Wednesday, 25 September 2019

देशबन्धु के साठ साल-12


हमने सीखा था कि एक फोटो एक हजार शब्दों के बराबर होता है। इस सीख का दूसरा पहलू था कि तस्वीरें झूठ नहीं बोलतीं। उन दिनों टीवी नहीं था। सोशल मीडिया भी नहीं था। तस्वीर की फोटोशॉपिंग कर झूठ को सच या सच को झूठ सिद्ध करने की गुंजाइश नहीं थी। महानगरों से प्रकाशित पत्रों में बेहतरीन फोटो छापने की होड़ होती थी। एक अच्छे फोटो से समाचार में निखार आता, पेज की सजावट में वृद्धि होती और पाठक को भी चाक्षुष आनंद मिलता। अखबार पर उसका भरोसा भी बढ़ता। लेकिन रायपुर-जबलपुर जैसे आंचलिक केंद्रों से प्रकाशित अखबारों के सामने व्यवहारिक अड़चन थी। अच्छी से अच्छी तस्वीर खींचकर ले आएं लेकिन उसे छापें कैसे? अखबारी भाषा में जिसे ''ब्लॉक" कहते थे, उसे बनाने की सुविधा इन स्थानों पर नहीं थी। ब्लॉक याने सीसे में ढालकर लकड़ी पर मढ़ी गई फोटो की प्रतिकृति। उन दिनों हम जैसे सभी अखबार महत्वपूर्ण व्यक्तियों के पासपोर्ट आकार के फोटो के ब्लॉक बाहर से बनवाकर अपने कंपोजिंग कक्ष की आलमारी में तरतीबवार जमा कर रख लेते थे। किसी व्यक्ति से संबंधित समाचार के साथ फोटो देना आवश्यक समझा तो उसका ब्लॉक निकालकर पेज में सजा दिया। छपाई के बाद ब्लॉक वापिस आलमारी में।
इस प्रक्रिया में कभी-कभार मनोरंजक स्थिति उत्पन्न हो जाती। एक बार विनोबा भावे से संबंधित समाचार देना था तो उनकी जगह रायपुर के प्रतिष्ठित शिक्षक आचार्य सुधीर कुमार बोस का फोटो लग गया। जब रॉबर्ट कैनेडी की हत्या हुई तो जॉन एफ. कैनेडी का फोटो लगाया और अपनी अक्लमंदी का परिचय देते हुए शीर्षक दिया- अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति जॉन कैनेडी, जिसके भाई रॉबर्ट कैनेडी की भी हत्या कर दी गई। एक बार तो हद हो गई। वरिष्ठ राजनेता और राज्य के तत्कालीन शिक्षामंत्री शंकरदयाल शर्मा के स्थान पर हकीम वीरूमल आर्यप्रेमी की तस्वीर का ब्लाक लग गया। 60-70 के दौरान हकीम वीरूमल और एक डॉक्टर आजाद के आधा-आधा पेज के विज्ञापन उनके छत्तीसगढ़-प्रवास के दिनों में छपा करते थे। गलत फोटो इसलिए लग गया क्योंकि डॉ. शर्मा और हकीमजी दोनों के ब्लॉक कई बार छपने के कारण घिस गए थे और सिर्फ टोपी और गोलमटोल चेहरे का साम्य देखकर अनुमान से ब्लॉक चुन लिया गया। आज नवीनतम तकनीकी के प्रयोग के बाद भी अखबारों में गलतियां किसी न किसी रूप में होती ही हैं। ऐसी चूकों के चलते जगहंसाई होती है। अपने आप पर गुस्सा आता है। उन पर पाठकों व संबंधित पक्षों से माफी मांगने के अलावा और कोई उपाय नहीं होता।
आमतौर पर पाठक या तो अखबार के संपादक को उसका नाम प्रतिदिन छपने के कारण जानते हैं या फिर प्रकाशन स्थल सहित अनेकानेक केंद्रों में नियुक्त संवाददाताओं को उनके सामाजिक संपर्कों के कारण। संपादकीय कक्ष में दिन या रात पाली में कई-कई घंटे बैठकर अखबार की पृष्ठ सज्जा व उसे अंतिम रूप देने वाले डेस्क संपादक अमूमन पृष्ठभूमि में ही रहे आते हैं। सलीम-जावेद के पहले संवाद लेखकों को कौन जानता था? इनकी भूमिका पर बाद में लिखूंगा, लेकिन संवाददाताओं के कारण यदि कभी पाठकों की भूरि-भूरि प्रशंसा मिलती है तो कभी विचित्र स्थिति भी पेश आ जाती है। उदाहरण के लिए यह सच्चा किस्सा सुन लीजिए। यह सन् 65-66 की बात होगी। पंडरिया (कबीरधाम ज़िला) के संवाददाता एक दिन गुस्से में भरकर प्रेस आए। दरयाफ्त किया- उनके भेजे समाचार कई दिन से नहीं छप रहे हैं। क्या बात है? प्रांतीय डेस्क के प्रभारी ने उन्हें मेरे पास भेज दिया। मैंने उनसे प्रतिप्रश्न किया- आप रोज-रोज थानेदार के खिलाफ समाचार क्यों भेजते हैं? एक-दो बार छाप दिया, लेकिन हर दिन तो ऐसा नहीं कर सकते। इस पर उनका उत्तर खासा दिलचस्प था। थानेदार रोज मेरे घर के सामने से निकलता है। मुझे देखकर भी नमस्ते नहीं करता। ऐेसे में गांव में मेरी क्या इज्जत रह जाएगी? मैंने संवाददाता महोदय को समझाने की कोशिश की लेकिन वे नहीं माने। अंतत: कुछ दिनों बाद हमें उनके स्थान पर दूसरा व्यक्ति नियुक्त करना पड़ा।
