भारत गणराज्य के सोलहवें राष्ट्रपति का निर्वाचन होने में अब अधिक समय नहीं बचा है। 25 जुलाई को वर्तमान राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी विदा लेंगे। याने अगले दो सप्ताह में राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के निर्वाचन की प्रक्रिया प्रारंभ हो जाएगी। इस बार देश के सर्वोच्च संवैधानिक पद के लिए होने वाला चुनावी मुकाबला काफी दिलचस्प होगा। क्योंकि सत्तापक्ष और विपक्ष के बीच, पहले से ही ज्ञात, वोटों की संख्या में बहुत अधिक अंतर नहीं है। अनुमान होता है कि अरुणाचल, मणिपुर, गोवा और उत्तराखंड में राष्ट्रपति चुनाव को ध्यान में रखकर ही सत्तारूढ़ गठबंधन के सबसे बड़े घटक भाजपा ने सरकारें अस्थिर करने और दलबदल करवाने का खेल खेला था। अरुणाचल में कांग्रेस की सरकार थी जहां अजीबोगरीब और लंबी उठापटक के बाद पूरी पार्टी भाजपा में आ गई है। उतराखंड में अगर कांग्रेस में तोडफ़ोड़ न हुई होती तो क्या विधानसभा चुनावों में भाजपा को जीत मिल सकती थी? गोवा और मणिपुर में तो दलबदल का खेल जैसा हुआ उसने 1967 के हरियाणा की याद ताजा कर दी। इसके बावजूद सत्तारूढ़ गठबंधन के पास संयुक्त विपक्ष के मुकाबले कम वोट हैं। इसे लेकर ही तमाम कयास लगाए जा रहे हैं तथा इस आशंका से इंकार नहीं किया जा सकता कि मतदान की पूर्व संध्या तक तोडफ़ोड़ का सिलसिला जारी रह सकता है।
इस पृष्ठभूमि में विपक्षी दलों ने एक साथ आने की कवायद शुरू कर दी है। विपक्ष के कुछ वरिष्ठ नेताओं का मानना है कि एनडीए का उम्मीदवार राष्ट्रपति बन सकता है, लेकिन अगर विपक्ष में एका कायम हो सका तो इससे भविष्य की राजनीति का रास्ता खुल जाएगा। विपक्ष में ऐसे आशावादी नेता भी हैं जो मानते हैं कि आरएसएस द्वारा जो हिन्दुत्व का एजेंडा देश पर थोपा जा रहा है उसके चलते उत्तर-पूर्व और दक्षिण के राज्य एनडीए प्रत्याशी के विरुद्ध मतदान कर सकते हैं। यद्यपि तीन-चार दिन पहले ही तेलगुदेशम पार्टी के सुप्रीमो एन. चन्द्राबाबू नायडू ने एक साक्षात्कार में स्पष्ट कहा है कि 2019 तक के चुनाव में वे भाजपा के साथ मिलकर लड़ेंगे। उल्लेखनीय है कि इसके दो दिन बाद तेलगुदेशम ने एक सम्मेलन में विजयवाड़ा जा रहे राहुल गांधी, शरद यादव व सुधाकर रेड्डी इत्यादि नेताओं को काले झंडे दिखाए। गोया ऐसा करके श्री नायडू ने अपनी मोदी भक्ति का पक्का सबूत दे दिया।
राष्ट्रपति चुनाव में कौन जीतेगा यह अनुमान अपनी जगह पर है। फिलहाल टीकाकार यह खोजने में लगे हैं कि दोनों तरफ से उम्मीदवार कौन होंगे। संयुक्त विपक्ष की ओर से अनेक नाम चले। इनमें सबसे पहले नाम आया गोपालकृष्ण गांधी का। उल्लेखनीय है कि गोपाल गांधी महात्मा गांधी के पौत्र व उनके छोटे बेटे देवदास गांधी के सबसे छोटे बेटे आईएएस अधिकारी रहे हैं। दक्षिण अफ्रीका, नार्वे व श्रीलंका में उन्होंने भारत के राजदूत/उच्चायुक्त के तौर पर प्रतिष्ठापूर्वक जिम्मेदारी निभाई है। वे पश्चिम