाचार करने वाले पूंजीपतियों अथवा कारपोरेट अधिकारियों पर भी कानून की गाज गिरी है। अच्छे-अच्छे नामी लोगों को भी वहां जेल भेज दिया जाता है। वहां का कानून कोई रियायत नहीं बरतता और कानूनी कार्रवाई में अकारण देर भी नहीं लगती। 

यदि भारत में भ्रष्टाचार को नियंत्रित करना है तो उसके लिए तीन शर्तें हैं। पहली शर्त है नागरिकों की जागरूकता, दूसरी राजनीतिक पार्टियों का संकल्प कि वे संविधान और कानून का सम्मान करेंगे तथा उन लोगों को टिकट या पद नहीं देंगे जिन पर भ्रष्टाचार के आरोप हैं। तीसरी शर्त है कि कानून और पुलिस को अपना काम निर्भयतापूर्वक करने दिया जाएगा तथा नेताओं के साथ-साथ अफसरों, ठेकेदारों और दलालों को भी नहीं बख्शा जाएगा।

 9 जून 2011 को प्रकाशित 

Sunday 22 April 2012

भ्रष्टाचार-9



 भ्रष्टाचार पर अनोखी स्थापनाएं 

1988-89 में भ्रष्टाचार राष्ट्रीय राजनीति में सबसे अहम् मुद्दा बनकर उभरा था। कहा जाता है कि तत्कालीन मुख्यमंत्री वी.पी. सिंह एक बहुत बड़े प्रभावशाली औद्योगिक घराने के मालिक को गिरफ्तार करने वाले थे और तब उस उद्योगपति ने ग्लैमर की दुनिया के एक बड़े सितारे का सहारा लेकर वी.पी. सिंह को वित्तमंत्री पद से हटवा दिया था।

इस किस्से में सत्य का कितना अंश है, यह तो समय आने पर ही पता चलेगा, लेकिन आहत वी.पी. सिंह ने उस समय जो व्यूह रचना की उससे प्रधानमंत्री राजीव गांधी बाहर नहीं निकल सके। उनका कार्यकाल दिनोंदिन बढ़ती अलोकप्रियता के साए में ले-देकर समाप्त हुआ तथा विश्वनाथ प्रतापसिंह नए प्रधानमंत्री बने। जनता को उम्मीद थी कि श्री सिंह के नेतृत्व में देश को स्वच्छ प्रशासन व स्वस्थ राजनीतिक वातावरण देखने मिलेगा, लेकिन यह आशा जल्दी ही धूमिल हो गई। मुहावरा इस्तेमाल किया जाए तो बोतल भले ही नई थी, शराब तो वही पुरानी थी। 

आज दो दशक बाद भ्रष्टाचार के खिलाफ लगभग उसी अंदाज में मुहिम छेड़ी जा रही है। जंतर-मंतर से लेकर देश में जगह-जगह सभाएं हो रही हैं, भ्रष्टाचार से लड़ने के नाम पर नई-नई संस्थाएं बन रही हैं, वक्तव्यों की बाढ़ आ गई है, पत्र-पत्रिकाओं में खूब लेख लिखे जा रहे हैं और शाम के समय सज-धजकर सुखी मध्यमवर्गीय क्रांतिकारी मोमबत्ती जलाते हुए फोटो खिंचवा रहे हैं ताकि अगले दिन अखबार में अपना चेहरा देखकर वे आत्मगौरव महसूस कर सके।  अन्ना हजारे के खिलाफ दिग्विजय सिंह सहित कांग्रेस के अनेक नेता टिप्पणियां कर रहे हैं। कहीं भूषण पिता-पुत्र को लेकर आलोचनाएं हो रही हैं, तो कहीं उनका बचाव भी किया जा रहा है। भारतीय राजनीति के रहस्यमय व्यक्तित्व सुब्रमण्यम स्वामी को जैसे नवजीवन मिल गया है तथा कभी टी.एन. शेषन के साथ मिलकर ट्रस्ट बनाने वाले विनीत नारायण फिर प्रकाश में आ गए हैं।

ऐसे बार-बार दोहराए जाने वाले दृश्यबंधों के बीच दो नई स्थापनाएं जानने में आईं। एकाधिक टिप्पणीकारों ने कहा कि भ्रष्टाचार से चिंतित होने की जरूरत नहीं है। इनका मानना है कि अठारहवीं -उन्नीसवीं सदी के अमेरिका में जो हुआ था वही आज के भारत में हो रहा है। आज से दो सौ साल पहले अमेरिका में सारी नैतिकता और तमाम मूल्यों को ताक पर रखकर मुट्ठी पर लोगों ने अकूत संपदा जोड़ ली थी। इन लोगों को ''रॉबर बैरन'' की संज्ञा दी गई। याने कल के डाकू आज के साहूकार के रूप में समाज द्वारा स्वीकार कर लिए गए। इन डाकूओं के वंशवृक्ष आज भी फल-फूल रहे हैं। अमेरिका की राजनीति में इनका जितना दखल उस समय था उतना ही आज भी है। अमेरिकी अर्थनीति में जो ''ट्रिकल डाउन थ्यौरी'' है अर्थात जो रिस-रिस कर नीचे पहुंचे, उस बूंद को चाटकर गरीब संतुष्ट हो ले, वह इनकी ही देन है। जाहिर है कि हमारे टिप्पणीकार इस अमेरिकी सिध्दांत को भारत में लागू करना चाहते हैं। छल-कपट, बाहुबल या अन्य किसी भी अनैतिक तरीके से जो जितना कमा सकता है कमा ले। सारे उपभोग का उपयोग तो वह अकेला तो करेगा नहीं, वह जब टुकड़े फेंकेगा तो उन्हें उठाकर गरीब अपना पेट भर लेंगे। मैं उस दृश्य की कल्पना करता हूं कि मुकेश अंबानी अपने महल की सत्तासवीं मंजिल पर खड़े हैं। नीचे भूखे, गरीबों की लंबी कतार है जो स्वाति बूंद पाने के लिए चातक की तरह प्रतीक्षा कर रही है। अभी अंबानी जी ऊपर से जूठन फेंकेंगे और उसे बटोरने के लिए लोग उस पर टूट पड़ेंगे! अपने शहर रायपुर में आए दिन देखता हूं कि कहीं हवन चल रहा है, कहीं अखण्ड रामायण, कहीं हनुमान चालीसा का पाठ या कोई और धार्मिक, सामाजिक, पारिवारिक उत्सव, जिसमें लंगर होता है और दो रुपए किलो चावल के बावजूद लोग एक लंगर से दूसरे लंगर की ओर भागते नजर आते हैं।

