Wednesday, 4 September 2019

देशबन्धु के साठ साल-9


16 सितंबर 1980 का दिन देशबन्धु के इतिहास में, मुहावरे की भाषा में कहूं तो, स्वर्णाक्षरों में अंकित है। दो दिन पहले दा राजनारायण मिश्र को हमने कलकत्ता (अब कोलकाता) रवाना किया था और अब उनसे एक खबर पाने की बेसब्री से प्रतीक्षा कर रहे थे। दरअसल, प्रतिष्ठित अंग्रेजी समाचारपत्र ''द स्टेट्समैन" ने ''स्टेट्समैन अवार्ड फॉर एक्सीलेंस इन रूरल रिपोर्टिंग" की स्थापना उसी वर्ष की थी। श्रेष्ठ ग्रामीण पत्रकारिता के लिए प्रथम, द्वितीय, तृतीय ऐसे तीन पुरस्कार पहली बार 1979 में छपी रिपोर्टों पर दिए जाने थे। हमने फरवरी-मार्च 80 में अपने साथियों की लिखी रिपोर्टं उन्हें भेज दी थीं। जुलाई में एक उत्साहवर्धक सूचना भी उनसे मिल गई थी कि राजनारायण मिश्र की एक रिपोर्ट को पुरस्कार हेतु चुना गया है। यह नहीं बताया गया था कि दा को तीन में कौन सा पुरस्कार मिलेगा। द स्टेट्समैन का स्थापना दिवस 16 सितंबर है और उसी दिन पुरस्कार समारोह का आयोजन किया गया था। शाम को दा का फोन आया तो हमारी खुशियों का ठिकाना नहीं था। उनकी रिपोर्ट को प्रथम पुरस्कार मिला था। देश के कोने-कोने से विभिन्न अखबारों से प्राप्त तीन-चार सौ प्रविष्टियों के बीच पुरस्कार मिलने पर गर्व और प्रसन्नता का अनुभव होना स्वाभाविक था।
हमें इस बात का संतोष भी हुआ कि अपने स्थापना काल से लेकर अब तक देशबन्धु ने जिस संपादकीय नीति का वरण किया, उसे राष्ट्रीय स्तर पर और वह भी अपनी पत्रकार बिरादरी के बीच, मान्यता मिली। रॉबर्ट फ्रास्ट की कविता- ''द रोड नॉट टेकन एकाएक मानो चरितार्थ हो गई। कविता की पंक्तियां हैं- ''टू रोड्स डाइवर्जड इन द वुड्स, एंड आई, आई टुक द वन, लैस ट्रॅवल्ड बाई; एंड देट हैज़ मेड ऑल द डिफरेंस"। इसका सरल अनुवाद होगा- वन में दो पगडंडियां फूट रही थीं, मैंने वह चुनी, जिस पर कम लोग ही चले थे, और उसी से हुआ इतना बड़ा फर्क। कम चली राह पर या नई राह खोजने की यह नीति हमने अन्य प्रसंगों में भी अपनाई। फिलहाल ग्रामीण पत्रकारिता की ही चर्चा करें। स्टेट्समैन अवार्ड के पहले वर्ष में ही पहला पुरस्कार हासिल करने से जो शुरूआत हुई, वह लंबे समय तक चलती रही। देशबन्धु के पत्रकारों ने यह पुरस्कार अब तक कुल मिलाकर ग्यारह बार हासिल किया। सत्येंद्र गुमाश्ता ने एक अलग रिकॉर्ड कायम किया। उन्हें अलग-अलग सालों में तीसरा, दूसरा और पहला पुरस्कार मिले। धमतरी के ज़ियाउल हुसैनी को शायद दो बार पुरस्कार मिला। इनके अलावा गिरिजाशंकर, नथमल शर्मा, पवन दुबे, प्रशांत कानस्कर, खेमराज देवांगन भी पुरस्कृत हुए।