दरअसल, भारतीय समाज अखबारनवीसों को विशिष्ट श्रेणी का नागरिक मानकर चलता है। और भला ऐसा क्यों न हो? गांधी, नेहरू, तिलक, सुभाष, राजाजी सबने तो स्वाधीनता संग्राम में अखबार निकालकर अपनी कलम के जौहर दिखलाए थे। उनका असर आज तक चला आ रहा है। कोई व्यक्ति अपने किसी काम के लिए राष्ट्रपति को ज्ञापन भेजता है तो प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री, मंत्री, सांसद, विधायक, कलेक्टर के अलावा उसकी प्रति ''समस्त अखबारों को भेजी जाती है। पत्रकारों के पास नागरिक अपने दुख-दर्द सुनाने आते हैं, उनसे अक्सर भयभीत रहते हैं और अखबार वाले क्या नहीं कर सकते के मिथक में भी विश्वास रखते हैं। ऐसे में एक ग्रामीण संवाददाता यदि थानेदार को नमस्कार करने के बजाय उससे पहल करने की अपेक्षा करे तो इसमें उसका क्या दोष है? एक और सच्चा किस्सा सुन लीजिए। रायपुर का एमजी रोड एक समय ''वन वे" था। किसी हड़बड़ी में मैं गलत दिशा में गाड़ी ले गया। ट्रैफिक सिपाही ने रोका। चालान काटने के लिए नाम, पिता का नाम पूछा। पता देशबन्धु सुनते ही वह रुक गया। वही अखबार जिसके राजनारायण मिश्र मालिक हैं! हां भाई, वही मेरे बॉस हैं। ठीक है। जाओ। आगे से ध्यान रखना।
हम पत्रकारों को इससे एकदम विपरीत स्थितियों का भी सामना करना पड़ता है। दफ्तर में मेरा कक्ष काफी छोटा है। एक दिन धड़धड़ाते हुए सात-आठ लोग कमरे में घुस आए। आप ही संपादक हैं? हां। आज आपने मेरे बारे में कैसे छाप दिया कि मैं शहर का कुख्यात गुंडा हूं, कहते हुए पेपर पटक दिया। मैंने देखा- बीते दिन किसी पुलिस कार्रवाई के सिलसिले में नाम के साथ विशेषण छपा था। मैंने पूछा- इसमें गलत क्या लिखा है? तुम अपने साथियों को लेकर धमक पड़े हो तो यह क्या है? मैं तुम्हें देख लूंगा। ठीक है, उसके लिए प्रतीक्षा क्यों? मैं तो यहीं अकेला निहत्था बैठा हूं। जो चाहो कर लो। उसका दिमाग थोड़ा ठंडा हुआ। मेरी बेटी स्कूल में पढ़ती है।उसे सहेलियों ने आज उल्टी-सीधी सुनाई। अगर बेटी के बारे में इतना सोचते हो तो ऐसे काम ही क्यों करते हो? मैं उस लड़के के पिता को जानता था। उन्होंने सुनील दत्त की फिल्म 'साधना" से प्रेरणा ले विवाह किया था। मैंने उसके पिता की याद दिलाई तो उसका स्वर एकदम नरम हो गया। अपनी बेअदबी के लिए माफी मांगकर वह और उसके साथी चले गए। मुझे मन ही मन डर तो लगा था, लेकिन बाबूजी ने बरसों पहले जबलपुर में इसी तरह दो बार दादा लोगों को शांत किया था। वे प्रसंग मेरे ध्यान में थे।
इन संस्मरणों में खास कुछ भी नहीं है। ये पत्रकारों की सामान्य दिनचर्या के हिस्से हैं। किसी भी अन्य व्यवसाय में और किसी भी व्यक्ति के जीवन में ऐसे खट्टे-मीठे अनुभव आते होंगे। हम कभी-कभार हवा के घोड़े पर सवार होते हैं तो अक्सर हमें जमीन पर ही चलना होता है। एक समय मैंने नोटिस किया कि पत्रकार गण किसी कार्यक्रम में गए तो उचित सत्कार न होने के कारण बहिष्कार करके लौट आए। मैंने देशबन्धु में अपने साथियों को हिदायत दी कि यदि आप किसी आयोजन को व्यापक जनहित में मानकर रिपोर्टिंग करने जा रहे हैं तो काम पूरा करके लौटिए। सुविधाओं की चिंता मत कीजिए। अगर पूरे समय खड़े रहकर कवरेज करना है तो वह भी कीजिए। आखिरकार हम पाठकों के प्रति उत्तरदायी हैं। सुप्रसिद्ध अमेरिकी पत्रकार जेम्स रेस्टन के संस्मरणों से मैंने दो बातें जानी थीं। एक- व्हाइट हाउस की पत्रकार वार्ता में अधिकृत संवाददाता ही सामने बैठते हैं। संयोग से यदि प्रधान संपादक भी आ जाए तो वह पीछे खड़ा होगा। दो- जब पत्रकार अमेरिकी राष्ट्रपति के साथ दौरे पर जाते हैं तो अखबार उनका अनुमानित यात्रा व्यय राष्ट्रपति भवन को भेज देता है। मुफ्त की सैर नहीं होती। यह शायद एक कारण है कि अमेरिका में आज भी पत्रकार राष्ट्रपति का विरोध करने का साहस जुटा पाते हैं।
#देशबंधु में 26 सितंबर 2019 को प्रकाशित