हमारे उपरोक्त टिप्पणीकारों का मानना है कि देश इस समय आर्थिक प्रगति के एक नए दौर से गुजर रहा है। जब किस्मत वाले लोग खूब कमा लेंगे तो फिर एक मोड़ पर आकर स्थितियां सामान्य होने लगेंगी, फिर न कोई पैसे देगा और न कोई पैसे लेगा, याने भ्रष्टाचार अगले सौ पचास साल में अपने-आप समाप्त हो जाएगा। धन्य हैं ऐसे विद्वान! ऐसा लगता है कि उनकी पढ़ाई-लिखाई अमेरिका में ही हुई है और शायद उन्हें अपने देश के बारे में पूरा इल्म नहीं है। 

एक ऐसी स्थापना की है प्रधानमंत्री के आर्थिक सलाहकार प्रोफेसर कौशिक बसु ने। हमारे प्रधानमंत्री की तरह उन्होंने भी अमेरिका से बहुत कुछ सीखा है। श्री बसु ने सुझाव दिया है कि भ्रष्टाचार खत्म करने के लिए रिश्वत को कानूनी जामा पहना दिया जाना चाहिए। वे चूंकि प्रधानमंत्री के सलाहकार हैं इसलिए निश्चित रूप से बहुत बड़े विद्वान होंगे, लेकिन उनकी यह बहुमूल्य सलाह हमारे जैसे नासमझ लोगों के पल्ले नहीं पड़ी। मेरी पहली और आखिरी प्रतिक्रिया तो यही है कि अन्य किसी देश में इस तरह सलाह देने वाले को प्रधानमंत्री ने तुरंत बर्खास्त कर वापिस अमेरिका भिजवा दिया होता कि जाओ वहीं बैंक में या मल्टीनेशनल कंपनी में काम करो, यहां तुम्हारी सलाह की जरूरत नहीं है; लेकिन ऐसा कुछ चूंकि अभी तक नहीं हुआ है इसलिए यह संभावना बनी हुई है कि संसद के अगले सत्र में कहीं रिश्वत को वैधानिक रूप देने का विधेयक न पेश हो जाए! अगर कौशिक बसु की सलाह पर अमल हुआ तो उसके बाद क्या होगा, कल्पना ही की जा सकती है। हर दफ्तर में, हर सरकारी टेबल पर, हर सरकारी जेब में रिश्वत की रसीद बुक रहेगी। तत्काल आरक्षण जैसी इस व्यवस्था के बाद ऊपर का लेनदेन तो फिर चलता ही रहेगा।

कुछेक टीकाकारों ने यह भी कहा है कि बेईमानी, घूसखोरी, मिलावट ये सब तो हमारे खून में ही है। भारत की जनता का इससे बढ़कर अपमान भला क्या हो सकता है? एक अरब बीस करोड़ की आबादी को अन्न देने वाला किसान क्या बेईमान है या किसान  से मजदूर बनने से अभिशप्त वह जो शहर में रिक्शा चला रहा है, बोझा ढो रहा है या फेरी लगा रहा है? जाहिर है कि ऐसे वक्तव्य सुखविलासी लोगों द्वारा ही दिए जाते हैं। अंग्रेजों ने भारत पर एक सौ नब्बे साल राज ऐसी ही लोगों की मदद से किया। अंग्रेजों के आने के पहले भारत में आला दर्जे की उद्यमशीलता थी जिसे उन्होंने धीरे-धीरे खत्म किया। उन्होंने एक तरफ भारतीय उद्योगों को ठप्प किया, दूसरी ओर  किसानों पर अकथ अत्याचार किए। उन्होंने ही भारत में एक ऐसे श्रेष्ठि वर्ग को जन्म दिया जो श्रमशीलता और उद्यमशीलता के बल पर नहीं, बल्कि एजेंसी प्रथा, सरकारी सप्लाई, सरकारी ठेके, अफीम की बिक्री तथा कपास और जूट के सट्टे आदि के सहारे पनपा। आज यही लोग देश के नैतिक पतन पर मगरमच्छ के आंसू बहा रहे हैं।

 5 मई 2011 को प्रकाशित 

भ्रष्टाचार-8



 जनता के लिए कुछ सुझाव 

अन्ना हजारे के अनशन को लेकर बहुत तरह की प्रतिक्रियाएं सामने आईं और उसने बहुत सारे नए विवादों को भी जन्म दिया।
समाज के एक वर्ग ने इस मुद्दे पर अन्ना हजारे की आलोचना की कि जो बहस संसद में होना चाहिए, वे उसे सड़क पर ला रहे हैं: इसे लोकतांत्रिक संस्थाओं पर मंडराते एक खतरे के रूप में निरूपित किया गया। यह तर्क मुझे समझ नहीं आया। हम जिन्हें चुनकर भेजते हैं उनसे सुशासन की ही अपेक्षा करते हैं। यदि वे जब अपेक्षा पर खरे न उतरें तो उसकी अनदेखी क्यों की जाए? सहज बुध्दि कहती है कि निर्वाचित प्रतिनिधियों से सवाल पूछना हमारा अधिकार है तथा इसके लिए जनतांत्रिक तरीके से यदि आन्दोलन करना पड़े तो वह जायज है। ऐसे किसी जन आन्दोलन की आलोचना तभी होना चाहिए जब वह जनतांत्रिक रास्ते से भटक जाए अथवा उससे जुड़े लोगों की विश्वसनीयता पर प्रश्नचिन्ह लगा हो। अन्ना हजारे ने अपना अनशन तोड़ते समय नरेन्द्र मोदी को जो प्रमाणपत्र दिया, उससे उनकी साख में कमी आई, यह एक उदाहरण है।

