Wednesday, 3 July 2019

राहुल! आप किस सोच में डूबे हैं?


राहुल! आप किस सोच में डूबे हैं?
आपने पार्टी के अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया है और उसे वापिस न लेने पर अड़े हैं तो फिर दिल्ली में बैठकर आप क्या कर रहे हैं?
मैंने कुछ समय पहले इसी कॉलम में सुझाव दिया था कि आप अध्यक्ष पद पर बने रहें; साल-दो साल का अवकाश लेकर देश की पदयात्रा पर निकल जाएं; और पार्टी का काम एक कार्यकारी अध्यक्ष के हवाले कर दें। आज कहना चाहता हूं कि आप पहले सुझाव से सहमत नहीं हैं तो नया अध्यक्ष चुनने में देरी न करें। आप और पार्टी जिसका चयन करें वह देखे कि संगठन को कैसे नए सिरे से मजबूत करना है आदि। लेकिन आपको मेरा दूसरा सुझाव एक दीर्घकालीन दृष्टि से दिया गया है।
मैं इस बात को दोहराना जरूरी समझता हूं कि कांग्रेस अपने प्रारंभ काल से ही पार्टी कम और आंदोलन अधिक रही है। यह कहना गलत नहीं होगा कि आंदोलन का पक्ष ही अधिक मजबूत रहा है। जवाहरलाल नेहरू के समय में उनकी सर्वसमावेशी सोच और अजातशत्रु चरित्र के कारण सत्ता में रहने के बावजूद आंदोलन का पक्ष काफी हद तक बचा रहा। लेकिन उत्तर-नेहरू युग में कांग्रेस लंबे समय तक सत्ता की पार्टी बनी रही, जिसके चलते इसमें जड़ता, असहिष्णुता, मदांधता जैसी बुराइयां किसी सीमा तक घर कर गईं। उसी का खामियाजा आज भुगतना पड़ रहा है। खैर, अब यही सोचना है कि आगे क्या किया जाए!
यह याद कर लेना अच्छा ही होगा कि स्वाधीनता पूर्व पार्टी के लगभग हर बड़े नेता का गांवों और किसानों के साथ जीवंत संपर्क व संवाद था। चंपारन में बापू, बारडोली में सरदार और प्रतापगढ़ में पंडितजी ने जिस शिद्दत के साथ किसानों के हक के लिए संघर्ष किया, वह कांग्रेस के इतिहास का स्वर्णिम अध्याय है। मुझे ध्यान आता है कि पंडित नेहरू ऑल इंडिया ट्रेड यूनियन कांग्रेस (एटक) के भी अध्यक्ष थे, जो बाद में एटक और इंटक में विभाजित हो गई। और जब अधिकतर राजे-महाराजे ब्रिटिश राज के कृपापात्र बने हुए थे, तब नेहरूजी देशी रियासतों में स्वाधीनता की लड़ाई लड़ने वाले अखिल भारतीय प्रजामंडल के भी अध्यक्ष थे। ऐसे तमाम प्रसंग पर्याप्त संकेत दे रहे हैं कि कांग्रेस पार्टी को किस तरफ जाना चाहिए।
यह भी रेखांकित करना उचित होगा कि नेहरूजी ने संगठन की कभी परवाह नहीं की। उनका ध्यान हर समय आम जनता की ओर ही लगा रहता था। पार्टी में अनेक वरिष्ठ व प्रभावशाली साथी उनकी नीतियों और विचारों से असहमत रहते थे लेकिन खुलकर विरोध इसीलिए नहीं करते थे कि वे जनता के दिलों में वास करते थे। 1952 के आम चुनावों के पहले संगठन के कर्णधारों ने उन्हें चुनौती देने की ठानी थी। उनके इशारे पर 1951 में मध्यप्रदेश के गृहमंत्री डी.पी. मिश्र ने पद से इस्तीफा देकर विद्रोह का बिगुल बजाया था, लेकिन उनकी यह दुरभिसंधि सफल नहीं हो सकी। उल्टे मिश्राजी को ही ग्यारह-बारह साल का वनवास भुगतने पर विवश होना पड़ा। इंदिराजी के समय भी ऐसे षड़यंत्र रचे गए जो सफल नहीं हुए। फर्क इतना था कि अजातशत्रु नेहरू क्षमा करना जानते थे। वह गुण इंदिराजी में नहीं था। इतना सब लिखने का प्रयोजन यही है कि आपको जनता के बीच जाकर ताकत हासिल करना चाहिए। आपका अपना राजनैतिक भविष्य भी उसी पर निर्भर करता है।
