Friday 23 June 2017

शिक्षा और परीक्षा-2



 पिछले सप्ताह इसी विषय पर चर्चा करते हुए मैंने शिक्षा जगत में स्वायत्तता की बात की थी। इसके साथ-साथ मेरा यह भी मानना है कि भारत जैसे अपार विविधता वाले देश में शिक्षा का विकेन्द्रीकरण भी होना चाहिए। आज जो माहौल है उसे देखते हुए ये दोनों बातें धारा के विपरीत मानी जाएंगी। लेकिन हर समय धारा के साथ बहने में समझदारी नहीं होती। एक तरफ तो हमारे सामने सुभाषित है कि- विद्या मनुष्य को विमुक्त करती है और दूसरी तरफ उसे अनेक तरह के बंधनों में जकडऩे की कोशिश की जा रही है।संस्कृत का यह सुभाषित 'सा विद्या या विमुक्तये न जाने कितने शिक्षण संस्थानों में ध्येय वाक्य के रूप में लिखा होता है, किन्तु इसका पालन करने में किसी की रुचि दिखाई नहीं देती। हम ऋग्वेद की सूक्ति का भी ध्यान करें जिसमें प्रार्थना की गई है कि विश्व की सभी दिशाओं से उत्तम विचारों को हम तक आने दें। जब ज्ञान देने वाली संस्थाओं को सत्ता की प्राचीरों में कैद कर दिया जाएगा तो उत्तम विचार कहां से आएंगे?
मैं पिछले कई दशकों से देख रहा हूं कि शिक्षा में प्रगति और नवाचार के नाम पर जो नित नए निर्णय और प्रयोग हो रहे हैं उनसे देश में संस्थागत शिक्षा के स्तर में निरंतर गिरावट आ रही है। जब शासन द्वारा अनुमोदित शिक्षा व्यवस्था से हटकर अन्यत्र नए प्रयोग होते हैं तो वे भी देखते ही देखते हुक्मरानों को नागवार गुजरने लगते हैं। सच पूछा जाए तो हमारे देश में शिक्षातंत्र वर्गभेद और वर्णभेद को मिटाने के बजाय उसे पुख्ता करने का काम कर रहा है। यहां एक उदाहरण देना प्रासंगिक होगा। देश की राजधानी दिल्ली में संस्कृति विद्यालय नाम का एक निजी स्कूल है। इस शाला में आम जनता के प्रवेश की कोई गुंजाइश नहीं है। यहां मुख्यत: आईएएस तथा अन्य उच्च सेवाओं में पदस्थ अफसरों के बच्चे ही दाखिला ले सकते हैं। ठीक है आप बड़े आदमी हैं, अपने बच्चों के लिए आपने सबसे अलग एक स्कूल बना लिया है, लेकिन फिर केन्द्र सरकार उच्चवर्ग के इस स्कूल के लिए भी तीन करोड़ रुपया या उससे अधिक की सालाना ग्रांट क्यों देती है?