बहरहाल लोकपाल बिल जिस भी रूप में आए उसकी उपयोगिता सीमित होगी जबकि भ्रष्टाचार को समाप्त करने के लिए आमूलचूल परिवर्तन की आवश्यकता है। इसलिए आज हम लोकपाल बिल से आगे बढ़कर कहां तक जा सकते हैं, इस पर नागरिकों के बीच विचार करना आवश्यक हो गया है। हमें उन फैशनेबल लोगों का अनुसरण नहीं करना है जो हर मौकेपर मोमबत्तियां जलाने खड़े हो जाते हैं, बल्कि यह देखना है कि गांव के चौपाल से लेकर शहर के नुक्कड़ पर इस सर्वग्रासी प्रश्न पर गंभीर विचार मंथन कैसे हो। गौरतलब है कि भ्रष्टाचार दो हाथों के बीच हुआ लेन-देन है, जिसमें लेने वाला हाथ तो दिखाई देता है लेकिन देने वाले हाथ पर किसी का ध्यान नहीं जाता। जिन लोगों ने लाइसेंस परमिट राज अथवा नियंत्रित अर्थव्यवस्था को पचास-साठ साल तक जी भर कर कोसा, वे आज इस बात का जवाब दें कि उदारीकृत अर्थव्यवस्था में भ्रष्टाचार क्यों पनप रहा है। दूसरे शब्दों में जिन प्रतिष्ठानों और व्यक्तियों ने पिछले बीस साल के दौरान अकूत कमाई की है, उन पर कब, कैसे, क्या कार्रवाई होगी, यह प्रश्न जनता को उठाना चाहिए। यह तो एक बात हुई। मैं कुछ और सुझाव बिन्दुवार देना चाहता हूं।

1. जगजाहिर है कि हमारे राजनेता चुने जाने के बाद अपनी जवाबदेही से बचने लगते हैं।  मेरा मत है कि चाहे पंचायत का वार्ड हो, चाहे लोकसभा  क्षेत्र, हर स्तर पर कांग्रेस मतदाता मंडल या भाजपा मतदाता मंडल जैसे समूह गठित हों। मेरे वोट से जो व्यक्ति जीता है, मैं उससे अधिकारपूर्वक पूछूं कि तुमने अब तक क्या किया है और क्या नहीं किया है। अपने ही वोटर के प्रश्नों को खारिज करना किसी भी निर्वाचित प्रतिनिधि के लिए आसान नहीं होगा। ऐसा होने पर ''विपक्ष का षड़यंत्र'' आदि जुमलों की आड़ लेना उसके लिए संभव नहीं रह जाएगा। दूसरी तरफ जो जन प्रतिनिधि अपने मतदाताओं के प्रति जवाबदेही के साथ काम करेगा, अगले चुनाव में उसे समर्थन मिलने की संभावनाएं बेहतर हो जाएगी। इसमें नागरिक भी पांच साल में एक बार के मतदाता के रोल से बाहर निकलकर अपने आपको एक बेहतर और सकारात्मक भूमिका निभाते हुए पाएगा।

2. मैं कुछ बड़े परिवर्तनों का सुझाव भी देना चाहता हूं। इसमें सबसे पहले हमें उस व्यवस्था की ओर लौटना चाहिए जिसमें राज्यसभा में राज्य के निवासी ही चुने जा सकते थे। कांग्रेस और भाजपा ने बड़े नेताओं के दबाव के चलते तथा क्षेत्रीय दलों ने धन्ना सेठों से चंदा बटोरने की दृष्टि से इस व्यवस्था को परिवर्तित किया और उस पर सर्वोच्च न्यायालय ने भी न जाने क्या सोचकर अपनी मुहर लगा दी। इससे निश्चित रूप से राजनीतिक व्यवस्था में भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिला है और इसे खारिज करने जनमत बनाने की आवश्यकता है।

3. प्रधानमंत्री अनिवार्य रूप से लोकसभा का सदस्य होना चाहिए ताकि पिछले दरवाजे से कोई भी प्रधानमंत्री न बन सकें।

4. विचारणीय है कि देश की लगातार बढ़ती आबादी के कारण जनप्रतिनिधियों का कार्यक्षेत्र इतना व्यापक हो गया है कि वे उसे चाहकर भी नहीं संभाल सकते। पहले आठ-दस लाख की आबादी पर एक लोकसभा सदस्य होता था, अब यह संख्या बढ़कर पच्चीस-तीस लाख तक पहुंच गई है। एक लोकसभा क्षेत्र की आबादी दस लाख और विधानसभा क्षेत्र की आबादी एक लाख से अधिक नहीं होनी चाहिए। इसके लिए यदि लोकसभा की सीटें 543 से बढ़ाकर एक हजार भी करनी पड़े तो कोई बुराई नहीं है। जनप्रतिनिधि और मतदाता के बीच संपर्क अधिक जीवंत होगा तो बिचौलियों का रोल कम होगा और प्रशासन की बेरुखी और लापरवाही में भी कमी आएगी।