Wednesday, 18 September 2019

देशबन्धु के साठ साल-11


आज जब कारपोरेट पूंजी ने भारत की अर्थव्यवस्था को बेतरह अपने शिकंजे में जकड़ लिया है और विनिवेश जैसी छलपूर्ण संज्ञा की ओट में सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों को निजी पूंजी के हवाले करने का षड़यंत्र लगभग सफल हो चुका है, तब यह स्मरण हो आना स्वाभाविक है कि आज से 50-60 वर्ष पहले सार्वजनिक क्षेत्र के इन्हीं उद्यमों ने भारतवासियों के हृदय में नए सिरे से आत्मविश्वास भर दिया था, मन में नई ऊर्जा का संचार किया था और एक बेहतर भविष्य का स्वप्न हमारी आंखों में तैरने लगा था। छत्तीसगढ़ में पब्लिक सेक्टर के इन उद्यमों के कारण जो परिवर्तन आए, देशबन्धु लंबे समय से उनका साक्षी रहा है।
छत्तीसगढ़ का रेल यातायात उन दिनों दक्षिण-पूर्व रेलवे के अंतर्गत संचालित होता था। जिसका मुख्यालय कलकत्ता में था। बिलासपुर जोन की स्थापना तो बहुत बाद में हुई। हम अखबार वालों का काम सामान्यत: रेलवे के जनसंपर्क विभाग से ही पड़ता था। एक वरिष्ठ अधिकारी रघुवर दयाल (आर. दयाल) तब द.पू. रेलवे के मुख्य जनसंपर्क अधिकारी थे। रायपुर के अखबारों में रेलवे से संबंधित कोई भी खबर छपे तो शाम की बंबई-हावड़ा मेल से उसकी कतरन उनके पास चली जाती थी। यदि उस पर कोई स्पष्टीकरण या निराकरण की आवश्यकता हो तो दिन भर में कार्रवाई पूरी कर लौटती मेल से संपादक को उत्तर भेज दिया जाता था। सरकारी काम-काज में ऐसी फुर्ती और जवाबदेही की आज कल्पना करना भी मुश्किल है।
रेलवे के जनसंपर्क विभाग ने 1964 की मई में एक प्रेस टूर का आयोजन किया। वे हमें भिलाई के निकट स्थापित चरौदा मार्शलिंग यार्ड; बिलासपुर डिवीजन की कार्यप्रणाली; और बिलासपुर से भनवार टांक तक बिछ रही दूसरी रेलवे लाइन से परिचित कराना चाहते थे। मेरे लिए किसी प्रेस टूर पर जाने का यह पहला अवसर था। मालगाड़ी के डिब्बे में प्रथम श्रेणी की एक बोगी लगा दी गई। तीन-चार दिन तक हमारा ठिकाना उसी बोगी में रहा। चरौदा में हमने देखा कि किस तरह भिलाई इस्पात कारखाने के भीतर वैगनों में माल भराई होती है और मार्शलिंग यार्ड में उन वैगनों को अलग-अलग पटरियों पर डालकर विभिन्न दिशाओं के विभिन्न स्टेशनों के लिए पचास-साठ डिब्बों की मालगाड़ियां बनाई जाती हैं। खोडरी, खोंगसरा, भनवार टांक जैसे वनक्षेत्र के बीच बसे लगभग निर्जन रेलवे स्टेशनों पर फर्स्ट क्लास की एकाकी कोच में रात बिताना तो एक नया अनुभव था ही, रेल पटरियां बिछाते मजदूरों की गैंग, जंगल में तंबू तानकर बने रेलवे के अस्थायी दफ्तर व इंजीनियरों आदि के आवास, वहीं भोजन का प्रबंध- यह सब भी पत्रकार की कल्पना को पंख लगाने के लिए क्या कम था? मैंने लौटने के बाद दो किश्तों में अपने अनुभव लिखे।
इस अध्ययन यात्रा के दौरान भिलाई इस्पात संयंत्र के जनसंपर्क विभाग के अधिकारियों से संक्षिप्त परिचय हो गया था। एकाध माह बाद ही भिलाई में पहली पत्रवार्ता में जाने का अवसर मिला। स. इंद्रजीत सिंह तब संयंत्र के जनरल मैनेजर थे (बाद में इसी को प्रबंध संचालक का पदनाम दे दिया गया)। एफ. सी. ताहिलरमानी मुख्य जनसंपर्क अधिकारी थे और के.के. वर्मा आदि उनके अधीनस्थ अधिकारी। इस पत्रवार्ता में लगे जमघट को देखकर मुझे हैरानी हुई। रायपुर से हम 15-20 पत्रकार, साथ में दुर्ग व राजनांदगांव के सभी पत्रों के संवाददाता। श्री सिंह ने संयंत्र की मासिक प्रगति का विवरण पढ़कर सुनाया, दो-चार सवाल हुए और भिलाई होटल में लंच के साथ पत्रवार्ता समाप्त। उस दिन तो नहीं, लेकिन बाद में मैंने श्री ताहिलरमानी को पत्र लिखा कि इस मासिक पत्रवार्ता में हमारे दुर्ग प्रतिनिधि ही भाग लेंगे; रायपुर-राजनांदगांव से कोई नहीं आएगा। धीरे-धीरे अन्य अखबारों ने भी यह पद्धति अपना ली। ध्यान दीजिए कि उस समय तक भिलाई में किसी भी अखबार का दफ्तर या रिपोर्टर तैनात नहीं था। दुर्ग-भिलाई की पहचान एक जुड़वां शहर के रूप में थी।