आप यदि सचमुच पदयात्रा पर निकलने का मन बना पाते हैं तो उसके पहले आपको देहरादून जाकर अपनी दादी की बहन नयनतारा सहगल से अवश्य मिलना चाहिए। भूल जाइए कि उनकी माँ विजयलक्ष्मी पंडित ने 1977 में इंदिराजी का विरोध किया था। नयनताराजी से मिलेंगे तो आपको नेहरूजी की राजनैतिक यात्रा के बारे में अन्तर्दृष्टि मिल सकेगी। उनकी लिखी ''नेहरू : सिविलाइजिंग अ सेवेज वर्ल्ड'' एक अद्भुत पुस्तक है जो नेहरूजी के बारे में लंबे समय से फैलाई गई बहुत सी भ्रांत धारणाओं का तर्क और तथ्य के आधार पर खंडन करती है। काश्मीर, चीन, कॉमनवेल्थ, इत्यादि अनेक प्रश्नों पर उन्होंने जो विवेचना की है, वह सारे कांग्रेसजनों के काम की है। यह तो आपको मालूम ही है कि नयनतारा सहगल ने मोदीराज-एक में बढ़ती असहिष्णुता का विरोध करते हुए साहित्य अकादमी का पुरस्कार लौटा दिया था। वे आपके वृहत्तर परिवार की ऐसी सदस्य हैं जो नब्बे साल की उम्र में भी प्रतिगामी शक्तियों का विरोध करने का साहस रखती हैं।
इस समय आपके सामने एक व्यवहारिक समस्या निश्चित ही खड़ी होगी कि आपका स्थान कौन लेगा! यह एक कठिन निर्णय हो सकता है, जिसे तथ्यों का आश्रय लेकर आप सरल बना सकते हैं। उन तमाम लोगों को दरकिनार कर दीजिए जिनकी सत्ता लोलुपता और सत्ता को व्यक्तिगत स्वार्थ साधने की मशीन बना देने की मानसिकता से आप भलीभांति परिचित हैं। आपको मल्लिकार्जुन खड़गे जैसे वरिष्ठ साथी पर ऐतबार जताना चाहिए, जिसका मजबूत जनाधार है; जो ग्यारह बार अविजित रहा है; जिसने लोकसभा में मात्र चवालीस सदस्य होने के बावजूद विपरीत परिस्थिति में दलनेता के रूप में दमखम का परिचय दिया है; जो दक्षिण भारत से आता है; जो वंचित समाज का प्रतिनिधित्व करता है; और जिसके बारे में कोई सार्वजनिक प्रवाद नहीं है। लेकिन मेहरबानी करके ऐसे नेता को अपना उत्तराधिकारी मत बनाइए, जिनकी सलाहों पर चलने से कांग्रेस की दुर्गति होते आई है।
2017 में राष्ट्रपति-उपराष्ट्रपति चुनाव के लिए क्रमश: सुश्री मीरा कुमार और गोपालकृष्ण गांधी के रूप में कांग्रेस ने सही प्रत्याशियों का चयन किया था। पूर्व उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी भी आपके साथ हैं। डॉ. मनमोहन सिंह तो हैं ही। ऐसे प्रबुद्धजनों की सेवाओं का लाभ कैसे लिया जा सकता है, इस पर भी विचार होना चाहिए। अशोक गहलोत, नवजोत सिद्धू जैसे व्यक्तियों को यदि संगठन में महत्वपूर्ण जिम्मेदारियां सौंपी जाती हैं तो यह भी पार्टी के हित में होगा। एक ओर संगठन की समझ, दूसरी ओर वैचारिक आधार, तीसरी ओर कांग्रेस शासित और समर्थित राज्य सरकारें- ये सभी अपने-अपने दायरे में ऐसे कार्यक्रम बना सकते हैं जिनसे कुल मिलाकर कांग्रेस को ताकत मिले। मुझे लगता है कि वैश्विक राजनीति की जो दशा-दिशा है, उसमें अन्तरराष्ट्रीय मंच पर भारत की कांग्रेस पार्टी की बात ध्यानपूर्वक सुनी जाए, इसके लिए पी. चिदंबरम जैसे साथियों को भी यथोचित स्थान मिलना चाहिए।
विगत वर्षों में जिन दूसरे दलों ने कांग्रेस को खुलकर साथ दिया है, उनमें राजद का नाम सबसे पहले आता है। आज राजद संस्थापक लालूप्रसाद सजा काट रहे हैं और रांची के अस्पताल में भर्ती हैं। आपका उनसे भी एक बार जाकर अवश्य मिलने का संदेश सही जाएगा। शरद यादव अनुभवी संसदवेत्ता हैं और बीते दिनों में उनकी सही सलाह पार्टी के लिए उपयोगी सिद्ध हुई है। स्टालिन भी आपके साथ बने हुए हैं। इन सबके साथ कांग्रेस का गठबंधन और दृढ़ होने की गुंजाइशें हैं। और कर्नाटक में कुमारस्वामी के साथ अनावश्यक छेड़खानी भी बंद करना उचित होगा। आशा करता हूं कि आपसे मेरा जो संक्षिप्त सा परिचय है, उसे याद रखते हुए आप इन सुझावों पर गंभीरतापूर्वक करेंगे।
पुनश्च: यह लेख 3 जुलाई को मोतीलाल वोरा को अंतरिम अध्यक्ष बनाए जाने की घोषणा के पूर्व लिखा गया था।
देशबंधु में 4 जुलाई 2019 को प्रकाशित

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