क्या सब कुछ इसी तरह चलता रहेगा?
बस्तर के विकास की बातें होंगी, आदिवासियों को मुख्यधारा में लाने का दावा
होगा, उनके प्रगति करने के संदिग्ध प्रतीक नागर समाज के सामने पेश किए जाते
रहेंगे, नक्सलवाद को जड़ मूल से उखाड़ फेंकने की बड़ी-बड़ी बातें होंगी,
नक्सलियों द्वारा हिंसा का तांडव रुक-रुक कर चलता रहेगा, निर्दोष लोग मारे
जाते रहेंगे-ऐसे लोग जिनके पास जीवनयापन के लिए और कोई अवसर नहीं है,
कायराना हमलों की निंदा खोखली गूंज वाले बड़े शहरों में होती रहेगी, मरने
वालों के परिवारों को मुआवजा मिल जाएगा, रायपुर की शहीद वाटिका में उनके
नाम पर कुछ नए पौधे रोप दिए जाएंगे, अखबारों में चीखती हुई सुर्खियां छपती
रहेंगी, संपादकगण अपने लेखों में बराए दस्तूर शीघ्र समाधान की वकालत करते
रहेंगे, कुछ लोग मृतकों की याद में मोमबत्तियां जला देंगे, कुछ अधपढ़े लोग
लेख लिखकर चिंता व्यक्त करेंगे, कुछ संस्थाएं सभा-सेमिनार कर लेंगी, कुछ
दिन शांति का भ्रम बना रहेगा और फिर एक दिन धमाकों के साथ कुछ और निरीह लोग
नक्सलियों की अविचारित हिंसा का शिकार हो जाएंगे।
पिछले शनिवार को
बस्तर में नक्सलियों ने जो दो अलग-अलग सामूहिक हत्याकांड किए वे एकबारगी तो
हमें सोचने के लिए मजबूर करते हैं, लेकिन इस तरह की नृशंस वारदातों को
भुलाने में हम ज्यादा देर नहीं लगाते। क्या हमारी संवेदनाएं मर चुकी हैं?
क्या हमने सरकार को ईश्वर मानकर सब कुछ उसके ही ऊपर छोड़ दिया है? क्या
हमारी अपनी जीवन स्थितियां इतनी विकट हो गई हैं कि अब हमें सोचने का वक्त
ही नहीं मिलता? क्या हम नियतिवादी हो गए हैं कि अब इस देश में कुछ हो ही
नहीं सकता? क्या हमें किसी मसीहा की तलाश है या किसी जादूगर की जो अपनी
छड़ी घुमाकर नरक को स्वर्ग में बदल देगा या फिर हमने एक समाज के रूप में
विचार करने की, आत्ममंथन करने की, विमर्श की अपनी लंबी परंपरा को पूरी तरह
से तिलांजलि दे दी है? लगता तो है कि ऐसा ही है तब फिर इससे बढ़कर
दुर्भाग्यपूर्ण बात इस प्रदेश के लिए और कुछ नहीं हो सकती। जिस समाज ने
विचारों से नाता तोड़ लिया है उससे ज्यादा गरीब और कौन होगा?