खैर, भिलाई के जनसंपर्क विभाग की कार्यदक्षता और तत्परता भी गौरतलब थी। जितना में समझता हूं इसकी नींव श्री ताहिलरमानी ने ही डाली थी और उसे स्थिर करने का काम प्रदीप सिंह ने किया। भिलाई के बारे में कोई भी खबर छपे, तुरंत उस पर आधिकारिक प्रतिक्रिया आ जाती थी। जनसंपर्क विभाग पर ही आम नागरिकों को संयंत्र का अवलोकन याने गाइडेड टूर कराने का दायित्व था। छत्तीसगढ़ में जो मेहमान आते थे, उन्हें भिलाई देखने की उत्सुकता होती थी और मेजबानों को भी चाव होता था कि उन्हें भिलाई स्टील प्लांट तथा मैत्रीबाग घुमाने ले जाएं। भिलाई की टाउनशिप भी अपने आप में आकर्षण का केंद्र थी। उस समय की एक मार्मिक खबर कुछ-कुछ याद आती है। एक रशियन इंजीनियर की आकस्मिक मृत्यु मैत्रीबाग से लगे मरौदा जलाशय में हो गई। उसका तेरह साल का बेटा कार लेकर अस्पताल भागे-भागे आया। सबको आश्चर्य हुआ कि इतने छोटे से लड़के ने कैसे कार चला ली!
बैलाडीला लौह अयस्क परियोजना और उसी क्षेत्र में निर्माणाधीन डी.बी.के. रेलवे (किरंदुल-विशाखापटट्नम लाइन) पर चल रहे काम को देखना भी कम रोमांचक नहीं था। उन दिनों जगदलपुर में होटल भी नहीं थे। रायपुर से जगदलपुर की सिंगल लेन सड़क पर, बीच-बीच में लकड़ी के पुलों से गुजरते हुए दस घंटे में यात्रा पूरी हुई थी। गीदम-दंतेवाड़ा तब छोटे-छोटे गांव थे। एक रात हमने भांसी बेस कैंप में तंबुओं में ही गुजारी थी। मई माह में भी रात को कंबल ओढ़ने की जरूरत पड़ गई थी। किरंदुल का मानो तब अस्तित्व ही नहीं था। भांसी से हम जीप से ऊपर डिपाजिट-12 तक गए थे, जहां उत्खनन प्रारंभ होने वाला था। मैं देख रहा था कि कितने ही लोग सामान की बोरियां उठाए धीरे-धीरे पैदल ऊपर चढ़ रहे हैं। उस दिन पहली बार डिपॉजिट-12 पर साप्ताहिक बाजार लगने वाला था। इसके अलावा हमारे पत्रकार दल ने नई रेल लाइन बिछाने के काम का भी अवलोकन किया।
तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) से विस्थापित जनों की एक बस्ती दंडाकारण्य प्रोजेक्ट के अंतर्गत बस्तर में बसाई गई थी। उनमें से कई लोग रेलवे लाइन पर काम कर रहे थे। वरिष्ठ साथी मेघनाद बोधनकर व मैं उनकी कॉलोनी में गए। विपरीत परिस्थितियों के बीच भी उनकी जिजीविषा, परिश्रम, सुरुचिसंपन्नता को उन्होंने जैसे संजोकर रखा था, उससे हम बेहद प्रभावित हुए थे।
कुछ साल बाद शायद 1972 में एक प्रेस टूर में कोरबा जाने का अवसर मिला, जहां बाल्को (जिसे वाजपेयी सरकार ने वेदांता को बेच दिया) के एल्युमीनियम संयंत्र के निर्माण का शुरुआती काम चल रहा था। बाल्को के पहले इंजीनियर आर.पी. लाठ तथा कार्मिक प्रबंधक दामोदर पंडा से पहली बार भेंट हुई। श्री पंडा हमारे पथप्रदर्शक थे और श्री लाठ से आगे चलकर हमारी पारिवारिक मित्रता हुई। देश के नक्शे पर कोरबा एक औद्योगिक नगर के रूप में उभरने के पहले चरण में था। भिलाई, चरौदा, भनवार टांक, भांसी डिपाजिट-12, कोरबा, इन सभी स्थानों पर एक नया भारत मानो अंगड़ाई लेकर उठ रहा था। अंग्रेजों की दो सौ साल की गुलामी ने भारत के आत्मबल, उद्यमशीलता, साहसिकता को नष्ट कर दिया था। उसके विपरीत एक नई फिजां बन रही थी।
देशबन्धु में हमें संतोष था कि हम इस परिवर्तन के गवाह बन रहे हैं। आज जब बात-बात पर सार्वजनिक उद्योगों की निंदा और निजी क्षेत्र की वकालत होती है तो ऐसा करने वालों की समझ पर तरस आता है। क्योंकि हमने देखा, लिखा और छापा है कि सार्वजनिक क्षेत्र ने अपनी गलतियों व कमजोरियों के बावजूद एक सशक्त देश की बुनियाद रखने में कितनी महती भूमिका निभाई है।
#देशबंधु में 19 सितंबर 2019 को प्रकाशित

