सब कुछ अपनी रफ्तार से चलते रहता है, फिर कोई ऐसी घटना घट जाती है, जिससे पूरा देश दहल उठता है। कुछ दिन तक बड़ी-बड़ी बातें होती हैं और फिर जीवन अपनी पटरी पर लौट आता है। देश में आतंकवाद को लेकर कुल मिलाकर दृश्य कुछ इस तरह का है। न तो हम समस्या की गंभीरता को पहचान पा रहे हैं और न उसकी जड़ में जाने की कोई ईमानदार कोशिश ही नजर आती है। अभी पिछले हफ्ते हैदराबाद में बम विस्फोट हुए जिसमें सोलह लोग मारे गए। यह त्रासद वाकया क्यों हुआ, कैसे हुआ, किसने किया, इसके लिए सबके अपने-अपने जवाब हैं। अधिकतर लोग पाकिस्तान को और उसके साथ देश के भीतर मुसलमानों को दोषी ठहराने में एक पल भी जाया नहीं करते। पुलिस की अपनी सोच भी इसी तरह की है। आनन-फानन में कुछ अल्पसंख्यक युवाओं को गिरफ्तार कर अपराधियों को पकड़ने का दावा कर लिया जाता है। (और जैसा कि हैदराबाद में हुआ, एक मृत व्यक्ति को ही आतंकी बता दिया गया)
काश कि बात इतनी सीधी सरल होती! मुझे हैरत इस पर है कि हाल के वर्षों में देश में आतंकवाद की समस्या को लेकर जो नए तथ्य सामने आए हैं उन पर गौर करने के बजाय पुरानी धारणाओं को ही दोहरा दिया जाता है। दुर्भाग्य की बात है कि अपने पूर्वाग्रहों के चलते पुलिस ने कितने ही निर्दोष अल्पसंख्यक नौजवानों को ऐसी आतंकी घटनाओं का आरोपी बनाकर उन्हें जेल में ठूंस दिया और उनके जीवन के कीमती वर्ष जेल में ही बीत गए। वे अतत: भले ही निर्दोष साबित हुए हों लेकिन ये गुजरे वर्ष उन्हें कौन लौटा सकता है?
इधर एक चिंताजनक प्रवृत्ति और पनप रही है कि निर्धारित कानूनी प्रक्रिया का पालन और उसकी प्रतीक्षा करने का धैर्य चुकते जा रहा है। देश में सौ-पचास लोगों का एक विचित्र समूह तैयार हो गया है, जिसके सदस्य छोटे पर्दे पर स्वयं को रक्षा विशेषज्ञ घोषित करते हुए ऐसी किसी भी घटना पर तुरंत फैसला करने बैठ जाते हैं। यह कतई आवश्यक नहीं है कि एक रिटायर्ड फौजी या एक रिटायर्ड पुलिस अफसर रक्षा विशेषज्ञ भी हो। ठीक वैसे ही जैसे कि कोई शिक्षक शिक्षाविद् हो या साहित्य का कोई अध्यापक अनिवार्य रूप से साहित्यकार हो। इन कथित रक्षा विशेषज्ञों की अपनी राजनीतिक पृष्ठभूमि और अपनी राजनीतिक अथवा आर्थिक स्वार्थ भी हैं जिनका खुलासा करने की ईमानदारी वे शायद ही कभी बरतते हों। शायद इसीलिए कुछ दिन पहले सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश अल्तमस कबीर ने देश में बढ़ रहे मीडिया ट्रायल की प्रवृत्ति पर चिंता जाहिर की है।
देश में आतंकवाद और आतंकी घटनाओं का विश्लेषण करने में पर्याप्त सावधानी और संतुलन बरतना आवश्यक है। एक बुनियादी तथ्य सदैव याद रखना जरूरी है कि पाकिस्तान का निर्माण भले ही धार्मिक आधार पर हुआ हो, लेकिन भारत अपनी स्वतंत्रता के पहले दिन से ही एक धर्मनिरपेक्ष देश रहा है और उस दिन भी ऐसे करोड़ों मुसलमान थे, जिन्होंने अपना वतन छोड़कर पाकिस्तान जाना स्वीकार नहीं किया था। इसके बाद इन पैंसठ सालों में ऐसे इक्के-दुक्के प्रसंग ही होंगे जिनमें किसी भारतीय मुसलमान पर देशद्रोह का आरोप सिध्द हुआ हो!