ग्रामीण और विकासपरक पत्रकारिता के प्रति बाबूजी का आग्रह प्रारंभ से ही था। एक समाचार माध्यम के रूप में हमारी भूमिका यदि एक ओर कल्याणकारी राज्य की अवधारणा के अनुरूप लोकहित की योजनाओं व कार्यक्रमों की सूचना जन-जन तक पहुंचाना है; तो दूसरी ओर आम जनता की आशा-आकांक्षा, सुख-दु:ख को शासन के ध्यान में लाना भी है। यदि इस दूसरी भूमिका में बहुसंख्यक ग्रामीण समाज के प्रति दुर्लक्ष्य करें तो फिर पत्रकारिता के व्यवसाय में बने रहने का हमारा औचित्य और अधिकार ही क्या है? इसी सोच के अनुरूप हमने ग्रामीण क्षेत्र में अपने संवाददाताओं को लगातार प्रोत्साहित किया, मुख्यालय से वरिष्ठ साथियों को जब आवश्यक समझा, दूरस्थ गांवों तक कवरेज के लिए भेजा तथा अन्य उपाय किए। मैं कह सकता हूँ कि अखबारों का कारपोरेटीकरण होने के पहले तक मध्यप्रदेश में देशबन्धु ही ऐसा पत्र था जिसकी रिपोर्टों का तत्काल संज्ञान शासन-प्रशासन में लिया जाता था और उन पर यथासंभव उचित कार्रवाई भी होती थी।
इस दिशा में एक नया प्रयोग देशबन्धु ने 1968 में किया। बिलासपुर के निकट अकलतरा के पत्रकार परितोष चक्रवर्ती को हमने बाकायदा पर्यटक संवाददाता नियुक्त किया। परितोष कोई एक गांव चुनकर वहां जाते थे और दिन-दिन भर रुक जनता से चर्चा के बाद उस स्थान पर विस्तृत फीचर तैयार करते थे। संवाददाता पानी में रहकर मगरमच्छ से बैर मोल नहीं लेना चाहते थे, उनके लिए यह सुकून की बात थी। वे गांव के प्रभुओं से कह सकते थे कि हैड ऑफिस से पत्रकार आया था। उसने जो लिखा, उस पर हम क्या कर सकते थे। लेकिन मुझे ध्यान आता है कि स्वयं परितोष को एकाधिक बार ऐसे वर्चस्ववादी जनों का विरोध और नाराजगी झेलना पड़ी थी। आगे चलकर परितोष ने एक कहानीकार और उपन्यासकार के रूप में हिंदी जगत में अपनी पहचान कायम की। उन्होंने बांग्ला के दो-तीन उपन्यासों का भी हिंदी रूपांतर किया। किसी बात पर नाराज होकर उन्होंने मुझे खलनायक बनाकर भी एक कहानी लिखी थी, लेकिन अभी तीन-चार साल पहले प्रकाशित उनके उपन्यास ''प्रिंटलाईन" में परितोष ने देशबन्धु के दिनों को मोहब्बत के साथ याद किया है जिसमें मेरे प्रति भी उनका सदाशय ही व्यक्त हुआ है। खैर, यह बात यूं ही याद आ गई।
देशबन्धु की ग्रामीण रिपोर्टिंग के अध्याय में बहुत से स्मरणीय प्रसंग हैं। आदिवासी अंचल कांकेर के हमारे तत्कालीन संवाददाता बंशीलाल शर्मा एक अनोखे पत्रकार थे। वे दूर-दराज के गांवों का नियमित दौरा करते थे और प्रशासन की आंखें खोल देने वाली तथ्यपरक रिपोर्टें लेकर आते थे। उन्होंने अबूझमाड़ के दुर्गम इलाके की एक नहीं, दो बार साइकिल से कठिन यात्रा की थी। शायद दूसरी बार राजनारायण मिश्र उनके साथ थे। पंद्रह दिन की यात्रा में न रहने का ठिकाना, न खाने का। गांव में आदिवासी अपनी सामर्थ्य के अनुसार जैसा सत्कार कर दें, वही स्वर्ग समान। जिस इलाके में सिर्फ पगडंडियों पर चलना हो, वहां साइकिल से यात्रा करना भी दुस्साहस ही था। अबूझमाड़ में सरकार कैसे चलती थी, इसका एक प्रत्यक्षदर्शी अनुभव मेरा अपना है। मई 1972 में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी अबूझमाड़ का प्रवेशद्वार माने जाने वाले ग्राम ओरछा के प्रवास आईं। मैं रात भर जीप से यात्रा कर वहां पहुंचा था। इंदिराजी का हेलीकॉप्टर उतरा। उन्होंने बड़े प्रेम से आदिवासियों से बातचीत की। ग्राम पंचायत को एक ट्रांजिस्टर भेंट किया। बच्चों को बिस्किट-चॉकलेट बांटे। फिर अमेरिकी सहायता (यूएसएड) से बने एक हैंडपंप का उद्घाटन किया। सच्चाई यह थी कि नीचे