बंगाल के राज्यपाल रहे जहां उनका काम करने का तरीका लीक से एकदम हटकर था। यद्यपि उन्होंने संविधान के दायरे में रहकर ही काम किया और वाममोर्चे की सरकार को ऐसी कोई असुविधा नहीं होने दी जिसकी वे शिकायत करते। गोपाल गांधी एक जाने-माने लेखक भी हैं। विक्रम सेठ के विश्वप्रसिद्ध उपन्यास 'अ सूटेबल बॉय’ का हिन्दी अनुवाद उन्होंने 'कोई अच्छा सा लड़का’ शीर्षक से किया। यह भी स्मरण रहे कि वे राजाजी याने चक्रवर्ती राजगोपालाचारी के नाती हैं। एक प्रखर बौद्धिक-सम्पन्न चेतना व्यक्ति जिसे दीर्घ प्रशासनिक अनुभव है, जो अपनी सादगी और ईमानदारी के लिए जाना जाता है, जिसे संविधान और संवैधानिक परिपाटी का भलीभांति ज्ञान है और जो उत्तर-दक्षिण-पूर्व-पश्चिम चारों के बीच सेतु हो सकता हो, उसे उम्मीदवार बनाना एक बेहतर पहल हो सकती थी।
इस दृष्टि से सोचें तो 2002 में कैप्टन डॉ. लक्ष्मी सहगल भी एक अत्यंत सम्मानित उम्मीदवार थीं। वे नेताजी द्वारा स्थापित आज़ाद हिन्द फौज की रानी झांसी बिग्रेड की कमांडर थीं। आज़ादी की लड़ाई में भाग लेने के बाद एक वामपंथी सामाजिक कार्यकर्ता और ममतामयी डॉक्टर के रूप में उन्होंने प्रतिष्ठा पाई थी। दक्षिण भारतीय होकर भी उनका जीवन उत्तर प्रदेश में बीता, नेताजी का प्रभामंडल उनके साथ था, फिर भी वे डॉक्टर एपीजे अब्दुल कलाम से चुनाव हार गई थीं। जबकि कलाम साहब का कोई राजनीतिक अनुभव नहीं था। यह अलग बात है कि राष्ट्रपति बनने के बाद उन्होंने अपनी सादगीपूर्ण जीवन शैली और जनता से घुलमिल जाने और खासकर बच्चों से संवाद स्थापित करने के कारण लोकप्रियता और समादर पाया। इस अनुभव के परिदृश्य में देखें तो गोपालकृष्ण गांधी के उम्मीदवार बनने की कोई सूरत फिलहाल नज़र नहीं आती। वे अपने लिखने-पढ़ने में मगन हैं और इस पद के लिए संभवत: अनिच्छा भी जता चुके हैं।
संयुक्त विपक्ष की ओर से दूसरा काबिलेगौर नाम शरद पवार का है। सुना है कि वे भी राष्ट्रपति पद के इच्छुक नही हैं। संभव है कि वे पद्मविभूषण का सम्मान पाकर संतोष अनुभव कर रहे हों। यह भी उतना ही संभव है कि वे अपने पत्ते इतनी जल्दी न खोलना चाहते हों। शरद पवार अनुभवी राजनेता हैं और हर तरह के दांव-पेंच जानते हैं। इसलिए वे एक जबरदस्त उम्मीदवार साबित हो सकते हैं। हमें लगता है कि सोनिया गांधी को भी उनके नाम पर कोई आपत्ति नहीं होगी। आखिरकार वे यूपीए सरकार में दस साल तक मंत्री थे। शरद पवार इसी समय कांग्रेस में प्रधानमंत्री पद के दावेदार थे। ऐसा माना जाता है कि अपनी राजनीतिक सूझबूझ एवं साधन-सम्पन्नता के बल पर पवार साहब तमिलनाडु, आंध्र और उड़ीसा की उन पार्टियों और मतदाताओं को अपने साथ ला सकते हैं जिनकी रुझान भाजपा के साथ जाने में हो। यही नहीं, शिवसेना भी मराठी मानुस के नाम पर उनका समर्थन करने से पीछे नहीं हटेगी। पूर्व मुख्यमंत्री और पूर्व केन्द्रीय मंत्री होने के नाते शरद पवार प्रशासनिक अनुभवों के धनी हैं तथा संविधान को भलीभांति समझते हैं। वैदेशिक मामलों में भी उनका अध्ययन पर्याप्त है।