हम यह कैसे भूल सकते हैं कि अक्टूबर 1947 में पाकिस्तानी सेना के सहयोग से जब काश्मीर पर कबाईली हमला हुआ था तब इस देश के लिए अपनी जान देने वाला पहला व्यक्ति काश्मीर का ही एक मुस्लिम नौजवान था- बारामूला का शहीद मकबूल शेरवानी। भारत-पाक के बीच इस पहली लड़ाई में भारतीय सेना के एक जांबाज अफसर की भी शहादत हुई थी जिनका नाम ब्रिगेडियर उस्मानी था। इस तरह के कितने ही दृष्टांत हैं जो हमारे मध्यमवर्गीय समाज में पनप रहे पूर्वाग्रह को दूर करने के लिए जनता के सामने रखे और याद दिलाए जाना चाहिए। तभी जाहिर होगा कि देश में ऐसी कुछ शक्तियां हैं जिन्हें भारत की धर्मनिरपेक्षता रास नहीं आती और वे सारे प्रकरणों और तर्कों को झुठलाते हुए किसी न किसी तरह पाकिस्तान की ही तर्ज पर भारत को एक धर्म-आधारित राय बना देना चाहती हैं।
यूं तो विश्व के अनेक देशों में इस्लाम, ईसाइयत, बौध्द और यहूदी धर्म को राजकीय मान्यता मिली हुई है, लेकिन इजराइल जैसे अपवाद को छोड़कर बाकी में व्यवहारिक जीवन में धर्मनिरपेक्षता के सिध्दांत का पालन किया जाता है। आज के समय में जब देशों के बीच परस्पर संपर्कों की सघनता और गति बढ़ रही है, तब राजकाज और व्यक्ति के धार्मिक विश्वास के बीच यह अंतर बनाए रखना ही सबके लिए श्रेयस्कर है। देखना कठिन नहीं है कि जिन देशों में ऐसा नहीं हो रहा है, वे फिरकापरस्ती व आंतरिक अशांति के चलते वांछित प्रगति हासिल नहीं कर पा रहे हैं।
पाकिस्तान का ही उदाहरण लें। जिस धार्मिक विश्वास पर इस नए राष्ट्र का गठन हुआ उससे क्या हासिल हुआ? राजनीतिक स्वायत्तता और भाषायी अस्मिता के नाम पर पाकिस्तान टूटा और बंगलादेश बनकर रहा। पाकिस्तान में न सिर्फ अल्पसंख्यक हिन्दुओं और ईसाइयों को प्रताड़नाएं झेलनी पड़ीं, इस्लाम के ही अन्य समुदायों यथा शिया, अहमदिया आदि पर भी लगातार हमले हो रहे हैं। जिस दिन हैदराबाद में बम विस्फोट हुआ, उसके एक-दो दिन पहले ही क्वेटा में शिया समुदाय के कोई सौ लोग ऐसे ही हमले में मारे गए। इस्लाम की ही विभिन्न शाखाओं के बीच यह झगड़ा अनेक अरब देशों में भी देखने मिल रहा है। जाहिर है कि ऐसी अशांति के चलते किसी भी देश का भला नहीं होना है।
बीसवीं सदी में साम्रायवादी शक्तियों की प्रेरणा से धार्मिक आधार पर दो देश बने- एक पाकिस्तान और दूसरा इजरायल। पाकिस्तान का हाल सबके सामने है। इजरायल की पीठ पर अमेरिका की कारपोरेट शक्तियों का हाथ है, इसलिए वह मनमानी करते जा रहा है। भारत ने लंबे समय तक इजराइल के साथ कूटनीतिक संबंध नहीं रखे, बल्कि पश्चिम एशिया में इजरायल देशों की दादागिरी का हमने विरोध ही किया और अरब देशों के साथ दोस्ताना संबंध कायम किए। इसका फायदा हमें अरब देशों से तेल की आपूर्ति और खाड़ी देशों में रोजगार के रूप में मिला। लेकिन हाल के वर्षों में हमने अपनी ही समयसिध्द नीति के प्रति बेरुखी अपना ली। इसका कोई असर हैदराबाद जैसी घटनाओं पर तो नहीं पड़ा, लेकिन यह स्वीकार करने में संकोच नहीं करना चाहिए कि बाबरी मस्जिद विध्वंस के कारण देश के भीतर मुसलमानों के मन में असुरक्षा का भाव पैदा हुआ है और पश्चिम एशिया में मित्र राष्ट्रों के बीच भी हमारी साख में कमी आई है। काश्मीर को लेकर भी अखण्ड भारत का सपना देखने वाली ताकतों ने जो उध्दत रुख लगातार अपनाया है उसके कारण काश्मीर घाटी में स्वयं को दोयम दर्जे का नागरिक माने जाने की पीड़ा व असुरक्षा का भाव पनपा है। हमारे राजनीतिक दल तात्कालिक लाभ के लिए नीतियां बनाना और बयानबाजी बंद कर इन मसलों पर गंभीर मनन कर समन्वित नीति बनाने राजी हो जाएं, तभी भारत की आंतरिक सुरक्षा सौ फीसदी सुनिश्चित हो सकेगी। अन्यथा हवा में तीर चलाने से कुछ आना-जाना नहीं है।
देशबंधु में 2 फरवरी 2013 को प्रकाशित
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