छोटे डोंगर की झील से टैंकरों में पानी लाकर ऊपर एक बड़े गड्ढे में भर दिया था। उस पर मोटे-मोटे तखत रख उन पर रिग मशीन खड़ी कर दी थी। इंदिराजी ने हैंडपंप चलाया तो पहले से एकत्र पानी की ही धार उससे निकली। वे जो ट्रांजिस्टर उपहार दे गईं थीं, उसे भी कोई राजस्व कर्मचारी अपने घर ले गया। रिपोर्ट छपी तो ट्रांजिस्टर पंचायत घर में वापिस आया, लेकिन जो बड़ा घोटाला हुआ था, उसका क्या हुआ, पता नहीं चला।
ग्रामीण समाज के साथ हमने सिर्फ समाचार के स्तर पर ही रिश्ता कायम नहीं किया, बल्कि उनके जीवन में बेहतरी लाने की दिशा में भी एक छोटा कदम उठाया। इसकी प्रेरणा मुझे हिंदुस्तान टाइम्स के तत्कालीन संपादक बी.जी. वर्गीज से मिली। उन्होंने दिल्ली से कोई 50-60 कि.मी. दूर छातेरा नामक एक गांव को अंगीकृत कर उसकी विकास में भागीदार बनने की अनूठी पहल की थी। हिंदुस्तान टाइम्स के पत्रकार छातेरा जाते, वहां की समस्याओं और आवश्यकताओं को समझते और उन्हें संबंधित अधिकारियों के ध्यान में लाते, ताकि समाधान हो सके। इसके लिए हर सप्ताह ''आवर विलेज छातेरा" शीर्षक से एक कॉलम प्रकाशित होता था।
हमने भी ऐसा ही कुछ करने की ठानी। हमारे साथियों ने खोजबीन कर राजिम और चंपारन के बीच लखना नामक गांव का चयन किया। इस गांव के विकास में सहभागी बनने के लिए अपने प्रतिनिधि के रूप में मैंने सत्येंद्र गुमाश्ता को मनोनीत किया। वे हर सप्ताह लखना जाते, वहां की स्थितियों का अवलोकन करते और ''हमारा गांव लखना शीर्षक कॉलम में उनका वर्णन करते। वे देशबन्धु की ओर से विभिन्न सरकारी कार्यालयों में भी जाते और गांव की समस्याओं का निराकरण करने अधिकारियों को प्रेरित करते। लखना गांव बरसात में टापू बन जाता था। तीन तरफ महानदी, एक तरफ उसमें मिलने वाला बरसाती नाला। एक पुलिया बन जाने से बारहमासी रास्ता खुल जाता। यह काम हुआ। शिक्षा, स्वास्थ्य, पशुचिकित्सा, दुग्धपालन इत्यादि कई विषयों पर हमारी इस मुहिम ने ध्यान आकर्षित करवाया। लखना में अब तक बिजली नहीं पहुंची थी। बिजली विभाग से संपर्क साध कर यह काम भी हुआ। गांव में स्ट्रीट लाइट लगा दी गई। मैं उसके दो-चार दिन बाद वहां गया। शाम के समय जब स्ट्रीट लाइट का उजाला फैल चुका था। ग्रामवासियों से हमारी बातचीत हुई। एक जन ने जो बात कही, वह आज तक मेरे कानों में गूंजती है। उसने कहा- ''लाइट आ जाने से हमारी जिंदगी बढ़ गई। अब तक हम सात-साढ़े सात बजे तक घरों में बंद हो जाते थे। अंधेरे में और करते भी क्या। लेकिन अब देखिए, रात के नौ बजे तक लोग-बाग घरों के बाहर बैठे हैं। बच्चे खेल रहे हैं। आदमी-औरत अपनी-अपनी मंडली में बैठे हैं।"
अभी दो साल पहले रायपुर रेलवे स्टेशन पर मैं ट्रेन की प्रतीक्षा में खड़ा था। एक सज्जन आए। आप ललित सुरजन हैं? हां कहने पर वे उत्साहित हुए। अपना परिचय दिया- मैं लखना का हूं। आपके अखबार ने हमारे गांव की तस्वीर बदल दी। उनके दिए इस सर्टिफिकेट को मैंने मन की दीवाल पर मढ़ लिया है।
#देशबंधु में 05 सितम्बर 2019 को प्रकाशित

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