बस्तर में
इस बार नक्सलियों ने एक नहीं, बल्कि दो भयानक घटनाओं को एक दिन एक साथ
अंजाम दिया। इससे एक तो उन्होंने यह संदेश दिया है कि उनका आतंक कायम है और
रहेगा। दूसरे उन्होंने उन सरकारी दावों को एक बार फिर झुठला दिया है कि
हमारा सुरक्षातंत्र मजबूत और चौकस है। सवाल उठता है कि ऐसे वीभत्स कांडों
से उन्हें क्या हासिल हुआ? यह सच्चाई तो नक्सली भी जानते हैं कि वे बस्तर
में अनंतकाल तक अपनी लड़ाई जारी नहीं रख सकते। वे यह भी जानते होंगे कि जिस
कथित माओवादी-लेनिनवादी राज्य व्यवस्था के प्रति उनकी प्रतिश्रुति है वह
भारत में स्थापित कभी नहीं हो सकती। उनके सामने नेपाल का उदाहरण है जहां एक
राजशाही के खिलाफ जीतने में वे सफल हुए, लेकिन अंतत: उन्हें जनतांत्रिक
प्रक्रिया में शामिल होना पड़ा। तो क्या फिर नक्सलवादी कुछ आदर्शवादी
लोगों का ऐसा समूह है, जिसकी आंखों में बेहतर दुनिया के सपने पल रहे हैं या
फिर वह एक ऐसा गिरोह है जो राजनीतिक शब्दावली की ओट में किन्हीं क्षुद्र
स्वार्थों की पूर्ति में निमग्न हैं? विश्व इतिहास बताता है कि बेहतर
व्यवस्था कायम करने के लिए समय-समय पर जनक्रांतियां हुई हैं, लेकिन इनमें
निरीह और निर्दोष जनता को जानबूझ कर कब निशाना बनाया गया? अमेरिका की
युद्धप्रिय सत्ता ''कोलेटेरल डेमेज" का तर्क आगे बढ़ाए तो यह उसकी रणनीति
और चरित्र का हिस्सा है, लेकिन क्या सर्वहारा के लिए लडऩे वाले भी इसी
खोखले तर्क का सहारा लेंगे?बात साफ है। नक्सलबाड़ी से 1967 में जो आंदोलन
शुरू हुआ था वह तो कब का समाप्त हो चुका उसके नेताओं को भी आगे चलकर समझ
आया था कि उन्होंने हिंसा का जो रास्ता चुना था वह ठीक नहीं था। याने आज जो
स्वयं को माओवादी कह रहे हैं, वे जनता की लड़ाई नहीं लड़ रहे बल्कि उनके
मंसूबे कुछ और ही हैं!
बहरहाल, मेरा मानना है कि यदि बस्तर में नक्सली
हिंसा समाप्त कर शांति स्थापना करना है तो उसके लिए नए सिरे से विचार करने
की जरूरत होगी। अब घिसी-पिटी बातों और उपायों से काम नहीं बनेगा। इसमें
नि:संदेह शासन की भूमिका महत्वपूर्ण होगी, लेकिन इसके साथ-साथ राजनैतिक
दलों और अकादमिक संस्थाओं याने विश्वविद्यालयों आदि को भी आगे आना होगा।
मुझे ध्यान आता है कि कुछ वर्ष पूर्व छत्तीसगढ़ विधानसभा में बंद दरवाजों
के भीतर नक्सलवाद पर विचार किया गया था। इसमें पत्रकारों तक को आने की
मनाही थी इसलिए कोई नहीं जानता कि ऐसे महत्वपूर्ण सत्र में क्या निर्णय लिए
गए थे। शासकीय स्तर पर यदा-कदा सेमिनार भी हुए हैं, लेकिन वे भी एक तरह से
बंद कमरे के भीतर ही। मुख्यमंत्री ने कई बार यह कहकर अपने सदाशय का परिचय
दिया है कि वे नक्सलियों के साथ बातचीत के लिए तैयार हैं, लेकिन यह बात कभी
आगे नहीं बढ़ पाई।
मेरा मानना है कि प्रदेश के मुखिया होने के नाते
मुख्यमंत्री को भी अपनी तरफ से अलग तरीके से एक उदार पहल करना चाहिए। अगर
वे प्रदेश के सभी बड़े-छोटे राजनीतिक दलों के प्रतिनिधियों के साथ बैठकर
मुक्तभाव से चर्चा करें तो इससे ऐसे सूत्र शायद मिलें जिनको पकड़कर आगे
बढ़ा जा सके। दरअसल, मुख्यमंत्री की ओर से इस मुद्दे पर विचार-विमर्श की एक
पूरी शृंखला आयोजित होनी चाहिए। वे हमारे इस सुझाव पर गौर करें कि प्रदेश
के दो विश्वविद्यालयों- रायपुर और बस्तर में राष्ट्रीय स्तर पर दो-तीन दिन
की संगोष्ठियां आयोजित हों जिनमें इस विषय से संबंध रखने वाले सभी
अनुशासनों के जानकार लोग शामिल हों। इनमें प्रोफेसर, पत्रकार, पुलिस