5. संसद सदस्यों व विधायकों को जितना वेतन देना हो दीजिए, लेकिन उनसे बाकी सारी सुविधाएं छीन लीजिए। दिल्ली, भोपाल, रायपुर में उनका डेरा सिर्फ सत्र के दौरान रहना चाहिए। बाकी अपनी जेब से किराया देकर अपना मकान रखना हो तो रखें। अपना बिजली, पानी, टेलीफोन व यात्रा का खर्च भी वे स्वयं उठाएं।
6. दलबदल विधेयक को एक बार और संशोधित किया जाए। वह सिर्फ एक पंक्ति का हो कि ''जो भी सदस्य पार्टी छोड़ेगा उसकी सदस्यता स्वमेव समाप्त हो जाएगी।'' इससे खरीद-फरोख्त पर तुरंत रोक लगेगी। 

7. सांसद निधि व विधायक निधि को पूरी तरह खत्म कर दिया जाए।

8. मंत्री, सांसद, विधायक, अफसर ये इफरात कमाई की संभावना वाले गैर-सरकारी उपक्रम यथा खेल संगठन आदि में किसी भी रूप में पदाधिकारी न बन सकें, संरक्षक भी नहीं।

9. हर स्तर के शासकीय कर्मी की सेवानिवृत्ति की आयु 65 वर्ष कर दी जाए। इसके बाद उसे किसी भी आयोग, मंडल आदि का सदस्य बनने की इजाजत न हो। दरअसल, ऐसे बहुत से आयोगों आदि की जरूरत ही नहीं है।

10. इन शासकीय कर्मियों को भी वेतन व महंगाई भत्ते के अलावा और किसी तरह की सुविधा न दी जाए। उन्हें सेवानिवृत्ति के बाद निजी कम्पनी में नौकरी करने की इजाजत किसी भी रूप में न हो, यही लोग सरकारी सेवा में रहते हुए निजी कंपनियों को लाभ पहुंचाते हैं और बाद में उन कंपनियों में जाकर गुल खिलाते हैं। (छठे वेतनमान के बाद इन्हें पेंशन से जो राशि मिल रही है, वह पर्याप्त से अधिक है।)

11. सत्ता का सुपरिभाषित एवं सुस्पष्ट विकेन्द्रीकरण हो। मसलन जहां टाउन इंस्पेक्टर को सिपाही की डयूटी लगाने का अधिकार हो, वहां एसपी का हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए: यही बात हर विभाग में लागू होती है।

12. देश में भ्रष्टाचार का बहुत बड़ा कारण यह है कि आवश्यकताएं असीमित हो गई हैं। जनता के सामने निजी उपभोग के लिए नित नए प्रलोभन आते हैं। इससे जो असंतुलन पैदा हो रहा है इसे दूर करने के लिए कराधान प्रणाली में व्यापक सुधार की आवश्यकता है। विलासिता तथा ठाठबाट पर भारी टैक्स लगाना चाहिए जिससे जनता सादगीपूर्ण जीवनशैली की ओर अग्रसर हो सके।

13. एक नियम है कि शासकीय कर्मी एयर इंडिया से ही वायु यात्रा कर सकते हैं। यह नियम अस्पताल व स्कूल आदि के बारे में भी लागू किया जाए। जब कलेक्टर की बेटी सरकारी स्कूल में पढ़ेगी और कमिश्नर की मां का इलाज सरकारी अस्पताल में होगा तो वहां अपने आप सुधार हो जाएगा।
ये कुछ सुझाव हैं। पाठक आगे विचार करें।