कुछ दिन पहले फेसबुक पर एक सज्जन ने माकूल टिप्पणी की कि सरकारी नौकरियां सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों के लिए आरक्षित होना चाहिए, जबकि जिनके बच्चे प्राइवेट स्कूलों में पढ़ रहे हैं वे प्राइवेट सेक्टर में काम करें। इस पर एक अन्य सज्जन की टिप्पणी आई कि सरकारी स्कूलों के हाल बेहाल हैं पहले उन्हें दुरुस्त कीजिए। मैं भी यही कह रहा हूं। अगर हमारे राजनेताओं और अफसरों के बच्चे निजी संस्थानों में पढ़ेंगे तो सरकारी स्कूलोंकॉलेजों पर कौन ध्यान देगा। जो लोग  सरकार का नमक खा रहे हैं उन्हें तो सबसे पहले सरकार द्वारा स्थापित संस्थाओं में ही अपनी संतानों को भेजना चाहिए। सत्ताधीश ऐसा नहीं करते क्योंकि वे आम  जनता से दूरी बना कर रखना चाहते हैं। यह स्थिति उस समय नहीं थी जब मैं स्कूल में पढ़ता था। मेरे सहपाठियों में जिला कलेक्टर का बेटा था, तो गुड़पट्टी बनाने वाले एक मामूली से कारीगर का बेटा भी। हम दोस्तों के बीच कोई भेदभाव नहीं था, सब एक-दूसरे के घर आते-जाते थे, साथ-साथ खेलते-कूदते थे, लड़ते-झगड़ते थे, टिफिन भी मिल -बांट कर खाते थे।
शिक्षा जगत में जब बड़ी हद तक स्वायत्तता का माहौल था तो समाज में शिक्षकों का सम्मान भी होता था। यह सही है कि कुछ लोग इस स्वायत्ता से की गई अपेक्षा पर खरे न उतरकर उसका दुरुपयोग करते थे। उनका प्रतिशत बहुत कम था, परंतु ऐसा करने वालों ने नीति-निर्माताओं को बहाना दे दिया कि वे शिक्षा क्षेत्र में हस्तक्षेप करने लगे। इसका दुष्परिणाम सामने है।  विश्वविद्यालय का उपकुलपति, महाविद्यालय का प्राचार्य और विद्यालय का प्रधानाध्यापक अपने-अपने स्तर पर ये सम्मान के पात्र होते थे।
जनता की निगाहों में इनका ओहदा कमिश्नर, कलेक्टर या मंत्री से कम नहीं होता था। पंडित रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय, रायपुर के संस्थापक कुलपति डॉ. बाबूराम सक्सेना के बारे में प्रसिद्ध है कि वे मुख्यमंत्री द्वारिकाप्रसाद मिश्र के रायपुर आगमन पर उनकी अगवानी करने विमानतल नहीं गए। जब मिश्र जी ने संदेश भेजकर उन्हें सर्किट हाउस बुलाया तभी वे उनसे मिलने गए। आज तो स्थिति यह है कि  कलेक्टर के सामने वाइस चांसलर की भी कोई हैसियत नहीं रही है। भले ही हिन्दी पर्यायवाची उपकुलपति के बजाय कुलपति क्यों  हो गया हो।
यह इसलिए हो रहा है क्योंकि विधानसभा में बैठकर जो नीतियां बना रहे हैं और मंत्रालय में बैठकर जो निर्णय ले रहे हैं वे अपने बच्चों को सरकारी स्कूल-कॉलेज में पढ़ने नहीं भेजते। उनके बच्चे तो धन्नासेठों के बच्चों के साथ देश-विदेश के अभिजात्य से भरे शिक्षण संस्थानों में पढ़ने जाते हैं। हुक्मरानों की इस पीढ़ी के साथ यह दिक्कत भी है कि देश के राजनीतिक इतिहास से इनका परिचय बहुत क्षीण है।  ये जहां पर हैं वहां सिर्फ हुक्म चलाने के लिए बैठे हैं। इनकी नज़रों में शिक्षक की हैसियत एक मुलाज़िम से अधिक नहीं है।
शिक्षक भी हैं कि उनका अधिकतर समय छठवें-सातवें वेतन आयोग की ओर लगा रहता है, कई शिक्षकों का मन तो उसमें भी नहीं भरता और वे धनोपार्जन के लिए हर तरह से जुटे रहते हैं। ऐसे शिक्षकों की संख्या दिनोंदिन बढ़ती जा रही है। इन्हें शिक्षातंत्र की स्वायत्तता से कोई मतलब नहीं है। अपना काम बन जाए उतना ही काफी है। एकजुटता और संघर्ष के रास्ते पर चलना इन्हें गवारा नहीं है।
