Wednesday 9 April 2014

आम चुनाव और एन.जी.ओ.


यह
हर कोई जानता है कि जनतंत्र के तीन स्तंभ होते हैं-विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका। इन तीनों की अपनी-अपनी स्वायत्त भूमिकाएं हैं और इनके बीच इस तरह से शक्ति संतुलन होने की अपेक्षा की जाती है कि जनतंत्र की इमारत में दरार न पड़ने पाए। इस व्यवस्था में एक नया आयाम पत्रकारिता के विकास के साथ आ जुड़ा और मीडिया को जनता के बीच चौथे स्तंभ के रूप में मान्यता मिल गई। ऐसी सामान्य धारणा बन गई कि व्यवस्था के औपचारिक ढांचे में अगर कहीं कोई कमजोरी आएगी तो मीडिया एक सजग प्रहरी के तौर पर उसकी ओर ध्यान आकर्षित करेगा ताकि यथासमय उस कमजोरी को दूर किया जा सके। मैं समझता हूं कि पूरी दुनिया में एक दौर में अखबारों ने इस रोल को पूरी गंभीरता के साथ स्वीकार किया, आज की वास्तविकता भले ही कुछ और हो। यह याद रखना चाहिए कि औपचारिक रूप से स्थापित स्तंभों और जनमान्यता वाले चौथे स्तंभ के बीच कभी बहुत मधुर संबंध या नैकटय नहीं रहा और जब ऐसा होने लगा तो उसकी साख में कमी आने लगी।

इधर हमने देखा है कि इस संरचना में सिविल सोसायटी के नाम से एक पांचवां स्तंभ खड़ा हो गया है। इस नए स्तंभ के निर्माण के पीछे दो मुख्य कारण दिखाई देते हैं। एक तो जनतांत्रिक व्यवस्था की आधारभूत तासीर ही ऐसी है कि उसमें असहमति व मतवैभिन्न्य की गुंजाइश सदा बनी रहती है। दूसरे जनतंत्र का लक्ष्य लोककल्याण होता है और उसके लक्ष्यों को पाने के लिए प्रशासन की औपचारिक सरणियां कभी पर्याप्त नहीं होतीं याने कार्यक्रम लागू करने के लिए एक बंधे-बंधाएं ढांचे से बाहर निकलकर समाज के विभिन्न वर्गों का सहयोग लेना होता है। इस तरह सिविल सोसायटी में एक तरफ वे संस्थाएं हैं जो नीतियों और मुद्दों पर प्रश्न उठाती हैं, जनतांत्रिक सरकार को कटघरे में खडा करती हैं व उससे जवाबदेही की मांग करती हैं। दूसरी तरफ वे संस्थाएं हैं, जो कल्याणकारी कार्यक्रमों को लागू करने में व्यवस्था के साथ सहयोग करती हैं। इन दोनों श्रेणियों के बीच कोई अनिवार्य विरोधाभास नहीं है बल्कि ऐसी अनेक संस्थाएं हैं जो दोनों मोर्चों पर समान रूप से काम करती हैं।

यूं तो सिविल सोसायटी संज्ञा का दायरा बहुत बड़ा है। उसमें छात्रसंघ, ट्रेड यूनियन, चेम्बर ऑफ कामर्स, महिला मंडल- सब आ जाते हैं, लेकिन अभी हम सिविल सोसायटी के उस बड़े और प्रमुख अंग की बात करने जा रहे हैं जिसे एन.जी.ओ. (गैर सरकारी संगठन) कहा जाता है। इसका रूप इतना वृहद हो चुका है कि अब उसे सेक्टर कहा जाने लगा है। संयुक्त राष्ट्र संघ से लेकर विभिन्न देशों की सरकारें इस क्षेत्र को मान्यता देती हैं व उनके साथ संवाद करती हैं। ऐसा माना जाता है कि ये गैर सरकारी संगठन जमीनी स्तर पर काम करते हैं, और उनके साथ सलाह-मशविरा करते रहने से लोकहितैषी नीतियों व कार्यक्रमों को बेहतर तरीके से लागू करने में मदद मिल सकती है। कुल मिला कर एन.जी.ओ. सेक्टर को जनतंत्र के पांचवां स्तंभ के रूप में मान्यता मिल गई है।

भारत जैसे देश में जहां अभी समग्र व समावेशी विकास के लिए बहुत कुछ किया जाना बाकी है स्वाभाविक रूप से एन.जी.ओ. सेक्टर व्यापक स्तर पर अपनी भूमिका निभा रहा है। यह दिलचस्प तथ्य है कि देश के अनेकानेक राजनेताओं ने, भले ही वे किसी भी पार्टी से संबंध रखते हाें, अपनी पहल पर ऐसे कई संगठन स्थापित कर लिए हैं।  इस मामले में सरकारी अधिकारी भी पीछे नहीं हैं। इसका एक कारण तो यह हो सकता है कि अपने एन.जी.ओ. के माध्यम से ये लोग ''इस हाथ दे उस हाथ ले'' की उक्ति को चरितार्थ कर रहे हों। हम ऐसे कई फर्जी एन.जी.ओ. के बारे में जानते हैं जो सत्ताधीशों द्वारा स्थापित किए गए हैं और  सरकार से किसी न किसी कार्यक्रम के नाम पर भरपूर मदद ले लेते हैं। यह एक अलग किस्सा है। अभी तो हमारी दिलचस्पी यह जानने में है कि व्यवस्था के औपचारिक ढांचे से बाहर पांचवें खंभे के रूप में अपनी पहचान बनाने वाले एन.जी.ओ. कार्यकर्ता एकाएक पहला खंभा बनने के लिए बेताब क्यों हो उठे हैं याने वे चुनावी मैदान में क्यों कूद पड़े हैं?