  21 अप्रैल 2011 को प्रकाशित 

भ्रष्टाचार-7

अन्ना हजारे का अनशन 


इस टी.वी. समय में जो न हो जाए सो कम है!अन्ना हजारे दिल्ली में अनशन पर बैठे तो जैसे पूरा देश हिल गया! और अनशन समाप्त हुआ तो जैसे देश रातोंरात बदल गया! इंडिया गेट पर विजय जुलूस निकल गया और मोमबत्तियां बुझाकर सारे आन्दोलनकारी अपने-अपने घर लौट गए। अब लोकपाल का विधेयक आएगा और जैसे देश से भ्रष्टाचार का नामोनिशान मिट जाएगा!
चार दिन खूब शगल रहा और वर्ल्डकप और आईपीएल के बीच लगभग इतना ही वक्त खाली जा रहा था।  ''अंधा क्या मांगे, दो ऑंखें''। अन्ना देवदूत की तरह आए और चमत्कार दिखाकर छोटे परदे से फिलहाल विदा हो गए। 
रायपुर में अंतिम संस्कार करनेवाली एक संस्था ने अन्ना हजारे को कलयुग का गांधी की उपाधि दी (गोया महात्मा गांधी सतयुग में पैदा हुए थे)।  कितने ही लोगों को जयप्रकाश नारायण याद आने लगे। किसी ने उनके सिपाही से संत बनने की बात कही। लेकिन अन्ना हजारे न तो गांधी हैं, न जेपी और न कोई संत। उनकी अगर दस-बीस प्रतिशत तुलना किसी से की जा सकती है तो शायद सिर्फ विनोबा भावे से। यह इसलिए कि इंदिरा जी ने आपातकाल लगाया तो विनोबा जी ने उसका औचित्य ''अनुशासन पर्व'' कहकर प्रतिपादित किया। अन्ना हजारे ने उनकी पुत्रवधु याने सोनिया जी को भ्रष्टाचार से निपटने के लिए अपने अनशन के द्वारा कुछ वक्त मुहैया करवा दिया है। बाकी तो विनोबा भावे बहुत बड़े विद्वान थे, विचारक थे, रचनात्मक कार्यकर्ता थे, गांधी के पट्टशिष्य थे। जबकि अन्ना हजारे की सर्वोपरि योग्यता उनका एक निष्ठावान रचनात्मक कार्यकर्ता होना है। महात्मा गांधी के साथ उनकी तुलना का कोई औचित्य नहीं बनता। इसे एक भावोच्छवास ही माना जा सकता है। इसी तरह जेपी के साथ उनकी तुलना करना तर्कसंगत नहीं होगा।
बहरहाल इस अनशन के निहितार्थ क्या हैं और इससे क्या हासिल हुआ है, इस पर गौर किया जाए। देश में भ्रष्टाचार है, यह एक खुला रहस्य है, लेकिन क्या इसे एक और नया कानून बनाकर दूर किया जा सकता है? पहले हमारे यहां राजनैतिक व प्रशासनिक भ्रष्टाचार की जांच करने के लिए सीबीआई एकमात्र संस्था थी। तमाम आरोपों के बावजूद आज भी कोई पेचीदा प्रकरण आने पर सीबीआई को केस सौंपने की मांग उठाई जाती है। इस सीबीआई पर विश्वास का संकट जब उत्पन्न हुआ तो सीवीसी की संस्था खड़ी कर दी गई।  उसका  यह हश्र हुआ कि सीवीसी थॉमस को पद छोड़ने पर मजबूर होना पड़ा। वैसे उनके पहले वालों ने भी कौन से तीर मार लिए थे! एन.एन. वोहरा कमेटी की रिपोर्ट का क्या हुआ, किसको याद है? चुनाव में प्रत्याशियों के सम्पत्ति के ब्यौरे उजागर होने लगे इससे क्या फर्क पड़ा? अब यदि लोकपाल बिल बनकर लागू भी हो गया तो उससे हम किस चमत्कार की आशा करते हैं? हम आज भी अपनी अदालतों पर काफी विश्वास रखते हैं लेकिन कितने सारे न्यायाधीश भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरे हुए हैं! राज्यों में सर्वत्र लोकायुक्त की संस्था पिछले कई साल से विद्यमान हैं लेकिन न्यायमूर्ति संतोष हेगडे ज़ैसा लोकायुक्त अपवाद स्वरूप ही सामने आता है। क्या यह कहना गलत होगा कि लोकायुक्त और राज्य सरकार के बीच इतनी गहरी सांठ-गांठ है कि यह संस्था अधिकतर प्रदेशों में अपनी साख गंवा चुकी है! इन सच्चाईयों से सारा देश वाकिफ है। अन्ना हजारे को तो दूसरों से कुछ ज्यादा ही पता है: अपनी उावल छवि का उपयोग वे महाराष्ट्र में भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम चलाने पहले भी कर चुके हैं; लेकिन प्रदेश स्तर पर किए गए उनके आन्दोलनों का अंतिम नतीजा क्या निकला। उन्हें अपनी मुहिम में आंशिक सफलता तो मिली, लेकिन महाराष्ट्र में भ्रष्टाचार पनपने की परिस्थितियां पहले की तरह कायम रहीं। ऐसे में उन्होंने अनशन पर बैठने का निर्णय क्यों लिया, इसमें उनके साथ कौन लोग जुड़े, आन्दोलन को ताकत कैसे मिली और चार दिन के भीतर ही सरकार कथित रूप से क्यों झुक गई, इन सारे सवालों के जवाब आना अभी बाकी है।
इस पूरे परिदृश्य में बाबा रामदेव अनशन टूटने तक रहस्यमय ढंग से अनुपस्थित रहे; जबकि कुछ दिन पहले दिल्ली के रामलीला मैदान से उन्होंने भ्रष्टाचार के खिलाफ शंखनाद किया था, जिसमें अन्ना हजारे नेतृत्व की दूसरी पंक्ति में नजर आ रहे थे। फिर ऐसा क्या हुआ कि अन्ना सामने आ गए और बाबा पीछे ढकेल दिए गए! क्या इसलिए कि बाबा की राजनीतिक महत्वाकांक्षा अन्य प्रमुखजनों यथा स्वामी अग्निवेश, मेधा पाटकर, किरण बेदी व प्रशांत भूषण इत्यादि को पसंद नहीं आई! क्या ऐसा माना जाए कि अन्ना हजारे को भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई में एक सेक्युलर मंच के नेता के रूप में स्थापित किया जा रहा है! यह तो तय है कि अन्ना के अनशन को सफल बनाने में चैनलों के अलावा यदि किसी और ने मुख्य भूमिका निभाई तो वह संघ परिवार है; तभी लालकृष्ण आडवानी, सुषमा स्वराज, रमन सिंह, तरूण विजय सब उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा कल तक कर रहे थे। 
लेकिन ऐसा लगता है कि बाजी कांग्रेस के हाथ में चली गई है। इसलिए बाबा रामदेव क्षुब्ध नजर आ रहे हैं और संघ परिवार कुछ कहने की स्थिति में नहीं है। कांग्रेस पार्टी में इतना लचीलापन इसके पहले कभी नहीं देखा गया। कांग्रेस के नेता हर समय सत्ता के अहंकार में तने जो रहते हैं। फिर इस बार क्या हुआ? सोनिया गांधी ने एक अपील की और देखते ही देखते बात बन गई। आज कांग्रेस यह दावा करने की स्थिति में है कि उसने ए. राजा, अशोक चव्हाण, सुरेश कलमाणी आदि पर ही कार्रवाई नहीं की, बल्कि कई कदम आगे बढ़कर भ्रष्टाचार समाप्त करने के लिए अन्ना हजारे का नुस्खा स्वीकार करने में संकोच नहीं किया। अभी एक हफ्ते पहले तक जिस पार्टी की छाती आरोपों के तीरों से छलनी हो रही थी वह अब दूसरों पर वार करने की स्थिति में आ गई है। क्या आसन्न विधानसभा चुनावों में कांग्रेस को इसका कोई लाभ मिलेगा कहा नहीं जा सकता, लेकिन इतना अवश्य है कि मानसून सत्र के दौरान यूपीए के तेवर बदले हुए रहेंगे। अभी देखना यह भी है कि सोनिया गांधी पार्टी, सरकार और देश की राजनीति में अपनी पकड़ और मजबूत करने के लिए इस स्थिति का लाभ किस तरह उठाएंगी।


  14 अप्रैल 2011 को प्रकाशित 

भ्रष्टाचार-6



यदि भ्रष्टाचार रावण तो राम कहाँ ?