अधिकारी, प्रशासनिक अधिकारी, आदिवासी, बुद्धिजीवी सभी हो सकते हैं।
इसी
तरह उद्घाटन और समापन की व्यर्थ औपचारिकताओं को दरकिनार कर दिल्ली या
रायपुर में भी ऐसा कोई सेमिनार हो सकता है जहां मुख्यमंत्री उन लोगों के
साथ बैठें, जिनके पास बस्तर में शांति स्थापना के लिए प्रस्ताव और सुझाव
हों। इस तरह की चर्चाओं के लाभ स्पष्ट हैं। सरकार के काम करने का अपना एक
तौर-तरीका होता है। उसमें पूर्वाग्रह विकसित होने का डर हमेशा बना रहता है।
तब एक ऐसा मोड़ आता है जब सत्तातंत्र के लिए अपनी ही बनाई दीवारों को
तोड़कर आगे बढऩा लगभग रुक जाता है। जब खुली चर्चाएं होंगी तो नई बातें
उठेंगी, और नए सिरे से समाधान ढूंढने की पहल होगी। प्रबंधशास्त्र में एक
मुहावरा आजकल काफी प्रचलित है-''थिकिंग आउट ऑफ बॉक्सÓÓ याने बंधे-बंधाए
दायरे से बाहर निकल कर सोचना। चूंकि यह मुद्दा सरकार से ताल्लुक रखता है
इसलिए दायरे को तोडऩे की पहल सरकार के मुखिया को ही करना पड़ेगी। उनके
मातहत इस काम के लिए उपयुक्त नहीं हैं।
अगर ऐसा हो तो अच्छा ही होगा। इस
बीच सरकार को कुछ बातों पर फौरी महत्व देना चाहिए। कलेक्टर अलेक्स पॉल
मेनन की रिहाई के बाद नक्सली होने के नाम पर जेल में बंद लोगों की प्रकरणों
की समीक्षा के लिए सरकार ने एक उच्च स्तरीय समिति बनाई थी। इस समिति के
काम की क्या प्रगति है? छत्तीसगढ़ के जेलों में नक्सली होने के आरोप में
कितने लोग कैद थे, उनमें से कितनों की रिहाई हुई है? हमें याद नहीं आता कि
सरकार ने इस बारे में अब तक कोई रिपोर्ट जारी की हो। जबकि दूसरी ओर आए दिन
नक्सली होने के नाम पर निर्दोष आदिवासियों को पकड़े जाने की खबरें आती रहती
हैं। इस सिलसिले में सोनी सोढ़ी प्रकरण का जिक्र किया जा सकता है।
कुछ
साल पहले एस्सार कंपनी द्वारा नक्सलियों को गुप्त तरीके से करोड़ों रुपया
भेजने की खबर सामने आई थी। इसमें जिन लोगों के नाम सामने आए उनमें से कुछ
गिरफ्तार हुए, कुछ को जमानत मिली और कुछ पर हाथ डाला ही नहीं गया। इसी
मामले में सोनी सोढ़ी और उसके भतीजे लिंगाराम कोड़ापी को गिरफ्तार किया
गया। सोनी सोढ़ी पर पुलिस ने क्या अत्याचार किए उसकी एक अलग कहानी है,
लेकिन इस आदिवासी महिला को पति की मृत्यु हो जाने पर भी पैरोल पर नहीं
छोड़ा गया, उसे उच्च न्यायालय तक से जमानत नहीं मिल पाई और अंतत: सुप्रीम
कोर्ट ने उसे राहत दी। क्या उसकी यह कथा हमारी व्यवस्था के बारे में कोई
सवाल खड़े नहीं करती?
सरकार को यह आकलन करने की भी आवश्यकता है कि बस्तर
में पांचवी अनुसूची और पेसा कानून का क्रियान्वयन किस रूप में व किस सीमा
तक हो रहा है। प्रदेश में यूं तो पंचायती राज व्यवस्था लागू है, लेकिन
उसमें प्रशासन व सांसद-विधायकों का जो हस्तक्षेप है, वह किसी से छुपा नहीं
है। बस्तर के विकास के लिए एक विशेष प्राधिकरण अलग से बना हुआ है, लेकिन जब
पांचवी अनुसूची लागू है तो प्रदेश सरकार के सीधे नियंत्रण में ऐसे अभिकरण
की जरूरत क्या सचमुच है? ऐसे और भी प्रश्न हैं। नक्सल समस्या के बारे में
सरकार की भी कोई नीतिगत सोच अवश्य होगी, लेकिन उसके बारे में आदिवासी समाज
कितना क्या जानता है? कुल मिलाकर हमारा आशय यही है कि नक्सल समस्या का हल
तभी होगा जब समाज के सभी वर्गों को साथ लेकर एक सुस्पष्ट नीति बनेगी और उस
पर पारदर्शी तरीके से अमल होगा।
देशबन्धु में 17 अप्रैल 2014 को प्रकाशित
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