एन.जी.ओ. के साथी भी इस देश के ही नागरिक हैं और उन्हें वही सारे अधिकार उपलब्ध हैं जो आपको-हमको हैं, इसलिए उनके निर्णय पर प्रश्नचिन्ह तो नहीं लगा सकते लेकिन यह जिज्ञासा मन में अवश्य उठती है कि इनकी सोच में ऐसा क्रांतिकारी परिवर्तन क्यों आ गया है! एन.जी.ओ. सेक्टर के एक प्रमुख अभिनेता अरविंद केजरीवाल तो अब पूरी तरह से राजनेता बन ही चुके हैं, लेकिन उनके समानांतर चलने वाले या उनका अनुसरण करने वाले एन.जी.ओ. नेताओं की अब कोई कमी नहीं दिखाई देती। उदाहरण के लिए एक नाम है- जयप्रकाश नारायण का। आंध्रनिवासी श्री नारायण पूर्व आई.ए.एस. अधिकारी हैं। स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति लेकर वे पिछले कई वर्षों से एक सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में काम कर रहे थे। उन्होंने लोकसत्ता नाम से एक संस्था बनाई जिसके मंच से वे चुनाव सुधाराें की वकालत करते रहे हैं।

श्री नारायण ने अब लोकसत्ता को एक राजनैतिक पार्टी में तब्दील कर दिया है। वे पहिले तो  भाजपा के साथ गठजोड़ करने की जुगत भिड़ाते रहे। बात नहीं बनी तो अब अकेले अपने दम पर चुनाव लड़ रहे हैं। मेधा पाटकर का जिक्र मैंने पिछले हफ्ते किया ही था। उनके साथ 'नर्मदा बचाओ आंदोलन' में बहुत से जुझारू कार्यकर्ता भी विभिन्न स्थानों से चुनाव लड़ रहे हैं। इस तरह एन.जी.ओ. क्षेत्र में काम करने वाले ऐसे अनेक जन हैं जो राजनीति के औपचारिक मंच पर अपनी भूमिका तलाश रहे हैं।  इनमें से किसे कितनी सफलता मिलती है यह तो आगे चलकर पता लगेगा, लेकिन यह बात कम से कम मेरी समझ में नहीं आती कि इनका राजनीति में आने का मकसद क्या है।

एक सरल उत्तर शायद यह हो सकता है कि वे जिन मूल्यों और आदर्शों के लिए अब तक संघर्षरत रहे उन्हें प्रभावी ढंग से अमल में लाने के लिए लोकसभा में बैठना जरूरी है। अगर ऐसा है तो मैं कहूंगा कि उन्होंने अपने जीवन का एक लम्बा समय यूं ही जाया किया।  मेधा पाटकर, अरविंद केजरीवाल, जयप्रकाश नारायण- ये सब नेतृत्व क्षमता के धनी लोग हैं बल्कि इनमें नेतृत्व करने की नैसर्गिक प्रतिभा है। ये अगर बीस या पच्चीस साल पहले चुनाव लड़कर लोकसभा में आए होते तो बड़े बांधों का विरोध, सूचना का अधिकार, चुनाव सुधार जैसे मुद्दाें पर अपने तर्क प्रभावी ढंग से सदन में रख सकते थे और उससे शायद कुछ निश्चित नतीजे भी मिलते। लेकिन हो सकता है कि यह मेरी खामख्याली हो!

मेरे मन में एक और प्रश्न उठता है कि आज देश का जो राजनैतिक वातावरण है उसमें ये कहां हैं? आम चुनावों के बाद जिस भी पार्टी की सरकार बनेगी या जो पार्टी किसी संभावित गठजोड़ में सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरेगी वह अपनी घोषित नीतियों और कार्यक्रमों के अनुसार सरकार चलाना चाहेगी। स्पष्ट है कि कांग्रेस और भाजपा दोनों के आर्थिक कार्यक्रम लगभग एक जैसे हैं। यह उम्मीद फिलहाल दोनों से नहीं करना चाहिए कि वे वैश्विक पूंजीवाद के एजेंडे से हटकर काम कर पाएंगे। इन दोनों पार्टियों में अगर कोई फर्क है तो यह कि कांग्रेस बहुलतावाद में अनिवार्य रूप से विश्वास रखती है जबकि भाजपा बहुसंख्यकतावाद में। लेकिन क्या एन.जी.ओ. से जीतकर आने वालों की संख्या इतनी होगी कि वे अपने बलबूते सरकार बना सकें या गठबंधन को प्रभावित कर सकें? अगर ऐसा न हुआ तो क्या वे दो बड़ी पार्टियों के बीच कोई नया रास्ता निकालेंगे या फिर किसी एक तरफ झुक जाएंगे? उसका दीर्घकालीन परिणाम देश की राजनीति में किस रूप में सामने आएगा?
देशबंधु में 10 अप्रैल  2014 को प्रकाशित
 

1 comment:

  1. स्तम्भ अच्छी नींव चाहते हैं ताकि ढाँचा खड़ा रहे । जनतंत्र का ढाँचा शिक्षा की पुख़्ता

    नींव चाहता था जो नहीं डाली जासकी । फिर कच्ची नींव पर तीन स्तंभ खड़े किये गये

    जिनमें ईमानदारी का सीमेंट कम, बेईमानी की रेत ज़्यादा मिलाई गई । चौथे और अब

    पाँचवें स्तंभ को भी खड़ा रहने के लिए पूरा-पूरा नींव पर कम पहिले दो स्तम्भों पर ही

    ज़्यादा टिकना पड़ा।

    परीक्षोन्मुख शिक्षा की बजाय शारीरिक, मांसिक एवं आध्यात्मिक विकासोन्मुख

    शिक्षा की आवश्यकता है।

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