संसद में हंगामा मचाने या साधु-संतों के प्रवचनों से यदि भ्रष्टाचार दूर हो सकता तो क्या बात थी।
इन सारे उपायों की असफलता हम देख चुके हैं। दरअसल ऐसे उपाय भ्रष्टाचार की जड़ पर आक्रमण नहींकरते, बल्कि समस्या के इर्द-गिर्द कुहासे का जाल बनते हैं, जिसमें जनता खो जाती है और जड़ तक पहुंचने की इच्छा हवा में काफूर हो जाती है। भ्रष्टाचार निश्चित रूप से इस देश के लिए एक बहुत बड़ी समस्या और बहुत बड़ी चुनौती के रूप में सामने है, लेकिन अंतत: वह एक मध्यमवर्गीय शगल से ज्यादा कुछ नहींहै। हमारी मध्यमवर्गीय नैतिकता को बहुत से प्रश्न आए दिन परेशान करते हैं। अपने आत्मकेन्द्रित जीवन में मध्यवर्ग लगभग प्रतिदिन समझौते करता है- उचित-अनुचित का विचार किए बिना। और फिर जब इससे उसे ग्लानि होती है तब अपराधमुक्त होने के लिए भ्रष्टाचार के विरोध में जो भी मुहिम चलती है उसे अपना निष्क्रिय तथा मौखिक समर्थन देने के लिए आगे आ जाता है। हम यह मानकर चलते हैं कि भ्रष्टाचार हो या अन्य कोई समस्या, उसे दूर करना, उससे लड़ना हमारे नागरिक दायित्व का हिस्सा नहीं है। हम चाहते हैं कि हमारी लड़ाई कोई और लड़े, फिर चाहे वह सत्ता का प्रतिपक्ष हो, चाहे कोई संत-महात्मा या चाहे समाजसेवा के लिए उतर पड़ा कोई सुविधासंपन्न रिटायर्ड नौकरशाह।
इस देश में भ्रष्टाचार के विरूध्द यदि सबसे बड़ी और एकमात्र सफल लड़ाई यदि किसी ने लड़ी थी तो वी.पी.सिंह ने।  देश की जनता ने इसका पुरस्कार उन्हें प्रधानमंत्री की कुर्सी सौंपकर दिया। लेकिन इसका अंतिम परिणाम क्या निकला? भ्रष्टाचार दूर नहींहोना था, सो नहींहुआ। 55-60 करोड़ के बोफोर्स कांड पर जांच में ढाई सौ करोड़ लग गए। यह तर्क का विषय नहीं होना चाहिए, लेकिन विचारणीय है कि बरसों की इस उठापटक के बाद क्या भारतवासियों के मन में भ्रष्टाचार से लड़ने की कोई प्रेरणा जागृत हो सकी। स्पष्ट उत्तर है- नहीं। अब जितने बड़े-बड़े घोटाले सामने आ रहे हैं, वे कैसे संभव हुए? आज यह प्रश्न पूछने की आवश्यकता है कि बोफोर्स के बाद उससे कई गुना बड़े घोटाले क्यों कर संभव हुए? बात साफ है कि भारतीय समाज ने भ्रष्टाचार के मुद्दे को गंभीरता से नहींलिया और उससे लड़ने के लिए आंतरिक प्रेरणा से उपज कर जिस वातावरण की रचना होनी चाहिए थी, वह नहींहो सकी। जो हुआ वह यही कि कुछ लोग देवदूतों की तरह हमारे बीच आए तथा उनसे दैवीय चमत्कारों की अपेक्षा करते हुए हम अपने-अपने घोसलों में दुबके रहते।
टी.एन. शेषन को ही लीजिए। देश को या यूं कहें कि मध्यमवर्गीय भारत को ऐसा लगे कि वे अकेले चुनाव प्रणाली में सुधार लाकर देश की राजनीतिक व्यवस्था को आमूलचूल सुधार देंगे। लेकिन हुआ यह कि लंबे समय तक गरज-बरस कर शेषन चुक गए, और अपनी प्रासंगिकता बनाए रखने के लिए उसी राजनीति का अंग बनने की असफल कोशिश में जुट गए जिससे लड़ने का स्वांग वे कर रहे थे। यह मजे की बात है कि ईमानदारी के प्रति शेषन को कांची शंकराचार्य के अंतिम संस्कार में शामिल होने के लिए एक उद्योगपति से हवाई जहाज मांगना पड़ा, भले ही उसका किराया उन्होंने चुकाया हो। हमारे दूसरे नायक के रूप में अन्ना हजारे सामने आए। अन्ना हजारे की सत्यनिष्ठा पर कोई प्रश्न नहींहै, लेकिन एक रचनात्मक कार्यकर्ता के रूप में उनका जो भी योगदान रहा हो, भ्रष्टाचार के मसले पर वे एक असफल योध्दा ही सिध्द हुए। ऐसा ही कुछ हाल किरण बेदी का है। किरण बेदी जी के खैरनार और बहुत से लोग इस भ्रम में जीते हैं कि रोटरी क्लब की सभाओं में भाषण देकर भ्रष्टाचार को दूर किया जा सकता है। वे जिन सभा-संगोष्ठियों में जाते हैं, उनमें अधिकतर वही लोग रहते हैं, जो भ्रष्टाचार में लिप्त हुए बिना अपना कारोबार चला ही नहींसकते। इसी श्रेणी में एक बहादुर केजे अल्फोस हैं, जो पहले वामपक्ष के समर्थन से विधायक बने और अब राष्ट्रीय राजनीति में अपना स्थान बनाने के लिए भाजपा में शामिल हो गए हैं।
यह देखना दिलचस्प है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ झंडा उठाने वाले ये सारे बहादुर इन दिनों बाबा रामदेव की शरण में है। बाबाजी इन दिनों दिल्ली के रामलीला मैदान में सभा करने से लेकर देश में जगह-जगह घूम कर भारतीय राजनीति को स्वच्छ बनाने की मुहिम में जुटे हुए हैं। इस टीवी युग में चूंकि क्षणिक लोकप्रियता पाना आसान हो गया है इसलिए बाबा रामदेव भी आजकल लोकप्रियता के शिखर पर आसीन दिखाई देते हैं। वे जहां जाते हैं उनका जोरदार स्वागत होता है, उसकी लंबी-चौड़ी खबरें छपती हैं, लेकिन कोई यह सवाल तो उठाए कि बाबाजी की सभाओं का इंतजाम कौन करता है। क्या हमारे योग गुरु इस बात की गारंटी दे सकते हैं कि छोटे-बड़े नगरों में उनकी जो सभाएं हो रही हैं उसमें सारा पैसा ईमानदारी का ही लगा है। वे इस प्रश्न का उत्तर दें या न दें लेकिन वे जहां जाते हैं वहां की आम जनता इस बात को खूब अच्छे से जानती है कि उनके स्थानीय अनुयायियों का चरित्र कैसा है? बाबा रामदेव के राजनीतिक विचार भी किसी से छुपे हुए नहींहैं, वे मुखर रूप से कांग्रेस और वामदलों की आलोचना करते हैं। इसका अर्थ यही है कि वे भाजपा के राजनीतिक एजेंडे को आगे बढ़ाने की कोशिश कर रहे हैं। हमें आश्चर्य नहींहोगा यदि आम चुनावों के समय उनका भारत स्वाभिमान दल दक्षिणपंथी गठजोड़ का हिस्सा बन जाए। लेकिन आज उनसे हम यह भी पूछना चाहेंगे कि क्या दक्षिणपंथी राजनीति करने वाले सारे लोग ईमानदार हैं, जिनकी प्रत्यक्ष और परोक्ष हिमायत वे करते रहते हैं।
हमारी बात भ्रष्टाचार विरोधी इन स्वयंभू नेताओं तक सीमित नहींहै। विकिलीक्स और तहलका हों या न हों, भ्रष्टाचार दस नहींबल्कि सौ सिर वाला रावण बन चुका है। यह बात हम जानते हैं कि रावण का निवास सोने की लंका में था। यदि भ्रष्टाचार से लड़ना है तो सबसे पहले यह समझने की जरूरत है कि यह सोने की लंका कहां है? इसे जानने के लिए बहुत ज्यादा माथापच्ची करने की आवश्यकता नहींहै। सोने की लंका सिर्फ राजनीति तक सीमित नहींहै। बल्कि उसका विस्तार नेता, अफसर और व्यापारी के त्रिलोक में है। जिन लोगों ने लाइसेंस परमिट राज्य खत्म कर बंधनमुक्त उद्यमशीलता (फ्री इंटरप्राइज) की वकालत की थी, वे ही उदारीकरण के इस युग में अपनी सोने की लंका में अपनी गगनचुंबी अट्टालिकाएं खड़ी कर रहे हैं। इस लंका तक पहुंचने के लिए समुद्र लांघने की जरूरत है। पुल बांधने से पहले पुल बांधने की इच्छाशक्ति चाहिए। और उसके भी पहले रास्ता तलाश करने की दृष्टि भी। रावण से लड़ने राम अकेले नहींगए थे, जनता अपना हृदय टटोलकर देखे कि क्या उसमें राम का कोई अंश है?
  31 मार्च 2011 को प्रकाशित 