Friday, 13 September 2019

देशबन्धु के साठ साल-10



''अकाल उत्सव समाप्त हो गया"

अप्रैल 1980 में प्रथम पृष्ठ पर एक सप्ताह तक छपी रिपोर्टिंग श्रृंखला का यही मुख्य शीर्षक था। बीते साल छत्तीसगढ़ में अकाल पड़ा था। इधर इंदिरा गांधी दुबारा प्रधानमंत्री बनकर लौट आई थीं।  केंद्र की जनता पार्टी सरकार को तो मतदाता ने नकार ही दिया था; राज्यों में भी जनता पार्टी की सरकारें बरखास्त कर राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया गया था। मध्यप्रदेश भी उन राज्यों में एक था। छत्तीसगढ़ में अकाल की स्थिति को देखते हुए सरकार ने राहत कार्य प्रारंभ कर दिए थे। इंदिरा जी 23 मार्च को एक दिन के हवाई दौरे पर राहत कार्यों का निरीक्षण करने छत्तीसगढ़ आईं। उनका दौरा भारी व्यस्त था। एक दिन में नौ स्थानों पर जाने का कार्यक्रम था। हमने अपने सभी वरिष्ठ साथियों को अलग-अलग स्थान पर कवरेज करने भेजा। मैं स्वयं रायपुर से लगभग 55 कि.मी. दूर संडी बंगला नामक गांव गया। वहां सिंचाई विभाग की एक सौ साल पुरानी निरीक्षण कुटी थी, जिसे बंगला कहा जाता था। इंदिराजी को यहां निकटस्थ जर्वे गांव से गुजरने वाली नहर पर राहत कार्य के अंतर्गत गहरीकरण और गाद निकालने जैसे कामों का स्थल निरीक्षण करना था।

 हम इस तरह भिन्न-भिन्न जगहों पर गए। रायपुर के साथी शाम तक लौट आए। दूरदराज के संवाददाताओं ने फोन पर रिपोर्ट दाखिल कर दीं। यह तो सामान्य बात थी। हमने ठीक एक सप्ताह बाद उन्हीं साथियों को दुबारा राहत कार्यस्थल भेजा। देखकर आएं कि एक सप्ताह बाद क्या स्थिति बनी है। सत्येंद्र गुमाश्ता महासमुंद के पास तालाब गहरीकरण स्थल पर गए थे। उन्होंने लौटकर जो रिपोर्ट बनाई वह 8 अप्रैल को छपी। उसका पहला पैराग्राफ कुछ इस तरह था- ''तालाब  में जाने के लिए एक कोने में बाकायदा पार फूटी हुई थी। इसी रास्ते से होकर श्रीमती गांधी को तालाब के भीतर ले जाया गया था। वहां मिट्टी के भीतर एक गेंदे की माला अभी भी दबी पड़ी थी। उसके पास ही जमीन पर जमे सिंदूर की लाली और कुछ दूरी पर नारियल की टूटी हुई ताजा खोपड़ी।  टीका लगाने और आरती उतारने की याद के लिए यह सब काफी था।" इस एक पैराग्राफ ने ही सरकारी कामकाज की तल्ख  हकीकत सामने रख दी थी। हमने इसी वाक्य के आधार पर मुख्य शीर्षक बना धारावाहिक रिपोर्ट छापना शुरू कर दिया। आर.के. त्रिवेदी राष्ट्रपति शासन के दौरान राज्यपाल के सलाहकार थे।  बाद में वे केंद्रीय निर्वाचन आयुक्त बने।  राज्य का प्रशासन उनके ही जिम्मे था। वे इस रिपोर्ट को पढ़कर बेहद खफा हुए। उन्होंने दिल्ली दरबार तक शिकायत की। लेकिन जिन तक शिकायत गई, वे त्रिवेदीजी के मुकाबले देशबन्धु को बेहतर जानते थे। बात वहीं खत्म कर दी गई।

जिस एक समाचार ने हमें अपने पत्रकार कर्म की सार्थकता के प्रति आश्वस्त किया और जो  हमारे लिए गहरे संतोष का कारण बनी, वह 29 फरवरी 1992 को प्रकाशित हुई षी। इस भीतर तक हिला देने वाले समाचार को सरगुजा के तत्कालीन ब्यूरो प्रमुख कौशल मिश्र ने भेजा था। आदिवासी बहुल सरगुजा अंचल की एक दूरस्थ पहाड़ी बसाहट में रिबई पंडो नामक आदिवासी के पोते बाबूलाल की भूख के चलते अकाल मृत्यु हो गई थी। एक-दो दिन बाद इस बच्चे की मां ने भी भूख से दम तोड़ दिया। इनके अंतिम संस्कार के लिए रिबई को अपनी दो एकड़ जमीन दो सौ रुपए में गिरवी रखना पड़ी।  खबर छपते ही जिला प्रशासन तो क्या राज्य सरकार और केंद्र सरकार तक हरकत में आई।  जिला प्रशासन ने जैसा कि अमूमन होता है खबर पर लीपापोती करने की कोशिश की। आनन-फानन में रिबई पंडो की झोपड़ी में अनाज पहुंचा दिया गया। देशबन्धु पर गलत खबर छापकर सनसनी फैलाने का आरोप भी लगाया गया, लेकिन सच्चाई सामने आ चुकी थी और उसे दबाना मुमकिन नहीं था। सच्चाई जानने प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिंहराव  मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री सुंदरलाल पटवा के साथ 7 अप्रैल 1992 को सरगुजा पहुंचे।