जदयू के पूर्व अध्यक्ष शरद यादव का नाम भी संयुक्त विपक्ष के प्रत्याशी के रूप में चल रहा है। यह संयोग है कि जो शरद यादव 1974 के लोकसभा उपचुनाव में कांग्रेस-विरोधी संयुक्त विपक्ष के उम्मीदवार बनकर जबलपुर से लोकसभा में पहुंचे थे, आज कांग्रेस के साथ संयुक्त विपक्ष के उम्मीदवार के रूप में उनका नाम उभरा है। शरद यादव मूलत: कांग्रेस-समाजवादी पृष्ठभूमि के हैं। वे आज देश के संसद सदस्यों में सबसे वरिष्ठों में गिने जाते हैं। उनका संसदीय ज्ञान विशद है। वे प्रारंभ से ही किसानों, मजदूरों, हाशिए के लोगों और युवाओं के अधिकारों के लिए लड़ते रहे हैं। डॉक्टर लोहिया की शिष्य परंपरा में उन्होंने राजनीतिक दांवपेंच यदि जॉर्ज फर्नांडीस से सीखें, तो किशन पटनायक और मधु लिमये से उन्होंने राजनीति के नैतिक और बौद्धिक पक्ष की भी शिक्षा ग्रहण की। वैसे वे चौधरी चरणसिंह के प्रति अत्यधिक सम्मान का भाव रखते हैं। उधर कुछ वर्षों में कांग्रेस के साथ नीतिगत मुद्दों पर उनकी नजदीकियां बढ़ीं। अपने सुदीर्घ संसदीय अनुभव, सादगीपूर्ण जीवन, स्पष्टवादिता व वंचित समाज के प्रति गहरी सहानुभूति के चलते वे एक आदर्श उम्मीदवार हो सकते हैं और चुन लिए गए तो एक अच्छे राष्ट्रपति भी सिद्ध होंगे, ऐसा मेरा सोचना है। देखना है कि विपक्ष इन तीन में से किसको चुनता है या अचानक कोई चौथा नाम आ जाएगा।
एनडीए की ओर से उम्मीदवार कौन होगा, यह शायद भीतर-भीतर तय हो चुका होगा, लेकिन जैसा कि एक वरिष्ठ राजनेता ने बात-बात में मुझसे कहा कि भाजपा से कौन प्रत्याशी बनेगा यह बात नरेन्द्र मोदी के पेट में है और उसे अभी कोई नहीं निकलवा सकता। फिर भी अनुमान तो लग ही रहे हैं। सुमित्रा महाजन का नाम इस सूची में सर्वोपरि है। किन्तु नाम सुषमा स्वराज, राजनाथ सिंह, वेंकैया नायडू, नजमा हेपतुल्ला इत्यादि के भी लिए जा रहे हैं। नजमा हेपतुल्ला एक अच्छा नाम हो सकता था, लेकिन मणिपुर जैसे छोटे राज्य का राज्यपाल बनाकर भेज देने के बाद यह संभावना समाप्त हो गई लगती है। वेंकैया नायडू पार्टी अध्यक्ष रहे हैं, दक्षिण भारत की नुमाइंदगी करते हैं, वरिष्ठ मंत्री हैं- ये सारी बातें उनके पक्ष में जाती हैं। भाजपा में सबसे अनुभवी राजनेता सुषमा स्वराज हैं, जिन्होंने संघ के प्रति पूरी तरह समर्पित होने के बावजूद विपक्ष से भी प्रशंसा पाई है। सुमित्रा महाजन सातवीं बार लोकसभा की सदस्य हैं तथा उनकी अपनी कोई महत्वाकांक्षा नहीं है। इस नाते वे मोदी जी की पसंद हो सकती हैं। संघ का विश्वास तो उन पर बना हुआ है ही। इन तमाम नामों के अलावा पक्ष और विपक्ष दोनों मिलकर क्या कोई एक सर्वस्वीकार्य उम्मीदवार प्रस्तावित कर सकते हैं, यह प्रश्न भी अभी खारिज नहीं हुआ है। प्रतीक्षा करिए और देखिए आगे क्या होता है।
देशबंधु में 08 जून 2017 को प्रकाशित
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