Saturday 21 April 2012

भ्रष्टाचार-5



काली कमाई के खिलाफ कुछ कहानियां 

इस सप्ताह का कॉलम किस विषय पर लिखा जाए, कुछ समझ नहीं आ रहा था। आजकल देश में भ्रष्टाचार के मुद्दे पर सबसे ज्यादा बहस हो रही है,

 लेकिन सारे विद्वानों के लिख चुकने के बाद अब और क्या लिखना बाकी है? इसी उधेड़बुन से गुजरते हुए मुझे अपने महान साहित्यकार प्रेमचंद का ध्यान आ गया। ये वही रचनाएं हैं जिन्हें आपने हमने स्कूल, कॉलेज के दिनों में अवश्य पढा होगा। इधर हमारी शिक्षा पध्दति में जो परिवर्तन हुए हैं उनके चलते पर्यावरण, मानव अधिकार, नैतिकता इन सब पर बेहद यांत्रिक, रूखे और उबाऊ ढंग से पाठयपुस्तकों में अध्याय शामिल किए जाने लगे हैं। जबकि प्रेमचंद जैसे गुणी रचनाकारों की कहानियों में इन सब विषयों पर अर्थ गंभीर संदेश विद्यमान हैं, उन पर अब हमारा ध्यान नहीं जाता। साहित्य से दूर अनपढ़ मां-बाप अपने बच्चों को पैकेज उगलने वाली मशीन बनाने में जो लगे हुए हैं।