सरगुजा की यह खबर तो एक त्रासदी घटित हो जाने के बाद प्रकाशित हुई, लेकिन हमारे संवाददाता खेमराज देवांगन एक ऐसी रिपोर्ट लेकर आए, जिसने तीन ग्रामीण महिलाओं को प्रताडि़त होने से बचा लिया। यह समाचार 20 नवंबर 2001 के अंक में प्रकाशित हुआ। वैसे तो हिंदीभाषी क्षेत्र में स्त्री अधिकारों के मामले में छत्तीसगढ़ अन्य राज्यों से काफी बेहतर स्थिति में है, लेकिन टोनही की सामाजिक कुप्रथा से प्रदेश पूरी तरह मुक्त नहीं हो सका है। देखा गया है कि किसी बेसहारा, अशक्त, अक्षम महिला पर टोनही (डायन) होने का आरोप लगाकर समाज उसे कई तरीकों से प्रताडि़त करता है। उसे जात बाहर कर देते हैं। गांव से बाहर भी निकाल देते हैं।  फिर उसकी संपत्ति पर रिश्तेदार या कोई और कब्जा जमा लेते हैं। उपरोक्त रिपोर्ट छपने  के कोई दो-तीन सप्ताह पहले ही एक अन्य गांव में कुछ महिलाओं को टोनही के आरोप में निर्वस्त्र कर गांव की गलियों में घुमाया गया था। इस बीच हमारे संवाददाता को सूचना मिली कि रायपुर से कुछ ही किलोमीटर दूर स्थित बेंद्री गांव में इसी तरह का षडय़ंत्र रचा जा रहा है। खेमराज ने उस गांव जाकर पूरे मामले को समझा और विस्तारपूर्वक रिपोर्ट प्रकाशित की। समाचार का शीर्षक था-''उन्हें आज साबित करना होगा वे टोनही नहीं हैं।" समाचार की प्रशासन तंत्र में अनुकूल प्रतिक्रिया हुई। फौरी कदम उठाए गए और एक अनहोनी होते-होते टल गई। इस रिपोर्ट पर खेमराज देवांगन को स्टेट्समैन का प्रथम पुरस्कार प्राप्त हुआ।

1980-81 में ही प्रकाशित एक रिपोर्ट इन सबसे अलग मिजाज़ की थी और उसके बनने का किस्सा भी दिलचस्प है। रायपुर के ही एक अन्य अखबार में पाठकों के पत्र स्तंभ में एक चार पंक्तियों का संक्षिप्त पत्र छपा- लुड़ेग के बाज़ार में आदिवासी टमाटर लेकर आते हैं और शाम होते-होते औने-पौने दाम पर बेचने के लिए मजबूर हो जाते हैं। मैंने अपने एक सहयोगी गिरिजाशंकर को कहा कि वे लुड़ेग जाएं और पूरी रिपोर्ट तैयार करें। गिरिजा उसी रात निकल पड़े। रायपुर से रायगढ़ ट्रेन से, वहां से बस-ट्रक जो मिले उससे लुड़ेग- रायपुर से लगभग साढ़े तीन सौ कि.मी. दूर मुख्य मार्ग से कटकर, जशपुर जिले का एक आदिवासी ग्राम।  दो दिन बाद लौटकर वे जो रिपोर्ट लाए, वह चौंका देने वाली थी। दो रुपए में पचास किलो टमाटर! आदिवासी अंचल में टमाटर की फसल बहुतायत से होती है। बांस की टोकरियों में भर कई-कई कि.मी. पैदल चलकर आदिवासी लुड़ेग के बाज़ार आते हैं। दिन भर उनका माल कोई नहीं खरीदता। जानबूझ कर। दिन ढलते जब घर जाने का समय हो जाए तो क्या करें? क्या वापिस उतना बोझ लादकर लौटें? तब रांची आदि स्थानों से आए बिचौलिए उनकी मजबूरी  का लाभ उठाकर पानी के भाव टमाटर खरीद लेते हैं। जिस दिन यह खबर छपी, उसी दिन नवनियुक्त मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह रायगढ़ जिले के प्रथम प्रवास पर पहुंचे थे। उन्होंने समाचार देखकर तुरंत कार्रवाई की। घोषणा की कि रायगढ़ जिले में टमाटर आधारित कृषि उद्योग की स्थापना की जाएगी। घोषणा के बाद सरकारी स्तर पर कुछ दिनों तक हलचल होती रही फिर उसे ठंडे बस्ते में डाल दिया गया।