यही कारण है कि शिक्षा क्षेत्र में तुगलकी फैसले होते हैं और उन पर कोई सवाल खड़ा नहीं होता। कोठारी कमीशन की रिपोर्ट  पचास साल से ऊपर हो गए। सरकार और शिक्षक दोनों में उसे लागू करने की कोई प्रतिबद्धता नहीं थी तो रिपोर्ट जहां की तहां धरी  गई। आज यदि विश्व में हमें सचमुच अपना रुतबा कायम करना है तो उसके लिए सबसे पहली शर्त शिक्षा में स्वायत्तता लाने की है। सरकार को अपनी भूमिका सहस्राब्दी लक्ष्य और उसके बाद आए टिकाऊ विकास लक्ष्य के अंतर्गत किए गए वादे को पूरा करना तक सीमित रखना चाहिए। आप जीडीपी का छह प्रतिशत शिक्षा पर खर्च करें; यह खर्च कैसे हो, उसकी योजना कैसे बने, कहां कैसे स्कूल-कॉलेज की आवश्यकता है। ये सारे निर्णय शिक्षा विशेषज्ञ लें और इस हेतु समाज के साथ व्यापक परामर्श किया जाए। यह नहीं कि जहां मंत्रीजी का मन हुआ वहां स्कूल खोलने की घोषणा कर दी। इस तरह की सस्ती लोकप्रियता के मोह से हमारे नेताओं को बचना चाहिए।
यह देखकर कौतुक होता है कि मंत्री और अफसर जब मन आए तब किसी सरकारी शाला में क्लास लेने पहुंच जाते हैं। आप निरीक्षण करने जाएं वहां तक तो ठीक है, लेकिन बच्चों को पढ़ाना आपका काम नहीं है और न ही आप इसके लिए प्रशिक्षित हैं। यह सवाल भी उठता है कि आप किसी प्राइवेट स्कूल में जाकर क्लास क्यों नहीं लेते? इसी तरह का काम कुछ समाजसेवी संस्था भी करती हैं। वे अपने सदस्यों से कहती हैं कि खाली समय में जाकर स्कूल में पढ़ाएं। इन्हें नहीं पता कि पढ़ाने की भी एक सुचारु विधि होती है। आपके मन में सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले गरीब बच्चों के प्रति इतना ही दर्द है तो स्कूलों   में नियमित शिक्षक की व्यवस्था करवा दीजिए। उन बच्चों की दुआएं  आपको मिलेंगी। मेरा मानना है कि जैसे शेर जंगल का राजा होता है एक प्राचार्य या प्रधानपाठक को भी अपने संस्थान में उसी रौब के साथ रहना चाहिए। प्रोफेसर उमादास मुखर्जी, प्रोफेसर एसडी मिश्रा, प्रोफेसर रणवीर सिंह शास्त्री जैसे व्यक्ति आदर्श के रूप में हमारे सामने हैं।
मैंने जैसा कि शुरू में कहा हमारे बहुविध देश में शिक्षा का विकेन्द्रीकरण होना भी आवश्यक है। अभी विश्वविद्यालय अनुदान आयोग तथा विभिन्न नियामक संस्थाओं द्वारा पाठ्यक्रम के बारे में जो व्यवस्था की गई है वह कतर्ई संतोषजनक नहीं है। सुना है कि वर्तमान व्यवस्था को और कड़ा किया जा रहा है अगर ऐसा हुआ तो यह दुर्भाग्यपूर्ण होगा। दिल्ली में बैठकर पूरे देश के बारे में एकसार फैसले किसी भी मामले में लेना वांछित नहीं है। शिक्षा के मामले में तो बिल्कुल नहीं। इसी तरह भोपाल या रायपुर में बैठकर भी समूचे प्रदेश के बारे में निर्णय लेने को मैं उचित नहीं मानता।
प्राथमिक शाला स्तर पर बुनियादी पढ़ाई में किसी सीमा तक एकरूपता हो सकती है, लेकिन वहां भी पूरी तरह से नहीं। किसी जिले में स्कूलों में क्या पढ़ाया जाए, यह निर्णय वहां का स्कूल बोर्ड करे, विश्वविद्यालय में वहां के कुलपति और अध्यापक मिलकर तय करें और फिर इतनी निगरानी रखी जाए कि विद्यालय, महाविद्यालय अथवा यूटीडी के परिणाम कैसे आ रहे हैं। उसमें अगर कमजोरी दिखे तो संस्थाप्रमुख उसके लिए जवाबदेह हो। लेकिन ऊपर बैठकर सरकार सबको एक ही लाठी से हांकने की कोशिश करे तो इसका प्रतिकार करना आवश्यक है।

देशबंधु में 22 जून 2017 को प्रकाशित 

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