बहरहाल प्रेमचंद की अत्यंत प्रसिध्द कहानी ''नमक का दारोगा'' मुझे सबसे पहले याद आई। स्कूल में इस कहानी को पढ़ाते हुए हमेशा से यही बताया गया कि यह कथा असत् पर सत की विजय का संदेश देती है। बेईमान लाला अलोपीदीन दारोगा पंडित बंशीधर की सत्यनिष्ठा से प्रभावित होकर उन्हें अपनी फर्म में मैनेजर बनने का प्रस्ताव देते हैं; इसकी व्याख्या ईमानदारी की जीत और बेईमानी की हार के रूप में अब तक की जाती रही है, लेकिन यह निष्कर्ष मुझे लंबे समय से परेशान करते रहा है। कुछ विस्तार में जाकर समझने की कोशिश करें तो एक दूसरा ही निष्कर्ष सामने आता है। यह क्यों हुआ कि पंडित बंशीधर ने लाला अलोपीदीन का प्रस्ताव ठुकराने के बजाय स्वीकार कर लिया। क्या वे नहीं जानते थे कि अलोपीदीन का कारोबार बेईमानी का है और संभव है कि कल को चलकर उन्हें ही किसी दूसरे ईमानदार को बेईमान बनाने का माध्यम बनाया जाए! देश के वर्तमान माहौल में यह कहानी बहुत सटीक बैठती है। बेईमानों ने ईमानदारी को किस तरह खरीद लिया है, यह रोज-रोज देखने मिल रहा है। जो लोग बेईमानी और काली कमाई के सूत्रधार हैं वे मजे में इठला रहे हैं, भारत पर ''बनाना रिपब्लिक'' होने का विशेषण जड़ रहे हैं और जिन्हें सत्यनिष्ठा के साथ अपना कर्तव्य निर्वाह करना चाहिए था वे इनके सामने कठपुतलियों की तरह नाच रहे हैं या फिर सत्येन्द्र दुबे की मौत मारे जा रहे हैं।

प्रेमचंद की ही दूसरी कहानी है ''परीक्षा''। इसमें किसी रियासत के बूढ़े दीवान रिटायर होने लगते हैं। नए दीवान की नियुक्ति के लिए दौड़-धूप होती है। चुने हुए उम्मीदवारों की भांति-भांति से परीक्षा ली जाती है। चतुर सुजान बूढ़े दीवान साहब गुप्त परीक्षा लेकर एक ऐसे युवा को चुनते हैं जिसके हृदय में मानवता, सानता, परदु:खकातरता जैसे गुण कूट-कूट कर भरे हैं। इसकी तुलना आज के भारत से करें। आई.ए.एस. सहित तमाम सरकारी पदों पर बड़ी कठिन परीक्षा के बाद योग्य उम्मीदवार चुने जाते हैं। लेकिन उनकी सारी किताबी योग्यता दो-चार साल में दगा दे जाती हैं, क्योंकि उनमें बौध्दिक ईमानदारी और सत्यनिष्ठा का परीक्षण तो कभी किया ही नहीं गया। वे मसूरी, हैदराबाद, माऊंट आबू और न जाने कहां-कहां से प्रशिक्षण लेकर आते हैं और बहुत जल्दी भूल जाते हैं कि इस देश व देशवासियों के साथ इनका कोई रिश्ता है। ये अधिकारी ही आपसी बातचीत में बताते हैं कि बड़े पद पर चयन हो जाने के बाद दहेज बाजार में उनकी कीमत कितनी गुना बढ़ जाती है।

मैं अब प्रेमचंद के उपन्यास ''गबन'' की चर्चा करना चाहता हूं। इस रचना में पचास-पचपन साल पहले मेरे मन पर जो छाप छोड़ी थी वह आज भी कायम है। जालपा नई नवेली अल्हड़ दुल्हन है। सखी-सहेलियों ने जैसा समझाया या किशोर मन पर जैसी लहर उठी, उसने अपने पति रमाकांत से नौलखा की जड़ाऊ हार की मांग की। रमाकांत छोटी सी नौकरी करता है। जो वेतन मिलता है उसमें जालपा की मांग पूरी करने का इंतजाम नहीं हो सकता। नई-नई गृहस्थी है, नए-नए चाव और उमंगें हैं। नवोढ़ा को वह दु:खी नहीं देखना चाहता। उसे खुश करने के लिए दफ्तर से रकम गबन करके हार बनवा देता है, लेकिन चोरी ज्यादा दिन छुपी नहीं। रमाकांत गिरफ्तार होता है। उसे जेल की सजा हो जाती है। इस घटनाक्रम के बीच कच्ची समझ वाली जालपा में एकाएक प्रौढ़ता आती है। वह अपनी गलती समझती है। अपने किए पर पछताती है और अपनी जिद के कारण गलत रास्ते पर चले गए पति को वापिस संभालती है। दोनों के जीवन में नए सिरे से उजाला आता है। दोनों समझ जाते हैं कि मेहनत और ईमानदारी की कमाई में ही जीवन का सुख है। काश कि दो चार दिन पूर्व गिरफ्तार हुए नाल्को के चेयरमैन और उनकी पत्नी ने इस उपन्यास को पढ़ा होता तो रिश्वत में सोने की ईंट तो क्या, घास का  एक तिनका भी लेने का विचार कभी मन में न आया होता। एक तरफ पूंजी की जांच करने के लिए जेपीसी बन रही है और दूसरी तरफ रिश्वत और काली कमाई के प्रकरण हर बड़े-छोटे दफ्तर में बदस्तूर चल रहे हैं। तो क्या इस दुष्चक्र से उबरने का कोई उपाय नहीं है?

यहां मुझे प्रेमचंद की एक हास्यकथा ''छींटें'' का स्मरण हो आता है। एक कोई रईस अपनी मोटर गाड़ी लेकर किसी बस्ती के बीच से गुजर रहा है। बस्ती की सड़क पर गङ्ढे हैं, जिनमें पानी-कीचड़ भरा है। कार चालक इस बात का ध्यान किए बिना गाड़ी भगाए जा रहा है और गङ्ढों से उछलकर कीचड़ आसपास से गुजरते लोगों के कपड़ों और शरीर पर पड़ रहा है। बस्ती वाले इस हिमाकत को बर्दाश्त नहीं करते। थोड़ी देर बाद जब कारवाला वापिस लौटता है तो लोग उसकी कार पर पत्थर फेंककर उसे सजा देते हैं। वे निर्जीव पुतले नहीं हैं। अनाचार का विरोध करना जानते हैं। कीचड़ से छींटें उछालने का जवाब पत्थर से। यह कहानी प्रेमचंद ने लगभग सौ साल पहले लिखी थी। कहना चाहिए कि प्रेमचंद सौ साल बाद भी उतने ही प्रासंगिक हैं।

 3 मार्च 2011 को प्रकाशित