#देशबंधु में 12 सितंबर 2019 को प्रकाशित

Wednesday, 4 September 2019

देशबन्धु के साठ साल-9


16 सितंबर 1980 का दिन देशबन्धु के इतिहास में, मुहावरे की भाषा में कहूं तो, स्वर्णाक्षरों में अंकित है। दो दिन पहले दा राजनारायण मिश्र को हमने कलकत्ता (अब कोलकाता) रवाना किया था और अब उनसे एक खबर पाने की बेसब्री से प्रतीक्षा कर रहे थे। दरअसल, प्रतिष्ठित अंग्रेजी समाचारपत्र ''द स्टेट्समैन" ने ''स्टेट्समैन अवार्ड फॉर एक्सीलेंस इन रूरल रिपोर्टिंग" की स्थापना उसी वर्ष की थी। श्रेष्ठ ग्रामीण पत्रकारिता के लिए प्रथम, द्वितीय, तृतीय ऐसे तीन पुरस्कार पहली बार 1979 में छपी रिपोर्टों पर दिए जाने थे। हमने फरवरी-मार्च 80 में अपने साथियों की लिखी रिपोर्टं उन्हें भेज दी थीं। जुलाई में एक उत्साहवर्धक सूचना भी उनसे मिल गई थी कि राजनारायण मिश्र की एक रिपोर्ट को पुरस्कार हेतु चुना गया है। यह नहीं बताया गया था कि दा को तीन में कौन सा पुरस्कार मिलेगा। द स्टेट्समैन का स्थापना दिवस 16 सितंबर है और उसी दिन पुरस्कार समारोह का आयोजन किया गया था। शाम को दा का फोन आया तो हमारी खुशियों का ठिकाना नहीं था। उनकी रिपोर्ट को प्रथम पुरस्कार मिला था। देश के कोने-कोने से विभिन्न अखबारों से प्राप्त तीन-चार सौ प्रविष्टियों के बीच पुरस्कार मिलने पर गर्व और प्रसन्नता का अनुभव होना स्वाभाविक था।
हमें इस बात का संतोष भी हुआ कि अपने स्थापना काल से लेकर अब तक देशबन्धु ने जिस संपादकीय नीति का वरण किया, उसे राष्ट्रीय स्तर पर और वह भी अपनी पत्रकार बिरादरी के बीच, मान्यता मिली। रॉबर्ट फ्रास्ट की कविता- ''द रोड नॉट टेकन एकाएक मानो चरितार्थ हो गई। कविता की पंक्तियां हैं- ''टू रोड्स डाइवर्जड इन द वुड्स, एंड आई, आई टुक द वन, लैस ट्रॅवल्ड बाई; एंड देट हैज़ मेड ऑल द डिफरेंस"। इसका सरल अनुवाद होगा- वन में दो पगडंडियां फूट रही थीं, मैंने वह चुनी, जिस पर कम लोग ही चले थे, और उसी से हुआ इतना बड़ा फर्क। कम चली राह पर या नई राह खोजने की यह नीति हमने अन्य प्रसंगों में भी अपनाई। फिलहाल ग्रामीण पत्रकारिता की ही चर्चा करें। स्टेट्समैन अवार्ड के पहले वर्ष में ही पहला पुरस्कार हासिल करने से जो शुरूआत हुई, वह लंबे समय तक चलती रही। देशबन्धु के पत्रकारों ने यह पुरस्कार अब तक कुल मिलाकर ग्यारह बार हासिल किया। सत्येंद्र गुमाश्ता ने एक अलग रिकॉर्ड कायम किया। उन्हें अलग-अलग सालों में तीसरा, दूसरा और पहला पुरस्कार मिले। धमतरी के ज़ियाउल हुसैनी को शायद दो बार पुरस्कार मिला। इनके अलावा गिरिजाशंकर, नथमल शर्मा, पवन दुबे, प्रशांत कानस्कर, खेमराज देवांगन भी पुरस्कृत हुए।
ग्रामीण और विकासपरक पत्रकारिता के प्रति बाबूजी का आग्रह प्रारंभ से ही था। एक समाचार माध्यम के रूप में हमारी भूमिका यदि एक ओर कल्याणकारी राज्य की अवधारणा के अनुरूप लोकहित की योजनाओं व कार्यक्रमों की सूचना जन-जन तक पहुंचाना है; तो दूसरी ओर आम जनता की आशा-आकांक्षा, सुख-दु:ख को शासन के ध्यान में लाना भी है। यदि इस दूसरी भूमिका में बहुसंख्यक ग्रामीण समाज के प्रति दुर्लक्ष्य करें तो फिर पत्रकारिता के व्यवसाय में बने रहने का हमारा औचित्य और अधिकार ही क्या है? इसी सोच के अनुरूप हमने ग्रामीण क्षेत्र में अपने संवाददाताओं को लगातार प्रोत्साहित किया, मुख्यालय से वरिष्ठ साथियों को जब आवश्यक समझा, दूरस्थ गांवों तक कवरेज के लिए भेजा तथा अन्य उपाय किए। मैं कह सकता हूँ कि अखबारों का कारपोरेटीकरण होने के पहले तक मध्यप्रदेश में देशबन्धु ही ऐसा पत्र था जिसकी रिपोर्टों का तत्काल संज्ञान शासन-प्रशासन में लिया जाता था और उन पर यथासंभव उचित कार्रवाई भी होती थी।
इस दिशा में एक नया प्रयोग देशबन्धु ने 1968 में किया। बिलासपुर के निकट अकलतरा के पत्रकार परितोष चक्रवर्ती को हमने बाकायदा पर्यटक संवाददाता नियुक्त किया। परितोष कोई एक गांव चुनकर वहां जाते थे और दिन-दिन भर रुक जनता से चर्चा के बाद उस स्थान पर विस्तृत फीचर तैयार करते थे। संवाददाता पानी में रहकर मगरमच्छ से बैर मोल नहीं लेना चाहते थे, उनके लिए यह सुकून की बात थी। वे गांव के प्रभुओं से कह सकते थे कि हैड ऑफिस से पत्रकार आया था। उसने जो लिखा, उस पर हम क्या कर सकते थे। लेकिन मुझे ध्यान आता है कि स्वयं परितोष को एकाधिक बार ऐसे वर्चस्ववादी जनों का विरोध और नाराजगी झेलना पड़ी थी। आगे चलकर परितोष ने एक कहानीकार और उपन्यासकार के रूप में हिंदी जगत में अपनी पहचान कायम की। उन्होंने बांग्ला के दो-तीन उपन्यासों का भी हिंदी रूपांतर किया। किसी बात पर नाराज होकर उन्होंने मुझे खलनायक बनाकर भी एक कहानी लिखी थी, लेकिन अभी तीन-चार साल पहले प्रकाशित उनके उपन्यास ''प्रिंटलाईन" में परितोष ने देशबन्धु के दिनों को मोहब्बत के साथ याद किया है जिसमें मेरे प्रति भी उनका सदाशय ही व्यक्त हुआ है। खैर, यह बात यूं ही याद आ गई।
देशबन्धु की ग्रामीण रिपोर्टिंग के अध्याय में बहुत से स्मरणीय प्रसंग हैं। आदिवासी अंचल कांकेर के हमारे तत्कालीन संवाददाता बंशीलाल शर्मा एक अनोखे पत्रकार थे। वे दूर-दराज के गांवों का नियमित दौरा करते थे और प्रशासन की आंखें खोल देने वाली तथ्यपरक रिपोर्टें लेकर आते थे। उन्होंने अबूझमाड़ के दुर्गम इलाके की एक नहीं, दो बार साइकिल से कठिन यात्रा की थी। शायद दूसरी बार राजनारायण मिश्र उनके साथ थे। पंद्रह दिन की यात्रा में न रहने का ठिकाना, न खाने का। गांव में आदिवासी अपनी सामर्थ्य के अनुसार जैसा सत्कार कर दें, वही स्वर्ग समान। जिस इलाके में सिर्फ पगडंडियों पर चलना हो, वहां साइकिल से यात्रा करना भी दुस्साहस ही था। अबूझमाड़ में सरकार कैसे चलती थी, इसका एक प्रत्यक्षदर्शी अनुभव मेरा अपना है। मई 1972 में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी अबूझमाड़ का प्रवेशद्वार माने जाने वाले ग्राम ओरछा के प्रवास आईं। मैं रात भर जीप से यात्रा कर वहां पहुंचा था। इंदिराजी का हेलीकॉप्टर उतरा। उन्होंने बड़े प्रेम से आदिवासियों से बातचीत की। ग्राम पंचायत को एक ट्रांजिस्टर भेंट किया। बच्चों को बिस्किट-चॉकलेट बांटे। फिर अमेरिकी सहायता (यूएसएड) से बने एक हैंडपंप का उद्घाटन किया। सच्चाई यह थी कि नीचे छोटे डोंगर की झील से टैंकरों में पानी लाकर ऊपर एक बड़े गड्ढे में भर दिया था। उस पर मोटे-मोटे तखत रख उन पर रिग मशीन खड़ी कर दी थी। इंदिराजी ने हैंडपंप चलाया तो पहले से एकत्र पानी की ही धार उससे निकली। वे जो ट्रांजिस्टर उपहार दे गईं थीं, उसे भी कोई राजस्व कर्मचारी अपने घर ले गया। रिपोर्ट छपी तो ट्रांजिस्टर पंचायत घर में वापिस आया, लेकिन जो बड़ा घोटाला हुआ था, उसका क्या हुआ, पता नहीं चला।
ग्रामीण समाज के साथ हमने सिर्फ समाचार के स्तर पर ही रिश्ता कायम नहीं किया, बल्कि उनके जीवन में बेहतरी लाने की दिशा में भी एक छोटा कदम उठाया। इसकी प्रेरणा मुझे हिंदुस्तान टाइम्स के तत्कालीन संपादक बी.जी. वर्गीज से मिली। उन्होंने दिल्ली से कोई 50-60 कि.मी. दूर छातेरा नामक एक गांव को अंगीकृत कर उसकी विकास में भागीदार बनने की अनूठी पहल की थी। हिंदुस्तान टाइम्स के पत्रकार छातेरा जाते, वहां की समस्याओं और आवश्यकताओं को समझते और उन्हें संबंधित अधिकारियों के ध्यान में लाते, ताकि समाधान हो सके। इसके लिए हर सप्ताह ''आवर विलेज छातेरा" शीर्षक से एक कॉलम प्रकाशित होता था।
हमने भी ऐसा ही कुछ करने की ठानी। हमारे साथियों ने खोजबीन कर राजिम और चंपारन के बीच लखना नामक गांव का चयन किया। इस गांव के विकास में सहभागी बनने के लिए अपने प्रतिनिधि के रूप में मैंने सत्येंद्र गुमाश्ता को मनोनीत किया। वे हर सप्ताह लखना जाते, वहां की स्थितियों का अवलोकन करते और ''हमारा गांव लखना शीर्षक कॉलम में उनका वर्णन करते। वे देशबन्धु की ओर से विभिन्न सरकारी कार्यालयों में भी जाते और गांव की समस्याओं का निराकरण करने अधिकारियों को प्रेरित करते। लखना गांव बरसात में टापू बन जाता था। तीन तरफ महानदी, एक तरफ उसमें मिलने वाला बरसाती नाला। एक पुलिया बन जाने से बारहमासी रास्ता खुल जाता। यह काम हुआ। शिक्षा, स्वास्थ्य, पशुचिकित्सा, दुग्धपालन इत्यादि कई विषयों पर हमारी इस मुहिम ने ध्यान आकर्षित करवाया। लखना में अब तक बिजली नहीं पहुंची थी। बिजली विभाग से संपर्क साध कर यह काम भी हुआ। गांव में स्ट्रीट लाइट लगा दी गई। मैं उसके दो-चार दिन बाद वहां गया। शाम के समय जब स्ट्रीट लाइट का उजाला फैल चुका था। ग्रामवासियों से हमारी बातचीत हुई। एक जन ने जो बात कही, वह आज तक मेरे कानों में गूंजती है। उसने कहा- ''लाइट आ जाने से हमारी जिंदगी बढ़ गई। अब तक हम सात-साढ़े सात बजे तक घरों में बंद हो जाते थे। अंधेरे में और करते भी क्या। लेकिन अब देखिए, रात के नौ बजे तक लोग-बाग घरों के बाहर बैठे हैं। बच्चे खेल रहे हैं। आदमी-औरत अपनी-अपनी मंडली में बैठे हैं।"
अभी दो साल पहले रायपुर रेलवे स्टेशन पर मैं ट्रेन की प्रतीक्षा में खड़ा था। एक सज्जन आए। आप ललित सुरजन हैं? हां कहने पर वे उत्साहित हुए। अपना परिचय दिया- मैं लखना का हूं। आपके अखबार ने हमारे गांव की तस्वीर बदल दी। उनके दिए इस सर्टिफिकेट को मैंने मन की दीवाल पर मढ़ लिया है।
#देशबंधु में 05 सितम्बर 2019 को प्रकाशित